दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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कवि ने अब तक किताबों में जिस दिल्ली के विषय में पढ़ा था वह पुरानी दिल्ली थी। पुरानी से भी ज्याबदा प्राचीन, मुगलकालीन। नये समय में दिल्ली में इतने मौलिक स्थापत्य, भवन और मार्ग बन गये थे कि अपनी दो आँखों में उसे सँभाल पाना उसे मुश्किल लग रहा था। उसे इतना पता था कि उसके नरोत्तम फूफाजी फतहपुरी में अख़बारों का स्टॉल लगाते थे। स्टेशन पर उतर वह फतहपुरी चल दिया। काफ़ी माथापच्ची के बाद पता चला कि नरोत्तम फूफाजी ने तो कब का यह धन्धा बन्द कर दिया, अब तो उनका लडक़ा लड्डू चौराहे पर मजमा जुटाकर बालजीवन घुट्टी की दवा बेचता है। किसी तरह कविमोहन बुआ के घर तक पहुँचा। बुआ की आँखें मोतियाबिन्द से प्रभावित थीं। वे कवि को पहचान नहीं पायीं। कवि ने आखिरी उपाय आज़माया। उसने बुआ के पास जाकर कान में कहा, ‘‘काना बाती कुर्र।’’

बुआ कवि के बचपन में लौट गयीं जब इन्हीं तरीकों से नन्हे कवि को हँसाया करती थीं। बुआ पहले हँसीं फिर रोयीं और अन्त में कवि को गले लगा लिया।

फूफाजी ने नीचे से लाकर खस्ता कचौड़ी और आलू की रसेदार तरकारी का नाश्ता करवाया और घर के एक-एक सदस्य की कुशल मंगल पूछी।

कवि ने बताया उसे मंगलवार को आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में इंटरव्यू देना है।

‘‘तू इत्तो बड़ौ हौं गयौ कि दूसरों को पढ़ावैगौ,’’ बुआ खुश होकर बोलीं।

दिन भर में कवि ने पाया कि बुआ एक भी मिनट आराम नहीं करतीं। चौके से फ़ारिग होते ही वे खरबूजे के बीज छीलने बैठ जातीं। एक सीले अँगोछे में मोया लगे बीजों को बाँस की छोटी नहन्नी से दबाकर वे गिरी अलग करतीं और एक ही थाली में गिरी और छिलका डालती जातीं। शाम छ: बजे तक यह काम करने के बाद वे उठतीं। फूफाजी थाली फटककर छिलके और गिरी अलग कर लेते और दोनों को अलग पोटली में बाँध देते। कवि का अन्दाज़ा सही था कि यह काम दिहाड़ी का था। फूफाजी देर रात तक प्रूफ़ देखने का काम करते। कवि को लगा इस परिवार में कुल तीन सदस्य हैं, तीनों ने मिलकर घर की अर्थव्यवस्था को साधा हुआ है। सब एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं।

लड्डू देर शाम लौटकर आया। कन्धे पर काले रंग का बड़ा-सा झोला था। उसने झोले में से कत्थई रंग की एक थैली निकाली। सारी रेजगारी गिनने पर

35/- रुपये निकली।

कवि ने कहा, ‘‘कमाई तो अच्छी हुई है पर मेहनत बहुत ज्यासदा है।’’

लड्डू हँसा, ‘‘भैया जोर-जोर से बोलने से गला बैठ गया है।’’

बुआ ने अदरक-तुलसी की चाय बनायी। कवि ने कहा, ‘‘अच्छा-ख़ासा नाम है तुम्हारा विजेन्द्र। यह लड्डू नाम कैसे पड़ गया। क्यों बुआ क्या इसे लड्डू बहुत पसन्द है?’’

बुआ बोलीं, ‘‘अरे नहीं, जब ये पैदा भया घर में यही बात हुई लड्डू बँटने चाहिए छोरा भयौ है। पर इसकी रही तबियत खराब।’’

‘‘पीलिया हो गया था इसे।’’ फूफाजी ने याद किया।

बस इसी परेशानी में आजकल-आजकल होती रही और लड्डू बँटे ही नहीं। घर में सबने कहा, ‘‘यह लड्डू गोपाल सुस्थ हो तो लड्डू बँटें। बस तभी से इसे लड्डू कहने लगे।’’

‘‘पढ़ाई बीच में छोड़ दी क्या?’’ कवि ने लड्डू से पूछा।

लड्डू ने सिर झुका लिया।

फूफाजी बोले, ‘‘पढ़ाई से इसका जी उचाट हो गया। एक बार सातवीं में फेल हो गया था। तभी से इसने ठान ली अब स्कूल नहीं जाना। पूछो इससे कित्ता समझाया।’’

बुआ उसे बचाने लगीं, ‘‘ठीक है वोही किस्सा लेकर न बैठ जाया करो।’’

‘‘ऐसे ही भग्गो की पढ़ाई छूट गयी थी। मैंने फिर से शुरू करवाई है। तू भी लड्डू मिडिल का इम्तहान प्राइवेट दे ले। मैं तैयारी करवा दूँगा।’’ कवि ने कहा।

रात में बारजे पर खड़े होकर देखने पर फतहपुरी की सडक़ चौड़ी लग रही थी जबकि दिन में सँकरी। दिन भर यहाँ से इतने रिक्शे, ताँगे और ठेले, साइकिल गुज़रते। एकदम पास में खारी बावली बाज़ार था, मेवे मसाले का बड़ा व्यापार अड्डा। इसीलिए फतहपुरी के इस मकान में हर समय मसालों की गन्ध आती रहती थी, जैसे मिर्चों की धाँस हवा में समायी हो। लड्डू ने दिखाया, ‘‘यह देखिए सीधी सडक़ यहाँ से लाल किला जाती है। लाल किले से आपको दरियागंज की बस मिल जाएगी।’’

दस बजे तक सब नींद में लुढक़ गये। कवि को देर तक नींद नहीं आयी। मन उद्विग्न था। यह महज़ एक नौकरी का इंटरव्यू नहीं था जिसका सामना उसे करना था। यह एक नयी जीवन-पद्धति का भी घोषणा-पत्र था। उसे लग रहा था, संयुक्त परिवार में यदि सामंजस्य न हो तो वह पागलख़ाना साबित होता है। एकल परिवार की कल्पना से उसे रोमांच हो आया। वह ऐसा घर बनाएगा जहाँ पिता की दाँताकिलकिल का दख़ल न होगा। माँ के लिए उसे लगाव महसूस हो रहा था, उन्हें पास रखकर वह उनका इलाज करवाए, उन्हें आराम दे पर इसमें अभी बहुत वक्त था। पहले नौकरी तो मिले।

कवि को यह सोचकर ग्लानि हो रही थी कि बुआ ने कितने चाव से उसके सारे घरबार की बात की जबकि उसने अपने घर में बुआ का जिक्र आते ही कलह-कोहराम देख रखा था। दादाजी ख़ुद अपनी बहन को पसन्द नहीं करते थे, जिसकी वजह आज तक उसे पता नहीं चली। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उनकी शादी के बाद यह नापसन्दगी और बढ़ गयी थी। दरअसल फूफाजी अपने घर के विद्रोही लडक़े थे जिन्होंने हिंडौन में पत्थर के पुश्तैनी व्यापार से इनकार कर अपने लिए नया रास्ता चुना। वे बनना चाहते थे पत्रकार लेकिन समुचित डिग्री और सम्पर्क न होने की वजह से अख़बारों के हॉकर बनकर रह गये। सुबह चार बजे रोज़ उठकर उस क़ारोबार को भी सँभाल न पाये और अब इधर-उधर के छुट्टा कामों से गुज़ारा चला रहे थे।

यही सब याद करते, न जाने कब कवि की आँख लग गयी।

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सवेरे नौ बजे जब बुआ के हाथों, कविमोहन, दही-बूरा खाकर इंटरव्यू के लिए निकला उसका मन उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ था। दरियागंज में आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज ढूँढऩे में ज़रा भी दिक्‍कत नहीं हुई। इंटरव्यू शुरू होने में अभी दस मिनट शेष थे।

हॉल में ग्यारह उम्मीदवार उपस्थित थे। इनमें कवि के अलावा और दो लडक़े सेंट जॉन्स आगरा के थे। इनमें से नदीम ख़ान से उसका परिचय मात्र था जबकि कुबेरनाथ कुलश्रेष्ठ की गिनती तेजस्वी छात्रों में रही थी। लेकिन चपरासी ने सबसे पहले पुकारा, ‘‘अपूर्व मेहरोत्रा।’’

बेहद स्मार्ट और खूबसूरत यह अभ्यर्थी दिल्ली विश्वविद्यालय का ही था और बाकी लडक़ों से पता चला कि इसकी नियुक्ति की काफ़ी सम्भावना थी। दिल्ली में स्थित कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के पढ़े हुए अभ्यर्थियों को ज्यामदा तरजीह देते थे। ऐसे में आगरा विश्वविद्यालय का नम्बर डाँवाडोल ही लग रहा था।

अपूर्व मेहरोत्रा का साक्षात्कार आधा घंटे चला। जब वह बाहर आया, काफ़ी प्रसन्न लग रहा था। बाकी अभ्यर्थी उसे घेरकर खड़े हो गये, ‘‘क्या पूछा उन्होंने?’’, ‘‘सेलेक्शन बोर्ड में कितने सदस्य हैं?’’, ‘‘कोई खूसट और ख़ब्ती तो नहीं है?’’ जैसे सवाल लडक़े दाग रहे थे और अपूर्व मेहरोत्रा बड़ी खुशमिज़ाजी से जवाब दे रहा था।

अँग्रेज़ी वर्णानुक्रम में कवि का नम्बर जब तक आया, दोपहर के एक बज चुके थे।

क्लर्क ने आकर सूचना दी, ‘‘साहब लोग लंच करनेवाले हैं, दो बजे से इंटरव्यू फिर चलेगा। जाइए, आप सब भी कैंटीन में चाय पी लीजिए।’’

चाय के बहाने चहलक़दमी हो गयी। कॉलेज की बड़ी-सी इमारत, चौड़े गलियारे और लम्बे व्याख्यान-कक्ष देखकर रोमांच हो आया कि अगर हमारा चयन हो गया तो इन्हीं गलियारों से होकर हम व्याख्यान-कक्ष में पहुँचा करेंगे। कवि मन-ही-मन पिछले दिनों का पढ़ा-लिखा घोख रहा था। प्रकट वह नदीम और कुबेर के साथ बैठा हुआ था। नदीम कुबेर से कह रहा था, ‘‘मेरे अब्बा तो दयालबाग में जमे हुए हैं, इसलिए मैं आगरे में पढ़ा, तुम दिल्लीवाले होकर आगरे क्या करने गये थे? यहाँ कहीं दाखिला नहीं मिला क्या?’’

