सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती

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सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती

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सूरज का सातवाँ घोड़ा /
धर्मवीर भारती


पहली दोपहर
नमक की अदायगी
अर्थात जमुना का नमक माणिक ने कैसे अदा किया
उन्होंने सबसे पहली कहानी एक दिन गरमी की दोपहर में सुनाई थी जब हम लोग लू के डर से कमरा चारों ओर से बंद करके, सिर के नीचे भीगी तौलिया रखे चुपचाप लेटे थे। प्रकाश और ओंकार ताश के पत्ते बाँट रहे थे और मैं अपनी आदत के मुताबिक कोई किताब पढ़ने की कोशिश कर रहा था। माणिक ने मेरी किताब छीन कर फेंक दी और बुजुर्गाना लहजे में कहा, 'यह लड़का बिलकुल निकम्मा निकलेगा। मेरे कमरे में बैठ कर दूसरों की कहानियाँ पढ़ता है। छि:, बोल कितनी कहानियाँ सुनेगा।' सभी उठ बैठे और माणिक मुल्ला से कहानी सुनाने का आग्रह करने लगे। अंत में माणिक मुल्ला ने एक कहानी सुनाई जिसमें उनके कथनानुसार उन्होंने इसका विश्लेषण किया था कि प्रेम नामक भावना कोई रहस्यमय, आध्यात्मिक या सर्वथा वैयक्तिक भावना न हो कर वास्तव में एक सर्वथा मानवीय सामाजिक भावना है, अत: समाज-व्यवस्था से अनुशासित होती है और उसकी नींव आर्थिक-संगठन और वर्ग-संबंध पर स्थापित है।
नियमानुसार पहले उन्होंने कहानी का शीर्षक बताया : 'नमक की अदायगी'। इस शीर्षक पर उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद के 'नमक का दारोगा' का काफी प्रभाव मालूम पड़ता था पर कथावस्तु सर्वथा मौलिक थी। कहानी इस प्रकार थी -
माणिक मुल्ला के घर के बगल में एक पुरानी कोठी थी जिसके पीछे छोटा अहाता था। अहाते में एक गाय रहती थी, कोठी में एक लड़की। लड़की का नाम जमुना था, गाय का नाम मालूम नहीं। गाय बूढ़ी थी, रंग लाल था, सींग नुकीले थे। लड़की की उम्र पंद्रह साल की थी, रंग गेहुँआ था (बढ़िया पंजाबी गेहूँ) और स्वभाव मीठा, हँसमुख और मस्त। माणिक, जिनकी उम्र सिर्फ दस बरस की थी, उसे जमुनियाँ कह कर भागा करते थे और वह बड़ी होने के नाते जब कभी माणिक को पकड़ पाती थी तो इनके दोनों कान उमेठती और मौके-बेमौके चुटकी काट कर इनका सारा बदन लाल कर देती। माणिक मुल्ला निस्तार की कोई राह न पा कर चीखते थे, माफी माँगते थे और भाग जाते थे।
लेकिन जमुना के दो काम माणिक मुल्ला के सिपुर्द थे। इलाहाबाद से निकलनेवाली जितनी सस्ते किस्म की प्रेम-कहानियों की पत्रिकाएँ होती थीं वे जमुना उन्हीं से मँगवाती थी और शहर के किसी भी सिनेमाघर में अगर नई तसवीर आई तो उसकी गाने की किताब भी माणिक को खरीद लानी पड़ती थी। इस तरह जमुना का घरेलू पुस्तकालय दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था।
समय बीतते कितनी देर लगती है। कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते और सिनेमा के गीत याद करते-करते जमुना बीस बरस की हो गई और माणिक पंद्रह बरस के, और भगवान की माया देखो कि जमुना का ब्याह ही कहीं तय नहीं हुआ। वैसे बात चली। पास ही रहनेवाले महेसर दलाल के लड़के तन्ना के बारे में सारा मुहल्ला कहा करता था कि जमुना का ब्याह इसी से होगा, क्योंकि तन्ना और जमुना में बहुत पटती थी, तन्ना जमुना की बिरादरी का भी था, हालाँकि कुछ नीचे गोत का था और सबसे बड़ी बात यह थी कि महेसर दलाल से सारा मुहल्ला डरता था। महेसर बहुत ही झगड़ालू, घमंडी और लंपट था, तन्ना उतना ही सीधा, विनम्र और सच्चरित्र; और सारा मुहल्ला उसकी तारीफ करता था।
लेकिन जैसा पहले कहा जा चुका है कि तन्ना थोड़े नीच गोत का था, और जमुना का खानदान सारी बिरादरी में खरे और ऊँचे होने के लिए प्रख्यात था, अत: जमुना की माँ की राय नहीं पड़ी। चूँकि जमुना के पिता बैंक में साधारण क्लर्क मात्र थे और तनख्वाह से क्या आता-जाता था, तीज-त्यौहार, मूड़न-देवकाज में हर साल जमा रकम खर्च करनी पड़ती थी अत: जैसा हर मध्यम श्रेणी के कुटुंब में पिछली लड़ाई में हुआ है, बहुत जल्दी सारा जमा रुपया खर्च हो गया और शादी के लिए कानी कौड़ी नहीं बची।
और बेचारी जमुना तन्ना से बातचीत टूट जाने के बाद खूब रोई, खूब रोई। फिर आँसू पोंछे, फिर सिनेमा के नए गीत याद किए। और इस तरह से होते-होते एक दिन बीस की उम्र को भी पार कर गई। और माणिक का यह हाल कि ज्यों-ज्यों जमुना बढ़ती जाए त्यों-त्यों वह इधर-उधर दुबली-मोटी होती जाए और ऐसी कि माणिक को भली भी लगे और बुरी भी। लेकिन एक उसकी बुरी आदत पड़ गई थी कि चाहे माणिक मुल्ला उसे चिढ़ाएँ या न चिढ़ाएँ वह उन्हें कोने-अतरे में पाते ही इस तरह दबोचती थी कि माणिक मुल्ला का दम घुटने लगता था और इसीलिए माणिक मुल्ला उसकी छाँह से कतराते थे।
लेकिन किस्मत की मार देखिए कि उसी समय मुहल्ले में धर्म की लहर चल पड़ी और तमाम औरतें जिनकी लड़कियाँ अनब्याही रह गई थीं, जिनके पति हाथ से बेहाथ हुए जा रहे थे, जिनके लड़के लड़ाई में चले गए थे, जिनके देवर बिक गए थे, जिन पर कर्ज हो गया था; सभी ने भगवान की शरण ली और कीर्तन शुरू हो गए और कंठियाँ ली जाने लगीं। माणिक की भाभी ने भी हनुमान-चौतरावाले ब्रह्मचारी से कंठी ली और नियम से दोनों वक्त भोग लगाने लगीं। और सुबह-शाम पहली टिक्की गऊ माता के नाम सेंकने लगीं। घर में गऊ थी नहीं अत: कोठी की बूढ़ी गाय को वह टिक्की दोनों वक्त खिलाई जाती थी। दोपहर को तो माणिक स्कूल चले जाते थे, दिन का वक्त रहता था अत: भाभी खुद चादर ओढ़ कर गाय को रोटी खिला आती थीं पर रात को माणिक मुल्ला को ही जाना पड़ता था।
गाय के अहाते के पास जाते हुए माणिक मुल्ला की रूह काँपती थी। जमुना का कान खींचना उन्हें अच्छा नहीं लगता था (और अच्छा भी लगता था!) अत: डर के मारे राम का नाम लेते हुए खुशी-खुशी वे गैया के अहाते की ओर जाया करते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि माणिक मुल्ला के यहाँ मेहमान आए और खाने-पीने में ज्यादा रात बीत गई। माणिक सो गए तो उनकी भाभी ने उन्हें जगा कर टिक्की दी और कहा, 'गैया को दे आओ।' माणिक ने काफी बहानेबाजी की लेकिन उनकी एक न चली। अंत में आँख मलते-मलते अहाते के पास पहुँचे तो क्या देखते हैं कि गाय के पास भूसेवाली कोठरी के दरवाजे पर कोई छाया बिलकुल कफन-जैसे सफेद कपड़े पहने खड़ी है। इनका कलेजा मुँह को आने लगा, पर इन्होंने सुन रखा था कि भूत-प्रेत के आगे आदमी को हिम्मत बाँधे रहना चाहिए और उसे पीठ नहीं दिखलानी चाहिए वरना उसी समय आदमी का प्राणांत हो जाता है।
माणिक मुल्ला सीना ताने और काँपते हुए पाँवों को सँभाले हुए आगे बढ़ते गए और वह औरत वहाँ से अदृश्य हो गई। उन्होंने बार-बार आँखें मल कर देखा, वहाँ कोई नहीं था। उन्होंने संतोष की साँस ली, गाय को टिक्की दी और लौट चले। इतने में उन्हें लगा कि कोई उनका नाम ले कर पुकार रहा है। माणिक मुल्ला भली-भाँति जानते थे कि भूत-प्रेत मुहल्ले भर के लड़कों का नाम जानते हैं, अत: उन्होंने रुकना सुरक्षित नहीं समझा। लेकिन आवाज नजदीक आती गई और सहसा किसी ने पीछे से आ कर माणिक मुल्ला का कालर पकड़ लिया। माणिक मुल्ला गला फाड़ कर चीखने ही वाले थे किसी ने उनके मुँह पर हाथ रख दिया। वे स्पर्श पहचानते थे। जमुना!
