स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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kunal
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Re: स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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मैं मकान के नीचे के तल्लेम के दो छोटे-छोटे कमरों में रहा करता था। इन कमरों को देखकर कोई भी उन्हेंथ राजमहल नहीं कह सकता था, स्वोर्ण-मंडित होने की बात तो दूर रही। किन्तुर पूनिन के इस कथन का अभिप्राय मेरी दादी के संपूर्ण मकान से था, यद्यपि वह भी कुछ विशेष सजा-धजा नहीं था। मैं पिछले दिन उन लोगों के घर मिलने नहीं गया, इसलिए पूनिन ने मुझे उलाहना दिया, ''बैबूरिन तुम्हाीरी प्रतीक्षा कर रहा था, यद्यपि उसने कह दिया था कि तुम निश्चइय ही नहीं आओगे और मानसी भी तुम्हाैरी इंतजार में थी।''
''क्या कहा, मानसी भी ?'' मैंने पूछा।
''हां, वह भी। हमारे साथ जो वह लड़की है, वह बड़ी मनोहारणी है। है न ? तुम क्याक समझते हो ?''
''सचमुच मनोहारिणी है।'' मैंने अपनी स्वीूक़ृति दी।
पूनिन अपने नंगे सिर को खूब जोर-जोर से रगड़ने लगा। ''जनाब, वह सौन्द?र्य की मूर्ति हैं, मोती है, या यों कहिये कि हीरा है। यह सब जो मैं आपसे कह रहा हूं, वह बिल्कु़ल सच है।'' वह झुककर कान के पास आ गया और धीमें स्वार में कहने लगा, ''वंश भी अच्छाव है, सिर्फ तुम इतना समझ रखो कि उसका जन्म जायज माता-पिता से नहीं हुआ था। उसके मां-बाप मर गये, उसके संबंधियों ने उसकी कोई खबर नहीं ली और उसे बिल्कु ल भाग्य भरोसे छोड़ दिया, अर्थात् हताश होकर उसे भूखों मरने दिया। किन्तुी इसी समय बैबूरिन, जो बहुत दिनों से दुखियों का त्राता समझा जाता है, आगे बढ़ा। वह उस लड़की को अपने यहां ले आया, उसे अन्न वस्त्र देकर यत्नपूर्वक पाला-पोसा और बड़ा किया और अब वह बढ़कर हम लोगों की प्रिय पात्र बन गई है। मैं तुमसे कहता हूं, बैबूरिन में अपूर्व गुण हैं।''
पूनिन आराम कुर्सी पर लेट गया, उसने अपने हाथों को ऊपर उठाया और फिर आगे झुककर मेरे कानों में धीरे-धीरे, किन्तुन पहले से भी अधिक रहस्य पूर्ण भाव में कहना शुरू किया, ''तुम भी तो बैबूरिन को देखते हो। क्याा तुम नहीं जानते हो ? वह भी उच्चअ वंश का है...किन्तुा उसका जन्म भी जायज माता-पिता से नहीं हुआ था। कहते हैं, उसका पिता राजा डेविड के कुल का एक शक्तिशाली जार्जवंशीय नरेश था... इससे तुम क्या समझते हो? चन्दह शब्दों में ही कितनी बातें कह दी गई है? राजा डेविड के कुल का रक्तक! इस संबंध में तुम्हाहरा क्यान ख्याबल है? दूसरी दूतवृत्ति के अनुसार बैबूरिन के वंश का प्रतिष्ठारपक एक हिन्दुकस्ताेनी बादशाह बाबर था। महान उच्चद वंश का रक्तै! क्यात कहना है ।''
''अच्छा !'' मैंने पूछा, '' यह तो बताओ कि क्याा बैबूरिन भी भाग्यत के भरोसे छोड़ दिया गया था?''
पूनिन ने फिर अपनी खोपड़ी खुजलाई, ''हां, वह भी छोड़ दिया गया था और सो भी हमारी उस छोटी लड़की की अपेक्षा अधिक क्रूरता के साथ। अपने जीवन की बाल्याभवस्था से ही उसे कठिनाइयों के साथ संग्राम करना पड़ा है और वस्तु त: मैं यह स्वीीकार करूंगा कि रूबन की कविता से अनुप्राणित होकर मैंने बैबूरिन का चित्र चित्रित करने के लिए जिस पद की रचना की थी, उसमें इस बात का जिक्र कर दिया था। ठहरो जरा... वह पद कैसा था ? हां सुनो-
दुख: और दुर्भाग्यह निरन्त र करते रहते थे आघात।
कष्टोंक की अथाह खाई में देखा उसने जीवन-प्रात
किन्तुक चीरकर अन्धाकार को रवि का ज्यों प्रकाश गंभीर
विजयमाल को लिये भाल में आया वह बैबूरिन वीर।
पूनिन ने इन पंक्तियों को स्‍वर-ताल-युक्तश संगीत-स्व र में जैसा कि कविता-पाठ होना चाहिए, पढ़कर सुनाया।
''सो इससे ही मालूम होता है कि वह किस प्रकार एक प्रजातंत्रवादी है!'' मैं बोल उठा।
''नहीं, यह कारण नहीं है,'' पूनिन ने उत्तदर दिया, ''बहुत दिन हुए उसने अपने पिता को क्षमा कर दिया, किन्तुू वह किसी भी तरह का अन्यानय सहन नहीं कर सकता। दूसरे के दु:खों को देखकर वह विचलित हुए बिना नहीं रह सकता।''
कल मानसी से मैंने जो बात सुनी थी, अर्थात् बैबूरिन के विवाह-विषयक प्रस्ताेव के संबंध में, उसी का जिक्र इस बातचीत में मैं लाना चाहता था, पर मैं समझ नहीं पाता था कि इस प्रसंग को किस तरह छेड़ा जाय। आखिर पूनिन ने खुद ही मुझे इस कठिनाई से निकाल दिया।
''कल जबकि तुम हम लोगों के साथ थे, क्याम तुम्हेंत कोई खास बात नहीं दीख पड़ी ? वह अपनी आखों को चालाकी के साथ मटकाते हुए मुझसे एकाएक पूछ बैठा।
''क्योंस, क्याप ऐसी कोई खास बात देखने की थी ?'' मैंने उससे पूछा।
पूनिन ने अपने कंधे की तरफ देखा, मानो वह इस बात से आश्वईस्तद हो जाना चाहता हो कि कोई उसकी बात को सुन तो नहीं रहा है। ''हम लोगों की सुकुमारी सुंदरी मानसी बहुत शीघ्र बधू बनने जा रही है।''
''सो कैसे?''
''श्रीमती बैबूरिन।'' पूनिन ने कोशिश करके इन शब्दों का उच्चाेरण किया और फिर अपने खुले हुए हाथों से घुटनों पर बार-बार थपकी देतु हुए एक चीनी अफसर की तरह अपने सिर को हिलाया।
''असंभव।'' कृत्रिम आश्च र्य प्रकट करते हुए मैंने जोर से कहा। पूनिन का सिर धीरे-धीरे स्थिर हो चला और उसके हाथ नीचे गिर आये। ''असंभव क्योंय ? क्यार यह मैं पूछ सकता हूं ?''
''क्योंीकि बैबूरिन उस नवयुवती का पिता होने योग्य है; क्यों कि दोनों की उम्र में जो फर्क है, उसके कारण बालिका की ओर से प्रेम की संभावना बिल्कु ल नहीं रह जाती।''
''बिल्कु ल नहीं रह जाती।'' पूनिन ने उत्तेतजित स्व र में इस वाक्यक को दुहराया, ''किन्तुल कृतज्ञता, विशुद्ध प्रेम, कोमल भावना, क्या' ये सब कुछ भी नहीं हैं ? प्रेम की संभावना बिल्कु ल नहीं रह जाती ? जरा इस बात पर भी तो गौर करो। माना कि मानसी एक बहुत ही अच्छीय लड़की है, किन्तुर बैबूरिन का स्ने हभाजन बनना, उसके सुख का साधन बनना, उसके जीवन का आधार बनना-सारांश यह कि उसकी अर्द्धागिनी बनना उसकी जैसी लड़की के लिए भी क्याध महत्तहम संभवनीय आनंद का विषय नहीं है ? और वह खुद इस बात को अच्छीज तरह समझती है। तुम स्वययं ही ध्यासनपूर्वक उसकी तरफ दृष्टि डालकर देख लो न ! बैबूरिन की उपस्थिति में मानसी उसके प्रति कैसी श्रद्धालु, कंपायमान तथा आवेशपूर्ण हो जाती है।''
''यही तो खराबी है, पूनिन ! जैसा कि तुम कहते हो कि वह कंपायमान हो जाती है। अगर तुम किसी को प्यामर करते हो तो उसके सामने कांपते थोड़े ही हो।''
''किन्तु तुम्हाहरी इस बात से मैं सहमत नहीं हो सकता। मेरा ही दृष्टाहन्त लो न। मुझसे बढ़कर बैबूरिन को कोई प्याकर नहीं करता, किन्तु मैं उसकी उपस्थिति में कांपने लगता हूं।''
''वाह, अच्छीा कही ! तुम्हाीरी बात दूसरी है।''
''दूसरी कैसे ?''
''कैसे ? किस तरह ?'' पूनिन बीच में ही बोल उठा। मैं उस समय उसके भाव को ताड़ नहीं सका। वह गरम हो उठा था, यहां तक कि क्रुद्ध भी हो चला था और उसकी बोली में भी पहले जैसी संगीत-ध्वहनि नहीं रह गई थी।
''नहीं,'' उसने कहा, ''मैं देखता हूं कि तुममें मानव चरित्र परखने योग्या दृष्टि नहीं है। तुम लोगों के हृदय की बात भी नहीं जान सकते।''
मैंने उसके कथन का खंडन करना छोड़ दिया...और बातचीत के रूख को बदल देने के खयाल से यह प्रस्तासव किया कि पुराने समय की बात याद करके हम दोनों को साथ मिलकर कुछ पढ़ना चाहिए।
पूनिन कुछ क्षणों तक मौन रहा। आखिर उसने पूछा, ''प्राचीन कवियों में से ? यथार्थवादी कवियों में से ?''