कुबेर ने आँख दबाकर कहा, ‘‘मत पूछो दोस्त। इस बात का एक रोमांटिक इतिहास है।’’

कवि को इस बात से झेंप आ रही थी कि उसके हमउम्र ये सहपाठी अभी अविवाहित थे जबकि वह दो बच्चों का बाप बन बैठा था। परिवार की कचर-पचर में पडक़र वह वक्त से पहले बड़ा हो गया और वक्त से पहले ही बूढ़ा हो जाएगा।

‘‘आगरे के पानी का असर है या ताज के साये का, वहाँ जो भी आता है मजनूँ बनकर आता है।’’

‘‘मेरा मामला ताज के साये का नहीं, मुमताज़ की मुहब्बत का था। उसी के पीछे-पीछे पहुँच गया।’’

एक गहरी नि:श्वास लेकर कविमोहन ने घड़ी देखी। दो बजने ही वाले थे। ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसे पता था इन दोनों का बुलावा उसके बाद आनेवाला था।

सब कुछ प्रत्याशित कहाँ हो पाता है। हम लाख योजना बनाएँ एक एक्स-फैक्टर होता है जो हमारे गणित को ध्वस्त करता चलता है।

जैसे ही कविमोहन ने इंटरव्यू-कक्ष में प्रवेश किया, पैनल के एक सदस्य ने तड़ से उस पर सवाल फेंका, ‘‘मिस्टर कविमोहन वॉट डू यू थिंक इज़ मोर क्रूशल टु इंडिया एज़ ए नेशन, वल्र्ड वॉर टू ऑर फ्रीडम स्ट्रगल? (कविमोहन तुम्हारे विचार से भारतवर्ष के लिए कौन-सा मसला ज्या,दा अहम है, द्वितीय विश्वयुद्ध अथवा स्वाधीनता का संघर्ष।)

ऐसे सवालों का सामना रणनीति से नहीं नीति से करना होता है। उसी के अधीन कवि के मुँह से निकला, ‘‘सर, फ्रीडम स्ट्रगल।’’ (सर, स्वाधीनता संघर्ष)।

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध एक नकारात्मक आन्दोलन है जिससे हमारी गुलामी की जड़ें और मज़बूत होंगी जबकि आज़ादी एक सकारात्मक संघर्ष है।’’

‘‘अगर जनता में संघर्ष चेतना न हो तो आज़ादी का संघर्ष क्या कर लेगा।’’

‘‘अस्तित्व और संघर्ष-चेतना समानान्तर विकास पाते आये हैं।’’

एक सदस्य ने वार्तालाप अँग्रेज़ी साहित्य की तरफ़ मोडऩे का प्रयत्न किया, ‘‘ई. एम. फॉस्र्टर के इस बयान से आप कहाँ तक सहमत हैं कि उपन्यास में पात्र टाइप होते हैं अथवा विशिष्ट।’’

कविमोहन को ई. एम. फॉस्र्टर की पुस्तक ‘एसपेक्ट्स ऑफ़ द नॉवल’ पूरी कंठस्थ थी। उसने चाल्र्स डिकेन्स का हवाला देकर इस टिप्पणी की व्याख्या कर दी।

कवि के उच्चारण, ज्ञान और शब्द भंडार से सभी सदस्य प्रभावित हुए।

एक बुज़ुर्ग सदस्य ने पूछा, ‘‘आप साहित्य के सवालों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु आपको यहाँ बी.ए., बी.कॉम. के विद्यार्थियों को अँग्रेज़ी का सामान्य पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा। आपके अन्दर बहुत जल्द हताशा पैदा हो जाएगी, तब आप क्या करेंगे।’’

‘‘मैंने सोच-समझकर यहाँ के लिए आवेदन किया है। अँग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्रसारित करना भी ज़रूरी काम है।’’

एक सदस्य ने डब्ल्यू. बी. येट्स पर प्रश्न पूछे।

कवि के जवाबों से सभी सदस्य प्रभावित हुए।

बाहर आने पर कवि को बताया गया कि उसका इंटरव्यू पूरे चालीस मिनट चला। नदीम ख़ान ने कहा, ‘‘हमने सोचा तुम अन्दर जाकर सो गये हो।’’

सभी अभ्यर्थियों के इंटरव्यू होने के बाद भी परिणाम घोषित होने में देर थी।

पाँच बजनेवाले थे। उकताकर लडक़ों ने ऑफिस में जाकर पूछा, ‘‘हम रुकें या जाएँ?’’

क्लर्क ने बताया, ‘‘कल फिर आप सबको ग्यारह बजे आना होगा?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इस कॉलेज की यही परम्परा है। यहाँ दो बार इंटरव्यू देना होता है। एक्सपर्टस ने आपको जाँच लिया। अब मैनेजमेंट के लोगों से मिलिएगा।’’

सबका मूड उखड़ गया। इसका मतलब था कॉलेज में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप बहुत ज्यारदा है। दो-एक अभ्यर्थी तो एकदम बिदककर बोले, ‘‘रखना है तो घर पर ख़बर कर दें। हम तो दो-दो बार इंटरव्यू देने से रहे।’’

कवि के पास नखरा दिखाने की गुंजाइश नहीं थी। हाँ, उसे यह ज़रूर लगा कि उसे बुआ की मुश्किल एक दिन के लिए और बढ़ानी पड़ेगी।

दो-दो बार इंटरव्यू का सरंजाम सुनकर फूफाजी को ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘भई यह भी लालाओं का कॉलेज है। यहाँ तो चपरासी भी रक्खा जाता है तो उसे लालाजी के सामने पेश होना पड़ता है। शिक्षक रखने से पहले तो वे दो बार ठोक-बजाकर ज़रूर देखेंगे।’’

कवि ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘अब इस दूसरी इंटरव्यू की क्या तैयारी करनी होगी?’’

‘‘कुछ नहीं, तुम चुप ही रहना। यह जो तुम्हारी जाति है न वही फ़ैसला करवाएगी। आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में वैश्य भाइयों का बोलबाला है।’’

कवि को बड़ा अजीब लगा। मथुरा के चम्पा अग्रवाल कॉलेज में भी उसे यही पता चला था कि उसे नियुक्ति महज़ इसलिए मिली क्योंकि वह अग्रवाल जाति का था। अर्थात वह नियुक्ति उसके अब तक के पढ़े-गुने पर ज़ोरदार तमाचा थी। दिल्ली जैसे बड़े नगर में भी यही तर्क कारगर होगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।

कविमोहन विस्तृत आकाश की तलाश में दिल्ली आया था। उसने चाहा था अपनी योग्यता के बल पर वह एक झटके में न सिर्फ नौकरी वरन् जीवन-शैली बदल डाले। उसे याद आया चम्पा अग्रवाल कॉलेज के इंटरव्यू के वक्त प्रबन्धक भरतियाजी ने कहा था, ‘‘अपने लाला नत्थीमल का छोरा है क्या नाम कविमोहन। भई इससे तो पढ़वाना ही पड़ेगा।’’

चम्पा अग्रवाल कॉलेज के अनेक आन्तरिक पचड़ों के बीच, पुराने अध्यापकों के विवाद और संवाद में कभी उस जैसे रंगरूट की बात शान्ति से सुन ली जाती तो सिर्फ इसलिए कि वह प्रबन्धकजी की नवीनतम पसन्द था। किन्तु इस तथ्य पर इतराने से ज्यालदा वह घबराने लगा था। उसे लगता ज़रूर शहर का पिछड़ापन इस मानसिकता के लिए जिम्मेदार है। कवि के सपनों का भारत जातिवर्ग रहित समतामूलक समाज देखने का आकांक्षी था।
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एक-से-एक शानदार अभ्यर्थियों के बरक्स जब कविमोहन का चयन आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में प्राध्यापक पद के लिए हो गया, कुछ देर तो ख़ुद कवि को भी विश्वास नहीं हुआ। कुल तीन पंक्तियों का नियुक्ति-पत्र था, ‘‘आप कॉलेज में इंग्लिश लेक्चरर की नियुक्ति के योग्य पाये गये हैं। आपका वर्तमान वेतनमान 120-20-240 तथा अनुमन्य भत्ता होगा। आप सोलह जुलाई की पूर्वाह्न आकर कार्यभार ग्रहण करें।’’

कवि ने इन्दु को पुकारा, ‘‘इनी सुनो ज़रा।’’

इन्दु रसोई में थी जहाँ आवाज़ नहीं पहुँची। अलबत्ता बेबी ने आकर कहा, ‘‘पापा ता बात है?’’

उमंग से कवि ने कहा, ‘‘हमारी बिबिया दिल्ली के स्कूल में पढ़ेगी, क्यों बिबिया।’’

बेबी ने मुँह बनाया, ‘‘नईं, दिल्ली गन्दी, बेबी यहाँ पढ़ेगी, यहीं।’’

तभी उसने माँ को दूध का गिलास हाथ में लिये आते देखा और वह बाहर की तरफ़ भागी।

कवि ने इन्दु से नयी नौकरी के बारे में बताया। उसकी निस्तेज आँखें चमकने लगीं, ‘‘हमें भी दिल्ली ले चलोगे न?’’

कवि ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना तो मैं एक दिन भी नहीं रह सकता।’’

तभी जीजी कमरे में आयीं, ‘‘बहू तुझे ज़रा फिकर नहीं है। वो खाने के लिए चौके में कब से आये बैठे हैं और तू यहाँ बातें बना रही है।’’

‘‘आयी’’ कहकर इन्दु बेमन से उठी।

कवि चारपाई पर अधलेटा सोचता रहा, माता-पिता को यह ख़बर कैसे दी जाए।

ख़बर का धमाका बेबी ने ही कर डाला जब शाम चार बजे मलाई बरफ़ बेचनेवाले की आवाज़ पर वह दादी के कन्धे पर झूल गयी, ‘‘दादी बलप थायेंगे, दादी बलप।’’

दादी धोती की खूँट से खोलकर अधन्ना निकालने ही जा रही थी कि लालाजी ने कहा, ‘‘छोरी की नाक बह रही है, बरफ़ खिलाकर इसे बीमार करनौ है का।’’

दादी वहीं रुक गयी। उन्होंने बेबी को फुसलाया, ‘‘बरफ़ गन्दी, बेबी दालसेव खाएगी।’’

बेबी ज़मीन पर बैठकर पैर रगडऩे लगी, ‘‘बरफ़ अच्छी, दादी गन्दी।

दादी ने झूठे गुस्से में उसे थप्पड़ दिखाया, ‘‘जिद्द करेगी तो बायें हाथ का खेंच के दूँगी।’’

बेबी ऊँचे सुर में रोने लगी, ‘‘दादी गन्दी। जाओ तुम्हें हम दिल्ली नईं ले जाएँगे।’’ रोती-रोती वह माँ के पास चली गयी।

विद्यावती के कान खड़े हो गये। दोपहर में बेटे-बहू के बीच खुसपुस हुई बात का ध्यान आया। उसने पति से कहा, ‘‘सुन रहे हो, बेबी का कह रही है। जनै दिल्ली जाय रहे हैं कबी लोग।’’

लालाजी भी धक् से रह गये। हालाँकि उन्हें इतनी ख़बर थी कि कवि ने कई जगह अपनी अर्जी भेज रखी है, इकलौते बेटे के पिता की तरह उन्हें विश्वास था कि खूँटे से बँधे-बँधे बछड़ा थोड़ी उछल-कूद भले कर ले पर खूँटा तुड़ाकर भागने की नौबत नहीं आने की। वे अपना विशाल तिमंजिला मकान देखते, तिज़ोरी में रखे चौड़े-चौड़े नोटों की गड्डियों का ध्यान करते, गृहस्थी में रची-बसी अपनी बहू के हाथ का बना भोजन करते, उन्हें लगता सुखी जीवन की यही तस्वीर है। नौकरी को वे हीनतर काम समझते। उनका ख़याल था दो-चार साल में ही कवि नौकरी से इतना अघा जाएगा कि सूधे रस्ते दुकान सँभालनी शुरू कर देगा।

विद्यावती का उतरा हुआ मुँह देखकर उन्हें अपने अन्दर कुछ पिघलता-सा लगा। उन दोनों के जीवन में कवि और उसका गृहस्थ चौमुख दीये की तरह आलोक भर रहा था, उन्हें इस वक्त एक साथ इसका अहसास हुआ। इसमें अगर बच्चों की पें-पें, मैं-मैं थी तो उनकी किलकारियाँ भी थीं। इनके बिना घर का कोई स्वरूप उनके ज़ेहन में दूर-दूर तक नहीं था।

उन्होंने विद्यावती से कहा, ‘‘तू बैठ चुप्पे से। मैं कबी से बात करूँगौ। बहू पे किल्लाने की ज़रूरत नहीं है समझी।’’

‘‘तुम सोचो, मैं बहू पे किल्लाती रहूँ हूँ।’’ विद्यावती ने दुखी होकर कहा।

‘‘मोय कबी से बात कर लेने दे, मेरे सामने बोले तो जानूँ।’’

‘‘कहीं रात-बिरात बोरिया-बिस्तर बाँध के न चल दें।’’ विद्यावती ने अपना खटका ज़ाहिर किया।

‘‘बावली है का,’’ लालाजी प्रेम से बोले, ‘‘इत्तौ सहज नायँ बाप-महतारी के कलेजे पे, पाँव धर के निकर जाना। मैं सबेरे बात करूँगौ छोरे से।’’

