हास्य कहानी-अरे नालायक ! आनन्द कुमार

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Kamini
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हास्य कहानी-अरे नालायक ! आनन्द कुमार

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हास्य कहानी-अरे नालायक ! आनन्द कुमार


नींद की खुमारी में सुभद्रा ने ना चाहते हुये भी घड़ी देखी और चौंक गईं – सात बज चुके थे। उन्होंने करवट बदली, पर नींद नहीं आई। कल रात अँकुर की शादी के रिसेपशन से लौटते लौटते बहुत देर हो गई थी। फिर गुम हुये डिब्बों के चक्कर में दो घण्टे और जागना पड़ा था। पर उठना ज़रूरी था – उनको अपने बेटे बहू के साथ कुल देवी के मन्दिर दर्शन करने जाना था। सुभद्रा उठीं और बेटे बहू को तैयार होने को कह कर खुद तैयार हो गईं। एक घण्टे बाद सास, बहू, बेटे और कुछ महिलाओं के साथ मन्दिर के लिये निकल पड़ीं।
सुभद्रा के जाने के कुछ देर बाद अँकुर की मामी ने अपनी बेटी के साथ एक चाय का प्याला अँकुर के पापा शैलेन्द्र के लिये भिजवा दिया। बेटी ने कमरे में जाकर “फूफाजी, फूफाजी” आवाज़ दी। कोई जवाब ना मिलने पर उसने चाय तिपाई पर रख दी और कहा “फूफाजी, आपकी चाय रक्खी है”। आधे घण्टे बाद अँकुर की मामी ने अपनी बेटी को फूफाजी के कमरे से खाली प्याला लाने को कहा। बेटी ने कमरे में देखा कि चाय का प्याला वैसे का वैसा ही रक्खा है। उसने तीन बार “फूफाजी, फूफाजी” आवाज़ लगाई, और फिर चाय का प्याला लेकर अपनी माँ के पास लौट आई। फिर अँकुर की मामी ने शैलेन्द्र के कमरे का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से खटखटा कर कई बार “जीजाजी, जीजाजी” आवाज़ दी।
जब कोई जवाब नहीं मिला तो घबरा कर दौड़ते हुये आँगन में आईं और लगभग चीखते हुये बोलीं “अरे देखो जीजाजी को क्या हो गया है, कोई जवाब नहीं दे रहे हैं। हे भगवान . . .।”
उस समय घर में सिर्फ़ औरतें थीं, सभी मर्द गणेश गंज से नाश्ते के लिये कचौड़ियाँ, जलेबी वगैरह लेने गये हुये थे। अँकुर की दो मौसियाँ और एक चाची शैलेन्द्र के कमरे में गईं और कई आवाज़ें दीं, पर शैलेन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया।
एकदम से अँकुर की चाची ज़ोर से रोने लगीं “हाय रे देखो भाई साहब को क्या हो गया है? जाने किस की नज़र उनको खा गई? अभी अँकुर की नई बहू आई, और अभी यह हो गया। कल तक तो भाई साहब अच्छे भले थे और आज देखो। अब बहू का क्या होगा? हाय रे . . .।”
किसी ने कहा कि डॉक्टर को बुलाओ, पर कोई किसी आसपास के डॉक्टर को जानता नहीं था। कई औरतें ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं, और कुछ सुबक रही थीं। बच्चे सहमे सहमे शान्त बैठे थे। यह सब कुछ अँकुर की छोटी चचेरी बहन ममता, हैरान होकर देख रही थी। सोचते सोचते ममता का ख्याल उस समय पर गया, जब अँकुर भैया की शादी तय हुई थी।
अँकुर भैया की शादी नवम्बर में होनी थी और सबके पास तैयारी करने के लिये छह महीने से ज़्यादा का समय था। सुभद्रा चाची पहले से ही अपनी बहू के लिये गहने, साड़ी वगैरह इकट्ठा कर रही थीं। शादी तय होने के बाद वो इस काम पर ज़ोर शोर से जुट गईं।
शैलेन्द्र चाचा को बाहर के सारे काम देखने थे। शादी लखनऊ में ही होनी थी।
चाचा बहुत मौज में थे और अक्सर कहा करते थे “हमारा सारा काम बहुत सहल है। लखनऊ में हमारे इतने जानने वाले हैं कि सब काम कहने भर से हो जायेगा। और काम भी क्या है – बारात में सज कर जाना है, खा पी कर लौट आना है। एक रिसेपशन का इंतज़ाम करना है, बस इतना सा काम। स्वाति की शादी में जितने पापड़ बेलने पड़े थे, उसके मुकाबले तो यह बच्चों का खेल है।”
