मेरा पता कोई और है /कविता

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kunal
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Re: मेरा पता कोई और है /कविता

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एमीलिया ने जब नंदिता को आने की खातिर मैसेज किया वे दोनों साथ ही थे। वे दोनों चाहते थे फोन करके उसे बुलाएँ पर एक अजीब सी वजह बीच में दीवार की तरह आ ख्ड़ी हो जाती। आज ही नहीं पिछले तीन दिनों से... उससे क्या कहें वे... कैसे कहें... और फोन पर कैसे और किस तरह सब कुछ बता और समझा पाएँगे वे उसे। अगर आ गई तो कुछ वे, कुछ दूसरे और कुछ... माहौल सब कुछ वह खुद ब खुद समझ जाएगी। आखिरकार उन दोनों ने तय किया था कि वे नंदिता को एसएमएस करेंगे। एसएमएस करने के बाद एमीलिया ने अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर लिया था, उसे दिखाकर। वसीम फिर भी इस आस में था कि नंदिता थक-हार कर उसके मोबाइल पर फोन करेगी... पर उसके पास कोई फोन न आना था न आया... हाँ नंदिता जरूर पहुँच आई थी दूसरे दिन...
उसने यह तय किया कि वह नंदिता के सामने पहले पहल नहीं पड़ेगा। वे और एमीलिया ही हों पहले आमने-सामने... और हुआ भी ऐसा ही था। नंदी जब पहुँची तो वहाँ सिर्फ एमीलिया और घर में सिर्फ मम्मी मौजूद थीं। पर कहीं कोई अनाम सा अपराध बोध उसे परेशान किए हुए था। जबकि वह जानता था नंदिता ने कभी उससे प्यार नहीं किया... न कभी कुबूल ही किया उसका प्यार। फिर कैसा अपराधबोध और क्यों... वसीम ने मन ही मन कुबूला वह अपराधी तो था ही चाहे अपनी नजर में ही सही... एकतरफा ही सही प्यार तो उसने किया ही था नंदिता से टूटकर, फिर इस प्यार की मियाद इतनी छोटी कैसे हो गई... क्या थोड़ा और सब्र और इंतजार नहीं कर सकता था वह... रुककर देखता तो... पर रुक नहीं पाया था। वह जब गले-गले तक दर्द में डूबा हुआ था कोई हथेली बढ़ी थी उसकी ओर, उसे उबार लेने को। यह कहने को कि न आनेवाले का इंतजार करना... खड़े रहना उसके लिए बीच राह गलत है। सामनेवाले की सोच को गलत समझना, उसे मजबूर करना या कि दया की भीख माँगने जैसा...
और दया क्यों चाहता वसीम, और वह भी अपने पूरे समर्पण और प्यार के एवज में। उसके लिए तो नंदिता ही उसकी जिंदगी थी, पर नंदिता...
वसीम के पास तर्क मौजूद थे... और तर्क भी ऐसे जो नाकाबिल और कमजोर तो बिल्कुल नहीं थे... वह क्यों बना रहे किसी की राह का काँटा। अगर वह आजादी चाहती है उससे तो... वह तो उसकी एक हाँ के लिए फिर भी इंतजार करता रहता ताउम्र... पर अम्मी ने एमी को देखा और जिद लगा बैठी थीं... वसीम भूल जा उस नंदिता को। उसके प्यार की कद्र जरूरी है जो तुझे प्यार करता हो... और कारण तो उसके पास भी थे ही... पर्याप्त नहीं तो अपर्याप्त भी नहीं... जैसे चाँद को न छू पानेवाला बच्चा थाली में उसकी परछाई को ही छूकर किलक ले।
एमीलिया के साथ होता तो लगता नंदिता उसके साथ ही है। वही हँसी, वही बचपना, वही लगाव। हालाँकि सुनता आया था वह नंदिता से, एमी बिल्कुल उलट है उसकी। पर उसे ऐसा नहीं लगा तो कभी नहीं लगा... ये वही दिन थे जब नंदी उसे छोड़कर चली गई थी, बिना एक भी शब्द कहे। बिना उसे मनाने या समझाने का एक भी मौका दिए, उससे बहुत दूर... तभी एमीलिया आई थी उससे मिलने और आई तो जैसे वह देखता ही रह गया था। जैसे उसकी नंदी लौट आई है उस तक। अब तक वह गलत ही समझता रहा है उसे, अम्मी जो भी कह रही थीं वह सब गलत था। पर उसी नंदी ने जब नंदी के चले जाने की हामी भरी थी, फूट पड़ा था वह। हिलकता हुआ अपना माथा डाल दिया था उसके कंधे पर और उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया था; न एनवक्त, न बाद-वक्त। वह जब भी रोने के लिए कोई कंधा चाहता, एमी हाजिर हो जाती, बिना शिकवा... बिना शिकायत। जबकि अम्मी तब तक सब्र खोने लगी थीं। चीखने लगी थीं - गारत हो जा उस लड़की के पीछे, तब जबकि वह कोई मोल ही ना समझ रही हो... परे हो जा मेरी नजरों के आगे से... अब्बू तो देखना तक नहीं चाहते थे उसे... टूर से लौटकर आने के बाद तो और...
