सुदंर नजारा
दो साल हो गए इस शहर में आए। इन सब में पता ही नहीं चला कि मैं कब लखनऊ के रंग में घुल गया। न जाने कब यहां की हवा मुझे बीते दिनों की याद दिलाने लगी। शहर की सभी प्रसिद्ध जगहें देखीं पर इन दो साल में कभी यहां की सुबह नहीं देखी। अक्सर सुबह देर से सोकर उठता था। एक दिन हॉस्टल के बगल वाले रूम में सुबह शोर के चलते मैं जल्दी उठ गया। सोचा पास वाले पत्रकारपुरम चौराहे से चाय का ही आनंद ले लूं।
हल्की सी ओस के बीच लोग दुबके अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे थे। तभी एक तस्वीर धीरे-धीरे बड़ी होती सी नजर आ रही थी। गीले बालों को सुलझाते हुए वह चौराहे की तरफ बढ़ रही थी। नीला कोट, सफेद शर्ट उसपर ब्लू और वाइट टाई। इंटर की स्टूडेंट लग रही थी। बार-बार अपने चेहरे पर आते बालों को हटाते हुए हर बार मेरे दिल पर कोई जादू सा कर रही थी। उसकी जुल्फों में मैं उलझ जाना चाहता था। कम से कम अपने बालों के बहाने मुझे सुलझाती।
सर्दी से नाक जरा लाल हो गई थी। उस लाल रंग से तो जैसे मेरी अलसाई आंखे पूरी तरह खुल चुकी थीं। उसका चेहरा तो जैसे मेरे दिल की हार्डडिस्क में हमेशा के लिए सेव हो गया था। कुछ और भी कहना चाहता था उससे। प्यार तो नहीं हुआ पर हां उसे यह जरूर बताना चाहता था कि जल्दी उठने का मॉर्निग ने बहुत अच्छा प्रजेंट दिया था। इससे पहले कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाता उसकी बस आ गई और वह चल गई। अखों के सामने से वह सुदंर नजारा दूर जा रहा था वहीं मेरे चाय का गिलास भी अब खाली हो चुका था।
मनोज कुमार, गोमतीनगर
सुदंर नजारा
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