दोस्तों और चाची ने ज़ोर दिया तो रिसेपशन के लिये मोती महल लॉन्स की बुकिंग कर दी, और एक केटरर को भी बुक कर दिया। इन दोनों की बुकिंग हो गई तो चाचा को और भी तसल्ली हो गई।
शादी के दो हफ़्ते पहले बम्बई से स्वाति दीदी आ गईं। उनके बाद धीमे धीमे मेहमानों से घर भरना शुरू हो गया। चाचा बहुत खुश थे – शादी के लिये उनके कई रिश्तेदार और दोस्त आ रहे थे। इंतज़ाम सारे हो चुके थे। वो सबके साथ मिलने और गप मारने के लिये उत्सुक थे। मेहमानों को लाने ले जाने और शादी की दूसरी दौड़ धूप के लिये चाचा ने दो टैक्सियाँ लगवा दी थीं। टैक्सियों को कहाँ भेजना है और ड्राइवरों के साथ सामंजस्य के लिये मोन्टी भैया को ज़िम्मेदारी दी गई थी। मोन्टी भैया चाचा के अभिन्न मित्र मोहन चाचा के बेटे थे और पास के मुहल्ले में रहते थे।
शादी के दो दिन पहले चाची के पास उनकी भाभी का फ़ोन स्टेशन से आया कि वो लोग स्टेशन पर हैं, कुछ देर से ढूँढ रहे हैं, पर कोई जान पहचान का दिख नहीं रहा है। चाची ने किसी को बाहर भेजा – दोनों में से कोई भी टैक्सी बाहर नहीं थी। उन्होंने तुरन्त चाचा को फ़ोन लगाया “सुनिये जी, नन्हे भैया वाली भाभी अपने बच्चों के साथ प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी हैं, और वहाँ पर कोई उन्हें लेने वाला मिला नहीं है। बाहर दोनों में से कोई भी टैक्सी नहीं है।”
“मोन्टी कहाँ है? उससे कहो।”
“अरे वो मिले तब तो कहें – कहीं दिख भी नहीं रहा है, और फ़ोन भी स्विच ऑफ़ आ रहा है। आप जल्दी से कुछ करिये। बेचारी भाभी बच्चों के साथ स्टेशन पर परेशान हो रही होंगी।”
करना क्या था, चाचा अपना काम छोड़ कर स्टेशन भागे और मेहमानों को घर लेकर आये। सामान रख कर रिक्शे को जैसे ही विदा किया गया, वैसे ही मोन्टी भैया झोंके से घर में दाखिल हुये।
“अरे मोन्टी तुम कहाँ थे? और टैक्सियाँ कहाँ हैं? जब काम पड़ा तो तुम और टैक्सी दोनों ही गायब हो गये। हमको अपना काम छोड़ कर स्टेशन भागना पड़ा”, खीजते हुये चाचा ने हड़काया।
“अरे चाचा, आपको क्या बतायें रिकाब गंज में ऐसा भयंकर जाम लगा हुआ था, चिड़िया भी उसमें से निकल नहीं पा रही थी। हम उसी में फंसे हुये थे।”
“वो तो ठीक है, पर तुम क्या कर रहे थे? किसके साथ थे?”
“वो सरिता को पार्लर जाना था। उसके साथ ही गये हुये थे।”
“सरिता ?”
“अरे वो स्वाति दीदी की दोस्त की बहन।”
“और अपना फ़ोन क्यों स्विच ऑफ़ कर रक्खा था?”
“अरे! वो स्विच ऑफ़ है, कैसे हो गया?” आवाज़ में ताज्जुब दिखाते हुये मोन्टी भैया ने जवाब दिया। “सॉरी चाचा, गलती हो गई। आगे से ऐसा नहीं होगा।”
“और दूसरी टैक्सी कहाँ थी?”
“चाचा, उसको अपने किसी काम से जाना था, सो हमने उसको जाने दिया।”
“देखो मोन्टी, ज़िम्मेदारी से अपना काम करो। तुम को इतना ज़रूरी काम दिया गया है, और तुम हो कि रंगीनियों में पड़े हुये हो। आज जिसको जिसको स्टेशन से लाना है, उसकी लिस्ट है ना तुम्हारे पास?”
“जी चाचा है।”
देर रात तक गप शप चलती रही, हँसी मज़ाक होता रहा। सबको सोये हुये एक घण्टा भी नहीं हुआ था कि चाचा का फ़ोन बज उठा।
“अरे शैलेन्द्र, हम शिशिर बोल रहे हैं, रामपुर वाले मामा के लड़के। हम लोगों की गाड़ी लेट हो गई और अभी पहुँची है। हमको तुम्हारे घर का रास्ता ठीक से याद नहीं है, और रात में ढूँढ नहीं पायेंगे। साथ में तुम्हारी भाभी भी हैं। क्या किसी को भेज सकते हो, हम लोगों को स्टेशन से लिवा ले जाने के लिये?”
