दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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Jemsbond
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दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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दुक्खम्‌-सुक्खम्‌
(उपन्यास)
ममता कालिया


उसके जन्म में ऐसी कोई असाधारण बात नहीं थी कि उसका जिक्र इतिहास अथवा समाजविज्ञान की पुस्तकों में पाया जाता। जिस दिन वह पैदा हुई, घर में कोई उत्सव नहीं मना, लड्डू नहीं बँटे, बधावा नहीं बजा। उलटे घर की मनहूसियत ही बढ़ी। दादी ने चूल्हा तक नहीं जलाया। लालटेन की मद्धम रोशनी में सिर पर हाथ रखे वे देर तक तख्तत पर बैठी रहीं। बेटे की बेटी के लिए उनके मन में अस्वीकार का भाव था। जिस कोठरी में वे बैठी थीं, उसकी पिछली दीवार के सहारे गेहूँ और उड़द की बोरियाँ शहतीर तक चिनी रखी थीं और वे सोच रही थीं, एक मुँह लीलने को और बढ़ गया, पहले कौन कम थे। उन्हें बड़े तीखेपन से अपनी तीनों बेटियों का ध्यान आया जिनके रहते वे कभी चैन से बैठ नहीं सकीं। तीनों प्रसूतियों पर उनका दिल किस तरह टूटा, कैसी पराजित हुई थीं वे अपनी सृजनशीलता पर, कैसे उठते-बैठते, ससुराल से लेकर पीहर तक सबने उन्हें ताने मारे थे। लडक़ा था सिर्फ एक और उसके भी हो गयीं दो बेटियाँ।

नहीं, पहली पोती पर वे इस तरह हताश नहीं हुई थीं। शादी के सवा साल बाद जब बहू को अस्पताल ले जाने की नौबत आयी, वे खुशी-खुशी, संग-संग ताँगे पर सवार हो गयीं।

पड़ोस की रामो ने असीस दी, ‘‘जाओ बहू, जल्दी अपने हाथ-पैर से खड़ी वापस लौटो, गोद में कन्हैया खेलें।’’

दादी ने बात काटी, ‘‘कन्हैया हो या राधारानी, री रामो, मेरे बेटे के पहलौठे को टोक न लगा।’’ जब अस्पताल में पाँच दिन की प्रतीक्षा और प्रसव-पीड़ा के पश्चात् वास्तव में राधिकारानी ही गोद में आयी तो दादी ने सबसे पहले रामो को कोसा, ‘‘चलते-चलते टोक लगाई ही। चलो इससे क्या। मेरे बेटे का पहला फल है। अरी ओ भग्गो कहाँ है थरिया, ला नेक गाना-बजाना हो जाए। लच्छमी पधारी हैं।’’

टन टनाटन टन, थाली अस्पताल में ही बजी थी। लीला और भग्गो उस छोटे-से कमरे में मटक-मटककर नाचीं। दादी ने अपनी दानेदार आवाज़ में सोहर गाया, ‘‘बाजो बाजो बधावा आज भई हैं राधारानी।’’ बेबी की छठी पर इक्कीस कटोरदान बाँटे गये थे।

बेबी थी भी बड़ी सुन्दर, गोरी भभूका। किसी दिन अगर काली बोस्की की फ्रॉक उसे पहना दी जाती, झट नज़र लग जाती। शाम तक वह दूध को मुँह न लगाती। तब दादी लोहे की छोटी डिबिया से फिटकरी का एक टुकड़ा निकालकर, जलते कोयले पर रखतीं। फिटकरी पिघलकर मुड़-तुड़ जाती। दादी बतातीं, ‘‘जे देख, है न बिल्कुल रामो की शक्ल, यह उसका सिर, यह धोती का पल्ला और यह उसका हाथ।’’ सबको वाकई फिटकरी में रामो नज़र आने लगती। सब बारी-बारी से उसे चप्पल से पीटते। कभी-कभी तब भी बेबी दूध न पीती। तब दादी पड़छत्ती पर पड़ा लोहे का कंडम चाकू उतारतीं, उसे चूल्हे में तपातीं। जब वह लाल सुर्ख दहकने लगता उसे कटोरी के दूध में थोड़ा-सा छुआ देतीं। चाकू छन्न से बोलता। दादी उँगली से तीन बार दूध के छींटे बाहर को छिडक़तीं। बेबी दूध पीने लगती।

लेकिन इस बार दादी के हौसले टूट चुके थे। उन्हें लग रहा था बहू ने नौ के नौ महीने उन्हें धोखे में रखा। कितनी बार उन्होंने इन्दु से पूछा, ‘‘मोय सच्ची-सच्ची बता दे या दिना तेरा जी मीठा खाय को करे कि नोनो।’’

इन्दु सकुचाती हुई चीनी की ओर इशारा कर देती, हालाँकि उसकी तबीयत हर समय खटमिट्ठी और नमकीन चीज़ों पर मचलती रहती। तमाम सीधेपन के बावजूद इन्दु अपनी ख़ैरियत पहचानती थी। कहीं असली स्वाद वह बता देती तो सास उसे सूखी रोटी को तरसा देती। फिर चटपटी चीज़ें तो उसे हमेशा से पसन्द थीं, शादी से पहले भी।

एकाध बार दादी ने उसका पेट उघाडक़र देखने की कोशिश की पर इन्दु ने शर्म के मारे करवट बदल ली। दादी का यक़ीन था कि नाभि से निकली रोम-रेखा अगर सीधी ढलान उतरती जाए तो बेटा होता है अन्यथा बेटी।

इन्दु की यह छोटी बेटी कोई यों ही नहीं हो गयी थी। ईसाई डॉक्टरनी ने पेट चाक कर उसे गर्भ से निकाला था। हुआ यह कि बच्चा पहले तो ठीक-ठीक उतरता रहा फिर उसका सिर फँस गया। डॉक्टरनी बेहद दक्ष थी। उसने हल्के औज़ारों से शिशु को अन्दर धकेला। बड़ी नर्स ने आनन-फानन, एक कागज़ पर, दादी के अटपटे दस्तख़त लिये और डॉक्टरनी ने ऑपरेशन-थिएटर में इन्दु की नाक पर क्लोरोफॉर्म की काली कीप रख दी। पास में बैठे एक आदमी ने दादी को बताया कि उनसे किस कागज़ पर दस्तख़त लिये गये हैं तो उनका कलेजा हौल गया, ‘‘हाय जो बहू को कुछ हो गया तो सारी दुनिया मोय नाम धरेगी। बंसीवारे राखो लाज, बंसीवारे राखो लाज।’’ जितनी देर ऑपरेशन थिएटर की लाल बत्ती जली रही दादी यही मनाती रहीं, ‘‘हे गोपालजी मेरी बहू की रच्छा करना।’’