लेकिन जमुना ने कान नहीं उमेठे। कहा, 'चलो आओ।' माणिक मुल्ला बेबस थे। चुपचाप चले गए और बैठ गए। अब माणिक भी चुप और जमुना भी चुप। माणिक जमुना को देखें, जमुना माणिक को देखे और गाय उन दोनों को देखे। थोड़ी देर बाद माणिक ने घबरा कर कहा, 'हमें जाने दो जमुना!' जमुना ने कहा, 'बैठो, बातें करो माणिक। बड़ा मन घबराता है।'
माणिक फिर बैठ गए। अब बात करें तो क्या करें? उनकी क्लास में उन दिनों भूगोल में स्वेज नहर, इतिहास में सम्राट जलालुद्दीन अकबर, हिंदी में 'इत्यादि की आत्मकथा' और अंगरेजी में 'रेड राइडिंग हुड' पढ़ाई जा रही थी, पर जमुना से इसकी बातें क्या करें! थोड़ी देर बाद माणिक ऊब कर बोले, 'हमें जाने दो जमुना, नींद लग रही है।'
'अभी कौन रात बीत गई है। बैठो!' कान पकड़ कर जमुना बोली। माणिक ने घबरा कर कहा, 'नींद नहीं लग रही है, भूख लग रही है।'
'भूख लग रही है! अच्छा, जाना मत! मैं अभी आई।' कह जमुना फौरन पिछवाड़े के सहन में से हो कर अंदर चली गई। माणिक की समझ में नहीं आया कि आज जमुना एकाएक इतनी दयावान क्यों हो रही है, कि इतने में जमुना लौट आई और आँचल के नीचे से दो-चार पुए निकालते हुए बोली, 'लो खाओ। आज तो माँ भागवत की कथा सुनने गई हैं।' और जमुना उसी तरह माणिक को अपनी तरफ खींच कर पुए खिलाने लगी।
एक ही पुआ खाने के बाद माणिक मुल्ला उठने लगे तो जमुना बोली, 'और खाओ।' तो माणिक मुल्ला ने उसे बताया कि उन्हें मीठे पुए अच्छे नहीं लगते, उन्हें बेसन के नमकीन पुए अच्छे लगते हैं।
'अच्छा कल तुम्हारे लिए बेसन के नमकीन पुए बना रखूँगी। कल आओगे? कथा तो सात रोज तक होगी।' माणिक ने संतोष की साँस ली। उठ खड़े हुए। लौट कर आए तो भाभी सो रही थीं। माणिक मुल्ला चुपचाप गऊमाता का ध्यान करते हुए सो गए।
दूसरे दिन माणिक मुल्ला ने चलने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें जाने में डर भी लगता था और वे जाना भी चाहते थे। और न जाने कौन-सी चीज थी जो अंदर-ही-अंदर उनसे कहती थी, 'माणिक! यह बहुत बुरी बात है। जमुना अच्छी लड़की नहीं!' और उनके ही अंदर कोई दूसरी चीज थी जो कहती थी, 'चलो माणिक! तुम्हारा क्या बिगड़ता है। चलो देखें तो क्या है?' और इन दोनों से बड़ी चीज थी नमकीन बेसन का पुआ जिसके लिए नासमझ माणिक मुल्ला अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ने के लिए तैयार थे।
उस दिन माणिक मुल्ला गए तो जमुना ने धानी रंग की वाइल की साड़ी पहनी थी, अरगंडी की पतली ब्लाउज पहनी थी, दो चोटियाँ की थीं, माथे पर चमकती हुई बिंदी लगाई थी। माणिक अकसर देखते थे कि जब लड़कियाँ स्कूल जाती थीं तो ऐसे सज-धज कर जाती थीं, घर में तो मैली धोती पहन कर फर्श पर बैठ कर बातें किया करती थीं, इसलिए उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ। बोले, 'जमुना, क्या अभी स्कूल से लौट रही हो?'
'स्कूल? स्कूल जाना तो माँ ने चार साल से छुड़ा दिया। घर में बैठी-बैठी या तो कहानियाँ पढ़ती हूँ या फिर सोती हूँ।' माणिक मुल्ला की समझ में नहीं आया कि जब दिन-भर सोना ही है तो इस सज-धज की क्या जरूरत है। माणिक मुल्ला आश्चर्य से मुँह खोले देखते रहे कि जमुना बोली, 'आँख फाड़-फाड़ कर क्या देख रहे हो! असली जरमनी की अरगंडी है। चाचा कलकत्ते से लाये थे, ब्याह के लिए रखी थी। ये देखो छोटे-छोटे फूल भी बने हैं।'
माणिक मुल्ला को बहुत आश्चर्य हुआ उस अरगंडी को छू कर जो कलकत्ते से आई थी, असली जरमनी की थी और जिस पर छोटे-छोटे फूल बने थे।
माणिक मुल्ला जब गाय को टिक्की खिला चुके तो जमुना ने बेसन के नमकीन पुए निकाले। मगर कहा, 'पहले बैठ जाओ तब खिलाएँगे।' माणिक चुपचाप चलने लगे। जमुना ने छोटी-सी बैटरी जला दी पर माणिक मारे डर के काँप रहे थे। उन्हें हर क्षण यही लगता था कि भूसे में से अब साँप निकला, अब बिच्छू निकला, अब काँतर निकली। रुँधते गले से बोले, 'हम खाएँगे नहीं। हमें जाने दो।'
जमुना बोली, 'कैथे की चटनी भी है।' अब माणिक मुल्ला मजबूर हो गए। कैथा उन्हें विशेष प्रिय था। अंत में साँप-बिच्छू के भय का निरोध करके किसी तरह वे बैठ गए। फिर वही आलम कि जमुना को माणिक चुपचाप देखें और माणिक को जमुना और गाय इन दोनों को। जमुना बोली, 'कुछ बात करो, माणिक।' जमुना चाहती थी माणिक कुछ उसके कपड़े के बारे में बातें करे, पर जब माणिक नहीं समझे तो वह खुद बोली, 'माणिक, यह कपड़ा अच्छा है?' 'बहुत अच्छा है जमुना!' माणिक बोले। 'पर देखो, तन्ना है न, वही अपना तन्ना। उसी के साथ जब बातचीत चल रही थी तभी चाचा कलकत्ते से ये सब कपड़े लाए थे। पाँच सौ रुपए के कपड़े थे। पंचम बनिया से एक सेट गिरवी रख के कपड़े लाये थे, फिर बात टूट गई। अभी तो मैं उसी के यहाँ गई थी। अकेले मन घबराता है। लेकिन अब तो तन्ना बात भी नहीं करता। इसीलिए कपड़े भी बदले थे।'
'बात क्यों टूट गई जमुना?'
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'अरे तन्ना बहुत डरपोक है। मैंने तो माँ को राजी कर लिया था पर तन्ना को महेसर दलाल ने बहुत डाँटा। तब से तन्ना डर गया और अब तो तन्ना ठीक से बोलता भी नहीं।' माणिक ने कुछ जवाब नहीं दिया तो फिर जमुना बोली, 'असल में तन्ना बुरा नहीं है पर महेसर बहुत कमीना आदमी है और जब से तन्ना की माँ मर गई तब से तन्ना बहुत दुखी रहता है।' फिर सहसा जमुना ने स्वर बदल दिया और बोली, 'लेकिन फिर तन्ना ने मुझे आसा में क्यों रखा? माणिक, अब न मुझे खाना अच्छा लगता है न पीना। स्कूल जाना छूट गया। दिन-भर रोते-रोते बीतता है। हाँ, माणिक।' और उसके बाद वह चुपचाप बैठ गई। माणिक बोले, 'तन्ना बहुत डरपोक था। उसने बड़ी गलती की!' तो जमुना बोली, 'दुनिया में यही होता आया है!' और उदाहरण स्वरूप उसने कई कहानियाँ सुनाईं जो उसने पढ़ी थीं या चित्रपट पर देखी थीं।
माणिक उठे तो जमुना ने पूछा कि 'रोज आओगे न!' माणिक ने आना-कानी की तो जमुना बोली, 'देखो माणिक, तुमने नमक खाया है और नमक खा कर जो अदा नहीं करता उस पर बहुत पाप पड़ता है क्योंकि ऊपर भगवान देखता है और सब बही में दर्ज करता है।' माणिक विवश हो गए और उन्हें रोज जाना पड़ा और जमुना उन्हें बिठा कर रोज तन्ना की बातें करती रही।
'फिर क्या हुआ!' जब हम लोगों ने पूछा तो माणिक बोले, 'एक दिन वह तन्ना की बातें करते-करते मेरे कंधे पर सिर रख कर खूब रोई, खूब रोई और चुप हुई तो आँसू पोंछे और एकाएक मुझसे वैसी बातें करने लगी जैसी कहानियों में लिखी होती हैं। मुझे बड़ा बुरा लगा और सोचा अब कभी उधर नहीं जाऊँगा, पर मैंने नमक खाया था और ऊपर भगवान सब देखता है। हाँ, यह जरूर था कि जमुना के रोने पर मैं चाहता था कि उसे अपने स्कूल की बातें बताऊँ, अपनी किताबों की बातें बता कर उसका मन बहलाऊँ। पर वह आँसू पोंछ कर कहानियों-जैसी बातें करने लगी। यहाँ तक कि एक दिन मेरे मुँह से भी वैसी ही बातें निकल गईं।'
'फिर क्या हुआ?' हम लोगों ने पूछा।
'अजब बात हुई। असल में इन लोगों को समझना बड़ा मुश्किल है। जमुना चुपचाप मेरी ओर देखती रही और फिर रोने लगी। बोली, 'मैं बहुत खराब लड़की हूँ। मेरा मन घबराता था इसीलिए तुमसे बात करने आती हूँ, पर मैं तुम्हारा नुकसान नहीं चाहती। अब मैं नहीं आया करूँगी।' लेकिन दूसरे दिन जब मैं गया तो देखा, फिर जमुना मौजूद है।'
फिर माणिक मुल्ला को रोज जाना पड़ा। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन - यहाँ तक कि हम लोगों ने ऊब कर पूछा कि अंत में क्या हुआ तो माणिक मुल्ला बोले, 'कुछ नहीं, होता क्या? जब मैं जाता तो मुझे लगता कोई कह रहा है माणिक उधर मत जाओ यह बहुत खराब रास्ता है, पर मैं जानता था कि मेरा कुछ बस नहीं है। और धीरे-धीरे मैंने देखा कि न मैं वहाँ जाए बिना रह सकता था न जमुना आए बिना।'
'हाँ, यह तो ठीक है पर इसका अंत क्या हुआ?'