“नमस्ते भैया। हाँ हाँ, किसी को भेजते हैं।”
“ज़रा जल्दी भेजना, हम लोग जल्दी सोना चाहते हैं।” फिर फुसफुसाते हुये “तुम्हारी भाभी का मूड बहुत खराब है, बहुत जल्दी भिजवाओ।”
आनन फानन में चाचा तैयार हुये और स्टेशन से मेहमानों को लेकर आये।
सुबह चाचा सो ही रहे थे कि चाची ने उन्हें झकझोर कर उठाया “उठिये जी, शादी का घर है, और आप अभी तक सो रहे हैं। गैस खतम हो गई है, एक सिलिन्डर का इंतज़ाम करवाइये।”
“हैं! क्या कहा?” आँखें मलते हुये चाचा बोले।
“क्या कहा क्या? एक सिलिन्डर का इंतज़ाम करवाइये, गैस खतम हो गई है।”
“मोन्टी ने लाकर नहीं रक्खा? उससे कहा था कि अपने घर से एक भरा सिलिन्डर यहाँ लाकर रख देना। मोहन से हमारी बात हो गई थी”।
“सिलिन्डर तो नहीं आया। अब मोन्टी का नाम जपने से आ जाये तो बात अलग है। पर अभी तो घर में गैस खतम है।”
“अरे चाय तो पिलाओ, फिर देखते हैं”, उनींदे से चाचा बोले।
“चाय कहाँ से पिलायें। सारे मेहमान भी ऐसे ही बैठे हुये हैं। इतनी देर से कह रहे हैं कि एक सिलिन्डर का इंतज़ाम करवाइये, तो मगज में घुस नहीं रहा है राजा साब के”, झल्लाते हुये चाची बोलीं। “इस मुए सिलिन्डर को भी अभी ही खतम होना था।”
डाँट का करेन्ट लगा तो चाचा एक झटके से उठ खड़े हुये, तीर से आगे बढ़े, आधे खुले दरवाज़े से टकराये, ओs s ह चिल्लाये और अपना चेहरा रगड़ते हुये बिस्तर पर बैठ गये।
“हाय, हाय, हाय यह क्या हुआ? यह तो बहुत चोट लग गई”, अपने पल्लू से चाचा का चेहरा मलते हुये चाची बोलीं।
चोट ज़्यादा नहीं थी। जैसे ही चाचा को राहत हुई चाची बोलीं “लेओ, अभी तक तो सिर्फ़ सिलिन्डर ना होने की मुसीबत थी, अब इन्होंने अपना मुँह फोड़वा लिया। अब लड़की वालों को कैसा चेहरा दिखायेंगे?”
थोड़ा देर में चाचा उठकर अपने पड़ोसी पुत्तन चाचा के घर सिलिन्डर लाने गये। यह पहले बात हो चुकी थी कि उनके घर का दूसरा सिलिन्डर शादी के काम में लगेगा। पता चला कि दूसरा सिलिन्डर खाली था और भरा सिलिन्डर उसी दिन दोपहर में आना था। वहाँ से हताश होकर चाचा ने मोहन चाचा (मोन्टी भैया के पापा) को फ़ोन किया। उनके यहाँ एक भरा सिलिन्डर था, पर मोन्टी भैया जौगिंग करने गये हुये थे, और मोहन चाचा नहा रहे थे। उसी स्थिति में पायजामा पहने हुये चाचा ने स्कूटर स्टार्ट की और भरा सिलिन्डर स्कूटर पर बाँध कर लाये। तब जाकर उनको चाय नसीब हुई।
बारात की निकासी में देर हो रही थी। सब तैयार थे – बाराती, बैंड, बत्ती, दूल्हा। बस दूल्हे की कार सज कर आई नहीं थी।
“शैलेन्द्र, बारात की निकासी करवाओ। बैंड वाले बेचैन हो रहे हैं। उन्हें इसके बाद दो और बारातों में जाना है।”
“हाँ, हाँ निकासी की रस्में करवाते हैं। देखो बेटा दूल्हे की कार सज कर आ गई की नहीं?”
“नहीं, दूल्हे की कार तो नहीं आई है।”
“अरे, यह मोन्टी कहाँ रह गया? उसको कार सजवा कर लाना था। फ़ोन करें।” . . . । “मोन्टी तुम कहाँ हो? यहाँ बारात उठने को तैयार खड़ी है, और दूल्हे की कार गायब है।”
“बस चाचा आया। यह हम लोग एक ट्रैफ़िक जाम में फँस गये हैं। बस उसमें ही देर हो रही है।”
“पर पीछे से कोई ट्रैफ़िक की आवाज़ें नहीं आ रही हैं। तुम वहाँ से निकले हो कि नहीं?”
