काँच की हवेली "kaanch ki haveli" compleet

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amitraj39621

Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by amitraj39621 »

nice update plz continue
Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

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[quote="amitraj39621"]nice update plz continue[/quot


thanks update thodi hi der me
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

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शाम के 5 बजे थे. कंचन अपने कमरे में चिंता-मग्न बैठी थी. चिंटू टीवी का साउंड उँचा किए टीवी देखने में मशगूल था.

कंचन के मस्तिष्क पर आज दिन की घटना का चलचित्र चल रहा था. कमला जी के मूह से ये सुन लेने के पश्चात कि उसके पिता ने 20 साल पहले रवि के पिता की हत्या की थी. उसका कोमल दिल आहत हो चुका था. उसके पिता हत्यारे हैं, सिर्फ़ इसलिए कि ऐसी हवेली दोबारा ना बने, उन्होने रवि के निर्दोष पिता का खून कर दिया. ये एहसास उसे अंदर से कचोटे जा रहे थे. उसे तेज़ घुटन सी महसूस होने लगी थी.

"अब मैं यहाँ नही रहूंगी." वो मन ही मन बोली - "पता नही साहेब के दिल पर क्या गुज़र रही होगी. क्या सोचते होंगे वो मेरे बारे में.....यही ना कि मैं कितनी संगदिल हूँ जिस घर में उनके पिता का खून बहा है मैं उसी घर में मज़े से रह रही हूँ. नही.....अब मैं यहाँ नही रह सकती. मैं अभी चली जाती हूँ."

कंचन ने अपने विचारों को विराम दिया और चिंटू को देखा. चिंटू टीवी पर नज़रे जमाए बैठा था.

"चिंटू..." कंचन ने उसे पुकारा. किंतु चिंटू के कानो में ज़ू तक नही रेंगी. कंचन ने दोबारा पुकारा. पर इस बार भी चिंटू का ध्यान नही टूटा. कंचन गुस्से से उठी और उसके हाथ से रिमोट छीन्कर टीवी बंद कर दी.

चिंटू मूह फूला कर बोला - "दीदी टीवी देखने दो ना. कितनी अच्छी पिक्चर आ रही थी."

"नही, अब चलो यहाँ से. हम बस्ती जा रहे हैं. अब हम यहाँ नही रहेंगे." कंचन चिंटू के रूठने की परवाह किए बिना उसका हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुई कमरे से बाहर निकल गयी.

हॉल में मंटू दिखाई दिया. कंचन मंटू से ये कहकर कि वो बस्ती जा रही है, हवेली से बाहर निकल गयी.

हवेली से निकलकर बस्ती की ओर जाते हुए चिंटू की नज़रें बार बार हवेली की तरफ मूड रही थी. उसे हवेली छूटने का बेहद दुख हो रहा था. यहाँ उसे हर चीज़ के मज़े थे. रोज़ अच्छे और स्वदिस्त पकवान भर पेट खाने को मिल रहा था, ताज़े फल, फ्रूट के साथ गिलास भर कर मेवे वाला दूध भी सुबह शाम पीने को मिल रहा था. वहाँ गाओं में टीवी नही थी, यहाँ दिन भर टीवी देखने का मज़ा ले रहा था.

किंतु कंचन को चिंटू के मन की दशा का भान नही था. वह तो अपने दुख से दुखी उसका हाथ थामे उसे जबरन खींचती हुई बस्ती की ओर बढ़ी चली जा रही थी.

चलते हुए अचानक ही कंचन को ये ख्याल आया. -"साहेब और मा जी, हवेली से निकल कर कहाँ गये होंगे? कहीं साहेब गाओं छोड़कर अपने घर तो नही चले गये?"

कंचन के बढ़ते हुए कदम थम गये.

चिंटू ने उसे हसरत से देखा. उसे लगा शायद दीदी अब हवेली लौटेगी.

"अब क्या करूँ?" कंचन ने खुद से पुछा.

