आइ मिस यू

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Jemsbond
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आइ मिस यू

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आइ मिस यू

मैं सर झुका कर उस वक़्त बिक्री का हिसाब लिख रहा था कि उसकी धीमी आवाज सुनाई दी, “अभय, खाना खा लो” ,मैंने सर उठा कर उसकी तरफ देखा, मैंने उससे कहा ,” माया , मै आज डिब्बा नहीं लाया हूं ।” दरअसल सच तो यही था कि मेरे घर में उस दिन खाना नहीं बना था । गरीबी का वो ऐसा दौर था कि बस कुछ पूछो मत । जो मेरे पढने का वक़्त था , उसमे मैं उस मेडिकल शॉप में सेल्समेन का काम करता था ।

वो सामने खड़ी थी । मैंने उसे गहरी नज़र से देखा । वो एक साधारण सी साड़ी पहने हुई थी । जिस पर नीले रंग के फूल बने हुए थे। पता नहीं उस साड़ी को कितनी बार धोया जा चूका था , उन नीले फूलो का रंग भी उतर सा गया था । उसने मुस्करा कर कहा ” मेरे डिब्बे में थोडा सा खाना तुम्हारे लिए भी है । चलो खाना खा लो, लंच का समय है”। मैंने हंसकर कहा, ” अच्छा ये बताओ कि , तुम्हारे डिब्बे में मेरे लिए कब से खाना आने लगा ।”

उसने कुछ नहीं कहा , बस मुस्करा कर अन्दर के कमरे में चली गयी । मैंने भी हिसाब किताब बंद किया और उस कमरे में चल दिया जहाँ उस मेडिकल शॉप के दुसरे बन्दे भी बैठकर दोपहर का खाना खा रहे रहे थे। उसने डब्बा खोला । कुल मिलाकर उसमे चार रोटी, आलू प्याज की सब्जी, और एक अचार का टुकड़ा था । उसने डब्बे के कवर में मुझे तीन रोटी और कुछ सब्जी दी, खुद एक रोटी, सब्जी और अचार के साथ खाने लगी ।

मैंने कहा, ” ये क्या माया , एक रोटी से क्या होंगा ,” उसने कहा , “मैं बहुत कम खाती हूँ ,अभय” मैंने ध्यान से उसे देखा । उसके चेहरे में कोई आकर्षण नहीं था , पर वो अच्छी दिखती थी या हो सकता है कि उस दौर में या उस वक़्त में , ये सिर्फ उस उम्र का आकर्षण था , पर कुछ भी हो उसमे कुछ अच्छा लगता था मुझे । डब्बे का खाना खत्म हो गया था और दूकान मालिक की आवाज आ रही थी , चलो सब काम पर लगो, ग्राहक आ रहे है ।

::: २ :::

मेरा नाम अभय है और उस वक़्त, मेरी उम्र करीब २२ साल थी। मैं कामर्स विषय में डिग्री की पढाई कर रहा था, साथ में ये नौकरी भी । घर के हालात कुछ अच्छे नहीं थे । इसलिए नौकरी करना जरुरी था । सो सुबह कॉलेज जाता था और दोपहर में कॉलेज से सीधा इस दूकान में आ जाता था , जिसमे मैं सेल्समन की नौकरी करता था। करीब रात के ८ बजे तक यहाँ नौकरी करता था और फिर नए सपनो की उम्मीद में मैं अपने घर चला जाता था। माया को हमारी दूकान में आये करीब १ महीना हो गया था । वो यहाँ पर अकाउंटेंट का काम करती थी । उसकी उम्र मुझसे ज्यादा ही थी । रोज वो साइकिल से आती और चुपचाप अपना काम करती और चली जाती , कभी भी किसी से कोई ज्यादा बात नहीं करती थी , दुकान मालिक ने जो कहा उसे सुन लिया। वो एक दुबली पतली सी लड़की थी और उसके रख – रखाव से जाहिर था कि वो भी गरीब थी । वो भी का मतलब ये था कि मैं भी गरीब ही था । मैं स्लीपर पहनता था । सिर्फ दो पेंट थी । और चार शर्ट, बस उसी से गुजारा चलता था। इस मेडिकल शॉप में मैं सेल्समेन था । मन में कल के लिए सपने थे लेकिन राह नज़र नहीं आती थी । यूँ ही ज़िन्दगी गुजर रही थी । उन दिनों मुझ जैसे गरीब आदमी के सपने और ख्वाइशे भी छोटी ही होती थी ।

