हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

मेरा बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं उस युवक का कोई परिचय नहीं दे सकता, क्योंकि, मैं उस समय उसकी कुछ भी पूछताछ नहीं कर सका था। पाँच-छ: महीने बाद, पूछने का जब सुयोग और शक्ति मिली तब, मालूम हुआ कि शीतला के रोग से पीड़ित होकर इस बीच में ही वह इस लोक से कूच कर गया है। उसके सम्बन्ध में पूछने पर इतना ही मालूम हो सका कि वह पूर्वीय बंगाल का था और पन्द्रह रुपये महीने वेतन पर स्टेशन में नौकरी करता था। कुछ देर ठहरकर अपना सैकड़ों जगह से फटा हुआ बिछौना लाकर उसने हाजिर किया और वह बार-बार कहने लगा कि मैं अपने हाथ से पकाकर खाता हूँ और दूसरे के घर रहता हूँ। दोपहर के समय एक कटोरा गरम दूध लाकर उसने जबरन पिलाकर कहा, ''डरने की बात नहीं है, आप अच्छे हो जाँयगे। परन्तु आत्मीय बन्धु-बान्धव आदि किसी को भी यदि खबर देनी हो तो, ठिकाना बताने पर, मैं तार दे सकता हूँ।''
उस समय मैं खूब होश में था। इसलिए यह भी अच्छी तरह समझा था कि ऐसी अवस्था बहुत देर तक नहीं रहेगी। इस तरह का ज्वर यदि और भी 5-6 घण्टे स्थायी बना रहा तो होश अवश्य गँवाना पड़ेगा। अतएव, जो कुछ करना है, वह इतने समय के भीतर न करने पर, फिर नहीं किया जायेगा।
सो तो ठीक, परन्तु खबर देने के प्रस्ताव पर मैं सोच-विचार में पड़ गया। क्यों, सो खोलकर बताने की जरूरत नहीं। परन्तु सोचा, गरीब का पैसा टेलीग्राम में अपव्यय करने से लाभ ही क्या है?
शाम के बाद वह भद्र पुरुष अपनी डयूटी से अवकाश लेकर एक घड़ा पानी और एक किरासिन की डिब्बी लेकर उपस्थित हुआ, उस समय ज्वर की यन्त्रणा से मस्तक क्रमश: बिगड़ रहा था। उसे पास में बुलाकर मैंने कहा, ''जब तक मुझे होश है तब तक बीच-बीच में आकर देख जाना; इसके बाद जो होना हो सो हो, आप और कोई कष्ट न करना।''
वह अत्यन्त मुँह-चोर प्रकृति का भद्र पुरुष था। बात बनाकर कहने की उसमें क्षमता नहीं थी। जवाब में केवल 'नहीं' कहकर ही वह चुप हो रहा। मैंने कहा, ''आपने चाहा था कि किसी को खबर करा दूँ। मैं सन्यासी आदमी हूँ, वास्तव में मेरा कोई भी नहीं। फिर भी पटने में प्यारी बाई के ठिकाने पर यदि एक पोस्ट कार्ड लिख दोगे कि श्रीकान्त आरा स्टेशन के बाहर एक टीनशेड के नीचे मरणापन्न होकर पड़ा है तो...''
वह युवक अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, ''मैं अभी दिए देता हूँ।'' चिट्ठी और टेलीग्राम दोनों ही भेजे देता हूँ'', इतना कहकर वह उठकर चला गया। मैंने मन ही मन कहा, 'भगवान, वह खबर पा जाय!'
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होश आने पर पहले तो मैं अपनी अवस्था अच्छी तरह समझ भी न सका। मस्तक पर हाथ ले जाकर अनुभव किया कि यह तो आईस-बेग है। ऑंखें मिलमिलाकर देखा कि मकान के भीतर एक खाट पर पड़ा हूँ। सामने स्टूल के ऊपर एक दीपक के पास दो-तीन दवा की शीशियाँ और उसके पास एक रस्सी की खाट पर कोई मनुष्य लाल चेक का रैपर शरीर पर लपेटे हुए सो रहा है। बहुत देर तक मैं कुछ भी याद न कर सका। इसके बाद, एक-एक करके, जान पड़ने लगा, मानो नींद में कितने ही स्वप्न देखे हैं। अनेक लोगों का आना-जाना उठाकर मुझे डोली में डालना, मस्तक उठाकर दवाई पिलाना, ऐसे कितने ही व्यापार दिखाई पड़े।
कुछ देर बाद, जब वह मनुष्य उठकर बैठ गया तब, देखा कि कोई बंगाली सज्जन हैं, उम्र; अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं। उस समय सिरहाने के निकट से मृदु-स्वर में जिसने उसको सम्बोधन किया उसका स्वर मैंने पहिचान लिया।
प्यारी ने अति मृदु कण्ठ से पुकारा, ''बंकू, बरफ को एक बार और बदल क्यों नहीं दिया बेटा?''
लड़का बोला, ''बदले देता हूँ, तुम थोड़ा-सा सो लो न माँ। डॉक्टर बाबू जब कह गये हैं कि शीतला नहीं है, तब डरने की कोई बात नहीं है माँ।''
प्यारी बोली, ''अरे भइया, डॉक्टर के कहने से, कि डर की कोई बात नहीं हैं, औरतों का भय कहीं जाता है? तुझे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है बंकू, तू तो बरफ बदल कर सो जा- फिर रात को मत जागना।''
बंकू ने आकर बरफ बदल दिया और लौटकर वह फिर उसी खटिया पर जा पड़ा। थोड़ी ही देर बाद जब उसकी नाक बजने लगी तब मैंने धीरे से पुकारा ''प्यारी!''
प्यारी ने मुँह के ऊपर झुक पड़कर सिर पर के जलबिन्दु ऑंचल से पोंछते हुए कहा, ''मुझे क्या तुम चीन्ह सकते हो? अब कैसे हो? कल...''
''अच्छा हूँ। कब आयीं? यह क्या आरा है?''
''हाँ आरा ही है। कल हम लोग घर चलेंगे।''
''कहाँ?''
''पटने। सिवाय अपने घर ले जाने के, अभी क्या और कहीं, मैं तुम्हें छोड़ जा सकती हँ?''
''यह लड़का कौन है, राजलक्ष्मी?''
''मेरी सौत का लड़का है। किन्तु, बंकू मेरे पेट का लड़का-सा ही है। मेरे पास रहकर ही पटना कॉलेज में पढ़ता है। आज अब और बात मत करो। सो जाओ- कल सब कहूँगी।'' इतना कहकर उसने मेरे मुँह पर हथेली रखकर मेरा मुँह बन्द कर दिया।
मैं हाथ बढ़ाकर राजलक्ष्मी के दाहिने हाथ को मुट्टी में लेकर करवट बदल कर सो रहा।

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जिस ज्वर से पीड़ित होकर मैं बेहोश हो शय्यागत हो गया था वह शीतला का नहीं था, कुछ और ही था। डॉक्टरी शास्त्र में निश्चय से ही उसका कोई बड़ा भारी कठिन नाम था, परन्तु मुझे वह याद नहीं रहा। खबर पाकर प्यारी, अपने लड़के, दो नौकर और दासी को लेकर, आ उपस्थित हुई। उसी दिन एक ठहरने का स्थान किराये पर लेकर मुझे उसमें स्थानान्तरित कर दिया और शहर के भले-बुरे सब चिकित्सकों को बुलाकर वहाँ इकट्ठा कर लिया। अच्छा ही किया। नहीं तो, और कोई नुकसान चाहे भले ही न होता, परन्तु 'भारतवर्ष' के¹ पाठक-पाठिकाओं के धैर्य की महिमा तो संसार में अविदित ही रह जाती!
सुबह प्यारी ने कहा, ''बंकू, और देरी मत कर बेटा, इसी समय एक सेकण्ड क्लास का डब्बा रिझर्व करा आ। मैं एक क्षण भी इन्हें यहाँ रखने का साहस नहीं कर सकती।''
बंकू की अतृप्त निद्रा उस समय भी उसके दोनों नेत्रों में भर रही थी; उसने उन्हें मूँदे ही मूँदे अव्यक्त स्वर में जवाब दिया, ''तुम पगला गयी हो माँ ऐसी अवस्था में क्या रोगी को यहाँ से वहाँ ले जाया जा सकता है?''
प्यारी ने कुछ हँसकर कहा, ''पहले तू उठ, ऑंख-मुँह पर जल डाल, देखूँ इसके बाद यहाँ-वहाँ ले जाने की बात समझ ली जावेगी। राजा बेटा मेरे, उठ!''
बंकू और कोई उपाय न देख, शय्या त्याग, मुँह हाथ धो, कपड़े बदल स्टेशन चला गया। उस समय भी बहुत जल्दी थी- घर में और कोई नहीं था! धीरे-धीरे पुकारा, ''प्यारी!'' मेरे सिरहाने की ओर एक खटिया सटकर बिछी हुई थी। उसी पर थकावट के कारण, शायद इसी बीच, वह कुछ ऑंखें मूँदकर लेट गयी थी। चटपट उठ बैठी और मेरे मुँह पर झुक गयी। कोमल कण्ठ से उसने पूछा, ''नींद खुल गयी?''
''मैं तो जाग ही रहा हूँ।'' प्यारी ने उत्कण्ठित यत्न के साथ मेरे सिर और कपाल पर हाथ फेरते-फेरते कहा, ''ज्वर तो इस समय बहुत कम है। ऑंखें मूँद कर थोड़ा-सा सोने की चेष्टा क्यों नहीं करते?''
1 श्रीकान्त का यह भ्रमण-वृत्तान्त पहले बंगाल के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'भारतवर्ष' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था।

''सो तो मैं बराबर ही करता हूँ प्यारी, आज ज्वर को कितने दिन हुए?''
''तेरह दिन'' कहकर उसने बड़ी बूढ़ी पुरखिन की तरह गम्भीर भाव से कहा, ''देखो, लड़के-बालों के सामने मुझे यह नाम लेकर मत पुकारा करो। बहुत दिनों तक 'लक्ष्मी' कहकर पुकारा किये हो, वही नाम लेकर क्यों नहीं पुकारते?''
दो दिन से मैं खूब होश में था। मुझे भी सब बातें याद आ गयी थीं। मैंने कहा, ''अच्छा।'' इसके बाद, जिस बात के कहने के लिए बुलाया था उसे मन ही मन अच्छी तरह सजाकर कहा, ''मुझे ले जाने की चेष्टा कर रही हो, किन्तु, मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं, अब और नहीं देना चाहता।''
''तो फिर क्या करना चाहते हो?''
''मैं सोचता हूँ, अब जैसा मैं हूँ, उससे जान पड़ता है कि तीन-चार दिन में ही, अच्छा हो जाऊँगा! तुम लोग चाहे तो इतने दिन और ठहर कर घर चले जाओ।''
''तब तुम क्या करोगे, सुनूँ तो?''
''जो कुछ होना होगा सो हो जायेगा।''
''सो हो जायेगा'' कहकर प्यारी कुछ हँस दी। इसके बाद सामने आकर खाट पर एक ओर बैठकर, मेरे मुँह की ओर देखकर, क्षण-भर चुप रहकर फिर कुछ हँसकर बोली, ''तीन-चार दिन में तो नहीं, दस-बारह दिन में यह रोग चला जायेगा, यह मैं जानती हूँ; परन्तु असली रोग कितने दिनों में दूर होगा- सो क्या मुझे बता सकते हो?''
''असली रोग और क्या?''
प्यारी ने कहा, ''सोचोगे कुछ, कहोगे कुछ, और-करोगे कुछ, हमेशा से तुम्हें यही एक रोग है। तुम जानते हो कि एक महीने के पहले मैं तुम्हें ऑंखों की ओट न कर सकूँगी- फिर भी कहोगे 'तुम्हें कष्ट दिया, तुम जाओ'; अरे ओ दयामय! मेरा यदि तुम्हें इतना अधिक दर्द है तो, और चाहे जो होओ पर- सन्यासी तो तुम नहीं हो- सन्यासी बनकर यह क्या हंगामा खड़ा किया है! आकर देखती हूँ, तो जमीन पर फटी कथरी पर घोर बेहोशी में पड़े हो, धूल-कीचड़ में जटाएँ सन गयी हैं, सारे अंग में रुद्राक्ष की माला है और दोनों हाथों में पीतल के कड़े हैं! मैया री मैया! चेहरा देखकर रोए बिना न रह सकी!'' इतना कहते-कहते उमड़ा हुआ अश्रुजल उसकी दोनों ऑंखों में झलक आया। चटपट उसे हाथ से पोंछकर वह बोली, ''बंकू बोला, ये कौन हैं माँ? मन ही मन बोली- तू बच्चा है, तेरे आगे वह बात क्या कहूँ भइया! ओह, वह दिन भी कैसी विपत्ति का था, भैया री, कैसी शुभ घड़ी पाठशाला में हमारी चार ऑंखें हुई थीं! जो दु:ख तुमने मुझे दिया है, उतना दु:ख दुनिया-भर में किसी ने कभी किसी को नहीं दिया होगा- और न देगा ही। शहर में शीतला दिखाई दी हैं-सबको लेकर अच्छी भली भाग जा सकूँ तो जान में जान आवे।'' इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास छोड़ा।
उसी रात को आरा छोड़ दिया। एक कम उम्र का डॉक्टर अनेक तरह की औषधियाँ लेकर हम लोगों को पटना तक पहुँचाने के लिए साथ गया।
पटना पहुँचकर बारह-तेरह दिन के भीतर ही एक तरह से मैं चंगा हो गया। एक दिन सुबह अकेला प्यारी के मकान के प्रत्येक कमरे में घूम आया। उसका माल-असबाब देखकर मैं कुछ विस्मित हुआ। मैंने इसके पहले वैसा देखा न हो सो बात नहीं थी। चीजें सब अच्छी और कीमती थीं, यह ठीक है; परन्तु इस मारवाड़ी मुहल्ले के बीच, इन सब धनी और अल्पशिक्षित शौकीन मनुष्यों के संसर्ग में, इतनी साधारण चीजों से वह सन्तुष्ट कैसे रहती थी? इसके पहले मैंने इस तरह के जितने घर द्वार देखे थे इनके साथ कहीं किसी भी अंश में इसकी समानता नहीं थी। उनमें अन्दर घुसते ही विचार होता था कि इनमें मनुष्य क्षण-भर भी रहते कैसे होगा? उन मकानों के झाड़-फानूस, चित्र दिवालगीरी, आईना और ग्लास-केसों में आनन्द के बदले आशंका ही उत्पन्न होती थी- सहज श्वास-प्रश्वास तक के लिए भी, मालूम होता था कि अवकाश न मिलेगा। बहुत से लोगों की बहुविधा कामना-साधना की उपहार-राशि इस तरह ठसाठस एक के ऊपर एक भरी हुई नजर आती थी कि देखते ही ऐसा मालूम होता था कि इन अचेतन वस्तुओं के समान ही उनके अचेतन दाता भी मानो इस मकान के भीतर जरा-सी जगह के लिए ऐसी ही भीड़ करके परस्पर एक दूसरे के साथ ठेलमठेल संघर्ष कर रहे हैं। किन्तु, इस मकान के किसी भी कमरे में आवश्यकीय चीजों के अतिरिक्त एक भी फालतू चीज नज़र नहीं आई। और जो भी चीजें नजर आईं वे स्वयं गृहस्वामिनी के काम के लिए लाई गयी हैं, और उसकी निजी इच्छा और अभिरुचि को लाँघकर, और किसी की भी प्रलुब्ध अभिलाषा से अनधिकार-प्रवेश करके जगह छेके नहीं बैठी हैं। यह बात सहज में ही मालूम हो गयी। और भी एक बात ने मेरी दृष्टि को आकर्षित किया। इतनी सुप्रसिद्ध 'बाईजी' के घर में गाने-बजाने का कहीं कोई आयोजन भी नहीं है। इस कमरे, उस कमरे में घूमता हुआ दूसरी मंजिल के एक कोने के कमरे के सामने आकर मैं खड़ा हो गया। यह बाईजी का खुद का शयन-मन्दिर है, यह उसके भीतर झाँकते ही मालूम हो गया। परन्तु मेरी कल्पना के साथ इसका कितना अन्तर था। जो कुछ सोच रक्खा था, उसमें का कुछ भी नहीं था। मेज सफेद पत्थर की थी, दीवालें दूध की तरह सफेद चमचमा रही थीं। कमरे के एक किनारे एक छोटे से तख्त के ऊपर बिस्तर बिछे थे, एक लकड़ी की अरगनी पर कुछ वस्त्र टँके थे और उसके पीछे एक लोहे की आलमारी थी। और कहीं कुछ नहीं था। जूते पहिने हुए अन्दर प्रवेश करने में भी मानो मुझे एक तरह के संकोच का अनुभव हुआ, उन्हें चौखट के बाहर खोलकर मैंने भीतर प्रवेश किया। मालूम होता है, थकावट के कारण ही उसकी शय्या पर मैं जाकर बैठ गया था। यदि कमरे में और कोई वस्तु बैठने के लिए होती तो मैं उसी पर बैठता। सामने की ओर खुली हुई खिड़की को ढँके हुए एक बड़ा नीम का पेड़ था। उसी में से छन-छनकर हवा आ रही थी। उस ओर देखता हुआ मैं हठात् जैसे कुछ अन्यमनस्क-सा हो गया था। एक मीठी आवाज से चौंककर मैंने देखा, गुन-गुन गाना गाती-गाती प्यारी कमरे में घुस आई है। वह गंगाजी में स्नान करने गयी थी और अब वहाँ से लौटकर अपने कमरे में गीले कपड़े उतारने आई है। उसने इस ओर एक दफा भी नहीं देखा है। उसके सीधे अरगनी के पास जाकर सूखे वस्त्र पर हाथ डालते ही मैंने व्यक्त होकर आवाज दी, ''घाट पर कपड़े लेकर क्यों नहीं जातीं?''
प्यारी ने चौंककर हँस दिया। बोली, ''ऐं! चोर की तरह मेरे कमरे में घुसे बैठे हो? नहीं नहीं, बैठे रहो, बैठे रहो-अजाओ मत। मैं उस कमरे में से कपड़े बदल आती हूँ।'' इतना कहकर वह हलके पैरों गरद की धोती हाथ में लेकर बाहर चली गयी।
पाँचेक मिनट के बाद वह प्रसन्न मुख से लौट आई और हँसकर बोली, ''मेरे कमरे में तो कुछ भी नहीं है; तब क्या चुराने आए हो, बोलो तो? मुझे तो नहीं?'' मैं बोला, ''तुमने क्या मुझे ऐसा अकृतज्ञ समझ रक्खा है? तुमने मेरे लिए इतना किया, और अन्त में तुम्हारी ही चोरी करूँ, मैं इतना लोभी नहीं हूँ।''
प्यारी का मुँह मलीन हो गया। बोलते समय मैंने नहीं सोचा था कि इस बात से उसे व्यथा पहुँचेगी। उसे व्यथा पहुँचाने की न तो मेरी इच्छा ही थी, और न ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही था। खास तौर से तब जब कि मैंने दो-एक दिन में वहाँ से प्रस्थान करने का संकल्प कर लिया था। बिगड़ी हुई बात को किसी तरह बना लेने की गरज से मैंने जबर्दस्ती हँसकर कहा, ''अपनी वस्तु की भी क्या कोई चोरी करने जाता है? तुममें इतनी भी बुद्धि नहीं है?''
किन्तु इतने सहज में उसे भुलाया न जा सका। उसने मलीन मुख से कहा, ''तुम्हें और अधिक कृतज्ञ होने की जरूरत नहीं; दया करके तुमने जो उस समय खबर लगा दी, मेरे लिए वही बहुत है।''
उसके शुद्ध स्नात, प्रसन्न हँसते चेहरे को इस धूप से उज्ज्वल प्रभात-काल में ही मैंने म्लान कर दिया, यह देखकर हृदय में एक वेदना सी जाग उठी। उस थोड़ी-सी हँसी के भीतर जो एक माधुर्य था उसके नष्ट होते ही हानि सुस्पष्ट हो उठी। उसे वापिस लौटाने की आशा से मैं उसी क्षण अनुतप्त स्वर में बोल उठा, ''लक्ष्मी, तुम्हारे निकट तो कुछ भी छिपा नहीं है- सब कुछ तो जानती हो। तुम वहाँ नहीं गयी होती तो मुझे उस धूल और रेती के ऊपर ही मर जाना पड़ता, कोई उतनी दूर जाकर एक दफा अस्पताल ले जाने की भी चेष्टा न करता। वह जो तुमने पत्र में लिखा था कि ''सुख के दिनों में न सही तो दु:ख के दिनों में ही मुझे याद कर लेना'' यह बात मुझे मेरी आयु बाकी थी इसीलिए याद आ गयी, यह मैं इस समय अच्छी तरह अनुभव कर रहा हूँ।''
''कर रहे हो?''
''निश्चय से।''
''तो फिर कहो कि मेरे ही लिए तुमने पुन: प्राण पाए हैं?''
''इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है।''
''तो क्या मैं उन पर दावा कर सकती हूँ, बोलो?''
''कर सकती हो। परन्तु मेरे प्राण इतने तुच्छ हैं कि उन पर तुम्हारा लोभ होना ही उचित नहीं है।''
प्यारी ने इतनी देर बाद कुछ हँसकर कहा, ''फिर भी गनीमत है कि अपने मूल्य को इतने दिनों में तुमने समझ तो लिया।'' किन्तु दूसरे ही क्षण गम्भीर होकर कहा, ''दिल्लगी रहने दो, बीमारी तो एक तरह से अच्छी हो गयी, अब जाने की कब सोच रहे हो?''