वह जब अकेला था सिरे से, एमीलिया ही तो आई थी उसे सँवारने, सँभालने... और कोई भले ही कहे अभी वक्त ही कितना हुआ था... माह-डेढ़ माह... लेकिन सदियों जैसे वे दिन उसीने काटे थे और अकेले काटे थे... अगर एमी साथ न होती तो... वह कैसे भूल सकता है एमीलिया का सहारा जो न होता तो शायद वसीम होता ही नहीं।
बची बात प्यार की तो प्यार तो वह करता ही है एमीलिया से। किसी के बिना एक भी दिन नहीं रह पाना, उसे देखने की लत लग जाना भी तो प्यार ही है। प्यार ही है किसी से अपना सब कुछ बाँट लेना, उसे अपने इतना करीब पाना... प्यार तो वह करता ही है एमीलिया से, भले ही नंदिता की तरह न करता हो... होशोहवास को भुला कर किया जानेवाला प्यार। किसी के लिए अपने वजूद को मिटा दिया जाय ऐसा प्यार... और जिंदगी में ऐसे ही प्यार की जरूरत होती है... न कि उस प्यार की... जिंदगी एक दोस्त चाहती है, जीने के लिए, संग रहने के लिए और फिर भी जिसमें अपना आप जीवित रह जाए बचा हुआ... अम्मी ऐसा ही तो कहती है... इसीलिए अम्मी ने एमीलिया से मिलने के बाद राहत की साँस ली थी जबकि नंदिता से मिलकर आने के बाद बिल्कुल हताश थीं वो... वस्सी वो हाँ नहीं कहेगी कभी... और कभी गलती से कह भी दिया तो...
अम्मी की ही जिद थी, इस रिश्ते को कोई शक्ल दे दिया जाए जल्दी से जल्दी... अम्मी का इख्तियार होता तो वे शादी करवा के ही दम लेतीं उन दोनों का उसी दिन... पर घर में अब्बू भी थे... और चलती उन्हीं की चलती थी अभी भी इस घर में... अब्बू तो बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि पढ़ने-लिखने की इस उम्र में वह इन पचड़ों में पर जाए। पर अम्मी की जिद... उन्होंने कहा था शादी वसीम के पढ़ाई खत्म कर लेने पर ही होगी। तुम चाहोगी यह कि एमीलिया नौकरी करे और तुम्हारा बेटा अभी पढ़ाई ही करता रहे... रिश्ते हमेशा बराबरी की बुनियाद पर ही पनपते हैं; वसीम को भी पढ़ाई पूरी कर लेने और नौकरी कर लेने दो... झुके अब्बू ही थे और बात सगाई पर थम गई थी... अब्बू ने कहा था कम से कम लोग हों... बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार और मित्र। बस एक सीधा-सादा समारोह और उनके अपने ही घर में...
अब्बू डरे हुए भी थे शायद... उसने सुना था अम्मी-अब्बू को बतियाते... मुझे तो डर लग रहा है नसीमा... ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले के कारण माहौल अभी गरम है... भले ही हमला आतंकियों ने किया हो पर नजर पर सारे मुसलमान हैं। मुझे डर लगता है, इस समय यह मँगनी कोई दूसरे तरह का बवाल न खड़ा कर दे... इसलिए हमें कम से कम लोगों को इस मौके पर बुलाना होगा, कुछ बेहद खास लोगों को ही...
शादी का वक्त आएगा तो देख लेंगे कि... देखना क्या है, एमीलिया इस्लाम कुबूल करेगी और निकाह पढ़ा दिया जाएगा उसका... इसमें देखने-सुनने की कोई बात है ही नहीं। कम बोलनेवाली नसीमा इस मसले पर बिल्कुल दो टूक थी... हनीफ मियाँ के सामने भी।
यहीं खाईं खड़ी हो जाती थी हनीफ और नसीमा के बीच हमेशा से... यहीं दूर खड़े हो जाते थे वे एक दूसरे से... इसी तरह जगह बन गई होगी नंदिता के लिए उनकी जिंदगी में, हनीफ ने सोचा था। पर सोचने से पहले ही उसने साफ कर दिया था... नहीं, शादी जब भी होगी दोनों रीतियों से होगी। मिला-जुलाकर या कि क्रम से यह वसीम और एमीलिया तय करेंगे, वह भी एमीलिया के पिता से पूछ कर... नसीमा उदास हो गई थी, चुप्प सी। उसकी तो कोई भी बात आज तक मायने ही नहीं रखती इस घर में... समझी कुछ...?
नसीमा हैरत में थी, कभी कुछ न कहनेवाले हनीफ मियाँ ने उसे डाँटा था और इस कदर डाँटा था... वह भी उसी के बच्चे वसीम की शादी के मामले पर। वह चुप रह जाने के सिवा कर भी क्या सकती थी। वह चुप ही तो रही थी ताउम्र, हर बात की अनदेखी करती हुई... वर्ना जीना मुश्किल हो जाता उसका।
इसीलिए उसने चाहा था वसीम अपनी मर्जी से शादी करे। कम से कम एक समानता तो होगी उनके विचारों में। वर्ना वह तो हनीफ मियाँ की उम्र, अनुभव और काबिलियत के बोझ से ही दबी रह गई सारी उम्र... इतना ज्यादा कि उनकी गलत-सही किसी बात पर कभी कोई उज्र नहीं कर पाई। वसीम और एमीलिया के बीच उसने एक अपनापा देखा था। बराबरी या दोस्ती जैसा कुछ। कहने से पहले ही एक-दूसरे के मन को समझ लेने की काबिलियत। वह तो परवरदिगार से बस दुआ ही माँग सकती है... उनका रिश्ता फले-फूले, हमेशा खुश रहें वे दोनों... पर डर उसे एक ही बात से लगता है, वह है नंदिता... और नंदिता को वसीम और एमीलिया फोन कर-कर के बुलाए जा रहे थे। उनकी समझ से तो उसे अभी बुलाए जाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। मँगनी हो रही थी बस... कोई शादी तो हो नहीं रही थी अभी... और उनका बस चलता तो शादी ही करवा डालतीं सीधे-सीधे... वसीम से तो उन्होंने कहा था, पढ़ाई छूट थोड़े ही जाएगी, एमीलिया के आने से... बल्कि उसके आ जाने से तो एक दबाव ही बना रहेगा कि जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ा होना है... तू कह अब्बू से कि...
मगर वसीम ने एक भी न सुनी थी उनकी... और उसने जब एमीलिया को यह सब कुछ बताया तो वह खिल-खिल हँस पड़ी थी... अम्मी भी...