''नहीं, एक नये कवि की।''
''नये कवि की ?'' पूनिन ने अविश्वाकस सूचक भाव में दुहराया।
''पुश्कििन,'' मैंने जवाब दिया। मुझे अचानक 'जिप्सीय' की याद आ गई, जिसके बारे में कुछ ही दिन पहले टारहोव ने मुझसे कहा था। उसमें एक गीत बूढ़े पति के संबंध में है। पूनिन कुछ कुड़कुड़ाया, लेकिन मैंने उसे सोफा पर बिठला दिया, जिससे वह आराम के साथ ध्यासनपूर्वक सुन सके। फिर इसके बाद मैंने पुश्किनन की कविता पढ़नी शुरू की। आखिर उसमें वह पद भी आ गया-
बाबा कहलाये जाने पर मिटी न जिन के मन की चाह।
बासी कढ़ी उबल आई है, देखो इस बूढ़े का ब्यासह।
पूनिन ने उस गीत को अन्ती तक सुना और फिर एकाएक आवेश में आकर खड़ा हो गया।
''मैं यह नहीं सुन सकता''-उसने इतने गंभीर आवेश में आकर कहा कि उसके इस कथन का मुझ पर भी प्रभाव पड़े बिना न रहा। ''माफ करो, मैं उस कवि की कविता अब अधिक नहीं सुन सकता। वह एक नीतिभ्रष्टै निंदक है। वह एक मिथ्या।वादी है।...उससे मैं घबरा उठता हूं। मैं यह नहीं सुन सकता। अच्छाक, बस मुझे जाने दो।''
पूनिन कुछ देर और ठहरे, इसके लिए मैं उसे समझाने-बुझाने की कोशिश करने लगा, किन्तुी उसने अपनी जिद पर डटे रहने का आग्रह दिखलाया। उसने बार-बार इस बात को दुहराया-''मुझे घबराहट मालूम हो रही है और मैं ताजी हवा में जाकर सांस लेना चाहता हूं।'' उसके होंठ बराबर धीमे-धीमे कांप रहे थे और वह अपनी आंखों को मुझसे चुरा रहा था, मानो मैंने उसके दिल पर चोट पहुंचाई हो। आखिर वह चला गया। कुछ समय के बाद मैं भी घर से बाहर निकलकर टारहोव से मुलाकात करने के लिए चल पड़ा।
बिना किसी प्रकार के शिष्टाेचार के, बिना किसी से कुछ पूछे, जैसी कि विद्यार्थियों की आदत हुआ करती है, मैं सीधे उसके घर में दाखिल हो गया। पहले कमरे में कोई भी आदमी न था। मैंने टारहोव का नाम लेकर पुकारा और उसका कोई उत्त र न पाकर वापस लौटना ही चाहता था कि इतने में पास के एक कमरे का दरवाजा खुला और टारहोव उपस्थित हुआ। उसने अजीब ढंग से मेरी ओर देखा और बिना कुछ बोले ही मुझसे हाथ मिलाया। पूनिन से मैंने जो कुछ सुना था, वह सब उसे बतलाने के लिए आया था। यद्यपि मुझे तुरंत यह मालूम हो गया कि टारहोव से मिलने का मैंने ठीक मौका नहीं चुना था, तथापि थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद आखिर मैंने उसे मानसी के संबंध में बैबूरिन की आकांक्षाएं बतला दीं। इस खबर को सुनकर प्रत्यकक्ष रूप में वह अधिक विस्मित नहीं जान पड़ा। वह चुपचाप मेज के पास बैठ गया और अपनी आंखों को मेरी तरफ गड़ाये हुए और पहले के समान ही मौन भाव में उसने ऐसे भाव जाहिर किये, मानो वह कहना चाहता हो, ''अच्छाल, और तुम्हेंे क्याय कहना है ? जो तुम्हा रे ख्याील हों, उन्हेंस कह डालो।''
मैं गौर के साथ उसके चेहरे की तरफ देखने लगा। उसमें मुझे उत्कं‍ठा, कुछ व्यं ग तथा किंचित अहंकार का भाव दीख पड़ा, किन्तुे इससे मुझे अपने विचारों को प्रकट करने में कोई रुकावट नहीं हुई। इसके विपरीत उसके संबंध में मेरे मन में यही खयाल पैदा हुआ, ''तुम अपनी शान दिखला रहे हो, इसलिए मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं।'' मैंने उसे उपयुक्ता उपदेश देना शुरू किया, ''देखो, आवेशजनित भावनाओं के सामने झुकने में बड़ी बुराई है। प्रत्येैक आदमी का यह कर्तव्यश है कि वह दूसरे आदमी की स्वोतंत्रता तथा व्यनक्तिगत जीवन के प्रति आदर-भाव रखे। इत्याकदि।'' इस प्रकार कहते हुए मैं बेतकुल्लवफी के खयाल से कमरे में इधर-उधर घूमने लगा।
टारहोव ने न तो मुझे बीच में टोका, और न वह अपनी जगह से टस-से-मस हुआ। वह सिर्फ अपनी ठुड्डी पर अंगुलियों को दौड़ा रहा था।
''मैं जानता हूं,'' मैंने कहा...(मेरे इस कथन का ठीक उद्देश्य क्या था, इसकी मुझे भी कोई स्पआष्टभ जानकारी न थी- बहुत संभव है कि वह ईर्ष्याह हो। किन्तु इतना तो जरूर था कि वह नीतिनिष्ठाु नहीं थी।) ''मैं जानता हूं''-मैंने कहा, ''कि यह आसान नहीं है। यह हंसी की बात नहीं है। मुझे निश्चवय है कि तुम मानसी को प्याार करते हो। और मानसी तुम्हेंह प्याहर करती है। यह तुम्हा।रे लिए यों ही कोई क्षणिक उमंग नहीं है, किन्तुं देखो, यदि हम यह मान लें। (यहां मैंने अपने हाथों को मोड़कर छाती पर रखा)...हम यह मान लें कि तुम वासना को तृप्तर भी कर लो तो इससे क्याई होगा ? तुम उसके साथ शादी नहीं करोगे, यह तुम खुद भी जानते हो, किन्तुभ अपनी इस कार्यवाही से तुम एक अत्युंत्त म, ईमानदार और उसके उपकारी व्य क्ति के सुख का सर्वनाश कर रहे हो...और कौन जानता है...(यहां मेरे चेहरे से एक साथ ही सुतीक्षणता एवं चिन्तार का भाव व्यवक्तो होने लगा)...कि शायद मानसी के निजी सुख का भी...''
इसी प्रकार मैं कहता चला गया।
प्राय: पंद्रह मिनट तक मेरे इस कथन का प्रवाह जारी रहा। टारहोव अब भी मौन था। मैं उसके मौन पर घबराने लगा। मैं समय-समय पर उसकी ओर देख लिया करता था, किन्तुन इसका अभिप्राय नहीं था कि मुझे इस बात का संतोष हो जाय कि मेरे शब्दों का उस पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि यह जानने का था कि उसने क्यों मेरे कथन पर न तो कुछ उज्र ही किया और न अपनी सहमति प्रकट की, बल्कि एक गूंगे और बहरे व्यनक्ति की तरह चुपचाप बैठा रहा। आखिर मुझे यह अनुमान हुआ कि उसके चेहरे पर परिवर्तन का लक्षण दृष्टिगोचर हो रहा है। उससे बेचैनी और दु:खद विक्षोभ के चिन्ह परिलक्षित होने लगे, फिर भी आश्चहर्य की बात तो यह भी कि...वह उत्कऔण्ठाद, वह प्रकाश, वह हंसती हुई-सी कोई वस्तु‍, जो, मुझे प्रथम बार टारहोव की ओर दृष्टिपात करने पर दीख पड़ी थी, इस समय भी उसके विक्षुब्ध् एवं विषण्णं मुखमंडल पर विद्यमान थी।
मैं यह निश्चनय नहीं कर सका कि अपने उपदेश की सफलता पर अपने को बधाई दूं, या नहीं, जबकि टारहोव एकाएक उठ खड़ा हुआ और मेरे दोनों हाथों को दबाकर जल्दीर-जल्दी बोलते हुए मुझसे कहा, ''धन्य वाद,, तुम्हेंं धन्यदवाद ! तुम्हातरा कहना बिल्कु,ल ठीक है,... यद्य पि दूसरे पक्ष में यह भी प्रश्न हो सकता है कि...आखिर बैबूरिन, जिसके विषय में तुम इतनी डींग मारते हो, है क्याे चीज? वह एक ईमानदार मूर्ख के सिवा और कुछ भी नहीं है। तुम उसे प्रजातंत्रवादी कहते हो, किन्तु है वह महज मूर्ख। बस, वह जो कुछ है, यही। उसके सारे प्रजातंत्रवाद का अर्थ यही है कि उसकी कभी कहीं गुजर नहीं हो सकती !''
''आह! यही तुम्हा्रा ख्याकल है! एक मूर्ख की कभी गुजर नहीं हो सकती ? किन्तुह मैं तुमसे कहूंगा''-मैंने कुछ गरम होकर कहना शुरू किया, मेरे प्याकरे ब्लाहडीमीर निकोलेच, मैं तुमसे यह कहूंगा कि इस जमाने में कहीं भी गुजर न होना एक उत्त म और उदार प्रकृति का लक्षण समझा जाता है। जो लोग बेकार होते हैं, जो बुरे होते हैं, वही जहां-तहां अपनी गुजर कर लेते हैं और अपने को प्रत्येबक परिस्थिति के अनुकूल बना लेते है। तुम कहते हो कि बैबूरिन एक ईमानदार मूर्ख है। क्यों , तब क्या् तुम्हाेरी समझ से बेईमान और चालाक होना उससे अच्छाो है ?''
''तुम तो मेरे शब्दोंई को तोड़-मरोड़कर दूसरी ही अर्थ निकालते हो !'' टारहोव जोर से बोला, ''मैं सिर्फ यह कहना चाहता था‍ कि मैं उस आदमी को किस रूप में समझता हूं। क्यात तुम मानते हो कि वह एक अनुपम व्यकक्ति है ? कदापि नहीं। मुझे उसके जैसे आदमी अपने जीवन में बहुत से मिले हैं । वह अपने चेहरे को जरा गंभीर, मौन, हठी और वक्र बनाकर बैठा रहता है...अहा-हा-हा! बस, तुम कहोगे कि उसके अंदर बहुत कुछ है, किंतु दरअसल उसमें कुछ भी नहीं है, उसके दिमाग में एक भी विचार नहीं है। जो कुछ है, वह सिर्फ आत्मस-प्रतिष्ठाु का ख्या ल है।''
''अगर आत्मठ-प्रतिष्ठा के अलावा और कुछ न भी हो तो भी वह एक सम्मान जनक वस्तुे है।'' मैं बोल उठा, ''किन्तुख यह तो बतलाओ कि तुम्हें उसके चरित्र का इस प्रकार अध्य्यन करने का अवसर कहां मिला? तुम तो उसे जानते भी नहीं। क्योंय ? या मानसी ने तुमसे उसके बारे में जो कुछ कहा है, उसके आधार पर तुम उसका वर्णन करते हो ?''
टारहोव ने अपने कंधे को हिलाया। ''मानसी और मैं ! हम दोनों में बातचीत करने के लिए और ही विषय हैं। मैं तुमसे यह कहता हूं'' इतना कहते समय उसका सम्पूतर्ण शरीर अधीरता के कारण कांप उठा, ''मैं तुमसे कहता हूं कि अगर बैबूरिन इतने भले और र्इमानदार स्व भाव का है तो वह क्योंशकर यह नहीं देख पाता कि मानसी उसके उपयुक्तब जोड़ी नहीं है ? इन दो बातों में एक बात हो सकती है या तो वह जानता है कि वह उसके साथ जो कुछ कर रहा है, वह कृतज्ञता के नाम पर एक प्रकार का अत्या चार है...और यदि ऐसा ही हो तो फिर उसकी ईमानदारी कहां रही ? या वह जो कुछ कर रहा है, उसे अच्छीा तरह समझ नहीं पाता इस हालत में उसे मूर्ख के सिवा और कह ही क्याह सकते हैं ?''
मैं जवाब देना ही चाहता था, किन्तुय टारहोव ने फिर मेरे हाथों को जोर से पकड़ लिया और तेजी से कहना शुरू किया, ''यद्यपि...अवश्यर...मैं यह स्वीसकार करता हूं कि तुम्हाशरा कहना ठीक है, सहस्रों बार ठीक है। ...तुम मेरे एक सच्चेक दोस्त. हो...किन्तुह अब मुझे कृपया अकेले छोड़ दो।''
मैं हैरत में पड़ गया। ''तुम्हेंा अकेला छोड़ दूं ?''
''हां, जरूर मुझे अकेला छोड़ दो। क्याक तुम देखते नहीं, अभी-अभी तुमने जो कुछ कहा है, उस पर अच्छीै तरह विचार करने दो... मुझे इसमें शक नहीं कि तुम्हा रा कहना दुरूस्ते है, किन्तुक अब मुझे अकेले रहने दो।''
''तुम इस समय उत्ते जित अवस्थाम में हो...'' मैंने कहना शुरू किया।
''उत्तेसजना ? मैं ?'' टारहोव हंस पड़ा, किन्तु फौरन ही उसने अपने को संभाल लिया, ''हां, जरूर मैं उत्तेैजित हूं। उत्ते‍जित मैं होता नहीं तो क्यों कर ? तुम खुद ही कहते हो कि यह कोई हंसी की बात नहीं है। हां, मुझे इस संबंध में अकेले ही विचार करना चाहिए।'' वह अब तक मेरे हाथों को दबा रहा था। ''अच्छाह, मेरे प्या रे दोस्ते, विदा।''
मैंने विदा होते समय उससे कहा, ''अच्छा , विदा !''
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Re: स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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वहां से चलते-चलते मैंने आखिर बार टारहोव की ओर देखा। वह प्रसन्नु मालूम पड़ता था। किन्तुि किस बात पर? या तो इस बात पर कि मैंने, एक सच्चे दोस्त‍ और साथी की हैसियत से, उसे उस मार्ग के खतरे से आगाह कर दिया था, जिस पर उसने पांव रखा था-या इस बात पर कि मैं वहां से विदा हो रहा था। तमाम दिन संध्यायकाल तक मेरे मस्तिष्का में नाना प्रकार के विचार चक्क र काटते रहे, जब तक कि मैंने पूनिन और बैबूरिन के मकान में प्रवेश नहीं किया। मैं उसी दिन उन लोगों से मिलने गया। मैं यह बात स्वीककार किये बिना नहीं रह सकता कि टारहोव के कुछ वाक्या मेरे अंतरतम में प्रविष्टा हो गये थे...और इस समय भी वे हमारे कानों में गूंज रहे थे।...क्या‍ सचमुच यह संभव था कि बैबूरिन...क्याव यह संभव था कि वह यह नहीं समझता हो कि मानसी उसके उपयुक्त। जोड़ी नहीं ?
पर क्याी यह संभव हो सकता था बैबूरिन-स्वाचर्थत्यािगी - बैबूरिन-ईमानदार मूर्ख हो !