उसके प्रश्न को अच्छी तरह न समझ सका। मैंने गम्भीर होकर कहा, ''कहीं जाने की तो मुझे जल्दी है नहीं। इसलिए यही सोचता हूँ, और भी कुछ दिन ठहर जाऊँ।''
प्यारी बोली, ''किन्तु मेरा लड़का आजकल अक्सर बाँकीपुर से आया करता है। बहुत दिन ठहारोगे तो शायद वह कुछ खयाल करने लगे।''
मैंने कहा, ''करने दो न। उससे डरकर तो कुछ तुम चलती नहीं? ऐसा आराम छोड़कर यहाँ से शीघ्र ही तो मैं कहीं जाता नहीं।''
प्यारी ने विषण्ण मुख से कहा, ''यह भी कहीं हो सकता है?'' इतना कहकर वह एकाएक वहाँ से उठकर चल दी।
दूसरे दिन शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पश्चिम की तरफ से बरामदे में एक इजीचेअर पर लेटा हुआ सूर्यास्त देख रहा था। इसी समय बंकू आ उपस्थित हुआ। अभी तक उसके साथ अच्छी तरह बातचीत करने का सुयोग नहीं मिला था। एक चेअर पर बैठने का इशारा करके मैं बोला, ''बंकू, क्या पढ़ते हो तुम?''
लड़का अत्यन्त सीधा-सादा भलामानुस था। बोला, ''गये साल मैंने एन्टे्रन्स पास किया है।''
''तो अब बाँकीपुर कॉलेज में पढ़ते हो?''
''जी हाँ।''
''तुम कितने भाई-बहिन हो?''
''भाई और नहीं हैं। चार बहिनें हैं।''
''उनका ब्याह हो गया?''
''जी हाँ, मैंने ही उन्हें ब्याह दिया है।''
''तुम्हारी अपनी माँ जीती हैं?''
''जी हाँ, वे देश के ही मकान में रहती हैं।''
''तुम्हारी ये माँ, कभी तुम्हारे देश के मकान में गयी हैं?''
''बहुत बार, अभी तो पाँच-छ: ही महीने हुए, आई हैं।''
''इससे देश में कोई गड़बड़ नहीं मचती?''
बंकू कुछ देर चुप रहकर बोला, ''मचती रहे हम लोगों को 'जाति से अलग' कर रक्खा है, सो इससे कुछ हम अपनी माँ को छोड़ थोड़े ही सकते हैं? और ऐसी माँ भी कितने लोगों को नसीब होती है!''
मुँह में आया कि पूछूँ, ''माँ के ऊपर इतनी भक्ति कैसे हुई?'' किन्तु दबा गया।
बंकू कहने लगा, ''अच्छा आप ही कहिए, गाने-बजाने में क्या कोई दोष है? हमारी माँ केवल वही करती हैं। कुछ पराई निन्दा, पराई चर्चा तो करती नहीं? बल्कि, गाँव में जो लोग हमारे परम शत्रु हैं उन्हीं के आठ दस लड़कों को पढ़ाई-लिखाई का खर्च देती हैं; शीत काल में कितने ही लोगों को कपड़े देती हैं, कम्बल देती हैं, यह क्या बुरा करती हैं?''
मैंने कहा, ''नहीं, वह तो बहुत ही भला काम है।''
बंकू ने उत्साहित होकर कहा, ''तब कहिए, हमारे गाँव के समान पाजी गाँव क्या और कोई है? यही देखो न उस वर्ष ईंटें पकाकर हम लोगों ने मकान बनवाया। गाँव में पानी की भयानक तकलीफ देखकर माँ मेरी माँ से बोलीं, जीजी, और कुछ रुपये खर्च करके ईंटें पकाने के भट्ठे की जगह ही एक तालाब ही न बनवा दिया जाय? तीन-चार हजार रुपये खर्च करके तालाब बनवा दिया। घाट भी बँधवा दिया। किन्तु, गाँव के लोगों ने माँ को उस तालाब की प्रतिष्ठा न करने दी। ऐसा बढ़िया पानी- किन्तु कोई पीएगा नहीं, कोई छुएगा नहीं, ऐसे बदजात आदमी हैं। केवल इस ईष्या के मारे सब मरे जाते हैं कि हमारा मकान पक्का बन गया। आप समझे न?''
मैंने अचरज से कहा, ''कहते क्या हो जी, पानी का ऐसा दारुण कष्ट भोगा करेंगे, फिर भी ऐसे पानी का व्यवहार न करेंगे?''
बंकू ने जरा-सा हँसकर कहा, ''वही तो; किन्तु वह क्या अधिक समय चल सकता है? पहले साल तो डर के मारे किसी ने पानी छुआ नहीं, परन्तु अब छोटी जाति के सभी लोग लेते हैं और पीते हैं- ब्राह्मण और कायस्थ भी चैत्र-वैशाख के महीनों में लुक-छिपकर पानी ले जाते हैं- परन्तु फिर भी उन्होंने तालाब की प्रतिष्ठा नहीं करने दी। यह क्या माँ के लिए कम कष्ट की बात है?''
मैंने कहा, ''अपनी नाक काट के पराया अपशकुन करने की जो कहावत सुनी जाती है, वह यही है।''
बंकू जोर से बोल उठा, ''ठीक यही बात है। ऐसे गाँव में अलहदा एक घर से रहना शाप के रूप में भी वरदान के समान है। आपकी क्या राय है?'' जवाब में मैंने भी केवल हँसकर सिर हिला दिया। हाँ या नहीं, कुछ स्पष्ट नहीं कहा। परन्तु इससे बंकू के उत्साह में बाधा नहीं पड़ी। मैंने देखा कि लड़का अपनी विमाता को सचमुच ही प्यार करता है। अनुकूल श्रोता पाकर भक्ति के आवेग में वह देखते-देखते पागल हो उठा और उसे लगातार के स्तुति-वाद ने मुझे करीब-करीब व्याकुल कर दिया।
हठात् एकाएक उसे होश आया कि इतनी देर में मैंने उसकी एक भी बात में योग नहीं दिया। तब वह कुछ अप्रतिभ-सा होकर किसी तरह प्रसंग को दबा देने की गरज से बोला, ''आप यहाँ पर और कुछ दिन हैं न?''
मैंने हँसकर कहा, ''नहीं, कल सुबह ही चला जाऊँगा।''
''कल ही?''
''हाँ कल ही।''
''परन्तु आपका शरीर तो अभी तक सबल हुआ नहीं। क्या आप समझते हैं कि बीमारी एकबारगी चली गयी?''
मैंने कहा, ''सुबह तक तो मैं यही समझता था कि बीमारी गयी, परन्तु अब सोचता हूँ कि नहीं। आज दोपहर ही मेरा सिर दुख रहा है।''
''तो फिर क्यों इतने शीघ्र जाते हैं? यहाँ तो आपको किसी प्रकार का कष्ट है नहीं।'' इतना कहकर वह लड़का चिन्तित मुख से मेरी ओर देखने लगा। मैंने भी कुछ देर चुप हो, उसके चेहरे की ओर देखते हुए, उसके मुँह पर उसके भीतर के यथार्थ भाव पढ़ने की कोशिश की। जितना भी मैंने उसे पढ़ा उससे उसकी ओर से सत्य-गोपन की कोई भी चेष्टा होती हुई मैं अनुभव नहीं कर सकता। इस पर लड़का लजा अवश्य गया और उस लज्जा को ढँकने की भी उसने कोशिश की। वह बोला, ''आप यहाँ से मत जाइए।''
''क्यों न जाऊँ, बताओ?''
''आपके रहने से माँ बड़े आनन्द से रहती हैं।'' यह कह तो दिया- पर इससे उसका मुँह लाल हो गया। वह चट से उठकर चल दिया। मैंने देखा, लड़का अत्यन्त भोला और सरल प्रकृति का जरूर है, परन्तु बेवकूफ नहीं है। प्यारी ने कहा था कि ''और अधिक दिन रहोगे तो मेरा लड़का क्या खयाल करेगा?'' इस बात के साथ उस लड़के के व्यवहार की आलोचना का अर्थ भी मानो मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ऐसा मुझे मालूम पड़ा; और मातृत्व की इस एक नयी तसवीर के दृष्टिगोचर होने से मानो मैंने एक नूतन ज्ञान सम्पादित किया। प्यारी के हृदय की एकाग्र वासना का अनुमान करना हमारे लिए कठिन नहीं है और वह संसार में सब ओर से सब तरह स्वाधीन है, यह कल्पना करना भी, मैं समझता हूँ कि, पाप नहीं है। फिर भी, उसने जिस मुहूर्त से एक दरिद्र बालक के मातृ-पद को स्वेच्छा से ग्रहण किया है तभी से मानो अपने दोनों पैरों को लोहे की साँकलों से जकड़ लिया है। वह स्वयं चाहे जो हो परन्तु उसे, अपने तईं माता का सम्मान तो अब देना ही होगा! उसकी असंयत कामना, उच्छृंखल प्रवृत्ति, उसे चाहे जितने अध:पतन की ओर क्यों न ठेलना चाहे, परन्तु यह बात भी तो उससे भूली नहीं जाती कि वह एक लड़के की माँ है! और उस सन्तान की भक्ति-नत दृष्टि के सामने तो वह उस माँ को किसी तरह भी अपमानित नहीं होने देगी! उसके विह्वल यौवन के लालसामत्त वसन्त के दिनों में प्यार के साथ किसने उसका नाम 'प्यारी' रक्खा था यह तो मैं नहीं जानता; किन्तु, यह नाम भी वह अपने लड़के के सामने छुपा रखना चाहती है, यह बात मुझे याद आ गयी।
देखते-देखते सूर्य अस्त हो गया। उस ओर ताकते-ताकते मेरा सारा अन्त:करण मानो पिघलकर लाल हो उठा। मन-ही-मन बोला कि राजलक्ष्मी को अब तो मैं नीची निगाह से देख नहीं सकता। हम दोनों का बाहरी बर्ताव इतने दिनों तक चाहे जितने बड़े स्वातन्त्रय की रक्षा करते हुए क्यों न चलता रहा हो, स्नेह चाहे जितना माधुर्य क्यों न ढाल दे, परन्तु इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि दोनों की कामनाएँ एकत्र सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक क्षण दुर्निवार वेग के साथ एक-दूसरे की ओर दौड़ रही हैं। परन्तु आज मैंने देखा कि यह असम्भव है। एकाएक 'बंकू की माँ' आकाश मेदी हिमालय पर्वत की नाईं रास्ता रोककर राजलक्ष्मी और मेरे बीच आकर खड़ी है। मन-ही-मन मैंने कहा, कल सुबह ही तो मैं यहाँ से जा रहा हूँ- किन्तु तब कहीं ऐसा न हो कि मन में फायदे-नुकसान का हिसाब लगाने जाकर कुछ बचा रखने की चेष्टा करने लगूँ। मेरा यह जाना अन्तिम जाना ही हो। देख न पाने का बहाना करके एक अति सूक्ष्म वासना का बन्धन मैं यहाँ न रख जाऊँ जिसका सहारा लेकर फिर कभी मुझे यहाँ आकर उपस्थित होना पड़े!
अन्यमनस्यक होकर उसी जगह बैठा हुआ था। संध्याा के समय धूपदानी में धूप डालकर उसे अपने हाथों में लिये हुए राजलक्ष्मी उसी बरामदे में से और एक कमरे में जा रही थी कि चौंककर खड़ी हो गयी और बोली, ''सिरदर्द कर रहा है, ओस में बैठे हुए हो? कमरे में जाओ।''
मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा, ''अवाक् कर दिया तुमने लक्ष्मी! ओस यहाँ कहाँ है?''
राजलक्ष्मी बोली, ''ओस न सही, ठण्डी हवा तो चल रही है। वही क्या अच्छी होती है?''
''नहीं, यह तुम्हारी भूल है। ठण्डी गरम कोई हवा नहीं चल रही है।'' राजलक्ष्मी बोली, ''मेरी तो सब भूल ही भूल है, परन्तु सिर दर्द कर रहा है यह तो मेरी भूल नहीं है- यह तो सत्य है न? कमरे में जाकर थोड़ी देर सो रहो न? रतन क्या करता है? वह क्या थोड़ा ओडिकोलन सिर में नहीं लगा सकता? इस घर के नौकर-चाकरों के समान नवाब नौकर पृथ्वी में और कहीं नहीं हैं।'' इनता कहकर राजलक्ष्मी अपने काम पर चली गयी।
रतन जब घबराकर और लज्जित हो ओडिकोलन, पानी आदि लेकर हाजिर हुआ और अपनी भूल के लिए बार-बार अनुताप प्रकट करने लगा तब मुझसे हँसे बिना न रहा गया।
रतन ने इससे साहस पाकर धीरे-धीरे कहा, ''इसमें मेरा दोष नहीं है बाबू, यह क्या मैं नहीं जानता? परन्तु माँ से यह कहने का उपाय ही नहीं कि जब तुम्हें गुस्सा आता है, वह झूठमूठ ही घर भर के लोगों के दोष देखने लगती हो।''
कुतूहल से मैंने पूछा, ''गुस्सा क्यों हैं?''
रतन बोला, ''यह जानने का क्या कोई उपाय है? बड़े लोगों को गुस्सा, बाबूजी, यों ही आ जाता है और यों ही चला जाता है। उस समय यदि अपना मुँह छिपाकर न रहा जा सके, तो नौकर-चाकरों के प्राण गये समझो।'' दरवाजे के समीप से एकाएक सवाल आया, ''तब तुम लोगों का मैं सिर काट लेती हूँ, क्यों रतन? और फिर बड़े लोगों के घर में यदि इतनी मुसीबत है तो और कहीं क्यों नहीं चला जाता?''
मालिक के सवाल से रतन कुण्ठित हो नीचा सिर किये चुपचाप बैठा रहा। राजलक्ष्मी ने कहा, ''तेरा काम क्या है? उनका सिर दर्द करता है, यह बंकू के मुँह से सुनकर मैंने तुझसे कहा। इसी से अब रात के आठ बजे यहाँ आकर मेरी बड़ाई कर रहा है। कल से कहीं और नौकरी खोज लेना, अब यहाँ काम नहीं है। समझा!''
राजलक्ष्मी के चले जाने पर रतन ओडिकोलन पानी मिलाकर मेरे सिर पर रखकर हवा करने लगा। राजलक्ष्मी उसी क्षण लौटकर पूछा, ''क्या कल सुबह ही घर आओगे?'' मेरा जाने का इरादा जरूर था, परन्तु घर लौट जाने का नहीं इसीलिए सवाल का जवाब मैंने और ही तरह से दिया, ''हाँ, कल सुबह ही जाऊँगा।''
''सुबह कितने बजे की गाड़ी से जाओगे?''
''सुबह ही निकल पड़ूँगा- फिर जो गाड़ी मिल जावे।''
''अच्छा। न हो तो टाइमटेबुल के लिए किसी को स्टेशन भेज देती हूँ।'' इतना कहकर वह चली गयी।
इसके बाद यथासमय रतन ने काम समाप्त करके प्रस्थान किया। नीचे से नौकर-चाकरों का शब्द आना बन्द हो गया। मैं समझ गया कि सभी ने इस समय निद्रा के लिए शय्या का आश्रय ग्रहण कर लिया है।
मुझे किन्तु किसी तरह नींद नहीं आई। घूम-फिरकर केवल एक ही बात बार-बार मन में आने लगी कि प्यारी नाराज क्यों हो गयी? ऐसा मैंने क्या किया है जिससे कि वह मुझे रवाना करने के लिए अधीर हो उठी है? रतन ने कहा था कि बड़े अदमियों को क्रोध यों ही आ जाया करता है। यह बात और बड़े आदमियों के सम्बन्ध में ठीक उतरती है या नहीं, सो नहीं मालूम, परन्तु प्यारी के सम्बन्ध में तो किसी तरह भी ठीक नहीं उतरती। वह अत्यन्त संयमी और बुद्धिमती है, इसका परिचय मुझे बहुत बार मिल चुका है; और मुझमें भी, और बुद्धि चाहे भले ही न हो, प्रवृत्ति के सम्बन्ध में संयम उससे कम नहीं है- मैं तो समझता हूँ किसी से भी कम नहीं है। मेरे हृदय में चाहे कुछ भी क्यों न हो, उसे मुँह से बाहर निकालना, अत्यन्त विकार की बेहोशी में मैं अपने लिए सम्भव नहीं मानता। व्यवहार में भी किसी दिन ऐसा किया हो, सो भी मुझे याद नहीं। खुद के उसके किसी कार्य के कारण लज्जा का कुछ कारण घटित हुआ हो, वह तो अलग बात है; परन्तु मेरे ऊपर गुस्सा होने का कोई कारण नहीं है। इसलिए बिदा के समय का उसका यह उदासीन भाव मुझे जो वेदना देने लगा वह अकिंचित्कर नहीं था।
बहुत रात बीते एकाएक तन्द्रा टूट गयी और मैंने ऑंखें खोलकर देखा कि राजलक्ष्मी गुपचुप कमरे में आई और उसने टेबल के ऊपर का लैम्प बुझाकर उसे दरवाजे के कोने की आड़ में रख दिया। खिड़की खुली हुई थी, उसे बन्द करके, मेरी शय्या के समीप आकर क्षण-भर चुप खड़ी रहकर उसने कुछ सोचा। इसके बाद मशहरी के भीतर हाथ डालकर उसने पहले मेरे सिर का उत्ताप अनुभव किया। इसके बाद कुरते के बटन खोलकर वह छाती के उत्ताप को बार-बार देखने लगी! एकान्त में आने वाली नारी के इस गुप्त कर स्पर्श से पहले तो मैं कुण्ठित और लज्जित हो उठा, परन्तु उसी समय मन में आया कि रोग की बेहोशी की हालत में सेवा करके जिसने चैतन्य को लौटकर ला दिया, उसके नजदीक मेरे लिए लाज करने की बात ही कौन-सी है! इसके बाद उसने बटन बन्द कर दिए, ओढ़ने का कपड़ा खिसक गया था उसे गले तक उढ़ा दिया, अन्त में मशहरी के किनारों को अच्छी तरह ठीक करके अत्यन्त सावधानी से किवाड़ बन्द करके वह बाहर चली गयी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

मैंने सब कुछ देखा और सब कुछ समझा। जो छिपे-छिपे आई थी उसे छिपे-छिपे ही जाने दिया। परन्तु इस निर्जन आधी रात को वह अपना कितना मेरे निकट छोड़ गयी। सो वह कुछ भी न जान सकी। सुबह जब नींद खुली तब बुखार चढ़ा हुआ था। ऑंखें और मुँह जल रहे थे, सिर इतना भारी था कि शय्या त्याग करते क्लेश मालूम हुआ। फिर भी जाना ही होगा। इस घर में मुझे अब अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं था, न जाने वह किस क्षण धोखा दे जाय। फिर भी डर मुझे अपने लिए उतना नहीं था। परन्तु राजलक्ष्मी के लिए ही मुझे राजलक्ष्मी को छोड़ जाना होगा, इसमें अब जरा-भी आनाकानी करने से काम न चलेगा।
मन-ही-मन सोचकर देखा कि उसने अपने विगत जीवन की कालिमा को बहुत कुछ धोकर साफ कर डाला है। आज अनेक लड़के बच्चे माँ-माँ कहते हुए उसे चारों ओर से घेरे खड़े है। इस भक्ति और प्रीति के आनन्द-धाम से उसे अपमान के साथ छीनकर बाहर निकाल लाऊँ? इतने बड़े प्रेम की क्या यही सार्थकता अन्त में मेरे जीवन के अध्यााय में चिरकाल के लिए लिपिबद्ध हो रहेगी?
प्यारी ने कमरे में प्रवेश करके पूछा, ''इस समय तबीयत कैसी है?''
मैं बोला, ''ऐसी कुछ विशेष खराब नहीं है। जा सकूँगा।''
''आज न जाने से क्या न चलेगा?''