वसीम गंभीर था, उसने पूछा एमीलिया से, तुमने पापा से बात की... अभी तक नहीं... कब करोगी... आज रात... नहीं अभी... वसीम ने फोन झटक लिया था उसके हाथ से और नंबर डायल कर दिया था... एमीलिया कहती रह गई थी बस... ये क्या कर रहे हो... उसके हिसाब से यह उसका निजी मामला था और पापा से वह कैसे कहेगी यह उसे ही तय करना था... लेकिन तब तक तो उसने नंबर डायल कर दिया था और पापा उधर फोन पर थे। उसे सुनाई दे रहा था... बोलो बेटा... हलो... हलो... पापा सॉरी... किसलिए बेटा... क्या हुआ... परसों मेरी सगाई हो रही है, वसीम से... आप सुन रहे हैं न पापा... बोलिए... आप चले आइए जल्दी से जल्दी... आप आ रहे हैं न पापा... चुप्पी उसे परेशान किए दे रही थी... आइ एम सॉरी पापा... दरअसल यह सब इतना अचानक... मुझे माफ कर दीजिए पापा... बेटा इस तरह बार-बार माफी नहीं माँगते... किस बात की माफी... तुमने मुझे वह खुशी दी है जिसका इंतजार हर पिता को रहता है... बस थोड़ा अप्रत्याशित तरीके से... मैं बहुत खुश हूँ बेटा तुम्हारे लिए... मैं तो बिल्कुल उम्मीद ही छोड़ चुका था... कि तुम इस रास्ते भी कभी मुड़ोगी... और जितनी बार यह उम्मीद टूटती उतना ही मैं अपराधी हुआ जाता... मैं आऊँगा बेटा... पापा की आवाज गीली थी। क्या आप वसीम से बात करना चाहेंगे... जरूर बेटा... पर उससे पहले एक और बात... आप एमीलिया आंटी को भी आने के लिए जरूर कहेंगे... कहेंगे न उन्हें आने को...? मैं अब तक के अपने व्यवहार के लिए माफी चाहती हूँ पापा... अब जा कर समझ पाई हूँ कि प्यार अपने आप घटित होता है... और इसके होने के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता... मैंने माँ की मजबूरी देखी थी पर आपकी या उनकी नहीं... अब सब कुछ समझ आने लगा है मुझे... मैं उनसे भी माफी माँगना चाहती हूँ... पापा ने धीमे से कहा था... ठीक है बेटा मैं कह दूँगा उनसे आने के लिए।
वह इतना ही सुन कर इतनी खुश हो गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि पापा और वसीम में क्या बात हुई... जब वसीम ने फोन लौटाया वह बहुत खुश थी... बहुत-बहुत खुश... उसने पूछा था क्या बातें हुई पापा से... तुम्हें मतलब... तुम भी तो यहीं थी... पापा ने क्या कहा तुमसे... कुछ नहीं... वह मुस्कुरा रहा था...
सुबह बिल्कुल नई होकर निकली थी...सुबह जल्दी उठने में उन दोनों को एकदम आलस नहीं हुआ... सुबह एक नई चुनौती लेकर आई थी उनके लिए... वसीम को इतनी सुबह दाढ़ी बनाते देख नसीमा बी मुस्कुराई थीं...वे दोनों साथ-साथ ही निकल पड़े थे... वसीम पापा को लाने जा रहा था और एमीलिया नंदिता को...
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नंदिता ने स्टेशन पर एमीलिया को देखा और देखा तो जैसे दंग रह गई... क्या आईना देख रही थी वह... अपना ही कोई प्रतिरूप... पर उसे अगले ही क्षण याद आया अब वैसी कहाँ रह गई थी वह...। वह तो जैसे पिछले दिनों की नंदिता थी। पूरे माहौल में रंग भरने की ताव रखनेवाला लहराता दुपट्टा, नीला-पीला सा एक सूट और करीने से खुले हुए बाल। उसने गौर किया एमीलिया ने नेल-पेंट भी लगाया है। उसने गौर से देखा था खुद को, पुराना-धुराना सा उसका कुर्ता और नीचे से घिसी जींस... बाल कसकर पीछे बाँधे हुए। नेल-पेंट न जाने उसने कितने दिनों से नहीं लगाया, पर पाँव में थोड़े-बहुत बचे हुए हैं हल्के गुलाबी पेंट के निशान जैसे उसके पुरानी नंदिता होने का शिनाख्त भर हो वो... या कि बीती खुशियों के बचे-खुचे निशान। उसने गौर किया नाखून तक बढ़ आए हैं उसके बेतरतीब... उसे खुशी हुई एमीलिया की खातिर... एमी कितनी सुंदर दिख रही है... पर अपने लिए उदासीन ही रही वह। बुरा क्या है इसमें... और उसे खुशी हुई कुछ तो बदली आखिर, कुछ तो बदलाव आया उसमें, पर कैसे आखिर? यह प्रश्न जैसे घूम-घुमा कर उसे तंग करने लगा था।
कोई छोटी सी खुशी आई नहीं कि पीछे से उसे कुरेदता चला चला आता है कोई शुबहा; कोई प्रश्न। एमी खुश है। यही क्या कम है उसके लिए... क्यों, कैसे, क्या... यह अभी ही जानना जरूरी है... कोई कारण हुआ तो वह उसे जरूर बताएगी...