सारी रात माँ-बाप करवटें बदलते रहे। विद्यावती को बड़े अपराध-बोध से वे समस्त घटनाएँ याद आती गयीं जब वे नगण्य बातों पर इन्दु से कलह में पड़ी थीं। लालाजी को भी ग्लानि होती रही कि उन्होंने कभी अपने इकलौते का वैसा लाड़-प्यार नहीं किया जैसा करना चाहिए था; पता नहीं क्यों वे सींग लड़ाने में ज्यावदा भिड़े रहे। फिर भी कवि ने कभी उनसे मुँहजोरी नहीं की। उनकी पसन्द की लडक़ी से ब्याह करवाया, जितनी किफ़ायत या कंजूसी से उसे रखा वैसे रह लिया। उनके साथ के लालाओं के छोरे कैसे छैलचिकनियाँ बनकर घूमने निकलते हैं, चुन्नटदार तनजेब के कुरते पहरते हैं, उन्होंने अपने बेटे को मोटा झोटा जो पहराया, उसने पहरा। बहू भी देखो कैसी आज्ञाकारी है। कभी मुँह खोलकर एक छल्ला तक नहीं माँगा।

ये समस्त स्वप्न केवल रात्रिकालीन चित्रपट थे जो सुबह सवेरे की महाभारत में न सिर्फ विलीन हो गये वरन् क्षत-विक्षत भी हुए जब लालाजी ने चाय के समय कवि से पूछा, ‘‘क्यों लाला, हमने बेबी से सुनी तू दिल्ली-बिल्ली जाये वारा है का।’’

तनावग्रस्त तो कवि था ही। नयी नौकरी जॉयन करने में मात्र तीन दिन बचे थे और यहाँ जाने की सूरत और साइत ही समझ में नहीं आ रही थी।

चाय का प्याला एक तरफ़ सरकाकर वह बोला, ‘‘आपको पता ही है मैं इंटरव्यू देने दिल्ली गया था। वहीं से बुलावा आया है।’’

‘‘हमें तो तूने बतायौ ही नायँ।’’

‘‘अभी कल तो चिट्ठी आयी है। और क्या डुग्गी पिटवाकर बताऊँ।’’

‘‘तू बहू और बच्चन को भी ले जायगौ?’’

कवि चुप रहा। मन में उसने कहा, ‘नहीं उन्हें तुम्हारी चाकरी के लिए छोड़ जाऊँगा, यही न।’

‘‘कित्तौ मिलेगौ?’’

कवि ने बताया।

‘‘जे बता, यहाँ चम्पा अग्रवाल कॉलेज के सवा सौ रुपये तोय काट रहे हैं जो परदेस जाकर टक्कर मारेगौ।’’

‘‘यहाँ के दूने मिलेंगे, फिर ओहदे की भी बात है। वह पक्की नौकरी है।’’

‘‘जे तो सोची तूने जे नहीं सोची, यहाँ मकान, खाना, कपड़ा सब घर की घर में है। दिल्ली में खर्चा सँभलैगा!’’

कवि ने बिना माता-पिता की तरफ़ देखे कहा, ‘‘जहाँ नौकरी हो वहाँ सौ रास्ते निकलते हैं।’’

लाला नत्थीमल को बड़ा तेज़ गुस्सा आया। वे चिल्लाये, ‘‘ससुरा हमारा जाया हमीं से बर्राय रहा है, हमने कह दी हमारी मर्जी के बगैर कहीं जाने की जरूरत नायँ।’’

‘‘मैं तो हामी भर चुका हूँ, तुम्हें जो करना है कर लो,’’ कवि ने अन्तिम फ़ैसला सुना दिया।

अब विद्यावती से नहीं रहा गया। उसने कहा, ‘‘तू बहू और बेबी-मुन्नी को भी लिवा ले जायगौ?’’

‘‘और क्या?’’

दादाजी ने माथे पर हाथ मारकर कहा, ‘‘जन्मी थी औलाद। अबे घनचक्कर। अभी न वहाँ तेरा घर न दुआर, बीवी-बच्चे क्या धरमशाला में रहेंगे?’’

यह तो कवि को सूझा ही न था। अब तक हमेशा अपने घर में रहा या हॉस्टल में। मकान ढूँढऩा उसकी कल्पना में था ही नहीं।

माँ ने कहा, ‘‘मैं तो कहूँ यहीं करता रह नौकरी।’’

‘‘तुम समझती नहीं हो जीजी। ये कच्ची नौकरी है। किसी भी दिन मुझे निकाल बाहर करेंगे ये लोग।’’

‘‘कैसे निकालेंगे, मैं भरतियाजी से बात करूँगा।’’ पिता ने कहा।

‘‘मुझे किसी भरतियाजी और पिताजी की मेहरबानी नहीं चाहिए। मैं वहीं काम करूँगा जहाँ मेरी पढ़ाई-लिखाई की क़द्र हो।’’

‘‘तो कान खोलकर सुन ले। जाना है तो अकेला जा। बहू और बच्चन को हम नायँ भेजने के। महीना-दो महीना रहकर तेल देख, तेल की धार देख। फिर मकान ढूँढ़। इसके बाद भैया ले जा जिसे ले जाना हो।’’

माँ ने धोती की खूँट मुँह में दबाकर बिसूरा, ‘‘पहले मेरा किरियाकरम कर जा लाला बाके बाद जहाँ जाना है जा। छोरियाँ तो सुखी नहीं, छोरा दिल्ली में ठोकरें खायगौ, बंसीवारे हमें उठायलो।’’

‘‘जीजी मेरा कलेजा दरकाओ ना। एक बार घर मिल जाए तो मैं तुम्हें भी ले जाऊँगौ।’’

‘‘यों कह तू अलग संसार बसा रह्यै है। इत्ती बड़ी कोठी में मैं मसान का भूत बन के डोलूँगौ।’’

‘‘भगवती आपके धौरे है।’’

‘‘वह कै दिना की।’’ सहसा नत्थीमल को ध्यान आया। वे बोले, ‘‘च्यों रे कविमोहना तूने एक बार नई पूछी तेरी लीला जीजी का क्या हाल है। मैंने तुझे चिट्ठी लिखी ही, मन्नालालजी घर नायँ लौटे।’’

‘‘मैं तो हरिद्वार, ऋषिकेश, कनखल सारी जगह फिर आया। उनका कोई अता-पता नायँ लगौ। महामंडलेश्वरन से भी पूछी। सबने कही या नाम का कोई जातक आया ही नहीं।’’

‘‘अरे तो बाय धरती लील गयी या आसमान निगल गयौ, पता तो चलै। तेरी बहन दिन-रात कलप रही है।’’

‘‘जब उसका ब्याह आपने जीजा से किया तब आपने किसी से पूछा था। अपनी मर्जी से सब सरंजाम किया। नतीजा सामने देख लिया न।’’

‘‘तेरा मतलब हमीं गधे हैं।’’

‘‘मेरी सारी बहनों के बेमेल ब्याह किये आपने। अपने आगे किसी की चलने ना दी।’’ असह्य आक्रोश से कवि का बदन थरथरा रहा था। विद्यावती सन्न् भाव से पिता-पुत्र का वार्तालाप सुन रही थी। कवि ने गुस्से से कहा, ‘‘ओर सुन लो दादाजी, जैसे ही मुझे घर मिलेगा मैं जीजी के साथ-साथ भग्गो को भी ले जाऊँगौ। पड़े रहना अकेले अपनी तिमंजिली कोठी में।’’

पिता ने लडक़े की तरफ़ से मुँह मोडक़र विद्यावती की तरफ़ कर लिया, ‘‘देख लिया तूने क्या औलाद जनी है। अभी कोई कमाई नहीं है तब तो ये ऐसी पत उतार रहा है। जब इसके पास चार पैसे हो जाएँगे तब देखना। तुझे तो बहू की कहारिन बनाएगा। जाई मारे ले जाने की कह रहा है। इस बत्तमीज पे गुस्सा तो मुझे ऐसी आ रई है कि ससुरे के हाथ में एक दरी-तकिया देकर बाहर कर दूँ, नईं चइये हमें ऐसी औलाद। पर बहू और बच्चों को तो मैं सडक़ पर नहीं खड़ा करूँगौ नहीं तो लोग जगहँसाई करेंगे कि लाला नत्थीमल से अपना कुनबा सँभारा नहीं जा रहौ। जा भइया जहाँ तेरे सींग समाएँ। समझ ले तेरा-मेरा तिनका टूट गयौ।’’

‘‘जीजी सुन लो, बाप होकर ये कैसी-कैसी बोल रहे हैं।’’

विद्यावती हताश स्वर में बोली, ‘‘मोय तो तूने बोलबे काबिल छोड़ाई नायँ कबी।’’

कवि धम्-धम् पैर पटकता ऊपर चला गया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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22

अभी सारी गृहस्थी उठाने की बात इन्दु के मन में नहीं थी। उसने रात में एक ट्रंक में अपने और बच्चों के कुछ कपड़े अचक से जमा लिये थे कि अगर पति अचानक कहें चलो तो हाथ-पैर न फूल जाएँ। कवि की सफेद पैंट और दो कमीज़ें मैली लग रही थीं। कमरे के बाहर पानी की बाल्टी रखकर वह उन्हें धो रही थी। यहाँ बैठकर नीचे की आवाज़ें उसके कानों में पड़ रही थीं और वह मन-ही-मन यही मना रही थी कि चिल्ल-पौं इत्ती न बढ़ जाए कि पड़ोस की तोते अपनी छत पर आकर पूछने लगे, ‘‘भाभी सबेरे-सबेरे मिरचें कूटकर खिला दीं क्या?’’

थोड़ी देर को कवि मूढ़े पर अवसन्न-सा बैठा रहा, दोनों हाथों में अपना सिर थामे।

कपड़े धोना बीच में छोडक़र इन्दु कमरे में आ गयी।

कवि ने थकी आवाज़ में कहा, ‘‘इनी सुनो, कल सुबह की गाड़ी से मैं अकेला जाऊँगा। जॉयन करने के बाद पहला काम मकान ढूँढऩे का करूँगा। तुम हिम्मत और समझदारी से यहाँ रहना। तुमसे दादाजी का कोई बैर नहीं है। शिकायतें तो सारी मुझसे हैं।’’

इन्दु का मुँह उतर गया। नये शहर और जीवन के उसने अनगिनत स्वप्न देख डाले थे। उसे लगा दिल्ली जैसे बड़े शहर में मकान ढूँढऩा असम्भव काम होगा।

कविमोहन ने कहा, ‘‘तुम दिल क्यों छोटा करती हो। मैं अपने साथ काम करनेवालों से कहूँगा, कोई-न-कोई रास्ता निकल ही आएगा।’’

अकेली जान की थोड़ी-सी तैयारी थी। रात में निपटा ली गयी। बक्सा तो वही छोटावाला था, तकिये के साथ दो चादरें लपेट लीं। हाँ, किताबों भरी एक पेटी ज़रूर भारी थी।

अगले रोज़ मुँहअँधेरे उठकर कवि ने अपना सामान नीचे उतारा और दायें कमरे में प्रवेश कर माँ के पैर छुए। माँ ने रुलाई अन्दर भींचकर कहा, ‘‘जा बेटा, राजी-खुशी रहना, बच्चन की फिकर न करना।’’

पिता काफी रात करवटें बदलने के बाद सो पाये थे। लेकिन उनकी आँख खुल गयी।

‘‘कबी तू जा रहा है! चिट्ठी डालियो। और सुन वहाँ पे जो जरा भी फजीहत हो तो वापस आ जइयो। या घर में अच्छा-बुरा सब तेरा ही है भैया।’’

बच्चे अभी सो रहे थे। भगवती की नींद खुल गयी। वह दरवाज़े से लगकर सुबकने लगी।

माँ ने घुडक़ा, ‘‘इसमें रोबे की कौन बात है। छोरा बड़ी नौकरी पर जा रहा है।’’

पिता बोले, ‘‘बेटे आते-जाते रहना।’’

इन्दु से तो रात भर कवि ने विदा-राग सुना था। उसका धीरज रह-रहकर टूटता और आँखों की कोर से झरने लगता। कवि ने कहा भी था, ‘‘मैं तो पहले भी आगरे में था, अब इतनी बेचैन क्यों हो रही हो!’’