''नहीं, आज तो जाना ही चाहिए।''
''तो फिर घर पहुँचते ही खबर देना। नहीं तो हम लोगों को बहुत चिन्ता होगी।''
उसके अविचलित धैर्य को देखकर मैं मुग्ध हो गया। उसी क्षण सम्मत होकर बोला, ''अच्छा, मैं घर ही जाऊँगा और पहुँचते ही तुम्हें खबर दूँगा।''
प्यारी ने कहा, ''जरूर देना। मैं भी चिट्ठी लिखकर तुमसे दो-एक बातें पूछूँगी।''
जब मैं बाहर पालकी में बैठने जा रहा था तब देखा कि दूसरे मंजिल के बरामदे में प्यारी चुपचाप खड़ी है। उसकी छाती के भीतर क्या हो रहा है, सो उसका मुँह देखकर मैं न जान सका।
मुझे अपनी अन्नदा जीजी याद आ गयीं। बहुत समय पहले एक अन्तिम दिन वे भी मानो ठीक ऐसी ही गम्भीर, ऐसी ही स्तब्ध होकर खड़ी थीं। उस समय की उनकी दोनों करुण ऑंखों की दृष्टि को मैं आज भी नहीं भूला हूँ; परन्तु उस दृष्टि में निकवर्ती जुदाई की कितनी बड़ी व्यथा घनीभूत हो रही थी सो मैं उस समय नहीं पढ़ सका था। क्या जानूँ, आज भी उसी तरह का कुछ उन दोनों निबिड़ काली ऑंखों में है या नहीं।
उसाँस छोड़कर मैं पालकी में जा बैठा। देखा कि बड़ा प्रेम केवल पास ही नहीं खींचता, दूर भी ठेल देता है। छोटे-मोटे प्रेम के लिए यह साध्यै ही नहीं था कि वह इस सुखैश्वर्य से भरे-पूरे स्नेह-स्वर्ग से मुझे, मंगल के लिए, कल्याण के लिए, एक डग भी आगे बढ़ाने देता। कहार पालकी लेकर स्टेशन की ओर जल्दी से चल दिये। मन-ही-मन मैं बारम्बार कहने लगा कि लक्ष्मी दु:ख मत करना। यह अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ से चल दिया। तुम्हारा ऋण इस जीवन में चुकाने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। परन्तु जिस जीवन को तुमने दिया है, उस जीवन का दुरुपयोग करके अब मैं तुम्हारा अपमान न करूँगा- तुम से दूर रहते हुए भी मैं यह संकल्प सदा अक्षुण्ण रखूँगा।
द्वितीय पर्व
शरतचन्द्र
भाग - 5
इस अभागे जीवन के जिस अध्याय को, उस दिन राजलक्ष्मी के निकट अन्तिम बिदा के समय ऑंखों के जल में समाप्त करके आया था- यह खयाल ही नहीं किया था कि उसके छिन्न सूत्र पुन: जोड़ने के लिए मेरी पुकार होगी। परन्तु पुकार जब सचमुच हुई, तब समझा कि विस्मय और संकोच चाहे जितना हो, पर इस आह्नान को शिरोधार्य किये बिना काम नहीं चल सकता।
इसीलिए, आज फिर मैं अपने इस भ्रष्ट जीवन की विशृंखलित घटनाओं की सैकड़ों जगह से छिन्न-भिन्न हुई ग्रन्थियों को फिर एक बार बाँधने के लिए प्रवृत्त हो रहा हूँ।
आज मुझे याद आता है कि घर पर लौट आने के बाद मेरे इस सुख-दु:ख-मिश्रित जीवन को किसी ने मानो एकाएक काटकर दो भागों में विभक्त कर दिया था। उस समय खयाल हुआ था कि मेरे इस जीवन के दु:खों का बोझा केवल मेरा ही नहीं है। इस बोझे को लादकर घूमे वह, जिसको कि इसकी नितान्त गरज हो। अर्थात् मैं जो दया करके जीता बच गया हूँ, सो तो राजलक्ष्मी का सौभाग्य है। आकाश का रंग कुछ और ही नजर आने लगा था, हवा का स्पर्श कुछ और ही किस्म का मालूम होने लगा था- मानो, कहीं भी अब घर-बार, अपना-पराया, नहीं रहा था। एक तरह के ऐसे अनिर्वचनीय उल्लास से अन्तर-बाहर एकाकार हो गया था, कि रोग रोग के रूप में, विपदा विपदा के रूप में, अभाव अभाव के रूप में, मन में स्थान ही नहीं पा सकता था। संसार में कहीं जाते हुए, कहीं कुछ करते हुए, दुविधा या बाधा का जरा भी सम्पर्क नहीं रह गया था।
यह सब बहुत दिन पहले की बातें हैं। वह आनन्द अब नहीं है; परन्तु उस दिन जीवन में इस एकान्त विश्वास की निश्चित निर्भरता का स्वाद एक दिन के लिए भी मैं उपभोग कर सका, यही मेरे लिए परम लाभ है। परन्तु, साथ ही, मैंने उसे खो दिया, इसका भी मुझे किसी दिन क्षोभ नहीं हुआ। केवल इस बात का ही बीच-बीच में खयाल आ जाता है कि जिस शक्ति ने उस दिन हृदय के भीतर जाग्रत होकर इतनी जल्दी संसार का समस्त निरानन्द हरण कर लिया था, वह कितनी विराट शक्ति है! और सोचता हूँ कि उस दिन अपने ही समान अन्य दो अक्षम दुर्बल हाथों के ऊपर इतना बड़ा गुरु-भार न डालकर यदि मैं समस्त जगद्-ब्रह्माण्ड के भारवाही उन हाथों पर ही अपनी उस दिन की उस अखण्ड विश्वास की समस्त निर्भरता को सौंप देना सीखता, तो फिर, आज चिन्ता ही क्या थी?-किन्तु, अब जाने दो उस बात को।
राजलक्ष्मी को मैंने पहुँच का पत्र लिखा था। उस पत्रका जवाब बहुत दिनों बाद आया। मेरे अस्वस्थ शरीर के लिए दु:ख प्रकाशित करके गृहस्थ बनने के लिए उसने मुझे कई तरह के बड़े-बड़े उपदेश दिए थे और अपने संक्षिप्त पत्र यह लिखकर खत्म किया था कि यदि वह कामों के झंझटों के मारे पत्रादि लिखने का समय न पा सके, तो भी, मैं बीच-बीच में अपनी खबर उसे देता रहूँ और उसे अपना ही समझूँ।
तथास्तु। इतने दिनों बाद उसी राजलक्ष्मी की यह चिट्ठी!
आकाश-कुसुम आकाश में ही सूख गये और जो दो-एक सूखी पंखुड़ियां हवा से झड़ पड़ीं उन्हें बीन करके घर ले जाने के लिए भी मैं जमीन टटोलता नहीं फिरा। ऑंखों में से दो-एक बूँद पानी शायद पड़ा भी हो, किन्तु, वह मुझे याद नहीं। फिर भी, यह याद है कि और अधिक दिन मैंने स्वप्न देखते हुए नहीं काटे। तब भी इस तरह और भी पाँच-छह महीने कट गये।
एक दिन सुबह बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। एकाएक एक अद्भुत पत्र आ पहुँचा। ऊपर औरतों के से कच्चे अक्षरों में नाम और ठिकाना लिखा था। खोलते ही पत्र के भीतर से एक छोटा-सा पत्र खट् से जमीन पर गिर पड़ा। उसे उठाकर तथा उसके अक्षर और नाम सही की ओर देखकर मैं मानो अपने दोनों नेत्रों पर भी विश्वास न कर सका। मेरी माँ, जो दस वर्ष पहले ही देह त्याग कर गयी थीं- उन्हीं के श्रीहस्त के ये दस्तखत थे, नाम और सही भी उन्हीं की थी। पढ़कर देखा, माँ ने उसमें अपनी 'गंगाजल¹' को जितना भी हो सकता है उतना अभय वचन दिया था। बात सम्भवत: यह थी, कि बारह-तेरह वर्ष पहले इस 'गंगाजल' के यहाँ जब अधिक उम्र में एक कन्या-रत्न ने जन्म ग्रहण किया, तब दु:ख, दैन्य और दुश्चिन्ता प्रकट करके शायद माँ को उसने एक पत्र लिखा होगा और उसी के प्रत्युत्तर में मेरी स्वर्गवासिनी जननी ने गंगाजल-दुहिता का विवाह का समस्त दायित्व ग्रहण करके जो पत्र लिखा था वही यह मूल्यवान दस्तावेज थी। तात्कालिक करुणा से पिघलकर माँ ने उपसंहार में लिखा था कि सुपात्र यदि कहीं न मिले, बिल्कुतल ही अभाव हो,

¹ बंगाल में स्त्रियाँ जिसे अपनी सखी-सहेली बनाती हैं उसे 'गंगाजल' इस प्यार के नाम से सम्बोधित करती हैं।
तो फिर मैं तो हूँ ही! सारी चिट्ठी को ऊपर से नीचे तक दो बार पढ़कर मैंने देखा कि वह मुंशियाना ढंग से लिखी गयी है। माँ को वकील होना चाहिए था क्योंकि जितनी भी कल्पनाएँ की जा सकतीं थीं उतनी तरह से वे अपने आपको और अपने वंशधरों को उस दायित्व में बाँध गयी हैं। उससे बचने के लिए दस्तावेज में कहीं जरा-सी भी जगह- जरा-सी भी त्रुटि, नहीं छोड़ी गयी है।
वह चाहे जो हो, पर ऐसा तो मुझे नहीं मालूम पड़ा कि 'गंगाजल' इन सुदीर्घ तेरह वर्षों तक इस पक्के दस्तावेज के ही भरोसे निर्भय हो चुपचाप बैठी रही है। परन्तु, उलटे मन ही मन मुझे ऐसा लगा कि बहुत प्रयत्न करने पर भी जब रुपये और निजी मनुष्यों के अभाव से सुपात्र उसके लिए एकबारगी अप्राप्य हो गया, और कुमारी कन्या की शारीरिक उन्नति की ओर दृष्टिपात करने से हृदय का रक्त मस्तिष्क में चढ़ने की तैयारी करने लगा, तब कहीं जाकर इस हतभाग्य सुपात्र के ऊपर उन्होंने अपना एकमात्र ब्रह्मास्त्र फेंका है।
माँ यदि जीती होतीं तो इस चिट्ठी के लिए आज मैं उनका सिर खा जाता और उनके पैरों पर जोर से सिर पटककर अपनी ज्वाला को बुझाता, परन्तु यह रास्ता भी मेरे लिए बन्द है।
इसलिए, माँ का तो कुछ भी नहीं कर सका परन्तु, अब उनकी गंगाजल का भी कुछ कर सकता हूँ या नहीं, यह परखने के लिए मैं एक दिन रात्रि को स्टेशन पर जा पहुँचा। सारी रात ट्रेन में काटकर दूसरे दिन जब उनके गाँव के मकान पर पहुँचा तब दिन ढल गया था। गंगाजल-माँ पहले तो मुझे पहिचान न सकीं। अन्त में, परिचय पाकर इन तेरह वर्षों के बाद भी वे इस तरह रो पड़ीं जिस तरह कि माँ की मृत्यु के समय उनका कोई अपना आदमी भी ऑंखों के सामने उनकी मृत्यु होते देखकर, न रो सका होता।
वे बोलीं कि लोकदृष्टि से और धर्मदृष्टि से, दोनों ही तरह अब मैं तुम्हारी माता के समान हूँ और फिर दायित्व ग्रहण करने की प्रथम सीढ़ी के रूप में उन्होंने मेरी सांसारिक परिस्थिति का बारीकी से पर्यालोचन करना शुरू कर दिया। बाप कितना छोड़ गये हैं, माँ के कौन-कौन से गहने हैं और वे किसके पास हैं, मैं नौकरी क्यों नहीं करता और यदि करूँ तो अन्दाज से क्या महीना पा सकता हूँ, इत्यादि-इत्यादि। उनका मुँह देखकर खयाल हुआ कि इस आलोचना का फल उनके निकट कुछ वैसा सन्तोषजनक नहीं हुआ। वे बोलीं कि उनका एक रिश्तेदार बर्मा में नौकरी करके 'लाल' हो गया है, अर्थात् अतिशय-धनवान हो गया है। वहाँ तो राह-घाट में रुपये बिखरे पड़े हैं, केवल समेटने-भर की देर है! वहाँ पर जहाज से उतरते न उतरते ही बंगालियों को साहब लोग कन्धों पर उठा ले जाते हैं और नौकरी से लगा देते हैं। इस तरह की बहुत-सी बातें कहीं। बाद में मैंने देखा कि यह गलत धारणा केवल अकेली उन्हीं की नहीं थी। ऐसे बहुत-से लोग इस माया-मरीचिका से उन्मत्तप्राय होकर सहाय-सम्बलहीन अवस्था में वहाँ दौड़ गये हंु और मोह भंग होने के बाद उन्हें वापिस लौटाने में हम लोगों को कम क्लेश सहन नहीं करना पड़ा है। परन्तु वह बात इस समय रहने दो। गंगाजल-माँ का बर्मा-वर्णन मुझे तीर की तरह लगा। 'लाल' होने की आशा से नहीं-मेरे भीतर का जो घुमक्कड़पन कुछ दिनों से सोया हुआ था वह अपनी थकावट झाड़-पोंछकर मुहूर्त-भर में ही उठ खड़ा हुआ। जिस समुद्र को इसके पहले केवल दूर से खड़े-खड़े देखकर ही मुग्ध हो जाता था, अब उस अनन्त जलराशि को भी भेद करके मैं जा सकूँगा- इस इच्छा ने ही मुझे एकबारगी बेचैन कर दिया। तब किसी तरह एक बार छुटकारा पाना ही होगा।
मनुष्य मनुष्य से जितने प्रकार की भी जिरह कर सकता है, उनमें से किसी भी प्रकार की जिरह में गंगाजल-माँ ने मुझे नहीं छोड़ा। फिर भी, अपनी लड़की के योग्य पात्र की दृष्टि से उन्होंने मुझे रिहाई दे दी- इस विषय में मैं एक तरह से निश्चिन्त ही हो गया। परन्तु, रात्रि में भोजन के समय उनकी भूमिका का झुकाव देखकर मैं फिर उद्विग्न हो उठा। मैंने देखा, मुझे एकबारगी हाथ से जाने देने की उनकी इच्छा नहीं है। उन्होंने यह कहना शुरू किया कि यदि लड़की के भाग्य में न हो, तो धन, घर-बार, शिक्षा-दीक्षा आदि कितना ही क्यों न देखा जाय, सब कुछ निष्फल है। इस सम्बन्ध में नाम-धाम, विवरणादि के साथ बहुत-सी विश्वास योग्य नजीरें देकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित भी कर दिखाया। इतना ही नहीं, इसके विरुद्ध ऐसे भी कितने ही लोगों का नामोल्लेख किया कि जो निराट मूर्ख होते हुए भी केवल स्त्री के ही सौभाग्य के जोर पर इस समय दिन-रात रुपयों के ढेर पर बैठे रहते हैं।
मैंने विनय सहित कह दिया कि रुपये-पैसे की तरफ मेरी आसक्ति तो है, फिर भी, चौबीसों घण्टे उन पर बैठा रहूँ, यह विवेचना मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम होती और इसके लिए स्त्री का सौभाग्य देखने का कुतूहल भी मुझे नहीं है। किन्तु इसका कोई विशेष फल नहीं हुआ। उन्हें निरस्त न कर सका। क्योंकि, जो स्त्री तेरह वर्ष के इतने लम्बे समय के पश्चात् भी एक पत्र को दस्तावेज के रूप में पेश कर सकती है, उसे इतने सहज में नहीं भुलाया जा सकता। वे बार-बार कहने लगीं कि इसे माता के ऋण के ही रूप में ग्रहण करना उचित है, और जो सन्तान समर्थ होते हुए भी मातृ-ऋण का परिशोध नहीं करती वह... इत्यादि-इत्यादि।
जब मैं बहुत ही शंकित और विचलित हो उठा, तब बातों ही बातों में मुझे मालूम हुआ कि पास के गाँव में यद्यपि एक सुपात्र है, परन्तु, पाँच सौ रुपये से कम में उसका पाना असम्भव है।
एक क्षीण आशा की रश्मि नजर आई। महीने-भर के बाद जैसे भी हो कोई उपाय कर दूँगा- यह वचन देकर दूसरे दिन सुबह ही मैंने प्रस्थान कर दिया। परन्तु उपाय किस तरह करूँगा- किसी ओर भी उसका कोई कूल किनारा नजर नहीं आया।
मेरे ऊपर लादा गया यह भार मेरे लिए कोई सचमुच की वस्तु नहीं हो सकता, यह मैं अनेक तरह से अपने आपको समझाने लगा; परन्तु फिर भी, माँ को इस प्रतिज्ञा के पाश से मुक्ति न देकर चुपचाप खिसक जाने की बात भी किसी तरह मैं नहीं सोच सका।
शायद एक उपाय था- मैं यह बात प्यारी से कहूँ। किन्तु, कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में भी मैं अपने मन को स्थिर न कर सका। बहुत दिनों से मुझे उसकी खबर भी नहीं मिली थी। उस पहुँच की खबर को छोड़कर मैंने उसे और कोई चिट्ठी भी नहीं लिखी थी। उसने भी उसके जवाब के सिवाय, दूसरा पत्र नहीं लिखा। इस बात को वह शायद नहीं मानती थी कि चिट्ठी-पत्री के द्वारा ही दोनों के बीच मिलाप का एक सूत्र रहता है। कम से कम उसके उस पत्र से तो मैं समझा। फिर भी अचरज की बात है कि दूसरे की लड़की के लिए भिक्षा माँगने के बहाने एक दिन मैं सचमुच ही पटने जा पहुँचा।
मकान में प्रवेश करते ही नीचे बैठने के कमरे के बरामदे में मैंने देखा कि वर्दी पहने हुए दो दरबान बैठे हैं। वे एकाएक एक साधारण से अपरिचित आगन्तुक को देखकर कुछ इस तरह देखते रह गये कि मुझे सीधे ऊपर चढ़ जाने में संकोच मालूम हुआ। इन्हें मैंने पहले नहीं देखा था। प्यारी के पुराने बूढ़े दरबानजी के बदले इन दो और दरबानों की क्या आवश्यकता आ पड़ी, यह मैं न सोच सका। जो भी हो, इनकी परवाह किये बगैर ऊपर चला जाऊँ अथवा विनय के साथ इनकी अनुमति माँगूँ- यह स्थिर करते-करते ही मैंने देखा कि रतन व्यस्त हुआ-सा नीचे आ रहा है। अकस्मात् मुझे देखकर वह पहले तो अवाक् हो गया; बाद में पैरों की ओर झुककर प्रणाम करके बोला-
''आप कब आए? यहाँ कैसे खड़े हैं?''
''अभी ही आ रहा हूँ, रतन। सब कुशल तो है न?''
रतन सिर हिलाकर बोला, ''सब कुशल है, बाबू। ऊपर चलिए- मैं बरफ खरीदकर अभी आया।'' कहकर वह जाने लगा।
''तुम्हारी मालकिन ऊपर ही हैं?''
''हाँ हैं'', कहकर वह जल्दी से बाहर चला गया।
ऊपर चढ़ते ही जो पास का कमरा मिलता है वह बैठकखाना है। भीतर से एक ऊँची हँसी का शब्द और बहुत से लोगों की आवाज सुनाई दी। मैं जरा विस्मित हुआ। परन्तु, दूसरे ही क्षण, द्वार के नजदीक पहुँचकर मैं अवाक् हो गया। पिछली दफे इस कमरे को व्यवहार में आते नहीं देखा था। इसमें तरह-तरह के साज-सामान, टेबल, चेअर आदि अनेक चीजें एक कोने में ढेर होकर पड़ी रहती थीं। बहुधा कोई इस कमरे में आता भी न था। आज देखता हूँ, सम्पूर्ण कमरे में बिस्तर है, शुरू से अन्त तक कार्पेट बिछा हुआ है और उसके ऊपर सफेद जाजम झक-झककर रही है। तकियों के ऊपर गिलाफ चढ़े हुए हैं और उनके सहारे बैठे हुए कुछ सभ्य पुरुष अचरज से मेरी ओर देख रहे हैं। उनकी पोशाक में बंगालियों की तरह धोती होने पर भी सिर पर की बेल-बूटेदार मसलिन की टोपी से वे बिहारी से मालूम होते थे। तबले की जोड़ी के पास एक हिन्दुस्तानी तबलची था और उसके पास में भी स्वयं प्यारीबाई थीं। एक तरफ छोटा-सा हारमोनियम रखा था। प्यारी के शरीर पर यद्यपि मुजरे की पोशाक नहीं थी, फिर भी बनाव-सिंगार का अभाव नहीं था। समझ गया कि संगीत की बैठक जमी हुई है- थोड़ी देर विश्राम लिया जा रहा है।
मुझे देखते ही प्यारी के चेहरे का समस्त खून मानो कहीं अन्तर्हित हो गया। इसके बाद उसने जबर्दस्ती कुछ हँसकर कहा, ''यह क्या, श्रीकान्त बाबू हैं। कब आये?''
''आज ही।''
''आज ही? कब? कहाँ ठहरे हैं?''
क्षण-भर के लिए शायद मैं कुछ हतबुद्धि-सा हो गया; नहीं तो उत्तर देने में देर न होती। परन्तु, अपने आपको सम्हालने में भी मुझे अधिक देर नहीं लगी। मैंने कहा, ''यहाँ के सब लोगों को तुम चीन्हती नहीं हो, इसलिए, नाम सुनकर भी न चीन्ह सकोगी।''
जो महाशय सबसे अधिक बने-ठने थे वही शायद इस यज्ञ के यजमान थे। बोले, ''आइए बाबूजी, बैठिए।'' इतना कहकर होठों को दबाकर जरा वे हँसे। भाव-भंगी से उन्होंने यह प्रकट किया कि हम दोनों का सम्बन्ध वे ठीक तौर से भाँप गये हैं! उनका आदर के साथ अभिवादन कर मैंने, जूते के फीते खोलने के बहाने, मुँह नीचा करके परिस्थिति को भाँप लेना चाहा। विचार करने के लिए अधिक समय नहीं था, यह ठीक है, परन्तु, इन थोड़े से क्षणों में मैंने यह स्थिर कर लिया कि हृदय के भीतर कुछ भी हो, बाहर के व्यवहार में वह किसी भी तरह प्रकाशित न होना चाहिए। मेरे मुँह की बातचीत से, ऑंखों की चितवन से, मेरे सारे आचरण के किसी भी छिद्र में से, अन्तर के क्षोभ अथवा अभिमान की एक बूँद भी बाहर आकर न गिरनी चाहिए। क्षण-भर बाद जब मैं सबके बीच में जाकर बैठा तब, यद्यपि यह सच है कि अपने मुख की सूरत अपनी ऑंखों न देख सका, किन्तु भीतर ही भीतर मैंने अनुभव किया कि अब उस पर अप्रसन्नता का लेशमात्र भी चिह्न नहीं रह गया है। राजलक्ष्मी की ओर देखकर मैं हँसते हुए बोला, ''बाईजी, यदि शुकदेव मुनिका पता पा जाता तो आज तुम्हारे सामने बिठाकर एक दफा उनके मन की शक्ति की जाँच कर लेता! अरे, यह किया क्या है! यह तो रूप का समुद्र ही बहा दिया है!''