वे लपक कर एक दूसरे से गले मिली थीं... फिर एयर बैग उठा कर निकल पड़ी थीं बाहर की तरफ। एमी हतप्रभ थी, नंदी पूछ क्यों नहीं रही कुछ? अगर वह पूछेगी ही नहीं तो वह बतलाएगी कैसे? फिर उसने क्षण भर को यह भी सोचा अगर उसने पूछ ही लिया कुछ तब भी वह कैसे कहेगी उससे सब कुछ... इससे तो अच्छा है एमी पूछे ही नहीं कुछ उससे। वह ही तैयार हो ले कि किस तरह बतलाना है उसे सब कुछ। ...पर कोई भी छोर, कोई भी तरकीब ढूँढ़ ही नहीं पा रही वह जिसे पकड़ कर बतियाने का कोई सिरा हाथ लग जाए उसे... नंदिता उदास थी उसे पता है। वह खोई सी लग रही थी अपने आप में। एमी को दिख तो रहा था साफ-साफ यह सब कुछ... पर वह करे भी तो क्या... उसने बहुत ताकत जुटा कर कहा था... दुबली हो गई हो बहुत... कुछ खाती पीती नहीं थी...? खाती तो थी; और इधर तो रोज पराँठे ही... फिर भी तुझे नहीं लगा कुछ। तुझे, जिसे खिला देने के लिए अल्ल-बल्ल खाना भी काफी हुआ करता था... नंदी ने भी जैसे ठंडी साँसें भरने जैसा दुहराया था... हुआ करता था। खूब घूमी न... मन लगा... नहीं भी लगता तो भी... तू कैसी है, बता... बहुत खुश दिख रही है, ऐसा नया क्या हो गया इस बीच?
एमीलिया घबड़ा उठी थी, अब क्या बोले वह? बातों का सिरा घूम फिर कर वहीं आ गया था जहाँ उसे पहुँचाना चाहती थी वह या कि फिर जहाँ पहुँचना था उसे आखिरकार... हाँ, खुश तो हूँ... एमी इतना ही कह कर काम चला लेना चाहती थी जैसे... मन ही मन बस एक ही प्रार्थना आगे कुछ नहीं पूछे वह... बात बदलने की खातिर उसने पूछा था... पहले बता मेरे लिए क्या लाई है तू... बहुत कुछ... घर तो चल पहले। नन्हू ताई आती है क्या अभी भी? मुझे कढ़ी-चावल खाना है उसके हाथों का। कितने दिन हो गए न... पर अभी तो हम... नहीं हम वसीम के यहाँ अभी नहीं चल रहे। पहले तेरे कमरे पर... मैं खाऊँगी भर पेट तुम्हें तेरे सारे गिफ्ट थमाऊँगी, तब चलूँगी वहाँ... और वहाँ जाना क्यों है? ऐसा क्या खास है वहाँ पर। किसी का जन्मदिन है आज या कि कोई त्योहार... तू भी न एमी अपना सोशल सर्विस कभी कम करेगी या नहीं...
नंदी को आज फिर वही शुबहा हुआ था... कुछ होगा आज और एमीलिया इसी बहाने उसे जोड़ना चाहती होगी उसके अतीत से... पर उसने यह तय कर लिया है कि...
मजबूर हो कर एमी नंदी को अपने कमरे तक ले आई थी। नन्हू ताई के आने का वक्त बीत चुका था और उन्हें पता था एमी के पाँव टिकते कहाँ है इस घर। सो वह छुट्टियाँ मना रही थी। एमीलिया ने ही नंदी के लिए तहरी बनाई थी और अचार ढूँढ़ कर निकाला था। किचेन में आने से रोकती रही थी उसे। ऐसी अस्तव्यस्तता बर्दाश्त नहीं कर पाएगी वह और चीखने लगेगी उस पर... लेकिन नंदी किचेन में भी आई थी और कमरे में भी घूमी थी उसके साथ, पर एक बार भी कुछ नहीं कहा था उसे इस सारी अस्तव्यस्तता के लिए। कहना तो क्या उसने ध्यान भी नहीं दिया उन बातों पर। एमीलिया को यह सब अजीब तो लग ही रहा था साथ ही नंदिता के लिए परेशान हो उठी थी वह भीतर से। क्या हो गया इस लड़की को? और ऐसे में वह इसे... बेहतर था कि उसने उसे यहाँ बुलाया ही नहीं होता। यह अपराधबोध उसे परेशान तो नहीं करता... अब कैसे कहेगी वह उससे...
उसके अंदर पहलेवाली एमी जागी थी। क्यों नहीं बताए वह नंदी को सब कुछ। कौन सा अपराध किया है उसने। अब अगर नंदी वसीम को नहीं प्यार करे, न अपनाए तो क्या दुनिया में और कोई भी... नंदिता को वसीम तक लौटना होता तो कब का लौट चुकी होती वह... वसीम के कहने पर... उसके समझाने पर या फिर अम्मी के जाने पर... पर वह तो हनीफ सर के... अब अपनी करनी का परिणाम तो उसे ही भुगतना होगा न? वह क्या कर सकती है इसमें जब कोई अपने पैर खुद कुल्हाड़ी पर दे मारे। और हनीफ सर को देखो ऐसे पेश आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। वह कह देगी नंदी से सब कुछ, उसने ऐसा किया ही क्या है... पर मन जैसे जुबान का साथ नहीं दे रहा था... उसने क्या नहीं किया था हनीफ को पाने की खातिर।
नंदी अपना पूरा बैग उसके सामने उड़ेल दे रही थी। ये सूट पीस, ये दुपट्टे, यह साड़ी, यह लहँगा... ये मोजरी और ये बैग...