'अंत क्या हुआ?' माणिक मुल्ला ने ताने के स्वर में कहा, 'तब तो तुम लोग खूब नाम कमाओगे। अरे क्या प्रेम-कहानियों के दो-चार अंत होते हैं। एक ही तो अंत होता है - नायिका का विवाह हो गया, माणिक मुँह ताकते रह गए। अब इसी को चाहे जितने ढंग से कह लो।'
बहरहाल इतनी दिलचस्प कहानी का इतना साधारण अंत हम लोगों को पसंद नहीं आया।
फिर भी प्रकाश ने पूछा, 'लेकिन इससे यह कहाँ साबित हुआ कि प्रेम-भावना की नींव आर्थिक संबंधों पर है और वर्ग-संघर्ष उसे प्रभावित करता है।'
'क्यों? यह तो बिलकुल स्पष्ट है।' माणिक मुल्ला ने कहा, 'अगर हरेक के घर में गाय होती तो यह स्थिति कैसे पैदा होती? संपत्ति की विषमता ही इस प्रेम का मूल कारण है। न उनके घर गाय होती, न मैं उनके वहाँ जाता, न नमक खाता, न नमक अदा करना पड़ता।'
'लेकिन फिर इससे सामाजिक कल्याण के लिए क्या निष्कर्ष निकला?' हम लोगों ने पूछा।
'बिना निष्कर्ष के मैं कुछ नहीं कहता मित्रो! इससे यह निष्कर्ष निकला कि हर घर में एक गाय होनी चाहिए जिसमें राष्ट्र का पशुधन भी बढ़े, संतानों का स्वास्थ्य भी बने। पड़ोसियों का भी उपकार हो और भारत में फिर से दूध-घी की नदियाँ बहें।'
यद्यपि हम लोग आर्थिक आधारवाले सिद्धांत से सहमत नहीं थे पर यह निष्कर्ष हम सबों को पसंद आया और हम लोगों ने प्रतिज्ञा की कि बड़े होने पर एक-एक गाय अवश्य पालेंगे।
इस प्रकार माणिक मुल्ला की प्रथम निष्कर्षवादी प्रेम-कहानी समाप्त हुई।
अनध्याय
इस कहानी ने वास्तव में हम लोगों को प्रभावित किया था। गरमी के दिन थे। मुहल्ले के जिस हिस्से में हम लोग रहते उधर छतें बहुत तपती थीं, अत: हम सभी लोग हकीम जी के चबूतरे पर सोया करते थे।
रात को जब हम लोग लेटे तो नींद नहीं आ रही थी और रह-रह कर जमुना की कहानी हम लोगों के दिमाग में घूम जाती थी और कभी कलकत्ते की अरगंडी और कभी बेसन के पुए की याद करके हम लोग हँस रहे थे।
इतने में श्याम भी हाथ में एक बँसखट लिए और बगल में दरी-तकिया दबाए हुए आया। वह दोपहर की मजलिस में शामिल नहीं था अत: हम लोगों को हँसते देख उत्सुकता हुई और उसने पूछा कि माणिक मुल्ला ने कौन-सी कहानी हम लोगों को बताई है। जब हम लोगों ने जमुना की कहानी उसे बताई तो आश्चर्य से देखा गया कि बजाय हँसने के वह उदास हो गया। हम लोगों ने एक स्वर से पूछा कि 'कहो श्याम, इस कहानी को सुन कर दुखी क्यों हो गए? क्या तुम जमुना को जानते थे?' तो श्याम रुँधे हुए गले से बोला, 'नहीं, मैं जमुना को नहीं जानता, लेकिन आज नब्बे प्रतिशत लड़कियाँ जमुना की परिस्थिति में हैं। वे बेचारी क्या करें! तन्ना से उसकी शादी हो नहीं पाई, उसके बाप दहेज जुटा नहीं पाए, शिक्षा और मन-बहलाव के नाम पर उसे मिलीं 'मीठी कहानियाँ', 'सच्ची कहानियाँ', 'रसभरी कहानियाँ' तो बेचारी और कर ही क्या सकती थी। यह तो रोने की बात है, इसमें हँसने की क्या बात! दूसरे पर हँसना नहीं चाहिए। हर घर में मिट्टी के चूल्हे होते हैं', आदि-आदि।
श्याम की बात सुन कर हम लोगों का जी भर आया और धीरे-धीरे हम लोग सो गए।
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दूसरी दोपहर
घोड़े की नाल
अर्थात किस प्रकार घोड़े की नाल सौभाग्य का लक्षण सिद्ध हुई?
दूसरे दिन खा-पी कर हम लोग फिर उस बैठक में एकत्र हुए और हम लोगों के साथ श्याम भी आया। जब हम लोगों ने माणिक मुल्ला को बताया कि श्याम जमुना की कहानी को सुन कर रोने लगा था तो श्याम झेंप कर बोला, 'मैं कहाँ रो रहा था?' माणिक मुल्ला हँसे और बोले कि 'हमारी जिंदगी में जरा-सी पर्त उखाड़ कर देखो तो हर तरफ इतनी गंदगी और कीचड़ छिपा हुआ है कि सचमुच उस पर रोना आता है। लेकिन प्यारे बंधुओ, मैं तो इतना रो चुका हूँ कि अब आँख में आँसू आता ही नहीं, अत: लाचार हो कर हँसना पड़ता है। एक बात और है - जो लोग भावुक होते हैं और सिर्फ रोते हैं, वे रो-धो कर रह जाते हैं, पर जो लोग हँसना सीख लेते हैं वे कभी-कभी हँसते-हँसते उस जिंदगी को बदल भी डालते हैं।'
फिर खरबूजा काटते हुए बोले, 'हटाओ जी इन बातों को। लो आज जौनपुरी खरबूजे हैं। इनकी महक तो देखो। गुलाब मात है। क्या है श्याम? क्यों मुँह लटकाए बैठे हो? अजी मुँह लटकाने से क्या होता है! मैं अभी तुम्हें बताऊँगा कि जमुना का विवाह कैसे हुआ?'
हम लोग तो यह सुनना ही चाहते थे अत: एक स्वर में बोल उठे, 'हाँ-हाँ, आज जमुना के विवाह की कहानी रहे।' पर माणिक मुल्ला बोले, 'नहीं, पहले खरबूजे के छिलके बाहर फेंक आओ।' जब हम लोगों ने कमरा साफ कर दिया तो माणिक मुल्ला ने सबको आराम से बैठ जाने का आदेश दिया, ताख पर से घोड़े की पुरानी नाल उठा लाए और उसे हाथ में ले कर ऊपर उठा कर बोले, 'यह क्या है?'
'घोड़े की नाल।' हम लोगों ने एक स्वर में उत्तर दिया।
'ठीक!' माणिक मुल्ला ने जादूगर की तरह नाल को आश्चर्यजनक तेजी से उँगली पर नचाते हुए कहा, 'यह नाल जमुना के वैवाहिक जीवन का एक महत्वपूर्ण स्मृति-चिह्न है। तुम लोग पूछोगे, कैसे? वह मैं पूरे विस्तार में बताता हूँ।'
और माणिक मुल्ला ने विस्तार में जो बताया वह संक्षेप में इस प्रकार है :
जब बहुत दिनों तक जमुना की शादी नहीं तय हो पाई और निराश हो कर उसकी माँ पूजा-पाठ करने लगीं और पिता बैंक में ओवरटाइम करने लगे तो एक दिन अकस्मात उनके घर दूर की एक रिश्तेदार रामो बीबी आईं और उन्होंने बीज छीलते हुए कहा, 'हरे राम-राम! बिटिया की बाढ़ तो देखो। जैसन नाम तैसन करनी। भादों की जमुना अस फाटी पड़त है।' और फिर झुक कर माँ के कान में धीमे से बोलीं, 'ए कर बियाह-उआह कहूँ नाहीं तय कियो?' जब माँ ने बताया कि बिरादरीवाले दहेज बहुत माँग रहे हैं, कहीं जात-परजात में दे देने से तो अच्छा है कि माँ-बेटी गले से रस्सी बाँध कर कुएँ में गिर पड़ें तो रामो बीबी फौरन तमक कर बोलीं, 'ऐ हे! कैसी कुभाखा जिभ्या से निकालत हो जमुना की अम्मा! कहत कुच्छौ नाहीं लगत! और कुएँ में गिरैं तुम्हारे दुश्मन, कुएँ में गिरैं अड़ोस-पड़ोसवाले, कुएँ में गिरैं तन्ना और महेसर दलाल, दूसरे का सुख देख के जिनके हिया फाटत हैं।' बहरहाल हुआ यह कि रामो बीबी ने फौरन अपनी कुरती में से अपने भतीजे की कुंडली निकाल कर दी और कहा, 'बखत पड़े पर आदमियै आदमी के काम आवत है। जो हारेगाढ़े कबौ काम न आवै ऊ आदमी के रूप में जनावर है। अब ई हमार भतीजा है। घर का अकेला, न सास न ससुर, न ननद न जिठानी, कौनो किचाइन नाहीं है घर में। नाना ओके नाम जागीर लिख गए हैं। घर में घोड़ा है, ताँगा है। पुराना नामी खानदान है। लड़की रानी-महारानी अस बिलसिहै।'
जब शाम को जमुना की माँ ने यह खबर बाप को दी तो उसने सामने से थाली खिसका दी और कहा, 'उसकी दो बीवियाँ मर चुकी हैं। तेहाजू है लड़का। मुझसे चार-पाँच बरस छोटा होगा।'
'थाली काहे खिसका दी? न खाओ मेरी बला से। क्यों नहीं ढूँढ़ के लाते? जब लड़की की उमर मेरे बराबर हो रही है तो लड़का कहाँ से ग्यारह साल का मिल जाएगा।' इस बात को ले कर पति और पत्नी में बहुत कहा-सुनी हुई। अंत में जब पत्नी पान बना कर ले गई और पति को समझा कर कहा, 'लड़का तिहाजू है तो क्या हुआ। मरद और दीवार - जितना पानी खाते हैं उतना पुख्ता होते हैं।'
जब जमुना के द्वारे बारात चढ़ी तो माणिक मुल्ला ने देखा और उन्होंने उस पुख्ता दीवार का जो वर्णन दिया उससे हम लोग लोट-पोट हो गए। जमुना ने उसे देखा तो बहुत रोई, जेवर चढ़ा तो बहुत खुश हुई, चलने लगी तो यह आलम था कि आँखों से आँसू नहीं थमते थे और हृदय में उमंगें नहीं थमती थीं।
जब जमुना लौट कर मैके आई तो सभी सखियों के यहाँ गई। अंग-अंग पर जेवर लदा था, रोम-रोम पुलकित था और पति की तारीफ करते जबान नहीं थकती थी। 'अरी कम्मो, वो तो इतने सीधे हैं कि जरा-सी तीन-पाँच नहीं जानते। ऐ, जैसे छोटे-से बच्चे हों। पहली दोनों के मैकेवाले सारी जायदाद लूट ले गए, नहीं तो धन फटा पड़ता था। मैंने कहा अब तुम्हारे साले-साली आवेंगे तो बाहर ही से विदा करूँगी, तुम देखते रहना। तो बोले, 'तुम घर की मालकिन हो। सुबह-शाम दाल-रोटी दे दो बस, मुझे क्या करना है।' चौबीसों घंटा मुँह देखते रहते हैं। जरा-सी कहीं गई - बस सुनती हो, ओ जी सुनती हो, अजी कहाँ गई! मेरी तो नाक में दम है कम्मो! मुहल्ला-पड़ोसवाले देख-देख कर जलते हैं। मैंने कहा, जितना जलोगे उतना जलाऊँगी। मैं भी तब दरवाजा खोलती हूँ जब धूप सिर पर चढ़ आती है। और खयाल इतना रखते हैं कि मैं आई तो ढाई सौ रुपए जबरदस्ती ट्रंक में रख दिए। कहा, हमारी कसम है जो इसे न ले जाओ।'
लेकिन जमुना को जल्दी ही ससुराल लौट जाना पड़ा, क्योंकि एक दिन उसके बाप बहुत परेशान हालत में रात को आठ बजे बैंक से लौटे और बताया कि हिसाब में एक सौ सत्ताईस रुपया तेरह आने की कमी पड़ गई है, अगर कल सुबह जाते ही उन्होंने जमा न कर दिया तो हिरासत में ले लिए जाएँगे। यह सुनते ही घर में सियापा छा गया और जमुना ने झट ट्रंक से नोट की गड्डी निकाल कर छप्पर में खोंस दी और जब माँ ने कहा, 'बेटी उधार दे दो!' तो ताली माँ के हाथ में दे कर बोली, 'देख लो न, संदूक में दो-चार दुअन्नियाँ पड़ी होंगी।' लेकिन जमुना ने सोचा आज बला टल गई तो टल गई, आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी। इतना तो पहले लुट गया है, अब अगर जमुना भी माँ-बाप पर लुटा दे तो अपने बाल-बच्चों के लिए क्या बचाएगी? अरे माँ-बाप कै दिन के हैं? उसे सहारा तो उसके बच्चे ही देंगे न!