वो कुच्छ देर खड़ी सोचती रही. पहले उसका मन चाहा वो घर जाकर बाबा को सब बात बता दे और बाबा को रवि और माजी को मनाने स्टेशन भेज दे. शायद वे लोग अभी भी वहीं हों. पर अगले ही पल उसे ये विचार आया कि जब तक वो घर जाकर अपने बाबा को बताएगी और उसके बाबा जब तक स्टेशन आएँगे. तब तक कहीं साहेब और मा जी ट्रेन में बैठकर घर ना चले जाएँ.

उसने खुद ही स्टेशन जाने का विचार किया.

वो चिंटू को लिए तेज़ी से मूडी. और स्टेशन के रास्ते आगे बढ़ गयी.

कंचन स्टेशन पहुँची. उसकी प्यासी नज़रें रवि की तलाश में चारों तरफ दौड़ने लगी.


स्टेशन लगभग खाली था. प्लॅटफॉर्म पर कोई ट्रेन नही थी.

काफ़ी देर इधर उधर ढूँढने के बाद भी उसे रवि कहीं दिखाई नही दिया.

रवि को ना पाकर उसके चेहरे पर उदासी फैल गयी. मन रोने को हो आया. दबदबाई आँखों से एक बार फिर उसने पूरे स्टेशन पर अपनी नज़रें घुमाई. लेकिन रवि तो ना मिलना था ना मिला.

वो वहीं लोहे की बनी बर्थ पर बैठकर सिसकने लगी.

चिंटू के समझ में कुच्छ भी नही आ रहा था. लेकिन कंचन को रोता देख उसे भी रोना आ रहा था.

तभी किसी ट्रेन के आने की आवाज़ उसके कानो से टकराई.

उसने गर्दन उठाकर आती हुई ट्रेन के तरफ देखा.

धड़-धड़ाती हुई ट्रेन प्लॅटफॉर्म पर आकर रुकी. उसके रुकते ही यात्रियों के उतरने और चढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया. कुच्छ देर पहले जो स्टेशन खाली सा दिख रहा था अब लोगों की भीड़ से भरने लगा था.

कंचन कुछ सोचते हुए उठी. चिंटू को बर्थ पर बैठे रहने को बोलकर खुद ट्रेन के समीप जाकर खिड़कियों से ट्रेन के अंदर बैठे मुसाफिरों को देखने लगी.

उसकी नज़रें रवि को ढूँढ रही थी.

अभी कुच्छ ही पल बीते थे की उसके पिछे से किसी ने उसे पुकारा.

अपना नाम सुनकर कंचन तेज़ी से मूडी. किंतु अपने सामने बिरजू को खड़ा देख उसकी सारी तेज़ी धरी की धरी रह गयी.

"कंचन जी किसको ढूँढ रही हैं आप?" बिरजू अपने काले दाँत दिखाकर धूर्त मुस्कान के साथ पुछा.

"मैं साहेब को ढूँढ रही हूँ." कंचन अटकते हुए बोली.

"साहेब....?" बिरजू ने अज़ीब सा मूह बनाया - "ओह्ह्ह....तो तुम डॉक्टर बाबू की बात कर रही हो. उन्हे तो मैने ट्रेन के अंदर बैठे देखा है."

"क्या सच में भैया....?" कंचन खुशी से चहकते हुए बोली - "क्या उनकी माजी भी साथ थी?"

"हां माजी भी साथ थी. क्या तुम उनसे मिलना चाहती हो?"

"हां....!" कंचन हन में सर हिलाई.

"तो फिर आओ मेरे साथ.....तुम्हे डॉक्टर बाबू और उनकी माजी से मिलाता हूँ."

कंचन बिरजू के साथ ट्रेन में चढ़ गयी. रवि के मिलने की खुशी से वो फूले नही समा रही थी. मारे खुशी के उसकी आँखें डब-डबा गयी थी. रवि से मिलने की दीवानगी में वो ये भी नही समझ पाई कि बिरजू उसे झाँसे में ले रहा है और वो किसी मुशिबत में गिरफ्तार होने वाली है.

बिरजू के लिए ये बिन माँगी मुराद थी. इससे अच्छा अवसर शायद उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.