दरवाज़ा खुलने पर सहसा अन्दर से बच्चे के रोने की आवाज़ आयी। दादी का दिल दूसरी बार हौल गया। उन्हें लगा यह किसी पुरुष कंठ का रोदन नहीं है। उनका भय सच था। तभी हाथों से दस्ताने उतारती, डॉक्टरनी बाहर आयी और बोली, ‘‘अम्मा मुबारक हो, पोती हुई है।’’

दादी का चेहरा पीला पड़ गया। अब तक ऑपरेशन-थिएटर के दरवाज़े से सटी खड़ी थीं, अब धम्म से बेंच पर बैठ गयीं। उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया, हलक में आँसुओं का नमक महसूस हुआ। उनकी छोटी लडक़ी भगवती साथ आयी थी। वह भी माँ की हालत देख रुआँसी हो गयी जैसे इसमें उसका भी कोई दोष रहा हो। धीरे-धीरे दादी की चेतना लौटी। वे उठकर अस्पताल के फाटक के बाहर निकल आयीं, ताँगा तय किया और भग्गो के साथ वापस मथुरा लौट चलीं। वृन्दावन से इतनी निराश वह पहली बार लौटी थीं।

सतघड़े के उस मकान में अँधेरा तो वैसे ही बहुत रहता था, आज कुछ ज्या दा घना हो गया। लालटेन की रोशनी में भग्गो की लम्बी परछाईं देखकर दादाजी ने डपटा, ‘‘कहाँ ऊँट-सी घूम रही है, बैठ चुपचाप एक कोने में।’’

दादी किचकिचाईं, ‘‘बहू का गुस्सा बेटी पर निकार रहे हो, कौन मेल के बाप हो तुम।’’

लाला नत्थीमल का क्रोध पत्नी की तरफ़ घूम गया, ‘‘तुमने का कम लाइन लगाई थी छोरियों की।’’

‘‘हाँ मैं तो दहेज में लायी थी ये छोरियाँ, तुम्हारी कछू नायँ लगैं।’’

नत्थीमल ने आँखें निकालकर पत्नी को घूरा और फिर खाँसते हुए आढ़त की तरफ़ चल दिये।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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कनाडा के ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित यह मिशन अस्पताल मथुरा और उसके आसपास के इलाकों के लिए वरदान की तरह था। जिन परिवारों में शिक्षा की थोड़ी-बहुत भी पहुँच थी उनकी बीमारी-हारी में यह अस्पताल अनिवार्य था। यहाँ चिकित्सा नि:शुल्क थी। अलबत्ता प्राइवेट कमरे का किराया दो रुपये रोज़ था। बड़ी डॉक्टरनी गोरी-चिट्टी खुशमिजाज़ महिला थी जिसने आते ही अपने मरीज़ों का दिल जीत लिया था। उसे सिर्फ दो कामों से मतलब था, दिन-रात औरतों की चिकित्सा और चर्च में प्रार्थना। जनरल वार्ड के मरीज़ों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, उलटे उन्हें सुबह-शाम खिचड़ी भी बाँटी जाती। प्राइवेट कमरेवालों को सुविधा थी कि वे कमरे में स्टोव रखकर खाना बना लें। यही कारण था कि वृन्दावन जितना बाँकेबिहारी और रंगजी के मन्दिरों से जाना जाता था उतना ही इस मिशन अस्पताल से जाना जाने लगा।

इन्दु को होश बहुत धीरे-धीरे आया। उसने पाया वह लगातार अपने हाथ पटक रही है किन्तु पैर नहीं हिला पा रही। दरअसल जिस नर्स की देखरेख में इन्दु को कमरे में छोड़ा गया था, उसकी ड्यूटी शाम साढ़े सात बजे ख़त्म हो गयी थी और अगली नर्स आकर भी अभी कमरे में आयी नहीं थी। दिनवाली नर्स ने इन्दु की दोनों टाँगों को उसी की धोती से कसकर बाँध दिया था, ताकि हिलने-डुलने से पेट के टाँके टूट न जाएँ अथवा वह नीचे न गिर जाए। इन्दु ने एक नज़र पास में लेटी बच्ची को देखा और समझ गयी कि इस बार भी बेटी ही पैदा हुई है। शरीर के दर्द, टूटन और थकान में उसकी उदासी और रुआँसापन भी शामिल हो गया।

यह रोना केवल बच्ची को लेकर नहीं वरन् अपनी रोज़मर्रा की स्थिति को लेकर अधिक था जो एक और लडक़ी के जन्म से विकटतर होनी अनिवार्य थी। इन्दु की दैनिकचर्या जेल में रहनेवाले क़ैदी की दिनचर्या से भी ज्यामदा कठोर थी। क़ैदी को सिर्फ मशक्‍कत करनी पड़ती है, ख़ुशामद नहीं। इन्दु के लिए मशक्‍कत और मान-मनौवल दोनों निहायत ज़रूरी काम थे। यों तो उसकी दो ननदें ब्याही हुई थीं पर वे आये दिन पीहर में ही दिखती थीं। तीसरी भग्गो उसकी जान की आफ़त थी। तरह-तरह की शरारत, चालाकी कर भाभी के नाम लगाना उसके लिए खिलवाड़ जैसा था। बात-बात पर लडऩे पर आमादा सास और बददिमाग ससुर से उसकी जान काँपती। इस नवजात बच्ची का जनक आगरे में पढ़ रहा था और सिर्फ छुट्टियों में घर आता। दो बच्चों के बावजूद इन्दु को अभी पति के स्वभाव और संघर्ष का ठीक से अनुमान नहीं था। दोनों बच्चे छुट्टियों की पैदावार थे।