पूनिन जब मुझसे मिलने आया था तो उसने कहा था, ''हमारे घर पर एक दिन पहले तुम्हा रे आने की प्रतीक्षा की जा रही थी।'' यह हो सकता है, किन्तुघ आज के दिन तो अवश्यै ही कोई मेरे आने की आशा नहीं रखता था। मैंने सबको घर पर ही मौजूद पाया और सभी को मेरे आने पर आश्चघर्य हुआ। बैबूरिन और पूनिन दोनों ही अस्वेस्थर थे। पूनिन के सिर में दर्द हो रहा था। वह एक पलंग पर अपने शरीर को सिकोड़े हुए लेटा था, उसके सिर में रूमाल बंधा हुआ था, और पेशानियों पर ककड़ी के टुकड़े रखे हुए थे। बैबूरिन पित्तो की बीमारी से पीडि़त था। वह बिल्कु ल पीला दिख पड़ता था। उसकी आंखों के चारो ओर गोलाकार रेखाएं पड़ गई थीं, भौंहें सिकुड़ी हुई थीं और दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे। वह एक दुल्हे के समान तो नही ही लगता था ! मैंने वहां से चलने की कोशिश की...किन्तु उन लोगों ने मुझे जाने नहीं दिया, और चाय पीने के लिए आग्रह किया।
संध्याीकाल वहां प्रसन्न‍तापूर्वक नहीं बीता। यद्यपि मानसी को कोई रोग नहीं था और वह पहले जितनी संकोचशील भी नहीं थी, पर साफ तौर से वह चिढ़ी हुई और क्रुद्ध-सी दीख पड़ती थी... आखिर वह अपने को रोक नहीं सकी और मेरे हाथ में चाय का प्याौला देते हुए, कान के पास सटकर जल्दी -जल्दीक कहने लगी, ''तुम जो चाहो सो कहो, तुम चाहे जितनी ही कोशिश करो, किन्तुन उससे कोई फर्क नहीं पड़ सकता !'' मैं ताज्जुहब में आकर उसकी तरफ देखने लगा और मौका पाकर मैंने चुपके से उसके कान में कहा, ''तुम्हाईरे कहने का क्याल मतलब है ?''
''बताऊंगी।'' उसने जवाब दिया। उसकी काली आंखे, उसकी तनी हुई भौंहों के नीचे से क्रुद्ध-भाव में चमकती हुई एक क्षण तक मेरे चेहरे पर गड़ी रहीं, फिर फौरन ही वहां से हट गईं, ''मेरे कहने का मतलब यह है कि आज तुमने वहां जो कुछ कहा था, वह सब मैंने सुन लिया और इन निरर्थक बातों के लिए तुम्हेंे धन्यकवाद देती हूं, क्योंछकि जैसा तुम चाहते हो, वैसा किसी भी तरह से हो नहीं सकता।''
''तुम वहां मौजूद थीं?'' मेरे मुह से अनजाने यह निकल पड़ा... किन्तु इसी समय बैबूरिन का ध्या न इधर आकृष्टू हुआ और उसने हम लोगों की ओर देखा। मानसी मेरे पास से खिसक गई।
दस मिनट के बाद वह किसी तरह फिर मेरे पास आ पहुंची। उसे देखने से मालूम पड़ता था कि वह कोई साहसिक एवं भयंकर बात मुझसे कहने के लिए उत्सु क हो, मानो वह अपने संरक्षक के सामने ही, उसकी सावधान दृष्टि के नीचे ही, सिर्फ उसे संदेह नहीं हो, इतना बचाकर, उन बातों को मुझसे कह देना चाहती हो। यह तो एक जानी हुई बात है कि किसी खतरनाक खाई-खंदक के ऊपर बिल्कुनल किनारे पर चलना स्त्रियों का एक प्रिय कौतुक है। ''हां, मैं वहां मौजूद थी।'' मानसी ने धीमे स्वतर में कहा। उस समय उसकी आक़ृति में कोई परिवर्तन नहीं दीख पड़ता था। सिर्फ उसके नथुने कुछ-कुछ कांप रहे थे। ''हां, अगर बैबूरिन मुझसे पूछ बैठे कि मैं तुम्हारे कानों में लग कर क्याे कह रही हूं तो उससे इसी वक्तह सारी बातें कह दूंगी। मुझे उसकी परवाह क्यों होने लगी ?''
''जरा सावधान,'' मैंने उससे प्रार्थना की। ''मेरा सचमुच ख्या।ल है कि वे लोग हमें देख रहे हैं।''
''मैं तुमसे कहती हूं, मैं उनकी सारी बातें सुनने के लिए बिल्कुखल तैयार हूं। फिर हमें देख ही कौन रहा है? उनमें एक तो गुड़ी-मुड़ी बीमार पड़ा है और कुछ भी नहीं सुनता, दूसरा अपने गंभीर दार्शनिक विचार में डुबा है। तुम डरो मत।'' मानसी की आवाज कुछ ऊंची हो उठी और उसके गालों पर क्रमश: एक प्रकार की फीकी लाली दौड़ गई। उसके चेहरे पर यह लाली खूब फबती थी और इतनी सुंदर वह पहले कभी मालूम नहीं हुई थी। मेज को साफ करते हुए और चाय के प्याीले तथा तश्तनरी को अपने-अपने स्थाथन पर रखते हुए, वह कमरे में तेजी के साथ इधर-उधर घूम-फिर रही थी। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था, मानो अपनी सहज स्वुतंत्र चाल-ढाल से वह किसी को चुनौती दे रही हो। उसे देखने से प्रतीत होता था, मानो वह कह रही हो, ''तुम चाहे जैसे मेरी आलोचना करो, किन्तुी मैं तो अपने ढंग पर ही चलती रहूंगी और मुझे तुम्हाररा कुछ डर भी नहीं है।"
मैं इस बात को छिपा नहीं सकता कि उस शाम मानसी मुझे बहुत ही आकर्षक जान पड़ी। ''हां,'' मैंने अपने मन में सोचा, ''यह एक छोटी चंडी है-यह एक नये ढंग की है...यह अनुपम है। दिल पर चोट किस तरह पहुंचाई जा सकती है, यह इन हाथों को मालूम है...किन्तुै इससे क्याद ? कोई हर्ज नहीं !''
''पैरेमन सेमोनिच,'' वह एकाएक चिल्लाम उठी, ''क्यात प्रजातंत्र एक ऐसा साम्राज्यह नहीं है, जिसमें प्रत्ये क व्यनक्ति अपनी इच्छा नुसार कार्य कर सकेत ?''
''प्रजातंत्र राज्य‍ साम्राज्य नहीं है।'' बैबूरिन ने अपने हाथों को ऊपर उठाकर, भौंहों को सिकोड़ते हुए, जवाब दिया, ''वह एक प्रकार की सामाजिक संस्थाै है, जिसमें प्रत्येकक बात कानून और न्याौय पर अवलम्बित रहती है।''
''तब,'' मानसी कहने लगी, ''प्रजातंत्र राज्यर में कोई व्यऊक्ति किसी दूसरे व्य‍क्ति पर अत्यालचार नहीं कर सकता ?''
''नहीं।''
''और प्रत्ये'क व्यहक्ति अपनी इच्छाानुसार कार्य करने को स्वऊतंत्र है ?''
''पूर्ण स्वेतंत्र ।''
''आह! यही तो मैं जानना चाहती थी।''
''तुम क्यों जानना चाहती हो ?''
''ओह, मैं चाहती थी-मैं तुमसे यही बात कहलाना चाहती थी।''
''हमारी यह नवयुवती नई बातें सीखने के लिए उत्सुहक है।''-पूनिन सोफे पर बोल उठा।
जब मैं रास्ते से होकर बाहर जाने लगा तो मानसी मेरे साथ हो ली। पर उसका ऐसा करना शिष्टाेचार की दृष्टि से नहीं, बल्कि उसी धूर्ततायुक्तन उद्देश्यल से था। उससे विदा ग्रहण करते हुए मैंने पूछा, '' क्या तुम सचमुच उसे इतना अधिक प्या्र कर सकती हो ?''
''उसे मैं प्या,र करती हूं या नहीं, यह मेरा काम है।'' उसने उत्तकर दिया, ''जो होना है, वह होकर ही रहेगा।''
''देखो, तुम जो कुछ करना चाहती हो, उससे सावधान हो जाओ। आग के साथ मत खेलो...वह तुम्हें' जला डालेगी।''
''सर्दी से ठिठुरकर मरने की अपेक्षा जलकर मरना कहीं अच्छाध है! तुम अपनी नेक सलाह अपने पास ही रखो। तुम यह कैसे कह सकते हो कि वह मेरे साथ शादी नहीं करेगा ? अथवा तुम यह कैसे जानते हो कि मैं विवाह करने की विशेष इच्छाह रखती हूं ? यदि मेरा सर्वनाश हो जाय...तो इससे तुम्हेंव क्याी ?''
मेरे बाहर होने पर उसने दरवाजा बन्द कर दिया। मुझे यह याद है, घर जाते हुए मैं कुछ प्रसन्नकता के साथ यह सोचने लगा कि मेरा मित्र टारहोव अपनी इस नवीन ढंग की प्रेयसी को पाकर बड़ी विपत्ति में पड़ेगा...उसे यह सुख बहुत मंहगा पड़ेगा। पर वह इसे पाकर सुखी होगा, यह बात मैं खेदपूर्वक अनुभव कर रहा था।
इस घटना को बीते तीन दिन हो चुके थे। मैं अपने कमरे में लिखने की मेज के पास बैठा था। उस समय मैं कोई विशेष काम नहीं कर रहा था, बल्कि जलपान के लिए तैयार हो रहा था। मुझे सनसनाहट की आवाज मालूम हुई। मैंने सिर उठा कर देखा और देखते ही मेरे होश उड़ गये। मैं जड़वत् बन गया। मेरी आंखों के सामने एक कठोर, भयानक, सफेद छाया-मूर्ति खड़ी दीख पड़ी। वह पूनिन की मूर्ति थी। वह अर्द्धनिमीलित नेत्रों से मेरी ओर देख रहा था, उसकी पलकें धीरे-धीरे झपकी ले रही थीं। उसकी आंखों से निश्चेहष्टी भय का भाव-वैसा ही भय, जैसा संत्रस्तस खरगोश में पाया जाता है-व्यंक्त हो रहा था। उसकी भुजाएं उसके दोनों बगलों में छड़ी जैसी लटक रही थीं।
''पूनिन‍, तुम्हेंी क्याम हुआ है? तुम यहां कैसे आये? क्या तुम्हेंद किसी ने देखा नहीं? बात क्याक है? बोलो न !''
''वह भाग गई।'' पूनिन ने रूद्ध कंठ से बहुत ही धीमी आवाज में उत्तंर दिया, जो मुश्किल से सुनाई पड़ती थी।
''यह तुम क्यार कहते हो ?''
''वह भाग गई।''- उसने फिर दुहराया।
''कौन ?''
''मानसी। वह रात में ही निकल गई और एक परचा छोड़ गई है।''
''परचा ?''
''हां, उसने लिखा है-'मैं तुम्हेंु धन्य वाद देती हूं। मैं फिर वापस नहीं लौटूंगी। मेरी तलाश में न रहना।' हमने ऊपर-नीचे सब जगह छान डाली। रसोइये से पूछ-ताछ की, किन्तुे उसे भी कुछ पता नहीं। जोर से नहीं बोल सकता। मुझे माफ करना। मेरा गला बैठ गया है।''
''मानसी तुम्हेंन छोड़कर चली गई!'' मैंने विस्मित होकर कहा, ''बड़ी मूर्ख निकली! मि. बैबूरिन तो अवश्यक ही अत्यंात निराश हुए होंगे। वह अब क्याु करना चाहते हैं ?''
''कुछ भी करना नहीं चाहते। मैं गवर्नर जनरल के पास जाना चाहता था, पर उन्हों'ने मना कर दिया। मैं पुलिस को इसकी सूचना देना चाहता था। उन्होंरने उसके लिए भी मना कर दिया और बहुत नाराज हुए। वह कहते हैं, ''मानसी स्वातंत्र है। मैं उसके किसी काम में बाधा नहीं देना चाहता।'' वह इस हालत में भी अपने ऑफिस में काम करने गये हैं। परंतु देखने में वह जिन्दास जैसे नहीं, बल्कि मुर्दा मालूम पड़ते हैं। वह मानसी को बहुत ज्याकदा प्या।र करते थे...हां ! हम दोनों उसे कितना प्याार करते थे!''
इसी वक्ता पूनिन को देखकर मुझे पहले-पहल यह मालूम हुआ कि वह लकड़ी की बनी हुई एक जड़ मूर्ति नहीं, बल्कि एक सजीव प्राणी है। उसने अपनी दोनों मुट्ठियों को ऊपर उठा कर अपनी खोपड़ी पर रखा, जो हाथीदांत की तरह चमक रही थी।
''कृतघ्नह बालिका !'' उसने आह-भरी आवाज में चिल्लार कर कहा, ''किसने तुम्हेंथ खिलाया-पिलाया-उढ़ाया-पहनाया और पाल-पोसकर बड़ा किया? किसने तुम्हा्रे लिए चिन्ता' की और अपना सारा तन-मन प्राण तुम पर न्योहछावर कर दिया... और तुमने इन सारी बातों को भुला दिया! यदि तुम मुझे छोड़ देतीं तो सचमुच वह कोई बड़ी बात न होती, पर पैरेमन सेमोनिच को ... पैरेमन...''