प्रशंसा सुनकर प्रमुख बाबू साहब आह्लाद से गलकर सिर हिलाने लगे। वे पुर्निया जिले के रहने वाले थे; मैंने देखा कि बोल न सकने पर भी बंगला अच्छी तरह समझते हैं। परन्तु प्यारी के कान तक लाल हो उठे।-किन्तु, लाज के मारे नहीं- गुस्से के मारे, यह भी समझने में कुछ बाकी न रहा। परन्तु, उस ओर भ्रूक्षेप भी न करके बाबू साहब को उद्देश्य करके मैंने उसी तरह हँसते हुए कहा, ''मेरे आने के कारण यदि आप लोगों के आमोद-प्रमोद में थोड़ा-सा भी विघ्न होगा, तो मुझे बहुत दु:ख होगा। गाना-बजाना चलने दीजिए।''
बाबूजी इतने प्रसन्न हो उठे कि आवेश में आकार मेरी पीठ पर एक धौल जमाकर बोले, ''बहुत अच्छा बाबू। हाँ प्यारी बीबी, एक बढ़िया-सा गाना चलने दो।''
''संध्याए के बाद होगा- बस अब और नहीं।'' कह कर प्यारी हारमोनियम दूर खिसकाकर सहसा उठा खड़ी हुई।
इसी समय बाबू साहब मेरा परिचय पाने के उपलक्ष्य से अपना परिचय देने लगे- उनका नाम था रामचन्द्र सिंह। वे पुर्निया जिले के एक जमींदार हैं, दरभंगा- महाराजा उनके कुटुम्बी हैं, प्यारी बीबी को सात-आठ वर्ष से जानते हैं। वे उनके पुर्निया के मकान पर तीन-चार दफे मुजरा कर आई हैं। वे खुद भी अनेक दफे गाना सुनने यहाँ आए हैं। कभी-कभी दस-दस बारह-बारह दिन तक वे यहीं रहते हैं और तीनेक महीने पहले एक दफे आकर वे एक हफ्ते तक यहाँ रह गये हैं- वगैरह वगैरह। अब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। मेरे जवाब देने के पहले ही वहाँ प्यारी आ उपस्थित हुई। उसकी ओर देखकर मैंने कहा, ''बाईजी से ही पूछिए न, कि क्यों आया हूँ।''
प्यारी ने मेरे मुँह पर एक तीव्र कटाक्ष डाला, परन्तु, जवाब दिया सहज शान्त स्वर में ही, ''ये हमारे देश के आदमी हैं।''
मैंने हँसकर कहा, ''बाबूजी, मधु होने पर मधुमक्खियाँ आकर जुट जाती हैं, वे देश-विदेश का विचार नहीं करतीं।'' किन्तु इतना कहते ही मैंने देखा कि रहस्य को ग्रहण न कर सकने के कारण पुर्निया जिले के जमींदार ने अपने मुँह को गम्भीर बना लिया और उनके नौकर ने ज्यों ही आकर कहा कि संध्याी-पूजा के लिए तैयारी हो गयी है त्यों ही उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। तबलची तथा अन्य दो महाशय उनके साथ ही साथ बाहर चले गये। उनका मन अकस्मात् क्यों इतना व्याकुल हो गया, सो मैं बिन्दु-विसर्ग कुछ भी नहीं समझा।
रतन आकर बोला, ''माँ, बाबूजी के बिछौने कहाँ करूँ?''
प्यारी ने झुँझलाकर कहा, ''क्या और कोई कमरा नहीं है रतन? मुझसे पूछे बिना क्या इतनी-सी बुद्धि भी तू नहीं लगा सकता? चला जा यहाँ से!'' इतना कहकर रतन के साथ आप भी बाहर चली गयी। मैंने खूब अच्छी तरह से देखा कि मेरे आकस्मिक शुभागमन से इस मकान का भार-केन्द्र एक सांघातिक ढंग से विचलित हो गया है। प्यारी ने, किन्तु थोड़ी ही देर बाद लौट आकर और मेरे मुँह की ओर कुछ देर देखते रहकर कहा, ''ऐसे अचानक कैसे आना हो गया?''
मैंने कहा, ''देश का आदमी हूँ, तुम्हें बहुत दिन से न देख सकने के कारण व्याकुल हो उठा था, बाईजी!''
प्यारी का मुँह और भी भारी हो गया। मेरे परिहास में जरा भी योग न देकर उसने पूछा, ''आज रात को यहाँ ही रहोगे न?''
''रहने को कहोगी तो रह जाऊँगा।''
''मेरे कहने न कहने से क्या! तुम्हें यहाँ शायद कुछ असुविधा हो। जिस कमरे में तुम सोते थे उसमें तो...''
''बाबू सोते हैं? ठीक है, मैं नीचे सो जाऊँगा। तुम्हारा नीचे का कमरा तो बहुत उम्दा है।''
''नीचे सोओगे? कहते क्या हो! मन में तुम्हारे जरा भी विकार नहीं- दो ही दिन में इतने बड़े परमहंस किस तरह हो गये?''
मैंने मन ही मन कहा, ''प्यारी, तुमने मुझे अब तक भी नहीं पहचाना।'' फिर मुँह से कहा, ''इसमें मुझे मान-अपमान का खयाल बिन्दु-भर भी नहीं है। और, कष्ट की बात का यदि खयाल करो, तो वह तो एकबारगी ही फिजूल है। मैं घर से बाहर निकलने के समय खाने-सोने की चिन्ताओं को दूर रख आता हूँ, यह तो तुम भी जानती हो। बिस्तर यदि अधिक हों तो एक ले आने के लिए कह दो, नहीं हो, तो फिर उसकी भी दरकार नहीं है- मुझे अपने कम्बल का सम्बल है।''
प्यारी ने सिर हिलाकर कहा, ''सो तो मैं जानती हूँ; किन्तु, इससे मन में किसी तरह का दु:ख तो न होगा?''
मैंने हँसकर कहा, ''नहीं, क्योंकि स्टेशन पर पड़े रहने की अपेक्षा तो यह बहुत ही अच्छा है।''
प्यारी कुछ देर चुप खड़ी रही; फिर बोली, ''यदि मैं होती तो भले ही वृक्ष के नीचे सो रहती, परन्तु इतना अपमान कभी नहीं सहती।''
उसकी उत्तेजना को देखकर मुझसे हँसे बिना न रहा गया। वह मेरे मुँह से क्या सुनना चाहती है, सो मैं बड़ी देर से खूब समझ रहा था। किन्तु शान्त स्वाभाविक स्वरूप से मैंने जवाब दिया, ''मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ कि इस बात को मन में आने दूँ कि तुम, जानबूझकर मुझे नीचे सोने को कहकर, मेरा अपमान कर रही हो। यदि सम्भव होता तो तुम उस दफे के समान इस दफे भी मेरे सोने की व्यवस्था करतीं। जाने दो, इन तुच्छ बातों को लेकर वाग्वितण्डा करने की जरूरत नहीं, तुम रतन को भेज दो कि मुझे नीचे का कमरा दिखा आवे, मैं कम्बल बिछाकर सो रहूँगा। मैं बहुत ही थक गया हूँ।
प्यारी ने कहा, ''तुम ज्ञानी आदमी हो, तुम ही मेरी ठीक अवस्था को न जान सकोगे तो और जानेगा कौन? चलो, बच गयी।'' इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास दबाकर पूछा, ''एकाएक आने का सच्चा कारण तो मैं जान ही न सकी कि क्या है?''
मैं बोला, ''पहला कारण तो तुम नहीं सुन पाओगी, किन्तु दूसरा सुन सकती हो!''
''पहला क्यों नहीं सुन सकूँगी?''
''अनावश्यक है, इसलिए।''
''अच्छा, दूसरा ही सुनाओ।''
''मैं बर्मा जा रहा हूँ। शायद और फिर कभी मिलना न हो सके। कम से कम यह तो निश्चित है कि बहुत दिनों तक मिलाप न होगा। जाने के पहले एक दफे तुम्हें देखने आया हूँ।''
रतन कमरे में आकर बोला, ''बाबू, आपके बिस्तर तैयार हैं, आइए।''
मैंने खुश होकर कहा, ''चलो।'' प्यारी से कहा, ''मुझे बड़ी नींद आ रही है। घण्टे भर बाद यदि समय मिले तो एक दफे नीचे आ जाना- मुझे और भी बहुत-सी बातें करनी हैं।'' इतना कहकर रतन को साथ लेकर मैं बाहर हो गया।
प्यारी के निज के सोने के कमरे में ले आकर रतन ने मुझे जब शय्या बताई तब मेरे अचरज की सीमा न रही। मैं बोला, ''मेरे बिस्तर नीचे के कमरे में न करके यहाँ क्यों किये?''
रतन ने अचरज के साथ कहा, ''नीचे के कमरे में?''
मैंने कहा, ''ऐसी ही बात तो हुई थी।''
वह अवाक् होकर कुछ देर मेरी ओर देखता रहा और अन्त में बोला, ''आपके बिस्तर होंगे नीचे के कमरे में? आप मजाक कर रहे हैं बाबू!'' इतना कहकर वह हँसता हुआ जा ही रहा था कि मैंने उसे बुलाकर पूछा, ''तुम्हारी मालकिन कहाँ सोवेंगी?''
रतन बोला, ''बंकू बाबू के कमरे में उनके बिस्तर लगा आया हूँ।'' मैंने निकट आकर देखा- यह राजलक्ष्मी के उस डेढ़ हाथ चौड़े तख्ते पर बिछाया हुआ बिस्तर नहीं है। एक पलंग पर एक खूब मोटा गद्दा बिछाकर शाही बिस्तर लगाए गये हैं। शीशे के नजदीक नजदीक एक छोटी-सी टेबल के ऊपर मेज के बीचोंबीच लैम्प जल रहा है। एक किनारे बंगला भाषा की किताबें हैं और दूसरे किनारे गुलदस्ते में कुछ बेला के फूल रक्खे हैं। ऑंखों से देखते ही मैंने अच्छी तरह जान लिया कि इनमें से कोई भी चीज नौकर के हाथ की तैयार की हुई नहीं हैं। जो बहुत प्यार करती है, ये सब चीजें उसी के हाथ की तैयार की हुई हैं। ऊपर की चादर भी राजलक्ष्मी खुद अपने हाथों बिछा गयी है, यह मानो अन्दर ही अन्दर मैंने खूब अनुभव किया।
आज उन लोगों के सामने अचानक आ जाने के सबब राजलक्ष्मी ने हतबुद्धि हो, पहले चाहे जैसा व्यवहार क्यों न किया हो, पर यह बात मुझसे अज्ञात नहीं रही कि मेरी निर्विकार उदासीनता से वह मन ही मन शंकित हो उठी थी और यह भी मुझे मालूम हो गया कि मेरे भीतर ईर्ष्या् का प्रकाश देखने के लिए उत्सुक हो वह इतनी देर से इतनी तरह से क्यों बार-बार आघात कर रही थी। किन्तु, सब कुछ जानते हुए भी, अपने निष्ठुर स्वभाव को ही मर्दानगी समझकर मैंने उसका जरा भी अभिमान नहीं रहने दिया- उसके प्रत्येक छोटे से छोटे आघात को सौ गुना करके वापिस लौटा दिया। उसके प्रति किया गया यह अन्याय मेरे मन के भीतर अब सुई की तरह चुभने लगा। मैं बिस्तर पर लेट गया किन्तु सो नहीं सका। मैं यह निश्चय जानता था कि एक बार वह आयेगी जरूर। इसलिए, उत्सुकता के साथ उस समय की राह देखने लगा।
थकावट के कारण शायद कुछ सो भी गया था, सहसा ऑंखें खोलकर देखा कि प्यारी मेरे शरीर पर एक हाथ रखे हुए बैठी है। मेरे उठकर बैठते ही वह बोली, ''बर्मा को गया हुआ मनुष्य फिर लौटकर वापिस नहीं आता, यह बात क्या तुम्हें मालूम है?''
''नहीं, मुझे नहीं मालूम।''
''फिर?''
''मुझे लौटना ही होगा, ऐसी तो किसी के सिर की कसम मुझ पर है नहीं।''
बात बहुत ही सामान्य थी। किन्तु, संसार में यह एक भारी अचरज की बात है कि मनुष्य की दुर्बलता कब किस झरोखे से अपने आपको प्रकट कर बैठेगी, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। इसके पहले कितने ही और इससे भी अधिक बड़े कारण घट गये हैं, परन्तु, मैंने कभी अपने आपको इस तरह नहीं पकड़ा जाने दिया। किन्तु, आज उसके मुँह से निकली हुई इस अत्यन्त साधारण बात को भी मैं सहन नहीं कर सका। मुँह से सहसा यह बात निकल ही गयी, ''सब लोगों के मन की बात तो जानता नहीं राजलक्ष्मी, परन्तु एक मनुष्य के मन की अवश्य जानता हूँ। यदि किसी दिन लौटकर आऊँगा तो केवल तुम्हारे ही लिए। तुम्हारे सिर की कसम मैं कभी अवहेलना नहीं करूँगा।''
प्यारी मेरे पैरों पर एकबारगी उलटी ही गिर पड़ी। मैंने इच्छा करके भी पैर पीछे न खींचे, परन्तु, दसेक मिनट बीत जाने पर भी जब उसने अपना सिर ऊपर नहीं उठाया तब उसके सिर पर मैंने अपना दाहिना हाथ रक्खा जिसके पड़ते ही वह एक बार सिहरकर काँप उठी। परन्तु फिर भी वह उसी तरह पड़ी रही। सिर भी नहीं उठाया, बोली भी नहीं। मैंने कहा, ''उठकर बैठो, इस अवस्था में हमें कोई देखेगा तो भारी अचम्भे में पड़ जायेगा।''
किन्तु, प्यारी ने जवाब तक नहीं दिया तब मैंने उसे जोर से उठाया। उठाते ही मैंने देखा कि उसके नीरव ऑंसुओं से वहाँ की सारी चादर बिल्कुनल भीग गयी है। खींच-तान करने पर वह रुद्ध कण्ठ से बोल उठी, ''पहले मेरी दो-तीन बातों का जवाब दो तब मैं उठूँगी।''
''कहो, कौन-सी बातें हैं।''
''पहले तो यह कहो कि उन लोगों के यहाँ रहने से तुमने मेरे सम्बन्ध में कोई बुरा खयाल तो नहीं किया?''
''नहीं।''
प्यारी और कुछ देर चुप रहकर बोली, ''किन्तु, मैं भली औरत नहीं हूँ, यह तो तुम जानते हो? फिर भी, तुम्हें क्यों सन्देह नहीं हुआ?''
सवाल बड़ा ही कठिन था। वह भली स्त्री नहीं है, यह मैं जानता हूँ परन्तु वह खराब है, यह खयाल भी मैं मन में नहीं ला सका। मैं चुप हो रहा।
एकाएक वह अपनी ऑंखें पोंछकर झटपट उठ बैठी और बोली, ''अच्छा, तुमसे पूछती हूँ; पुरुष कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि वह भला होना चाहता है तो उसे कोई रोकता नहीं; किन्तु, हम लोगों की पारी आने पर सब मार्ग क्यों बन्द हो जाते हैं? अज्ञान से, धनाभाव से, एक दिन जो कर बैठी- चिरकाल के लिए मुझे वही क्यों करना पड़ता रहे? हम लोगों को तुम लोग क्यों भला बनने नहीं देते?''
मैंने कहा, ''हम लोग तो कभी रोकते नहीं। और यदि हम रोकें, तो भी, संसार में भले बनने के मार्ग में कोई किसी को अटकाकर नहीं रख सकता।''
प्यारी बड़ी देर तक चुप रहकर मेरे मुँह की ओर देखकर अन्त में धीरे-धीरे बोली, ''बहुत ठीक, तो फिर, तुम भी मुझे नहीं रोक सकोगे।''
मेरे जवाब देने के पहले ही रतन की खाँसी का शब्द द्वार के निकट सुन पड़ा।
प्यारी ने पुकार कर कहा, ''क्या है रतन?''
रतन ने मुँह आगे निकाल कर कहा, ''माँ रात बहुत बीत गयी है- बाबूजी के खाने के लिए ले न आऊँ? रसोइया महाराज तो झोंके खाते-खाते रसोईघर में ही सो गये हैं।''
''अरे, तब तो तुममें से किसी ने भी अभी तक खाया न होगा!'' इतना कह कर प्यारी घबड़ाकर और लज्जित होकर उठ खड़ी हुई। मेरे लिए खाने को वह अपने ही हाथों हमेशा लाती थी; आज भी लाने के लिए जल्दी से पैर बढ़ाती हुई चली गयी।
खाना समाप्त करके जब मैं बिस्तर पर लेटा तब रात का एक बज गया था। प्यारी फिर आकर मेरे पैरों के पास बैठ गयी। बोली, ''तुम्हारे लिए अनेक रातें अकेले जागकर बिताई हैं- आज तुम्हें भी जागते रक्खूँगी। इतना कहकर मेरी सम्मति की राह देखे बगैर ही उसने मेरे पैर की तरफ का तकिया खींच लिया और बाएँ हाथ का सहारा लेकर वह लेट गयी तथा बोली, ''मैंने बहुत विचार कर देखा, तुम्हरा इतने दूर-देश जाना किसी तरह भी नहीं हो सकता।''
मैंने पूछा, ''तो फिर, क्या हो सकता है? इसी तरह यहाँ-वहाँ भटकते फिरना?''
प्यारी ने इसका जवाब न देकर कहा, ''इसके सिवाय किसलिए बर्मा जा रहे हो, कहो तो सही?''
''नौकरी करने, यहाँ-वहाँ भटकते फिरने के लिए नहीं।''
मेरी बात को सुनकर प्यारी उत्तेजना के वश सीधी होकर बैठ गयी और बोली, ''देखो, दूसरे से जो कहना हो कहना, किन्तु मुझे न ठगना। मुझे ठगोगे तो तुम्हारा इहकाल भी नहीं, पर काल भी नहीं बनेगा- सो जानते हो?''
''सो तो खूब जानता हूँ, अब क्या करना चाहिए, कहो तुम?''
मेरी स्वीकारोक्ति से प्यारी प्रसन्न हुई। हँसकर बोली, ''स्त्रियाँ चिरकाल से जो कहती आई हैं वही मैं कहती हूँ। विवाह करके संसारी बन जाओ- गृहस्थ-धर्म का पालन करो।''
मैंने प्रश्न किया, ''क्या सचमुच ही तुम खुशी होओगी?''
उसने सिर हिलाकर कानों के झूले हिलाते हुए उत्साह से कहा, ''निश्चय से, एक दफे नहीं, सौ दफे। इससे यदि मैं सुखी नहीं होऊँगी, तो फिर और कौन होगा, बताओ?''
मैंने कहा, ''सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु, इससे मेरे मन की एक दुर्भावना चली गयी। वास्तव में, यही खबर देने मैं आया था कि ब्याह किये बगैर मेरी गुजर नहीं।''
प्यारी एक बार अपने कानों के स्वर्णालंकार झुलाती हुई महाआनन्द से बोल उठी, ''ऐसा होगा, तो मैं कालीघाट जाकर पूजा दे आऊँगी। किन्तु, लड़की को मैं ही देखकर पसन्द करूँगी, सो कहे देती हूँ।''
मैंने कहा, ''इसके लिए अब समय नहीं है, लड़की तो स्थिर हो चुकी है।''
मेरे गम्भीर स्वर पर शायद प्यारी ने ध्या,न दिया। एकाएक उसके हँसते मुख पर एक मैली-सी छाया पड़ गयी; बोली, ''ठीक तो है, अच्छा ही हुआ। स्थिर हो गयी है तो परम सुख की बात है।''
मैंने कहा, ''सुख-दु:ख तो मैं समझता नहीं राजलक्ष्मी, जो बात स्थिर हो चुकी है वही तुम्हें बताता हूँ।''
''प्यारी एकाएक गुस्से से बोल उठी, ''जाओ, चालाकी मत करो, सब बात झूठी है।''
''एक भी बात मिथ्या नहीं है। चिट्ठी देखते ही समझ जाओगी'', इतना कहकर खीसे में से मैंने दो पत्र बाहर निकाले।
''कहाँ हैं, देखूँ चिट्ठी'', इतना कह हाथ बढ़ाकर प्यारी ने दोनों हाथों में चिट्ठियाँ ले लीं। उन्हें हाथ में लेते ही मानों उसके सारे मुँह पर अंधेरा छा गया। दोनों पत्र हाथ में लिये ही लिये वह बोली, ''दूसरे का पत्र पढ़ने की मुझे जरूरत ही क्या है। बताओ, कहाँ स्थिर हुई है?''