इन्दु को तेज़ प्यास के साथ भूख महसूस हुई। कमरा सुनसान था। उसने देखा स्टूल पर रूमाल से ढका आधा कटा पपीता रखा है। इसके अलावा खाने की कोई चीज़ कमरे में नज़र नहीं आयी। बुख़ार लेने आयी नर्स से इन्दु ने मिन्नत की कि उसे एक ग्लास दूध मँगवा दे, उसके परिवार के लोग शायद आ नहीं पाये हैं। पर नियमों का उल्लंघन अस्पताल में अच्छा नहीं समझा जाता था। इसीलिए नर्स ने फ़ौरन मना कर दिया और खटखट सैंडिल खटकाती चली गयी। इन्दु ने पपीते का अद्धा उठा लिया और लेटे-लेटे खा गयी, यहाँ तक कि उसका छिलका भी। उसने बच्ची की ओर देखा जो आँखें मींचे और मुट्ठियाँ भींचे सो रही थी। सलोनी-सी बिटिया थी, गेहुआ रंग, गुलाबी होठ और गुलगुले हाथ-पाँव। ‘हाय यह लडक़ा होती तो मेरे कितने ही दुख दूर हो जाते’, इन्दु के कलेजे से हूक-सी उठी और उसने बच्ची की ओर से मुँह फेर लिया। एक क्षण तो उसका मन हुआ वह बच्ची का गला घोंट दे। पर उसे अपने हाथों की ताक़त पर भरोसा न था। क्लोरोफॉर्म की जड़ता अभी पूरी तरह छँटी नहीं थी। अपना ही बदन दोगला लग रहा था।

चौबीस घंटे बीत गये पर इन्दु की छातियों में दूध न उतरा। डॉक्टरनी ने पम्प से दूध निकालने की कोशिश की तो दूध की जगह ख़ून निकल आया। डॉक्टरनी ने हैरानी और अफ़सोस से कहा, ‘‘कैसी माँ हो, ममता नहीं है बिल्कुल।’’ बच्ची को अस्पताल से दूध दिया जाने लगा।

दसवें दिन सास ने मथुरा से, पड़ोस की रामो को वृन्दावन भेज दिया कि वह बाँकेबिहारीजी के दर्शन कर आये और इन्दु को भी लिवा लाये। पेट के टाँके कट चुके थे। जच्चा-बच्चा के लिए अस्पताल से दवाएँ भी दे दी गयीं। नर्स ने इन्दु के पेट पर कसकर पट्टी बाँध दी कि पेट का घाव हिलने न पाये। ताँगे में जब तीनों मथुरा के लिए चलीं तो इन्दु का कलेजा उदासी, रूठन और आशंका का मनों बोझ लिये हुए था।

वृन्दावन और मथुरा के बीच पक्की सडक़ अभी नहीं बनी थी। बारह मील की दूरी इक्के, ताँगे के बल पर नापी जाती। बीच में एक जगह आम और कदम्ब के पेड़ों की छाया में एक छोटा-सा मन्दिर था जिसमें हनुमान की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। पूरी सडक़ पर यही एक स्थल था जहाँ कुआँ भी था। इस जगह का नाम था लुटेरे हनुमानजी।

प्राय: मन्दिर की दीवार के पीछे चोर उचक्के छिपे रहते। मौका पाते ही वे यात्रियों को डरा-धमकाकर उनका रुपया-रकम, कपड़े-लत्ते छीन लेते। उनके हाथों में लाठियाँ होतीं। वे ज़मीन पर लाठी पटककर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते, ‘‘दे बजरंगबली के नाम पर।’’

यात्रियों की भरसक कोशिश रहती कि लुटेरे हनुमानजी पर न रुकना पड़े। पर रास्ता इतना लम्बा और थकाऊ था कि किसी-न-किसी वजह से वहाँ रुकना पड़ ही जाता। कभी यात्रियों में से किसी को प्यास लग जाती तो कभी घोड़ा प्यासा हो आता।

इन्दु ने पहले ही ताँगेवाले को समझा दिया कि लुटेरे हनुमानजी पर ताँगा कतई न रोके, सीधा-सीधा मथुरा चले। धूप चढ़ रही थी और बच्ची अकुला रही थी। ताँगे के चलने से इन्दु के पेट पर ज़ोर पड़ रहा था। ऊबड़-खाबड़ राह पर धचके खाता हुआ ताँगा चल रहा था। ऊपर से रामो ने एक बार भी बच्ची को हाथ नहीं लगाया, यह बात इन्दु को बहुत अखरी। ख़ुद वह बच्ची के प्रति कितनी भी कठिन हो, दूसरे की रुखाई उसे एकदम नागवार गुज़री। मुँह बिचकाकर उसने सोचा, ‘‘ज़रूर सास ने इसे सिखा-पढ़ाकर भेजा है।’’ रामो उसकी सास से ज़रा ही छोटी थी। वह मुहल्ले भर की मौसी थी। सतघड़े में उसका अपना मकान था जिसकी पाँच कोठरियाँ उसने किराये पर उठा रखी थीं। पन्द्रह रुपये महीने उसे किराया आता। उसके भाई मैनपुरी में तम्बाकू का व्यापार करते थे। रामो का राशनपानी, तम्बाकू डली, सब वहीं से आता। कहते हैं एक बार मथुरा में बड़े ज़ोरों की बाढ़ आयी जिसमें रामो के घर के सातों प्राणी जमनाजी की भेंट चढ़ गये। रामो अपने पीहर मैनपुरी गयी हुई थी सो बच गयी। उस बाढ़ में भीषण तबाही मची। कई-कई दिन तक लाशें ढूँढ़े से नहीं मिलीं। बाढ़ का पानी उतरने पर रामो के घर के सात में से तीन लोगों की क्षत-विक्षत निर्जीव देह मिली। कछुओं ने जगह-जगह से लाशों को बकोट डाला था। रामो के पति लाला गिरधारी प्रसाद की देह नहीं मिली इसलिए बहुत दिनों तक रामो को आस रही कि वे बाढ़ से बचकर अन्यत्र चले गये होंगे। वह माथे पर बड़ी-सी बिन्दी लगाती और रात में भी घर के दरवाज़े की कुंडी नहीं चढ़ाती। उसे लगता लालाजी आएँगे ज़रूर। मुहल्लेवाले उसे पगली समझने लगे। काफी समय बाद लोगों ने उसे अमर सुहागन घोषित कर दिया। रामो अब अपना वक्त समाज-सेवा और चुगलखोरी में बिताती थी। पड़ोसियों को एक-दूसरे से लड़ाना और मुँह में तम्बाकू दबाकर दूर से तमाशा देखना उसका शगल था।

रामो ने बच्ची को नहीं छुआ, इसके पीछे न तो इन्दु की सास का परामर्श, न कोई और प्रपंच था। दरअसल ताँगे में थोड़ी दूर चलने के बाद ही रामो के नले भारी होने लगे। रामो को बहु-मूत्र की शिकायत थी। अभी अस्पताल में वह फ़ारिग हुई थी। अब फिर उसे लग रहा था कि जाना ज़रूरी है। वह अपना ध्यान कभी तम्बाकू में लगाती, कभी इधर-उधर पेड़ों पर कूदते बन्दरों पर लेकिन नले थे कि फूलते ही जा रहे थे। आखिर लुटेरे हनुमानजी तक आते-आते उसकी बर्दाश्त जवाब दे गयी और वह ताँगेवाले से बोली, ‘‘ओ भैया, ताँगा नैक ठाड़ौ कर नहीं मैं अभाल कूद जाऊँगी।’’