लगभग पूरे गाओं को पता था कि बिरजू 2 दिनो से शहर गया हुआ है. अब ऐसे में वो कंचन को लेकर कहीं भी जा सकता था. किसी को उसपर शक़ नही होने वाला था.

उसने सोचा भी यही था. कंचन पर नज़र पड़ते ही उसके मन में ये सोच लिया था कि वो कंचन को लेकर शहर जाएगा. कुच्छ दिन उसके साथ ऐश करेगा फिर उसे कहीं बेचकर गाओं लौट आएगा.

उसका सोचा लगभग सही हुआ था. बस ट्रेन चलने की देरी थी.

इस स्टेशन में ट्रेन 5 मिनिट के लिए रुकती थी. और अब 5 मिनिट पूरे होने को आए थे. ट्रेन किसी भी वक़्त छूट सकती थी.

किंतु कंचन को इसका होश नही था. वो किसी भी कीमत में रवि को शहर जाने से रोकना चाहती थी. वो बड़े ध्यान से ट्रेन में बैठे मुसाफिरों के चेहरों को देखती हुई
आगे बढ़ती जा रही थी.

बिरजू उसे आगे और आगे लिए जा रहा था.

सहसा ट्रेन ने सीटी बजाई. कंचन कुच्छ समझ पाती उससे पहले ट्रेन ने एक झटका खाया और चल पड़ी.

ट्रेन को चलता देख कंचन के होश उड़ गये. उसने बिरजू को आवाज़ लगाई. बिरजू थोड़ा आगे बढ़ गया था.

"ये देखो रवि बाबू यहाँ बैठे हैं." बिरजू ने कंचन को समीप बुलाते हुए कहा.

कंचन बिजली की गति से उसके करीब पहुँची.

वहाँ देखा तो रवि और मा जी नही थी.

उसे देखकर बिरजू धूर्त'ता से मुस्कुराया.

कंचन के पसीने छूट गये. किंतु अगले ही पल कंचन उसी गति से दरवाज़े की तरफ भागी.

बिरजू उसके पिछे लपका.

कंचन जब तक दरवाज़े तक पहुँचती. ट्रेन हल्की रफ़्तार पकड़ चुकी थी.

बिरजू भी उसके पिछे दरवाज़े तक पहुँचा. वो आज किसी भी कीमत पर कंचन को जाने देना नही चाहता था. ऐसा मौक़ा उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.
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Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by Jemsbond »

Shaam ke 5 baje the. kanchan apne kamre mein chinta-magn baithi thi. Chintu tv ka sound uncha kiye tv dekhne mein mashgool tha.

Kanchan ke mastishk par aaj din ki ghatna ka chalchitra chal raha tha. Kamla ji ke muh se ye sun lene ke pashchaat ki uske peeta ne 20 saal pehle ravi ke peeta ki hatya ki thi. uska komal dil aahat ho chuka tha. Uske peeta hatyare hain, sirf isliye ki aisi haveli dobara na bane, unhone ravi ke rirdosh peeta ka khoon kar diya. Ye ehsaas use andar se kachote ja rahe the. use tez ghutan si mehsus hone lagi thi.

"ab main yahan nahi rahungi." wo mann hi mann boli - "pata nahi saheb ke dil par kya guzar rahi hogi. Kya sochte honge wo mere baare mein.....Yahi na ki main kitni sangdil hoon jis ghar mein unke peeta ka khoon baha hai main usi ghar mein maze se reh rahi hoon. Nahi.....ab main yahan nahi reh sakti. Main abhi chali jaati hoon."

Kanchan ne apne vicharon ko viraam diya aur chintu ko dekha. Chintu tv par nazre jamaye baitha tha.

"chintu..." kanchan ne use pukara. Kintu chintu ke kaano mein zu tak nahi rengi. Kanchan ne dobara pukara. Par Is baar bhi chintu ka dhyan nahi toota. kanchan gusse se uthi aur uske hath se remote chheenkar tv band kar di.

Chintu muh fulakar bola - "didi tv dekhne do na. Kitni achhi picture aa rahi thi."

"nahi, ab chalo yahan se. Hum basti ja rahe hain. Ab hum yahan nahi rahenge." kanchan chintu ke ruthne ki parwaah kiye bina uska hath pakad kar use khinchti hui kamre se bahar nikal gayee.