यहाँ पर माणिक मुल्ला कहानी कहते-कहते रुक गए और हम लोगों की ओर देख कर बोले, 'प्यारे मित्रो! हमेशा याद रखो कि नारी पहले माँ होती है तब और कुछ! इसका जन्म ही इसलिए होता है कि वह माँ बने। सृष्टि का क्रम आगे बढ़ावे। यही उसकी महानता है। तुमने देखा कि जमुना के मन में पहले अपने बच्चों का खयाल आया।'
अस्तु। जमुना अपने भावी बाल-बच्चों का खयाल करके अपनी ससुराल चली गई और सुख से रहने लगी। सच पूछो तो यहीं जमुना की कहानी का खात्मा होता है।
'लेकिन आपने तो घोड़े की नाल दिखाई थी। इसका तो जिक्र आया ही नहीं?'
'ओह! मैंने सोचा देखूँ तुम लोग कितने ध्यान से सुन रहे हो।' और तब उन्होंने उस नाल की घटना भी बताई।
असल में जमुना के पति तिहाजू यानी पुख्ता दीवार, पर उनमें और जमुना में उतना ही अंतर था जितना पलस्तर उखड़ी हुई पुरानी दीवार और लिपे-पुते तुलसी के चौतरे में। इधर-उधर के लोग इधर-उधर की बातें करते थे पर जमुना तन-मन से पति-परायणा थी। पति भी जहाँ उसके गहने-कपड़े का ध्यान रखते थे वहीं उसे भजनामृत, गंगा-माहात्म्य, गुटका रामायण आदि ग्रंथ-रत्न ला कर दिया करते थे। और वह भी उसमें 'उत्तम के अस बस मन माहीं' आदि पढ़ कर लाभान्वित हुआ करती थी। होते-होते यह हुआ कि धर्म का बीज उसके मन में जड़ पकड़ गया और भजन-कीर्तन, कथा-सत्संग में उसका चित रम गया और ऐसा रमा कि सुबह-शाम, दोपहर-रात वह दीवानी घूमती रहे। रोज उसके यहाँ साधु-संतों का भोजन होता रहे और साधु-संत भी ऐसे तपस्वी और रूपवान कि मस्तक से प्रकाश फूटता था।
वैसे उसकी भक्ति बहुत निष्काम थी किंतु जब साधु-संत उसे आशीर्वाद दें कि 'संतानवती भव' तो वह उदास हो जाया करे। उसके पति उसे बहुत समझाया करते थे, 'अजी यह तो भगवान की माया है इसमें उदास क्यों होती हो?' लेकिन संतान की चिंता उन्हें भी थी क्योंकि इतनी बड़ी जागीर के जमींदार का वारिस कोई नहीं था। अंत में एक दिन वे और जमुना दोनों एक ज्योतिषी के यहाँ गए जिसने जमुना को बताया कि उसे कार्तिक-भर सुबह गंगा नहा कर चंडी देवी को पीले फूल और ब्राह्मणों को चना, जौ और सोने का दान करना चाहिए।
जमुना इस अनुष्ठान के लिए तत्काल राजी हो गई। लेकिन इतनी सुबह किसके साथ जाए! जमुना ने पति (जमींदार साहब) से कहा कि वे साथ चला करें पर वे ठहरे बूढ़े आदमी, सुबह जरा-सी ठंडी हवा लगते ही उन्हें खाँसी का दौरा आ जाता था। अंत में यह तय हुआ कि रामधन ताँगेवाला शाम को जल्दी छुट्टी लिया करेगा और सुबह चार बजे आ कर ताँगा जोत दिया करेगा।
जमुना नित्य नियम से नहाने जाने लगी। कार्तिक में काफी सर्दी पड़ने लगती है और घाट से मंदिर तक उसे केवल एक पतली रेशमी धोती पहन कर फूल चढ़ाने जाना पड़ता था। वह थर-थर थर-थर काँपती थी। एक दिन मारे सर्दी के उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ गए। और वह वहीं ठंडी बालू पर बैठ गई और यह कहा कि रामधन अगर उसे समूची उठा कर ताँगे पर न बैठा देता तो वह वहीं बैठी-बैठी ठंड से गल जाती।
अंत में रामधन से न देखा गया। उसने एक दिन कहा, 'बहूजी, आप काहे जान देय पर उतारू हौ। ऐसन तपिस्या तो गौरा माइयो नैं करिन होइहैं। बड़े-बड़े जोतसी का कहा कर लियो अब एक गरीब मनई का भी कहा कै लेव!' जमुना के पूछने पर उसने बताया, जिस घोड़े के माथे पर सफेद तिलक हो, उसके अगले बाएँ पैर की घिसी हुई नाल चंद्र-ग्रहण के समय अपने हाथ से निकाल कर उसकी अँगूठी बनवा कर पहन ले तो सभी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं।
लेकिन जमुना को यह स्वीकार नहीं हुआ क्योंकि पता नहीं चंद्र-ग्रहण कब पड़े। रामधन ने बताया कि चंद्र-ग्रहण दो-तीन दिन बाद ही है। लेकिन कठिनाई यह है कि नाल अभी नया लगवाया है, वह तीन दिन के अंदर कैसे घिसेगा और नया कुछ प्रभाव नहीं रखता।
'तो फिर क्या हो, रामधन? तुम्हीं कोई जुगत बताओ!'
'मालकिन, एक ही जुगत है।'
'क्या?'
'ताँगा रोज कम-से-कम बारह मील चले। लेकिन मालिक कहीं जाते नहीं। अकेले मुझे ताँगा ले नहीं जाने देंगे। आप चलें तो ठीक रहे।'
'लेकिन हम बारह मील कहाँ जाएँगे?'
'क्यों नहीं सरकार! आप सुबह जरा और जल्दी दो-ढाई बजे निकल चलें! गंगापार पक्की सड़क है, बारह मील घुमा कर ठीक टाइम पर हाजिर कर दिया करूँगा। तीन दिन की ही तो बात है।'
जमुना राजी हो गई और तीन दिन तक रोज ताँगा गंगापार चला जाया करता था। रामधन का अंदाज ठीक निकला और तीसरे दिन चंद्र-ग्रहण के समय नाल उतरवा कर अँगूठी बनवाई गई और अँगूठी का प्रताप देखिए कि जमींदार साहब के यहाँ नौबत बजने लगी और नर्स ने पूरे एक सौ रुपए की बख्शीश ली।
जमींदार बेचारे वृद्ध हो चुके थे और उन्हें बहुत कष्ट था, वारिस भी हो चुका था अत: भगवान ने उन्हें अपने दरबार में बुला दिया। जमुना पति के बिछोह में धाड़ें मार-मार कर रोई, चूड़ी-कंगन फोड़ डाले, खाना-पीना छोड़ दिया। अंत में पड़ोसियों ने समझाया कि छोटा बच्चा है, उसका मुँह देखना चाहिए। जो होना था सो हो गया। काल बली है। उस पर किसका बस चलता है! पड़ोसियों के बहुत समझाने पर जमुना ने आँसू पोंछे। घर-बार सँभाला। इतनी बड़ी कोठी थी, अकेले रहना एक विधवा महिला के लिए अनुचित था, अत: उसने रामधन को एक कोठरी दी और पवित्रता से जीवन व्यतीत करने लगी।
जमुना की कहानी खत्म हो चुकी थी। लेकिन हम लोगों की शंका थी कि माणिक मुल्ला को यह घिसी नाल कहाँ से मिली, उसकी तो अँगूठी बन चुकी थी। पूछने पर मालूम हुआ कि एक दिन कहीं रेल सफर में माणिक मुल्ला को रामधन मिला। सिल्क का कुरता, पान का डब्बा, बड़े ठाठ थे उसके! माणिक मुल्ला को देखते ही उसने अपने भाग्योदय की सारी कथा सुनाई और कहा कि सचमुच घोड़े की नाल में बड़ी तासीर होती है। और फिर उसने एक नाल माणिक मुल्ला के पास भेज दी थी, यद्यपि उन्होंने उसकी अँगूठी न बनवा कर उसे हिफाजत से रख लिया।
कहानी सुना कर माणिक मुल्ला श्याम की ओर देख कर बोले, 'देखा श्याम, भगवान जो कुछ करता है भले के लिए करता है। आखिर जमुना को कितना सुख मिला। तुम व्यर्थ में दुखी हो रहे थे? क्यों?'