ताँगेवाला वहाँ रुकना नहीं चाहता था। बड़े बेमन से, मुँह बनाते हुए वह रुका और बड़बड़ाया, ‘‘जल्दी करो, इत्ती अबेर हो गयी और अभी दो चक्कर भी पूरे नईं हुए। का मैं कमाऊँगौ का खाऊँगौ।’’

रामो मन्दिर की दीवार के पीछे पहुँची ही थी कि अगले ही पल ज़ोर-ज़ोर से लाठियाँ पटकने का शोर और बटमारों की आवाज़ें सुनाई दीं, ‘‘जय बजरंगबली की’’, ‘‘दे बजरंगबली के नाम पे।’’ थोड़ी देर में गिरती-पड़ती, अधखुली धोती में लटपट भागती, सिर के बाल नोचती, रामो भी नज़र आयी।

‘‘लुट गयी, लुट गयी’’ कहते-कहते वह किसी तरह ताँगे में चढ़ी और बैठते ही बेहोश हो गयी। कुएँ से पानी लेकर उसके मुँह पर छींटे मारे गये, पानी पिलाया गया और उसे होश आने पर ताँगा किसी तरह फिर रवाना हुआ।

रास्ते भर रामो अपनी छाती कूट-कूटकर विलाप करती रही, ‘‘हाय मेरी सवा सेर की तगड़ी बटमारों ने छीन ली। अब मैं कौन मुँह से घर जाऊँ?’’

बच्ची भी इस कोहराम में रोने लगी थी। इन्दु से न रहा गया तो उसने कह ही दिया, ‘‘मौसी तुम तगड़ी पहनकर आयी ही कब थीं, मैंने तो देखी नहीं।’’

यह सुनते ही रामो को मिर्चें छिड़ गयीं। उसने इन्दु को खूब जली-कटी सुनाई जिसमें यह भी शामिल था कि अभी तो दो ही हुई हैं, द्वारकाधीश ने चाहा तो याके सात बेटियाँ होंगी और सातों के सात-सात छोरियाँ।

जब वे सतघड़े में उतरीं, रामो ने क्रोध और रुदन से अपनी आँखें लाल कर ली थीं। दादी का मन पहले ही सीठा हो रहा था। गोद में पोता खिलाने के सारे अरमान ध्वस्त हो गये थे। ऊपर से एक कठिन-कठोर भाव उनके भीतर से उगा था कि उन्हें जच्चा-बच्चा की सेवा में चालीस दिन नाचना पड़ेगा। इन्दु का स्वास्थ्य पहले ही तोला-माशा था, अब बड़े ऑपरेशन के बाद की कमज़ोरी। बड़ी पोती बेबी सिर्फ दो साल की थी पर वह भी सारा दिन उन्हें नचाती।

घर में घुसते ही रामो नाक सुडक़-सुडक़कर रोने और सिर कूटने लगी, ‘‘भली गयी मैं तेरी बहू को लिवाने। बटमारों ने मोय लूट लियो रे।’’

दादी और रामो में जमकर लड़ाई हुई। दादी का कहना था लुटेरे हनुमानजी पर वह रुकी क्यों। रामो का कहना था कि उसके नले फट जाते और वह मर जाती तब?

रामो ने और भी ज़ोरों से रोना शुरू कर दिया। उसे इस कदर रोते-बिलखते देख नत्थीमल ने दुकान से निकलकर पूछ ही तो लिया, ‘‘कै छटाँक की थी तगड़ी, बताओ और अपने घर में बैठकर रोओ।’’

रामो ने अपने आँसू पोंछ लिये। उसका चेहरा खिल उठा। बोली, ‘‘पूरी सवा सेर की थी भैयाजी, खालिस चाँदी की।’’

दादी को बेहद गुस्सा आया। तिलमिलाकर बोली, ‘‘देख रामो, मैंने भी सौ बार देखी थी तेरी तगड़ी, तीन पाव से ज्यादा नहीं थी।’’

‘‘तो मैं का झूठ बोल रई हूँ।’’

‘‘तुम तो हो ही झूठी।’’

‘‘तुम झूठी, तुम्हारा खानदान झूठा। सच्ची कहते हैं आजकल नेकी का जमाना नहीं रहा।’’

इन्दु आँगन में पड़े तख्तई पर बच्ची को लेकर बैठ गयी थी। सास ने उसे घुडक़ा, ‘‘चलो अपने कमरा में। अभी तो पैर पड़े हैं, और का-का करावे वाली है जे छोरी।’’

नत्थीमल रामो से बात करने लगे, कौन सुनार ठीक रहेगा, तगड़ी बनी-बनाई अच्छी रहती है या चाँदी लेकर बनवाई जाएगी। बनने के बाद तुलवाने के लिए धरमकाँटे पर बाबा जाएँगे या रामो जाएगी।

रामो की आँखें चमक उठीं। वह अपनी सारी थकान भूल गयी और सरजू सुनार से लेकर काने कारीगर तक की विशेषताओं का बखान कर गयी।

लालाजी ने कहा, ‘‘आज से आठवें रोज़ आकर अपनी तगड़ी ले जाना, बस अब जाओ।’’

पान डली तम्बाकू का अपना बटुआ उठा रामो यह जा और वह जा। दादी के तनबदन में आग लगने लगी। तमककर बोलीं, ‘‘आज तक अपनी लुगाई से कब्भौ नई पूछा तेरे लिये का बनवा दूँ। उस झूठी, मक्कार रामो को तुम गहने गढ़ाओगे। सारी गली तुम पर थू-थू करेगी।’’

‘‘बेवकूफ़ कहीं की। तुम्हारी बहू को लिवा लाने में वह बीच बाज़ार लुट गयी। अब उसकी भरपाई कौन करे?’’
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भगवती, भग्गो ने बताया, ‘‘भाभी अभी हाल सारे घर की पुताई हुई थी। जीजी ने तुम्हारा कमरा ऊपर तीन तिखने पे कर दिया है। तुम्हारे बक्से वहीं धरे हैं।’’

इन्दु के अन्दर गुस्से की लपट उठी। इन्हें मालूम है मैं कच्चा शरीर और नन्हीं जान गोद में लिये लौटूँगी, फिर भी मेरा कमरा बदल दिया।

भग्गो ने बच्ची को थाम लिया। उसकी नन्ही-सी चिबुक पर अपनी उँगली रख वह बोली, ‘‘देख ले, हम तेरी बुआ हैं, अब रोना नहीं।’’