मैंने पूनिन से बैठ जाने और आराम करने की प्रार्थना की।
पूनिन ने अपना सिर हिलाया, ''नहीं, मैं नहीं बैठूंगा। मैं तुम्हालरे पास आया हूं...मैं नहीं जानता, किसलिए। मैं विक्षिप्त -सा हो रहा हूं। घर पर अकेले बैठे रहना भयानक जान पड़ता है। मैं अपने को क्याै करूंगा ? मैं कमरे के बीच खड़ा होकर अपनी आंखों को मूंद लेता हूं और ''मानसी !'' नाम लेकर पुकारता हूं। पागल होने का यही तरीका है। मगर नहीं, मैं व्यंर्थ की बातें क्योंा बक रहा हूं ? मुझे मालूम है कि मैं तुम्हालरे पास किसलिए आया हूं। तुमको याद होगा कि उस दिन तुमने मुझे वह महा निकृ‍ष्ट् कविता पढ़कर सुनाई थी...तुम्हेंक यह भी स्मदरण होगा कि उसमें एक वृद्ध पति का जिक्र आया है। तुमने ऐसा क्योंो किया था ? क्या् तुम्हेंल उस समय कुछ मालूम हुआ था...या तुमने कुछ अनुमान किया था ?'' पूनिन ने मेरी ओर दृष्टिपात किया, ''पिओटर पिट्रोविच।'' वह एकाएक चिल्ला उठा और उसका सारा शरीर कांपने लगा, ''तुम शायद जानते हो कि वह कहां है ? मेरे सहृदय मित्र, मुझे बताओ, वह किसके पास गई है ?''
मैं घबरा गया और मेरी आंखें नीचे की ओर झुक गईं।
''शायद अपनी चिट्ठी में उसने कुछ लिखा हो।'' मैंने कहना शुरू किया।
''उसने लिखा है कि मैं आप लोगों को छोड़कर जा रही हूं, क्योंरकि मै किसी और ही व्येक्ति से प्रेम करती हूं। मेरे प्यािरे नेक दोस्तो, तुम यह जरूर जानते हो कि वह कहां है ? उसे बचाओ, हम लोगों को वहां ले चलो। हम उसे वापस लौट आने के लिए कहेंगे। जरा सोचो तो कि वह कैसे व्यूक्ति का सर्वनाश कर रही है।''
पूनिन का चेहरा एकदम लाल हो उठा। ऐसा मालूम पड़ता था, मानो उसके सिर में खून दौड़ गया हो। वह धम-से घुटनों के बल गिर पड़ा। ''मित्र हमें बचाओ। हमें वहां ले चलो।''
मेरा नौकर दरवाजे पर आया और चकित होकर चुपचाप खड़ा-खड़ा यह सब दृश्यं देखता रहा।
मैंने बड़ी मुश्किल से पूनिन को उठाकर खड़ा किया और उसे यह विश्वा स दिलाया कि अगर इस संबंध में मुझे किसी के प्रति कुछ संदेह भी हो तो फौरन उसी दम और खासकर दोनों साथ मिलकर कुछ नहीं कर सकते, क्योंिकि इससे हमारे सारे प्रयत्न निष्फंल हो जायेंगे। मैंने उसे यह भी विश्वा स दिलाया कि इस मामले में भरसक प्रयत्नक करने के लिए मैं तैयार हूं, मगर किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं होऊंगा। पूनिन ने मेरा विरोध नहीं किया और असल में मेरी बातों को उसने सुना भी नहीं। वह सिर्फ समय-समय पर कातर स्वऊर में दुहराता रहा, ''उसे बचाओ, उसे और बैबूरिन को बचाओ।'' आखिर वह रो पड़ा। ''कम-से-कम एक बात तो बताओ।'' उसने पूछा, ''क्या वह सुंदर है ? नवयुवक है ?''
''हां, वह नवयुवक है।'' मैंने उत्तचर दिया।
''वह नवयुवक है।'' पूनिन ने इस वाक्यै को अपने गालों के आंसू पोंछते हुए दुहराया, ''और यह युवती नई...बस, इसी से यह व्याकधि खड़ी भई !''
उसके मुंह से यह छन्द।-बद्ध वाक्यक संयोग से निकल पड़ा, क्योंएकि बेचारे पूनिन की प्रवृत्ति उस समय छन्द -रचना की ओर थोड़े ही थी। मैं एक बार फिर उसके असंबद्ध वाक्यय-प्रवाह अथवा उसके मूक हास्यि को ही सुनने के लिए बुहत कुछ न्योीछावर कर देता किन्तुम हाय! उसकी वह वक्तृहत्वह शक्ति सदा के लिए विलीन हो गयी और फिर मुझे उसका हास्यन कभी सुनाई नहीं दिया।
मैंने उसे विदा किया कि ज्‍यों‍ ही मुझे कोई बात निश्चित रूप में मालूम होगी, मैं उसे सूचित कर दूंगा। टारहोव के नाम का मैंने कोई जिक्र नहीं किया। पूनिन एकाएक बिल्कुल निस्तिब्धम हो गया। ''बहुत अच्छाू, बहुत अच्छान, महाशय, आपको धन्यिवाद।''
उसने करूणोत्पाकदक मुख से कहा और 'महाशय' शब्द। का व्योवहार किया, जैसा उसने पहले कभी नहीं किया था, ''सिर्फ एक बात का ध्या,न रखना। पैरेमन सेमोनिच से कुछ भी नहीं कहना, नहीं तो वह नाराज हो जायेगा। सारांश यह कि उसने इस विषय की चर्चा की बिल्कुरल मनाही कर दी है। अच्छाी, महाशय, अब विदा होता हूं।''
ज्योंहही वह उठा और अपनी पीठ को मेरी ओर घुमाया, मुझे यह देखकर बड़ा आश्चार्य हुआ कि वह कितना दीन एवं दुर्बल हो गया है। वह दोनों पांवों से लंगड़ाकर चलता था और हरेक पग पर घूम जाता था।
''यह बुरा लक्षण है। इसका अर्थ यह है कि इसका अन्तड निकट है।'' मैंने सोचा।
यद्यपि मैंने पूनिन से वादा किया था कि मैं मानसी का पता लगाऊंगा और अगस्तक में उसी दिन टारहोव के यहां जाने के लिए चल पड़ा, तथापि मुझे किसी बात का पता चलने की तनिक भी उम्मीीद नहीं थी, क्योंाकि मुझे यह निश्चिय था कि या तो वह अपने घर पर मौजूद नहीं होगा और हुआ भी तो वह मुझसे मिलने से इनकार कर देगा। मेरा यह अनुमान गलत निकला। मैंने टारहोव को घर पर मौजूद पाया। वह मुझसे मिला और जो कुछ जानना चाहता था, वह सब मैंने जान लिया, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं हुआ। ज्यों ‍ही मैंने उसके दरवाजे के चौखट को पार किया, टारहोव दृढ़तापूर्वक तेजी के साथ मुझसे मिलने आया। उस समय उसकी आंखें चमक रहीं थी और उनसे ज्योतति निकल रही थी। उसका चेहरा बहुत मनोहर और कान्तिपूर्ण बन गया था। उसने दृढ़ता के साथ फुर्ती से कहा, ''सुनो, पेटया, मेरे मित्र, तुम जिस काम से आये हो और तुम जो कुछ कहना चाहते हो, वह मैं समझता हूं। मगर मैं तुम्हेंय सावधान किये देता हूं कि अगर तुम मानसी के विषय में या उसके कार्य के संबंध में, अथवा जिस मार्ग को मैंने अपनी सहज-बुद्धि के अुनसार ग्रहण किया है, उस विषय में एक शब्दर भी कहोगे तो फिर हम दोनों मित्र के रूप में नही रहेंगे। हम दोनों परिचित के रूप में भी नहीं रह जायेंगे और तब मैं तुमसे कहूंगा कि मेरे साथ एक अपरिचित व्यमक्ति-जैसा व्यचवहार करो।''
मैंने टारहोव पर दृष्टि डाली। वह भीतर से इस तरह कांप रहा था, मानो सितार का तार कसकर खींचा गया हो। उसके सम्पूषर्ण शरीर में झनझनाहट जैसी आवाज हो रही थी। वह बड़ी मुश्किल से अपने यौवन के उच्छहवास एवं आवेश को दबाकर रख सकता था। आनंदातिरेक के कारण वह आत्म़-विभोर हो गया था-उसकी आत्माो आनंदसागर में तल्लीरन हो गई थी।
''क्याम यह तुम्हाीरा अंतिम निश्च य है ?'' मैंने खेदपूर्वक पूछा।
''हा, पेटया, मेरे मित्र, यह मेरा अंतिम निश्च्य है।''
''ऐसी हालत में मेरे लिए तुमसे विदा मांगने के सिवा और कुछ कहना नहीं है।''
टारहोव ने धीरे से अपनी पलकों को नीचा कर लिया। उस समय वह मारे आनंद के फूला नहीं समाता था।
''अच्छाे, पेटया, विदा !'' उसने कुछ-कुछ नाक से बोलते और मुस्कसराते हुए तथा अपने सफेद दाँतों को दिखलाते हुए कहा।
मैं अब क्या करता ! मैंने उसे आनंदोपभोग करने के लिए छोड़ दिया। ज्यों ही मैंने बाहर निकलकर दरवाजा बंद किया, कमरे का दूसरा दरवाजा भी बंद हो गया-इसे मैंने खुद अपने कानों से सुना।
दूसरे दिन मैं भरे हुए दिल से, पांव घसीटता हुआ, अपने अभागे परिचितों से मिलने के लिए उनके स्थाेन पर गया।
मैं मन-ही-मन यह आशा कर रहा था-मानव-प्रकृति की यह दुर्बलता है- कि वे मुझे अपने घर पर नहीं मिलेंगे, किन्तु इस बार भी मैने धोखा खाया। दोनों घर पर ही मौजूद थे। तीन दिनों के अंदर उन लोगों में जो परिवर्तन हो चुका था, वह किसी भी व्योक्ति को खटके बिना नहीं रह सकता था। पूनिन का चेहरा प्रेत जैसा सफेद और मैला-कुचैला दीख पड़ता था। वह पहले जैसा बातूनी अब बिल्कुटल नहीं रह गया था। वह लापरवाही के साथ धीरे-धीरे पहले जैसे ही अस्फु ट स्वार में बोला और कुछ घबराया-सा मालूम पड़ने लगा। उधर बैबूरिन संकोचशील, सिकुड़ा हुआ-सा जान पड़ता था और इतना काला हो गया था, जितना पहले कभी नहीं था वैसे तो अच्छेी-से-अच्छेन मौके पर भी वह मौन रहता था, पर वह अब कभी-कभी कुछ शब्दच उच्चाकरण करने के सिवा और कुछ नहीं बोलता था। उसके चेहरे पर पत्थअर जैसी कठोरता का भाव जमा हुआ-सा मालूम पड़ता था।
मेरे लिए चुप रहना असंभव हो गया, पर मैं कहता भी तो क्याा? मैंने पूनिन के कान में चुपके से कहा, "मुझे कुछ भी पता नहीं चला और मैं तुम्हेंछ सलाह दूंगा कि उसकी कुछ भी आशा न रखो।''
पूनिन ने अपनी छोटी-छोटी फूली हुई लाल आँखों से -उसके चेहरे में सिर्फ यही लाली रह गयी थी-मेरी ओर देखा और अस्फुटट स्वीर में कुछ बड़बड़ाया। फिर इसके बाद वहां से लंगड़ाता हुआ चला गया। मैं पूनिन से जो कुछ कह रहा था, उसे शायद बैबूरिन अनुमान से ताड़ गया और अपने बंद होंठों को-जो इस कदर कसकर बंद थे, मानो लेर्इ से आपस में सटे हुए हों- खोलते हुए सावधान स्व-र में कहा, ''महाशय, पिछली दफा जब आप हम लोगों से मिलने आये थे, उसके बाद हम लोगों के यहां एक अप्रिय घटना हो गई है। हम लोगों की नवयुवती मित्र मानसी ने हमारे साथ रहना असुविधाजनक समझकर हमें छोड़ देने का निश्चय किया है और इस संबंध में उसने हमें लिखित सूचना दे दी है। यह विचार कर कि हमें उसके ऐसा करने के इरादे में रूकावट डालने का कोई हक नहीं है, हम लोगों ने उसे अपने विचारानुसार जैसा वह सर्वोत्तदम समझे, वैसा करने के लिए स्वातंत्र छोड़ दिया है। हमें विश्वाउस है कि सुखी होगी।'' अंतिम वाक्य जोड़ते हुए उसने कुछ प्रयत्नब के साथ कहा, ''और मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि इस विषय का अब कोई जिक्र न कीजिये, क्योंोकि इस प्रकार की चर्चा व्य,र्थ है और कष्टाप्रद भी।''
''सो यह भी टारहोव के समान ही मुझे मानसी के संबंध में कुछ बोलने से मना करता है।'' यही विचार मेरे मन में उदित हुआ और मन-ही-मन मैं इस पर आश्चलर्य किये बिना न रह सका। तभी तो बैबूरिन जीनो की इतनी ज्याेदा कद्र करता है। मेरी इच्छा हुई कि उस तत्वस ज्ञानी के संबंध में कुछ बातें उसे बता दूं, पर मेरी जबान से कोई बात ही न निकली और यह अच्छाछ ही हुआ।
फिर मैं जल्दब ही वहां से अपने काम पर चला गया। विदा होते समय न तो पूनिन ने और न बैबूरिन ने ही फिर से मिलने की बात की। दोनों एक ही शब्दम का उच्चा रण किया, ''विदा!''
