बड़ा सोचो

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Kamini
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बड़ा सोचो

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बड़ा सोचो


आनन्द कुमार



सुबह का समय था, नन्हे भैया की विदाई की तैयारियाँ हो रही थीं। रिक्शे बाहर खड़े थे, और उनका परिवार अपने सामान के साथ दालान में आ चुका था। नन्हे भैया का बेटा जल्दी चलने की ज़िद कर रहा था – उसे अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाना था। सुभद्रा, अपने पति शैलेन्द्र को आवाज़ देकर आईं। जब वह वापस पहुँचीं तो नन्हे भैया नदारद थे। परिवार में खलबली मच गई।
“जाओ ढूँढो पापा कहाँ गये।”
“पापा भी ऐन वक़्त पर ना जाने कहाँ गायब हो जाते हैं।”
“मम्मी, हमें पापा को छोड़ कर चल देना चाहिये, वो पीछे से आते रहेंगे।”
इसी बीच सुभद्रा का बेटा अँकुर अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ वहाँ पर आया। सुभद्रा ने अँकुर से कहा “बेटा, अपने नन्हे मामा को देख कर आओ, कहीं तुम्हारे पापा के पास तो नहीं बैठे हैं। अपने पापा को भी बुला कर लाओ, इन लोगों को देर हो रही है।”
पिछले एक हफ़्ते से घर मेहमानों से खचाखच भरा हुआ था। सुभद्रा और शैलेन्द्र के बेटे अँकुर की शादी दो दिन पहले हुई थी और अब एक एक कर के मेहमान विदा हो रहे थे। लखनऊ के अमीनाबाद इलाके के मॉडल हाउस मुहल्ले में सुभद्रा और शैलेन्द्र अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे।
दस पाँच मिनट तक पूरे घर में ढुँढाई होती रही। उसके बाद मुस्कुराते हुये नन्हे भैया आँगन में दाखिल हुये। सब के सवालों के जवाब में उसी तरह मुस्कुराते हुये बोले “अरे इस सब में देर तो लगनी ही थी, कुछ जानने वाले मिल गये, हम उनके साथ चाय पीने निकल गये थे। अभी अभी तो गये थे. और तुम लोग तो ऐसे हल्ला मचा रही हो, कि जैसे कल से गायब हों।”
शैलेन्द्र फिर भी नहीं पहुँचे थे। सुभद्रा ने झुँझलाते हुये अँकुर से कहा “जाकर अपने पापा को बिस्तर से उठा कर लाओ, इतने बड़े हो गये हैं, फिर भी तहज़ीब और व्यवहार का ज़रा भी खयाल नहीं। पता नहीं कब सीखेंगे।”
अँकुर का चेहरा बुझा बुझा, लौट कर काँपती आवाज़ में बोला “पापा तो जवाब ही नहीं दे रहे हैं, और ना ही हिल डुल रहें हैं”।
शैलेन्द्र के एक दोस्त जो डॉक्टर थे, को खबर दी गई, और वो जल्दी से पहुँचे। डॉक्टर ने शैलेन्द्र की जाँच की और उन्हें मृत घोषित किया।
अचानक घर की ख़ुशियाँ मातम में बदल गईं। जो लोग कुछ समय पहले तक बधाई दे रहे थे, वो अब ढाढ़स बंधा रहे थे। शैलेन्द्र के पार्थिव शरीर को दालान में रक्खा गया था। कुछ औरतें रो रही थीं। रोते रोते एक बूढ़ी औरत बोली “यह जो नई बहू आई है, यह कुलच्छनी है। आते ही अपने ससुर को खा गई।”
यह सुनते ही सुभद्रा का ख़याल शैलेन्द्र और अँकुर के साथ उस बातचीत पर गया जब अँकुर की शादी की बात पहली बार हुई थी।
“आज सतीश भाई साहब के घर पर कथा के बाद शकुन्तला जीजी ने हमें पकड़ लिया। कह रही थीं कि अब अँकुर की शादी कर देनी चाहिये। वो अब बड़ा हो गया है, और स्वाति की शादी को भी पाँच साल हो गये हैं। हमने हँस कर बात टाल दी।”