“वहाँ से निकले तो बहुत समय हो गया। ट्रैफ़िक की आवाज़ इसलिये नहीं है क्योंकि सारा ट्रैफ़िक रुका पड़ा है। जाम जैसे ही खुलता है, हम फटाफट पहुँचते हैं।”
फ़ोन बन्द करते ही मोन्टी ने फूल वाले से कहा “फ़टाफ़ट गाड़ी सजाओ, वहाँ बहुत जूते पड़ रहे हैं।”
“बाबूजी आप अभी तो गाड़ी लेकर आये हैं, सजाने में थोड़ा टाइम तो लगेगा ही।”
हुआ यह था कि गाड़ी लेकर मोन्टी भैया खुद सजने के लिये पार्लर चले गये थे, और वहाँ उन्हें बहुत टाइम लग गया था।
इधर बहुत देर होने लगी तो बैंड वालों ने अपनी गाड़ी में बैंड बाजा रक्खा और दूसरी जगह जाने लगे। परिवार में अफ़रा तफ़री मच गई – बैंड के बिना बारात की कोई शोभा नहीं रहेगी। चाचा परेशान सर पकड़ कर बैठे सोचते रहे। फिर बड़ों ने सलाह की और तय किया कि अँकुर भैया एक साधारण कार में बैठ कर निकलेंगे और जब दूल्हे वाली गाड़ी आ जायेगी, तब बीच रास्ते में उसको बदल देंगे।
बारात जब शादी घर से सौ कदम दूर रह गई तब मोन्टी भैया दूल्हे की गाड़ी लेकर पहुँचे। इससे पहले कि कोई उनसे कुछ कहता, मोन्टी भैया सीधे नाचने वालों की भीड़ में शामिल हो गये। और जब नाचे तब क्या नाचे, बिल्कुल छा गये। लोग उन पर न्यौछावर पर न्यौछावर करने लगे। बैंड वाले और ज़ोर से थिरकने वाली धुनें बजाने लगे। और शादी घर के गेट पर मोन्टी भैया ने तो कमाल ही कर दिया। लगातार पन्द्रह मिनट तक पूरे जोश से नाचते रहे – कभी नागिन डान्स, कभी कजरारे, तो कभी रुकना ऐ हसीनों।
इधर शैलेन्द्र चाचा बहुत बेसब्री से डान्स खतम होने का इंतज़ार करते रहे कि कब डान्स खतम हो और कब वो मोन्टी भैया की क्लास लें। पर डान्स खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। हार कर चाचा को आगे बढ़ कर द्वारचार की रस्में शुरू करनी पड़ीं।
जयमाल के समय मोन्टी भैया को होने वाली भाभी की एक माधवी नाम की सखी बहुत रास आ गई। वो उसी सखी के आस पास चक्कर काटने लगे। मोन्टी भैया माधवी के साथ ठिठोली करने और फ़ोटो खींचने के मौके ढूँढने लगे। मौके मिलते रहे। माधवी भी हँस हँस कर मज़ाक का सटीक जवाब देती और फ़ोटो के लिये पोज़ देती रही।
एक फ़ोटो लेते समय मोन्टी भैया पंजों के बल बैठ कर सही फ़ोटो के लिये पीछे खिसके जा रहे थे। पीछे से उनकी मम्मी हाथ में क़ॉफ़ी का कप लिये किसी के साथ बातों में मशगूल चली आ रही थीं। मोन्टी भैया सही फ़ोटो के लिये थोड़ा पीछे खिसके और अपनी मम्मी से टकरा गये। उनके हाथ से क़ॉफ़ी का कप छूटा, क़ॉफ़ी थोड़ी उनके कपड़ों पर गिरी और थोड़ी मोन्टी भैया के कपड़ों पर।
झुंझला कर उन्होंने झाड़ लगाई “मोन्टी, यह क्या हो रहा है?”
झाड़ लगाते हुये उन्होंने नज़र उठाई और माधवी को पोज़ देते हुये देखा।
“सॉरी सॉरी मम्मी, हमने देखा ही नहीं। रुकिये हम पानी”
बात को बीच में ही काटते हुये उनकी मम्मी बोलीं “अरे नालायक, सरे आम आवारगी कर रहे हो।” और कहते कहते उनके हाथ मोन्टी भैया के कानों तक बढ़े।
उनके हाथ को उनके साथ वाली महिला ने बीच में ही रोक दिया “अरे नहीं भाभी, यहाँ बीच पंडाल में नहीं।”
दाँत पीसते हुये मम्मी बोलीं “घर पहुँचो, तुम्हारी खबर लेते हैं।”
रात के साढ़े बारह बज चुके थे। लगभग सभी बाराती और मेहमान जा चुके थे। बारातियों मे सुभद्रा चाची, छोटी चाची, नीलू मौसी, स्वाति दीदी और हम सब भाई बहन शादी के लिये रुके हुये थे।
तभी स्वाति दीदी की दोस्त की बहन, जिसको दो दिन पहले मोन्टी भैया पार्लर लेकर गये थे बोली “अरे मोन्टी नहीं दिख रहे हैं और माधवी भी नहीं दिख रही है। अभी कुछ देर पहले हमने उन दोनों को हँस हँस कर बात करते देखा था।”
फिर क्या था बचे हुये बारातियों में हड़कंप मच गई।
सुभद्रा चाची ने शादी की तैयारियों से अपना ध्यान हटाया और हम सबको निर्देश दिया “जाओ, हर कोने अँतरे में दोनों को ढूँढ कर आओ। कोई भी जगह अनदेखी ना बचे। जैसे ही मिलें, उन दोनों को हमारे सामने लाओ।”
शैलेन्द्र चाचा मेहमानों को विदा कर सोने के लिये घर जाने ही वाले थे कि यह सब हो गया। वह भी बच्चों के साथ ढूँढने में लग गये। घरातियों से माधवी के बारे में पूछा गया तो अलग अलग बातें निकल कर आईं।
“माधवी घर गई।”
“माधवी, अरे वो आपके यहाँ का एक दिलफेंक लड़का था ना, उसके साथ कहीं जा रही थी।”
“माधवी को शालू के साथ घर जाना था। कल सुबह उसका ऑफ़िस है।”
हम लोगों ने आधे घण्टे तक पूरे बारात घर का चप्पा चप्पा छान मारा, पर ना मोन्टी भैया मिले ना माधवी। अब तो चाचा चाची का हाल देखने लायक था। चाची शादी के सामान के पास सिर पकड़ कर बैठी हुई थीं। चाचा मुट्ठी भींच रहे थे और खोल रहे थे। साथ ही साथ सर झुका कर धीमे धीमे आगे पीछे टहल रहे थे।
एकदम से चाचा को खयाल आया और उन्होंने मोन्टी भैया के पापा को फ़ोन किया “अरे मोन्टी घर पर है क्या?”