श्याम ने प्रसन्न हो कर स्वीकार किया कि वह व्यर्थ में दुखी हो रहा था। अंत में माणिक मुल्ला बोले, 'लेकिन अब बताओ इससे निष्कर्ष क्या निकला?'
हम लोगों में से जब कोई नहीं बता सका तो उन्होंने बताया, इससे यह निष्कर्ष निकला कि दुनिया का कोई भी श्रम बुरा नहीं। किसी भी काम को नीची निगाह से नहीं देखना चाहिए चाहे वह ताँगा हाँकना ही क्यों न हो?
हम सबों को इस कहानी का यह निष्कर्ष बहुत अच्छा लगा और हम सभी ने शपथ ली कि कभी किसी प्रकार के ईमानदारी के श्रम को नीची निगाह से न देखेंगे चाहे वह कुछ भी क्यों न हो।
इस तरह माणिक मुल्ला की दूसरी निष्कर्षवादी कहानी समाप्त हुई।
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kunal
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Re: सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती

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अनध्याय
जमुना की जीवन-गाथा समाप्त हो चुकी थी और हम लोगों को उसके जीवन का ऐसा सुखद समाधान देख कर बहुत संतोष हुआ। ऐसा लगा कि जैसे सभी रसों की परिणति शांत या निर्वेद में होती है, वैसे ही उस अभागिन के जीवन के सारे संघर्ष और पीड़ा की परिणति मातृत्व से प्लावित, शांत, निष्कंप दीपशिखा के समान प्रकाशमान, पवित्र, निष्कलंक वैधव्य में हुई।
रात को जब हम लोग हकीम जी के चबूतरे पर अपनी-अपनी खाट और बिस्तरा ले कर एकत्र हुए तो जमुना की जीवन-गाथा हम सबों के मस्तिष्क पर छाई हुई थी और उसको ले कर जो बातचीत तथा वाद-विवाद हुआ उसका नाटकीय विवरण इस प्रकार है :
मैं : (खाट पर बैठ कर, तकिए को उठा कर गोद में रखते हुए) भई कहानी बहुत अच्छी रही।
ओंकार : (जम्हाई लेते हुए) रही होगी।
प्रकाश : (करवट बदल कर) लेकिन तुम लोगों ने उसका अर्थ भी समझा?
श्याम : (उत्साह से) क्यों, उसमें कौन कठिन भाषा थी?
प्रकाश : यही तो माणिक मुल्ला की खूबी है। अगर जरा-सा सचेत हो कर उनकी बात तुम समझते नहीं गए तो फौरन तुम्हारे हाथ से तत्व निकल जाएगा, हलका-फुलका भूसा हाथ आएगा। अब यह बताओ कि कहानी सुन कर क्या भावना उठी तुम्हारे मन में? तुम बताओ!
मैं : (यह समझ कर कि ऐसे अवसर पर थोड़ी आलोचना करना विद्वत्ता का परिचायक है) भई, मेरे तो यही समझ में नहीं आया कि माणिक मुल्ला ने जमुना-जैसी नायिका की कहानी क्यों कही? शकुंतला-जैसी भोली-भाली या राधा-जैसी पवित्र नायिका उठाते, या बड़े आधुनिक बनते हैं तो सुनीता-जैसी साहसी नायिका उठाते या देवसेना, शेखर की शशी-वशी तमाम टाइप मिल सकते थे।
प्रकाश : (सुकरात की-सी टोन में) लेकिन यह बताओ कि जिंदगी में अधिकांश नायिकाएँ जमुना-जैसी मिलती हैं या राधा और सुधा और गेसू और सुनीता और देवसेना-जैसी?
मैं : (चालाकी से अपने को बचाते हुए) पता नहीं! मेरा नायिकाओं के बारे में कोई अनुभव नहीं। यह तो आप ही बता सकते हैं।
श्याम : भाई, हमारे चारों ओर दुर्भाग्य से नब्बे प्रतिशत लोग तो जमुना और रामधन की तरह के होते हैं, पर इससे क्या! कहानीकार को शिवम का चित्रण करना चाहिए।
प्रकाश : यह तो ठीक है। पर अगर किसी जमी हुई झील पर आधा इंच बरफ और नीचे अथाह पानी और वहीं एक गाइड खड़ा है जो उस पर से आनेवालों को आधा इंच की तो सूचना दे देता है और नीचे के अथाह पानी की खबर नहीं देता तो वह राहगीरों को धोखा देता है या नहीं?
मैं : क्यों नहीं?
प्रकाश : और अगर वे राहगीर बरफ टूटने पर पानी में डूब जाएँ तो इसका पाप गाइड पर पड़ेगा न!
श्याम : और क्या?
प्रकाश : बस, माणिक मुल्ला भी तुम्हारा ध्यान उस अथाह पानी की ओर दिला रहे हैं जहाँ मौत है, अँधेरा है, कीचड़ है, गंदगी है। या तो दूसरा रास्ता बनाओ नहीं तो डूब जाओ। लेकिन आधा इंच ऊपर जमी बरफ कुछ काम न देगी। एक ओर नए लोगों का यह रोमानी दृष्टिकोण, यह भावुकता, दूसरी ओर बूढ़ों का यह थोथा आदर्श और झूठी अवैज्ञानिक मर्यादा सिर्फ आधी इंच बरफ है, जिसने पानी की खूँखार गहराई को छिपा रखा है।
मैं :
ओंकार : (ऊब जाते हैं, सोचते हैं कब यह लेक्चर बंद हो।)
प्रकाश : (उत्साह से कहता जाता है) जमुना निम्न-मध्यवर्ग की भयानक समस्या है। आर्थिक नींव खोखली है। उसकी वजह से विवाह, परिवार, प्रेम - सभी की नींवें हिल गई हैं। अनैतिकता छाई हुई है। पर सब उस ओर से आँखें मूँदे हैं। असल में पूरी जिंदगी की व्यवस्था बदलनी होगी!
मैं : (ऊब कर जम्हाई लेता हूँ।)
प्रकाश : क्यों? नींद आ रही है तुम्हें? मैंने कै बार तुमसे कहा कि कुछ पढ़ो-लिखो। सिर्फ उपन्यास पढ़ते रहते हो। गंभीर चीजें पढ़ो। समाज का ढाँचा, उसकी प्रगति, उसमें अर्थ, नैतिकता, साहित्य का स्थान...
मैं : (बात काट कर) मैंने क्या पढ़ा नहीं? तुम्हीं ने पढ़ा है? (यह देख कर कि प्रकाश की विद्वत्ता का रोब लोगों पर जम रहा है, मैं क्यों पीछे रहूँ) मैं भी इसकी मार्क्सवादी व्याख्या दे सकता हूँ -
प्रकाश : क्या? क्या व्याख्या दे सकते हो?
मैं : (अकड़ कर) मार्क्सवादी!
ओंकार : अरे यार रहने भी दो!
श्याम : मुझे नींद आ रही है।
मैं : देखिए, असल में इसकी मार्क्सवादी व्याख्या इस तरह हो सकती है। जमुना मानवता का प्रतीक है, मध्यवर्ग (माणिक मुल्ला) तथा सामंतवर्ग (जमींदार) उसका उद्धार करने में असफल रहे; अंत में श्रमिकवर्ग (रामधन) ने उसको नई दिशा सुझाई!
प्रकाश : क्या? (क्षण-भर स्तब्ध। फिर माथा ठोंक कर) बेचारा मार्क्सवाद भी ऐसा अभागा निकला कि तमाम दुनिया में जीत के झंडे गाड़ आया और हिंदुस्तान में आ कर इसे बड़े-बड़े राहु ग्रस गए। तुम ही क्या, उसे ऐसे-ऐसे व्याख्याकार यहाँ मिले हैं कि वह भी अपनी किस्मत को रोता होगा। (जोरों से हँसता है, मैं अपनी हँसी उड़ते देख कर उदास हो जाता हूँ।)
हकीम जी की पत्नी : (नेपथ्य से) मैं कहती हूँ यह चबूतरा है या सब्जी मंडी। जिसे देखो खाट उठाए चला आ रहा है। आधी रात तक चख-चख चख-चख! कल से सबको निकालो यहाँ से।
हकीमजी : (नेपथ्य से काँपती हुई बूढ़ी आवाज) अरे बच्चे हैं। हँस-बोल लेने दे। तेरे अपने बच्चे नहीं हैं फिर दूसरों को क्यों खाने दौड़ती है... (हम सब पर सकता छा जाता है। मैं बहुत उदास हो कर लेट जाता हूँ। नीम पर से नींद की परियाँ उतरती हैं, पलकों पर छम-छम छम-छम नृत्य कर)।
(यवनिका-पतन)

तीसरी दोपहर
शीर्षक माणिक मुल्ला ने नहीं बताया
हम लोग सुबह सो कर उठे तो देखा कि रात ही रात सहसा हवा बिलकुल रुक गई है और इतनी उमस है कि सुबह पाँच बजे भी हम लोग पसीने से तर थे। हम लोग उठ कर खूब नहाए मगर उमस इतनी भयानक थी कि कोई भी साधन काम न आया। पता नहीं ऐसी उमस इस शहर के बाहर भी कहीं होती है या नहीं; पर यहाँ तो जिस दिन ऐसी उमस होती है उस दिन सभी काम रुक जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में क्लर्क काम नहीं कर पाते, सुपरिंटेंडेंट बड़े बाबुओं को डाँटते हैं, बड़े बाबू छोटे बाबुओं पर खीज उतारते हैं, छोटे बाबू चपरासियों से बदला निकालते हैं और चपरासी गालियाँ देते हुए पानी पिलानेवालों से, भिश्तियों से और मालियों से उलझ जाते हैं; दुकानदार माल न बेच कर ग्राहकों को खिसका देते हैं और रिक्शावाले इतना किराया माँगते हैं कि सवारियाँ परेशान हो कर रिक्शा न करें। और इन तमाम सामाजिक उथल-पुथल के पीछे कोई ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रगति का सिद्धांत न हो कर केवल तापमान रहता है - टेंपरेचर, उमस, एक-सौ बारह डिगरी फारिनहाइट!