''पढ़ देखो।''
''मैं दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़ती।''
''तो फिर दूसरे की खबर जानने की तुम्हें जरूरत भी नहीं है।''
''मैं नहीं जानना चाहती।'' इतना कहकर ऑंखें मींचकर वह लेट गयी। किन्तु दोनों चिट्ठियाँ उसकी मुट्ठी में ही रह गयीं। बहुत देर तक वह कुछ नहीं बोली। इसके बाद वह धीरे से उठी, जाकर लैम्प तेज किया और मेज पर दोनों पत्र रखकर स्थिरता से बैठी। उनमें जो कुछ लिखा था सो शायद उसने दो-तीन दफे पढ़ा। इसके बाद वह उठ आई और उसी तरह फिर लेट गयी। बहुत देर तक चुप रहने के बाद बोली, ''सो गये क्या?''
''नहीं।''
''इस स्थान पर मैं तुम्हें किसी तरह ब्याह न करने दूँगी; वह लड़की अच्छी नहीं है, उसे मैंने बचपन में देखा है।''
''माँ का पत्र पढ़ा?''
''हाँ, किन्तु काकी के पत्र में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है कि तुम्हें उसे गले में डालना ही पड़ेगा। और चाहे वह अच्छी हो, चाहे न हो, उस लड़की को मैं किसी तरह भी घर में नहीं लाऊँगी।''
''कैसी लड़की घर में लाना चाहती हो, बता सकती हो?''
''सो मैं इस समय कैसे बताऊँ? विचार करके देखना होगा।''
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैं हँसकर बोला, ''तुम्हारी पसन्दगी और विवेचना के ऊपर निर्भर रहा जाय तो मुझे अपना कुमारपन उतारने के लिए आगे और एक जन्म ग्रहण करना पड़े- शायद, उसमें भी पूरा न पड़े। जाने दो, यथासमय, न हो तो दूसरा जन्म ग्रहण कर लूँगा। मुझे जल्दी नहीं है। परन्तु, इस लड़की का तुम उद्धार कर दो। पाँच सौ रुपये हों तो काम हो जायेगा, मैं उन्हीं के मुँह से सुन आया हूँ।''
प्यारी उत्साह में आकर उठ बैठी और बोली, ''कल ही मैं रुपये भेज दूँगी। काकी की बात मिथ्या नहीं होने दूँगी।'' फिर कुछ देर ठहरकर बोली, ''सच कहती हूँ तुमसे, यह लड़की अच्छी नहीं है, इसीलिए मुझे आपत्ति है, नहीं तो...''
''नहीं तो...?''
''नहीं तो फिर क्या! तुम्हारे लायक लड़की जब ढूँढ़ दूँगी, उसी समय इस बात का उत्तर दूँगी, इस समय नहीं।''
सिर हिलाकर मैंने कहा, ''तुम फिजूल कोशिश मत करो राजलक्ष्मी, मेरे लायक लड़की तुम किसी दिन भी खोजकर न निकाल सकोगी।''
वह बहुत देर तक चुप बैठी रहकर एकाएक बोल उठी, ''अच्छा सो शायद न निकाल सकूँ, परन्तु तुम बर्मा जाओगे तो मुझे साथ ले चलोगे?''
उसके प्रस्ताव को सुनकर मैं हँसा। बोला, ''मेरे साथ चलने का तुम्हें साहस होगा?''
प्यारी मेरे मुँह के प्रति तीक्ष्ण दृष्टि पात करके बोली, ''साहस! इसे क्या तुम कोई बड़ा कठिन काम समझते हो?''
''मैं चाहे जो समझूँ, किन्तु तुम्हारे इस सारे घर-द्वार, माल-असबाब, जमीन-जायदाद आदि का क्या होगा?''
प्यारी बोली, ''चाहे जो हो। तुम्हें नौकरी करने के लिए जब इतनी दूर जाना पड़ा- यह सब रहते हुए भी जब तुम्हारे किसी काम न आया, तब इसे बंकू को दे जाऊँगी।''
इस बात का जवाब मैं नहीं दे सका। खुली हुई खिड़की के बाहर अंधेरे में देखता हुआ चुपचाप बैठा रहा।
उसने फिर कहा, ''इतनी दूर न जाओ तो न चले? यह सब क्या किसी भी दिन तुम्हारे किसी काम में नहीं आ सकता?''
मैं बोला, ''नहीं, कभी, किसी दिन भी नहीं।''
प्यारी ने गर्दन हिलाकर कहा, ''यह मैं जानती हूँ। परन्तु, ले चलोगे तुम मुझे अपने साथ?'' इतना कहकर उसने मेरे पैरों पर फिर अपने हाथ रख दिये। एक दिन जब प्यारी ने मकान से जबर्दस्ती बिदा कर दिया था तब उस दिन का उसका असाधारण धीरज और मन की ताकत देखकर मैं अवाक् हो गया था। आज उसी की इतनी बड़ी दुर्बलता-करुण कण्ठ की ऐसी कातर मिन्नत। यह सब एक साथ याद करके मेरी छाती फटने लगी। परन्तु, किसी तरह भी राजी न हो सका। बोला, ''मैं तुम्हें अपने साथ तो नहीं ले जा सकता, परन्तु, तुम जब बुलाओगी, तभी लौट आऊँगा। मैं कहीं भी रहूँ, हमेशा तुम्हारा ही रहूँगा राजलक्ष्मी।''
''क्या तुम चिरकाल तक इस पापिष्ठा के ही होकर रहोगे?''
''हाँ, चिरकाल तक।''
''तब तो फिर, यह कहो कि तुम्हारा कभी विवाह ही न होगा?''
''हाँ, नहीं होगा। इसका कारण यह है, कि तुम्हारी सम्मति के बिना, तुम्हें दु:ख देकर, इस काम में मेरी कभी प्रवृत्ति नहीं होगी।''

प्यारी अपलक दृष्टि से कुछ देर तक मेरे मुँह की ओर देखती रही। इसके बाद उसके दोनों नेत्र ऑंसुओं से परिपूर्ण होकर बड़ी-बड़ी बूँदों के रूप में टप-टप गिरने लगे। ऑंखें पोंछकर गाढ़े स्वर में वह बोली, ''इस हतभागिनी के लिए तुम जिन्दगी-भर सन्यासी बने रहोगे?''
मैंने कहा, ''हाँ, बना रहूँगा। तुम्हारे पास जो वस्तु मैंने पाई है, उसके बदले सन्यासी बनकर रहने में मेरा कोई नुकसान नहीं है। मैं कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरी इस बात पर तुम कभी अविश्वास न करना।''
पल-भर के लिए दोनों की चार नजरें हुईं और दूसरे ही क्षण वह तकिये में मुँह छिपाकर उलटी लेट गयी। उच्छ्वसित क्रन्दन के आवेग से उसका सारा शरीर काँप-काँपकर और फूल-फूलकर उचकने लगा।
मैंने मुँह उठाकर देखा, सारा मकान गहरी नींद से ढका हुआ था। कहीं कोई जाग नहीं रहा था। केवल एक दफे खयाल आया, कि झरोखे के बाहर अंधियारी रात्रि अपने कितने ही उत्सवों की प्रिय सहचरी प्यारी के इस हृदय-विदारक अभिनय को मानो आज चुपचाप, ऑंखें खोलकर, अत्यन्त परितृप्ति के साथ देख रही है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

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ऐसी-ऐसी अनेक बातें देखी हैं जिन्हें कि जीवन-भर भूला नहीं जा सकता। वे जब कभी याद आ जाती हैं तब उस समय के शब्द तक मानो कानों में गूँज उठते हैं। प्यारी के अन्तिम शब्द भी इसी तरह के थे। आज भी मैं मानो उनकी गूँज सुना करता हूँ। वह अपने स्वभाव से ही कितनी अधिक संयमी थी, इसका परिचय बचपन में ही उसने बहुत दफे दिया है। और फिर, उसके ऊपर अब कितने दिनों की सांसारिक अभिज्ञता है। उस दफे मेरे बिदा होने के समय किसी तरह भागकर उसने आत्म-रक्षा की थी। परन्तु इस दफे वह किसी तरह भी अपने आपको न सँम्हा्ल सकी, और नौकर-चाकरों के सामने ही रो पड़ी। रुँधे हुए कण्ठ से वह बोल उठीं, ''देखों, मैं नासमझ नहीं हूँ। अपने पापों का भारी दण्ड मुझे भोगना ही पड़ेगा, सो मैं जानती हूँ; किन्तु, फिर भी कहती हूँ, हमारा यह समाज बड़ा निष्ठुर-बड़ा निर्दय है। इसे भी इसका दण्ड एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा। भगवान इस पाप की सजा देंगे ही देंगे!''
समाज को उसने क्यों इतना बड़ा अभिशाप दिया सो वह जाने और उसके अन्तर्यामी जानें। मैं नहीं जानता, सो बात नहीं है; किन्तु मैं चुप ही रहा। बूढ़ा दरबान गाड़ी का दरवाजा खोलकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। मैं आगे पैर बढ़ा ही रहा था कि प्यारी ऑंखों के ऑंसुओं में से मेरे मुँह की ओर देखकर कुछ हँसी; बोली, ''कहाँ जा रहे जो? फिर तो शायद दर्शन होंगे नहीं, एक भिक्षा देते जाओगे?''
मैं बोला, ''दूँगा, कहो।''
प्यारी बोली, ''भगवान न करें- किन्तु, तुम्हारी जीवन-यात्रा जिस ढंग की है उससे-अच्छा, जहाँ भी रहो, ऐसे समय में खबर दोगे? शरमाओगे तो नहीं?''
''नहीं, शरमाऊँगा नहीं- खबर जरूर दूँगा'' इतना कहकर धीरे-धीरे मैं गाड़ी में जा बैठा । प्यारी पीछे-पीछे आई और उसने अपने ऑंचल में मेरे पैरों की धूल ले ली।
''अजी सुनते हो?'' मैंने मुँह उठाकर देखा कि वह अपने काँपते हुए होठों को प्राणपण से काबू में रखकर कहने की कोशिश कर रही है। दोनों की नजर एक होते ही फिर उसकी ऑंखों से झर-झर पानी झर पड़ा। वह अस्पष्ट रुँधे हुए कण्ठ से धीरे से बोली, ''न जाओ इतनी दूर तो? रहने दो, मत जाओ...''
चुपके से मैंने अपनी नजर उस ओर से फेर ली। गाड़ीवान ने गाड़ी हाँक दी। चाबुक और चार-चकोंके सम्मिलित सपासप और घर-घर शब्द से शाम का समय मुखरित हो उठा। किन्तु, इस सबको दबाकर केवल एक रुँधे हुए कण्ठ का दबा हुआ रुदन ही मेरे कानों में गूँजने लगा।
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Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

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पाँच-छ: दिन बाद मैं एक दिन भोर के समय, सिर्फ एक लोहे का ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर कलकत्ते के कोयला-घाट पर जा पहुँचा। गाड़ी से उतरते न उतरते खाकी कुरती पहिने हुए एक कुली ने दोनों चीजों को झपट लिया, उन्हें लेकर पलक-भर में न जाने वह कहाँ अन्तधर्न हो गया और जब तक खोजते-खोजते दुश्चिन्ता के मारे मेरी ऑंखों में ऑंसू न आ गये तब तक उसका कोई पता ही नहीं चला।
गाड़ी पर से आते-आते ही मैंने देखा था कि जेटी¹ और बड़े रास्ते के बीच की भूमि नाना रंग के पदार्थों से लदी हुई है- लाल, काले, भूरे, गेरुए। थोड़ा-सा कुहरा भी छाया हुआ था। ऐसा मालूम हुआ कि बछड़ों का एक झुण्ड शायद चालान किये जाने के लिए बँधा हुआ है। निकट आकर ध्याहन से देखा तो मालूम हुआ कि चालान तो अवश्य होगा; किन्तु, बछडों का नहीं-मनुष्यों का। वे लोग बड़ी-बड़ी-सी गठरियाँ लिये, स्त्री-पुत्रों के हाथ पकड़, सारी रात इसलिए इसी तरह ओस में पड़े रहे हैं कि सुबह तड़के ही सबसे पहले जहाज में घुसकर एक अच्छी-सी जगह पर कब्जा कर लेंगे। अतएव, किसके लिए सम्भव था कि पीछे से आकर इन्हें पार करके जेटी के द्वार तक पहुँच सके? थोड़ी ही देर बाद यह दल जब जागकर खड़ा हो गया तब मैंने देखा कि काबुल के उत्तर से कन्याकुमारी के अन्त तक का कोई भी प्रदेश अपना प्रतिनिधि इस कोयला-घाट पर भेजना नहीं भूला है।
सभी हैं। काली-काली गंजियाँ पहिने हुए चीनियों का दल भी बाद नहीं गया है। मैं भी तो डेक का (जिससे नीचे और कोई दर्जा नहीं उसका) यात्री था : इसलिए, लोगों को परास्त करके अपने बैठने के लिए एक जगह मुझे भी प्राप्त करनी थी। किन्तु इसका खयाल करते ही मेरा सारा शरीर बरफ-सा ठण्डा हो गया। फिर भी, जब जाना ही है और जहाज को छोड़कर और कोई जाने का रास्ता नहीं है, तब जैसे भी हो इन्हीं लोगों का अनुकरण करना कर्त्तव्य है- ऐसा विचार कर मैं अपने मन को जितना ही साहस देने लगा मानो उतना ही वह हिम्मत हारने लगा। जहाज कब आकर किनारे से लगेगा सो जहाज ही जाने। इस बीच में ही ये चौदह-पन्द्रह सौ लोग भेड़ों के झुण्ड की तरह कतारें बाँधकर एकाएक ऑंख उठाकर देखा, खड़े हो गये हैं। एक हिन्दुस्तानी आदमी से मैंने पूछा, ''भैया, सब लोग अच्छी तरह से तो बैठे थे- अब एकाएक कतार बाँधकर क्यों खड़े हो गये?'*
¹ जहाँ जहाज ठहरते हैं वह स्थान।
वह बोला, ''डगदरी होगी।''
''डगदरी क्या चीज होती है, भाई?''
उस आदमी ने पीछे से आए हुए एक धक्के को सँभालते हुए कुछ झुँझलाहट से कहा, ''अरे पिलेग का डगदरी।''
बात को समझना और भी कठिन हो गया। पर, समझूँ चाहे न समझूँ- इतने आदमियों के लिए जो जरूरी है वह मेरे लिए भी होगी। किन्तु किस कौशल से अपने आपको इस झुण्ड में घुसेड़ दूँ, यह एक समस्या ही सामने आकर खड़ी हो गयी। कहीं से घुसने के लिए थोड़ी-सी साँसर है या नहीं, यह खोजते-खोजते देखा कि कुछ दूर पर खिदिरपुर के कितने ही मुसलमान संकुचित भाव से खड़े हुए हैं। यह मैंने स्वदेश-विदेश सभी जगह देखा है कि जो काम लज्जित होने जैसा है, उसमें बंगाली लोग अवश्य लज्जित होते हैं। वे भारत की अन्यान्य जातियों के समान बिना संकोच के धक्का-मुक्की मारा-मारी नहीं कर सकते। इस तरह खड़े होने में जो एक तरह की हीनता है, उसकी शरम के मारे मानो ये सब अपना सिर नीचा कर लेते हैं। ये लोग रंगून में दर्जी का काम करते हैं और अनेक दफे आए-गये हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सब सावधानी, कहीं यहाँ से बर्मा में प्लेग न चली जाय, इसलिए है। डॉक्टर परीक्षा करके पास कर दे तभी जहाज पर चढ़ा जा सकता है। अर्थात् रंगून जाने के लिए जो लोग तैयार हुए हैं, इसके पहले ही जाँच हो जाना चाहिए कि वे प्लेग के रोगी हैं या नहीं। अंग्रेजी राज्य में डॉक्टरों का प्रबल प्रताप है। सुना है, कसाईखाने के यात्रियों को भी अन्दर जाकर जिबह होने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इन लोगों का मुँह ताकना पड़ता है। किन्तु, परिस्थिति की दृष्टि से रंगून के यात्रियों के साथ उसकी जो इतनी अधिक समानता है सो उस समय किसने सोची थी।
क्रमश: पिलेग की डगदरी निकट आ पहुँची। पियादे-सहित डॉक्टर साहब दिखाई दिये। उस कतारबन्दी की अवस्था में गर्दन टेढ़ी करके देखने का मौका तो नहीं था; फिर भी, आगे-खड़े हुए साथियों के प्रति किया गया परीक्षा-पद्धति का जितना भी प्रयोग दृष्टिगोचर हुआ, उससे मेरी चिन्ता की सीमा नहीं रही। कायर बंगालियों को छोड़कर ऐसा वहाँ कोई नहीं था जो देह के निम्न भाग के उघाड़े जाने पर भयभीत हो, परन्तु, अपने सामने के साहसी वीर पुरुषों के भी परीक्षा के समय बार-बार चौंक उठते देखकर मैं बुरी तरह शंकित हो उठा। सभी जानते हैं कि प्लेग की बीमारी में शरीर का स्थान-विशेष सूज आया करता है डॉक्टर साहब जिस प्रकार लीला-मात्र से और निर्विकार चित्त से उस सन्देह मूलक स्थान में हाथ डालकर सोजिश टटोलने लगे, उससे काठ के पुतलों को भी आपत्ति होती। किन्तु, भारतवासियों की सभ्यता सनातन है, इसलिए, जैसे भी हो एक दफे चौंककर ये स्थिर हो जाते थे। अगर और कोई जाति होती तो डॉक्टर का हाथ मरोड़े-तोड़े बिना न रहती। सो, चाहे जो हो, 'पास' होना जब अवश्य कर्त्तव्य था, तो फिर, और उपाय ही क्या हो सकता था? यथासमय ऑंखें मींचकर, सारा अंग संकुचित कर- एक तरह से हताश ही होकर, डॉक्टर के हाथ आत्म-समर्पण कर दिया और 'पास' भी हो गया।
इसके बाद जहाज पर चढ़ने की पारी थी। किन्तु, डेक-पैसिंजरों की यह अधिरोहण-क्रिया किस तरह निष्पन्न होती है- बाहर के लोगों के लिए उसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। फिर भी, कल-कारखानों में जिन्होंने दाँतवाले चक्रों की प्रक्रिया देखी है, उनके लिए इसका समझाना कुछ-कुछ सम्भव हो सकता है। वे जिस तरह आगे के खिंचाव और पीछे के धक्के से अग्रसर होकर चलते हैं, उसी तरह हमारी यह काबुली- पंजाबी- मारवाड़ी- मद्रासी- मराठा- बंगाली-चीनी- उड़िया गठित सुविपुल सेना केवल पारस्पारिक आकर्षण-विकर्षण के वेग से नीचे जमीन से जहाज के डेक पर बिना जाने ही चढ़ गयी और वह गति वहाँ पर भी नहीं रुकी। सामने की ओर देखा, एक गङ्ढे के मुँह पर सीढ़ी लगी हुई है। जहाज के गर्म-देश में उतरने का यही रास्ता था। नाले के अवरुद्ध मुख को खोल देने पर वृष्टि का संचित जल जिस तरह तीव्र वेग से नीचे गिरता है, ठीक उसी तरह यह दल भी स्थान अधिकृत करने के लिए जीने-मरने के ज्ञान से शून्य होकर नीचे उतरने लगा।
मुझे जहाँ तक याद आता है, मेरी नीचे जाने की इच्छा नहीं थी। पैरों से चलकर भी नहीं उतरा। क्षण भर के लिए मैं बेहोश हो गया था, इसलिए, मेरे इस कथन में यदि कोई सन्देह प्रकट करे, तो शायद कसम खाकर मैं इसे अस्वीकार भी न कर सकूँगा। होश में आने पर देखा कि गर्भ-गृह के मध्यक बहुत दूर पर एक कोने में मैं अकेला खड़ा हूँ। पैरों की ओर निगाह दौड़ाई, तो देखता हूँ कि इसी बीच में, जादू के खेल की तरह पल-भर में ही कम्बल बिछाकर और बॉक्स-पिटारों आदि से घेरकर हर किसी ने अपने-अपने लिए निरापद-स्थान बना लिया है और शान्ति से बैठकर अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त करना शुरू कर दिया है। इतनी देर के बाद, अब कहीं मेरे उस नम्बर वाले कुली ने आकर दर्शन दिया और कहा, ''ट्रंक और बिस्तर ऊपर रख आया हूँ, यदि आप कहें तो नीचे ले आऊँ।''
मैंने कहा, ''नहीं, बल्कि, किसी तरह यहाँ से उद्धार करके मुझे ही ऊपर ले चल।'' क्योंकि वहाँ इतना-सा स्थान भी मुझे कहीं खाली दिखाई नहीं दिया कि दूसरों के बिस्तर खूँदे बगैर तथा उनके साथ हाथापाई की सम्भावना उत्पन्न किये बगैर, मैं कहीं अपना कदम रख सकूँ। वर्षा होने पर ऊपर पानी में भीग जाऊँ यह अच्छा, किन्तु यहाँ एक क्षण-भर भी ठहरना ठीक नहीं। अधिक पैसों के लोभ से कुली, काफी कोशिश और बहस-मुबाहिसे के बाद, कम्बलों और सतरंजियों के किनारों को उलटता-पुलटता हुआ मुझे अपने साथ लिये हुए ऊपर आया और मेरा माल-असबाब दिखाकर बख्शीीश लेकर चलता बना। यहाँ का भी वही हाल- बिस्तर बिछाने के लिए, निरुपाय हो अपने ट्रंक के ऊपर ही बैठने का इन्तजाम करके मैं एकाग्र चित्त से माता भागीरथी के दोनों किनारों की महिमा का निरीक्षण करने लगा।
स्टीमर ने तब तक चलना आरम्भ कर दिया था। बहुत देर से प्यास लग रही थी। इन दो घण्टों के भीतर जो तूफान सिर पर से गुजर गया उससे जिनकी छाती शुष्क न हो जाए, ऐसे कठिन-हृदय संसार में बहुत थोड़े ही लोग हैं। किन्तु आफत यह हुई कि साथ में न तो गिलास था और न लोटा। साथ के मुसाफिरों में यदि कहीं कोई बंगाली हो तो कुछ उपाय हो कुछ उपाय हो सकता है, यह सोचकर मैं फिर बाहर निकला। नीचे उतरने के उस गङ्ढे के निकट पहुँचते ही एक तरह का विकट कोलाहल सुन पड़ा। मेरी जानकारी इतनी विस्तृत नहीं है कि उस कोलाहल की उपयुक्त तुलना कर सकूँ। गोशाला में आग देने से एक प्रकार का कोलाहल होने की बात कही जाती है जरूर, किन्तु, इसके अनुरूप कोलाहल होने के लिए जितनी बड़ी गोशाला की आवश्यकता है उतनी बड़ी गोशाला महाभारत के युग में विराट राजा के यहाँ यदि रही तो जुदा बात है, किन्तु इस कलिकाल में किसी के यहाँ हो सकती है, इसकी तो कल्पना करना भी कठिन है।
भयपूर्ण हृदय से दो-एक सीढ़ियाँ उतरकर मैंने झाँका तो देखा कि यात्रियों ने अपना अपना 'नेशनल' (=जातीय) संगीत शुरू कर दिया है। काबुल से लेकर ब्रह्मपुत्र और कन्याकुमारी से लेकर चीन की सीमापर्यन्त जितने भी तरह के स्वर ब्रह्म हैं, जहाज के इस बन्द गर्भ के भीतर वाद्ययन्त्रों के सहयोग से, उनका ही समवेत रूप से अनुशीलन हो रहा है। ऐसे महासंगीत को सुनने का सौभाग्य कदाचित् ही संघटित होता है; और संगीत ही ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ है, यह बात उस जगह खड़े-खड़े ही मैंने सम्मान के साथ स्वीकार कर ली। किन्तु सबसे अधिक विस्मय की बात यह थी कि वहाँ इतने अधिक संगीत-विशारद एक साथ आ जुटे किस तरह?