“नहीं, मोन्टी तो वहीं बारात घर में है। घर नहीं आया। कोई खास बात है क्या?”
“नहीं, ऐसे ही ढूँढ रहे थे। कुछ काम था।”
पीछे से मोन्टी भैया की मम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ी “कहीं उस लड़की के साथ तो नहीं निकल गया? हे भगवान!”
हम लोग इस सब पर चर्चा कर ही रहे थे कि बारात की कारों में से एक कार आकर खड़ी हुई। उसके ड्राइवर से पूछा गया तो उसने बताया कि वह कृष्णा नगर में किसी लड़की को छोड़ कर आ रहा है। मोन्टी भैया उस लड़की को छोड़ने आये थे और उन्होंने ही ड्राइवर से लड़की को छोड़ कर आने को कहा था। लड़की का उसने जो वर्णन किया उससे समझ में आया कि वह माधवी ही थी। माधवी का पता चल गया पर मोन्टी भैया का अभी तक कुछ पता नहीं चला था। उधर शादी शुरू हो गई थी और चाची उसमें व्यस्त हो गईं।
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चाचा घर गये, वहाँ से अपनी स्कूटर और टॉर्च ली, और बारात घर से गुज़रने वाली सड़कों पर मोन्टी भैया को ढूँढने निकल पड़े। सुबह तीन बजे के बाद, दर्द से कराहते हुये मोन्टी भैया को स्कूटर पर बैठा कर चाचा बारात घर पहुँचे। चाचा को मोन्टी भैया वहाँ से करीब दो किलोमीटर दूर फ़ुटपाथ पर बैठे हुये मिले।
“माधवी को कार में बैठाने के बाद हमारा पान खाने का मन हुआ, और हम पान ढूँढने निकल पड़े। देर रात होने के कारण हमें पान चारबाग स्टेशन के पास मिला। वहाँ से लौटते समय एक पत्थर से ठोकर खाकर लड़खड़ाये तभी पीछे से आती एक स्कूटर ने हमें धक्का मारा और हम सड़क पर गिर गये। स्कूटर वाले ने हमें उठाया और फ़ुटपाथ पर बैठा कर चला गया। इस सब में हमारा मोबाइल टूट गया।”
काफ़ी दर्द में रहने के बावजूद मोन्टी भैया को ज़्यादा ग़म मोबाइल टूट जाने का था। शादी की रस्मों से थोड़ी फ़ुरसत मिलने पर सुभद्रा चाची ने भी मोन्टी भैया का हालचाल लिया।
शादी में वापस जाते हुये बोलीं “अरे सरिता (स्वाति दीदी की दोस्त की बहन) का शुकर मानो कि उसने हम लोगों को तुम्हारे गायब होने के बारे में बताया। नहीं तो सुबह तक नाली में औंधे मुँह पड़े रहते।”
एक दिन छोड़ कर अँकुर भैया और भाभी का रिसेपशन था। चाचा ने मोती महल लॉन्स में बड़ा शानदार इंतज़ाम किया था। स्टेज पर भैया भाभी खूब फ़ब रहे थे। दोस्त और रिश्तेदार बारी बारी से आकर नये जोड़े को बधाईयाँ दे रहे थे और साथ में या तो नकद का लिफ़ाफ़ा या कोई तोहफ़ा पकड़ा रहे थे। सुभद्रा चाची और छोटी चाची लिफ़ाफ़ों को सहेज कर अपने पर्स में रख रही थीं, और तोहफ़ों के किनारे लगा दे रही थीं।
रिसेपशन में मोन्टी भैया खूब जँच रहे थे, पर शादी की रात की चोट से अभी भी लंगड़ा रहे थे। रिसेपशन में माधवी भी कुछ सखियों के साथ पहुँची। उसको देख कर मोन्टी भैया में एक नई स्फूर्ति आ गई। भैया भाभी को बधाई देकर माधवी जैसे ही नीचे उतरी, मोन्टी भैया ने उसे घेर लिया और अपनी लंगड़ाहट को छुपाते हुये उससे हँस हँस कर बातें करने लगे। यह सब कुछ ही देर चला होगा कि पंडाल के दूसरे छोर से उनकी मम्मी ने उन्हें हँस हँस कर बातें करते देखा। अपनी गप शप छोड़ कर वह मोन्टी भैया की तरफ़ तेज़ कदमों से बढ़ीं। बातें करने में मशगूल मोन्टी भैया ने आते हुये खतरे को देखा ही नहीं। हम सब देखने वाले साँसें रोक कर खड़े हो गये कि अब मोन्टी भैया की शामत आई।
जब वह मोन्टी भैया से थोड़ी दूर रह गईं, तो दाँत पीसते हुये गुर्राईं “मोन्टी, ज़रा इधर तो आओ।”