“अच्छा किया बात टाल दी। अभी अँकुर ने कॉम्पटीशन देना शुरू नहीं किया है। कॉम्पटीशन निकालें, कायदे की नौकरी मिले, तब शादी की बात सोची जाये।”
“मम्मी, यह तुम कॉम्पटीशन और नौकरी के पीछे क्यों पड़ी हो। कॉम्पटीशन के लिये खून पसीना एक करना हमारे बस की बात नहीं है। शादी की हमें जल्दी नहीं है, पर यह कॉम्पटीशन का राग अलापना बन्द करो।”
“अपनी बकवास बन्द करो और पढ़ाई में मन लगाओ। तुमने बैंक पीओ की कोचिंग के बारे में पता किया? . . .। नहीं किया। अब हम ही जीजाजी से बात कर के सबसे अच्छी कोचिंग का पता लगाते हैं।”
अँकुर झुंझला कर “तंग मत करो मम्मी।”
“भई, हम सभी चाहते हैं कि अँकुर और पढ़े और तरक्की करे। पर अब वो बच्चा नहीं रह गया है, कि उसको घोल कर घुट्टी पिला दें।”
“यही तो आपके साथ दिक्कत है। ना खुद कभी बड़ा सोचा और ना ही लड़के को प्रोत्साहित करेंगे आगे बढ़ने के लिये। सिर्फ़ तरक्की चाहने से तो तरक्की मिल नहीं जायेगी। उसके लिये माहौल बनाना पड़ेगा, दबाव बनाना पड़ेगा। हमने थोड़ा सा दबाव बनाया और आपने तुरन्त ही हवा निकाल दी। आपका बस चले तो अँकुर दुकानदारी करे और दुकानदारों के साथ ही उठे बैठे।”
अपने जीजाजी की सलाह पर सुभद्रा ने अँकुर को हज़रत गंज में बैंक पीओ की एक कोचिंग में प्रवेश लेने को कहा। एक हफ़्ते तक अँकुर कल जायेंगे, कल जायेंगे कर के टालता रहा। अगले हफ़्ते सुभद्रा खुद कोचिंग जाकर सारी जानकारी लेकर आ गईं। शाम को उन्होंने अँकुर से फ़ार्म भरवाया, फ़ीस के पैसे पकड़ाये और अगले दिन जाकर दाख़िला लेने को कहा – एक हफ़्ते बाद एक नया बैच शुरू हो रहा था। अँकुर रोज़ कोई ना कोई बहाना बनाकर फ़ार्म और पैसे जमा करना टाल देता। सुभद्रा ने चार दिन तक यह देखा। नया बैच शुरू होने में अब बस दो ही दिन बचे थे।
सुबह जैसे ही अँकुर नाश्ता कर के चलने को तैयार हुआ, सुभद्रा भी तैयार थीं।
“अँकुर वो फ़ार्म और पैसे ले लो, आज हम तुम्हारे साथ कोचिंग चलेंगे। अपने आप तुम उसको ढूँढ नहीं पा रहे हो।”
“अरे, यह तुम क्या कर रही हो मम्मी? हम कोई बच्चे हैं कि तुम हमारे स्कूल जाओगी? हम वादा करते हैं कि आज फ़ार्म और पैसे ज़रूर जमा कर देंगे।”
“नहीं, हम तुम्हारे साथ चलेंगे।”
“नहीं मम्मी, तुम नहीं चलोगी। तुम चलोगी तो हम कहीं पर मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। सब हमारा मज़ाक उड़ायेंगे।”
“अच्छा, ऐसा करते हैं कि हम दोनों हज़रत गंज साथ चलते हैं। हम जनपथ में कुछ शॉपिंग करेंगे। तुम फ़ार्म और पैसे जमा करके हमसे आकर मिलो। अब तो खुश हो? तुम्हारी मम्मी तुम्हारे साथ कोचिंग नहीं जा रही है।”
अँकुर ने बैंक पीओ की कोचिंग की और कॉम्पटीशन दिया, पर कामयाब नहीं रहा।
“देखो बेटा, अभी तो यह तुम्हारा यह पहला अटेम्पट है। इसके नतीजे से हिम्मत मत हारो। इस बार तो तुम्हें समझ में आया होगा कि पेपर कैसा होता है। अगली बार तुम ज़रूर निकाल लोगे। हिम्मत रक्खो।”
“मम्मी हिम्मत रखने की बात नहीं है। हमारा मन नहीं है, और पढ़ाई करने का। तुम्हारा मन रखने के लिये हमने कोचिंग करी, पढ़ाई करी, फिर भी नहीं हुआ। तुम बात मान क्यों नहीं लेतीं?”