मैं एकाएक यह स्थिर नहीं कर सका कि मेरा नीचे उतरना उचित है या नहीं। सुना है, अंगरेजी महाकवि शेक्सपियर ने कहा है कि संगीत के द्वारा जो मनुष्य मुग्ध नहीं होता वह खून तक कर सकता है। किन्तु केवल मिनट भर सुन लेने से ही जो मनुष्य के खून को जमा दे ऐसे संगीत की खबर शायद उन्हें भी नहीं थी। जहाज का गर्भ-गृह वीणापाणि का पीठ-स्थान है या नहीं, सो नहीं, सो नहीं जानता परन्तु, यदि न होता तो यह कौन सोच सकता कि काबुली लोग भी गाना गाते हैं!
एक तरफ यह अद्भुत काण्ड हो रहा था और मैं मुँह बाए देख रहा था कि एकाएक देखा- पास में ही खड़ा हुआ एक व्यक्ति प्राणपण से हाथ हिला-हिलाकर मेरी नजर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है। बहुत कष्ट से अनेक लोगों की लाल-लाल ऑंखें सिर पर रखकर मैं उस मनुष्य के पास जा उपस्थित हुआ। उसने ब्राह्मण समझकर मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार किया और अपना परिचय दिया कि मैं रंगून का विख्यात नन्द मिस्री हूँ। पास ही एक विगत-यौवना स्थूल स्त्री बैठी हुई एकटक मेरी ओर देख रही थी। मैं उसके मुँह की ओर देखकर स्तम्भित हो गया। मनुष्य की इतनी बड़ी-बड़ी फुटबाल-सी ऑंखें और इतनी मोटी जुड़ी हुई भौहें पहले कभी न देखी थीं।
नन्द मिस्री उसका परिचय देते हुए बोला, ''बाबूजी, यह मेरी घरवा...''
बात पूरी भी न हो पाई थी कि वह फुँकार कर गर्ज उठी, ''घरवाली! ये मेरे सात भाँवरों के स्वामी कहते हैं घरवाली! खबरदार, कहे देती हूँ मिस्री, जिस-तिस के आगे झूठ बोलकर मुझे बदनाम मत किया करो! हाँ...!''
मैं तो विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया।
नन्द मिस्री कुछ अप्रतिभ-सा होकर बोला, ''आहा, नाराज क्यों होती हो टगर? घरवाली और कहते किसे हैं? बीस साल...''
टगर विकट क्रोध से बोल उठी, ''बीस साल हो गये क्या हुआ। फूटे करम! जात-वैष्णव की लड़की होकर मैं कहलाऊँ केवट की घरवाली! कैसे, किस तरह? बीस बरस से तुम्हारे घर हूँ जरूर, किन्तु एक दिन भी तुम्हें चौके में घुसने दिया है, यह बात कोई भी नहीं कह सकता। टगर वैष्णवी मर जायेगी, पर अपनी जाति नहीं खोएगी, जानते हो?'' इतना कहकर वह जात-वैष्णव की लड़की अपनी जाति के गर्व से मेरे मुँह की ओर देखती हुई अपनी दोनों फुटबाल की सी ऑंखें घुमाने लगी।
नन्द मिस्री लज्जित होकर बारम्बार कहने लगा, ''देखा बाबूजी, देखा? अभी तक इसे जाति का गर्व है! देखा आपने! मैं हूँ, इसी से सह लेता हूँ, और कोई होता...'' बीस बरस की उस घरवाली की ओर देखकर बेचारा अपनी बात पूरी भी न कर सका।
मैं और कुछ न बोला और उससे एक गिलास लेकर वहाँ से चल दिया। ऊपर पहुँचकर उस वैष्णवी की बातें याद करके मेरी हँसी रोकी न रुकी। किन्तु क्षण-भर बाद ही सोचा, यह तो एक सामान्य अशिक्षिता स्त्री ठहरी; पर, गाँवों में और शहरों में भी क्या ऐसे अनेक शिक्षित पुरुष नहीं हैं, जिनके द्वारा ऐसे ही हास्यकार्य अब भी प्रतिदिन हुआ करते हैं, और जो पाप के सारे अन्यायों से केवल खाना-छूना बचाकर ही परित्राण पा लेते हैं। तब, यह हो सकता है कि इस देश के पुरुषों का हाल देखकर तो हँसी नहीं आती, आती है सिर्फ औरतों को देखकर।
आज शाम से ही आकाश में थोड़े बादल जमा हो रहे थे। रात को एक बजे के बाद मामूली-सा पानी और हवा भी चली जिससे कुछ देर के लिए जहाज खूब हिला-डुला। दूसरे दिन सुबह से ही वह शिष्ट शान्त भाव से चलने लगा। जिसे समुद्री बीमारी कहते हैं, मेरा वह उपसर्ग तो शायद छुटपन में ही नाव के ऊपर कट गया था, इसलिए वमन करने के संकट को मैं एकबारगी ही पार कर गया; किन्तु, सपरिवार नन्द मिस्री का क्या हाल हुआ- किस तरह रात कटी, यह जानने के लिए मैं नीचे जा पहुँचा। कल के गायकों में अधिकांश उस समय तक भी औंधे पड़े हुए थे। मैंने समझ लिया कि रात्रि के उत्पात के कारण ही ये लोग अभी तक महासंगीत के लिए तैयार नहीं हो सके हैं। नन्द मिस्री और उसकी बीस बरस की घरवाली दोनों गम्भीर भाव से बैठे हुए थे। मुझे देख उन्होंने प्रणाम किया। उनके चेहरे के भाव से जान पड़ा कि कुछ देर पहले ही दोनों में कुछ कलह-सी जरूर हो चुकी है। मैंने पूछा, ''रात को कैसा हाल रहा मिस्रीजी?''
नन्द बोला, ''अच्छा रहा।''
उसकी घरवाली गरज उठी, ''खाक रहा अच्छा! मैयारी मैया, कैसा अद्भुत काण्ड हो गया।''
कुछ उद्विग्न होकर मैंने पूछा, ''कैसा काण्ड?''
नन्द मिस्री ने मेरे मुँह की ओर देखा, फिर जम्हाई ली। चुटकियाँ बजाईं और अन्त में कहा, ''काण्ड ऐसा कुछ नहीं था बाबूजी। कलकत्ते की गलियों के मोड़ों पर साढ़े बत्तीस तरह का चबेना बेचते हुए आपने किसी को देखा है? यदि देखा हो तो हम लोगों की अवस्था को आप ठीक तौर से समझ सकेंगे। वह जिस तरह अंगूठे के नीचे दो-तीन अंगुलियों की चोट मारकर भुने हुए चावल, दाल, मटर, मसूर, चने, सेम के बीज आदि सबको एकाकार कर देता है, देवता की कृपा से हम सब भी ठीक उसी तरह गड्डमड्ड हो गये थे, अभी ही कुछ देर हुई सब कोई अपने-अपने कपड़े पहिचानकर फिर अपनी जगह आकर बैठे हैं।'' इसके बाद वह टगर की ओर देखकर बोला, ''बाबूजी, भाग्य से असल वैष्णव की जात नहीं जाती, नहीं तो मेरी टगर...''
टगर भड़के हुए भालू की तरह गरज उठी, ''अब फिर वही!''
''नहीं, तो जाने दो'', कहकर नन्द उदासीनता से दूसरी तरफ को देखता हुआ चुप हो गया।
एक काबुली दम्पति, जो कि मलिनता के अवतार थे, सिर से पैर तक पृथ्वी की सारी गन्दगी लादे हुए अत्यन्त तृप्ति के साथ रोटी खा रहे थे। क्रुद्ध टगर उन हतभागों के प्रति अपने बड़े-बड़े चक्षुओं से एकंटक होकर अग्नि वर्षण करने लगी। नन्द ने अपनी घरवाली को उद्देश्य करके प्रश्न किया, ''तो फिर आज खाना-पीना कुछ न होगा, क्यों?''
घरवाली ने कहा, ''मौत और किसे कहते हैं? होगा कैसे, सुनूँ तो?''
मामला न समझ सकने के कारण मैंने कहा, ''अभी तो बड़ी सकार है, कुछ बेला चढ़ जाने पर...''
नन्द मेरे मुँह की ओर देखकर बोला, ''कलकत्ते से एक हाँड़ी में बढ़िया रसगुल्ले लाया था बाबूजी, जहाज पर सवार होने तक कहता रहा, ''आओ टगर, कुछ खा लेवें, आत्मा को कष्ट न दें'', परन्तु नहीं- ''मैं रंगून ले जाऊँगी।'' (टगर के प्रति) ले, अब ले जा रंगून, क्या ले जाती है?''
टगर ने, इस क्रुद्ध अभियोग का स्पष्ट प्रतिवाद न कर, क्षुब्ध अभिमान से एक दफे मेरी ओर देखा और फिर, वह उस हतभागे काबुली को अपनी नजर से पहले के समान ही दग्ध करने लगी।
मैंने धीरे से पूछा, ''क्या हुआ रसगुल्लों का?''
नन्द टगर को लक्ष्य करके कटाक्ष करता हुआ बोला, ''उनका क्या हुआ सो नहीं कह सकता। वह देखो न फूटी हाँड़ी, और वह देखो बिछौने में गिरा हुआ रस। इससे ज्यादा कुछ जानना चाहो तो पूछो उस हरामजादे से।'' इतना कहकर टगर की दृष्टि का अनुसरण कर वह भी कठोर दृष्टि से उनकी ओर ताकने लगा।
मैंने बड़ी मुश्किल से हँसी रोकते हुए मुँह नीचा करके कहा, ''तो जाने दो, साथ में चिउड़ा तो है!''
नन्द बोला, ''उस ओर से भी छुट्टी मिल गयी है। बाबूजी को एक दफे दिखा तो दो, टगर।''
टगर ने एक छोटी-सी पोटली को पैरों से ठुकराते हुए कहा, ''दिखा दो न तुम्हीं-''
नन्द बोला, ''जो भी कहो बाबू, काबुली जात नमकहराम नहीं कही जा सकती। ये लोग जिस तरह रसगुल्ले खा जाते हैं, उसी तरह अपने काबुलदेश की मोटी रोटियाँ भी तो बाँध देते हैं,- फेंकना नहीं टगर, रख छोड़, तेरे ठाकुरजी के भोग के काम में आ जायेंगीं।''
नन्द के इस परिहास से मैं जोर से हँस पड़ा, किन्तु दूसरे ही क्षण टगर के मुँह की ओर देखकर डर गया। क्रोध के मारे उसका सारा मुँह काला हो गया था। ऊँचे कण्ठ से वज्र-कर्कश शब्दों में जहाज के सब लोगों को चौंकाकर वह चिल्ला उठी, ''जात तक मत जाना भला मिस्री-कहे देती हूँ, अच्छा न होगा, हाँ...''
उसकी चिल्लाहट से जिन लोगों ने मुँह उठाकर उस ओर देखा, उनकी विस्मित दृष्टि के सामने, शरम के मारे, नन्द का मुँह जरा-सा रह गया। टगर को वह बखूबी जानता था। अपनी निरर्गल दिल्लगी के कारण पैदा हुए उसके क्रोध को किसी तरह शान्त करने में ही कुशल थी। शरमिन्दा होकर वह चट से बोल उठा, ''सिर की कसम टगर, गुस्सा मत हो, मैं तो केवल मजाक कर रहा था।''
टगर ने वह बात जैसे सुनी ही नहीं। पुतलियाँ और भौहें एक बार बाईं ओर और एक बार दाहिनी ओर घुमाकर और कण्ठ के स्वर को और एक पर्दा ऊपर चढ़ाकर वह बोली, ''मजाक कैसा! जात को लेकर भी क्या कोई मजाक किया जाता है। मुसलमानों की रोटियों से भोग लगाया जायेगा? केवट के मुँह में आग-जरूरत हो तो तू ही न रख छोड़-बाप को इनका पिण्डदान दे देना!''
डोरी छोड़े हुए धानुष्य की तरह नन्द चट से सीधा होकर खड़ा हो गया और उसने टगर का झोंटा पकड़ लिया, ''हरामजादी, तू बाप तक जाती है।''
टगर कमर का कपड़ा सँम्हालती हुई हाँफते-हाँफते बोली, और ''हरामजादे, तू जात तक जायेगा!'' इतना कहकर कानों तक मुँह फाड़कर उसने नन्द की भुजा के एक हिस्से में काट खाया। मुहूर्त-भर में ही नन्द मिस्री और टगर वैष्णवी का मल्ल-युद्ध गहरा हो उठा। देखते ही देखते सब लोग घेरकर खड़े हो गये। भीड़ हो गयी। समुद्री बीमारी की तकलीफ को भूलकर सारे 'हिन्दुस्तानी'¹ ऊँचे कण्ठ से वाहवाही देने लगे, पंजाबी छि:-छि: करने लगे, उड़िया चीं-चीं करने लगे। एक तरह से पूरा लंका काण्ड मच गया मैं सन्नाटे में आ गया। और मेरा मुँह विवर्ण हो गया। इतनी मामूली-सी बात पर निर्लज्जता का ऐसा नंगा नाच हो सकता है, इसकी मैं कल्पना भी न कर सका था। और वह भी एक बंगाली स्त्री-पुरुष के द्वारा जहाज-भर के लोगों के सामने हो रहा है, यह देखकर तो मैं लज्जा के मारे जमीन में गड़ा जाने लगा। पास में ही एक जौनपुरी दरबान अत्यन्त सन्तोष के साथ तमाशा देख रहा था। मेरी ओर लक्ष्य करके बोला, ''बाबूजी, बंगालिन तो बहुत अच्छी लड़ने वाली है, हटती ही नहीं।''
मैं उसकी ओर ऑंखें उठाकर देख भी न सका, चुपचाप गर्दन नीची किये किसी तरह भीड़ को चीरता हुआ ऊपर भाग गया।
उस दिन फिर मेरा जी न चाहा कि नीचे जाऊँ, इसलिए, नन्द और टगर के युद्ध का अन्त किस तरह हुआ- सन्धि-पत्र में कौन-कौन-सी शर्तें निश्चित हुईं, सो मैं कुछ नहीं जान पाया। परन्तु, बाद में देखा कि शर्तें चाहे जो हों, विपत्ति के समय वह 'स्कैप ऑफ पेपर' (कागज का रद्दी टुकड़ा) किसी काम नहीं आता। जब जिसे जरूरत होती है, खिलवाड़ की तरह उसे फाड़ फेंकता है और दूसरे का ब्यूह भेद कर डालता है। बीस बरस से ये दोनों यही करते आए हैं तथा और भी बीस बरस तक ऐसा न करते रहेंगे, इसकी शपथ स्वयं विधाता भी नहीं ले सकेंगे।
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बन्धन
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तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

सारे दिन तो आकाश में बादलों के टुकड़े यहाँ से वहाँ घूमते रहे; परन्तु, अब शाम के लगभग एक गहरा काला बादल सारे क्षितिज को ढँककर धीरे-धीरे सिर उठाकर, ऊपर आने लगा। मालूम हुआ कि खलासियों के मुँह और ऑंखों पर मानो घबराहट की छाया आ पड़ी है। उनके चलने-फिरने में भी मानो एक प्रकार के घबराहट के चिह्न नजर आने लगे हैं जो इसके पहले नहीं थे।
एक बूढ़े-से खलासी को बुलाकर पूछा, ''अजी चौधरी, आज रात को भी क्या कल ही के समान ऑंधी आवेगी?''