गुर्राहट सुनकर भैया की मुस्कान गायब हो गई और चेहरे पर से रंग उतर गया।
पर अगले ही क्षण उन्होंने अपने आप को संभाला और “जी जी मम्मी, अभी आते हैं। वो शैलेन्द्र चाचा ने कुछ बुलाया है, उनकी बात सुन लें फिर आते हैं”, कहते हुये मोन्टी भैया वहाँ से ऐसा सरपट भागे जैसे कि गधे के सिर से सींग।
थोड़ी देर बाद मोन्टी भैया माधवी की फ़ोटोएँ लेते, स्टेज की आड़ में खाने के मैदान से थोड़ी दूर एक बैठने की जगह में देखे गये। उसी समय ऊपर स्टेज पर फ़ोटोओं में थोड़ी राहत के कुछ क्षणों में सुभद्रा चाची और चाचा आपस में बात कर रहे थे।
“यह गिफ़्ट के डिब्बे अब बहुत हो गये हैं। हम लोगों ने इनकी लिस्ट बना ली है। अब इनको घर भिजवाइये।”
“पर घर पर तो ताला लगा है, किसके पास भिजवायें?”
“अभी कुछ देर पहले खाना खाकर बनवारी भैया घर गये हैं। हमने कुछ डिब्बे उनके साथ भिजवा दिये। कुछ और किसी और के साथ भिजवाइये। यहाँ जगह बने।”
“ठीक है मुकुल ने खाना खा लिया है। वह घर के पास से ही गुज़रेगा। उसके साथ भिजवा देते हैं।” यह कहते हुये चाचा ने नज़रें दौड़ाईं और नीचे मोन्टी भैया फ़ोटो खींचते दिखे।
“मोन्टी ऊपर आओ, एक ज़रूरी काम है। गप शप बाद में कर लेना।”
मोन्टी भैया के तो जैसे चाचा ने कान उमेठ दिये हों। बहुत अनमने से लंगड़ाते हुये धीरे धीरे स्टेज के ऊपर गये।
चाचा ने उनके हाथ में कई सारे डिब्बे पकड़ाये और कहा “देखो मुकुल अभी घर जाने वाला है। उसकी गाड़ी में यह डिब्बे रख देना और कह देना कि घर पर बनवारी के पास छोड़ दे।”
चाची ने धीमे से विरोध किया “अरे इसको कहाँ भेज रहे हैं।”
“तो फिर किसको भेजें? कोई दूसरा दिख भी तो नहीं रहा है, और मुकुल निकलने वाला है। उसके बाद पता नहीं कौन उस तरफ़ जाये।”
मोन्टी भैया धीरे धीरे लंगड़ाते हुये डिब्बे लेकर पार्किंग की तरफ़ बढ़े। जब वो वहाँ पहुँचे तब तक मुकुल चाचा अपने घर के लिये निकल चुके थे। उनको अब डिब्बे लेकर वापस आना था, और लौटने पर उनको चाची से झाड़ पड़ती। तभी वहाँ से शादी की गाड़ियों में से एक गाड़ी कुछ मेहमानों को चारबाग स्टेशन छोड़ने जा रही थी। मोन्टी भैया ने सारे डिब्बे उस गाड़ी में रख दिये और ड्राइवर से उन डिब्बों को घर पर छोड़ते हुये आने को कहा।
देर रात गये मेहमानों को विदा कर जब चाचा चाची घर लौटे तो चाची ने गिफ़्ट के डिब्बों की गिनती की। तीन डिब्बे कम मिले तो अपनी लिस्ट से एक एक डिब्बे को मिलाया। पता चला कि मोन्टी भैया को जो तीन डिब्बे दिये गये थे वो गायब थे। उनमें से एक वैनिटी केस था जिसमें उपहार में मिले कुछ ज़ेवर रखे थे। वैनिटी केस की चाबी चाची के पास थी पर केस गायब था।
अब क्या था चाची चाचा पर बरस पड़ीं “आपसे कहा था कि उस नालायक मोन्टी के साथ मत भिजवाइये। पर आपके लिये तो वो आदर्श बालक है – ज़िम्मेदार, सच बोलने वाला। अब भुगतिये ख़ामियाज़ा उस पर भरोसा करने का। बहू के गहने भी भेंट चढ़ गये उसकी लापरवाही के।”
“पर तुमने कौन सा साफ़ साफ़ कहा था। धीमे से बोलीं थीं। हमको लगा था उसकी चोट की वजह से तुम झिझक रही हो। उसकी चोट को हमने नज़रअंदाज़ कर दिया था।”
“आपकी अपनी भी तो कुछ अक्ल है, या सब कुछ हम ही बतायें। उस जैसा लापरवाह लड़का देखा नहीं।”
चाचा ने उसी समय मोन्टी भैया को फ़ोन लगाया और उन डिब्बों के बारे में पूछा।
“हैं! वो डिब्बे घर नहीं पहुँचे?”