इन्दु ने कहा था, ‘‘तब तो तुम्हारी मजबूरी थी।’’

कवि ने ढाँढस बँधाया था। इन्दु ने उससे मनुहार की थी, ‘‘इस बार सलूनो पर हम आगरे जरूर जाएँगे, हमें कोई रोके ना, हाँ नहीं तो।’’

जब ताँगा आ गया और अब्दुल ताँगेवाला सामान उठाकर ताँगे में रखने लगा, कवि ने धीरे से कहा, ‘‘राखी पर ये बच्चों के साथ मायके जाए तो जा लेने देना, जीजी।’’

मन-ही-मन विद्यावती खिंच गयीं। इन्दु के अन्दर ये परिवर्तन उन्हें ग्राह्य नहीं थे। पहले वह पति या श्वसुर से कुछ कहना चाहती तो सास के माध्यम से अपनी बात पहुँचाती। इधर जब से कवि घर में रहने लगा था वह सीधे कवि से या दादाजी से बात कर लेती। उसका सिर पर पल्ला भी अब ऊँचा रहने लगा था। ऊपर से गज़ब यह कि सास से मनवानेवाली बातें वह पति के ज़रिये उनके सामने रखने लगी थी।

आज तो यह दुखी है, कल से इसे ठीक करूँगी, विद्यावती ने तय किया।

इन्दु अपने कमरे की तरफ़ चली तो लाला नत्थीमल ने कहा, ‘‘बहू रात का दूध बचा हो तो मोय चाय पिला दे, नेक सी कुटकन भी देना।’’

भगवती बोली, ‘‘दादाजी मैं बनाऊँ।’’

‘‘चाय तो बस इन्दु जाने है बनानी या फिर कवि।’’

‘‘भैयाजी लाटसाहबों वाली चाय बनाते हैं, मोपै नायँ बने वैसी चाय।’’

इन्दु ने स्टोव जलाकर जल्दी से चाय बनायी और कटोरी में दो मठरी सहित ससुर को दी।

विद्यावती ने करवट पलटकर पूछा, ‘‘मेरे लिए बनायी?’’

‘‘नैक-सा दूध रहा जीजी। अभी दूधवाला आता होगा। ताजे दूध की बना दूँगी।’’ इन्दु ने कहा।

विद्यावती को बुरा लगा। उन्होंने धोती का पल्लू फैलाकर मुँह ढँक लिया और मुँह ढँके-ढँके बोली, ‘‘हाँ अब जीजी की फिकर च्यौं करेगी? जे तो दिल्लीवारी हो गयी ना।’’

‘‘अच्छा अब सब चुप हो जाओ मोय पाँच पन्नों का रट्टा लगाना है। सर ने कहा आज परीक्षा लेंगे।’’ भग्गो ने कहा और लालटेन लेकर बरामदे में पहुँच गयी।

लाला नत्थीमल ने पत्नी से कहा, ‘‘मेरे गिलास से ले-ले चाय।’’ विद्यावती ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका चित्त घर से उचाट अपने कताई-संघ की तरफ़ चला गया। इधर कई महीनों से वह गृहस्थी के खटराग में न चरखा चला सकी, न संघ की किसी बैठक में जा पायी। उसे लगा घर-गृहस्थी उसके लिए जाल भी है और जंजाल भी। इसमें कोई काम कभी सीधे से न होता है, न हुआ। कवि तो सारी जिम्मेदारी उनके मूड़ पर डाल दिल्ली चल दिया। वह बेटियाँ सँभाले या बहू। ऊपर से उसके खुरपेचू लाला। उसने तय किया कि अब से लालाजी के दुकान चले जाने के बाद वह बैठकर चरखा काता करेगी और जब-तब दुपहर में चरखा-समिति का भी चक्कर लगा लिया करेगी। बल्कि वह लीला से कहेगी कि वह भी चरखा-समिति में संग चला करे। उसका मन बहल जाएगा।

मूर्ख नहीं थी विद्यावती। सीमित शिक्षा के बावजूद उसमें सहज व्यावहारिक ज्ञान था कि स्त्री के लिए घर-परिवार एक क़िस्म का आजीवन कारावास होता है। उसने चरखा-समिति की सभाओं में सुना था कि आज़ादी के मतवालों को अँग्रेज़ पुलिस जेल में ठूँसकर उनसे कैसा बर्ताव करती है। सी-क्लास कैदियों को तो भरपेट खाना-लत्ता भी नसीब नहीं होता। ऊपर से उनसे हाड़-तोड़ मशक्‍कत ली जाती है। कोल्हू में बैल की तरह जोत दिया जाता है, रातों में सोने नहीं दिया जाता और अगर वे ज़रा भी प्रतिवाद करें तो उन्हें लात-घूँसों से पीटकर अधमरा कर दिया जाता है। विद्यावती को लगा क्या घर-परिवार में फँसी स्त्री की दशा भी सी-क्लास क़ैदी जैसी नहीं है! आज़ादी के मतवालों का तो नाम-गाम जेल के इतिहास में लिखा मिल जाएगा। औरतों का तो नाम-निशान न मिले। ज्याैदा-से-ज्यावदा कुछ दिन यही चर्चा रहेगी कि फलाने की औरत चूल्हे की आग से भुरसकर मर गयी, ढिकाने की माँ का पैर जमुनाजी में रपट गयौ, तुमुक को कंठमाला हो गयी रही और अमुक को बीच बाज़ार साँड़ ने सींग मार दिया।

सोचते-सोचते मन भरभरा गया। इसी गृहस्थी में बामशक्कत क़ैद, डंडा बेड़ी, तनहाई जाने कौन-कौन सजा काट ली। अब हिम्मत बाकी नहीं। बस भगवती का ब्याह हो जाए तो नैया पार लगे।

ज़रूर विद्यावती की आँख लग गयी होगी। अचानक बादलों की गडग़ड़ाहट और मोरों की आवाज़ से वह जाग गयी। इन्दु आवाज़ लगाती रह गयी, ‘‘जीजी चाय उबल रही है, पीकर जाओ।’’

विद्यावती दानों की पोटली बगल में दबा, छड़ी के सहारे छत की सीढिय़ाँ चढ़ गयीं। सौंताल से उडक़र आये मोर मुँडेर पर बैठे सावन को न्यौत रहे थे : ‘मेह आओ, मेह आओ।’ इनमें बड़ेवाला मोर विद्यावती से इतना हिला हुआ था कि उनके हाथ से चुग्गा लेकर चुगता।

थोड़ी देर में बारिश की बूँदें पडऩे लगीं। विद्यावती का हृदय आह्लालाद से भर गया। हालाँकि मोर नाच नहीं रहा था, विद्यावती का मन-मोर नाच उठा। मन में मंसूबे बनाने लगी। सावन लगते ही घर-घर में झूला डल जाएगा। इस बार सबको बुलाऊँगी लीला, कुन्ती। भग्गो तो घर में है ही। कुन्ती को सावन के गीत बहुत आते हैं। ‘शिवशंकर चले कैलाश, बुँदियाँ पडऩे लगीं’ गीत तो वह इतना अच्छा गाती है और वह वाला भी ‘झूला झूले रे कदम तले, राधे भीगे संग नन्दलाल।’ उसके सहारे सारी जनी गा उठती हैं। इस बार मेंहदी भी लगायी जाए। बेबी-मुन्नी तो निचावली बैठती नहीं, उनके मेंहदी लगाकर मुट्ठी पर कपड़ा बाँध देंगे। जब हाथ रच जाएँगे तब कैसी खुश होंगी। शाम को ताँगा कर मन्दिरों की झाँकी देखी जाए। आजकल रोज़ नयी घटा सजाते होंगे, कभी नीली, कभी हरी, कभी गुलाबी। कहीं फूलडोल सजे होंगे। फूलडोल से वृन्दावन के बाँकेबिहारीजी का मन्दिर याद आ गया। विद्यावती ने कुल जमा तीन-चार बार देखा होगा पर बाँकेबिहारी मन्दिर की छवि उनके मन में बसी थी। मन्दिर की भक्तिनें सवेरे चार बजे जाग, बेले की कलियाँ तोडक़र, उनके गहने बनातीं। राधाकृष्ण का कुल सिंगार बेले की कलियों से होता, मोर मुकुट, झालर, शीषफूल, बेणी, कँगना, बाजूबन्द, पहुँची, तगड़ी, बैजन्तीमाल, यहाँ तक कि ठाकुरजी की मुरली पर भी बेले के हार लपेटे होते। कैसी भीनी महक आती मन्दिर भर में।

यादें ही तो हैं। आगे-पीछे होती रहती हैं। बड़े आवेग से वह धुँधली छवि विद्यावती की स्मृति में कौंध गयी जब वह छह साल की थी और उसका दूल्हा मुरारी पाँच साल का। दोनों को वृन्दावन राधा-मोहन का सिंगार बनाकर लाया गया था। तब उसका पैर एकदम ठीक था। मुरारी था तो पाँच का लेकिन विद्या से लम्बा था। देखने में भी बड़ा लगता था। पीताम्बर में साक्षात् कन्हैया जँच रहा था। मन्दिर में दोनों को जब राधा-गोविन्द की तरह खड़ा कर दिया गया, कितने ही भक्तों ने उन्हें चढ़ावा चढ़ाया। मुरारी ने कहा, ‘‘अम्मा मेरे तो पैर पिरा गये खड़े-खड़े।’’ तब उन दोनों को गोद में लेकर अम्मा और बाबा बाहर आ गये।

अपने पहले पति की बस इतनी-सी स्मृति बनी रही विद्यावती को। बाद का तो इतना याद है कि एक दिन बाबू दुकान से घर लौटे तो उनका मुँह उतरा हुआ था। उन्होंने अम्मा को बताया कि मुरारी तो हैजा से चल बसे। अम्मा सिर पर हाथ मार रोने लगी, ‘‘अरे मेरी छोरी का अभी गौना भी नहीं हुआ, कैसे उसे विधवा मानूँ।’’

पास-पड़ोस में ख़बर फैलते देर न लगी। रिश्ते की चाचियों ने उसे जबरन सफेद फ्रॉक पहना दी और समझा दिया, ‘‘देख लाली, अब तुझे घर में रहना है, छोरों से बात नईं करनी और निर्जला एकासी पर पानी नहीं छूना।’’

बाबू ने विरोध किया था, ‘‘भाभी, यह अयानी छोरी क्या समझे अमावस और एकासी।’’

चाचियों ने तर्जनी दिखाकर बरज दिया, ‘‘हम समझाएँगी नेमधरम।’’ सिर्फ विद्यावती के कल्याण के लिए उसके पिता गौरीशंकर सनातन धर्म से आर्यसमाज में आये जहाँ उन्हें लाला नत्थीमल में सुपात्र नज़र आया। जिस समय विद्यावती का पुनर्विवाह हुआ, उसकी उम्र केवल 14 साल थी।

जिस साल ब्याह हुआ उसी साल की दिवाली की बात है। विद्यावती के पैर में लोहे की ज़ंग लगी कील चुभ गयी। बहुतेरी मल्हम, पुल्टिस लगायी, कील मिली ही नहीं। गयी तो कहाँ गयी। पैर में दर्द इतना कि धरती पर धरा न जाए। तीसरे दिन पैर सूज गया। डॉक्टर ने बदल-बदलकर दवा दी। कोई असर नहीं हुआ। लीला उन दिनों पेट में थी। नत्थीमल इतने घबरा गये कि विद्यावती को मायके छोड़ आये। वहाँ भी जर्राह वैद्य सबने देखा, रोग किसी को समझ न आया। अलीगढ़ के अस्पताल में बाबू ने एक्सरे करवाया, कील पंजे में एड़ी की तरफ फँसी थी। ऑपरेशन से कील निकल गयी पर पैर में हमेशा के लिए कज आ गया। बायाँ पैर कुछ छोटा और कमज़ोर हो गया।

विद्यावती प्रसव के बाद सवा माह की बच्ची को लेकर पति-गृह आयी उसे नये सिरे से अपनी बदली हुई काया को स्वीकार करना पड़ा। नत्थीमल तीर की तरह लम्बे, पतले और वेगवान थे। पैदल चलते तो पीछे मुडक़र न देखते कि संग चलनेवला साथ है या पिछड़ रहा है। गेहुँआ रंग, तीखे नैन-नक्श, सुन्दर नाक और आँखें ऐसी तेज़ कि जिस पर नज़र पड़े उसे बेधकर रख दें। नत्थीमल ने पत्नी की देह-विषमता को गहरी चिढ़ और अस्वीकार से जीवन में प्रवेश दिया। उन्होंने आर्यसमाजी सुधारवाद की झोंक में पुनर्विवाह के लिए बाल-विधवा विद्यावती को चुना था तो सिर्फ इसलिए कि उनसे दस साल छोटी लडक़ी भाग-दौडक़र घर-गृहस्थी के काम सँवारकर अपने को धन्य समझेगी। सभी वणिक-पुत्रों की भाँति उनका गणित भी यही था, पैसा कमाने और खर्च करने का अधिकार उनका है, मेहनत, बचत और किफ़ायत का कर्तव्य उनकी पत्नी का है। विद्यावती ने एक बार दबी ज़ुबान में पति से कहा, ‘‘कहो तो बर्तन माँजने के लिए महरी रख लूँ, तीन रुपये महीने पर राजी हो जाएगी।’’

नत्थीमल ने त्यौरी चढ़ाकर कहा, ‘‘फिर तुम क्या करोगी सारा दिन?’’