विनय से चौधरीजी वश में हो गये। खड़े होकर बोले, ''मालिक, नीचे चले जाइए; कप्तान ने कहा है, साइक्लोन (= बण्ण्डर) उठ सकता है।''
पन्द्रह मिनट बाद ही देखा कि उसका कथन निर्मल नहीं है। ऊपर जितने भी यात्री थे उन सबको खलासी लोग एक तरह से जबरन 'होल्डर' में उतारने लगे। दो-चार लोगों के आपत्ति करने पर सेकण्ड ऑफिसर ने खुद आकर उन्हें धक्के मारकर उठा दिया और उनके बिस्तर वगैरह लातों से हटाना शुरू कर दिया। मेरा ट्रंक, बिस्तर आदि तो खलासी लोग झटपट नीचे उठा ले गये; किन्तु, मैं खुद एक तरफ खिसक गया। मैंने सुना कि सबको- अर्थात् जो हतभागे दस रुपये से अधिक किराया नहीं दे सकते थे उन्हें- उस जहाज के गर्भ-गृह में भर के उसका मुँह बन्द कर दिया जायेगा। उनकी खैरियत के लिए यही एक उपाय था।
किन्तु, मुझे खुद अपने लिए खैरियत की यह व्यवस्था किसी तरह पसन्द नहीं आई। इसके पहले साइक्लोन नामक वस्तु को समुद्र में तो क्या, जमीन पर भी नहीं देखा था। कैसा इसका उपद्रव होता है, कैसा इसका स्वरूप है और अमंगल करने की कितनी इसकी शक्ति है, मैं बिल्कुहल नहीं जानता था। मन ही मन सोचने लगा कि मेरे भाग्य से यदि ऐसी वस्तु का आविर्भाव होना सन्निकट ही है, तो फिर उसे बगैर अच्छी तरह देखे नहीं छोडूँगा। भाग्य में जो बदा हो सो हो। और तूफान में यदि जहाज डूबना ही है, तो इस तरह प्लेग के चूहे की तरह पिंजरे में कैद होकर और सिर पटक-पटककर खारे पानी में क्यों मरूँ? इसकी अपेक्षा जब तक बने, हाथ-पाँव हिलाकर, लहरों के हिंडोले पर झूलते-उतराते हुए एक गोता लगाकर पाताल के राजमहल का अतिथि होना अच्छा। किन्तु, यह उस समय मुझे मालूम न था कि राजा का जहाज आगे-पीछे लाखों-करोड़ों हिंस्र अनुचरों के बगैर काले पानी में एक डग भी नहीं चलता और उन्हें लोगों का कलेवा कर डालने में घड़ी-भर की देर नहीं लगती।
बहुत समय से थोड़ी-थोड़ी वृष्टि हो रही थी। शाम के लगभग हवा और वृष्टि दोनों का ही वेग बढ़ गया। यह हालत हो गयी कि भाग निकलने की भी कोई जुगत न रही। जहाँ भी मिले सुविधानुसार एक आश्रय-स्थान खोजे बगैरे काम नहीं चल सकता। शाम के अंधेरे में जब मैं अपने स्थान पर वापिस आया तब ऊपर का डेक निर्जन हो गया था। मस्तूल के पास उचककर देखा कि ठीक सामने ही बूढ़ा कप्तान हाथ में दूरबीन लिये ब्रिज के ऊपर यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। इस डर से कि एकाएक उसकी शुभ दृष्टि में पड़कर फिर से, इतने कष्ट के बाद भी, दुबारा उसी गव् में न घुसना पड़े, एक ऐसी जगह खोजने लगा जहाँ सुभीते से बैठ सकूँ। खोजते-खोजते आखिर एक जगह मिल गयी जिसकी कि मैंने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक किनारे बहुत-सी भेड़ों, मुर्गियों और बत्तखों के पिंजड़े एक के ऊपर एक गँजे हुए थे। उछलकर मंब उन्हीं के ऊपर बैठ गया। जान पड़ा, ऐसी निरापद जगह शायद जहाज भर में और कहीं नहीं है। किन्तु, तब भी बहुत-सी बातें जानना बाकी थीं।
वृष्टि, हवा अन्धकार और जहाज का झूलना- ये सभी धीरे-धीरे अधिकाधिक बढ़ने लगे। समुद्र की लहरों का आकार देखकर मैंने मन ही मन सोचा, यही है शायद वह साइक्लोन; किन्तु वह सागर के समीप सिर्फ गौ के खुर के गढ़े के समान ही था, इस बात को अच्छी तरह हृदयंगम करने के लिए मुझे और भी थोड़ी देर ठहरना पड़ा।
एकाएक छाती के भीतर तक कँपकँपी पैदा करता हुआ जहाज का भोंपू बज उठा। ऊपर की ओर ताका तो जान पड़ा, मानो किसी मन्त्र के बल से आकाश का चेहरा ही बदल गया है। वे बादल अब नहीं रहे- मालूम हुआ कि सब तरफ से छिन्न-भिन्न होकर जैसे सम्पूर्ण आकाश हलका होकर कहीं ऊपर की ओर उड़ा जा रहा है। दूसरे ही क्षण समुद्र के एक प्रान्त से एक ऐसा विकट शब्द तेजी से आकर कानों में पैठ गया कि मैं नहीं जानता, उसकी किसके साथ तुलना करूँ।
लकड़पन में अंधेरी रातों में दादी की छाती से लगकर एक कहानी सुना करता था। किसी राजपुत्र ने डुबकी लगाकर तालाब के भीतर से एक चाँदी की डिबिया निकाली थी और उसमें बन्द सात सौ राक्षसियों के प्राणरूप एक सोने के भौंरे को चुटकी से मसलकर मार डाला था। फिर वे सात-सौ राक्षसियाँ मृत्यु यन्त्रणा से चीखती चिल्लाती हुईं सारी पृथ्वी को पैरों के बोझ-से कुचलतीं चूर्ण-विचूर्ण करतीं दौड़ आई थीं। वैसा ही यह भी कहीं कोई विप्ल्व-सा हो रहा है, ऐसा जान पड़ा; परन्तु, इस दफे सात सौ करोड़ राक्षसियाँ हैं- वे उन्मत्त भाव से कोलाहल करती हुई इसी ओर दौड़ी आ रही हैं। आ भी पड़ीं- राक्षसियाँ नहीं, परन्तु, तूफानी हवाएँ। तब मैंने सोचा कि इनकी अपेक्षा तो उन राक्षसियों का आना ही कहीं अच्छा था।
इस दुर्जेय वायु की शक्ति का वर्णन करना तो बहुत दूर की बात है, समग्र चेतना से अनुभव करना भी मानो मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है। सम्पूर्ण ज्ञान-बुद्धि को लुप्त करके केवल एक ही धारणा मेरे मन के भीतर अस्पष्ट और निस्संदिग्ध रूप से जागती रह गयी, कि दुनिया की मियाद एकबारगी खत्म होने में अब और कितनी-सी देर है। पास में ही जो एक लोहे का खूँटा था, गले की चादर से मैंने अपने आपको उसी से बाँध रक्खा था। प्रत्येक क्षण मेरे मन में यही खयाल उठने लगा कि बस मुझे यह हवा इस दफे ही खूँटे से छुड़ा देगी और उड़ा ले जाकर समुद्र में जा पटकेगी।
एकाएक जान बड़ा कि काला पानी मानो भीतर के धक्कों से घरघराता हुआ क्रम-क्रम से जहाज के ऊपर चढ़ रहा है। दूर को ऑंख उठाई तो उस तरफ से दृष्टि को पुन: वापस न लौटा सका। एक दफे जान पड़ा वह तो कोई पड़ाव है, किन्तु दूसरे ही क्षण जब भ्रम भंग हुआ तब हाथ जोड़कर मैंने कहा, ''भगवान, जैसे तुमने ये दोनों नेत्र दिए थे, वैसे ही आज इन्हें सार्थक भी कर दिया। इतने दिनों तक तो संसार में सर्वत्र ही ऑंखें खोले घूमता फिरा हूँ। किन्तु, तुम्हारी इस सृष्टि की तुलना तो कहीं भी नहीं देखी थी। जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है एक अचिन्तनीय विराट्काय महातरंग सिर पर चाँदी-सा शुभ्र किरीट धारण किये तेज चाल से आगे बढ़ती हुई आ रही है। जगत में और भी क्या कोई इतना बड़ा विस्मय है?''
समुद्र में न जाने कितने लोग आया-जाया करते हैं; मैं खुद भी तो कितनी ही दफे इस रास्ते गया-आया हूँ; किन्तु ऐसा दृश्य तो पहले कभी कहीं नहीं देखा था। इसके सिवाय, जिस मनुष्य ने ऑंखों नहीं देखा, उसे समझाकर यह बताना कल्पना के बाप के लिए भी सम्भव नहीं कि पानी की लहर किसी तरह इतनी बड़ी हो सकती है!
मन ही मन बोला, हे तरंग-सम्राट! तुम्हारी टक्कर से हमारा जो कुछ होगा, उसे तो हम जानते ही हैं, किन्तु, अब भी तो तुम्हें यहाँ तक आ पहुँचने में आखिर आधा मिनट की देर है, तब कम से कम उतने समय तक तो मैं अच्छी तरह जी-भरकर तुम्हारे कलेवर को देख लूँ।
यह भाव किसी वस्तु की सुविपुल ऊँचाई और उससे भी अधिक विस्तार देखकर ही इस तरह मन में उत्पन्न नहीं हुआ करता, क्योंकि यदि ऐसा हो तो इसके लिए हिमालय का कोई भी अंग-प्रत्यंग यथेष्ट है। किन्तु, जो यह विराट व्यापार सजीव के समान दौड़ा आ रहा है, उसकी अपरिमेय शक्ति की अनुभूति ने ही मुझे अभिभूत कर डाला।
किन्तु, समुद्र-जल के टकराने से जो एक तरह की ज्वाला सी बार-बार चमक उठती है वह ज्वाला विचित्र रेखाओं में यदि इसके सिर पर न खेलती होती तो गम्भीर कृष्ण जल-राशि की विपुलता को मैं इस अन्धकार में शायद उस तरह न देख पाता। इस समय जितनी भी दूर तक मेरी दृष्टि जाती है उतनी ही दूर तक इस आलोक-माला ने मानो छोटे-छोटे प्रदीपों को जलाकर इस भयंकर सौन्दर्य का चेहरा मेरी ऑंखों के सामने खोल दिया है।
जहाज का भोंपू असीम वायु-वेग से थरथर काँपता हुआ लगातार बजने लगा और भयार्त्त खलासियों का दल अल्लाह के कानों तक अपना आकुल आवेदन पहुँचा देने के लिए गला फाड़-फाड़कर एक साथ चिल्लाने लगा।
जिसके शुभागमन के निमित्त इतना भय, इतनी चीख-पुकार- इतना उद्योग-आयोजन हो रहा था, वह महातरंग आखिर आ पहुँची। एक प्रकाण्ड प्रकार की उलट-पलट के बीच हरवल्लभ के समान मुझे भी पहले जान पड़ा कि निश्चय से ही हम डूब गये हैं; इसलिए, दुर्गा का नाम जपने से अब और क्या हो सकता है। आस-पास ऊपर-नीचे, चारों ओर काला जल ही जल है! जहाज समेत सब लोग पाताल के राजमहल में निमन्त्रण खाने जा रहे हैं, इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा। इस समय चिन्ता केवल यही है कि खाना-पीना आदि वहाँ न जाने किस किस्म का होगा।
किन्तु, करीब मिनट-भर बाद ही दिखाई दिया-नहीं, डूबे नहीं हैं, जहाज समेत हम सब केवल जल के ऊपर उतरा रहे हैं। इसके सिवाय लहर के ऊपर लहर आना भी खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हम लोगों का हिंडोला झूलना भी समाप्त नहीं हुआ है। इतनी देर के बाद अब पता लगा कि क्यों कप्तान-साहब ने लोगों को जानवरों के समान गढ़े मंे डालकर ताला लगवा दिया है। डेक के ऊपर से बीच-बीच में मानो जल की धारा बह जाने लगी। मेरे नीचे की बत्तखें और मुर्गियाँ कितनी ही दफे फड़फड़ाकर और भेड़ें कई बार 'मैं-मैं' करके भव-लीला समाप्त कर गयीं। सिर्फ मैं ही उनके ऊपर आश्रय ग्रहण किये, लोहे के ख्रुंटे को जोर से पकड़े हुए, अपनी भव-लीला सुरक्षित बनाए रहा।
किन्तु, इसी समय एक और प्रकार की आफत आ जुटी। केवल जल के छींटे ही मेरे शरीर में सुई की तरह छिद रहे हों सो बात नहीं- समस्त कपड़े और धोती के भीग जाने से और प्रचण्ड वायु से इतनी ठण्ड लगने लगी कि दाँत कटकट बजने लगे। खयाल आया, कि हाल जल में डूबने से तो किसी तरह बच भी सकता हूँ, किन्तु निमोनिया के हाथ से किस तरह परित्राण पाऊँगा? और, यह तो मैंने नि:संशय अनुभव किया कि इसी तरह यदि और भी कुछ देर बैठा रहूँगा तो परित्राण पाना सचमुच ही असम्भव हो जायेगा। इसलिए जिस तरह भी हो, इस स्थान का परित्याग करके किसी ऐसी जगह आश्रय लेना चाहिए जहाँ कि जल के छींटे बर्छी के फल की तरह शरीर में न चुभें। एक बार सोचा कि भेड़ों के पिंजरे में घुस जाऊँ तो कैसा हो! किन्तु वह भी कितना सुरक्षित है? उसके भीतर यदि खारे जल की धारा प्रवेश कर जाय तो ठीक 'मैं-मैं' करके न सही, पर 'माँ-माँ' करके अन्त में अवश्य ही इह-लीला समाप्त करनी पड़ेगी।
सिर्फ एक उपाय है। जहाज जब पार्श्व-परिवर्तन करता है तब भागने का कुछ मौका मिल जाता है; इसलिए, उस समय यदि कहीं जाकर घुस सकूँ तो शायद जान बच जाय। जो सोचा, वही किया। किन्तु पिंजरों पर से नीचे उतरकर, तीन बार दौड़कर, और तीन बार बैठकर, किसी तरह जब मैं सेकण्ड क्लास के केबिन के द्वार पर पहुँचा, तब देखा, द्वार बन्द है। लोहे के किवाड़ों ने हजार धक्का-मुक्की करने पर भी रास्ता नहीं दिया। इसलिए, वही रास्ता फिर उसी तरह तय करके मैं फर्स्ट क्लास के दरवाजे पर आ उपस्थित हुआ। इस दफे भाग्य देवता ने सुप्रसन्न होकर एक निराले कमरे में आश्रय दे दिया; और जरा भी दुविधा न करके मैं किवाड़ बन्द करके पलंग पर जा सोया।
रात के बारह बजे के भीतर तूफान तो थम गया, किन्तु समुद्र का गुस्सा दूसरे दिन भोर तक भी शान्त न हुआ।
मेरे सामान का और साथी मुसाफिरों का क्या हाल हुआ, और, खास तौर से सपत्नीक मिस्रीजी ने किस तरह रात बितई, यह जानने के लिए सुबह मैं नीचे उतर गया। कल नन्द मिस्री ने जरा दिल्लगी करते हुए कहा था कि ''बाबूजी, साढ़े बत्तीस प्रकार के चबेने के समान हम लोग आपस में गड्डमड्ड हो गये थे और अभी ही कुछ देर हुई, सब कोई अपनी-अपनी जगह आकर बैठे हैं।'' आज का गड्डमड्ड साढ़े बत्तीस प्रकार में गिना जा सकता है या नहीं, सो मुझे नहीं मालूम; किन्तु, इस समय तक कोई भी अपने निजी स्थान पर लौटकर न आने पाया था यह मैंने अपनी ऑंखों देखा।
उन लोगों की व्यवस्था देखने पर सचमुच ही रुलाई आने लगी। इन तीन-चार-सौ यात्रियों में से किसी के समर्थ रहने की बात तो दूर-शायद, अक्षत भी कोई नहीं बचा था।
औरतें सिल पर जिस तहर लोढ़े से मसाला बाँटती हैं, कल का साइक्लोन इन तीन-चार सौ लोगों का ठीक उसी तरह सारी रात मसाला बाँटता रहा। सारे माल-असबाब के सहित-बक्स-पेटियों आदि के सहित ये सब लोग रात-भर जहाज के इस किनारे से उस किनारे तक लुढ़कते फिरे हैं। वमन तथा अन्य दो क्रियाएँ इतनी अधिक की गयी हैं कि दुर्गन्ध के मारे खड़ा होना भी भारी हो रहा है और इस समय डॉक्टर बाबू जहाज के मेहतर और खलासियों को साथ लिये इन लोगों का 'पंकोद्धार' करने की व्यवस्था कर रहे हैं।
डॉक्टर बाबू ऊपर से नीचे तक मेरा बार-बार निरीक्षण करके शायद मुझे सेकण्ड क्लास का मुसाफिर समझ बैठे थे, फिर भी, अत्यन्त आश्चर्य के साथ बोले, ''महाशय तो खूब ताजे दिख रहे हैं; जान पड़ता है कि आराम करने के लिए कोई हैमॉक (भ्उउवबा= जहाज पर रहनेवाला एक तरह का एक झुलन-खटोला) पा गये थे, क्यों न?''
''हैमॉक कहाँ से पाता महाशय, पाया था एक भेड़ों का पिंजरा। इसीलिए तरो-ताजा दीख रहा हूँ।''
डॉक्टर बाबू मुँह फाड़कर मेरी ओर ताकते रह गये। मैं बोला, ''डॉक्टर बाबू, यह अधम भी इसी नरक-कुण्ड का यात्री है। किन्तु, कमजोर होने के सबब यहाँ घुस न सका- शुरु से ही डेक के ऊपर रहा आया। कल साइक्लोन की खबर पाकर कुछ देर भेड़ों के पिंजरों के ऊपर बैठकर, और रात को फर्स्ट क्लास के एक कमरे में अनधिकार प्रवेश करके आत्मरक्षा कर सका हूँ। क्या कहते हैं आप, मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया?''
सारा इतिहास सुनकर डॉक्टर बाबू इतने प्रसन्न हुए कि उसी क्षण उन्होंने मुझे अपने निजी कमरे में बाकी दो दिन काटने के लिए सादर निमन्त्रण दे दिया। अवश्य ही उस निमन्त्रण को मैं स्वीकार नहीं कर सका- केवल एक चेयर मैंने उनसे ले ली।
दोपहर को भूख की मार से मुर्दे की तरह चेयर पर पड़ा हुआ ब्रह्माण्ड की समस्त खाद्य-वस्तुओं का ध्या न कर रहा था- कहाँ जाकर क्या कौशल करूँ कि कुछ खाने को मिल जाय। इसी समय, जब कि मैं इस दुश्चिन्ता में डूबा हुआ था, खिदिरपुर के मुसलमान दर्जियों में से एक ने आकर कहा, ''बाबू साहब, एक बंगाली औरत आपको बुला रही है।''
''औरत?'' समझा कि टगर होगी। क्यों बुला रही है सो भी अनुमान कर लेना मेरे लिए कठिन नहीं था। निश्चय ही मिस्री के साथ स्वामी और स्त्री के स्वत्व सिद्ध करने के व्यापार में फिर मतभेद उपस्थित हो गया है। किन्तु, मेरी जरूरत क्यों आ पड़ी? ज्तपंस इल वतकमंस (अग्नि-परीक्षा के) सिवाय बाहर के किसी आदमी ने आकर किसी दिन इसकी मीमाँसा कर दी हो, यह सोचना भी कठिन है।
मैंने कहा, ''घण्टे-भर बाद आऊँगा, कह देना।''
उस मनुष्य ने कुण्ठित होकर कहा, ''नहीं बाबू साहब, बड़ी मिन्नत करके बुला रही है...''
''मिन्नत करके?'' किन्तु टगर तो मिन्नत करने वाली औरत नहीं है। पूछा ''उसके साथ का मर्द क्या कर रहा है?''
वह बोला, ''उसी की बीमारी के कारण तो आपको बुला रही है।''
बीमारी होना बिल्कु'ल ही अचरज की बात नहीं थी, इसलिए मैं उठ खड़ा हुआ। वह मुझे अपने साथ नीचे ले गया। काफी दूर पर एक कोने में कुण्डली किये हुए मोटे-मोटे रस्से रखे हुए थे। उन्हीं की आड़ में एक बाईस-तेईस वर्ष की बंगाली स्त्री बैठी थी। पहले कभी उस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। पास में ही एक मैली शतरंजी के ऊपर करीब-करीब इसी उम्र का एक अत्यन्त क्षीणकाय युवक मुर्दे की तरह ऑंखों मूँदकर पड़ा हुआ है- वही बीमार है।
मेरे निकट आते ही उस औरत ने धीरे-धीरे अपने सिर का वस्त्र आगे खींच लिया, किन्तु मैं उसका मुँह देख चुका था।
वह मुख सन्दर कहा जाय तो बहस उठ सकती है, किन्तु फिर भी उपेक्षा करने योग्य नहीं था। ऊँचा कपाल स्त्रियों की सौन्दर्य-तालिका में कोई स्थान नहीं रखता, यह मुझे मालूम है; फिर भी, इस तरुणी के चौड़े मस्तक पर बुद्धि और विचार-शक्ति की एक ऐसी छाप लगी हुई देखी जिसे मैंने कदाचित् ही देखा है। मेरी अन्नदा जीजी का कपाल भी प्रशस्त था। इसका भी बहुत कुछ उसी तरह का था। माँग में सिन्दूर झलक रहा था, हाथ में लोहे की चूड़ियाँ¹ और शंख के वलयों को छोड़कर और कोई अलंकार नहीं था। ऑंग में एक सीधी-सादी रंगीन साड़ी थी।
परिचय न होने पर भी इतने स्वाभाविक ढंग से उसने बात की कि मैं विस्मित हो गया। वह बोली, ''आपके साथ डॉक्टर बाबू का तो परिचय है, क्या एक दफे आप बुला सकते हैं?''
मैंने कहा, ''आज ही उनसे परिचय हुआ है। फिर भी, जान पड़ता है, डॉक्टर बाबू भले आदमी हैं। किन्तु, उन्हें क्यों बुलाती हो?''
वह बोली, ''यदि बुलाने पर विजिट देनी पड़ती हो, तो फिर जरूरत नहीं है; न होगा, ये ही थोड़ा कष्ट करके ऊपर चले चलेंगे।'' इतना कहकर उसने उस रोगी आदमी को दिखा दिया।
मैंने सोचकर कहा, ''जहाज के डॉक्टर को शायद कुछ भी देना नहीं होता। किन्तु, इन्हें हो क्या गया है?''
मैंने सोचा था कि रोगी इनका पति है; किन्तु, बातचीत से कुछ सन्देह हुआ। उस मनुष्य के मुँह के ऊपर कुछ झुककर उसने पूछा, ''घर से चलते समय से ही तुम्हें पेट की बीमारी थी न?''
उस मनुष्य ने सिर हिला दिया, तब इसने सिर ऊपर उठाकर कहा, ''हाँ, इन्हें पेट की बीमारी देश में ही हुई थी, किन्तु कल से बुखार आ गया। इस समय देखती हूँ कि बुखार तेज हो आया है, कुछ दवाई दिए बिना काम न चलेगा।''
मैंने भी स्वयं हाथ डालकर उसके शरीर का ताप देखा, वास्तव में बुखार खूब तेज था। डॉक्टर को बुलाने मैं ऊपर चला गया।
डॉक्टर बाबू नीचे आए, रोग-परीक्षा करके और दवाई का पुरजा देकर बोले, ''चलो श्रीकान्त बाबू, कमरे में चलकर गप-शप करें।''
डॉक्टर बाबू खूब रंगीले थे। अपने कमरे में ले जाकर बोले, ''चाय पीते हैं?'' मैंने कहा, ''हाँ, पीता हूँ।''
''और बिस्कुट?''
''सो भी खाता हूँ?''
''अच्छा।''
खाना-पीना समाप्त होने के बाद दोनों आमने-सामने कुर्सियों पर बैठ गये। डॉक्टर बाबू बोले, ''आज कैसे जा भिड़े उस औरत से?''
मैंने कहा, ''उसने ही मुझे बुला भेजा था।''
डॉक्टर बाबू इस तरह सिर हिलाकर कि मानो सब कुछ जानते हों, बोले, ''बुलाना ही चाहिए- शादी-वादी की है या नहीं?''
मैंने कहा, ''नहीं।''
डॉक्टर बाबू बोले, ''तो बस, भिड़ जाओ। ऐसी कुछ बुरी नहीं है। उस आदमी का चेहरा देखा, उस पर टाईफाइड के लक्षण नजर आते हैं। कुछ भी हो, वह अधिक दिन न टिकेगा, यह निश्चित है। इस बीच उस पर नजर बनाए रखना। कहीं और कोई साला न भिड़ जाय।''
मैं अवाक् होकर बोला, ''आप यह सब कह क्या रहे हैं, डॉक्टर बाबू?''