“नहीं। और उनमें से एक में ज़ेवर थे। तुमने उनको मुकुल की गाड़ी में रक्खा था कि नहीं?”
“रुकिये रुकिये चाचा, आपको हम बताते हैं क्या हुआ। जब हम पार्किंग में पहुँचे तो वहाँ से मुकुल चाचा निकल चुके थे। पर वहाँ से इदरीस ड्राइवर कुछ मेहमानों को चारबाग छोड़ने जा रहा था। हमने सारे डिब्बे इदरीस की गाड़ी में रख दिये और उससे कहा था कि लौटते वक्त इन डिब्बों को घर छोड़ता हुआ आये।”
“मोन्टी तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो? अच्छे ख़ासे बड़े हो गये हो, और एक काम ज़िम्मेदारी से नहीं कर पाते हो। इदरीस को तुरन्त पकड़ो और पता लगाओ कि उसने डिब्बे कहाँ रक्खे हैं। हम तुम्हारे जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं।”
चाची गुस्से में भुनभुनाती रहीं, और चाचा सिर नीचा किये बरामदे में आगे पीछे टहलते रहे।
पाँच मिनट बाद मोन्टी भैया का वापस फ़ोन आया “चाचा, इदरीस कह रहा है कि जब वो चारबाग पहुँचा , तो उसे तुरन्त वापस बुला लिया गया किसी मेहमान को राजाजीपुरम छोड़ने के लिये। मुन्ने चाचा भी कुछ मेहमानों को छोड़ने के लिये उसी समय चारबाग पहुँचे थे। उनके कहने पर इदरीस ने वो डिब्बे मुन्ने चाचा की कार में रख दिये। अब ज़रा मुन्ने चाचा से बात कर लीजिये आप।”
“तुम भी मोन्टी, देख रहे हो तुम्हारी लापरवाही से कितनी फ़ज़ीहत हो रही है।”
रात के एक बज चुके, पर फिर भी चाचा ने मुन्ने चाचा को फ़ोन लगाया।
“अरे मुन्ने, यार तुम्हें सोती रात में जगा रहे हैं, माफ़ करना। कष्ट इसलिये दे रहे हैं कि उपहार के कुछ डिब्बे गड़बड़ गये हैं। तुम्हें उनके बारे में कुछ मालूम है?”
“अरे नहीं नहीं शैलेन्द्र नहीं। हाँ, कुछ गिफ़्ट के डिब्बे हमारे पास आ गये हैं। चारबाग पर तुम्हारे यहाँ के इदरीस ड्राइवर ने हमें दिये थे। हमने घर पहुँच कर तुम्हें फ़ोन लगाया, पर शायद तुम व्यस्त थे, तुमने फ़ोन उठाया ही नहीं।”
“मुन्ने यार! बहुत बहुत धन्यवाद। बहुत राहत मिली, नहीं तो हम लोग परेशान हो गये थे। तुम्हारा फ़ोन भीड़भड़क्के में हमको सुनाई ही नहीं पड़ा। नहीं तो ज़रूर उठाते।”
“चलो कोई बात नहीं।”
चाची ने इशारा किया कि इसी वक़्त डिब्बे ले आये जायें।
“यार मुन्ने, तुम सुबह क्यों मेहनत करोगे? हम अभी आकर डिब्बे तुम्हारे यहाँ से ले जाते हैं।”
“नहीं, नहीं, तुम थके हुये हो। तुम आराम करो, हम वादा करते हैं कि डिब्बे तुम्हारे घर सवेरे ज़रूर पहुँच जायेंगे।”
“नहीं, नहीं मुन्ने, तुम क्यों तकलीफ़ करोगे? हम आते हैं।”
“अरे कहाँ की तकलीफ़ शैलेन्द्र? तुम भी क्या बात कर रहे हो?”