::: ३ :::

धीरे धीरे माया से मेरी दोस्ती हो गयी । और बीतते हुए समय के साथ ये दोस्ती और गहरी होती चली गयी । उसको मुझमे कुछ अच्छा लगने लगा और मुझे उसमे कुछ । मुझे लगा कि ये प्यार ही था । उस वक़्त प्यार शब्द भी अच्छा लगता था और उसका अहसास भी । खैर ,ज़िन्दगी कट रही थी । दोपहर से शाम तक काम और सिर्फ काम , दुनियादारी की दूसरी बातो के लिए समय नहीं मिलता था । कभी कभी काम के इन्ही मुश्किल और न ख़त्म होने वाले पलो में हम एक दुसरे की ओर देख कर मुस्करा लिया करते थे। हाँ वो ज्यादा मुस्कराती नहीं थी । पर मुझे अच्छी लगती थी ।

हम अक्सर बाते कर लेते थे । उसने मुझे बताया कि वो अपने पिता और दो छोटे भाई बहन के साथ रहती थी । कॉमर्स में उसने ग्रेजुएशन किया था और पढाई के तुरंत बाद ही नौकरी करने लगी थी , क्योंकि उसके पिता के पास कोई रोजगार नहीं था और अब सारे परिवार की जिम्मेदारी उस पर ही थी । बस नौकरी और घर , इन दोनों के सिवा उसकी ज़िन्दगी का कोई ओर मकसद नहीं था । पर उसकी ज़िन्दगी में शायद अब मैं भी था ।

गुजरते दिनों के साथ मैं उसके और करीब आने लगा था , मुझे वो अब और ज्यादा अच्छी लगने लगी थी । उसकी मेहनत, उसका भोलापन, उसकी ज़िन्दगी को जीने की जुस्तुजू और अपने परिवार के लिए उसकी अपनी खुशियों का गला घोंट देना मुझे बहुत अपना सा लगने लगा था। क्या ये प्यार था? आज सोचता हूँ तो उन अहसासों के कई नाम थे , पर मुझे लगता है कि उस वक़्त वो सिर्फ प्यार ही था।

::: ४ :::
दूकान के मालिक ने दिवाली की ख़ुशी में सबको उपहार दिए। मैंने धीरे से अपना उपहार भी उसके बैग में डाल दिया, उसने ये देखकर मुझसे कहा, “देखो ऐसा न करो , मेरी अपनी खुद्धारी है, सिर्फ वो ही अब मेरे पास बची रह गयी है, उसे तो न छीनो।“ मैंने उससे कहा “ऐसी कोई बात नहीं है, बस इस उपहार का मैं क्या करूँगा? हाँ, अगर ये तुम्हारे काम आया तो मुझे अच्छा लगेंगा। देखो, मना मत करो , इसे रख लो।“ उसने बहुत मना किया , पर मैं भी नहीं माना और उसे अपना भी उपहार दे दिया । उपहार लेते समय उसकी आँखे भर आई । उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।

::: ५ :::

समय बीतता रहा , मेरी तनख्वाह बढ़ी । जब नयी तनख्वाह मिली तो मैंने माया से कहा कि उसे मैं पार्टी देना चाहता हूँ । वो हंस दी । उसने कहा कि उसने मेरे लिए एक शर्ट खरीदी है । क्योंकि मेरा जन्मदिन नजदीक आ रहा था , तो दोनों बातो को एक साथ ही सेलिब्रेट करे। मैंने भी कहा, हां ये ठीक है । और हंसकर अपनी अपनी साइकिल से वापस घर की ओर चल दिये।

माया मेरे मोहल्ले से करीब ८ किलोमीटर दूर रहती थी । हमारे घरो को अलग अलग करने वाला एक मोड़ था । उस पर आकर हम रुकते थे और अपनी अपनी राह पर चल पडते थे, दुसरे दिन फिर से मिलने के लिये। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । हम रुके , माया से मैंने कहा कि कल मिलते है । और कल दोपहर का खाना कहीं बाहर खा लेंगे , तुम डब्बा नहीं लाना । माया ने मुस्करा कर हां कहा । मुझे पता नहीं पर क्यों उसकी भोली सी मुस्कराहट बहुत अच्छी लगती थी ।