डॉक्टर बाबू जरा भी अप्रतिभ हुए बिना बोले, ''अच्छा, वह छोकरा ही उसे घर से निकाल लाया है या उसी को वह बाहर निकाल लाई है- तुम्हें क्या मालूम होता है, श्रीकान्त बाबू? खूब फारवर्ड है। बातचीत तो बहुत अच्छी करती है।''
मैंने कहा, ''इस तरह का खयाल आपके मन में क्यों आया?''
डॉक्टर बाबू बोले, ''हर एक ट्रीप में तो देखता हूँ कि एक न एक है ही। पिछली दफे भी बेलघर की एक ऐसी ही जोड़ी थी। एक बार बर्मा में जाकर कदम तो रक्खो, तब देखोगे कि मेरी बात सच है या नहीं।''
उनकी बर्मा की बात बहुत कुछ सच है, यह मैंने बाद में अवश्य देखा; किन्तु उस समय तो ऊपर से नीचे तक मेरा सारा मन अरुचि से तीखा हो उठा। डॉक्टर बाबू से बिदा लेकर नन्द मिस्री की खबर लेने नीचे गया। घरवाली सहित मिस्री उस समय फलाहार की तैयारी कर रहा था। नमस्कार करने के बाद सबसे पहले उसने यह प्रश्न किया, ''यह औरत कौन है, बाबू?...''
टगर सिर दर्द के कारण अपने सिर पर एक कपड़ा पगड़ी की तरह बाँध रही थी। एकदम फुसकारकर बोल उठी, ''यह जानने की तुम्हें क्या गरज पड़ी है, बताओ तो सही?''
मिस्री ने मुझे मध्ययस्थ मानकर कहा, ''देखी महाशय, इस औरत की ओछी तबियत? कौन बंगाली औरत रंगून जा रही है, यह पूछना भी जैसे पाप हो!''
टगर अपना सिर-दर्द भूल गयी और पगड़ी को फेंककर मेरी ओर ताकने लगी। उसने अपनी दोनों गोल-गोल ऑंखें फाड़कर कहा, ''महाशय, टगर वैष्णवी के हाथ के नीचे से इन सरीखे से न जाने कितने मिस्री आदमी बनकर निकल गये हैं- अब भी क्या यह मेरी ऑंखों में धूल झोंक सकते हैं? अरे, तुम डॉक्टर हो कि वैद्य, जो मैं जरा-सा पानी लेने गयी, कि इतनी ही देर में, चट से दौड़कर वहाँ देखने जा पहुँचे? क्यों, कौन है वह? यह अच्छा नहीं होगा, सो कहे देती हूँ, मिस्री। यदि दुबारा फिर कभी वहाँ जाते देखूँगी तो फिर एक दिन या तो तुम ही हो या मैं ही।''
नन्द मिस्री ने गर्म होकर कहा, ''तेरा क्या मैं पालतू बन्दर हूँ जो तू जिस तरफ साँकल पकड़कर ले जायेगी उसी तरह जाऊँगा? मेरी इच्छा होगी तो फिर जाकर उस बेचारे को देखने जाऊँगा। तेरे मन में आवे सो कर।'' इतना कहकर उसने फलाहार में चित्त लगाया।
टगर ने भी सिर्फ 'अच्छा' कहकर अपनी पगड़ी बाँधना शुरू कर दिया। मैं भी वहाँ से चल दिया। चलते-चलते मैं सोचता गया- इसी तरह इन दोनों ने बीस बरस काट दिए हैं। अनेक दफे हाथ जलाकर टगर इतना सीखी है कि जहाँ पर सत्य का बन्धन नहीं है वहाँ रास को जरा भी ढीला करना अच्छा नहीं होता। ठगाना ही पड़ता है। या तो रात-दिन सतर्क बने रहकर जोर-जबरदस्ती से अपना दखल जमाए रखना पड़ेगा, नहीं तो, जवानी की तरह नन्द मिस्री भी एक दिन अनजान में खिसक जायेगा।
किन्तु, जिसको लक्ष्य करके टगर के मन में यह विद्वेष उत्पन्न हुआ और डॉक्टर बाबू ने कुत्सित तीव्र कटाक्ष किया, वह है कौन? टगर ने कहा था- यही कार्य करते हुए मैंने अपने बाल पकाए हैं। ऐसी औरत है कहाँ जो मेरी ऑंखों में धूल झोंक सके? डॉक्टर बाबू ने अपना मन्तव्य जाहिर किया था कि ऐसी घटनाएँ नित्य ही देखते रहने के कारण उनकी ऑंखों में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो गयी है। इसमें यदि भूल हो, तो वे ऐसी ऑंखों को निकाल फेंकने के लिए तैयार हैं।
ऐसा ही होता है। दूसरे का विचार करते समय किसी मनुष्य को कभी यह कहते नहीं सुना कि वह अन्तर्यामी नहीं हैं, अथवा कहीं भी उसका कोई भ्रम या प्रमाद हो सकता है। सभी कहते हैं कि मनुष्य को चीन्हने में हम बेजोड़ हैं और इस विषय में हम एक पक्के जौहरी हैं। फिर भी, संसार में मैं नहीं जानता कि कभी किसी ने अपने खुद के भी मन को ठीक तरह से पहिचाना हो। मगर हाँ, मेरे समान जिसने भी कहीं कोई कठिन चोट खाई है, उसे अवश्य ही सावधान होना पड़ा है। यह बात उसे मन ही मन मंजूर करनी ही पड़ती है कि संसार में जब अन्नदा जीजी सरीखी स्त्रियाँ भी हैं, तब बुद्धि के अहंकार से दूसरे को हीन और नासमझ समझकर खुद बुद्धिमान बनने की अपेक्षा, सब-कुछ अच्छी तरह जानते हुए भी, नासमझ बनने में ही एक तरह से अधिक बुद्धिमानी है। इसलिए, इन दो परम विज्ञ स्त्री-पुरुषों के उपदेश की मैं अभ्रान्त न मान सका। किन्तु डॉक्टर बाबू ने जो कहा था कि अत्यन्त 'फॉरवर्ड' है, सो ठीक मालूम हुआ। और, केवल यही बात मुझे रह-रहकर चुभने लगी।
बहुत रात गये मैं फिर बुलाया गया। इस दफे इस औरत का मुझे परिचय प्राप्त हुआ। नाम था अभया। उत्तरराढ़ी कायस्थ है, घर है बालूचर के निकट। जो व्यक्ति बीमार पड़ा है वह गाँव के रिश्ते से भाई होता है, नाम है उसका रोहिणी सिंह। ''दवा से रोहिणी बाबू को काफी लाभ पहुँचा है'', इस तरह कहना आरम्भ करके थोड़े ही समय में अभया ने मुझे अपना आत्मीय बना लिया। किन्तु मुझे यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि मेरे मन में, अनिच्छा होते हुए भी, एक कठोर समालोचना का भाव बराबर जाग्रत हो गया था। फिर भी, इस स्त्री की सारी बातचीत और आलोचना के दरम्यायन कहीं भी मैं जरा-सी भी असंगति या अनुचित प्रगल्भता नहीं पकड़ पाया।
अभया में मनुष्य को वश करने की अद्भुत शक्ति है। इस बीच में ही उसने मेरा केवल नाम-धाम ही नहीं जान लिया, वरन् 'मैं उसके लापता पति को, जिस तरह हो सके, खोज दूँगा', यह वचन भी उसने मेरे मुँह से निकलवा लिया। उसका पति आठ वर्ष पहले बर्मा में नौकरी के लिए आया था। दो वर्ष तक उसकी चिट्ठी-पत्री आती रही थी; किन्तु इन छह वर्षों से उसका कोई पता नहीं है। देश में कुटुम्ब-कबीले का और कोई नहीं है। माँ थीं; परन्तु वे भी करीब महीने-भर पहले गुजर गयीं। बाप के घर अभिभावकहीन होकर रहना असम्भव हो जाने से रोहिणी भाई को राजी कर बर्मा आई है।
कुछ देर चुप रहकर एकाएक वह बोल उठी, ''अच्छा, इतनी-सी भी कोशिश न करके यदि किसी तरह देश में ही पड़ी रहती तो क्या यह मेरे हक में अच्छा होता? इसके सिवाय इस उम्र में बदनामी मोल लेते कितनी-सी देर लगती है?''
मैंने पूछा, ''क्या आप जानती हैं कि इतने दिन तक क्यों आपकी उन्होंने कुछ खबर नहीं ली?''
''नहीं, कुछ नहीं जानती।''
''इसके पहले वे कहाँ थे, सो मालूम है?''
''जानती हूँ। रंगून में ही थे, बर्मा रेलवे में काम करते थे; किन्तु, कितनी ही चिट्ठियाँ दीं, कोई उत्तर नहीं मिला। और, कभी कोई चिट्ठी लौटकर वापिस भी नहीं आई।''
प्रत्येक पत्र अभया के पति को मिला है, यह तो निश्चित था। किन्तु, क्यों उसने जवाब नहीं दिया, इसका सम्भाव्य कारण हाल ही मैंने डॉक्टर बाबू के निकट सुना था। बहुत-से बंगाली वहाँ जाकर किसी ब्रह्मदेश की सुन्दरी को घर बिठाकर नयी गिरस्ती बसा लेते हैं और उनमें ऐसे अनेक हैं जो सारी जिन्दगी फिर लौटकर देश नहीं गये।
मुझे चुप देखकर अभया ने पूछा, ''वे जीवित नहीं हैं, यही क्या आपको जान पड़ता है?''
मैंने सिर हिलाकर कहा, ''बल्कि, ठीक इससे उल्टा। वे जीवित हैं, यह तो मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ।''
चट से अभया ने मेरे पैरे छूकर प्रणाम किया और कहा, ''आपके मुँह में फूल-चन्दन पड़ें। श्रीकान्त बाबू, मैं और कुछ नहीं चाहती। वे जीवित हैं, बस इतना ही मेरे लिए काफी है।''
मैं फिर मौन हो रहा। अभया खुद भी कुछ देर मौन रहकर बोली, ''आप क्या सोच रहे हैं, सो मैं जानती हूँ।''
''जानती हो?''
''जानती नहीं तो? आप पुरुष होकर जिसका खयाल कर रहे हैं, स्त्री होकर भी क्या मुझे वह भय नहीं होगा? सो होने दो, मुझे उसका डर नहीं है- मैं अपनी सौत के साथ मजे से गिरस्ती चला सकती हूँ।''
फिर भी मैं चुप ही बना रहा। किन्तु, मेरे मन की बात का अनुमान करने में इस बुद्धिमती स्त्री को जरा-सा भी विलम्ब नहीं हुआ। बोली, ''आप सोच रहे हैं कि मेरे गिरिस्ती चलाने के लिए राजी होने से ही तो काम नहीं चलेगा; मेरी सौत को भी तो राजी होना चाहिए?-यही न सोच रहे हैं?''
दरअसल मैं अवाक् हो गया और बोला, ''ठीक यदि ऐसा ही हो तो क्या करेंगी?''
इस दफे अभया की दोनों ऑंखें छलछला उठीं। वह मेरे मुँह की ओर अपनी सजल दृष्टि निबद्ध करके बोली, ''उस विपत्ति में आप मेरी थोड़ी-सी सहायता कर सकेंगे, श्रीकान्त बाबू, मेरे रोहिणी भइया बड़े सीधे-सादे भोले आदमी हैं, इसलिए उस समय तो इनके द्वारा मेरा कोई उपकार न होगा।''
राजी होकर मैंने कहा, ''बन पड़ेगा तो जरूर सहायता करूँगा; किन्तु इन सब कामों में बाहर के लोगों के द्वारा प्राय: काम होता तो कुछ नहीं, उलटा बिगड़ ही जाता है।''
''यह बात सच है'' कहकर अभया चुपचाप कुछ सोचने लगी।
दूसरे दिन ग्यारह-बारह बजे के बीच जहाज रंगून पहुँचने वाला था; किन्तु भोर होने के पहले से ही सब लोगों की ऑंखों और चेहरों पर भय और चंचलता के चिह्न नजर आने लगे। चारों ओर से एक अस्फुट शब्द कानों में आने लगा, 'केरेंटिन, केरेंठिन।' पता लगाने से मालूम हुआ कि ठीक शब्द 'कारेंटाइन' ;फनंतंदपजपदमद्ध है। उस समय बर्मा की सरकार प्लेग के डर से अत्यन्त सावधान थी। शहर से आठ-दस मील दूर पर रेत में काँटेदार तारों से थोड़ा-सा स्थान घेरकर उसमें बहुत-सी झोपड़ियाँ खड़ी कर दी गयी थीं- इसमें ही डेक के समस्त यात्रियों को बिना कुछ विचार किये उतार दिया जाता था। यहाँ पर दस दिन ठहरने के बाद उन्हें शहर में जाने दिया जाता था। हाँ, यदि किसी का कोई आत्मीय शहर में होता और वह पोर्ट हेल्थ ऑफिसर के पास जाकर किसी कौशल से 'छोड़पत्र' जुटा सकता तो बात जुदी थी।
डॉक्टर बाबू मुझे अपने कमरे में बुलाकर बोले, ''श्रीकान्त बाबू, एक 'छोड़पत्र' जुटाए बगैर आपका यहाँ आना उचित नहीं हुआ; कारेंटाइन में ले जाकर वे लोग मनुष्य को इतना कष्ट देते हैं कि कसाईखाने के गाय-बैल-भेड़ आदि जानवरों को भी उतना कष्ट नहीं सहना पड़ता। साधारण आदमी तो उसे किसी तरह सह लेते हैं, मर्मांन्तिक कष्ट तो केवल भले आदमियों को ही सहना पड़ता है। एक तो यहाँ कोई मजूर नहीं मिलता-अपना सब माल-असबाब अपने ही कन्धों पर लादकर एक सीधी जर्जर सीढ़ी पर से चढ़ना-उतरना होता है, और उतनी दूर ले जाना पड़ता है। इसके बाद, सारा माल-असबाब वहाँ खोलकर बिखेर दिया जाता है और स्टीम में उबालकर बर्बाद किया जाता है। और महाशय, ऐसी कड़ी धूप में तो कष्ट का कोई पार ही नहीं रहता।''
अत्यन्त भयभीत होकर मैंने कहा, ''इसका कोई प्रतिकार नहीं है क्या डॉक्टर बाबू?''
उन्होंने सिर हिलाकर कहा, ''नहीं-हाँ, जब डॉक्टर साहब जहाज के ऊपर चढ़ आवेंगे तब मैं उनसे कह देखूँगा। उनका क्लर्क यदि आपकी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को राजी होगा तो...''
किन्तु, उनकी बात अच्छी तरह पूरी न होने पाई थी कि बाहर एक ऐसा काण्ड घटित हुआ जिसकी याद करके मैं खुद भी लाज के मारे मर जाता हूँ। कुछ गोलमाल सुनकर दोनों जनें कमरे से बाहर निकले। देखा कि जहाज का सेकण्ड ऑफिसर छह-सात खलासियों को बेधड़क चाहे जिस तरह लातें मार रहा है, और, उसके बूट की ठोकरें खाकर वे जहाँ बन पड़ता है वहाँ भाग रहे हैं। यह अंगरेज युवक अत्यन्त उद्धत था, इसलिए डॉक्टर बाबू के साथ इसकी पहले भी कहा-सुनी हो चुकी थी, और आज फिर एक झपट हो गयी।
डॉक्टर गुस्सा होकर बोले, ''तुम्हारा इस तरह का काम अत्यन्त निन्दनीय है, किसी दिन इसके लिए तुम्हें दु:ख उठाना पड़ेगा, यह मैं कहे देता हूँ।''
वह पलटकर खड़ा हो गया और बोला, ''क्यों?''
डॉक्टर बाबू बोले, ''इस तरह लातें मारना बड़ा भारी अन्याय है।''
उसने जवाब दिया, ''मार खाए बिना क्या ढोर सीधे होते हैं?''
डॉक्टर बाबू कुछ 'स्वदेशी खयाल' के आदमी थे; वे उत्तेजित होकर कहने लगे, ''ये लोग जानवर नहीं हैं, गरीब मनुष्य हैं! हमारे देशी आदमी नम्र और शान्त होने के कारण कप्तान साहब के पास जाकर तुम्हारी शिकायत नहीं करते; और इसीलिए, तुम अत्याचार करने का साहस करते हो!''
एकाएक साहब का मुँह अकृत्रिम हँसी से भर गया। डॉक्टर का हाथ खींचकर उसने अंगुली से दिखाते हुए कहा, Look, Doctor, theres your country-men, you ought to be proud of them? (देखो डॉक्टर, वह देखो तुम्हारे देश के आदमी, तुम्हें अवश्य ही इन पर फक्र होना चाहिए।)
मैंने नजर उठाकर देखा, कुछ ऊँचे पीपों की आड़ में खड़े होकर वे खींसे बाहर निकाल कर हँस रहे हैं और शरीर की धूल झाड़ रहे हैं। साहब थोड़ा-सा हँसकर, डॉक्टर बाबू के मुँह पर दोनों हाथों के अंगूठे हिलाकर दाएँ-बाएँ झूमता सीटी देता हुआ चल दिया। विजय का गर्व जैसे उसके सारे शरीर से फूट पड़ने लगा।
डॉक्टर बाबू का मुँह लज्जा से, क्षोभ से और अपमान से काला हो गया। तेजी से कदम आगे रखते हुए क्रुद्ध स्वर से वे बोल उठे, ''बेहया सालो, खींसे बाहर निकालकर हँस रहे हो!''
इस दफे, इतनी देर बाद, देशी लोगों का आत्म सम्मान शायद लौट आया। सब लोगों ने एक साथ हँसना बन्द करके तेजी से जवाब दिया, ''तुम डॉक्टर बाबू, 'साला' कहने वाले कौन होते हो? किसी का कर्ज खाकर तो हम लोग नहीं हँसते?''
''जबर्दस्ती से डॉक्टर बाबू को खींचकर उनके कमरे में वापिस ले आया। कुर्सी पर धम्म से गिरते हुए उनके मुँह से सिर्फ 'ऊ:-!' निकला।
और कोई दूसरी बात उनके मुँह से बाहर निकलना भी असम्भव थी। ग्यारह बजे के लगभग कॉरेण्टाइन के पास एक छोटा-सा स्टीमर आकर जहाज से सटकर खड़ा हो गया। समस्त डेक के यात्रियों को यही उस भयानक स्थान में ले जाएगा। माल-असबाब बाँधने-छोरने की धूम मच गयी। मुझे जल्दी नहीं थी; क्योंकि, डॉक्टर बाबू का आदमी अभी ही कह गया था कि मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। निश्चिंत होकर यात्रियों और खलासियों की चिल्लाहट और दौड़-धूप कुछ अन्यमनस्क-सा होकर देख रहा था। हठात् पीछे से एक शब्द सुन पड़ा, पलटकर देखा कि अभया खड़ी है। आश्चर्य के साथ पूछा, ''आप यहाँ कैसे?''
अभया बोली, ''क्यों, क्या आप अपनी चीज-बस्त बाँधोगे नहीं?''
मैंने कहा, ''नहीं, मुझे अभी काफी देर है, मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। एकदम शहर में जाकर उतरूँगा।''
अभया बोली, ''नहीं, शीघ्र सामान ठीक कर लीजिए।''
मैंने कहा, ''मुझे अब भी बहुत समय है।...''
अभया ने प्रबल वेग से सिर हिलाकर कहा, ''नहीं, सो नहीं हो सकता, मुझे छोड़कर आप किसी तरह नहीं जाने पाएँगे।''
मैं अवाक् होकर बोला, ''यह क्या? मेरा तो वहाँ जाना नहीं हो सकेगा।''
अभया बोली, ''तो फिर, मेरा भी नहीं हो सकेगा। मैं पानी में भले ही फाँद पूड़ूँ, परन्तु, निराश्रय होकर इस जगह किसी तरह नहीं जाऊँगी। वहाँ की सब बातें सुन चुकी हूँ।'' यह कहते-कहते उसकी ऑंखें छलछला आईं। मैं हतबुद्धि-सा होकर बैठा रहा। ''यह कौन है जो मुझे इस तरह धीरे-धीरे जोर डालकर अपने जीवन के साथ जकड़ रही है?
वह ऑंचल से ऑंखें पोंछकर बोली, ''मुझे अकेली छोड़कर चले जावेंगे? मैं नहीं सोच सकती कि आप इतने निष्ठुर हो सकते हैं। उठिए, नीचे चलिए। आप न होंगे तो उस बीमार आदमी को साथ लेकर मैं अकेली औरत-जात क्या करूँगी, आप ही बताइए?''
अपना माल-असबाब लेकर जब मैं छोटे स्टीमर पर चढ़ा तब डॉक्टर बाबू ऊपर के डेक पर खड़े थे। हठात् मुझे इस अवस्था में देखकर वे हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहने लगे, ''नहीं नहीं, आपको न जाना होगा। लौट आइए, लौट आइए- आपके लिए हुक्म हो गया है, आप...''
मैंने भी हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहा, ''असंख्य धन्यवाद, किन्तु एक और हुक्म से मुझे जाना पड़ रहा है।''
सहसा उनकी दृष्टि अभया और रोहिणी पर जा पड़ी। वे मुसकराते हुए बोले, ''तब मुझे बेकार ही कष्ट दिया?''
''उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।''
''नहीं नहीं, उसकी जरूरत नहीं, मैं पहले से ही जानता था, गुड बाई।'' यह कहकर डॉक्टर बाबू हँसते चेहरे से चले गये।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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