पूनिन ने 'टेलीग्राफ' पुस्त क-जिसे मैंने उसे ला दिया था- मुझे लौटा दी, मानो यह कहते हुए कि ''मुझे अब ऐसी चीज की दरकार नहीं है।''
इसके एक सप्ता ह बाद एक विचित्र घटना हुई। बसंत ऋतु का सहसा आरम्भउ हो चुका था। दोपहर में अट्ठारह डिग्री तक गर्मी पहुंच चुकी थी। पृथ्वीु पर चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आ रही थी। मैंने भाड़े पर एक टट्टू लिया और उस पर सवार होकर शहर के बाहर पहाड़ की तरफ सैर के लिए निकल पड़ा। सड़क पर मुझे एक छोटी गाड़ी दिखाई पड़ी, जिसमें एक जोड़ा तेज घोड़े जुते हुए थे। उनके कानों तक कीचड़ भरा था, पूछें गुथी हुई थीं और गरदन तथा आगे के बालों में लाल रंग के रेशमी कपड़े लिपटे हुए थे। उनका साज शिकारियों के घोड़ों जैसा था। तांबे का मंडल और झब्बेक लटक रहे थे। एक चुस्ती युवक कोचवान बिना आस्तीिन का नीले रंग का कोट, पीले रंग की धारीदार रेशमी कमीज और मयूर के पंखों से सजी हुई एक फेल्टी टोपी पहने हुए उन घोड़ों को हांक रहा था। उसकी बगल में शिल्पाकार या वणिक श्रेणी की एक लड़की फूलदार रेशमी जाकेट पहने और बड़ा सा लम्बाह रूमाल सिर में लपेटे बैठी थी। वह खुशी के मारे उछाल रही थी। कोचवान भी हंस रहा था। मैंने अपने टट्टू को एक तरफ कर लिया और तेजी से जाती हुई उस प्रसन्न जुगल जोड़ी की ओर विशेष ध्यामन नहीं दिया। इतने में हठात् उस युवक ने घोड़े को आवाज दी...।
तब मुझे पता लगा-अरे, यह तो टारहोव की जैसी आवाज मालूम होती है। मैं इधर-उधर देखने लगा। हां, वह टारहोव ही था-अवश्य वही था। किसानों की पोशाक पहने हुए था और उसकी बगल में मानसी के सिवा और कौन हो सकती थी ?
किन्तुर उसी क्षण उनके घोड़ो ने अपनी चाल तेज की और एक मिनट के अंदर ही वे दृष्टि से ओझल हो गये। मैंने उनके पीछे टट्टू दौड़ाकर ले जाने की कोशिश की, किन्तुी मेरा टट्टू बूढ़ा था, जो चलते समय एक ओर से दूसरी ओर मटककर चलता था, और अपनी चाल से चलने की अपेक्षा दौड़ाकर ले जाने में वह और भी सुस्त हो जाता था।
''प्यातरे दोस्त़ ! खूब जी भर कर मौज कर लो ?'' मैंने धीरे से बड़बड़ाकर कहा।
यहां पर मुझे यह भी बता देना चाहिए कि इस पूरे हफ्ते में मैने टारहोव को नहीं देखा था, यद्यपि मैं तीन बार उसके कमरे में गया। वह घर पर कभी नहीं रहता था। बैबूरिन और पूनिन इन दोनों में किसी से भी मेरी मुलाकात नहीं हुई। मैं उन लोगों से मिलने भी नहीं गया।
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Re: स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

Post by kunal »

टट्टू पर सवार होकर बाहर जाने में मुझे सर्दी लग गई थी। यद्यपि मौसम बहुत गर्म था, तथापि हवा चुभती हुई-सी चल रही थी। मैं बहुत बीमार हो गया और जब चंगा हुआ तो अपनी दादी के साथ, डॉक्टरर की सलाह से, स्वाीस्य् ब लाभ करने के लिए देहात चला गया। फिर मैं मास्कोु नहीं आया। शरद ऋतु में मैं पीटर्सबर्ग-विश्व विद्यालय में भर्ती हो गया।
3
1849
सात नहीं, बल्कि पूरे बारह वर्ष बीत गये और मैंने अपने जीवन के बत्तीहसवें वर्ष में पदार्पण किया था। मेरी दादी को मरे हुए बहुत दिन हो गये थे। मैं पीटर्सबर्ग-गृह विभाग के एक पद पर काम करता था। टारहोव मेरी दृष्टि से दूर हो गया था। वह फौज में भर्ती होकर चला गया था और प्राय: हमेशा प्रांतों में ही रहा करता था। हम दोनों में दो बार मुलाकात हो चुकी थी, और पुराने दोस्ते के रूप में दूसरे को देखकर प्रसन्ना भी हुए थे, पर बातचीत में पुरानी बातों का जिक्र नहीं आया। आखिरी बार जब हम दोनों मिले थे, उस समय वह-यदि मुझे ठीक स्मपरण है-एक विवाहित पुरुष बन चुका था।
गर्मी के मौसम में, एक दिन जब हवा बिल्‍कुल बंद थी, मैं गोरोहोवे स्ट्रीसट में यों ही चक्कुर लगा रहा था और अपने दफ्तर के कामों को कोस रहा था, जिसके कारण मुझे पीटर्सबर्ग में और शहर की गर्मी, दुर्गंध और धूल में रहना पड़ता था, मार्ग में मुझे एक मुर्दा मिला। वह एक टूटी-फूटी मुर्दा ढोने वाली गाड़ी पर रखा हुआ था, सिर पर लकड़ी की एक पुरानी ताबूत फटे-पुराने काले कपड़े से आधी ढकी हुई थी। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलने के कारण गाड़ी में जोर-जोर से जो झटका लगता जाता था, उससे वह ताबूत भी ऊपर-नीचे हिल-डुल रहा था। उस गाड़ी के साथ गंजे सिर वाला एक बूढ़ा आदमी जा रहा था।
मैंने उसकी ओर देखा। उसका चेहरा परिचित-सा मालूम पड़ा। उसने भी अपनी आंखे मेरी ओर कीं...अरे, यह तो बैबूरिन था।
मैंने अपनी टोपी उतार ली, उसके पास गया, अपना नाम बतलाया और उसके साथ-साथ चलने लगा।
''आप किसे दफनाने जा रहे हैं ?'' मैंने पूछा।
उसने कहा, ''निकेंडर विवेलिच पूनिन को !''
मुझे यह पहले ही अनुमान हो गया था कि वह इसी नाम का उच्चाूरण करेगा, पर फिर भी उसके मुंह से यह नाम सुनकर मेरा हृदय दु:खित हो उठा। दिल बैठ गया। पर मुझे इस बात की खुशी अवश्यर थी कि मुझे अपने एक पुराने दोस्तद के प्रति अंतिम सम्माठन प्रदर्शित करने का संयोग मिल गया।
''क्यान मैं आपके साथ चल सकता हूं, पेरामन सेमोनिच ?''
''जैसी आपकी मर्जी ? मैं इसके पीछे-पीछे अकेला ही जा रहा था। अब हम दो हो जायेंगे।''
एक घंटे से अधिक हम लोग चलते रहे। मेरा साथी आगे-आगे चल रहा था। चलते समय न तो उसकी आंखे ऊपर की ओर उठती थीं और न उसकी जबान ही हिलती थी। अंतिम बार जब मैंने उसे देखा था, तब से अब तक वह बिल्कुउल बूढ़ा हो गया था। उसके लाल चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं और उसके बाल सफेद हो गये थे। बैबूरिन को अपने जीवन में बराबर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, परिश्रम और दु:ख झेलने पड़े थे, जिनके चिन्हं उसकी सम्पूसर्ण आकृति से साफ दीख रहे थे। अभाव और गरीबी उसके जीवन के साथ बड़ी बेरहमी से पेश आई थीं।
अन्येी स ष्टि-क्रिया समाप्त होने और पूनिन का नश्वथर शरीर सदा के लिए भूमिसात हो जाने के बाद बैबूरिन दो मिनट तक उस नवनिर्मित मिट्टी के स्तूिप के निकट खुले सिर और नतमस्त क खड़ा रहा, फिर उसने अपने क्षीण एवं विकृत चेहरे और शुष्क बैठी हुई आंखें मेरी ओर करके मुझे गंभीरतापूर्वक धन्य़वाद दिया। इसके उपरान्तव वह वहां से चलने के लिए तैयार हुआ, पर मैंने उसे रोक रखा।
''आप इस समय कहां रहते हैं, पेरामन सेमोनिच? मैं आपके घर आकर मिलना चाहता हूं। मुझे इस बात का बिल्कु ल ख्याहल नहीं था कि आप पीटर्सबर्ग में रहते हैं। हम दोनों अपने पुराने दिनों की याद कर सकते हैं और अपने पुराने दोस्तख की चर्चा भी कर सकते हैं।''
बैबूरिन ने तत्कानल मुझे जवाब नहीं दिया।
''मुझे पीटर्सबर्ग आये हुए दो वर्ष हो गये।'' आखिर उसने कहा, ''मैं शहर के अंतिम भाग में रहता हूं, पर यदि तुम सचमुच मेरा घर देखना चाहते हो तो आना।''
उसने अपना पता-ठिकाना मुझे देते हुए कहा, ''शाम को आना। उस समय हम बराबर घर पर ही रहते हैं...हम दोनों ही रहते हैं।''
''आप दोनों कौन ?''
''मैं विवाहित हूं। मेरी पत्नीं आज कुछ अस्वहस्थन है। इसलिए वह नहीं आई। इस निरर्थक रस्मं को पूरा करने के लिए एक आदमी ही काफी है। इन बातों पर विश्वाअस ही कौन करता है?''