लेकिन इस उमस के बावजूद माणिक मुल्ला की कहानियाँ सुनने का लोभ हम लोगों से छूट नहीं पाता था अत: हम सबके-सब नियत समय पर वहीं इकट्ठा हुए और मिलने पर सबमें यही अभिवादन हुआ - 'आज बहुत उमस है!'
'हाँ जी, बहुत उमस है; ओफ-फोह!'
सिर्फ प्रकाश जब आया और उससे सबने कहा कि आज बहुत उमस है तो फलसफा छाँटते हुए अफलातून की तरह मुँह बना कर बोला (मेरी इस झल्लाहट-भरी टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे क्योंकि पिछली रात उसने मार्क्सवाद के सवाल पर मुझे नीचा दिखाया था और सच्चे संकीर्ण मार्क्सवादियों की तरह से झल्ला उठा था और मैंने तय कर लिया था कि वह सही बात भी करेगा तो मैं उसका विरोध करूँगा), बहरहाल प्रकाश बोला, 'भाईजी, उमस हम सभी की जिंदगी में छाई हुई है, उसके सामने तो यह कुछ नहीं है। हम सभी निम्नमध्य श्रेणी के लोगों की जिंदगी में हवा का एक ताजा झोंका नहीं। चाहे दम घुट जाए पर पत्ता नहीं हिलता, धूप जिसे रोशनी देना चाहिए हमें बुरी तरह झुलसा रही है और समझ में नहीं आता कि क्या करें। किसी-न-किसी तरह नई और ताजी हवा के झोंके चलने चाहिए। चाहे लू के ही झोंके क्यों न हों।'
प्रकाश की इस मूर्खता-भरी बात पर कोई कुछ नहीं बोला। (मेरे झूठ के लिए क्षमा करें क्योंकि माणिक ने इस बात की जोर से ताईद की थी, पर मैंने कह दिया न कि मैं अंदर-ही-अंदर चिढ़ गया हूँ!)
खैर, तो माणिक मुल्ला बोले कि, 'जब मैं प्रेम पर आर्थिक प्रभाव की बात करता हूँ तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढाँचा हमारे मन पर इतना अजब-सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएँ उससे स्वाधीन नहीं हो पातीं और हम-जैसे लोग जो न उच्चवर्ग के हैं, न निम्नवर्ग के, उनके यहाँ रुढ़ियाँ, परंपराएँ, मर्यादाएँ भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिला कर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र-मात्र रह जाते हैं हमारे अंदर उदार और ऊँचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब-सी जड़ मूर्च्छना हम पर छा जाती है।'
प्रकाश ने जब इसका समर्थन किया तो मैंने इनका विरोध किया और कहा, 'लेकिन व्यक्ति को तो हर हालत में ईमानदार बना रहना चाहिए। यह नहीं कि टूटता-फूटता चला जाए।'
तो माणिक मुल्ला बोले, 'यह सच है, पर जब पूरी व्यवस्था में बेईमानी है तो एक व्यक्ति की ईमानदारी इसी में है कि वह एक व्यवस्था द्वारा लादी गई सारी नैतिक विकृति को भी अस्वीकार करे और उसके द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओं को भी, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। लेकिन हम यह विद्रोह नहीं कर पाते, अत: नतीजा यह होता है कि जमुना की तरह हर परिस्थिति में समझौता करते जाते हैं।
'लेकिन सभी तो जमुना नहीं होते?' मैंने फिर कहा।
'हाँ, लेकिन जो इस नैतिक विकृति से अपने को अलग रख कर भी इस तमाम व्यवस्था के विरुद्ध नहीं लड़ते, उनकी मर्यादाशीलता सिर्फ परिष्कृत कायरता होती है। संस्कारों का अंधानुसरण! और ऐसे लोग भले आदमी कहलाए जाते हैं, उनकी तारीफ भी होती है, पर उनकी जिंदगी बेहद करुण और भयानक हो जाती है और सबसे बड़ा दु:ख यह है कि वे भी अपने जीवन का यह पहलू नहीं समझते और बैल की तरह चक्कर लगाते चले जाते हैं। मसलन मैं तुम्हें तन्ना की कहानी सुनाऊँ? तन्ना की याद है न? वही महेसर दलाल का लड़का!'
लोग व्यर्थ के वाद-विवाद से ऊब गए थे अत: माणिक मुल्ला ने कहानी सुनानी शुरू की -
अकस्मात ओंकार ने रोक कर कहा, 'इस कहानी का शीर्षक?' माणिक मुल्ला इस व्याघात से झल्ला उठे और बोले, 'हटाओ जी, मैं क्या किसी पत्रिका को कहानी भेज रहा हूँ कि शीर्षक के झगड़े में पड़ूँ। तुम लोग कहानी सुनने आए हो या शीर्षक सुनने? या मैं उन कहानी-लेखकों में से हूँ जो आकर्षक विषय-वस्तु के अभाव में आकर्षक शीर्षक दे कर पत्रों में संपादकों और पाठकों को ध्यान खींचा करते हैं!'
यह देख कर कि माणिक मुल्ला ओंकार को डाँट रहे हैं, हम लोगों ने भी ओंकार को डाँटना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि जब माणिक मुल्ला ने हम लोगों को डाँटा तो हम लोग चुप हुए और उन्होंने अपनी कहानी प्रारंभ की -
तन्ना के कोई भाई नहीं था। पर तीन बहनें थीं। उनमें से जो सबसे छोटी थी उसी को जन्म देने के बाद उसकी माँ गोलोक चली गई थी। रह गए पिताजी जो दलाल थे। चूँकि बच्चे छोटे थे, उनकी देख-भाल करनेवाला कोई नहीं था, अत: तन्ना के पिता महेसर दलाल ने अपनी यह इच्छा जाहिर की कि किसी भले घर की कोई दबी-ढँकी सुशील कन्या मिल जाए तो बच्चों का पालन-पोषण हो जाए, वरना अब उन्हें क्या बुढ़ापे में कोई औरत का शौक चढ़ा है? राम राम! ऐसी बात सोचना भी नहीं चाहिए। उन्हें तो सिर्फ बच्चों की फिक्र है वरना अब तो बचे-खुचे दिन राम के भजन में और गंगा-स्नान में काट देने हैं। रही तन्ना की माँ, सो तो देवी थी, स्वर्ग चली गई; महेसर दलाल पापी थे सो रह गए। बच्चों का मुँह देख कर कुछ नहीं करते वरना हरद्वार जा कर बाबा काली कमलीवाले के भंडारों में दोनों जून भोजन करते और लोक-परलोक सुधारते।
लेकिन मुहल्ले-भर की बड़ी-बूढ़ी औरतें कोई ऐसी सुशील कन्या न जुटा पाईं जो बच्चों का भरण-पोषण कर सके, अंत में मजबूर हो कर महेसर दलाल एक औरत को सेवा-टहल और बच्चों के भरण-पोषण के लिए ले आए।
उस औरत ने आते ही पहले महेसर दलाल के आराम की सारी व्यवस्था की। उनका पलँग, बिस्तर, हुक्का-चिलम ठीक किया, उसके बाद तीनों लड़कियों के चरित्र और मर्यादा की कड़ी जाँच की और अंत में तन्ना की फिजूलखर्ची रोकने की पूरी कोशिश करने लगी। बहरहाल उसने तमाम बिखरती हुई गृहस्थी को बड़ी सावधानी से सँभाल लिया। अब उसमें अगर तन्ना और उनकी तीनों बहनों को कुछ कष्ट हुआ तो इसके लिए कोई क्या करे?