Hall mein mantu dikhai diya. kanchan mantu se ye kehkar ki wo basti ja rahi hai, haveli se bahar nikal gayee.

Haveli se nikalkar basti ki aur jaate hue chintu ki nazren baar baar haveli ki taraf mud rahi thi. Use haveli chhutne ka behad dukh ho raha tha. Yahan use har cheej ke maze the. Roz achhe aur swadist pakwaan bhar pet khane ko mil raha tha, taaze fal, fruit ke sath gilaas bhar kar meve wala doodh bhi subah shaam peene ko mil raha tha. Wahan gaon mein tv na thi, yahan din bhar tv dekhne ka maza le raha tha.

Kintu kanchan ko chintu ke mann ki dasha ka bhaan nahi tha. wah to apne dukh se dukhi uska hath thaame use jabran khinchti hui basti ki aur badhi chali jaa rahi thi.

chalte hue achanak hi kanchan ko ye khyal aaya. -"saheb aur maa ji, haveli se nikal kar kahan gayee honge? Kahin saheb gaon chhodkar apne ghar to nahi chale gaye?"

Kanchan ke badhte hue kadam tham gaye.

Chintu ne use hasrat se dekha. Use laga shayad didi ab haveli lautegi.

"ab kya karun?" kanchan ne khud se puchha.

wo kuchh der khadi sochti rahi. Pehle uska mann chaha wo ghar jaakar baba ko sab baat bata de aur baba ko ravi aur maaji ko manane station bhej de. Shayad wey log abhi bhi wahin hon. Par agle hi pal use ye vichaar aaya ki jab tak wo ghar jaakar apne baba ko batayegi aur uske baba jab tak station aayenge. Tab tak kahin saheb aur maa ji train mein baithkar ghar na chale jaayen.

Usne khud hi station jaane ka vichaar kiya.

Wo chintu ko liye tezi se mudi. Aur station Ke raaste aage badh gayee.

Kanchan station pahunchi. Uski pyasi nazrein ravi ki talaash mein chaaron taraf daudne lagi.


Station lagbhag khali tha. Platform par koi train nahi thi.

Kaafi der idhar udhar dhundhne ke baad bhi use ravi kahin dikhai nahi diya.

ravi ko na paakar uske chehre par udaasi fail gayee. Mann rone ko ho aaya. Dabdabai aankhon se ek baar phir usne pure station par apni nazrein ghumayi. lekin ravi to na milna tha na mila.

Wo wahin lohe ki bani birth par baithkar sisakne lagi.

Chintu ke samajh mein kuchh bhi nahi aa raha tha. Lekin kanchan ko rota dekh use bhi rona aa raha tha.

Tabhi kisi train ke aane ki awaaz uske kaano se takraayi.

Usne gardan uthakar aati hui train ke taraf dekha.

Dhad-dhadati hui train platform par aakar ruki. Uske rukte hi yaatriyon ke utarne aur chadhne ka silsila shuru ho gaya. Kuchh der pehle jo station khali sa dikh raha tha ab logon ki bheed se bharne laga tha.

Kanchan kuch sochte hue uthi. Chintu ko birth par baithe rehne ko bolkar khud train ke sameep jaakar khidkiyon se train ke andar baithe musafiron ko dekhne lagi.

Uski nazren ravi ko dhundh rahi thi.

Abhi kuchh hi pal beete the ki uske pichhe se kisi ne use pukara.

Apna naam sunkar kanchan tezi se mudi. Kintu apne saamne birju ko khada dekh uski saari tezi dhari ki dhari rah gayi.

"kanchan ji kisko dhundh rahi hain aap?" birju apne kaale daant dikhakar dhurt muskaan ke sath puchha.

"main saheb ko dhundh rahi hoon." kanchan atakte hue boli.

"saheb....?" birju ne azeeb sa muh banaya - "ohhh....to tum dr babu ki baat kar rahi ho. unhe to maine train ke andar baithe dekha hai."