मुझे बैबूरिन के अंतिम शब्दों पर आश्च र्य हुआ, पर मैंने कुछ भी न कहा। फिर एक गाड़ी वाले को बुलाया और बैबूरिन से उस पर सवार होकर उसके घर चलने के लिए कहा, पर उसने अस्वीभकार कर दिया।
उसी दिन संध्यार को मै उससे मिलने गया। मार्ग में मैं बराबर पूनिन के संबंध में ही सोचता रहा। मुझे उस समय की याद आ गई, जब मैं पहले-पहल उससे मिला था। उन दिनों वह कितना उल्लामसपूर्ण और प्रसन्नकचित जान पड़ता था। फिर इसके बाद मास्कोल आकर वह कितना संयमशील बन गया था- खासकर अंतिम बार जब मैंने उसे देखा था। और अब तो वह अपने जीवन से आखिरी हिसाब-किताब कर चुका था। इससे तो यही मालूम पड़ता है कि जीवन अपना पावना पाई-पाई चुका लेने के लिए उतारू हो जाता है। बैबूरिन विबोर्गस्कीड मुहल्ले के एक छोटे से घर में रहा करता था। इस मकान को देखकर मुझे उसकी मास्कोि की झोपड़ी की याद आ गई। पीटर्सबर्ग में वह जिस मकान में रहता था, वह उससे भी अधिक भद्दा मालूम पड़ा।
जब मैं उसके कमरे में दाखिल हुआ, वह एक कोने में अपने हाथों को घुटनों पर रखे एक कुर्सी पर बैठा था। एक मोमबत्तीे मंद ज्यो ति से जल रही थी और उसका झुका हुआ सफेद सिर कुछ-कुछ चमक रहा था। उसने मेरे कदमों की आहट सुनी, चौंककर उठ खड़ा हुआ और मेरा इस रूप में हार्दिक स्वा गत किया, जिसकी मुझे आशा न थी। कुछ मिनटों के बाद उसकी स्त्री भी वहां आ गई। मैंने फौरन पहचान लिया कि वह मानसी थी- और तब यह बात मेरी समझ में आई कि बैबूरिन ने क्यों मुझे अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया था। वह मुझे यह दिखाना चाहता था कि आखिर उसकी चीज उसे मिल गयी। मानसी में बहुत परिवर्तन हो गया था, उसका चेहरा, उसका स्वमर, उसके तौर-तरीके-सब कुछ बदले हुए से मालूम होते थे, पर सबसे बड़ा परिवर्तन जो हुआ था, वह उसकी आंखों में। पहले ऐसा मालूम पड़ता था, मानो वे द्रोहपूर्ण सुंदर आंखे जीवन्तत रूप में नयनवाण चलाती हों, वे आंखे चुपके से चमक उठती थीं और उनकी वह चमक चकाचौंध पैदा करने वाली होती थी, उनके कटाक्ष चुभते से हुआ करते थे, किन्तुउ अब वे ही आंखे किसी वस्तुै को सरल, शान्तब एवं स्थिर भाव से देखा करती थीं। उनकी पुतलियों में पहले जैसी कान्ति अब नहीं रह गई थी। उसकी कोमल एवं शिथिल दृष्टि से ऐसा मालूम पड़ता था, मानो कह रही हो-''मैं अब पालतू बन गई हूं। मैं अब भली मानस हूं।'' उसकी अनवरत विनीत मुस्कु राहट से भी यही भाव झलक रहा था। उसके कपड़े भी इसी भाव में द्योतक थे-भूरा रंग और उस पर छोटे-छोटे छींटे। वह मेरे पास आई और मुझसे बोली, ''क्याे आप मुझे पहचानते है ?'' उसके इस प्रकार पूछने में कुछ भी झिझक नहीं मालूम पड़ती थी, पर इसका कारण यह नहीं था कि उसमें लज्जाि-भाव नहीं रह गया था, या कि अतीत काल की उसकी स्मृ ति नष्टथ हो चुकी थी, बल्कि इसका कारण यह था कि उसका क्षुद्र अहंभाव अब बिल्कुाल नष्टल हो चुका था।
मानसी ने पूनिन के विषय में बहुत कुछ बातों कीं। वह एक समान स्व र में बातचीत करती थी और उसके उस स्वनर में भी अब पहले जैसा तेज नहीं रह गया था। मुझे उससे मालूम हुआ कि पूनिन अंतिम कई वर्षों में बहुत कमजोर हो गया था और उसकी प्रकृति बालक जैसी हो गई थी। उसकी यह प्रकृति इस सीमा तक पहुंच गई थी कि यदि उसे खेलने के लिए खिलौने नहीं मिलते थे तो वह अत्यं त दु:खित हो उठता था। लोग तो यही कहा करते थे कि वह रद्दी चीजों से खिलौने बनाकर बेचा करता है, मगर असल में बात यह थी कि वह उन खिलौनों से खुद खेला करता था। कविता के लिए उसके हृदय में जो व्यरसन था, वह अंत तक उसमें कायम रहा और उसे अगर कोई बात याद थी तो वह सिर्फ कविता ही थी। मृत्युम से कई दिन पूर्व उसने रोसिएड की कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाई थीं। पर मुश्किल से वह उसी तरह डरा करता था, जिस तरह बच्चेो हौआ से डरा करते हैं। बैबूरिन के प्रति उसकी जो अनुरक्ति थी, वह अन्तस तक एक समान बनी रही। बराबर एक रूप में उसकी पूजा करता रहा और अंत काल में भी जबकि वह मृत्यु के अंधकारपूर्ण आवरण से आच्छा दित हो रहा था, उसने कांपती हुई जबान में, 'उपकारकर्ता' शब्दे का उच्चाहरण किया था। मुझे मानसी से यह भी मालूम हुआ कि मास्कोा की घटना के बाद भी बैबूरिन को दुर्भाग्यावश एक बार फिर सारे रूस की खाक छाननी पड़ी थी और वह लगातार एक काम से दूसरे काम पर मारा-मारा फिरता रहा। पीटर्सबर्ग में ही उसे फिर एक प्राईवेट नौकरी मिल गई थी, पर अपने मालिक से कुछ अनबन हो जाने के कारण कई दिन पहले उसने मजबूर होकर वह काम भी छोड़ दिया था। वजह यह थी कि बैबूरिन ने मजदूरों को पक्ष लेने का साहस दिखलाया था।
मानसी के शब्दोंछ के साथ जो मुस्कुिराहट बनी रहती थी, उससे चिन्तित होकर मैं सोच में पड़ गया था। उसके पति की आकृति को देखकर मेरे हृदय में जो भावना उत्प न्न हुई थी, उसे उसकी मुस्कुडराहट ने बिल्कुयल पक्काप कर दिया था। उन दोनों को किसी प्रकार अपनी जीविका मात्र चलाने के लिए भी कठिन परिश्रम करना पड़ता था, इसमें तो कोई शक नहीं था। हम लोगों के वार्तालाप में बैबूरिन ने बहुत थोड़ा भाग लिया। वह जितना दु:खित जान पडता था, उससे कहीं अधिक व्यास्तै मालूम पड़ता था। ऐसा प्रतीत होता था, मानो कोई चिन्ताी उसे सतात रही हो।
'पैरोमन सेमोनिच, यहां आओ।'' रसोइए ने एकाएक दरवाजे पर हाजिर होकर कहात।
''क्योंम, क्याो है ? क्याे चाहिए ?'' उसने सशंकित होकर पूछा।
''यहां तो आओ।'' रसोइए ने फिर जोर देते हुए अपनी बातों को दुहराया। बैबूरिन ने अपने कोट का बटन लगाया और वहां से बाहर चला गया।
जब मैं वहां मानसी के साथ अकेला रह गया तो उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ बदली हुई दृष्टि से देखा और बदले हुए स्वमर में बिना मुस्कुतराहट के कहा, ''पीटर पेट्रोविच, मैं नहीं जानती कि तुम अब मेरे बारे में क्या सोचते हो, पर इतना मैं अवश्यु कहूंगी कि तुम्हें' याद होगा कि मैं पहले क्यार थी। उस समय मैं अत्यारभिमानी और क्षुद्रहृदया थी। भली मानस नहीं थी। मैं सिर्फ अपने सुख के लिए जीना चाहती थी, पर मैं तुम्हेंं यह बता देना चाहती हूं कि जब मैं परित्य क्ताप होकर इधर-उधर मारी-मारी फिर रही थी और मृत्युा की बाट जोह रही थी, या अपने इस जीवन का अंत कर डालने के लिए अपने दिल में हिम्मीत लाने की चेष्टाफ कर रही थी, ऐसे समय में एक बार फिर मेरी मुलाकात पहले की तरह पैरोमन सेमोनिच से हुई, और उसने मुझे फिर बचा लिया। उसके मुंह से ऐसा एक शब्दत भी नहीं निकला, जो मेरे दिल पर चोट पहुचावे-निंदा का या उलाहने का-एक शब्दस भी नहीं। उसने मुझसे कुछ पूछा तक नहीं। मैं इस उदारतापूर्ण व्य वहार के योग्यच नहीं थी, पर उसने मुझे प्याेर किया और मैं उसकी पत्नीप बन गई। मैं करती भी क्याप ? मैं मरने में भी सफल न हुई थी और अपने इच्छापनुसार जी भी नहीं सकती थी। ऐसी हालत में मैं क्यान करती ? जो हो, उसकी यह दया ही थी, जिसके लिए मुझे कृतज्ञ होना चाहिए। बस, यह मेरी रामकहानी है।''
इतना कहकर वह चुप हो गई और एक क्षण के लिए मेरी ओर से उसने मुंह फेर लिया। इस समय भी उसके होंठों पर विनीत मुस्कुकराहट खेल रही थी। ''मेरा यह जीवन सुखकर है या नहीं, यह सवाल पूछने की जरूरत नहीं।'' मुझे उसकी मुस्कुेराहट में यही अर्थ छिपा हुआ जान पड़ा।
इसके बाद हम दोनों की बातचीत साधारण विषयों पर होने लगी। मानसी ने मुझसे कहा कि पूनिन एक बिल्लीा भी छोड़ गया है, जिसे वह बहुत चाहता था। उसके मरने के बाद से वह बिल्ली् छत के ऊपर के कमरे में चली गई है और वहीं रहा करती है और बराबर 'म्यातऊं-म्यासऊं' करती रहती है, मानो वह किसी को पुकार रही हो। पड़ोस के लोग उससे बहुत डरते हैं और यह सोचते हैं कि पूनिन की आत्माम बिल्लीी के रूप में प्रकट हुई है।
''पैरोमन सेमोनिच किसी विषय को लेकर चिन्तित से मालूम पड़ते थे।'' मैंने कहा।
''आह ! तुमने यह बात आखिर ताड़ ली ?'' मानसी ने एक लम्बीै सांस ली ''चिन्तित होना उनके लिए अनिवार्य है। मुझे तुम्हेंय यह बताने की जरूरत नहीं कि पैरोमन सेमोनिच अब तक अपने सिद्धांतो पर स्थिर हैं। इस समय जो देश की दशा है, उससे तो उनके सिद्धांतो की और भी अधिक पुष्टि होती है।'' (पुराने जमाने में जब वह मास्कोश में रहा करती थी, उस समय से अब के उसके कहने के ढंग में भिन्नतता थी। उसके वाक्यों में एक प्रकार की साहित्यिक अभिरूचि-सी जान पड़ी थी) यद्यपि मैं यह नहीं जानती कि मैं आप पर विश्वाथस कर सकती हॅू या नहीं; और आप मेरी बातों को किस रूप में सुनेंगे।''
''आप यह क्योंय ख्यापल करती हैं कि आप मुझ पर विश्वा'स नहीं कर सकतीं ?''
''इसलिए कि आप सरकारी नौकर हैं। एक अधिकारी भी हैं।''
''तो, इससे क्याै ?''
''इसका यह अर्थ है कि आप राजभक्तए हैं।''
मानसी की इस सरलता पर मैं अपने मन में विस्म य करने लगा। मैंने कहा, ''जो सरकार मेरे अस्तित्वव तक से अवगत नहीं है, उसके प्रति मेरा क्यार रूख है, इस संबंध में आपसे क्याि कहूं ! पर आप अपने मन में निश्चिंत रहिये। मैं आपके साथ विश्वाेसघात नहीं करूंगा। जितना आप कल्प ना करती हैं, उससे कहीं अधिक मैं आपके पति की भावनाओं के प्रति सहानुभूति रखता हूं।''
मानसी ने अपना सिर हिलाया।
''हां, आप ठीक कहते हैं''- उसने कुछ हिचकिचाहट के साथ कहना शुरू किया, ''किन्तु देखिए, बात दरअसल यह है कि पैरोमन सेमोनिच की भावनाओं के शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत होने की संभावना है। वे अब छिपाकर नहीं रखी जा सकतीं। हमारे ऐसे अनेक साथी हैं, जिनका अब हम परित्यााग नहीं कर सकते।''- मानसी ने एकाएक इस तरह बोलना बंद कर दिया, मानो उसने अपनी जबान काट ली हो। उसके अंतिम शब्दोंन को सुनकर मैं चकि‍त और कुछ-कुछ भयभीत-सा हो उठा। शायद उस समय का मेरा आंतरिक भाव मेरे चेहरे से व्यदक्त हो रहा था और मानसी मेरे इस भाव को ताड़ गई थी।
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Re: स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूं, हम दोनों की बातचीत सन् 1849 में हुई थी। बहुत से लोगों को अब भी याद है कि वह जमाना कितना विपत्तिपूर्ण और कठिन था और सेंट पीटर्सबर्ग में किन घटनाओं द्वारा उसका निदर्शन हुआ था। बैबूरिन के चाल-चलन में, उसके सम्पूंर्ण हाव-भाव में, जो कुछ विलक्षणताएं मालूम पड़ती थी, उनसे मैं खुद विस्मित हो रहा था। उसने एक बार नहीं, बल्कि दो बार सरकारी कार्रवाई के संबंध में तथा उच्च, अधिकारियों के बारे में इतनी घोर कटुता एवं घृणा से जिक्र किया था कि मैं हक्काी-बक्का -सा हो गया था। एक दिन अकस्माकत् बैबूरिन ने मुझसे पूछा था।
''अजी, यह तो बताइये कि आपने अपने किसानों को स्वजतंत्र कर दिया या नहीं?''
मुझे बाध्य होकर यह बात स्वीबकार करनी पड़ी कि मैंने अभी तक नहीं किया।
''क्योंी? मैं समझता हूं, तुम्हाभरी दादी मर चुकी है?''