इतना सब कुछ। एमी के भीतर का अपराधबोध और गहराने लगा था... कहाँ है इतना सब कुछ; पैसे ही नहीं थे ज्यादा... और तेरे लिए... लिया है न... चल दिखा... एमीलिया ने दूसरा पर्स खुद ही खोल लिया था वहाँ सिर्फ पुराने-नए कुर्ते, जींस और दो-एक पुराने सूटों के कुछ भी नहीं था।
तूने अपने लिए कुछ नहीं लिया या कि अपना सब कुछ मुझे दिए दे रही है? नंदी चुप थी कुछ देर... तुझे दे भी दिया तो कौन सा उपकार कर दूँगी तुम पर? तू मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। और फिर ये चटख रंग तुम पर बहुत अच्छे लगते हैं। पहले कभी मैंने देखा ही नहीं... एमीलिया का मन भर आया था। लेकिन वह रोना नहीं चाहती थी, बिल्कुल भी नहीं।
तू आराम करेगी कुछ देर... अब भी वह सब कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी थी... नहीं, अब चलते हैं... तेरे सरप्राइज विजिट पर। नंदी हँसी थी खुलकर, इतनी देर में पहली बार। पर हँसी में भी छुपा हुआ था उदासी जैसा कुछ। एमीलिया को हँसी नहीं आई थी, बिल्कुल भी नहीं। उसने भी ट्राई तो किया ही था; एक ही चीज थी जो अब तक नहीं बदली थी उसमें... झूठमूठ या दिखावे के लिए अभी भी वह कुछ नहीं कर पाती थी।
ऑटो में एमीलिया सोचती रही थी लगातार, वसीम अब तक पापा को ले कर आ चुका होगा। वसीम और पापा में ठीक से बातचीत तो हुई होगी न... वसीम नंदिता के सामने पड़ने पर कैसा व्यवहार करेगा उससे... एमीलिया के भीतर एक डर था... और उस डर का होना जायज था... वसीम भले ही कहता रहे वह भूल चुका है पुराना सब कुछ, पर उसे पता है वह कुछ नहीं भूला... यह डर बहुत बड़ा था।
नंदिता सोचती रही थी क्या वसीम होगा इस वक्त घर मे... क्या हनीफ सर भी... उसे शायद नहीं जाना चाहिए था... पर वह एमी का मन कैसे दुखा सकती थी... और वह क्यों डरे किसी का सामना करने में। उसने कौन सी गलती की है... उसके मन में किसी के लिए न कोई दुख है न प्यार... सब कुछ बहुत पीछे छूट गया था... ऐसा ही मानती आई थी वह पिछले दिनों में।
पर दुल्हन की तरह फूलों से सजे उस घर में उसकी आँखें वसीम को ही क्यों तलाश रही थीं... आखिर क्या कुछ बचा रह गया था उसके भीतर... कोमल, मुलायम सा। वसीम को नहीं दिखना था, नहीं दिखा। हनीफ सर दिखे थे उसे और कतराकर निकल गए थे पर हैरत यह कि इस घटना भर से उसे कोई तकलीफ नहीं हुई थी। जैसे कुछ बचा ही नहीं रह गया हो दुखने या तिलमिलाने को। वह सीधे अंकल के पास चली आई थी... अंकल यहाँ आए थे तो क्यों... और जो कुछ उसने सुना उससे उसके तलवे के नीचे की जमीन खिसक सी गई थी।
वह समझाती रही थी खुद को, वह तो वसीम से प्यार करती ही नहीं फिर किस बात की तकलीफ। कोई न कोई तो उसके जीवन में आखिरकार आता ही, अच्छा हुआ कि वह एमी निकली, उसे तो खुश होना चाहिए दोनों के लिए। अच्छा है कि वे दोनों ही जुड़े एक दूसरे से। उसके दोस्त उससे छिनेंगे तो नहीं। वसीम बहुत अच्छा लड़का है। एमीलिया कितनी खुश है। पहली बार तो उसकी जिंदगी में खुशी आई है... क्यों वह उसके कारण भी खुश नहीं हो पा रही... दिमाग की बात जैसे मन को छू ही नहीं रही थी। उसके पैर काँप रहे थे बेतरह। उसने वसीम की अम्मी से पूछा था टॉयलेट किधर है और जा घुसी थी अंदर। निकली तो वक्त काफी बीत चुका था। अब तक वसीम भी आ चुका था और अफरातफरी मची हुई थी पूरे घर में। अम्मा को अभी न्योता ही नहीं गया था... नंदिता ने बढ़कर कहा था वह चली जाएगी 'आनंदवन', उसने देखा हुआ है। प्रतिवाद करती-करती एमी अचानक चुप हो कर उसे कार्ड थमा गई थी... क्या जान बूझकर...
नसीमा बी खुश ही हुई थी उसके आने से। उन्होंने सोचा था अबकि आए वह तो जी भर सुनाएँगी; पर नंदी को देख न जाने कैसे सूख गया था उनका सारा उफान... मन उमड़ने लगा था उस लड़की के लिए जिसे पिछले दिनों वे अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने लगे थीं। चेहरे की सारी रौनक, सारी सुर्खी जैसे किसी ने पोंछ दी हो चेहरे से... बुझी और उदास सी रंगत। वह जब तक बाथरूम में थी दरवाजे से सटकर खड़ी थीं उसकी सिसकियाँ सुनते हुए, और वो कसम खा कर कह सकती हैं कि उनका मन भी हिलक रहा था उसके साथ-साथ कि क्या गलती हो गई उन्हीं से उसे समझने में। कि उन्होंने ही गलती कर दी वसीम को एमीलिया से जोड़कर। पर अब सब कुछ पीछे छूट चला था; और वे कुछ भी नहीं कर सकती थीं, कुछ भी नहीं। इसीलिए उसके बाथरूम से निकलते वक्त वे फिर किनारे हो आई थीं। कहीं वह समझ न ले... बहुत अनापरस्त है यह लड़की। उसका दुख मैं जान गई यह जानकर वह इससे ज्यादा टूटेगी जितना इस दुख से... वसीम के लिए अपने प्यार की हवा तक नहीं लगने दी इसने किसी को... न खुद वसीम, न एमीलिया और न उन्हें ही। वे उसे बाहर जाते देख रही थी और उन्हें लगा था यह अच्छा ही है उसके लिए। इस घर में तो उसकी साँसें यूँ भी घुट जाएँगी। एमीलिया ने भी जान-बूझकर जाने दिया था उसे। वह नहीं चाहती थी कि वसीम और वह एक बार फिर एक दूसरे के आमने-सामने हों।
वह अब वसीम से नहीं डर रही थी। उसका जो भी निर्णय था उसका खुद का लिया हुआ था। और इस सँभलने में उसने वक्त भी लगाया था बहुत। पर नंदिता... उसके लिए तो सब कुछ अप्रत्याशित था, सब कुछ अचानक।
वसीम ने देखा तो था नंदिता को पर उसने सँभाल लिया था खुद को। अब जबरन तो किसी को खुद से बाँधा नहीं जा सकता न? पर नंदिता का सूखा-पीला चेहरा जैसे मथ गया था उसके हृदय को। अब्बू ने भी न... एक भोली-भाली लड़की की जिंदगी तबाह कर के रख दी... एक अबोला गुस्सा हर दम भरा रहता है उसके मन में... पर अम्मी ठंडे फाहे रखती रहती हैं उस पर... अब जब कि लौट आए वह तुझे यह भी नहीं भाता... तेरा क्या बिगाड़ा है उन्होंने... लेकिन जो बिगाड़ा था उसका भी था वह अम्मी को कैसे समझाता यह।
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एमीलिया ने पापा से पूछा था... एमीलिया आंटी नहीं आईं... आपने नहीं कहा उनसे आने को... पापा जवाब देते इससे पहले वह खुद पर ही झेंप गई थी... जैसे रूस बगल में हो कहीं लखनऊ, कानपुर, इलहाबाद की तरह। जब चाहो कह दो और जब चाहे कोई आ जाए, ट्रेन की टिकट ले कर...