"kya sach mein bhaiya....?" kanchan khushi se chehakte hue boli - "kya unki maaji bhi sath thi?"

"haan maaji bhi sath thi. Kya tum unse milna chahti ho?"

"haan....!" kanchan haan mein sar hilaayi.

"to phir aao mere sath.....tumhe dr babu aur unki maaji se milata hoon."

Kanchan birju ke sath train mein chadh gayee. Ravi ke milne ki khushi se wo fule nahi sama rahi thi. Maare khushi ke uski aankhein dab-daba gayee thi. Ravi se milne ki deewangi mein wo ye bhi nahi samajh paayi ki birju use jhanse mein le raha hai aur wo kisi mushibat mein giraftaar hone wali hai.

Birju ke liye ye bin maangi muraad thi. isse achha avsar shayad use phir kabhi nahi milne wala tha.

lagbhag pure gaon ko pata tha ki birju 2 dino se shahar gaya hua hai. Ab aise mein wo kanchan ko lekar kahin bhi ja sakta tha. Kisi ko uspar shaq nahi hone wala tha.

Usne socha bhi yahi tha. Kanchan par nazar padte hi uske mann mein ye soch liya tha ki wo kanchan ko lekar shahar jaayega. Kuchh din uske sath aish karega phir use kahin bechkar gaon laut aayega.

Uska socha lagbhag sahi hua tha. Bas train chalne ki deri thi.

Is station mein train 5 minute ke liye rukti thi. Aur ab 5 minute pure hone ko aaye the. Train kisi bhi waqt chhut sakti thi.

Kintu kanchan ko iska hosh nahi tha. Wo kisi bhi keemat mein ravi ko shahar jaane se rokna chahti thi. Wo bade dhyan se train mein baithe musafiron ke chehron ko dekhti hui
Aage badhti ja rahi thi.

Birju use aage aur aage liye ja raha tha.

Sahsa train ne seeti bajayi. Kanchan kuchh samajh paati usse pehle train ne ek jhatka khaya aur chal padi.

train ko chalta dekh kanchan ke hosh ud gaye. Usne birju ko awaaz lagayi. Birju thoda aage badh gaya tha.

"ye dekho ravi babu yahan baithe hain." birju ne kanchan ko sameep bulate hue kaha.

Kanchan bijli ki gati se uske kareeb pahunchi.

Wahan dekha to ravi aur maa ji nahi thi.

Use dekhkar birju dhurt'ta se muskuraya.

Kanchan ke paseene chhut gaye. kintu agle hi pal kanchan usi gati se darwaze ke taraf bhagi.

Birju uske pichhe lapka.

Kanchan jab tak darwaze tak pahunchti. Train halki raftaar pakad chuki thi.

Birju bhi uske pichhe darwaze tak pahuncha. Wo aaj kisi bhi keemat par kanchan ko jaane dena nahi chahta tha. Aisa mauqa use phir kabhi nahi milne wala tha.
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

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ट्रेन के खुलते ही चिंटू घबरा उठा. उसने कंचन को बिरजू के साथ ट्रेन में चढ़ते देख लिया था. कंचन के ना आने से चिंटू की हिचकियाँ शुरू हो गयी. वो सीट पर खड़े खड़े रोने लगा.

तभी उसकी नज़र कंचन पर पड़ी. चलती ट्रेन में अपनी दीदी को जाते देख चिंटू का नन्हा दिल काँप उठा. उसकी दीदी उसे छोड़ कर कहाँ जा रही है? क्या वो अब कभी उससे नही मिल सकेगा. वो दीदी कहता हुआ सीट से कुदा और कंचन को छुने, उससे मिलने, उसे रोकने दौड़ पड़ा.

कंचन की नज़र भी चिंटू पर पड़ चुकी थी. चिंटू को प्लॅटफॉर्म पर यूँ भागता देख कंचन घबरा उठी. उसने पलटकर पिछे देखा. बिरजू उसके पिछे खड़ा मुस्कुरा रहा था.

कंचन ने आव देखी ना ताव.....एक ज़ोर की छलान्ग मारी और ट्रेन से नीचे कूद गयी.

बिरजू हक्का-बक्का रह गया.