ज़ीने की दीवार में लोहे के कुन्दों के सहारे मोटी रस्सी बँधी हुई थी। उसी रस्सी को पकड़, किसी तरह काँपती, लडख़ड़ाती टाँगों से गिरती-पड़ती, इन्दु अपने कमरे में पहुँची। वहाँ उसकी दो साल की बेटी, बेबी चटाई से लुढक़कर धरती पर सोई हुई थी।

छोटी बेटी ने अपना गिलोट गीला और गन्दा दोनों कर लिया।

‘‘मैं तो भैयाजी से नयी धोती लूँगी’’, कहते हुए भग्गो ने बच्ची को भाभी को थमाया और नीचे चल दी।

कमरे की मोरी पर सिर्फ एक बाल्टी पानी और लोटा रखा था। इन्दु ने बच्ची को साफ़ किया और गन्दा गिलोट गुड़ी-मुड़ी कर खिडक़ी से बाहर फेंक दिया। फिर वह पुराना, नरम कपड़ा ढूँढऩे लगी जिससे बच्ची को गिलोट बाँध सके। बाहर निकला एक भी कपड़ा नरम न था। इन्दु ने असीम थकान से कमरे में तला-ऊपर चिने हुए अपने भारी-भरकम बक्से देखे और पेट पकडक़र रो पड़ी। उसने वैसे ही उघड़ी हुई बच्ची को चटाई पर लिटा दिया और थके हाथों से खाट पर दरी बिछाने लगी।

इन्दु को बहुत तेज़ भूख लगी हुई थी। अस्पताल से वह थोड़ी-सी खिचड़ी खाकर निकली थी। अब दोपहर होने आयी। उसने छज्जे से नीचे की ओर मुँह कर दो-चार बार पुकारा, ‘‘भग्गो बीबी, भग्गो बीबी।’’

कोई जवाब नहीं मिला।

भूख असह्य होने पर वह धीरे-धीरे नीचे उतरी और आँगन से लगी धुँआती रसोई के बाहर बैठ गयी।

दोपहर का चौका लगभग निपट चुका था। लालाजी खाना खाकर दुकान जा चुके थे। दादी और भग्गो अपने-अपने पट्टे पर बैठीं एक ही थाली में खाना खा रही थीं। पास ही उदले में दाल और कूँडी में करेले रखे हुए थे। इन्दु ने अपना सारा आत्मसम्मान दाँव पर लगाकर बड़ी कठिनाई से कहा, ‘‘जीजी मैं भी आ जाऊँ।’’

‘‘डटी रह वहीं, मैं आयी।’’ सास ने उसे रोका। उन्होंने कटोरदान में से सबसे नीचे रखे हुए दो बासी पराठे निकाले, उन पर एक करेला रखा और चौके के बाहर इन्दु को देती हुई बोलीं, ‘‘अब महीना भर लीलने और हगने के सिवा और तुझे का काम है!’’

इन्दु ने सास को कोई जवाब नहीं दिया। ननद की तरफ़ इसरार से बोली, ‘‘भग्गो बीबी, थोड़ी दाल हो तो...’’

भग्गो ने रोटी का कौर मुँह में ठसाठस भरकर गोंगियाते हुए कहा, ‘‘डाल खटम है। हमें का पता था टुम चली आओगी, नहीं पत्तल परोसकर रखते।’’

पैर के तलुवे धूप में बेतरह जल रहे थे। इन्दु हटकर बरामदे में आ गयी। पराठे निगलकर सुराही से पानी पिया और वहीं बैठकर आँचल से गर्दन पोंछने लगी।

भोजन के बाद सास भी चौके से बाहर आ गयी। भग्गो रसोई में पटक-पटककर बर्तन माँज रही थी। इन्दु ने कहा, ‘‘जीजी मेरा कमरा कुछ रोज़ ठहरकर बदलतीं तो अच्छा होता। अभी शरीर में बिल्कुल जान नहीं है ऊपर-नीचे चढऩे की।’’

‘‘और कौन कमरा है इन्दो। नीचे की सब कोठरियों में बोरियाँ चिनी भई हैं। बिचले खन्ने में मर्दों का रहना है।’’

‘‘नीचे एक भी कमरा खाली नहीं है?’’ इन्दु के पूछने में सन्देह शामिल था।

‘‘कमरा तो कोई नायँ। तू कहे तेरी खाट बीच बजरिया लगवाय दूँ।’’

भग्गो राख भरे हाथों से रसोई के दरवाज़े पर आकर बोली, ‘‘हमने तो भली सोच तुम्हारे लिए अटरिया सजाई ही कि पड़ी रहेगी महारानीजी अपनी दोनों राजकुमारियाँ लेके।’’

जितने भी उत्तर इन्दु की ज़ुबान पर आये उसने होंठ दबाकर पीछे धकेल दिये। रहना तो उसे यहीं था।

इन्दु जब फिर ऊपर पहुँची उसने देखा बेबी जाग गयी है और बड़े कौतुक से छोटी बच्ची का एक-एक अंग छू-छूकर देख रही है। माँ को देखते ही चहककर बोली, ‘‘अम्मा देखो, मुन्नी आ गयी।’’

नन्हीं बच्ची का नामकरण हो गया।

बेबी के चेहरे की चमक देखते बन रही थी। वह एक बार मुन्नी को देखती, एक बार माँ को और ताली बजा उठती। फिर वह खम-खम ज़ीने उतर गयी और दादी से लिपटकर बोली, ‘‘दादी अड्डू।’’

दादी ने अपनी लाड़ली पोती को गले लगा लिया। उनकी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। पन्द्रह रोज़ पहले उन्होंने सूजी, गोला, कमरकस, मखाने, सोंठ, गोंद और देसी घी डालकर लड्डू बनाये थे कि बेटेवाली बहू को खिलाऊँगी तो बहू छह रोज़ में खड़ी हो जाएगी। पर बेटी होने से वे खुद ही बैठ गयीं। इस बीच उनमें से ज्या दा लड्डू भग्गो और बेबी के उदर में समा चुके थे।

दादी ने दो लड्डू बेबी को दिये और खुद चरखा चलाने बैठ गयीं।

बेबी लड्डू लेकर फिर ज़ीना चढ़ गयी।

‘‘अम्मा अड्डू खाओ,’’ उसने जबरन इन्दु के मुँह में लड्डू भर दिया। इन्दु को फिर रोना आने लगा।