“मान कैसे लें। हम नहीं चाहते कि जिस तरह से हम जीवन में फंसे हुये हैं, इसमें हमारी बहू भी आकर फंसे। तुम लोग नये ज़माने के हो, उससे कदम मिला कर चलो। अच्छी सोसाइटी में उठो बैठो, उस तरह की बातें करो। अपनी मौसी मौसाजी को देखो, उनकी सोसाइटी को देखो, उनके उठने बैठने को देखो।”
“मम्मी, यह हमसे नहीं हो पायेगा।”
“बेटा, अभी कुछ दिन मस्ती करो, रिलैक्स करो। जब तुम्हारा मूड ठीक हो जायेगा, तब इस बारे में बात करेंगे। तब तक कुछ नहीं।”
अँकुर ने एक बार फिर कोचिंग की और कॉम्पटीशन दिया। एक बार फिर वो असफल रहा।
अँकुर अक्सर अपने पापा की दुकान पर बैठने लगा। पर बाप बेटे ने यह बात कभी सुभद्रा को नहीं बताई। शैलेन्द्र की अमीनाबाद में रेडिमेड कपड़ों की दुकान थी। यह धन्धा उन्होंने खुद पच्चीस साल पहले शुरू किया था, और अब एक प्रतिष्ठित दुकान बना दी थी।
सुभद्रा के दबाव में अँकुर ने तीसरी बार कोचिंग की। एक दिन सुभद्रा कोचिंग पहुँच गईं, और पाया कि अँकुर वहाँ पर नहीं था। कार्यालय से पता किया तो पता चला कि अँकुर ने कोर्स के लिये फ़ीस ही नहीं भरी थी।
रात में जब परिवार खाने पर बैठा, तो सुभद्रा उबल पड़ीं “अँकुर तुम इतनी मक्कारी करोगे, इसकी उम्मीद नहीं थी। हम यहाँ सोच रहे हैं कि तुम कोचिंग गये हो और पढ़ रहे हो। पर तुम तो गुलछर्रे उड़ा रहे हो – फ़ीस के पैसों के। आज हम तुम्हारी कोचिंग गये तो पता चला कि तुम ने तो फ़ीस जमा ही नहीं की है। यह तो फ़रेबी की हद है।”
कुछ देर तक कोई कुछ नहीं बोला।
“मम्मी, हम फ़रेब नहीं करते हैं। हम पापा के साथ दुकान पर बैठते हैं। पापा सामने बैठे हैं। हाँ हमने कोचिंग नहीं जोइन करी। वहाँ पर सब हमारा मज़ाक उड़ाते हैं, क्या सर, क्या स्टाफ़ और क्या लड़के। कोई कितना तिरस्कार बर्दाश्त करेगा?”
“पर तुम पढ़ते क्यों नहीं हो?”