मुझे मजबूर होकर यह भी स्वीबकार करनी पड़ा।
''यह बिल्कुहल ठीक है कि आप रईस लोग'' बैबूरिन ने धीरे से बड़बड़ाते हुए कहा, ''दूसरों के हाथों से अपना मतलब निकालना, अपना उल्लूक सीधा करना, खूब जानते हैं।''
उसके कमरे में सबसे स्पसष्ट स्था न में वेलिन्कीखूब का सुप्रसिद्ध रेखाचित्र टंगा हुआ था, मेज पर बैस्टू।जेब द्वारा सम्पांदित पोलर स्टारर, नामक पत्र की एक पुरानी जिल्दक रखी थी।
रसोइए के पुकारने पर बैबूरिन बाहर चला गया। उसके बाद बहुत समय बीत जाने पर भी वह वापस नहीं लौटा। मानसी कुछ बेचैन सी-होकर बार-बार उस दरवाजे की ओर देखती थी, जिससे होकर बैबूरिन बाहर गया था। आखिर‍ उसकी प्रतीक्षा मानसी के लिए असहृा हो उठी। वह उठ बैठी और मुझसे क्षमा याचना करते हुए उसी दरवाजे से वह भी बाहर निकल गयी। पन्द्रसह मिनट के बाद वह अपने पति के साथ फिर वापस लौटी। उन दोनों ही के चेहरे से-जैसा मैंने समझा था- चिन्ताह का भाव झलक रहा था, पर एकाएक बैबूरिन के चेहरे ने एक विभिन्ने कटु, उन्मथत जैसा भाव धारण कर लिया।
''आखिर, इसका अंत क्याै होगा?'' उसने एकाएक झटकती हुई सिसकती आवाज में, जो उसके लिए बिल्कुउल नई बात थी, अपनी भयानक आंखों को इधर-उधर अपने चारों ओर बेचैनी के साथ दौड़ाते कहना शुरू किया, ''लोग इस आशा में दिन काट रहे हैं कि शायद एक दिन अवस्थाे सुधर जाय और हम स्वूतंत्रतापूर्वक रहते हुए स्वकतंत्र वायुमंडल में स्वसच्छुन्दमता के साथ सांस ले सकें, पर यहां तो बिल्कुकल उल्टास ही नजर आता है -हर एक तरफ हालत दिन-पर-दिन बिगड़ती ही जा रही है। हम गरीबों का शोषण करके धनवानों ने हमें बिल्कुाल खोखला बना डाला है। अपनी जवानी में मैंने धैर्यपूर्वक सब कुछ बर्दाश्ते किया। उन्होंंने...शायद...मुझे पीटा भी...हां।'' उसने इतना कहा और फिर तेजी के साथ अपनी एड़ी के बल घूमकर और मेरी ओर झपट्टा-सा मारते हुए मुखातिब होकर बोला, ''मेरे जैसे वृद्ध पुरूष को शारीरिक दण्डे दिया गया। हां, दूसरे अत्याेचारों का मैं जिक्र नहीं करूंगा। किन्तुे क्यान सचमुच हमारे सामने इसके सिवा और कोई दूसरा उपाय नहीं है कि हम फिर उन पुराने दिनों की याद करें? इस समय नवयुवकों के साथ जैसा व्यसवहार हो रहा है। उससे तो धैर्य की सीमा का भी अतिक्रमण हो जाता है। उससे सहनशीलता को सीमा भंग हो चुकी है। हां, जरा ठहरिये।''
मैंने बैबूरिन को इस दशा में पहले कभी नहीं देखा था। मानसी तो भय के मारे ऐसी हो रही थी कि काटो तो खून नही। बैबूरिन ने एकाएक खांसते हुए गला साफ किया फिर एक स्थाेन पर बैठ गया। अपनी उपस्थिति से बैबूरिन या मानसी को तंग करना अच्छाु न समझकर मैंने वहां से चल देने का निश्चाय किया और उन लोगों से विदा मांगने ही जा रहा था कि एकाएक दूसरे कमरे का दरवाजा खुला और एक आदमी की शक्लि वहां दीख पड़ी। यह शक्ले उस रसोइए की नहीं थी, बल्कि बिखरे हुए बाल और भयानक चेहरे वाले एक नवयुवक की थी।
''मामला कुछ गड़बड़ है, बै‍बूरिन, कुछ गड़बड़ है!'' उसने शीघ्रतापूर्वक कम्पित स्वार में कहा और मुझ अपरिचित व्यलक्ति को वहां देखकर उसी क्षण वहां से गायब हो गया।
बैबूरिन उस नवयुवक के पीछे दौड़ा। मैंने मानसी से हाथ मिलाया और अपने हृदय में अनिष्टन की आशंका करता हुआ वहां से चल दिया।
''कल पधारिए।'' मानसी ने चिन्ता पूर्वक धीरे से कहा।
''अवश्या आऊंगा।'' मैंने जवाब दिया।
दूसरे दिन सुबह मैं बिछौने से उठा भी नहीं था कि मेरे नौकर ने मेरे हाथ में मानसी का एक पत्र दिया। उसने लिखा था-
''प्रिय पीटर पेट्रोविच, आज रात में पुलिस पैरोमन सेमोनिच को गिरफ्तार करके ले गई है, किले में या और कही, यह मैं नहीं जानती। उन लोगों ने मुझे कुछ नहीं बताया। पुलिस ने हमारे कुल कागजातों की छानबीन कर डाली, बहुतों पर मुहर लगा दी और उन्हें अपने साथ लेती गई। हमारे पुस्तछकों और पत्रों की भी यही दशा हुई है। कहते हैं, शहर में बहुत से लोग गिरफ्तार किये गये हैं। आप अनुमान कर सकते हैं कि मुझ पर इस समय कैसी बीत रही है? अच्छाे ही हुआ कि निकेडर वेवोलिच पूनिन यह सब देखने के लिए जीवित नहीं रहे। बहुत ही उपयुक्तह समय पर वह इस संसार से महाप्रस्थावन कर गये। अब मुझे बतलाइये कि मैं इस हालत में क्यात करूं? मैं अपने लिए भयभीत नहीं होती- मैं भूखी नहीं मरूंगी- किन्तुह पैरोमन सेमोनिच की चिन्ताु मुझे बेचैन बनाये डालती है। हमारी स्थिति के लोगों के यहां आने में अगर आपको भय नहीं मालूम हो तो यहां पधारने की कृपा कीजिये।
आपकी विश्वकस्ते
मानसी"
इसके आधा घंटे के बाद मैं मानसी के पास पहुंच गया।
मुझे देखकर उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया। यद्यपि उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, किन्तुं उसके मुखमंडल पर कृतज्ञता की एक झलक दौड़ गई। आज भी वह कल की ही पोशाक पहने थी। उसके चेहरे से यह साफ-साफ जाहिर होता था कि वह रात भर बिल्कुकल नहीं सोई थी। उसकी आंखें जगने के कारण लाल हो रही थीं-आंसुओं के कारण नहीं। वह फूट-फूटकर रोई नहीं थी उसकी वृत्ति भी उस समय रोने की नहीं थी। वह कुछ काम करना चाहती थीं। अपने ऊपर आई विपत्ति से संग्राम करना चाहती थी। वही पुरानी स्फूसर्ति, वही शक्ति, वही दृढ़ संकल्पर एक बार फिर मानसी में प्रकट हो आये थे। यद्यपि क्रोध से उसका कण्ठथवरोध-सा हो रहा था, किन्तुं क्रोध प्रकट करने के लिए उसे समय कहां था? बैबूरिन को किस प्रकार से बचाया जाय, इन बातें को छोड़कर वह और किसी विषय में सोच ही नहीं सकती थी। वह फौरन जाना चाहती थी, उसके छुटकारे की मांग पेश करना चाहती थी। मगर जाय भी तो किसके पास? किसे दरखास्तप दे और क्याक अर्ज करे? इन्हींन विषयों पर वह बातचीत करना चाहती थी-इन्हींर के संबंध में मेरी सलाह लेना चाहती थी।
मैं उसे सान्व्ग ना देने लगा। धैर्य धारण करने का उसे उपदेश दिया। शुरू में तो सिवा इंतजार करने के और कुछ करना ही नहीं था और यथासंभव बैबूरिन के संबंध में पूछताछ करके पता लगाना था। इस वक्तं जब मामला शुरू भी नहीं हुआ था और न उसका रंग-ढंग ही मालूम हुआ था, कोई निश्च यात्माक उपाय काम में लाना निरी मूर्खता और अज्ञानता होती। यदि मैं कोई विशेष महत्वपपूर्ण तथा प्रभावशाली व्यमक्ति होता तो उस अवस्थाि में भी मुझसे इस काम में सफलता की आशा रखनी मूर्खता होती । पर मेरे जैसा एक तुच्छश अधिकारी इस मामले में कर ही क्याु सकता था? बेचारी मानसी का क्याे कहना! उसके तो प्रभावशाली मित्र बिल्कु्ल थे ही नहीं।
इन सब बातों को स्प ष्टय रूप में उससे कहना सहज नहीं था। किन्तुा आखिर वह मेरे तर्क‍-विर्तक को समझ गई। यह बात भी उसने समझ ली कि मैंने जो यह कहा था कि इस समय सब प्रयत्न व्युर्थ होंगे, सो किसी अहंभाव से प्रेरित होकर नहीं कहा।
''लेकिन यह तो बतलाओ, मानसी'' मैंने कहना शुरू किया, जब वह एक कुर्सी पर जा बैठी(अब तक तो वह खड़ी-खड़ी ही बातें कर रही थी, मानो वह बैबूरिन की सहायता के लिए फौरन रवाना हो जाना चाहती हो!) ''पैरोमन सेमानिच इस उम्र में इस तरह के मामले में क्योंफ कर फंस गये? मुझे तो यह विश्वा्स है कि इसमें सिर्फ ऐसे ही नौजवान पड़े हुए हैं, जैसा एक व्यतक्ति कल तुम्हें चेतावनी देने आया था''
''वे नौजवान हमारे दोस्ते हैं।''-मानसी ने जोर देकर कहा। इस समय भी उसकी आंखें पहले जैसी ही चमक उठीं और तीर की तरह तेज होने लगीं। ऐसा मालूम पड़ता था, मानो उसके अन्तभस्थल से कोई दृढ़ और दुर्दमनीय भाव उदित हो रहा हो। उसके इस भाव को देखकर मुझे अचानक 'एक नवीन ढंग की लड़की'- ये शब्दद याद आ गये, जो टारहोव ने उसके संबंध में कभी प्रयुक्तव किये थे।''जहां राजनैतिक सिद्धांत' इन दो शब्दोंन पर विशेष जोर लिहाज नहीं।'' मानसी ने 'राजनैतिक सिद्धांत' इन दो शब्दों पर विशेष जोर दिया। उसे देखकर यह ख्याोल होता था कि अपने समस्त' शोक के बीच भी अपने को मेरे सामने इस नवीन अप्रत्याबशित चरित्र में-एक सुसंस्कृ त प्रौढ़ा स्त्रीश के रूप में, एक प्रजातंत्रवादी की योग्ये पत्नीउ के रूप में-प्रदर्शित करने में उसे कुछ अप्रियता नहीं मालूम पड़ती थी। ''कुछ बूढ़े आदमी ऐसे होते हैं, जिनमें नौजवानों की अपेक्षा अधिक जवानी होती है।'' वह बोली-''और वे आत्म -त्या,ग भी अधिक कर सकते हैं। किन्तु सवाल यह नहीं है।''
''मैं समझता हुं, मानसी'' मैंने कहा, ''तुम बात को कुछ बढ़ाकर कह रही हो। पैरोमन सेमोनिच के चरित्र से परिचित होते हुए मुझे यह पहले ही जान लेना चाहिए था कि वह प्रत्येाक सच्ची उमंग के साथ सहानुभूति रखेंगे, परन्तुप इसके साथ-साथ मैंने उन्हें बराबर एक समझदार आदमी माना है। रूस में षड्यन्त्रह करना कितना असंगत है, कितना अव्याइवहारिक है-इसे वह अवश्यह ही समझे बिना नहीं रह सकते, खासकर उनकी जैसी स्थिति है और उनका जो पेशा है।
''हां, अवश्यो,'' मानसी कटु स्वार में मेरे कथन के बीच में ही बोल उठी, ''वह एक काम करने वाले आदमी हैं, मजदूर हैं और रूस में तो केवल अमीर-उमरा ही षड्यन्त्रों में भाग ले सकते हैं, जैसा 14 दिसम्बहर के षड्यन्त्रा में हुआ था, यही न आपके कहने का मतलब है?''