सास के दुलार और दुत्कार, दोनों का हिसाब न था।

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पत्नी के प्रसव के समय का कुछ मोटा-सा अन्दाज़ कविमोहन को था। वह मथुरा जाना चाहता था। लेकिन मार्च भर उसकी एम.ए. की परीक्षा चली और जब वह फ़ारिग हुआ तो जिन दो ट्यूशनों का काम उसने ले रखा था, उन बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी। अपनी परीक्षा से ज्या दा तैयारी उसे सचिन और विकास के पर्चों के लिए करनी पड़ रही थी। दोनों जगह अलग क़िस्म के दबाव थे। सचिन चमड़े के व्यापारी अंगदप्रसाद का बेटा था। वह नवीं में एक साल फेल हो चुका था। उसके पिता आगरे और दयालबाग के बीच चक्कर लगाते रहते। सचिन को हर किताब एक बोझ और हर परीक्षा जंजाल लगती। वह चाहता था कि पिता के साथ खालों का कारोबार सँभाले। लेकिन अंगदप्रसाद ने कविमोहन से कहा, ‘‘कविबाबू, किसी तरह मेरे लडक़े को बी.ए. करवा दो। हमारे ख़ानदान में कोई भी दसवीं से आगे नहीं पढ़ा।’’

कवि ने कहा, ‘‘पहले यह दसवीं तो पास कर ले।’’

‘‘तुम किसलिए हो। पन्द्रह रुपये कम लगते हैं तो मैं बीस देने को तैयार हूँ पर सचिन इस बार पक्का पास होना चाहिए।’’

कविमोहन उन्हें बताना चाहता कि परीक्षा में तो सचिन का लिखा-पढ़ा ही काम आएगा पर उसके पिता इतना मौक़ा ही न देते।

दूसरी ट्यूशन का विद्यार्थी दिमाग से तेज़ था पर उसमें अनुशासन नाम का तत्त्व नहीं था। कवि उसे जायसी समझाने की कोशिश करता। विकास उसे रोककर कहता, ‘‘मास्साब चलें ‘रतन’ देख आयें, कल उतर जाएगी।’’

विकास को फिल्मों का चस्का था। एक-एक फिल्म वह कई-कई बार देखता। फिल्म का एक-एक दृश्य और गीत उसे कंठस्थ रहता पर जायसी का ‘पद्मावत’ उसे पहाड़ मालूम देता। यही हाल अँग्रेज़ी विषय का था। कविमोहन ने उसे समझाया भी कि वह आसान विषय लेकर फस्र्ट इयर कर ले पर विकास हिन्दी, अँग्रेज़ी के साथ इतिहास लिये हुए था।

कविमोहन की सारी अर्थव्यवस्था इन्हीं दो ट्यूशनों पर टिकी हुई थी। पिता अनेक अहसान जताते हुए किसी तरह उसे पच्चीस रुपये महीना देते। इतनी धनराशि में हॉस्टल में रहना, धुले हुए कपड़े पहनना और दो वक्त खाने का जुगाड़ करना हँसी-खेल नहीं था। ऊपर से कवि को किताबें खरीदने का चस्का था। ऐसे में ट्यूशनों से मिलनेवाले तीस रुपये महीने बहुत अहम थे।

सचिन और विकास की परीक्षा ख़त्म होने में अप्रैल पूरा खप गया। उनसे मुक्त होते ही कविमोहन को इन्दु की याद आयी। पता नहीं पत्नी ने क्या सोचा होगा।

जल्द ही एक दिन कविमोहन ने स्टेशन के पास की दुकान से एक रुपये के दो झबले, आध सेर रेवड़ी और पाव भर दालमोठ खरीदकर मथुरा की गाड़ी पकड़ ली।

गर्मी अभी जानलेवा थी। शाम को भी लू चलती। पसीना-पसीना जब वह घर पहुँचा, दिन झुक आया था। बड़ी बहन लीला अपने चार महीने के बेटे के साथ आयी हुई थी। भग्गो माचिस की डिब्बी में गेहूँ के दाने डालकर, डिब्बी झुनझुने की तरह बजा रही थी। कविमोहन को देखकर खेल छोड़ वह खड़ी हो गयी, ‘‘आहा जीजी, भैयाजी आ गये।’’

इतने दिनों से घर में बेटे की बाट जोही जा रही थी पर उसका मुँह देखते ही माँ पर रुलाई का दौरा पड़ गया। लीला दौडक़र पानी लायी, माँ को जबरन पिलाया। माँ का हाल देखकर यह कहना मुश्किल था कि उनके गीले चेहरे और गर्दन में आँसू और पसीने का अनुपात क्या है। माँ ने अपने सिर पर हाथ मारकर कहा, ‘‘सराफेवालों ने अपनी खोटी चवन्नी हमारे द्वारे डाल दी। दो-दो छोरियाँ जन दी इसने।’’

‘‘अब बस भी करो जीजी।’’ लीला ने समझाया।

कविमोहन ने बहन से पूछा, ‘‘बेबी नहीं दिख रही? क्या सो रही है?’’

‘‘अपनी मैया से लगी बैठी होगी।’’ जीजी ने कहा।

भग्गो कवि का थैला खखोर रही थी। रेवड़ी और दालमोठ के ठोंगे निकालकर उसने खोले फिर नाक सिकोडक़र बोली, ‘‘भैयाजी गजक नायँ लाये।’’

‘‘जल्दी रही याई मारे भूल गयौ। अगली बार सही।’’

भग्गो ने कागज़ के पैकेट से झबले निकाले, ‘‘आहा यह चन्दू के लिए हैं।’’

लीला ने कहा, ‘‘कबी तुझे जरा अकल नहीं है। इत्ते छोटे झबले लायौ है।’’

तब माँ को समझ आयी, झबले किसके लिए आये हैं। माँ बिफर गयी, ‘‘ऐसी बेसरमाई कभी देखी, बाप बनौ घूम रह्यै है। बेटी के लिए कपड़े आ रहे हैं। रहने दे भग्गो, भर दे सब सामान थैला में। जिसके लिए लाया है, वही निकारे।’’

भग्गो बड़े बेमन से रेवड़ी और दालमोठ के ठोंगे भी मोडक़र थैले में रखती कि माँ ने दोनों ठोंगे झपटकर दूसरी तरफ़ रख लिये। भग्गो ने कहा, ‘‘भाभी बिराजी हैं तीन तिखने।’’

कवि का मन हुआ दौड़ता हुआ ऊपर चढ़ जाए पर माँ और बड़ी बहन के सामने हौसला नहीं पड़ा।

‘‘ब्यालू कर ली?’’ माँ ने पूछा।

‘‘नहीं जीजी, तुम्हारे हाथ का कौला का साग और परामठा खाने को तरस गया।’’ कवि ने कहा।