‘‘लीला छोटी है और मुझे फिर दिन चढ़े हैं, ऐसौ लगे है। नल के पास घुटने मोडक़र बैठनौ भारी पड़ जाय है।’’

‘‘चाहे जैसे बैठकर माँज, माँजने तो तुझे ही हैं, मायके की लाटसाहबी यहाँ नहीं चलेगी।’’

बेटे के चक्कर में बेटियाँ पैदा होती गयीं इसे भी नत्थीमल विद्यावती का दोष मानते रहे।

नत्थीमल का गणित माना होता तो कविमोहन पैदा ही न होता। लीला, कुन्ती के बाद जब विद्यावती को दिन चढ़े किसी ने लाला नत्थीमल को सुझाया कि जब लड़कियाँ पैदा होती हैं तो तला-ऊपर तीन तो ज़रूर ही होती हैं। उस दिन नत्थीमल ने दुकान से लौटकर एक पुडिय़ा विद्यावती को दी।

‘‘जे का है?’’ विद्यावती ने पूछा।

‘‘कुनैन है। दिन में तीन बार फंकी लगाकर पानी पी ले। पेट की सफाई हो जाएगी।’’

विद्यावती को बहुत बुरा लगा। ये बाप है या कंस। फिर इस बार उसे सारे लक्षण बदले हुए लग रहे थे। उसने पुडिय़ा लेकर धोती की खूँट में बाँध ली और कहा, ‘‘अभी मोय प्यास नायँ। पानी पिऊँगी तब फंकी ले लूँगी।’’

इधर नत्थीमल की आँख बची उधर उसने खूँट से खोलकर आँगन की मोरी पर कुनैन झाडक़र बहा दी। हफ्ते भर यह सिलसिला चला। विद्यावती का पेट तो नहीं, आँगन की मोरी ज़रूर सफाचट हो गयी। जाने कब कब की इल्ली-गिल्ली सब मरमरा गयीं और मोरी से फल-फल पानी निकलने लगा। नत्थीमल ने अगले महीने पत्नी के फूलते पेट को देख हताशा से हाथ मले, ‘‘शर्तिया खंखा आनेवाली है। इत्ती कुनैन पी गयी और जीती रह गयी।’’

समस्त भय, आशंका और तनाव को निर्मूल कर जब कविमोहन प्रकट हुआ नत्थीमल खुशी से नाच उठे। सलोनी सूरतवाला शिशु साक्षात् मृत्युंजय था। नत्थीमल को कोई अपराध-बोध नहीं हुआ कि इस गर्भ को मिटाने के लिए उन्होंने कैसे-कैसे जतन किये। सभी मथुरावालों की तरह उन्होंने इसे श्यामसुन्दर की इच्छा कह अपने को क्षोभ-मुक्त कर लिया। चौथी सन्तान भगवती, कवि के आठ साल बाद बस ऐसे ही लड़ते-झगड़ते दाम्पत्य के बीच क्षणिक युद्धबन्दी के दौरान जीवन पा गयी।

छोटे बच्चों को सँभालना विद्यावती के लिए अकेले हाथ आसान काम नहीं था, ख़ासकर बायें पैर की कमज़ोरी के कारण। इसीलिए उसे आदत पड़ गयी थी हर समय टोका-टाकी और क्षेपक जड़ देने की। वह एक बार चौके में बैठ जाती, फिर उठ-उठकर कोई चीज़ उठाना, सँभालना उसके बस की बात नहीं थी। वह लड़कियों को बार-बार कोंचती, ‘‘लीली नेक लोटे में पानी दे दे। कुन्ती, हींग की डिबिया कहाँ हेराय गयी, ढूँढ़। अरे लीली, लल्ला को सँभार गिर जाएगौ।’’

पढऩे की कौन कहे, दोनों बहनों का खेलना तक दूभर रहता। जैसे ही वे गली में अक्कड़-बक्कड़ खेलने जाने को पैर बाहर धरतीं, विद्यावती पीछे से कहती, ‘‘अपने भइया को भी नैक घुमाय लाओ दोनों जनी।’’

गोलमटोल और भारी था कवि। उसे लेकर ज्याेदा दूर चलना उनके लिए मुश्किल था। वे वहीं किसी मन्दिर के चौंतरे पर उसे बिठा देतीं और गिट्टे खेलने लगतीं।

लीला और कुन्ती की किताबों से विद्यावती ने अपना बिसरा हुआ अक्षर-ज्ञान ताज़ा कर लिया। फिर तो उसे स्कूल की पढ़ाई में इतना रस मिलने लगा कि लड़कियों से भी पहले पाठ उसे याद हो जाता। लीला कहती, ‘‘रट्टा तो कोई भी लगा ले। इमला लिखकर दिखाओ तो जानें।’’

विद्यावती चौके में, चूल्हे से कोयला निकाल, पानी में छन्न से ठंडा करती और वहीं धरती के पत्थर पर या दीवार पर लिखना शुरू कर देती। वह सुन्दर अक्षर बनाती और उन्हें थोड़ा-सा मोड़ देती। लीला-कुन्ती हाथ जोड़ देतीं, ‘‘बस-बस उस्तानीजी, अब हमें तो पढ़ाओ ना।’’

इस दीवाल-लेखन पर पूर्णविराम लग गया जब एक दिन नत्थीमल ने कोयले से चिथी हुई दीवालें देखकर पूछा, ‘‘च्यों री लीली, तेरे पास पट्टी नहीं है या स्लेट टूट गयी जो मार दीवालें रंग डारी हैं।’’

लीला फिक् से हँस पड़ी, ‘‘जीजी से पूछो, कोऊ का काम है जे।’’

कुन्ती ने बताया, जीजी हमसे बढिय़ा लिखना जानती हैं।

नत्थीमल ने त्योरी डालकर कहा, ‘‘मार दीवालें पोत मारीं, जे नहीं सोचा कि दीवाली के पहले सफेदी कैसे होगी?’’

विद्यावती ने कहा, ‘‘चूना हो तो मैं ही ठीक कर दूँगी। एक पट्टी मुझे भी ला दो।’’

बदामी रंग की लकड़ी की पट्टी आ गयी। उसे पोतकर तैयार करने के लिए लीला-कुन्ती के पास मुलतानी मिट्टी थी ही। वे दो की जगह तीनों पट्टी पोतकर सूखने रख देतीं। कभी जल्दी होती तो मुड्ढ पर से पकड़ तख्ती झुलातीं और गातीं—

‘‘सूख सूख पट्टी चन्दन बट्टी, कट्टी तो कट्टी

ला तू मेरा पैसा

जा तू अपने घर को।’’

बच्चे बड़े हो गये लाला नत्थीमल का स्वभाव न बदला। लेकिन अब उनके बर्ताव से उतनी चोट नहीं लगती। विद्यावती ने अपनी दुनिया में मगन रहना सीख लिया था। बच्चों के हँसने-खेलने, पढऩे और मचलने के साथ, एक अलग संसार था। फिर मथुरा के मोहल्लों का रागरंग भी ऐसा था कि कोई भी ज्या-दा देर लसौढ़े-सा मुँह बनाकर रह नहीं सकता। अचानक लहर उठती, चलो आज सब लोग चलें रामलीला देखें, चलो आज परकम्मा लगा आयँ। आज तो सारी लुगाइयाँ हरी चूडिय़ाँ पहनने जाएँगी। आज अन्नकूट है आज सारी तरकारियाँ मिलाकर अन्नकूट का परसाद बनेगा। आज बसौढ़ा मनाया जाएगा। कोई आज चूल्हा न बाले। हर दिन किसी-न-किसी वजह से ख़ास दिन होता और पर्व की तरह मनाया जाता। बच्चे भी पोथी-बस्ते से छुटकारा पाते ही स्वाँग और मेले की रौनक में रम जाते।

मथुरा के निवासियों में उत्सवधर्मिता कूट-कूटकर भरी थी। वे अपने जीवन की समस्त तकलीफ़ें, तनाव और तडफ़ड़ाहट को इसी तरह जीतते। इस तरह यह आमोद-प्रमोद उनके जीवन का रास भी था और संन्यास भी। मनोरंजन था तो पलायन भी। कृष्ण कथाएँ उन्हें जीने का साहस देतीं। निरक्षर जनता भी कथावाचन का श्रवण कर अपने आपको शिक्षित अनुभव करती।

बाकी कमी महात्मा गाँधी की सर्वहारा छवि ने पूरी कर दी थी। उनकी रूखी-सूखी कृश काया से मथुरावासी उन्हें अपने जैसा एक व्यक्ति मानते जिसने अपनी खरी बात से सबको क़ायल किया और भय-मुक्त जीवन जीने का मार्ग दिखाया। साधारण-जन इस वक्त आज़ादी के लिए सन्नद्ध था और कटिबद्ध। गाँधीजी में उसे तमसो मा ज्योतिर्गमय साकार दिखा था।
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दिल्ली के घर भी क्या घर। कोठरियाँ बनाम कमरे और कमरे बनाम बरामदे। एक तरफ़ दीवार में जड़ी हुई आलमारियाँ, दूसरी तरफ़ सडक़ की ओर खुलनेवाली कतारबद्ध खिड़कियाँ। खिड़कियों की नीचाई और सडक़ पर चलते आदमियों की ऊँचाई में अद्भुत तालमेल, कुछ ऐसा कि बेसाख्ता अन्दरवालों की आँख बाहर और बाहरवालों की आँख अन्दर टिकी रहे। न न पर्दे कैसे लगाए जा सकते हैं, घर में हवा का एकमात्र रास्ता हैं ये खिड़कियाँ, हवा और मनोरंजन का। जिन्होंने पर्दे लगा रखे हैं, वे भी सरके ही रहते हैं। भला हो विद्युत-व्यवस्था का, खिडक़ी-दरवाज़े, दिन-रात खुले रखने पड़ते हैं, चोरी और गर्मी, इन दोनों आशंकाओं की भिड़न्त में गर्मी हर बार जीतती है।

दिल्ली—एक नगर। नगर में कितने नगर—रूपनगर, कमलानगर, प्रेमनगर, शक्तिनगर, मौरिसनगर, किदवईनगर, विनयनगर, सन्तनगर, देवनगर, लक्ष्मीबाई नगर। मज़ा यह कि कोई चाहे कितनी भी दूर रहता हो, बसों में धक्के-मुक्के खाता अपने दफ्तर पहुँचता हो, उसे मुग़ालता यही रहता है कि वह दिल्ली में रहता है। जब गाँव-कस्बे से उसके रिश्तेदार मेहमान बनकर आते हैं वह उन्हें प्रदर्शनी दिखाता है, लाल किला और बुद्धजयन्ती पार्क घुमाता है, और एक के बाद एक टूटते दस-दस के नोट देखते हुए दिन गिनता है कि मेहमान कब जाएँ और वह वापस अपनी पटरी पर फिर बैठ जाए—दफ्तर से घर, घर से दफ्तर। सच पूछो तो दिल्ली का मतलब है दस-पाँच नेताओं की दिल्ली। दिल्ली की असली मलाई बस वही चाट रहे हैं, बाकी सारे घास काट रहे हैं।