“मम्मी, यह पढ़ाई हमारे बस की बात नहीं है। हम कितने समय से तुम को समझा रहे हैं। पर तुम को तो अपनी बात के आगे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ता है।”
“बकवास मत करो।”
“हम बकवास नहीं कर रहे हैं। हमारे पीछे इसी तरह पड़ी रहोगी, तो हम पागल हो जायेंगे।”
“यह सब गीदड़ भबकी हमको मत दो। . . .। और सुनिये जी, आपने क्या तय कर रक्खा है कि हम अँकुर को सुधारने का जो काम करेंगे, उसको आप फ़ेल कर देंगे। अब उसको दुकान पर बैठाने लग गये अपने साथ। बेशरमी की हद होती है।”
शैलेन्द्र खाना आधा छोड़ कर उठे, और ड्रॉइंग रूम में पड़े दीवान पर जाकर लेट गये।
उनके पीछे अँकुर भी खाना आधा छोड़ कर उठा और अपने कमरे में चला गया। “अपने आप को समझती क्या है? ****। इसका बस एक ही इलाज है – घर छोड़ कर चले जाओ। अपना हुकुम चलाती रहे फिर दीवारों पर”, दाँत पीस कर मुट्ठी भींचते हुये ज़मीन पर पाँव पटकते हुये अँकुर बुदबुदाया।
सुभद्रा ने अपना सर दोनों हाथों में पकड़ा, कुहनियाँ मेज़ पर टिकाईं और कुर्सी में धँस गईं। “लोगों के भले के लिये मेहनत करो तो बुरा लगता है। कैसे गुस्सा दिखा रहे हैं दोनों। किसी को यह नहीं दिखता कि उनकी खुशहाली के लिये हम कितना पिसते हैं”, आँखों में आँसू भरे सुभद्रा सोचती रहीं।
दो दिन से सुभद्रा को तेज़ बुख़ार चल रहा था, सारा बदन टूट रहा था, और बहुत कमज़ोरी थी। घर का कामकाज बाहर से खाना लाकर चल रहा था। रात में अँकुर और शैलेन्द्र उनके बिस्तर के पास बैठे थे।
“बेटा कल तुम्हारा बर्थ डे है, और हमारा यह हाल है।”
“इस बार हम अपना बर्थ डे नहीं मनायेंगे। आप बेकार परेशान मत होइये।”
“अरे वाह, क्यों नहीं मनाओगे? तुम्हारे दोस्त आते हैं, तुम उन्हें ट्रीट देते हो, पिक्चर जाते हो। यह कैसे रोक लोगे? एक दिन पढ़ाई नहीं करोगे, तो कोई फ़रक नहीं पड़ेगा। . . . । दोपहर में तुम्हारा क्या खाने का मन है? हम बनायेंगे।”
“मम्मी हम अपने दोस्तों से मिलना ही नहीं चाहते, और आप कह रही हैं कि उनको ट्रीट दो।”
“बेटा बर्थ डे साल में एक ही बार आती है। . . . । अच्छा यह बताओ क्या खाओगे, उसकी तैयारी करते हैं”, कहते हुये सुभद्रा उठ कर बिस्तर पर बैठ गईं।
“अरे, तुम यह क्या कर रही हो? तीन दिन से बुख़ार में चित्त पड़ी हो, और अब एकदम से काम करने को तैयार हो गईं। कल क्लार्क्स से कुछ मंगवा लेंगे अँकुर की बर्थ डे के लिये।”
“वो आप जानिये। अँकुर को कचौड़ियाँ और धनिये के आलू बहुत पसन्द हैं, वो उसके लिये बनायेंगे। चल कर दाल भिगो दें”, कहते हुये सुभद्रा उठीं और रसोई में चली गईं।
दूसरे दिन तेज़ बुख़ार के बावजूद सुभद्रा ने अँकुर को कचौड़ियाँ और धनिये के आलू खिलाये।
विनीता के घर किटी पार्टी में सुमन ने सुभद्रा को छेड़ा “और सुभद्रा अँकुर के लिये कब पार्टी दे रही हो? उसका किस बैंक में पीओ का सिलेक्शन हुआ है?”
“अभी तो कम्पटीशन दे ही रहा है, देखो किस में होता है?”
“सालों से तो कॉम्पटीशन दे रहा है, अब कितना देगा? बुढ़ापे तक कॉम्पटीशन ही देता रहेगा? . . .। हम कौन होते हैं बोलने वाले पर जिनको कॉम्पटीशन निकालना होता है, वो एक दो बार में ही निकाल लेते हैं। वो कॉम्पटीशन देना अपना पेशा नहीं बना लेते।”
सुभद्रा का चेहरा लाल पड़ गया और साँसें तेज़ हो गईं। वो उठ कर किटी खतम होने से पहले ही निकल गईं। घर पर अपने बिस्तर में गिर पड़ीं और चेहरे के ऊपर तकिया दबा ली। “बाप बेटे ने हमारी क्या हालत कर दी है। हम कहीं पर मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। पर अँकुर की भी बात सुन लेनी चाहिये। अगर वो नहीं कर पा रहा तो उसे कहाँ तक धकेला जा सकता है। यह हमारे पति कुछ करते तो शायद लड़का पार लग गया होता। पर उनको तो लड़के को दुकान देनी है।”
कुछ दिनों बाद सुभद्रा अपनी सखी के साथ एक तांत्रिक से मिलने गईं और उससे अँकुर की असफलताओं का उपाय पूछा।
तांत्रिक ने अँकुर की फ़ोटो देखी और कहा “इसकी बुद्धि को तो आपकी एक जानने वाली ने बँधवा दिया है। यह जितनी भी मेहनत कर ले, इसको सफलता नहीं मिलेगी।”
“पर बाबा जी, इसका कोई तो उपाय होगा?”