दुसरे दिन माया नहीं आई । मैं पहली बार परेशान हुआ । कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । उन दिनों फ़ोन की सुविधा भी ज्यादा नहीं थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आई? जैसे तमाम सवाल मन में उमडने लगे। शाम को मैं जल्दी ही निकल पड़ा और अपनी साइकिल से उसके घर तक गया , उसने मुझे एक बार अपने घर का पता बताया था। घर पहुंचा, वो एक छोटा सा घर था, शायद सिर्फ दो कमरों का ।

मैंने दरवाजे की सांकल खड़खड़ायी , दरवाज खुद माया ने ही खोला । मुझे देख कर चौंक सी गयी । मैंने पुछा क्या हुआ , दूकान क्यों नहीं आई । उसका चेहरा उदास था । उसने कुछ नहीं कहा , बस अन्दर आने का इशारा किया । घर के भीतर गया तो देखा कि एक चटाई है और उसपर उसके पिताजी और दोनों भाई बहन बैठे हुए है , सभी उदास। उसके पिताजी मुझे जानते थे , वो एक दो बार दूकान पर भी आये हुए थे , तब मुलाक़ात हुई थी । मैंने उन्हें नमस्ते की और बच्चो से उनकी पढाई के बारे में पूछा ।

फिर माया से पूछा कि वो दूकान पर क्यों नहीं आई तो पता चला कि कल जो तनख्वाह माया को मिली थी वो रास्ते में साइकिल से उसके बैग सहित गिर गयी , जब तक वो उतर कर वापस जाती वो बैग ही गायब हो चूका था। उसने शाम को पूरे तीन चक्कर लगाए घर से ऑफिस और ऑफिस से घर , पर बैग को न मिलना था और वो न मिला । मेरी जेब में कल की मिली हुई तनख्वाह का करीब आधा हिस्सा बचा था। वो मैंने निकाल कर उसके हाथ में रख दिया । उसने आँखे भर कर मुझे देखा । मैंने कहा, ” कुछ न कहो , बस ले लो । मुझे अच्छा लगेंगा । ” उसके पिताजी ने मुझे देखकर हाथ जोड़ दिए । मैंने उनके हाथो को अपने हाथो में ले लिया और दोनों बच्चो के सर पर हाथ फेरकर बाहर निकल गया । उस दिन मुझे फिर से बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।

::: ६ :::

हम अक्सर यूँ ही मिलते रहे। ऑफिस में , राह में , बस यूँ ही । कभी कुछ भी कहा नहीं एक दुसरे से , बस मिलते रहे । और एक दुसरे को देखते रहे। कई बार बहुत कुछ कहने को हुआ , पर कह नहीं पाए । वो मुझे देखती और मैं उसे देखता । बस दिन यूँ ही गुजर जाते । बीच में उसका एक जन्मदिन आया ।, मैंने उसे एक छोटा सा लॉकेट दिया । जिसमे चांदी से अंग्रेजी में “आ” बना हुआ था । उसने मुझे कहा कि वो ये लॉकेट हमेशा अपने पास रखेंगी । ज़िन्दगी के दिन बीतते गए । मुझे मेरे दोस्त दुसरे शहर में अक्सर बुलाते रहे, ताकि मैं एक बेहतर नौकरी कर सकू ; लेकिन मैं कभी नहीं गया , एक तो मुझे दुसरे शहर में जाकर बसना , इस बात से ही डर लगता था और दूसरा मुझे माया से अलग नहीं रहना था।

::: ७ :::

उस दिन शिवरात्री थी । वो शिव की पूजा करती थी । कुछ ज्यादा ही पूजा करती थी । मैंने उससे पूछा , “क्यों इतनी ज्यादा पूजा करती हो शिव की “, उसने कहा , “शिव भगवान की पूजा करने से अच्छा पति मिलता है । बिलकुल तुम्हारे जैसा ।” ये कहकर वो शर्मा गयी । मैं भी शर्मा गया । उसने कहा ,”आज मैं डिब्बे में साबुदाने की खिचड़ी लायी हूँ । आओ, खाना खा लो । ” हमने लंच में साबुदाने की खिचडी खाई, फिर उसने
फिर उसने कहा कि वो शिव मंदिर जा रही है । मुझे भी साथ आने को कहा । मैं भी चल पड़ा , मैं बहुत ज्यादा भगवान को नहीं मानता था, पर ठीक है चलो… मंदिर चलो ।