कवि ने अपने इकलौते कमरे का इकलौता दरवाज़ा बन्द किया और ताला डालने की रस्म पूरी की। यह ताला किसी भी चाभी से खोला जा सकता है। है तो किसी उम्दा कम्पनी का पर जब से कवि ने होश सँभाला इसे घर में इस्तेमाल होते देखा। घिस-घिसकर चिकना लोहे का बट्टा जैसा हो गया है। जीजी ने यह ताला और इस जैसी कई कंडम चीज़ें उसे भेंट कर दीं जब वह मथुरा से चला। ताला बदलने का इरादा रोज़ करता है कवि, पर ताला ख़रीदने की बात उसे हास्यास्पद लगती है। पहले उसे कुछ ऐसा सामान ख़रीदना होगा जो ताले का औचित्य साबित कर सके।

कवि रोज़ रात दस बजे के बाद घर लौटता है। तब वह इतना थका होता है कि कई बार बिना कपड़े बदले, बिना चादर झाड़े, बिना बत्ती बुझाए तुरन्त सो जाता है। कमरे की बदरंग दीवारें, घिसी चादर, तिडक़े प्लेट-प्याले और टूटा स्टोव उसे सिर्फ तब नज़र आते हैं जब कोई दोस्त अचानक छुट्टी के रोज़ चला आता है। काम के बाद वह कॉफ़ी-हाउस चला जाता है। वहाँ शोर का एक अंश बनना उसे अच्छा लगता है, सिगरेट पीना भी और कभी-कभार कॉफ़ी। इन तीनों चीज़ों की तासीर ऐसी है कि इनके रहते भूख महसूस नहीं होती, न अकेलापन, न उदासी।

वह इन तीनों में से दो से हमेशा घबराता आया है। वह न अकेलापन बर्दाश्त कर सकता है न उदासी। कई बार सुबह चार-पाँच बजे के बीच मकान-मालकिन की नवजात लडक़ी के रोने से उसकी नींद टूटी है और फिर देर तक उसे नींद नहीं आयी है। अपनी बेबी-मुन्नी याद आने लगी हैं। कवि अपने आसपास के घरों की प्रारम्भिक आवाज़ें सुनता है—दूधवालों की साइकिलों की खडख़ड़ाहट, महरियों की खटखट, किसी-न-किसी घर या मन्दिर से अखंडपाठ की रटंत, बूढ़ों के गलों की खर्राहट। हर आवाज़ के साथ आराम एक असम्भव प्रक्रिया बन जाता। कहीं पड़ोस की युवा गृहणी का बिन्दी पुँछा चेहरा दिख जाता तो गज़ब अकेलापन, उदासी और सन्त्रास उसे दबोच लेते। ऐसे मौकों पर इन्दु की याद इतने ज़ोर से आती कि उसे लगता वह भागता हुआ मथुरा लौट जाए। इसीलिए कवि को ऐसे दिन पसन्द हैं जब वह सुबह आठ बजे उठे और उठते ही कॉलेज जाने की हड़बड़ी हो जाए।

कॉलेज के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि एक बार इसके परिसर में दाखिल हो जाओ, शेष जगत और जीवन की परेशानियाँ भुला दी जाती हैं। एक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व यहाँ इतना कामयाब होता है कि उतनी देर अपना असली व्यक्तित्व सामने ही नहीं आता। कवि अभी नया है इसलिए कोई उसके साथ ज्या दा आत्मीय नहीं हो पाया है। कक्षाओं के विद्यार्थी ज़रूर उसके पढ़ाने के ढंग से उसकी ओर खिंचे हैं। कॉमर्स, इकनॉमिक्स और एकाउंट्स की नीरस पढ़ाई से उकताकर वे जब इंग्लिश का पाठ्यक्रम देखते हैं वह उन्हें प्रिय लगता है। पढ़ाते हुए बीच-बीच में कविताओं के अंश उद्धृत करना कवि का शौक है। इससे व्याख्यान में ताज़गी बनी रहती है और विद्यार्थी एकाग्र रहते हैं।

दरियागंज में आवास की समस्त सम्भावनाएँ टटोलने के बाद ही कविमोहन ने कूचापातीराम में यह आधा कमरा लेने की मजबूरी स्वीकार की। दरियागंज प्रकाशकों, मुद्रकों और कागज़ के थोक विक्रेताओं का इलाक़ा है। किसी ज़माने में यहाँ पिछवाड़े की गलियों में जनता रहती थी। अब तो इसके चप्पे-चप्पे में व्यवसाय का जाल फैला हुआ है। यथार्थवादी लोगों ने यहाँ तलघर भी बना लिये हैं जो बिजली के भरोसे जगमगाते रहते हैं।

अपने विभाग के अब्दुल राशिद के साथ वह दरियागंज के सामने की गली का चक्कर भी लगा आया। चितली कबर यों तो देखने में ऐसी लगती थी जैसी शहर की कोई भी गली। इस लम्बी और सँकरी गली में रहना और कमाना साथ-साथ चलता था। छोटे दरवाज़ों वाले ऐसे मकान थे जो बड़े सहन में खुलते और कई मंजिला साफ़-सुथरा ढाँचा नज़र आता। अब्दुल राशिद हर जगह कहते, ‘‘बड़ी बी, इन्हें सिर छुपाने की जगह दरकार है। माशाअल्ला शादीशुदा हैं, बाल-बच्चे वाले हैं, जो किराया आप वाजिब ठहराएँगी, दे देंगे। मेरे साथ ही कॉमर्स कॉलेज में तालीम देते हैं।’’ बड़ी बी कहलाई जानेवाली महिला कोई जर्जर, उम्रदराज़ ऐसी औरत होती जो हालात से हिली होती। वह कानों को हाथ लगाकर कहती, ‘‘लाहौल बिला कूवत, बेटा देखते नहीं, क्या तो माहौल है दिल्ली का। कल को अगर किसी दंगाई ने आकर इन्हें कतल कर दिया तो मैं क़यामत के रोज़ किसे मुँह दिखाऊँगी।’’ एक और बड़ी बी ने कहा, ‘‘इनसे कहो, पुरानी दिल्ली के मोहल्लों में मकान तलाश करें। यहाँ तो आदमजात का भरोसा नहीं।’’

कविमोहन मन-ही-मन डर गया। उसने मकान के बाहर दुकानों में जरी और रेशम की ताराक़शी होते देखी और सोचा, ‘यहाँ न रहना ही अच्छा है। मुल्क़ के हालात की सबसे ज्या दा तपिश यहीं पहुँची लगती है।’

इसी तरह भटकते-भटकते वह चाँदनी चौक पहुँच गया। यहाँ बाज़ार एकदम रौशन था। ऐसा लगता था कुल दिल्ली यहीं उमड़ आयी है। एक ख़ास बात उसने यह देखी कि कपड़ों की दुकानों के शोकेस में साड़ी के साथ फ्रॉक या स्कर्ट-ब्लाउज़ का मॉडल ज़रूर सजा था। एक तरफ़ अँग्रेज़ों को मुल्क़ से बाहर कर देने का संकल्प था तो दूसरी तरफ़ उनसे व्यापार की उम्मीद। दरीबा कलाँ की चकाचौंध बस देखते बनती थी। कविमोहन के मन में चाह हुई कि कुछ महीनों बाद वह यहाँ इन्दु को साथ लाकर सोने की अँगूठी दिलाये। उसने आज तक इन्दु को कोई उपहार नहीं दिया था। चाँदनी चौक मुख्य बाज़ार था जिसके दायें-बायें मशहूर गलियाँ फूटती थीं। हर गली के नुक्कड़ पर खाने-पीने की कोई-न-कोई दुकान। चाट की दुकानों की भरमार थी। पानी के बताशे कई किस्म के मिलते, आटे के, सूजी के, हर्र के और सोंठ के गोलगप्पे। इसी तरह यहाँ आलू टिकिया सेंकने के अलग अन्दाज़ थे। कविमोहन को यहाँ आकर बुआ की याद ने सताया। उसे ग्लानि हुई कि इतने महीनों में उसने सिर्फ एक बार बुआ को याद किया। घंटेवाले हलवाई से उसने एक सेर सोहनहलवा पैक करवाया और फतहपुरी की तरफ़ बढ़ गया।

24

फतहपुरी के घर 13/39 में गज़ब गहमागहमी थी। मकान की पुताई हो रही थी। कई मज़दूर लगे हुए थे।

फूफाजी ने उसे देखते ही कहा, ‘‘अच्छा हुआ तुम आ गये। हम यही सोच रहे थे कवि को किसके हाथ कहाँ खबर भेजें। पता तो तुमने छोड़ा नहीं!’’

‘‘क्या ख़ुशख़बरी है?’’ कवि ने पूछा।

जवाब बुआ ने दिया, ‘‘तुम्हारे छोटे भाई लड्डू का ब्याह तय हो गया है। लडक़ीवालों ने माँगकर रिश्ता लिया है। साड़ी के ब्यौपारी हैं। कहते हैं लड्डू को कपड़े का ब्यौपार खुलवाएँगे। चलो रोज की खिचखिच से जान छूटेगी उसकी।’’

‘‘लडक़ी कैसी है?’’

‘‘वह तो हमने देखी नायँ। नाऊ ने बताया साच्छात फूलकुमारी है। पान खाय तो गले में पीक का निशान देख लो। उमर बस इक्कीस। लड्डू तो छब्बीस उलाँककर सत्ताईस में पड़ गयौ।’’

‘‘बुआ एक नज़र खुद डाल लेतीं लडक़ी पर तो अच्छा था।’’

‘‘लो बोलो, नाऊ हर हफ्ते पचासों बयाह करावै। वह क्या झूठ बोलेगा। तू अपनी नीयत बता। बरात में चलेगौ कि नायँ।’’

‘‘जरूर चलूँगौ, मेरे भाई का ब्याह है।’’

फूफाजी खुश हो गये। अचानक उनके चेहरे पर उदासी के बादल घिर आये, ‘‘मथुरा से बस यही भर रिश्ता बचा है कवि। दादाजी से हमें कोई उम्मीद नायँ कि वो आवेंगे या जीजी को भेज देंगे।’’

‘‘उन्हें ख़बर की?’’

‘‘हाँ, सबसे पहले! वहाँ से इक्कीस रुपये का मनीऑर्डर आया। फॉर्म के नीचे लिखा था ‘‘दुकान छोडक़र आना मुश्किल है। बेटे की शादी की बधाई लो।’’

कवि को अन्दर-ही-अन्दर एक अव्यक्त सुख मिला। कम-से-कम पिता ने पारिवारिक औपचारिकता तो निभायी।

‘‘मेरा काम क्या रहेगा, फूफाजी आप अभी बता दें।’’

‘‘बेटा तुम्हारे जिम्मे हमारे पढ़े-लिखे बराती रहेंगे। किसको क्या चाहिए, कैसे आएगा, सब तुम्हारे जिम्मे। मैं विमला से कह दूँगा, तुम्हें फिज़ूल के कामों में न फँसाये।’’

कुछ दिन के लिए फूफाजी के मकान की दशा बिल्कुल बदल गयी। जमादार सुबह-शाम मकान के आगे और पिछवाड़े झाड़ू लगाता रहा। बचनी धोबन रोज़ सुबह आकर कपड़े पछाड़ जाती। फिर भी बुआ के सामने कामों का अम्बार लगा था।

सबसे बड़ा काम था नीचे ड्योढ़ी में फाटक लगने का। फाटक वर्षों पहले गलकर टूट गया था। तब से ड्योढ़ी छाबड़ीवालों, खोमचेवालों और ठेलेवालों की आम रिहाइश बन गयी थी। खुली, खाली जगह देखकर छोटे-छोटे फेरीवाले यहीं टिककर सुस्ताते। बहती सडक़ और बाज़ार होने के कारण, यहीं उनकी फुटकर बिक्री भी होती रहती। फूफाजी को ये सब लोग आते-जाते सलाम कर देते, इसके अलावा और कोई लेन-देन नहीं था। शुरू में जब एक-दो दुकानदारों ने वहाँ बैठना शुरू किया था, फूफाजी ने सोचा चलो अच्छा है, मकान की चौकीदारी रहेगी। देखते-देखते यहाँ खोमचे और छाबड़ीवालों का ठिकाना ही बन गया। अपने घर का ज़ीना चढऩे के लिए भी परेशानी होने लगी। फाटक लगाने का इरादा तो कई बार किया। ड्योढ़ी की दोनों तरफ़ की दीवार में ज़ंग खाये मज़बूत कुन्दे अभी भी लटके दिख जाते थे। लेकिन बुआ का पूरा परिवार कमाई की जद्दोजहद में इस काम के लिए फुर्सत नहीं निकाल पाया।