उसने हँस दिया था अपने बचपने पर। लेकिन पापा अब भी गंभीर थे... एमीलिया आई है, चलो मिलवाता हूँ उससे। वह हैरत में थी, पापा ने इस छोटे से घर में कहाँ छुपा दिया उन्हें... खिलौनेवाले गुड्डा-गुड़िया की तरह। पापा मेहमानवाले कमरे में ले आए थे उसे, जहाँ उनका सामान पड़ा था। पहले इन चिट्ठियोंको पढ़ लो... क्रम से कुल बारह चिट्ठियाँ थीं... बारह वर्षों के बीच लिखी गई और अंतिम छ: वर्ष पुरानी। उसे याद आया, इसी वर्ष वह दिल्ली आई थी। चिट्ठियाँ एमीलिया की ही थी।
उसने क्रम से चिट्ठियाँ पढ़नी शुरू कर दी थी। पहली चिट्ठी उसके जन्म के बाद की थी...
नन्ही गुड़िया तुम्हें मुबारक हो अजेय... मुबारक हो एक नन्हीं परी का आगमन तुम्हारे घर में... आशा करती हूँ उसे पाकर मुझे बिल्कुल नहीं भूल जाओगे तुम। तुम्हें कोई अफसोस नहीं होगा कि... इसे इतना प्यार देना कि जिंदगी में उसे और किसी के प्यार की जरूरत ही न हो। और हाँ सविता का भी ध्यान रखना। मैं इसी में खुश रहूँगी। सचमुच मेरी खुशी इसी में है। उस नन्हीं एंजेल का फोटो मुझे जरूर भेजना... याद से... एमीलिया।
अजेय, यूँ सोचो तो तुम्हें मैं रोज चिट्ठी लिखती हूँ, डायरी लिखकर। पर अब तय कर लिया है कि चिट्ठी तुम्हें इस नन्ही परी के जन्मदिन पर ही लिखा करूँगी। बेटी के पहले जन्मदिन की बधाई। मन तो यही होता है कि उसे कार्ड और गिफ्ट भेजूँ, खूब सारे खिलौने भी। पर सोचती हूँ सविता को बुरा लगेगा। और लगना भी चाहिए... बेटी पर हक तो उसी का है। उसी ने तरह-तरह की परेशानियों और कष्टों को सह कर जन्म दिया है उसे। इस अनमोल तोहफे को पाने के बाद उसे प्यार करना और उसका खयाल रखना तुम्हारा कर्तव्य है।
एमीलिया
नन्हीं एमीलिया अब तो दो वर्ष की हो चुकी है। बोलती भी होगी वह और डगमग-डगमग चलती भी। कितना अच्छा लगता होगा न... काश मैं देख पाती उसे, पर उसकी तस्वीरों से ही काम चला लेती हूँ। उसके गाल पर डिंपल पड़ते हैं न हँसते वक्त। उसके उन्हीं गड्ढों में मेरी ओर से प्यार देना, ढेर सारा प्यार।
एमीलिया
उसकी आँखों में आँसू आने लगे थे... आँसू ने अक्षरों को जैसे धुँधला कर दिया था। उसने मुड़कर आँखों को पोंछा था और पुनः पढ़ने लगी थी...
एमी स्कूल जाने लगी है... गुड। उसकी पढ़ाई पर ध्यान देना और उसे भी अपनी तरह डॉक्टर बनाना, अपने ही तरह नेक और रहमदिल इनसान भी। उसकी माँ को अब ज्यादा खालीपन लगता होग। एमी घर में जो नहीं रहती होगी। उसे वक्त देना...
एमीलिया से अब पढ़ पाना मुश्किल हुआ जा रहा था। उसने बीच की चिट्ठियाँ छोड़ दी थी और अंतिम चिट्ठी उठा ली थी।
एमी चली गई छोड़कर तुम्हें, दोषी मानती है वह तुम्हें अपनी माँ का, उसके चले जाने का। कोई बात नहीं, बच्ची है वह। वक्त आने पर समझ पाएगी तुम्हें और तुम्हारी मजबूरियों को भी... पर तुम उसका हाथ नहीं छोड़ना कभी। उसका खयाल हमेशा रखना। बच्चे यूँ भी छोड़ कर चले ही जाते हैं कभी-न-कभी। वह सविता की निशानी है। और कहीं मेरी भी। मैंने उसे हमेशा अपना अंश माना है। और हाँ, उसकी एक नई तस्वीर भी भेजना। वर्षों से तुमने उसकी तस्वीर पोस्ट करना छोड़ दिया है। चिट्ठी तो कभी खैर आती ही नहीं थी। मुझे डर हो रहा था, तुम्हें मेरे पत्र मिलते भी हैं या नहीं। पर तुम्हारी इस चिट्ठी ने मेरी यह चिंता दूर कर दी। ठीक से रहना तुम और अपना खयाल रखना। क्योंकि अब दूसरा कोई नहीं है तुम्हारे पास तुम्हारा खयाल रखनेवाला, सविता और एमी भी नहीं।
और मैं भी चली जाऊँ अब शायद इतनी दूर कि साल में यह एक चिट्ठी भी न डाल सकूँ। बीमार रहने लगी हूँ पिछले काफी दिनों से। डॉक्टर गर्भाशय का कैंसर बता रहे हैं। अजीब बात है न अजेय, जहाँ कुछ भी कभी नहीं पला, मेरी कलपना का एक बच्चा तक नहीं जहाँ... एमी के होने के दिनों से मैं सोचती रही थी, वह मेरे ही भीतर है। और तुम मजाक नहीं समझो अजेय तो मुझे उसका हिलना, डुलना उसकी आहटें सब महसूस होती थी... आज वही जगह...