माँ प्रसन्न हो गयीं। आज भी यही ब्यालू बनी थी।

‘‘खाना परस दूँ भैयाजी? भग्गो ने पूछा।

‘‘पहले चाय पिला तो थकाई दूर हो।’’ कवि ने कहा।

समस्या यह थी कि चाय बनाये कौन। घर में चाय कभी-कभी बनती। चूल्हे की आँच में कई बार चाय का पानी धुआँ जाता और अच्छी-भली चाय चौपट हो जाती। कवि की ससुराल से एक छोटा प्राइमस स्टोव आया था पर उसे जलाना सिर्फ इन्दु जानती थी।

तभी ज़ीने में पैरों की आवाज़ हुई। यह इन्दु थी। इन्दु के गोरे मुख पर सौरगृह से निवृत्त होने के बाद की पीली आभा थी जो गुलाबी धोती में छुपाये नहीं छुप रही थी।

जीजी ने कहा, ‘‘इन्दु स्टोप जला के नेक चाय तो बना दे। और देख आधा कटोरा मेरा भी। हाँ, ये रबड़ की स्लीपर बाहर उतार दे। चौके के बाहर चट्टी पड़ी है।’’

सारा काम निपटाकर इन्दु जब ऊपर गयी, कवि पहले ही कमरे में पहुँचकर बेबी-मुन्नी के साथ लेट गया था। उसने सोचा था वह पत्नी से कहेगा कि वह बहुत कमज़ोर हो गयी है पर उसने बेबी की टाँग पर पलस्तर चढ़ा देखा तो गुस्से का गुबार फूट पड़ा, ‘‘इसकी हड्डी कैसे टूट गयी। खुली हवा का तुम्हें इतना शौक है कि तीन तिखने चढक़र बैठी हो।’’

इन्दु हक्का-बक्का। वह समझ गयी कि नीचे काफी लगाई-बुझाई हो चुकी है।

उसने कहा, ‘‘बेबी ज़ीने से नहीं टट्टर से गिरी है। खाट चढ़ाने को जीजी ने खिडक़ा खुलवाया था। बाद में खिडक़ा बन्द करने का किसी को ध्यान नहीं रहा। बेबी शाम को खरबूजे की फाँक खाती-खाती कमरे की तरफ़ आ रही थी कि गिरी धड़ाम से। टाँग की हड्डी टूटी और भौंह के पास कट गया सो अलग।’’

‘‘और ये, इसे क्या हुआ है, शरीर पर मांस नाम को भी नहीं है!’’ उसने मुन्नी की ओर इशारा किया।

‘‘इस बार दूध उतरा ही नहीं,’’ इन्दु ने आँखें झुकाकर जवाब दिया, ‘‘एक लुटिया दूध में दो लुटिया पानी मिलाकर औंटाते हैं, वही खुराक है इसकी। अब तो ज़रा गाढ़ा दूध दो तो उलट देती है। हज़म नहीं होता। या हरे-पीले दस्त शुरू हो जाते हैं।’’

‘‘मैं अभी जाकर जीजी से पूछूँ?’’ कवि ने भडक़कर कहा।

‘‘महाभारत ही मचाओगे न। सास-ननद बर्र के छत्ते-सी पीछे पड़ जाएँगी। तुम तो चार दिन बाद चल दोगे।’’

कवि का मन कसैला हो गया। आधी रात तक इन्दु अपनी बिथा-कथा सुनाती रही : कैसे उसे सारा दिन काम में उलझाया जाता है। जब बच्चे रोते हैं तो बच्चों का ताना दिया जाता है। उसके पास बाल सीधे करने को कंघा तक नहीं है। रोज़ उसे ठंडा, बासी खाना मिलता है। बात-बात में उसके मायकेवालों को ताना दिया जाता है। कवि ने अँधेरे में टटोलकर टीन का अपना नया कंघा निकालकर पत्नी को दिया।

इन्दु की कृशकाया पर हाथ फेरते हुए कवि को लग रहा था उसे अपनी दुनिया बदलने की पहल घर से ही करनी होगी।
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विद्यार्थी जीवन के ग्रहणशील वर्षों में कविमोहन के मन-मस्तिष्क पर दो प्राध्यापकों के विचारों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था। एक थे डॉक्टर राजेन्द्र और दूसरे प्रोफेसर हार्ट। हिन्दी और अँग्रेज़ी साहित्य के ये दो महारथी एक-दूसरे के विलोम भी थे। पढ़ाने के साथ-साथ राजेन्द्रजी ‘मीमांसा’ नाम की लघु पत्रिका निकालते थे जिसमें बड़े-बड़े रचनाकार अपना नाम छपा देखकर गर्व अनुभव करते। खाली समय में कवि आगरा प्रेस जाकर मीमांसा के प्रूफ़ पढ़ता। इससे राजेन्द्रजी की सहायता हो जाती और कवि को दिग्गजों की रचनाएँ पढऩे को मिल जातीं। शायद उनमें कवि पिता-रूप की आदर्श छवि ढूँढ़ता रहता। वे जब हवा में मुट्ठी तानकर कहते, ‘‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’’ पचासों छात्र उनके साथ-साथ जयघोष करते। स्वाधीनता के लिए वे सशस्त्र क्रान्ति ज़रूरी मानते।

प्रोफेसर हार्ट का मानना था कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। वे कहते, ‘‘हर आदमी को बीस साल का होते-होते बीस किताबें चुन लेनी चाहिए जिनके सहारे वह अपना आगामी जीवन बिता ले।’’ वे कहते, ‘‘शेक्सपियर पढ़ो तो तुम पाओगे समस्त जीवन तुम्हारे आगे प्रस्तुत है। कौन-सा ऐसा भाव है जो उसने व्यक्त नहीं किया, प्रेम, पराक्रम, प्रतिशोध की पराकाष्ठा, ईष्र्या, घृणा, पश्चाताप के आरोह-अवरोह, आक्रमण, षड्यन्त्र, दुरभिसन्धि के प्रपंच सब उसके नाटकों में व्यक्त हुए हैं। किताबें जीवन से ज्या-दा सच के निकट होती हैं।’’