शिव मंदिर में भीड़ थी । वो मंदिर शहर के एक पुराने तालाब के किनारे बना हुआ था। उसने पूजा की और हम दोनों तालाब के किनारे जाकर बैठ गए। शाम गहरी होती जा रही थी । कुछ देर में अँधेरा छा गया । अब कुछ इक्का दुक्का लोग ही रह गए थे , वो मुझसे टिक कर बैठी थी । हम चुपचाप थे। पता नहीं क्या हुआ , मैंने उसका हाथ पकड़ा। उसने कुछ नहीं कहा। मुझे कुछ होने लगा । फिर मैंने उसका चेहरा थामा अपने हाथो में और धीरे से उसके होंठो को छुआ । वो ठन्डे से थे। मैंने तुरंत उसका चेहरा देखा , वो मेरी ओर ही देख रही थी । मैंने कहा कि मुझे शायद उससे प्रेम हो गया है । उसने धीरे से कहा कि वो मुझसे प्रेम करती है । मैंने फिर उसका चेहरा छुआ । वो फिर से ठंडा ही लगा । मैंने सकपका कर पुछा , “माया तुम्हे कुछ नहीं होता” उसने सर उठा कर पुछा , “मतलब ?” मैंने पूछा कि तुम कुछ रियेक्ट ही नहीं कर रही है । “तुम ऐसी क्यों हो?” उसने सर झुका लिया , उसकी आँखे गीली हो गयी । उसने धीरे से कहा , “अभय , मैं ऐसी ही हो गयी हूँ। मेरा जीवन, मेरी गरीबी और मेरे घर के हालात , सबने मिलकर मुझे ऐसा बना दिया है । मेरे मन में किसी के लिए कोई भावना नहीं उमड़ती है “। मैंने कुछ नहीं कहा । बस चुप रह गया । बहुत देर तक हम दोनों में ख़ामोशी रही । फिर पुजारी ने आकर कहा कि मंदिर बंद हो रहा है , अब हम जाए । हम दोनों चुपचाप बाहर की ओर निकले और अपनी अपनी साइकिल उठायी और चल दिए । मैंने उसे उसके घर तक छोड़ा, हम दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा ।

::: ८ :::

दुसरे दिन माया ने मुझसे कहा , “आज तुमसे कुछ बाते करनी है ।” मैंने कहा ,”हाँ कहो न ।” उसने कहा , “वहीं उसी मंदिर में चलो।” हम दोनों फिर उसी मंदिर में उसी जगह जाकर बैठ गए । उसने मेरा हाथ पकड़ा। शाम हो रही थी। सूरज डूब रहा था, तालाब के उस किनारे और हम दोनों बैठे थे इस किनारे।

उसने कहा , ” देखो अभय । आज मैं तुमसे जो कहने जा रही हूँ सुनकर तुम्हे अच्छा नहीं लगेंगा, पर यही सच है और यही हम दोनों के लिए अच्छा होंगा ।” मैं चुप था। उसने कहा, “मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करते हो और मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ,” ये कहकर उसने मेरा हाथ दबाया । मैं थोडा सा आश्वस्त सा हुआ। फिर उसने कहा ,” लेकिन हम शादी के लिए नहीं बने है ।” मुझे एकदम से सदमा सा लगा। माया ने कहा , “देखो , तुम्हे अगर लगता है कि हम दोनों बहुत अच्छे पति -पत्नी साबित होंगे तो ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है । शादी के कुछ दिनों या महीनो के बाद तुम अपने प्रेम को खो दोंगे और यही से तुम और मैं अलग अलग होते चले जायेंगे ।” मैंने एकदम से कहा , “ये तुम क्या कह रही हो माया और कैसे कह सकती हो ; ये सच नहीं है ।” माया ने कहा , मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है अभय । तुम बहुत अच्छे इंसान हो अभय और मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे भीतर का ये इंसान जीते जी ही मर जाए ।” मैंने कहा , “नहीं माया ऐसा कुछ नहीं होंगा । बस कुछ दिनों की ही बात और है, फिर एक नयी नौकरी के साथ ही सब कुछ ठीक हो जायेंगा । हम शादी कर लेंगे ।”