मैंने चाहते न चाहते सविता से तुम्हें छीन लिया था न अजेय... हमेशा की तरह यह मत कहना कि मैं आई थी पहले तुम्हारी जिंदगी में... और वह शादी तुमने दवाब में की थी। छीना मैंने ही था उसे तुमसे, तुम अपनी पूरी कोशिश के बाद भी उसके कभी नहीं हो पाए। नन्हीं एमीलिया अगर ऐसा सोचती है तो इसमें गलत ही क्या है...। ठीक ही कहती है वह... और शायद उसके और उसकी माँ के आँसुओं की ही सजा मिली है मुझे इस बीमारी के रूप में। मैं भी तो देखूँ, महसूस करूँ कि कैसा होता है ऐसी बुरी बीमारी के साथ अकेले होना।
सविता के पास नन्हीं एमी थी, तुम थे, वह माने न माने, पर मेरे पास कोई नही है... और मैं होना भी नहीं चाहती किसी के साथ, किसी की दया पर आश्रित। तुम उदास मत होना... अपना खयाल रखना और एमीलिया को मेरा अंतिम प्यार...
एमीलिया
वह पिता के सीने से आ चिपकी थी, बहुत दिनों के बाद, शायद बचपन के बाद अब। अब वो... उसने पूछना चाहा था... पिता ने पूरा किया था उसका अधूरा वाक्य... नहीं है। वो उसी साल... आप मिलने गए थे... नहीं... पापा पूरी तरह शांत थे, सँभाले हुए खुद को। उसने पूछना चाहा था क्यों... पर पूछा नहीं था। शायद उसी की खातिर... उसकी नफरत को और हवा नहीं देने के खातिर... वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। पापा जब बिल्कुल अकेले थे, जब उनकी एमीलिया भी जा रही थी वह भी छोड़ कर चली गई थी उन्हें। बात करना और मिलना तक जरूरी नहीं लगता था उसे... कितने अकेले होंगे तब पापा... पापा ने ही उसे सँभाला था... उठो एमी बाहर चलते हैं। तुम्हें तैयार भी होना होगा न...। बाहर सब इंतजार कर रहे होंगे। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहता शायद कभी भी नहीं। पर जब तुमने उस दिन उसे बुलाने के लिए कहा मैं चुप हो गया था। तुम खुश थी अपनी जिंदगी में पहली बार और तुम्हें उदास नहीं करना चाहता था मैं... आज भी अगर तुम नहीं पूछती तो ये चिट्ठियाँ मैं वापस लिए जाता और बंद कर देता उसी ड्रॉअर में, जिसकी चाभी मैं हमेशा छुपाता रहता था और तुम्हारी माँ तलाशती। लेकिन...
वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए निकले थे उस कमरे से जैसे एक दूसरे के सहारे के बिना एक भी कदम नहीं उठा पाएँगे वे। एमीलिया को लगा था पापा कितने आश्वस्त हो गए हैं और पापा को लगा था बेटी कितनी कमजोर, और यह सब वे उस वक्त महसूस कर रहे थे जब उन्हें एक दूसरे की दुनिया से विदा लेना था; उस वक्त जब उन्हें अलग होना था एक दूसरे से।
23
नंदिता के आँसू फिर-फिर बहने शुरू हो गए थे ऑटो में बैठने के साथ ही, और वह उन्हें बहने दे रही थी। नहीं बहते हैं आँसू तो भीतर ही भीतर सेंध लगाते हैं, एमीलिया ही कहती थी उसे और उससे उसकी माँ ने कहा था कभी। और नंदिता ने तो इन आँसुओं को बहुत दिन से सहेज रखा है। ऑटोचालक उसे देख रहा है, सामने का शीशा सीधा करके, परवाह नहीं। फिर उसने पूछा था कहाँ चलना है... नंदिता ने खुद को सँभालते हुए पता बता दिया था।
वह सोच रही थी, क्यों इतनी दुखी है वह? उसे तो ठीक-ठीक पता भी नहीं कि क्या वह वसीम को पसंद करती है... यह सवाल उसने एकांत में कई बार अपने आप से किया था। पर जवाब उसे कभी भी नहीं मिला। वह इसी सवाल को मन में लिए भटकती फिरी थी। उसके जीवन की राह आगे किस तरफ जाती है... वसीम तक पहुँचती है कि नहीं वह... पर जवाब कोई नहीं। हाँ, वसीम उसे याद आता था, वह चाहे कि न चाहे। अगर प्यार यही होता है तो उसे पता नहीं... पर इस तरह तो उसने कितनों को याद किया है... फिर... शायद उसका होना एक भरोसा था, एक उम्मीद थी उसके लिए कि वह कभी लौटे... वही भरोसा टूट गया था आज। मुट्ठी में से रेत सरक गई हो अचानक। और जब चीजें पीछे छूट जाती हैं तो उसके कभी पास होने का अहसास ज्यादा परेशान करता है हमें, उनके पास न होने के अहसास से भी। अब वापसी की कोई राह उसके पास न थी। अब उम्मीद का कोई दीया नहीं टिमटिमा रहा था उसके लिए और उसे एक नई राह तलाशनी थी... और बहुत जल्दी ही।
अम्मा से मिल कर वह राह भी मिल गई थी उसे। वे दोनों साथ ही लौटी थीं जैसे कि युगों का साथ हो उनका। वे दोनों एक-दूसरे से घुली-मिली लौटी थीं। एमीलिया को अच्छा लगा था यह... नंदी अब सँभल जाएगी...