‘‘इस काम में तो काफी खर्च आएगा?’’ कवि ने कहा।

‘‘लडक़ीवालों ने वरिच्छा में इक्कीस सौ रुपये चढ़ाये हैं, कुछ मेरे पास धरे हैं, फाटक लगने से समझो, मकान की शान बन जाएगी।’’ बुआ ने कहा।

परिवार का हौसला अन्त तक बना रहा। फाटक लग गया, वार्निश हो गयी, नया निवाड़ का पलंग आ गया, मकान की पुताई, दरवाज़ों का रंग-रोगन सब पूरा हो गया। वही घर अब कुछ बड़ा और कायदे का लगने लगा।

ऐसा तभी तक था जब तक कम्मो का सामान नहीं आया था। लड्डू की बहू कामिनी के साथ विदाई की बेला में सिर्फ एक बक्सा और एक आलमारी आयी। दोनों सामान लड्डू के कमरे में स्थापित कर दिये गये। फिर शुरू हुआ दहेज का सामान भेजने का सिलसिला तो कमरे छोड़ दालान और बरामदा भी भर गये, सामान ख़त्म न हुआ। गहने-कपड़े तो पहले ही, बक्से में आ चुके थे। अब गृहस्थी का बाकी सरंजाम आया। सर्दी-गर्मी के अलग बिस्तर, खाने, पकाने के अलग-अलग नाप के बर्तन, पंखा, रेडियो, साइकिल, यहाँ तक कि स्टोव और अँगीठी भी भेजी गयी। नरोत्तम अग्रवाल ने बार-बार मना किया कि गृहस्थी का कुल सामान उनके यहाँ इफ़रात में है पर कम्मो के पिता और चाचा नहीं माने।

आखिरकार रहस्य का उद्घाटन इस प्रकार हुआ जिसके लिए विमला बुआ और नरोत्तम फूफा तैयार नहीं थे। विजेन्द्र गिरधारी चक्रधारी साड़ी भंडार में बैठकर काम समझने लग गया था। उसके आने से कम्मो के पिता गिरधारी और चाचा चक्रधारी को आराम हो गया था। घर का आदमी पाँच ओपरे आदमियों पर भारी पड़ता है। फिर विजेन्द्र की नज़र और बुद्धि तेज़ थी। वह इशारे से बात समझता। ग्राहकों से बात करना, गल्ले का मिलान और दुकान बढ़ाना ऐसे काम थे जिनमें गिरधारी और चक्रधारी कई बार चकरा जाते। दोनों के ही परिवार में बेटा नहीं था, हाँ बेटियों की भरमार थी।

एक दिन विजेन्द्र ने कहा, ‘‘माँ मुझे दुकान बढ़ाते-बढ़ाते दस बज जाते हैं। मन तो करता है वहीं लुढक़कर सो रहूँ। तुम्हारी फिकर में गिरते-पड़ते घर आ जाता हूँ। यहाँ कम्मो के आने से घिचपिच भी बहुत हो गयी है।’’

माँ ने कहा, ‘‘नहीं, बहू से क्या घिचपिच।’’

‘‘तुम्हारी राजी हो तो मैं वहीं रह लिया करूँ। दुकान के ऊपर, छत पर बहुत बढिय़ा दो कमरों का सैट खाली पड़ा है, चौका, गुसलखाना सब है वहाँ।’’

माँ को पहले बात की गम्भीरता समझ नहीं आयी। उसने कहा, ‘‘मुँह खोलकर उन लोगों से माँगना पड़ेगा। वे पहले ही इत्ता देकर घर भर चुके हैं।’’

लड्डू के मुँह से औचक निकल गया, ‘‘वे तो शुरू से कह रहे हैं, यहीं आकर रहो, इसे अपना ही समझो।’’ माँ सन्न रह गयी। बेटा जाएगा तो बहू भी यहाँ क्यों रहेगी!

अब उसे समझ आया कि उसके बेटे को घर-जमाई बनाया जा रहा है।

नरोत्तम और विमला ने बेटे को समझाने के सभी जतन किये। विजेन्द्र ने कहा, ‘‘मैं कहीं दूर थोड़ेई जा रहा हूँ। जब तुम्हारा जी चाहे आ जाना।’’

कामिनी तो जैसे तैयार ही बैठी थी। जिस रफ्तार से उसका सारा सामान फतहपुरी आया उससे दस गुनी रफ्तार से सब वापस चाँदनी चौक चला गया। कमरे खाली लगने लगे। कम्मो ने सास-ससुर के पाँव छूते हुए कहा, ‘‘जीजी हम आते रहेंगे, आप कोई फिकर न करें।’’
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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आगरे की तरह दिल्ली में भी कविमोहन का कविता-प्रेम बरक़रार था। उसके अन्दर ऊर्जा और ऊष्मा का विस्फोट शब्दों में होता। तब जो भी कागज़ उसके सामने आता उस पर वह अपनी कविता टाँक देता। उसे शेक्सपियर का नायक ऑर्लेंडो याद आ जाता जो अपनी कविताएँ लिखकर पेड़ों पर लटका देता था। कविमोहन डायरी के पृष्ठों पर, अख़बार के कागज़ों पर, चीनी के लिफ़ाफों पर, कहीं भी अपने काव्योच्छ्वास लिख डालता। कॉलेज लायब्रेरी में उसे पत्रिकाओं की जानकारी मिल जाती। उसने दो पत्रिकाओं में अपनी एक-एक कविता भेजी। एक तो तत्काल वापस आ गयी। दूसरी तीन माह बाद छप गयी। कविमोहन को आश्चर्य और आह्लालाद की अनुभूति हुई। छपने पर कवि उसे कई बार पढ़ गया। यह रचना कागज़ से पहले उसके मन के पृष्ठों पर कई बार लिखी जा चुकी थी। कविता इस प्रकार थी—

होने सवार ज्यों बढ़े चरण

चमका एड़ी का गौर वर्ण

कर नमस्कार, कुछ नमित वदन

जब मुड़ीं हो गये रक्त कर्ण।

चल दी गाड़ी घर घर घर घर

खिंचता ही गया सनेह-तार

धानी साड़ी फर फर फर फर

उड़-उडक़र दीखी बार-बार

पल भी न लगा सब क्लान्त शान्त

मैं खड़ा देखता निर्निमेष,

लो फिर सुलगा यह प्राण प्रान्त,

बस प्लेटफॉर्म की टिकट शेष।’’

कॉलेज के हिन्दी-विभाग की गोष्ठी में कविमोहन ने अपनी इस सद्य:-प्रकाशित कविता का सस्वर पाठ किया तो वहाँ ज़लज़ला आ गया। लड़कियों ने घोषणा की कि प्रेम की स्थिति की यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। वे कवि की प्रेरणा का स्रोत जानना चाहती थीं। कवि अपनी छात्राओं से उतना खुला हुआ नहीं था। होता तो वह कहता जो तुम समझ रही हो यह वैसी अनुभूति नहीं है। कविमोहन ने जीवन की पाठशाला में पहला प्रेम का पाठ इन्दु के ज़रिये ही पढ़ा था। दूर रहते हुए उसके लिए पत्नी ही प्रेयसी थी जिसे सम्बोधित कर वह कभी उत्तप्त तो कभी सन्तप्त कविता लिखा करता। यह अजीब लेकिन सत्य था कि जब कवि घर से दूर रहता तो घर उसके बहुत क़रीब रहता। घर उसकी धमनियों में ख़ून की तरह सनसनाता। घर से दूर उसे न पिता गलत लगते न माँ। भग्गो और बेबी-मुन्नी में भी उसे ब्रह्मंड नज़र आता। लेकिन घर के पास फटकते ही समस्त अपवाद, ऐतराज़, अवरोध और असहमतियाँ एक-एक कर सिर उठातीं और वह भन्ना जाता कि अब छुट्टियों में भी वह घर नहीं आया करेगा। इन्दु का भुनभुनाना, बड़बड़ाना उसे दाम्पत्य से विमुख करने लगता। तब उसे कूचापातीराम का वह अँधेरा, अधूरा कमरा ज्याधदा आत्मीय और अपना लगता जहाँ बैठ वह हफ्ते में छह-सात कविताएँ रच लेता।

कुहेली भट्टाचार्य यों तो अँग्रेज़ी विभाग में कविमोहन की सहकर्मी थी लेकिन कवि को सुनने वह हिन्दी-विभाग में आ जाती। हिन्दी-विभाग के प्राध्यापक उसे हिन्दी-प्रेमी के रूप में पहचानते थे। कैम्पस पर सब उसे कुहू कहते थे। कुहू का छोटा भाई देवाशीष इंग्लिश में कमज़ोर था। पढ़ाई के लिए वह कुहू के हाथ के नीचे आता नहीं था। भट्टाचार्य परिवार चाहता था कि देवाशीष अँग्रेज़ी में पारंगत हो जाए तो ख़ानदान की इज्ज़त बची रहे। पिता डॉ. आनन्दशंकर भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘देख लेना देवू अगर तुम अँग्रेज़ी नहीं पढ़े तो दर-दर की ठोकरें खाओगे। बांग्ला किस्से-कहानियाँ पढऩे से नौकरी नहीं मिलेगी।’’

देवाशीष मार्लो के उबाऊ नाटक ‘डॉ. फॉस्टस’ के ऊपर शरत्बाबू का ‘श्रीकान्त’ रखकर पढ़ता रहता।

कुहू ने कविमोहन से आग्रह किया, ‘‘आप बस देवू के अन्दर पढ़ाई के लिए लगन पैदा कर दीजिए, आगे का काम मैं सँभाल लूँगी।’’

‘‘मैं तो अब ट्यूशन करता नहीं।’’

‘‘आप गलत समझे। आपसे ट्यूशन करने को कौन कह रहा है। हफ्ते में एक बार आकर उसकी दिलचस्पी देख-सुन जाइए।’’

‘‘आप उसी के स्कूल का कोई टीचर क्यों नहीं ढूँढ़तीं।’’

‘‘टीचर यह काम नहीं कर सकता। आप उसे सही प्रेरणा देंगे, मुझे भरोसा है।’’

‘‘देखूँगा। कह नहीं सकता कब आऊँ।’’

कविमोहन ने प्रसंग टाल तो दिया पर मन से निकाल नहीं पाया। अपने पर थोड़ा घमंड भी हुआ। इतने कम समय में वह छात्रों का प्रिय शिक्षक बन गया था। कॉलेज में वह छात्रों से घिरा रहता। कॉलेज में पिकनिक रखी जाती तो हर क्लास का आग्रह होता कवि उनके साथ चले। शहर में कोई नयी किताब चर्चित होती तो छात्र उस पर कविमोहन की राय जानना चाहते।

स्टाफ़-रूम में युवा प्रवक्ताओं के बीच बहस छिड़ी हुई थी। राशिद, किसलय और कुहू इस बात पर अड़े हुए थे कि पंडित नेहरू हमारे देश के लिए गाँधी से ज्याहदा ज़रूरी हैं। कविमोहन और सुनील सेठी का कहना था महात्मा गाँधी न होते तो नेहरू भी न होते। पंडित नेहरू के लिए स्वाधीन भारत का स्वप्न गाँधीजी ने ही साकार कर दिखाया।

राशिद बोला, ‘‘कुछ भी कहो, गाँधीजी घनघोर इम्प्रेक्टिकल तो रहे हैं। उन्होंने पार्टिशन के लिए हाँ न भरी होती तो इतनी मारकाट और हिंसा जो हुई वह न होती।’’

उसके यह कहते ही कविमोहन उत्तेजित हो गया, ‘‘किसने कहा पार्टिशन महात्माजी का विचार था! तुम अख़बार नहीं पढ़ते, रेडियो नहीं सुनते या तुम एकदम ठस्स हो।’’

राशिद बुरा मान गया, ‘‘माइंड यौर लेंग्वेज। मैं अख़बार भी पढ़ता हूँ और रेडियो भी सुनता हूँ। कौन नहीं जानता कि गाँधी और जिन्ना के बीच डैडलॉक (गतिरोध) की वजह से ही पार्टिशन हुआ। आज जो पंजाब और सिन्ध से लुटे-पिटे लोगों के काफिले दिल्ली पहुँच रहे हैं उसने इस आज़ादी को भी धूल चटा दी है।’’

कुहू ने उसे टोका, ‘‘आपकी बात राजनीतिक हो सकती है, इतिहास-सिद्ध नहीं है। हमारे देश के टुकड़े गाँधी-जिन्ना डैडलॉक से नहीं बल्कि अँग्रेज़ों की फूट डालो, राज करो नीति के कारण हुए। आप जो आज इतनी आसानी से बापू के खिलाफ़ बोल रहे हैं, यह हक़ भी आपको बापू की उदारता ने ही दिया है। यह उन्हीं का फ़ैसला था कि आप यहाँ नज़र आ रहे हैं।’’

किसलय ने कहा, ‘‘यह सारी बातचीत ऑफ द मार्क हो रही है। बहस का मुद्दा गाँधी-नेहरू था न कि गाँधी-जिन्ना। विभाजन हम सबके लिए एक सेंसिटिव इश्यू है। हम जानते हैं गाँधीजी ने जिन्ना से इतनी मुलाक़ातें सिर्फ इसलिए कीं ताकि विभाजन रोका जा सके। कौन चाहता है कि उसके देश का नक्शा रातोंरात छोटा हो जाए। फिर अपने मुल्क में रह रहे ज्या दातर मुसलिमों के पूर्वज हिन्दू थे। उन्होंने हिन्दू धर्म त्याग कर मुसलिम बनना मंजूर किया। हम सब राशिद को दोस्त मानते हैं कि नहीं?’’