''ऐसी हालात में आपको अब शिकायत ही किस बात की है।?'' मेरे मुंह से हठात् ये शब्दभ निकलने वाले थे, किन्तुआ मैंने अपने को रोका। ''क्याम आप समझती हैं कि 14 दिसम्ब र का परिणाम जो कुछ हुआ, वह ऐसा था कि उससे इस प्रकार के और भी प्रयत्नअ करने में उत्सा?ह मिले?'' मैंने जोर के साथ कहा।
मानसी ने त्यौ री बदल ली।''आपके साथ इस विषय में बात करना निरर्थक है।'' उसके नीचे लटके हुए चेहरे से मुझे यही भाव परिलक्षित होने लगा।
''क्याे पैरोमन सेमोनिच इस मामले में बहुत काफी फंस गये हैं?'' मैंने उससे साहस करके पूछा।
मानसी ने कोई उत्त र नहीं दिया। ऊपर छत के कमरे से बिल्लीं को भूखी-सी बेढंगी 'म्याऊं-म्यााऊं' की आवाज सुनाई पड़ी।
मानसी चौंक उठी। ''आह, यह अच्छा ही हुआ कि निकेंडर लिवेनिच पूनिन को यहक सब नहीं देखना पड़ा!'' उसने हताश होकर बिलखते हुए कहा, ''उसने नहीं देखा कि रात के पुलिस वाले उसके उपकारकर्ता को, मेरे उपकारकर्ता को-या संभवत: संसार के सर्वश्रेष्ठ सत्यकशील मनुष्यी को-किस प्रकार निष्ठुहरता के साथ पकड़ ले गये। उसने नहीं देखा कि पुलिस ने उस भद्र पुरूष के साथ उसकी इस अवस्था् में कैसा बर्ताव किया, कितनी अशिष्ट ता के साथ उसे संबोधित किया, किस तरह उन्होंाने उसे डांटा और उसके प्रति धमकियों का प्रयोग किया। सिर्फ इसलिए कि वह एक श्रमजीवी है! पुलिस का जो वह नौजवान अफसर था, वह भी सचमुच एक ऐसा नीतिभ्रष्टफ, हृदयहीन दुष्टै मनुष्यप था, जैसा मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा।''
इतना कहते-कहते उसका कण्ठ रूद्ध हो गया। तेज हवा के झोके से हिलते पत्र की तरह उसका सारा शरीर कांप रहा था।
आखिर उसका बहुत समय से दबा हुआ क्रोध उमड़ पड़ा आत्माह की आकुलता पुरानी स्मृ तियां आलोड़ित हो उठीं और आत्माह की आकुलता के कारण बाहृारूप में प्रकट होने लगीं। मालूम पड़ने लगा मानो अब भी वे उसके अंतर में जीवित हैं-विस्मृेति के गर्भ में अंतर्लीन नहीं हुई हैं। किन्‍तु उस क्षण उसे इस रूप में देखकर मेरे हृदय में जो धारणा उत्पंन्नव हुई, वह यह थी कि अब भी उसमें वह नया ढंग पहले जैसा बना हुआ है। अब भी उसकी प्रकृति वैसी ही भावुक एवं उमंगपूर्ण बनी हुई है। यदि उसमें कुछ अंतर हुआ है तो सिर्फ इतना ही कि इस समय जिन उमंगों से वह उद्वेलित हो रही है, वे उमंगें उसकी जवानी के दिनों जैसी नहीं हैं। उसके साथ प्रथम साक्षात में मैंने उसके जिस भाव को आत्मह-समर्पण के रूप में, उसकी सुशीलता के रूप में, समझा था- जो वस्तुकत: था भी वैसा ही- वह संयत कान्तिवि‍हीन दृष्टि, वह निस्ते ज वाणी, वह शान्ति, वह सरलता-ये सब अतीत की बातें थीं, जो अतीत अब फिर लौटकर नहीं आ सक ता।
इस समय तो वर्तमान में जो कुछ था, वही व्यीक्तक हो रहा था। मैंने मानसी को सांत्व ना देने की चेष्टाा की, अपने वार्तालाप के विषय को व्याीवहारिक रूप में ले जाने का प्रयत्नं किया। मैं सोचने लगा-अब कुछ ऐसे उपाय करने चाहिए, जो इस समय अनिवार्य हों। पहले हमें यह ठीक-ठाक पता लगाना चाहिए कि बैबूरिन है कहां, उसके बाद बैबूरिन तथा मानसी के भरण-पोषण का उपाय करना चाहिए। इन सब कामों के करने में कुछ कम कठिनाई नहीं मालूम पड़ी, पर रूपया जुटाने की उतनी जरूरत नहीं थी, जितनी काम की, क्योंेकि ऐसे मौकों पर काम दिलाना-जैसा हम सभी जानते हैं -बहुत जटिल समस्या होती है।
मैंने जिस समय मानसी से विदा ली, उस समय मेरे मस्तिष्कब में नाना प्रकार के तर्क-विर्तक भरे हुए थे।
मुझे शीघ्र ही पता चल गया कि बैबूरिन को किले में रखा गया है।
मुकदमे की कार्यवाही शुरू हुई और वह बहुत दिनों तक चलती रही। मैं हर हफ्ते मानसी से कई बार मिला करता था। उसने अपने पति से मिलकर अनेक बार बातचीत की थी। किन्तुह जिस समय इस सारी शोचनीय घटना के संबंध में निर्णय किया जा रहा था, ठीक उसी समय मैं पीटर्सबर्ग में मौजूद न था। किसी आकस्मिक घटना के कारण मुझे मजबूरन दक्षिण रूस की यात्रा करनी पड़ी थी। मुझे मालूम हुआ कि मेरी अनुपस्थिति में बैबूरिन को उस मामले में रिहाई मिल गई थी। उसके विरूद्ध जो कुछ साबित हो सका था, वह बस इतना ही कि नौजवान लोग उसे एक ऐसा व्यरक्ति समझकर, जिसके प्रति किसी को कुछ संदेह नहीं हो सकता, उसके घर पर कभी-कभी सभाएं किया करते थे। यह भी उन सभाओं में उपस्थित होता था। मगर सरकार की आज्ञा से वह साइबेरिया के एक पश्चिम प्रांत में निर्वासित कर दिया गया। मानसी भी उसके साथ चली गई।
साइबेरिया से मानसी ने मुझे लिखा था, ''पैरोमन सेमोनिच नहीं चाहता था कि मैं उसके साथ यहां आऊं, क्यों कि उसके विचारों के अनुसार किसी को अपने व्यक्तित्व का दूसरे के लिए बलिदान नहीं करना चाहिए। हां, अपने उद्देश्ये के लिए बलिदान करना दूसरी बात है, पर मैंने उसे बताया कि इसमें बलिदान की कोई बात नहीं। जब मैंने मास्को में सबसे कहा था कि मैं उसकी पत्नीी बनूंगी, उसी समय मैंने मन में निश्च य कर लिया था कि अब सदा के लिए अविच्छिन्नं भाव से मैं उसकी पत्नीन बनकर रहूंगी। इसलिए यह संबंध हम दोनों के अंत काल तक अटूट रहना चाहिए।''
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Re: स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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1861
इस घटना को बीते बारह साल गुजर गये। रूस का हरेक आदमी जानता है और बराबर याद रखेगा कि सन् 1849 और 1861 के सालों के बीच रूस पर क्याा-क्या बीती। मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत से परिवर्तन हो गये, पर उनके संबंध में अब विशेष कुछ कहने की आवश्यककता नहीं। जीवन में बहुत सी नई बातें और नई चिंताएं आ गई। बैबूरिन ओर उसकी पत्नीछ उस समय मेरे विचार-क्षेत्र से अलग हो गये। बाद में तो मैं उन्हें बिल्कुबल ही भूल गया। फिर भी बहुत दिनों के अंतर पर कभी कभी मेरा मानसी से पत्र व्य वहार हो जाया करता था। कभी-कभी एक-एक वर्ष से भी अधिक समय व्यभतीत हो जाता, और मुझे मानसी या उसके पति का कोई समाचार नहीं मिलता था। मैंने सुना कि 1855 के बाद बैबूरिन को रूस लौटने की इजाजत मिल गई, परन्तुो उसने साइबेरिया के उस छोटे शहर में ही रहना पसंद किया, जहां भाग्यग ने उसे जा पटका था और जिस स्थाबन को उसने अपना घर जैसा बना लिया था, अपने लिए एक आश्रम एवं कार्य-क्षेत्र तैयार कर लिया था, मगर आश्चजर्य की बात तो यह है कि इसके बाद ही सन् 1861 के मार्च में मुझे मानसी का निम्न लिखित पत्र मिला:
''महामान्यी पीटर पेट्राविच, आपको पत्र लिखे इतने अधिक दिन बीत गये। मुझे यह भी विदित नहीं कि आप जीवित भी हैं या नहीं! यदि आप जीवित हों तो क्या आप हम लोगों के अस्तित्व् के बारे में भूल नहीं गये होंगे? पर यह कोई बात नहीं है। आज मैं आपको लिखने से अपने को रोक नहीं सकती। अब तक हम दोनों पति-पत्नीर के बीच सब बातें पहले जैसी चल रही हैं। पैरोमन सेमोनिच और मैं दोनों अपने-अपने स्कूरलों को लेकर संलग्नह रहे हैं। उन स्कूनलों की उन्न ति क्रमश: हो रही है। इसके सिवा पैरामन सेमोनिच पढ़ने-लिखने में तथा अपनी आदत के अनुसार पुराने विचार के लोगों, पादरियों तथा पोलैण्डप के देश-निर्वासितों से वाद-विवाद करने में रत रहा करते हैं। उनका स्वातस्य्भू भी बहुत अच्छाथ रहा है। मेरी तंदुरूस्तीत भी ठीक रही है। किन्तुव कल 19 फरवरी की घोषणा हमें प्राप्तू हुई। पहले ही हमें अफवाहों से यह मालूम हो गया था कि पीटर्सबर्ग में आप लोगों के बीच क्याु हो रहा है। किन्तुी तो भी मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। आप मेरे पति को अच्छीक तरह जानते हैं। दुर्भाग्यीग्रस्ता होने पर भी उनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत वह पहले से भी अधिक बलिष्ठ‍ और फुर्तीले बन गये हैं। उनकी संकल्प -दृढ़ता बहुत बढ़ी-चढ़ी है, परन्तुी इतने पर भी वह अपने को नियन्त्रित नहीं कर सके। उस घोषणा को पढ़ते समय उनके हाथ कांपने लगे। इसके बाद उन्हों ने तीन बार मेरा आलिंगन किया, तीन बार मेरा चुंबन लिया, फिर कुछ कहने की कोशिश की, पर कुछ कह न सके। आखिर फूट-फूट कर रोने लगे। मैं यह सब देखकर चकित हो रही थी। इतने में हठात् चिल्लां उठे,'शाबाश! शाबाश! भगवान् जार की रक्षा करे।' पीटर पेट्रोविच, ये ही उनके शब्दो थे। इसके बाद कहने लगे-'हे ईश्व र! अब अपने इस सेवक को इस जीवन से छुट्टी दे दे।' फिर बोले, ' यह पहला काम है, इसके बाद और भी इसी तरह के कार्य अवश्यब होंगे।' फिर नंगे सिर वह इस महत्व,पूर्ण समाचार को सुनाने के लिए अपने मित्रों के पास दौड़कर गये। उस दिन घोर पाला पड़ा था और बर्फ की आंधी भी आने वाली थी। मैंन उन्हें रोकना चाहा मगर वह मेरी सुनना भी नहीं चाहते थे। जब वह घर लौटकर आये, उनका सारा शरीर, उनके बाल, उनका चेहरा, उनकी दाढ़ी- सब कुछ पाले से ढके हुए थे। उस समय उनकी दाढ़ी छाती तक बढ़ी हुई थी और उनके आंसू गालों पर जम गये थे। किन्तु वह बहुत प्रसन्नी और स्फू़र्तिवान दीख पड़ते थे। उन्होंेने मुझसे घर की बनी हुई शराब की बोतल के लिए कहा और अपने मित्रों के साथ- जो उनके संग आये थे-जार की, समग्र रूस की तथा समस्त स्वेतंत्र रूसवासियों की स्वा स्य्ई कामना करते हुए उसका पान किया। इसके बाद शराब का गिलास लेकर जमीन पर दृष्टि डालते हुए उन्हों ने कहा, 'निकेंडर, निकेंडर (पूनिन)! क्या तुम सुनते हो? रूस में अब गुलाम बिल्कुटल ही नहीं रह गये। मेरे पुराने साथी, कब्र में आनंद मनाओ!' उन्होंकने यह भी कहा कि अब इसमें कोई हेरफेर नहीं हो सकता। यह एक प्रकार का वचनदान है-प्रतिज्ञा है। मुझे उनकी सब बातें याद नहीं हैं, किन्तुक बहुत दिनों के बाद इस अवसर पर मैंने उन्हें इस प्रकार प्रसन्नं देखा है, इसलिए मैंने आज आपको लिखने का निश्चनय किया है, जिससे आप जान जायं कि सुदूर साइबेरिया के वन-प्रान्त में भी हम लोग किस प्रकार आनंद मना रहे हैं, मगन हो रहे हैं और आप भी हम लोगों के इस आनंद में सम्मिलित हो सकें।''
यह चिट्ठी मुझे मार्च के अंत में मिली। मई मास के शुरू में मानसी की एक दूसरी चिट्ठी आई, जो बहुत ही संक्षिप्तर में थी। उसने मुझे सूचित किया था कि उसके पति पैरोमन सेमोनिच बैबूरिन को ठीक उसी दिन, जिस दिन घोषणा पत्र पहुंचा था, सर्दी लग गई और 12 अप्रैल को 67 वर्ष की अवस्थाी में फेंफड़े के संक्रमण से उनकी मृत्युय हो गई! उसने यह भी लिखा था ''जहां मेरे पति की समाधि है, वहीं मैं रहना चाहती हूं क्यों्कि और उनके छोड़े हुए काम को जारी रखना चाहती हूं अपने जीवन के अवसान-काल में उन्होंचने अपनी यही अंतिम इच्छान प्रकट की थी और उनकी इच्छात को पूर्ण करना ही मेरा एकमात्र धर्म है।''
इसके बाद मानसी के संबंध में कोई समाचार मुझे नहीं मिला।
समाप्ता
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