“उपाय है, पर बड़ा कठिन है। सब के बस की बात नहीं है।”
“आप बताइये तो बाबा जी, हम करेंगे। यह हमारे बेटे के भविष्य का सवाल है, उसके लिये हम कुछ भी करेंगे।”
“अमावस की रात में गंगा किनारे पाँच लोगों को बैठ कर पाँच घण्टे जाप करना होगा। बहुत खर्चा आयेगा। फिर मंत्र का शुद्ध उच्चारण करने वाले लोग मिल जायें तो बात बने।”
“बाबा जी आप लोगों को जोड़िये। जितना खर्चा आयेगा हम देंगे।”
“पन्द्रह हज़ार रुपये लगेंगे। अगर आपको पूजा करवानी है तो परसों तक पैसे दे जाइये। फिर हम पूजा का बंदोबस्त करें।”
“आप बंदोबस्त कीजिये, हम पैसे दे जायेंगे।”
अमावस के दिन तांत्रिक के कहने पर सुभद्रा, अँकुर और शैलेन्द्र ने व्रत रक्खा और काली बाड़ी दर्शन कर के आये। साथ ही सुभद्रा और अँकुर ने अलग अलग बैठ कर एक हज़ार बार बाबा जी द्वारा बताये गये मंत्र का जाप किया।
अँकुर ने एक बार फिर पीओ का इम्तिहान दिया और एक बार फिर असफल रहा। नतीजा सुनने के बाद सुभद्रा बिलकुल चुप हो गईं। अँकुर ने अपने को कमरे में बन्द कर लिया।
रात में शैलेन्द्र सुभद्रा पर बरस पड़े “और कितनी बेक़द्री करवाओगी अपने बेटे की? तुम शायद ग़ौर नहीं कर रही हो कि वो कितना दुबला हो गया है, आँखें धँस गई हैं। कहीं बाहर नहीं निकलता। पुराने दोस्त आते भी हैं, तो उन्हें तुरन्त ही वापस भेज देता है। सिर्फ़ तुम्हारी एक ज़िद को पूरा करने के लिये कि तुम्हारा बेटा अफ़सर बने। कभी कभी तो हमें शक होता है कि तुम यह उसकी भलाई के लिये कर रही हो, या बुरे के लिये।”
सुभद्रा ने निगाहें नीची कर लीं, और कोई जवाब नहीं दिया।
“हमारा कहना है कि अँकुर को हमारे साथ जाने दो। कुछ काम सीखेगा। फिर अपने इस काम को आधार बना कर अँकुर कुछ नया कर सकता है। करने को तो बहुत कुछ है, पर हम अकेले पड़ जाते हैं। अँकुर रहेगा तो कुछ नया किया जा सकता है।”
सुभद्रा ने कातर थकी हुई आँखों से शैलेन्द्र को देखा और चुप रहीं।
कुछ दिनों बाद से अँकुर ने शैलेन्द्र के साथ दुकान पर जाना शुरू किया। उसकी सेहत सुधरी, दोस्ती यारी फिर से शुरू हुई, हँसना बोलना शुरू हुआ।
एक दिन अपनी दीदी के घर से सुभद्रा बहुत चहकती हुई लौटीं। उनकी दीदी इन्दिरा नगर में रहती थीं, और जीजाजी बिजली विभाग में वरिष्ठ इंजीनियर थे।
रात में जैसे ही शैलेन्द्र और अँकुर घर आये, सुभद्रा ने खाने की मेज़ पर अपनी बात रक्खी – “दीदी ने अँकुर के लिये एक अच्छी लड़की ढूँढी है। उनके पड़ोस में रहती है, और MBA की पढ़ाई पूरी कर रही है। उसके पिता सचिवालय में ऊँचे पद पर हैं। गुण ढंग वाली है, सुन्दर नैन नक्श हैं, अच्छा जाना सुना परिवार है। दीदी ने अपने टैब पर कुछ फ़ोटोएँ दिखाईं – उनकी कॉलोनी के किसी कार्यक्रम की थीं। हमें तो लड़की बहुत पसन्द आई।”