माया ने कहा , “तुम समझ नहीं रहे हो , मैं अपने पिताजी और छोटे भाई बहन को नहीं छोड़ सकती हूँ । मेरा जीवन उन्ही के लिए है ।” मैंने कुछ रुकते हुए कहा , “मैं कुछ दिन इन्तजार कर लूँगा ।” माया ने मेरा चेहरा हाथ में लेकर कहा कि “नहीं अभय , तुम इस इन्तजार को नहीं सह पावोगे और अगर हमने जल्दबाजी में शादी कर भी ली तो , सब कुछ थोडे ही दिनों में ख़त्म हो जायेंगा। मैं तुम्हे और तुम्हारी अच्छाई को ख़त्म होते नही देख सकती।”

मेरी आँखे भीग गयी । माया ने कहा , “देखो हम दोनों हमेशा ही अच्छे दोस्त रहेंगे और प्रेम तो है ही, तुम्हे प्रेम में , मेरा ये शरीर भी चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है । लेकिन मैं तुम्हे कभी भी ख़त्म होते नहीं देख सकती हूँ और अगर हमने शादी की तो दुनिया की दुनियादारी तुम्हारे प्रेम को ख़त्म कर देंगी, मैं ये जानती हूँ । ”
मैंने एक अनजानी सी आवाज में पुछा, ” तुम बहुत देर से मेरे प्रेम और मेरे ही बारे में बात कर रही हो , क्या तुम्हारा प्रेम कभी ख़त्म नहीं होंगा?

माया ने मुस्कराकर कहा ,”नहीं मेरे अभय , मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कभी भी खत्म नहीं होंगा । तुम देख लेना । मैं खुद को भी जानती हूँ और तुम्हे भी ।”

मैंने गुस्से में कहा , “तुमने ये बात कैसे कह दी कि मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए?” माया ने कहा ,”मैं जानती हूँ कि तुम्हे नहीं चाहिए पर अगर तुम्हारे भीतर मौजूद पुरुष को चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है। मैंने सिर्फ हम दोनों के बीच में मौजूद प्रेम की बात की है। ”

मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था , मुझे कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करूँ कि कहीं कोई समस्या न रहे । पर गरीबी अपने आप में बहुत बड़ी समस्या होती है ये मुझे उस दिन ही पता चला । मुझे अपने आप पर , अपनी गरीबी पर उस दिन पहली बार गुस्सा आया और बहुत ज्यादा आया और मैं भीतर तक टूट गया । मेरी ज़िन्दगी का पहला सपना ही बिखर रहा था ।

मैं गुस्से में चिल्ला बैठा, ” मुझे कुछ भी नहीं चाहिए , न तुम , न तुम्हारा प्रेम और न ही तुम्हारा शरीर ।” और मैं उसे छोड़कर चल दिया , वो मुझे पुकारती ही रह गयी । और मैं चला गया ।

उस दिन मैंने पहली बार शराब पी , घर में चिल्लाता हुआ घुसा । माँ से कहा , अब मैं शहर चला जाऊँगा , यहाँ नहीं रहना है मुझे, दुनिया ख़राब है, ये ऐसा है, वो वैसा है, पता नहीं क्या क्या बकते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया ।

दुसरे दिन मैं दूकान नहीं गया । मैंने बहुत सोचा , मुझे कोई समाधान नहीं मिला । गरीबी का कोई तुरंत समाधान नहीं होता , ये बात भी मुझे उसी वक़्त पता चली। मैं तीन दिन दूकान नहीं गया , माया भी नहीं मिलने आई। मैं तीसरे दिन दूकान पहुंचा तो पता चला कि माया ने नौकरी छोड़ दी है। इस बात से मुझे बड़ा धक्का लगा। मैं शाम को उसके घर पहुंचा । वो घर पर नहीं थी । मैंने उसका इन्तजार करता रहा। उसके पिताजी ने कहा कि उसे कोई दूसरी नौकरी मिल गयी है। ये सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। थोड़ी ही देर में माया आ गई। मुझे देखकर उसने ख़ुशी से कहा, “चलो अच्छा हुआ तुम आ गए , तुम्हे एक खबर सुनानी थी।“ मैंने गुस्से में कहा , “मुझे मालूम है। मैं चलता हूँ।“ माया ने कहा, “ अरे बाबा, रुको तो, तुम तो हमेशा ही गुस्से में रहते हो । थोडा शांत भी हो जावो, अच्छा बैठो।” फिर उसने मुझे चिवडा खिलाया और फिर मुझे साथ लेकर बाहर आ गयी। उसने बड़े गंभीर स्वर में कहा , “देखो अभय अगर मैं वहां रहती तो न तुम काम कर पाते और न ही मैं । हम दोनों का जीवन ही खराब हो जायेंगा । इसलिए मैंने दूसरी जगह नौकरी कर ली है । हम अब हफ्ते में एक बार मिलेंगे । दोनों का मन ठीक रहेंगा और हम दोनों की दोस्ती और प्रेम भी जिंदा रहेंगा ।” मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा , कुछ नहीं कह पाया . मेरी आँखों में आंसू आ रहे थे । थोड़ी देर तक मैं उसका हाथ थामे बैठा रहा, कुछ देर बाद मैं चुपचाप चला आया !
मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया । बहुत सोचा , फिर लगा कि माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी , नौकरी भी चलने लगी , हफ्ते में एक दिन माया से मिलता ,बहुत सी बाते करता । और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।