उसने सपने में भी नही सोचा था कि कंचन इस तरह ट्रेन से कूद सकती है. लेकिन उसने भी ठान रखा था चाहें कुच्छ भी हो जाए आज वो कंचन को हाथ से जाने नही देगा.

ट्रेन अब स्टेशन से बाहर निकल चुकी थी और उसकी रफ़्तार भी बढ़ गयी थी.

बिरजू दरवाज़े से दो कदम पिछे हटा फिर द्रुत गति से ट्रेन के बाहर छलान्ग मारा.

किंतु किस्मत आज उसके साथ नही थी.

ट्रेन से कूदने से पहले वो ये नही देख पाया कि आगे बिजली का खंभा आने वाला है. वो जैसे ही ट्रेन से बाहर कुदा, उसका सर बिजली के खंभे से जा टकराया.

बिरजू खंभे से टकराकर नीचे गिरा. गिरते ही वो कुच्छ देर फड़फड़ा फिर शांत हो गया.

उसे गिरता देख प्लॅटफॉर्म पर मौजूद लोग तेज़ी से उसकी तरफ लपके.

कंचन भी उस दृश्य को अपनी खुली आँखों से देख चुकी थी. लेकिन उसे इस वक़्त चिंटू की चिंता थी.

ट्रेन से कूदने से उसका घुटना और हाथ बुरी तरह से छील गया था. जहाँ से रक्त की धार बह निकली थी. किंतु वो अपने दर्द की परवाह ना करते हुए फुर्ती से खड़ी हुई. फिर चिंटू की तलाश में दृष्टि घुमाई.

उसे चिंटू दौड़ता हुआ अपनी ओर आता दिखाई दिया.

कंचन ने आगे बढ़कर चिंटू को अपनी बाहों में समेट लिया. उसके गले लगते ही चिंटू फफक-कर रो पड़ा. कंचन की भी रुलाई फुट पड़ी.

कुच्छ देर में उनका रोना थमा तो कंचन चिंटू को लिए उस ओर बढ़ गयी. जिस ओर बिरजू गिरा था.

वहाँ लोगों की भीड़ जमा होती जा रही थी.

कंचन चिंटू को लिए भीड़ के नज़दीक पहुँची. वो आगे बढ़कर अंदर का नज़ारा देखने लगी. अंदर का दृश्य देखते ही उसका कलेजा मूह को आ गया.

बिरजू मरा पड़ा था. उसकी भयावह आँखें खुली अवस्था में भीड़ को घूर रही थी. सर फटने की वजह से ढेर सारा खून बहकर ज़मीन पर फैल गया था.

कंचन ज़्यादा देर उस दृश्य को नही देख सकी. वो भीड़ से बाहर निकली और चिंटू का हाथ थामे घर के रास्ते बढ़ गयी.

बिरजू की भयानक मौत ने उसके नारी मन को भावुक कर दिया था.

*****

शाम ढल चुकी थी. सुगना और दिनेश जी आँगन में बिछी चारपाई पर लेटे हुए थे.

शांता रसोई में दिनेश जी के लिए खाना परोस रही थी.

सुगना को अभी भूख नही थी. जब से कंचन हवेली गयी थी सुगना की भूख ही मिट गयी थी. यही हाल शांता का भी था. दोनो बच्चो के एक साथ चले जाने से घर सूना सूना सा हो गया था. किसी का भी दिल किसी चीज़ में नही लगता था.

शांता का मन फिर भी दिनेश जी से थोड़ा बहुत बहल जाता था. पर सुगना का दिल हमेशा कंचन की चिंता से भरा रहता था. उसे ये तो पता था क़ि हवेली में कंचन को कोई कष्ट ना होगा. फिर भी उसका मन कंचन की चिंता से घिरा रहता था.

अभी सिर्फ़ दो ही दिन हुए थे कंचन को हवेली गये और इस घर में मुर्दनि सी छा गयी थी. दो दिन पहले ये घर कंचन और चिंटू की नोक-झोंक, लड़ाई-झगड़े शोर-गुल से महका करता था. अब यहाँ हर दम वीरानी से छाई रहती.