“अच्छा, तुम्हारी बात”। चाचा ने चाची को आँखें तरेरते देखा और बात अधूरी छोड़ दी। “हम घर से निकले और समझो कि तुम्हारे घर पहुँचे। तुम्हारी नींद ज़्यादा नहीं खराब करेंगे।”
“आओ, आओ, तुम्हारा स्वागत है।”
चाचा चाची गये और मुन्ने चाचा के घर से डिब्बे लेकर आये। सोते सोते रात के ढाई बज गये।
एक घण्टे बाद सुभद्रा अपने बेटे बहू के साथ मन्दिर से पूजा कर के जब घर लौटीं, तो उनको घर में सब कुछ शान्त मिला, कहीं कोई हरकत नहीं, कोई बातचीत नहीं। लोगों के चेहरे लटके हुये, नज़रें नीची। सुभद्रा को देखते ही कई औरतें ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं।
“दीदी क्या बतायें, जीजाजी को ना जाने क्या हो गया है। ना जवाब दे रहे हैं, ना हिल रहे हैं, ना डुल रहे हैं। हम लोगों ने बहुत कोशिश की, पर जीजाजी ने कोई जवाब नहीं दिया। कोई हरकत नहीं की।”
“हाय रे दीदी,” सुभद्रा की देवरानी दहाड़े मार कर रोते हुये बोली, “किसी की नज़र हमारे घर की खुशियों पर लग गई। देखिये भाई साहब को क्या हो गया है।”
यह सब सुनते ही सुभद्रा गश खा गईं। नई बहू ने अपने हाथ की पूजा की थाली, दहाड़े मारती अपनी चचिया सास के हाथ में पटकी और अपने ऊपर गिरती हुई अपनी सास को संभाला। चचिया सास अपना रोना भूल कर थाली के गिरते सामान को संभालने में लग गईं। पूजा कि लुटिया से पानी लेकर बहू ने सास के चेहरे पर छींटे मारे। पानी ने असर दिखाया और सुभद्रा होश में आईं। होश आते ही सुभद्रा अपने कमरे की तरफ़ भागीं. पीछे पीछे लाल साड़ी में लाल चुनरी से नाक तक घूँघट निकाले उनकी बहू।
सुभद्रा ने अपने कमरे में पहुँच कर सोते हुये शैलेन्द्र को कंधे से पकड़ कर हिलाया। उनके हाथ में तकिया आ गई। उन्होंने चद्दर उठाई तो देखा कि कई तकियाँ एक लाइन से सजी हुई थीं। राहत और गुस्से में सुभद्रा मुड़ीं, और कमरे के बाहर दगीं।
तमतमाई सुभद्रा ने शैलेन्द्र को फ़ोन लगाया “आप कहाँ हैं? और घर में यह क्या नौटंकी कर रक्खी है?”
“अरे भई, चिल्लाओ मत। ज़रूरी काम कर रहे हैं। थोड़ी देर में फ़ोन करते हैं।”
कुछ देर बाद शैलेन्द्र का फ़ोन आया “हाँ, अब बताओ क्यों चिल्ला रही थीं।”
“आप कहाँ हैं, और कौन सा ज़रूरी काम कर रहे हैं?”
“हम टैक्सी वाले के यहाँ से निकल रहे हैं, हिसाब कर के। तुम लोगों के जाने के थोड़ी देर बाद मोन्टी का फ़ोन आया था, और उसने हमें तुरन्त बुलाया। उसका टैक्सी मालिक से झगड़ा हो गया था। हम उस समय भागे भागे यहाँ आ गये।”
“यह मुए मोन्टी ने क्या कर दिया था कि आपको इतनी देर लग गई झगड़ा सुलझाने में?”
“अरे अब तुम्हें क्या बतायें? जब हम दौड़ते भागते टैक्सी मालिक के घर पहुँचे तो देखा कि मोन्टी और टैक्सी मालिक आराम से बैठ कर चाय पीते हुये गप मार रहे हैं। गुस्से में हमने जब मोन्टी को हड़काया तो बोला – सॉरी चाचा सॉरी। पर जब आपको फ़ोन किया था तब गुस्से में हम इनको मार ही डालते। आपको हमने इसलिये बुलाया था कि आप हमें रोकते। तो हम कुछ और कूदते। पर आपको आने में समय लगा, और हमारा गुस्सा पता नहीं कहाँ चला गया।”
“यह लड़का भी . . .। पर इतनी देर आपको कहाँ लगी?”
“अब आ ही गये थे तो टैक्सी वाले का हिसाब भी साफ कर दिया। उसी में उतना समय लग गया।”
“पर आपने हमें बताया क्यों नहीं? और यह बिस्तर में तकिया सजाने का क्या मजाक था?”
“तुम्हारी पूजा के बीच में कहाँ फ़ोन करते? हाँ हमने मोन्टी को ज़रूर भेज दिया था कि तुम्हें बता दे। काफ़ी समय हुआ उसको गये हुये। और यह तकिया सजाने की क्या बात कर रही हो?”
“अरे वाह! इतनी सफाई से तकियों को सजा कर उस पर चादर ओढ़ाई, जैसे कि कोई सो रहा हो। और अब भोले बन रहे हैं कि तकिया सजाने कि क्या बात है।”
“हमने कोई तकिया नहीं सजाई। कोई ऐसा काम नहीं किया। खैर, थोड़ी देर में घर आ रहे हैं, तब बात करेंगे। चाय बनवा लो, सुबह से घर की चाय नहीं मिली है।”
सुभद्रा ने बात खतम ही की थी कि सामने से मोन्टी हँसता हुये घर में आया।
“मोन्टी, अब आ रहे हो”, हड़काते हुये सुभद्रा बोलीं। “चाचा ने तो तुम को बहुत पहले भेजा था।”
“अरे चाची, आप लोगों का इंतज़ार कौन करता? सो हमने चाचा के बिस्तर पर तकियाँ सजा दीं, जैसे कि वो सो रहे हों। जब चाचा सो रहे हैं, तो आप को उनके बारे में बताने की कौन सी जल्दी है? पास में कुछ दोस्तों के साथ गप शप कर रहे थे। कुछ हो गया क्या?”

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