“तुम को पसन्द आई तो आगे हमें कुछ नहीं कहना है। अब अँकुर की राय जान ली जाये।”
“नहीं नहीं, सिर्फ़ हमारी बात पर मत जाइये। यह ज़रूरी है कि आप भी देख सुन लीजिये। फिर बात आगे बढ़ाई जाये।”
“चलो वो भी कर लेंगे। पर पहले अँकुर की क्या सोच है, जान लिया जाये।”
“अरे, अभी इतनी जल्दी क्या है हमारी शादी की। हमारे दोस्तों में से किसी की भी शादी की बात नहीं चल रही है। इस मामले में हम सबसे पहले नहीं होना चाहते।”
“बेटा शादी तो तुम्हें करनी ही है। तो यह बात क्या कि अपने दोस्तों में से सबसे पहले नहीं होना चाहते। कोई जुर्म तो नहीं कर रहे हो। फिर इतनी अच्छी लड़की तुम्हारे लिये बैठी तो नहीं रहेगी। हाथ से निकल गई, तो फिर ऐसी दूसरी मिले ना मिले।”
“खूब मिलेगी। इस डर के मारे कि ऐसी दूसरी नहीं मिलेगी, हम दौड़ कर जो सामने मिले उससे शादी तो नहीं कर लेंगे।”
“बेटा, बात समझा करो। अपने बाप की दुकान पर बैठने वाले के लिये इतने रिश्ते नहीं आते। समय रहते मान जाओ।”
“नहीं, नहीं, कोई हड़बड़ी नहीं है। तुम अपना समय लो, और जब आश्वस्त हो जाओ, तब शादी करो।”
एक महीने बाद अँकुर की बड़ी बहन स्वाति की दोस्त एक प्रपोज़ल देकर गई। लड़की का नाम रंजना था। प्रपोज़ल के साथ आई फ़ोटोओं को जब अँकुर ने देखा तो देखता ही रह गया। सुन्दर आँखें : अँकुर को उस समय मृगनयनी शब्द का अर्थ समझ में आ गया, गोल चेहरा, और उसमें लुभावने होंठ। अँकुर का मन तो उन फ़ोटोओं के साथ सोने का था, पर मम्मी पापा के डर से उसने लिफ़ाफ़ा मम्मी को ही पकड़ा दिया।
मम्मी ने प्रपोज़ल पढ़ते हुये कहा “भई, हमको तो प्रपोज़ल पसन्द नहीं आया। हिन्दी मीडियम से पढ़ी हुई घरेलू लड़की। अँकुर तुम सेंट फ़्रान्सिस के पढ़े हुये हो, अच्छी अंग्रेज़ी बोलते हो। तुम्हारे साथ तो जोड़ी बिल्कुल ठीक नहीं बैठेगी। तुम को तो एक इंग्लिश मीडियम स्कूल की लड़की चाहिये, जो नौकरी कर सके।”
“मम्मी, तुम यह हिन्दी मीडियम इंग्लिश मीडियम की बात बेकार के लिये ले आईं। लखनऊ में हिन्दी ही बोली जाती है, तो इंग्लिश मीडियम क्या पकड़ कर बैठना। मम्मी, उसकी फ़ोटो देखिये, कितनी सुन्दर है। यह तो कैटरीना कैफ़ को टक्कर दे दे।”
“यह हम कहाँ कह रहे हैं कि वो सुन्दर नहीं है। सुन्दर तो बहुत है। पर सिर्फ़ सुन्दरता से ही तुम दोनों कि गाड़ी आगे नहीं बढ़ पायेगी। आने वाले समय में मियाँ बीबी दोनों को ही कमाना होगा। हमको तो लड़की की पढ़ाई लिखाई नहीं जँची।”