‘‘बिल्कुल, बिल्कुल’’ कई आवाज़ें उठीं।

वास्तव में 1947 में हो यह रहा था कि पिछले छह महीनों की उथल-पुथल में हर मुसलिम घर में एक विभाजन घटित हुआ था। घर के कुछ सदस्य यहीं अपने वतन, अपने शहर में रहना चाहते थे जैसे वर्षों से रहते आये थे। कुछ सदस्यों का मन उखड़ गया था, वे नये मुल्क से नयी उम्मीद पाले हुए थे। उन्होंने अपना सामान तक़सीम कर पाकिस्तान जाना कबूल कर लिया। एक ही घर में एक भाई हिन्दुस्तानी बन गया तो दूसरा पाकिस्तानी। कहीं माँ-बाप हिन्दुस्तान में रह गये, सन्तानें पाकिस्तान चली गयीं। दिल को समझाने को वे कहते, ‘अरे मेरे बच्चे कहीं दूर नहीं गये हैं, यहाँ से बस थोड़े घंटों की दूरी है, जब मर्जी आकर मिल जाएँगे’ पर जानेवाले जानते थे कि कोई भी जाना बस जाना ही होता है, एक बार जड़ें उखड़ गयीं फिर न गाँव अपना मिलता है न गली। फिर भी लोग लगातार जा रहे थे कि वे अपनी जिन्दगी में तब्दीली लाना चाहते थे।

‘‘यह मसला इक्की-दुक्की का नहीं, मामला पूरी क़ौम का है।’’

‘‘क़ौम भी तो इनसानों से बनती है।’’

कवि ने कहा, ‘‘राशिद तुम्हारी बातों से तकलीफ़ पहुँच रही है। अगर तुम हमारे बीच एक घायल रूह की तरह रहोगे, हमें कैसे चैन आएगा!’’

कवि देख रहा था कि राशिद के सोच-विचार में पिछले छह महीनों में बुनियादी बदलाव आया था। उसके अन्दर से सहज विश्वासी बेफिक्र नागरिक विदा हो गया। उसकी जगह एक जटिल, शक्की और शिक़ायतों का पुलिन्दा आ बैठा। अभी कल तक वह कवि को चितली कबर के मुहल्ले में कमरा दिलाने के लिए उसके साथ घूम-भटक रहा था।

सभी ने राशिद के स्वभाव में आये इस परिवर्तन पर ग़ौर किया। वे सोचने लगे कि स्टाफ़ में मौजूद बाकी ग्यारह-बारह लोग भी क्या ऐसी उथल-पुथल से गुज़र रहे होंगे। कहने को ये सभी पढ़े-लिखे लोग थे।

आज़ादी हासिल होते ही गाँधीजी का व्यक्तित्व एक लाचार ट्रेजिक हीरो की शक्ल में सामने आया था। कहाँ तो उन्होंने कहा था, ‘अगर कांग्रेस बँटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश पर से गुज़रना होगा। जब तक मैं जिन्दा हूँ, कभी हिन्दुस्तान का बँटवारा स्वीकार नहीं करूँगा।’ कहाँ उनके साथी और समर्थक कब अलग राह चल पड़े उन्हें पता ही नहीं चला। एक घनघोर उदासी उन पर छा गयी और वे अँग्रेज़ों की साठ-गाँठ पहचानते हुए भी इसे रोक नहीं पाये। शातिर लोग उन्हें काशी या हिमालय चले जाने की सलाह देने लगे। गाँधीजी ने कहा—‘‘मैं तो शायद यह सब देखने को जीवित न रहूँ लेकिन जिस अशुभ का मुझे डर है, वह यदि कभी देश पर आ जाए, आज़ादी ख़तरे में पड़ जाए तो आनेवाली पीढिय़ों को मालूम होना चाहिए कि यह सब सोचना इस बूढ़े के लिए कितना यातनाकारी था।’’

26

इतवार की शाम पाँच बजे जब ढूँढ़ता-ढाँढता कविमोहन कुहू के घर बंगाली मार्केट के पिछवाड़े पहुँचा तो बाहर फाटक तक उनके रेडियो से क्रिकेट कमेंट्री सुनाई दे रही थी। फाटक पर नेमप्लेट के पास ही कॉलबेल लगी थी। कॉलबेल दबाने पर पाजामा और टीशर्ट पहने एक किशोर लडक़ा बाहर आया। उसने हँसते हुए दोनों हाथ जोड़े और कहा, ‘‘गुड ईवनिंग सर।’’

‘‘तुम देवू हो, देवाशीष?’’

‘‘बेशक! आइए आप बाबा के पास बैठिए।’’

अन्दर बैठक में बेंत के सोफे पर देवू के पिता आनन्द शंकर भट्टाचार्य रेडियो के पास बैठे थे। उनके घुटनों के पास क्रिकेट का बल्ला रखा था और हाथों में गेंद थी। कविमोहन के अभिवादन पर उन्होंने ज़रा-सा सिर हिला दिया लेकिन ध्यान उनका कमेंट्री पर ही रहा।

तभी कुहू अन्दर के दरवाज़े से आयी और कवि को ‘आइए’ कहकर साथ ले गयी।

बाहर बड़ा-सा आँगन था जिसके चारों ओर तरह-तरह के पौधे लगे हुए थे।

सलवार-कुरते और दुपट्टे में कुहू एकदम स्कूली लडक़ी नज़र आ रही थी। कॉलेज में उसके बाल जो जूड़े में बँधे रहते थे, इस वक्त कमर के नीचे तक लहरा रहे थे। उसका साँवला रंग यौवन की आभा में दमक रहा था। सबसे सुन्दर उसकी आँखें लग रही थीं जिनमें काजल की लकीर के सिवा, चेहरे पर प्रसाधन का और कोई चिह्न नहीं था।

अन्दर के कमरे में कुहू की माँ किताब पढ़ रही थीं। उन्होंने कवि का परिचय मिलने पर उसका मुस्कराकर स्वागत किया। किताब उन्होंने पलटकर रख दी। वे कुहू से बोलीं, ‘‘मैं चाय भिजवाती हूँ।’’

अब तक कुहू ने अपनी उत्तेजना पर क़ाबू पा लिया था। मूढ़े पर कवि को बैठाकर बोली, ‘‘क्रिकेट मैच वाले दिन ड्राइंगरूम में बैठना मुश्किल हो जाता है।’’

‘‘पिताजी को क्रिकेट का शौक रहा है?’’

‘‘देख रहे हैं न। हाथ में गेंद ओर पास में बल्ला रखकर कमेंट्री सुनते हैं। कभी छक्का पड़ता है तो इतने जोश में आ जाते हैं कि गेंद उछाल देते हैं।’’

‘‘ख़ुद भी खिलाड़ी रहे होंगे।’’

‘‘वह तो थे। कॉलेज में इतने इनाम जीते बाबा ने। अब घुटनों में दर्द रहता है, खेलना बन्द हो गया।’’

देवाशीष ट्रे में चाय और बिस्किट लेकर आया।

कुहू ने कहा, ‘‘देव, ये कविमोहनजी तुम्हारे लिए आये हैं।’’

‘‘पता है दीदी, मैं फाटक पर ही आपसे मिल लिया।’’

कवि को कुहू-घर दिलचस्प लगा। पिता खेल-प्रेमी, माँ पुस्तक-प्रेमी और बेटा, दोनों।

‘‘इन दिनों क्या पढ़ रहे हो?’’

‘‘श्रीकान्त।’’

‘‘बस कहानी-उपन्यास पढक़र टाइम वेस्ट करता है ये। कॉलेज का कोर्स कौन पूरा करेगा?’’

‘‘अभी परीक्षा में बहुत समय है। हो जाएगा।’’

‘‘आप इसकी कॉपियाँ देखें। हर पेज पर लिखता है वन्स अपॉन अ टाइम (एक बार की बात है) और कोरा छोड़ देता है। पूछो तो कहता है, अभी सोच रहा हूँ।’’

‘‘तुम तो कहानी-लेखक बन जाओगे।’’ कवि ने हँसकर देवू से कहा।

‘‘लेकिन यह तो कोई कैरियर नहीं है। बाबा चाहते हैं यह भी पढ़-लिखकर प्रोफेसर बने।’’

‘‘रास्ता तो सही है। उसे पढऩे का भी शौक है और लिखने का इरादा। किस इयर में हो देवू?’’

‘‘फस्र्ट इयर।’’

‘‘इसकी पढ़ाई थोड़ी पिछड़ गयी है। मैंने तो उन्नीस साल में बी.ए. पूरा कर लिया था।’’

कुहू की माँ एक प्लेट में सन्देश लेकर आयीं। उन्होंने कवि और कुहू के आगे प्लेट कर देवू से कहा, ‘‘खोकन मिष्टी खाबे?’’

‘‘नहीं माँ, भूख नहीं है।’’ देवाशीष बोला।

‘‘आमार हाथी खेएनौ।’’ कहते हुए माँ ने अपना हाथ बेटे के मुँह की तरफ़ बढ़ाया। उनके लिए उन्नीस साल का लडक़ा भी शिशु था जिसे वे अपने हाथ से खिलाना चाहतीं। घर भर के लाड़ले से पढ़ाई की सख्ती कौन करे, यह भी एक समस्या थी।

‘‘जिसे पढऩे का शौक हो उसके लिए कोर्स की किताबें पढऩा मुश्किल नहीं होता। और एक बात बताएँ देवाशीष। एक बार बी.ए. पार हो जाए तो एम.ए. आसान होता है क्योंकि तब एक ही विषय रह जाता है।’’

‘‘यही तो मैं दीदी से कहता हूँ। इंग्लिश तो मैं पढ़ लूँ पर फिलॉसफी और पोलिटिकल साइंस का क्या करूँ।’’

‘‘ये दोनों भी दिलचस्प विषय हैं। किस कॉलेज में हो?’’

‘‘हिन्दू कॉलेज।’’

‘‘गुड। वह तो अच्छा कॉलेज है।’’

बातों-बातों में सात बज गये। कवि जब जाने को उद्यत हुआ, कुहू की माँ ने आग्रह किया, ‘‘खाना खाकर जाओ।’’

‘‘आज इजाज़त दीजिए, फिर कभी।’’

देवाशीष उसे बस स्टॉप तक छोडऩे आया। कवि ने उसे सुझाव दिया कि वह कभी-कभी वापसी में उसके कॉलेज की तरफ़ आ जाया करे।

देवाशीष ने कहा, ‘‘दादा, मैंने भी दो-चार कविताएँ लिखी हैं। आपको दिखाऊँगा।’’
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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