लेकिन , जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होंगा , जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे , वो बार बार बुला रहे थे , माँ भी कह रही थी कि दुसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था , अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते , वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।

वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट निकला , मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था ।

::: १० :::
उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी। मैंने कहा, ” मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा ।” दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी , मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक माया की आवाज आई , “लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ ।” मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा “अरे बाबा , यही तो अपनी जगह है ।” वो पास आकर बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की । मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया । माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा , “तुम जानती हो , मैं भगवान को नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ ।” उसने कहा , “देखना , एक दिन तुम , इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे ।” मैं मुस्करा दिया । थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा ,” इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है ।” मैंने हंसकर कहा “अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोंगी?”
मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया । बहुत सोचा , फिर लगा कि माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी , नौकरी भी चलने लगी , हफ्ते में एक दिन माया से मिलता ,बहुत सी बाते करता । और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।

लेकिन , जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होंगा , जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे , वो बार बार बुला रहे थे , माँ भी कह रही थी कि दुसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था , अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते , वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।

वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट निकला , मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था ।

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उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी। मैंने कहा, ” मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा ।” दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी , मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक माया की आवाज आई , “लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ ।” मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा “अरे बाबा , यही तो अपनी जगह है ।” वो पास आकर बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की । मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया । माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा , “तुम जानती हो , मैं भगवान को नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ ।” उसने कहा , “देखना , एक दिन तुम , इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे ।” मैं मुस्करा दिया । थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा ,” इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है ।” मैंने हंसकर कहा “अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोंगी?”
मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया । बहुत सोचा , फिर लगा कि माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी , नौकरी भी चलने लगी , हफ्ते में एक दिन माया से मिलता ,बहुत सी बाते करता । और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।

लेकिन , जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होंगा , जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे , वो बार बार बुला रहे थे , माँ भी कह रही थी कि दुसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था , अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते , वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।

वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट निकला , मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था ।

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उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी। मैंने कहा, ” मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा ।” दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी , मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक माया की आवाज आई , “लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ ।” मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा “अरे बाबा , यही तो अपनी जगह है ।” वो पास आकर बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की । मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया । माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा , “तुम जानती हो , मैं भगवान को नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ ।” उसने कहा , “देखना , एक दिन तुम , इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे ।” मैं मुस्करा दिया । थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा ,” इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है ।” मैंने हंसकर कहा “अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोंगी?”

मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया । बहुत सोचा , फिर लगा कि माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी , नौकरी भी चलने लगी , हफ्ते में एक दिन माया से मिलता ,बहुत सी बाते करता । और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।

लेकिन , जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होंगा , जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे , वो बार बार बुला रहे थे , माँ भी कह रही थी कि दुसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था , अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते , वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।

वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट निकला , मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था ।

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उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी। मैंने कहा, ” मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा ।” दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी , मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक माया की आवाज आई , “लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ ।” मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा “अरे बाबा , यही तो अपनी जगह है ।” वो पास आकर बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की । मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया । माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा , “तुम जानती हो , मैं भगवान को नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ ।” उसने कहा , “देखना , एक दिन तुम , इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे ।” मैं मुस्करा दिया । थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा ,” इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है ।” मैंने हंसकर कहा “अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोंगी?”
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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