अगले दिन रात को खाने के बाद अँकुर ने रंजना की बात छेड़ी। सुभद्रा ने बात को तवज्जह ही नहीं दी। इधर अँकुर रोज़ दिन में दो तीन बार चुपके से अपने मम्मी पापा के कमरे से रंजना की फ़ोटो निकाल उसे निहार लेता। दो दिन बाद अँकुर ने फिर रंजना की बात छेड़ी, और सुभद्रा ने यह कह कर कि “घर परिवार के बारे में पता लगा लें, फिर आगे सोचेंगे,” बात को टाल दिया। अँकुर ने रंजना की एक फ़ोटो गायब कर अपने कमरे में रख ली। रोज़ रात फ़ोटो को सिरहाने रख कर सोने लगा – उसे देख कर सोता और उसे देख कर जागता।
दूसरे दिन अँकुर ने अपनी दीदी की दोस्त को फ़ोन कर रंजना के घर परिवार के बारे में जानकारी ली। रात में खाने पर उसने चर्चा छेड़ी :
“मम्मी, हमने अनुष्का दीदी से बात कर के उनके प्रपोज़ल के बारे में जानकारी ले ली है। अच्छा जाना सुना परिवार है, और लड़की भी सुशील, मिलनसार और सीधी है।”
“तुमसे किसने कहा था अनुष्का से बात करने को?” सुभद्रा झपट पड़ीं।
“तुम को हमारे ऊपर भरोसा नहीं है तो तुम खुद क्यों नहीं बात कर लेतीं? पर अब समय खराब मत करो। हमारे नाम पर वो लोग बैठे थोड़ो रहेंगे।”
“अँकुर, हमने तुमसे पहले भी कहा था और अब फिर कह रहे हैं। वो इन्दिरा नगर वाली लड़की तुम्हारे लिये ठीक है। उसकी पढ़ाई लिखाई अच्छी है, और वो जीवन में तुम को सहारा दे पायेगी। पर तुम तो उस घरेलू लड़की पर ऐसे लट्टू हो गये हो, कि अपना दिमाग इस्तेमाल ही नहीं कर रहे हो। इस लड़की को तो तुम्हें ढोना पड़ेगा। तुम्हारी तरक्की में यह बाधा होगी, सहायक नहीं।”
“मम्मी अपनी तरक्की अपने बल बूते से आती है, बीबी के सहयोग से नहीं। तो यह बात मत करो।”
“बड़े आये अपनी मेहनत से आगे बढ़ने वाले। बैंक पीओ के इम्तिहान तुम ही नहीं निकाल पाये थे, कोई दूसरा नहीं। तो अपनी मेहनत की शेख़ी मत बघारो, हमने उसे खूब देखा है।”
गुस्से में अँकुर खाना छोड़ कर उठ गया, और अपने कमरे में चला गया।
अगले पाँच दिन तक माँ बेटे में कोई बातचीत नहीं हुई। सुभद्रा अँकुर का नाश्ता और खाना रख देती और अँकुर उसे खा लेता। सुभद्रा रोज़ उससे बात करने की कोशिश करती पर अँकुर जवाब नहीं देता। दुकान पर भी अँकुर अनमना सा रहता।
इस सब से चिन्तित शैलेन्द्र ने सुभद्रा से बात की “ऐसे कब तक चलता रहेगा। घर में इतना तनाव ठीक नहीं। अँकुर की बात पर आगे बढ़ने में कोई हर्ज तो नहीं है। ज़रूरी थोड़े ही है कि शादी हो ही जाये।”
“देखिये जी, इतनी जल्दी पिघल मत जाइये। हम यह अँकुर की भलाई के लिये कर रहे हैं, अपनी शान के लिये नहीं। अँकुर में बचपना है। जीवन में आज तक उसने किसी भी बात को गम्भीरता से नहीं लिया है। ऐसे चलने दीजिये, कुछ दिनों मे लाइन पर आ जायेगा।”
तनाव का असर अँकुर पर दिखने लगा – चेहरा निस्तेज, आँखें बुझी बुझी सी, चाल ढीली, चेहरे पर कुछ दिन की दाढ़ी। उसने दुकान भी जाना छोड़ दिया। घर से निकल कर घूमने निकल जाता, और देर शाम को घर लौटता। मेज़ पर कुछ खाना मिलता तो खा लेता और अपने कमरे में चला जाता।