पहले बिना विषय के भी सुगना और शांता घंटो बात कर लेते थे. अब विषय होने पर भी चार शब्द बोले नही जाते थे.

उनका दुखी हृदय कोई भी बात करने को राज़ी ही ना होता था. अब उनकी बातें सिर्फ़ हां-हूँ में पूरी हो जाती थी.

इस वक़्त भी सुगना कंचन के बारे में ही सोच रहा था. मूह में बीड़ी की सीलि दबाए वो कंचन के बचपन के दीनो में खोया हुआ था.

तभी दरवाज़े पर हलचल हुई.

सुगना ने गर्दन उठाकर देखा. कंचन चिंटू के साथ आँगन में परवेश करती दिखाई दी.

"कंचन...!" उसपर नज़र पड़ते ही सुगना के मूह से बरबस निकला.

सुगना की आवाज़ से शांता भी रसोई से बाहर निकली.

"बाबा..." कंचन कहती हुई सुगना से आ लिपटी.

"बेटी तुम लोग इस वक़्त यहाँ, और ये क्या हालत बना रखी है तूने? वहाँ सब ठीक तो है?" सुगना ने कंचन के हुलिए और मुरझाए चेहरे को देखते हुए कहा.

कंचन के जवाब देने से पहले शांता भी रसोई से आँगन में आ चुकी थी.

"सब गड़-बॅड हो गया है. वहाँ कुच्छ भी ठीक नही है." कंचन रुनवासी होकर बोली.

"क्या कह रही है तू....?" सुगना चौंकते हुए बोला - "ठाकुर साहब कैसे हैं? रवि बाबू और उनकी माजी कैसी हैं?"

"पिताजी अच्छे हैं, साहेब और माजी भी ठीक हैं....लेकिन वहाँ....."

"वहाँ सब अच्छे हैं तो फिर गड़-बॅड क्या है...?"

जवाब में कंचन ने हवेली से लेकर बिरजू के मरने तक की सारी बातें बता दी.

सुनकर सुगना के साथ साथ शांता और दिनेश जी के मूह भी खुले के खुले रह गये.

एक तरफ बिरजू की मौत से जहाँ शांता ने राहत की साँस ली, वहीं दूसरी तरफ रवि के पिता की मौत का रहस्य जानकर सुगना चींतीत हो उठा. उसे चिंता कंचन की थी. उसके विवाह की थी. इस रहस्य को जान लेने के पश्चात कमला जी कंचन को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार करेंगी या नही ये सवाल उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मचा रहा था.

"तू चिंता मत कर बेटी.....चल खाना खा ले. सब ठीक हो जाएगा." शांता उसे गले से लगाती हुई बोली.

"कुच्छ ठीक नही होगा बुआ." कंचन नाक फुलाकर बोली. - "मा जी मुझे अपनी बहू कभी नही बनाएँगी. मैं उन्हे पसंद नही."

"दुखी ना हो बेटी, तू तो लाखों में एक है. मेरे होते तुझे चिंता करने की ज़रूरत नही है. मैं सब ठीक कर दूँगा." सुगना ने कंचन को दिलाषा देते हुए कहा.

शांता कंचन को अंदर ले गयी और उसके ज़ख़्मो पर मरहम लगाने लगी. लेकिन जो ज़ख़्म उसके दिल पर लगे थे, उसका मरहम शांता के पास ना था और ना ही सुगना के पास.

सुगना चारपाई पर बैठा गेहन चिंता में डूबा हुआ था. वो यही सोचे जा रहा था. क्या वास्तव में कमला जी अपने पति की मृत्यु को भूलकर कंचन को अपनी बहू अपना सकेंगी. या फिर ज़िंदगी भर कंचन को रवि बाबू के लिए तड़पना पड़ेगा. उसकी सोच गहरी होती जा रही थी. पर उसे अपने किसी भी सवाल का जवाब नही मिल रहा था.

सचमुच इस बार वादी ने ऐसा तीर छोड़ा था जिसकी कोई काट उसके पास ना थी. वो सिर्फ़ तड़प सकता था. तड़प उठा था.
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