तन्ना की बड़ी बहन घर का काम-काज, झाड़ू-बुहार, चौका-बरतन किया करती थी; मँझली बहन जिसके दोनों पाँवों की हड्डियाँ बचपन से ही खराब हो गई थीं, या तो कोने में बैठे रहती थी या आँगन-भर में घिसल-घिसल कर सभी भाई-बहनों को गालियाँ देती रहती थी; सबसे छोटी बहन पंचम बनिया के यहाँ से तंबाकू, चीनी, हल्दी, मिट्टी का तेल और मंडी से अदरक, नींबू, हरी मिर्च, आलू और मूली वगैरह लाने में व्यस्त रहती थी। तन्ना सुबह उठ कर पानी से सारा घर धोते थे, बाँस में झाड़ू बाँध कर घर-भर का जाला पोंछते थे, हुक्का भरते थे, इतने में स्कूल का वक्त हो जाता था। लेकिन खाना इतनी जल्दी कहाँ से बन सकता था, अत: बिना खाए ही स्कूल चले जाते थे। स्कूल से लौट कर आने पर उन्हें फिर शाम के लिए लकड़ी चीरनी पड़ती थी, बुरादे की अँगीठी भरनी पड़ती थी, दीया-बत्ती करनी पड़ती थी, बुआ (उस औरत को सब बच्चे बुआ कहा करें यह महेसर दलाल का हुक्म था) का बदन भी अकसर दबाना पड़ता था क्योंकि बेचारी काम करते-करते थक जाती थी और तब तन्ना चबूतरे के सामने लगी हुई म्यूनिसिपैलिटी की लालटेन के मंद-मधुर प्रकाश में स्कूल का काम किया करते थे। घर में लालटेन एक ही थी और वह बुआ के कमरे में जलती-बुझती रहती थी।
तन्ना का दिल कमजोर था। अत: तन्ना अक्सर माँ की याद करके रोया करते थे और उन्हें रोते देख कर बड़ी और छोटी बहन भी रोने लगती थी और मँझली अपने दोनों टूटे पैर पटक कर उन्हें गालियाँ देने लगती थी और दूसरे दिन वह बुआ से या बाप से शिकायत कर देती थी और बुआ माथे में आलता बिंदी लगाते हुए रोती हुई कहती थीं, 'इन कंबख्तों को मेरा खाना-पीना, उठना-बैठना, पहनना-ओढ़ना अच्छा नहीं लगता। पानी पी-पी कर कोसते रहते हैं। आखिर कौन तकलीफ है इन्हें! बड़े-बड़े नवाब के लड़के ऐसे नहीं रहते जैसे तन्ना बाबू बुल्ला बना के, पाटी पार के, छैल-चिकनियों की तरह घूमते हैं।' और उसके बाद महेसर दलाल को परिवार की मर्यादा कायम रखने के लिए तन्ना को बहुत मारना पड़ता था, यहाँ तक कि तन्ना की पीठ में नील उभर आती थी और बुखार चढ़ आता था और दोनों बहनें डर के मारे उनके पास जा नहीं पातीं और मँझली बहन मारे खुशी के आँगन-भर में घिसलती फिरती थी और छोटी बहन से कहती थी, 'खूब मार पड़ी। अरे अभी क्या? राम चाहें तो एक दिन पैर टूटेंगे, कोई मुँह में दाना डालनेवाला नहीं रह जाएगा। अरी चल, आज मेरी चोटी तो कर दे! आज खूब मार पड़ी है तन्ना को।'
इन हालतों में जमुना की माँ ने तन्ना को बहुत सहारा दिया। उनके यहाँ पूजा-पाठ अक्सर होता रहता था और उसमें वे पाँच बंदर और पाँच क्वाँरी कन्याओं को खिलाया करती थीं। बंदरों में तन्ना और कन्याओं में उनकी बहनों को आमंत्रण मिलता था और जाते समय बुआ साफ-साफ कह देती थीं कि दूसरों के घर जा कर नदीदों की तरह नहीं खाना चाहिए, आधी पूड़ियाँ बचा कर ले आनी चाहिए। वे लोग यही करते और चूँकि पूड़ी खाने से मेदा खराब हो जाता है अत: बेचारी बुआ पूड़ियाँ अपने लिए रख कर रोटी बच्चों को खिला देतीं।
तन्ना को अक्सर किसी-न-किसी बहाने जमुना बुला लेती थी और अपने सामने तन्ना को बिठा कर खाना खिलाती थी। तन्ना खाते जाते और रोते जाते क्योंकि यद्यपि जमुना उनसे छोटी थी पर पता नहीं क्यों उसे देखते ही तन्ना को अपनी माँ की याद आ जाती थी और तन्ना को रोते देख कर जमुना के मन में भी ममता उमड़ पड़ती और जमुना घंटों बैठ कर उनसे सुख-दु:ख की बातें करती रहती। होते-होते यह हो गया कि तन्ना के लिए कोई था तो जमुना थी और जमुना को चौबीसों घंटा अगर किसी की चिंता थी तो तन्ना की। अब इसी को आप प्रेम कह लें या कुछ और!
जमुना की माँ से बात छिपी नहीं रही, क्योंकि अपनी उम्र में वे भी जमुना ही रही होंगी - और उन्होंने बुला कर जमुना को बहुत समझाया और कहा कि तन्ना वैसे बहुत अच्छा लड़का है पर नीच गोत का है और अपने खानदान में अभी तक अपने से ऊँचे गोत में ही ब्याह हुआ है। पर जब जमुना बहुत रोई और उसने तीन दिन खाना नहीं खाया तो उसकी माँ ने आधे पर तोड़ कर लेने का निर्णय किया यानी उन्होंने कहा कि अगर तन्ना घर-जमाई बनना पसंद करे तो इस प्रस्ताव पर गौर किया जा सकता है।
पर जैसा पहले कहा जा चुका है कि तन्ना थे ईमानदार आदमी और उन्होंने साफ कह दिया कि पिता, कुछ भी हो, आखिरकार पिता हैं। उनकी सेवा करना उनका धर्म है। वे घर-जमाई जैसी बात कभी नहीं सोच सकते। इस पर जमुना के घर में काफी संग्राम मचा पर अंत में जीत जमुना की माँ की रही कि जब दहेज होगा तब ब्याह करेंगे, नहीं लड़की क्वाँरी रहेगी। रास्ता नहीं सूझेगा तो लड़की पीपल से ब्याह देंगे पर नीचे गोतवालों को नहीं देंगे।
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kunal
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Re: सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती

Post by kunal »

जब यह बात महेसर दलाल तक पहुँची तो उनका खून उबल उठा और उन्होंने पूछा - कहाँ है तन्ना? मालूम हुआ मैच देखने गया है तो उन्होंने चीख मार कर कहा ताकि जमुना के घर तक सुनाई दे - 'आने दो आज हरामजादे को। खाल न उधेड़ दी तो नाम नहीं। लकड़ी के ठूँठ को साड़ी पहना कर नौबत बजवा कर ले आऊँगा पर उनके यहाँ मैं लड़के का ब्याह करूँगा जिनके यहाँ...?' और उसके बाद उनके यहाँ का जो वर्णन महेसर दलाल ने किया उसे जाने ही दीजिए। बहरहाल बुआ ने तीन दिन तक खाना नहीं दिया और महेसर ने इतना मारा कि मुँह से खून निकल आया और तीसरे दिन भूख से व्याकुल तन्ना छत पर गए तो जमुना की माँ ने उन्हें देखते ही झट से खिड़की बंद कर ली। जमुना छज्जे पर धोती सुखा रही थी, क्षण-भर इनकी ओर देखती रही फिर चुपचाप बिना धोती सुखाए नीचे उतर गई। तन्ना चुपचाप थोड़ी देर उदास खड़े रहे फिर आँखों में आँसू भरे नीचे उतर आए और समझ गए कि उनका जमुना पर जो भी अधिकार था वह खत्म हो गया। और जैसा कहा जा चुका है कि वे ईमानदार आदमी थे अत: उन्होंने कभी इधर का रुख भी न किया हालाँकि उधर देखते ही उनकी आँखों में आँसू छलक जाते थे और लगता था जैसे गले में कोई चीज फँस रही हो, सीने में कोई सूजा चला रहा हो। धीरे-धीरे तन्ना का मन भी पढ़ने से उचट गया और वे एफ.ए. के पहले साल में ही फेल हो गए।
महेसर दलाल ने उन्हें फिर खूब मारा, उनकी मँझली बहन खुश हो कर अपने लुंज-पुंज पैर पटकने लगी, और हालाँकि तन्ना खूब रोए और दबी जबान इसका विरोध भी किया, पर महेसर दलाल ने उनका पढ़ना-लिखना छुड़ा कर उन्हें आर.एम.एस. में भरती करा दिया और वे स्टेशन पर डाक का काम करने लगे। उसी समय महेसर दलाल की निगाह में एक लड़की
(यहाँ पर मैं यह साफ-साफ कह दूँ कि या तो कहानी की विषय-वस्तु के कारण हो, या उस दिन की सर्वग्रासी उमस के कारण, लेकिन उस दिन माणिक मुल्ला की कथा-शैली में वह चटपटापन नहीं था जो पिछली दो कहानियों में था। अजब ढंग से नीरस शैली में वे विवरण देते चले जा रहे थे और हम लोग भी किसी तरह ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे थे। उमस बहुत थी। कहानी में भी, कमरे में भी।)
खैर, तो उसी समय महेसर दलाल की निगाह में एक लड़की आई जिसके बाप मर चुके थे। माँ की अकेली संतान थी। माँ की उम्र चाहे कुछ रही हो पर देख कर यह कहना कठिन था, माँ-बेटी में कौन उन्नीस है कौन बीस। कठिनाई एक थी, लड़की इंटर के इम्तहान में बैठ रही थी हालाँकि उम्र में तन्ना से बहुत छोटी थी। लेकिन मुसीबत यह थी कि उस रूपवती विधवा के पास जमीन-जायदाद काफी थी। न कोई देवर था, न कोई लड़का। अत: उसकी सहायता और रक्षा के खयाल से तन्ना को इंटरमीडिएट पास बता कर महेसर दलाल ने उसकी लड़की से तन्ना की बात पक्की कर ली मगर इस शर्त के साथ कि शादी तब होगी जब महेसर दलाल अपनी लड़की को निबटा लेंगे और तब तक लड़की पढ़ेगी नहीं।
चूँकि लड़की की ओर से भी सारा इंतजाम महेसर दलाल को करना था अत: वे ग्यारह-बारह बजे रात तक लौट पाते थे और कभी-कभी रात को भी वहीं रह जाना पड़ता था क्योंकि लड़ाई चल रही थी और ब्लैक-आउट रहता था, लड़की का घर उसी मुहल्ले की एक दूसरी बस्ती में था जिसमें दोनों तरफ फाटक लगे थे, जो ब्लैकआउट में नौ बजते ही बंद हो जाते थे।