पर वह सँभलेगी कैसे यह चिंता हनीफ को सबसे ज्यादा थी। ठीक है वे उसे अकेला छोड़ आए थे वहाँ। हमेशा की तरह बढ़कर सँभाल नहीं लिया था उसे। माफी तक नहीं दी थी। पर इसके लिए वे खुद को दोषी नहीं मान रहे थे। वे चाहते थे नंदी सँभले, खड़ी हो जाए अपने पैरों पर। एमीलिया की तरह मजबूत स्त्री बने। पर यह उनके साथ होते कभी भी नहीं होना था... और उन्होंने अपनी बाँहें खींच ली थी सिरे से... उम्मीद था कि सँभल ही जाएगी वह। वसीम और एमीलिया थे उसके पास... पर परिस्थितियों ने जो मोड़ लिया था उसकी कल्पना तक नहीं की थी उन्होंने। और इस सब के बीच नसीमा के अपने आग्रह।
वह उम्र के इस ठौर पर अपनी गृहस्थी में लौट जाना चाहते थे, ठीक है... नसीमा का दुख, लोगों की कनफूसियाँ बच्चों के बड़े होने के बाद अखरती तो है ही पर...
वे इंतजार में थे, नंदी को कोई उसके जैसा मिल जाए... कोई उसका हमउम्र... हमखयाल... और इसीलिए वसीम को भेजा था उन्होंने नंदी के पास। वसीम उनकी परछाईं ही तो है। उनके रक्त-मांस से बना हुआ, उनके विश्वास का एक टुकड़ा... वे उस पर भरोसा तो कर ही सकते थे, नंदी की खातिर... उससे ज्यादा वे किस पर भरोसा करते... हालाँकि ऐसा करके उनका मन दुखता भी था। नंदी को खोना उनके लिए आसान नहीं था, वह उनके वजूद का एक हिस्सा थी, सबसे कोमल हिस्सा। जहाँ तनिक सी चोट भी उन्हें हिला देती थी। उस हिस्से को ही काटकर फेंक देना आसान कैसे हो सकता था। पर किया था उन्होंने इसे संभव... रुके रहे थे वहाँ उतने दिन, यह जानकर भी कि नंदी बीमार है।
...पर लौटे तो भी उन्हें कुछ बहुत बदला हुआ नहीं लगा था। नंदी थोड़ी-थोड़ी अपने में खोई रहती, वे सोचते हो जाता है ऐसा कभी-कभी... और इस तरह कुछ भी नहीं बदलने से बदलने लगा था उनका मन। नंदी के लिए प्यार और ज्यादा उमड़ने लगा था। कि हर हाल में वह उन्हें ही चाहती है। उसे उनके किसी भी कमी से कोई गुरेज नहीं... न उम्र, न रूप न और कुछ... वे कमजोर पड़ गए थे और उन्हें लगा था अब नंदी को नकारना उसके और अपने रिश्ते और प्यार की तौहीन होगी... सो वे मन बन चुके थे, मना लेंगे वे वसीम को... नंदी को उसका हक देना ही होगा उन्हें। और वे जयपुर चले थे संग-संग... अपने खयालों को अमली जामा देने की खातिर... पर वह रात आ गई थी उनके बीच... और उस रात के साथ एक और सच भी...। नंदिता एक बार उनसे कह कर देखती, भरोसा नहीं कर सकी उन पर... भरोसा करती तो... उन्होंने कब ऐसा नहीं चाहा था... वह जो राह चुनती उन्हें मंजूर होता... वसीम को या उन्हें... उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी... पर यह चुप्पी, यह अविश्वास वे सह नहीं पाए थे... इस तरह उनके यकीन पर चोट करना... कि यह समझना कि उनका दिल बहुत छोटा है, कि वे सच स्वीकार ही नहीं सकते... वे बिलबिला गए थे और चल दिए थे उसे छोड़कर... हालाँकि मना सकते थे उसे... वे रुक भी सकते थे...
पर अब जबकि सब कुछ उलट-पुलट चुका है, उनके न चाहते भी एमीलिया और वसीम की सगाई होने जा रही है, वे सचमुच नंदिता के लिए चिंतित हैं... क्या सँभल पाएगी वह... क्या वे पीछे मुड़कर उसे थाम लें... नहीं, पीछे मुड़कर भी कुछ बदला नहीं जा सकता... जिंदगी पिछले पड़ाव पार कर चुकी थी... और वहाँ लौटना असंभव था, उसी विश्वास, उसी बेदाग भरोसे तक... भरोसा तो दोनों का ही टूटा था फिर... वे नसीमा की जिद पर सिर्फ सगाई के लिए तैयार हुए थे तो यही सोचकर। शायद कल कुछ...
और सगाई हो रही थी सचमुच। एमीलिया ने जब वसीम को अँगूठी पहनाई, उसकी आँखों में आँसू चमक रहे थे... पिता की आँखें भी खुशी से सँवलाई थी... और वसीम की भी। पर हनीफ ने देखा था नंदिता ने अम्मा का कंधा थाम लिया है... एक क्षण को उदासी की परतें आई और बिला गई हैं...
नंदी सँभल जाएगी यह भरोसा होने लगा था उन्हें भी धीरे-धीरे। तब तो और भी जब पुराने घर को छोड़ देने की बात उसने एमी से की थी और एमीलिया के तत्काल साथ रहने और फिर उसके बाद उसी के घर में रहने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था उसने... उन्होंने देखा उसकी आँखें बहुत चमकदार थी, बिल्कुल साफ और संयत... उसने अम्मा की हथेलियाँ थामी थी और निकल पड़ी थी उनके साथ...
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