निजी जीवन की समस्याओं से घबराकर कविमोहन किताबों की शरण में जाता। प्राय: यह पलायन अमूल्य सिद्ध होता। कभी डन की कोई प्रेम-कविता उसे पुलकित कर जाती। कभी टॉमस हार्डी की हिरोइन की त्रासदी विचलित कर जाती। कवि का अब तक का अध्ययन सुरुचि से संवेदना की यात्रा था। पुस्तकों में रमकर वह भूल जाता कि घर में उसे सडिय़ल स्वभाव पिता और अडिय़ल-प्रकृति माँ से टकराना पड़ता है। कई बार तो यह भी याद न रहता कि अब वह पहले जैसा आज़ाद नहीं है। पत्नी का जीवन उसके साथ अनजाने ही नत्थी हो गया है।

कभी रातों में गर्मी या मच्छर या दोनों के कारण नींद उड़ जाती। ऐसे में अब तक के साल उसकी आँखों के आगे चलचित्र की तरह घूम जाते। जब वह पहले पहल कविता-कहानी रचने की ओर हुआ, उसकी आदत थी, वजीफे के पैसे मिलते ही वह दो रजिस्टर ख़रीदता और उनके ऊपर साफ़ हरूफों में लिख देता—कविमोहन की कविताएँ, कविमोहन की कहानियाँ। पिछले रजिस्टर महीने भर में भर जाते। यों उसके पास अलग कमरा नहीं था पर माँ का कमरा उसे अपनी कृतियाँ सहेजकर रखने के लिए सही जगह लगता। वह सभी रजिस्टर वहाँ एक आले में रख देता। एक बार पिताजी दुकान से उठकर अन्दर आये। उन्हें पुडिय़ा बाँधने के लिए कागज़ कम पड़ रहा था। पुराने अख़बार वैसे ही नहीं बचते थे। सवेरे दुकान खोलने के वक्त ही कल का अख़बार काम में आ जाता। तभी उन्हें माँ के कमरे में आले में रखे रजिस्टर दिखे। वे शिक्षित थे पर दीक्षित नहीं। उन्होंने उलट-पलटकर रजिस्टर देखे। यह तो पता चल गया कि बेटे ने उनमें कुछ लिख रखा है पर क्या लिख रखा है, यह देखने लायक़ धैर्य उनमें नहीं था। ये लम्बी कापियाँ पूरी भरी हुई हैं, बस यह उन्हें दिखा। करीब घंटे भर बाद जब कविमोहन लौटा, आला खाली था। माँ के इशारा करने पर वह सीधे दुकान में पहुँचा। उस समय पिता उसके रजिस्टर के पन्ने फाड़ उनमें जीरे और हल्दी की पुडिय़ा बाँधकर एक ग्राहक को दे रहे थे।

कवि उबल पड़ा, ‘‘दादाजी, जे तुम का कर रए हो। जे मेरी कबिताओं की कापियाँ हैं।’’

‘‘सब भरी भई हैं।’’ पिता ने कहा।

‘‘पर फेंकने के लिए नई हैं,’’ कवि ने उनके घुटने के नीचे से कापियाँ खींच लीं।

पिता ने आग्नेय आँखों से उसे घूरा पर तब तक अगला ग्राहक आ गया था। कवि पैर पटकता हुआ अन्दर चला गया।

रात में दुकान बढ़ाकर जब वे कमरे में हाथ-पैर धोकर आये, पत्नी से बोले, ‘‘जे कबी तुमने बहौत मुँहजोर बनायौ है, इत्ता सिर पर धरना ठीक नईं।’’

पत्नी ने अभी-अभी मुँह में पान का बीड़ा डाला था। वह बोलकर अपना सुख नष्ट नहीं करना चाहती थी।

पिता को तेज़ गुस्सा आया, ‘‘मैं बावला हूँ जो बक रहा हूँ। छोरा कबित्त पे कबित्त लिख-लिखकर कागज़ काले कर रह्यै है, तुम्हें याकी सुध है।’’

‘‘हम्बै।’’

‘‘याई दिना के लिए इसकी पढ़ाई-लिखाई की फीस भरी ही मैंने कि बाप पे अर्रा-अर्रा के चढ़ै!’’

दसवीं में जब कविमोहन का अव्वल दर्जा आया, माँ ने ही उसके आगे पढ़ाने का समर्थन किया था। पिता उसे कॉलेज भेजने के हक़ में क़तई नहीं थे। उनका इरादा था कि दसवीं पास वणिक-पुत्र दुकान में बराबर का हाथ बँटाये। नतीजा निकलने के अगले ही दिन उन्होंने कहा, ‘‘कबी, अब दुकनदारी तुम सँभारौ। हम तो भौत थक गये।’’

कवि की चेतना को भयंकर झटका लगा। सुबह से लेटे-लेटे वह बी.ए., एम.ए. और प्रोफेसरी के सपने ले रहा था। पिता भी कोई अनपढ़ नहीं थे। दसवीं उन्होंने भी पास कर रखी थी। एक पल सन्न, पिता की ओर देख उसने दृढ़ता से कहा, ‘‘दादाजी अभी मैं दुकान पर नहीं बैठूँगा, आगे पढ़ूँगा।’’

‘‘अच्छा, और पढ़ाई का खर्च कौन देगा, तेरा बाप?’’

‘‘अब तक जैसे रो-रोकर आपने मेरी फीस दी, वह मुझे ठीक नहीं लगता। खुशी-खुशी दें तो ठीक वरना मैं खुद कोई इन्तज़ाम कर लूँगा।’’

‘‘ससुरा बाप के आगे पूँछ फटकार रहा है। दसमी पास करके जे हाल है। बी.ए. हो गया तो कौन हाल करेगा। मैं कहे देता हूँ, कोई ज़रूरत नहीं कॉलेज जाने की। बाँट-तराजू सँभारो और होश में रहो।’’

‘‘दादाजी मैंने बूरा तोलने के लिए हाईस्कूल नहीं किया। मुझे आगे पढऩा है।’’

पिता ने उठकर दो धौल उसकी पीठ पर लगा दिये। कविमोहन का पढ़ाई का इरादा और पक्का हो गया।

माँ उसे बचाने लपकी पर कविमोहन बाँह छुड़ाता हुआ ज़ीना चढ़ गया। गुस्से और असन्तोष का गुबार ऊपर के कमरे में जाकर आँसुओं की शक्ल में निकला। उसे लग रहा था पिता के रूप में घर में कोई राक्षस रहता है। एक तो उसकी कविताओं की कापियाँ फाड़ दीं, ऊपर से पीट दिया। उसके जो दोस्त रद्दी नम्बरों से पास हुए, उन्होंने भी घर से मिठाई और शाबाशी पायी। वह प्रथम श्रेणी लाकर भी सराहना से वंचित रहा। मिठाई तो दूर दो बताशे भी नसीब नहीं हुए। माँ पर भी उसे गुस्सा आया। वह क्यों नहीं समझातीं पिताजी को!
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