बुआ ने इसका विरोध किया, और नतीजा यह हुआ कि महेसर दलाल ने साफ-साफ कह दिया कि उसके घर में रहने से मुहल्ले में चारों तरफ चार आदमी चार तरह की बातें करते हैं। महेसर दलाल ठहरे इज्जतदार आदमी, उन्हें बेटे-बेटियों का ब्याह निबटाना है और वे यह ढोल कब तक अपने गले बाँधे रहेंगे। अंत में हुआ यह कि बुआ जैसे हँसती, इठलाती हुई आई थीं वैसे ही रोती-कलपती अपनी गठरी-मुठरी बाँध कर चली गईं और बाद में मालूम हुआ कि तन्ना की माँ के तमाम जेवर और कपड़े जो बहन की शादी के लिए रखे हुए थे, गायब हैं।
इसने तन्ना पर एक भयानक भार लाद दिया। महेसर दलाल का उन दिनों अजब हाल था। मुहल्ले में यह अफवाह फैली हुई थी कि महेसर दलाल जो कुछ करते हैं वह एक साबुन बेचनेवाली लड़की को दे आते हैं। तन्ना को घर का भी सारा खर्च चलाना पड़ता था, ब्याह की तैयारी भी करनी पड़ती थी, दोपहर को ए.आर.पी. में काम करते थे, रात को आर.एम.एस. में और नतीजा यह हुआ कि उनकी आँखें धँस गईं, पीठ झुक गई, रंग झुलस गया और आँखों के आगे काले धब्बे उड़ने लगे।
जैसे-तैसे करके बहन की शादी निबटी। शादी में जमुना आई थी पर तन्ना से बोली नहीं। एक दालान में दोनों मिले तो चुपचाप बैठे रहे। जमुना नाखून से फर्श खोदती रही, तन्ना तिनके से दाँत खोदते रहे। यों जमुना बहुत सुंदर निकल आई थी और गुजराती जूड़ा बाँधने लगी थी, लेकिन यह कहा जा चुका है कि तन्ना ईमानदार आदमी थे। तन्ना का फलदान चढ़ा तो वह और भी सजधज के आई और उसने तन्ना से एक सवाल पूछा, 'भाभी क्या बहुत सुंदर हैं तन्ना?' 'हाँ!' तन्ना ने सहज भाव से बतला दिया तो रुँधते गले से बोली, 'मुझसे भी!' तन्ना कुछ नहीं बोले, घबरा कर बाहर चले आए और सुबह के लिए लकड़ी चीरने लगे।
तन्ना की शादी के बाद जमुना ने भाभी से काफी हेल-मेल बढ़ा लिया। रोज सुबह-शाम आती, तन्ना से बात भी न करती। दिन-भर भाभी के पास बैठी रहती। भाभी बहुत पढ़ी-लिखी थी, तन्ना से भी ज्यादा और थोड़ी घमंडी भी थी। बहुत जल्दी मैके चली गई तो एक दिन जमुना आई और तन्ना से ऐसी-ऐसी बातें करने लगी जैसी उसने कभी नहीं की थीं तो तन्ना ने उसके पाँव छू कर उसे समझाया कि जमुना, तुम कैसी बातें करती हो? तो जमुना कुछ देर रोती रही और फिर फुफकारती हुई चली गई।
उन्हीं दिनों मुहल्ले में एक अजब की घटना हुई। जिस साबुनवाली लड़की का नाम महेसर दलाल के साथ लिया जाता था वह एक दिन मरी हुई पाई गई। उसकी लाश भी गायब कर दी गई और महेसर दलाल पुलिस के डर के मारे जा कर समधियाने में रहने लगे।
तन्ना की जिंदगी अजब-सी थी। पत्नी ज्यादा पढ़ी थी, ज्यादा धनी घर की थी, ज्यादा रूपवती थी, हमेशा ताने दिया करती थी, मँझली बहन घिसल-घिसल कर गालियाँ देती रहती थी, 'राम करे दोनों पाँव में कीड़े पड़ें!' अफसर ने उनको निकम्मा करार दिया था और उन्हें ऐसी ड्यूटी दे दी थी कि हफ्ते में चार दिन और चार रातें रेल के सफर में बीतती थीं और बाकी दिन हेडक्वार्टर में डाँट खाते-खाते। उनकी फाइल में बहुत शिकायतें लिख गई थीं। उन्हीं दिनों उनके यहाँ यूनियन बनी और वे ईमानदार होने के नाते उससे अलग रहे, नतीजा यह हुआ कि अफसर भी नाराज और साथी भी।
इसी बीच में जमुना का ब्याह हो गया, महेसर दलाल गुजर गए, पहला बच्चा होने में पत्नी मरते-मरते बची और बचने के बाद वह तन्ना से गंदी छिपकली से भी ज्यादा नफरत करने लगी। छोटी बहन ब्याह के काबिल हो गई और तन्ना सिर्फ इतना कर पाए कि सूख कर काँटा हो गए, कनपटियों के बाल सफेद हो गए, झुक कर चलने लगे, दिल का दौरा पड़ने लगा, आँख से पानी आने लगा और मेदा इतना कमजोर हो गया कि एक कौर भी हजम नहीं होता था।
डाक ले जाते हुए एक बार रेल में नीमसार जाती हुई तीर्थयात्रिणी जमुना मिली। साथ में रामधन था। जमुना बड़ी ममता से पास आ कर बैठ गई, उसके बच्चे ने मामा को प्रणाम किया। जमुना ने दोनों को खाना दिया। कौर तोड़ते हुए तन्ना की आँख में आँसू आ गए। जमुना ने कहा भी कि कोठी है, ताँगा है, खुली आबोहवा है, आ कर कुछ दिन रहो, तंदुरुस्ती सँभल जाएगी, पर बेचारे तन्ना! नैतिकता और ईमानदारी बड़ी चीज होती है।
लेकिन उस सफर से जो तन्ना लौटे तो फिर पड़ ही गए। महीनों बुखार आया। रोग के बारे में डॉक्टरों की मुख्तलिफ राय थी। कोई हड्डी का बुखार बताता था, तो कोई खून की कमी, तो कोई टी.बी. भी बता रहा था। घर का यह हाल कि एक पैसा पास नहीं, पत्नी का सारा जेवर ले कर सास अपने घर चली गई, छोटी बहन रोया करे, मँझली घिसल-घिसल कर कहे, 'अभी क्या, अभी तो कीड़े पड़ेंगे!' सिर्फ यूनियन के कुछ लोग आ कर अच्छी-भली सलाहें दे जाते थे - साफ हवा में रखो, फलों का रस दो, बिस्तर रोज बदल देना चाहिए और बेचारे करते ही क्या!
होते-होते जब नौबत यहाँ तक पहुँची कि उन्हें दफ्तर से खारिज कर दिया गया, घर में फाके होने लगे तो उनकी सास आ कर अपनी लड़की को लिवा ले गई और बोली, जब कमर में बूता नहीं था तो भाँवरें क्यों फिरायी थीं और फिर यूनियन-फूनियन के गुंडे आवारे आ कर घर में हुड़दंगा मचाते रहते हैं। तन्ना की बहनें उनके सामने चाहे निकलें चाहे नाचें-गाएँ, उनकी लड़की यह पेशा नहीं कर सकती।
इधर यूनियन उनकी नौकरी के लिए लड़ रही थी और जब वे बहाल हो गए तो लोगों ने सलाह दी, दो हफ्ते के लिए चले जाएँ, बाकी लोग उनका काम करा दिया करेंगे और उसके बाद फिर छुट्टी ले लेंगे।
उनका तन हड्डी का ढाँचा-भर रह गया था। चलते हुए आप नजदीक से पसलियों की खड़बड़ाहट तक सुन सकते थे। किसी तरह हिम्मत बाँध कर गए। अफसर लोग चिढ़े हुए थे। मेल ट्रेन पर रात की ड्यूटी लगा दी और वह भी ऐन होली के दिन। रंग में भीगते हुए भी थर-थर काँपते हुए स्टेशन गए। सारा बदन जल रहा था। काम तो साथियों ने मिल कर कर दिया, वे चुपचाप पड़े रहे। डिब्बे में अंदर सीलन थी। बदन टूट रहा था, नसें ढीली पड़ गई थीं। सुबह हुई। टूंडला आया। थोड़ी-थोड़ी धूप निकल आई थी। वे जा कर दरवाजे के पास खड़े हो गए। गाड़ी चल दी। पाँव थर-थर काँप रहे थे, सहसा इंजन के पानी की टंकी की झूलती हुई बाल्टी इनकी कनपटी में लगी और फिर इन्हें होश नहीं रहा।
आँख खुली तो टूंडला के रेलवे अस्पताल में थे। दोनों पाँव नहीं थे। आस-पास कोई नहीं था, बेहद दर्द था। खून इतना निकल चुका था कि आँख से कुछ ठीक दिखाई नहीं पड़ता था। सोचा, किसी को बुलावें तो मुँह से जमुना का नाम निकला, फिर अपने बच्चे का, फिर बापू (महेसर) का और फिर चुप हो गए।
लोगों ने बहुत पूछा, 'किसे तार दे दें, क्या किया जाए?' पर वे कुछ नहीं बोले। सिर्फ मरने के पहले उन्होंने अपनी दोनों कटी टाँगें देखने की इच्छा प्रकट की और वे लाई गईं तो ठीक से देख नहीं सकते थे, अत: बार-बार उन्हें छूते थे, दबाते थे, उठाने की कोशिश करते थे, और हाथ खींच लेते थे और थर-थर काँपने लगते थे।
पता नहीं मुझे कैसा लगा कि मैं निष्कर्ष सुनने की प्रतीक्षा किए बिना चुपचाप उठ कर चला आया।
अनध्याय
बेहद उमस! मन की गहरी से गहरी पर्त में एक अजब-सी बेचैनी। नींद आ भी रही है और नहीं भी आ रही। नीम की डालियाँ खामोश हैं। बिजली के प्रकाश में उनकी छायाएँ मकानों, खपरैलों, बारजों और गलियों में सहमी खड़ी हैं।
मेरे अर्धसुप्त मन में असंबद्ध स्वप्न-विचारों का सिलसिला।
स्वर्ग का फाटक। रूप, रेखा, रंग, आकार कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। अतियथार्थवादी कविताएँ जिनका अर्थ कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। फाटक पर रामधन बाहर बैठा है। अंदर जमुना श्वेतवसना, शांत, गंभीर। उसकी विश्रृंखल वासना, उसका वैधव्य, पुरइन के पत्तों पर पड़ी ओस की तरह बिखर चुका है, वह वैसी ही है जैसी तन्ना को प्रथम बार मिली थी।
फाटक पर घोड़े की नालें जड़ी हैं। एक, दो, असंख्य! दूर धुँधले क्षितिज से एक पतला धुएँ की रेखा-सा रास्ता चला आ रहा है। उस पर कोई दो चीजें रेंग रही हैं। रास्ता रह-रह कर काँप उठता है, जैसे तार का पुल।
बादलों में एक टार्च जल उठती है। राह पर तन्ना चले आ रहे हैं। आगे-आगे तन्ना, कटे पाँवों से घिसलते हुए, पीछे-पीछे उनकी दो कटी टाँगें लड़खड़ाती चली आ रही है। टाँगों पर आर.एम.एस. के रजिस्टर लदे हैं।
फाटक पर पाँव रुक जाते हैं। फाटक खुल जाते हैं। तन्ना फाइल उठा कर अंदर चले जाते हैं। दोनों पाँव बाहर छूट जाते हैं। बिस्तुइया की कटी हुई पूँछ की तरह छटपटाते हैं।
कोई बच्चा रो रहा है। वह तन्ना का बच्चा है। दबे हुए स्वर : यूनियन, एस.एम.आर., एम.आर.एस., आर.एम.एस., यूनियन। दोनों कटे पाँव वापस चल पड़ते हैं, धुएँ का रास्ता तार के पुल की तरह काँपता है।
दूर किसी स्टेशन से कोई डाकगाड़ी छूटती है।...
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