शैलेन्द्र ने अपनी बेटी स्वाति से अँकुर से बातचीत जारी रखने को कहा। कई बार की बातचीत के बाद स्वाति ने बताया कि अँकुर किसी कीमत पर रंजना के अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहता।
जब ऐसे ही दस दिन गुज़र गये तो शैलेन्द्र रंजना के पापा से जाकर मिले और उनसे अँकुर और रंजना के बारे में शुरुआती बात की।
रात को जब सब घर पर थे, तब शैलेन्द्र ने अँकुर को बुलाया और सुभद्रा के सामने रंजना के पापा से अपनी मुलाकात के बारे में बताया।
अँकुर का चेहरा खिल उठा “वाह पापा, तुसी ग्रेट हो।”
सुभद्रा का चेहरा छोटा हो गया और भौंहें तन गईं, पर वो बोली कुछ नहीं। बाद में जब सुभद्रा और शैलेन्द्र साथ थे तो सुभद्रा बरस पड़ीं “सारा बनता हुआ खेल बिगाड़ दिया आपने। अँकुर की ज़िद टूटने ही वाली थी, कि आपने सारी हवा निकाल दी, और गाड़ी उल्टी तरफ़ मोड़ दी।”
“अरे, वो इतने तनाव से गुज़र रहा था। कहीं कुछ कर लेता तो लेने के देने पड़ जाते। लड़का बड़ा है, शादी करने जा रहा है, ऐसा कैसे हो सकता है कि हम उसकी बात सुनें ही नहीं। स्वाति ने भी कोशिश कर ली, वो भी मना नहीं पाई।”
“आपने ही उसे शै दे दे कर नाकारा बना दिया है। हमने ज़ोर लगाया तो वो सेंट फ़्रांसिस में पढ़ा। आपका बस चलता तो विद्यान्त इण्टर कॉलेज में भर्ती करा देते। हम उसे कॉम्पटीशन में मेहनत करने के लिये ज़ोर डालते, तो आप हवा निकाल देते कि दुकान तो है ही।”
“यह बात सही है कि उसकी अधिकतर अच्छाइयाँ तुम्हारी ही मेहनत की वजह से हैं। पर अब आगे सोचो। सब कुछ हाथ से नहीं निकल गया है। कौन सी शादी तय हुई जा रही है।”
“आपकी यही आदत हमें खिजाती है। पहले रायता फैला दो, फिर कहो समेटो।”
सुबह जब अँकुर दुकान के लिये निकलने लगा तो सुभद्रा ने उससे कहा कि वो दोपहर में साढ़े बारह बजे अपनी मौसी के घर इन्दिरा नगर पहुँच जाये। मौसी के घर कोई पार्टी थी और उसकी तैयारी के लिये उन्हें अँकुर की दो ढाई घंटे की ज़रूरत थी। अपनी मौसी के यहाँ वह बारह बजे ही पहुँच गया, और ढाई बजे तक काम कराता रहा।
शाम को सुभद्रा ने शैलेन्द्र से कहा “हम लोगों की किस्मत ही फूटी है। जीजी और हमने अँकुर और उनके पड़ोस की लड़की को साथ लाने का प्लान किया था। दोनों पार्टी की तैयारी में साथ काम करते, हँसते बोलते, तो नज़दीकियाँ बढतीं। पर लड़की की स्कूटर कॉलेज में ही पंवर हो गई और वो जीजी के घर अँकुर के निकलने के बाद पहुँची।”
अँकुर ने ज़ोर लगाया कि प्रपोज़ल पर बात आगे बढ़ाई जाये पर सुभद्रा ने यह कह कर कि “दिन अच्छे नहीं हैं”, बात टाल दी।
कुछ दिनों बाद रात को खाने की मेज़ पर माँ बेटे में झगड़ा हो गया। सुभद्रा अपनी जीजी की बताई हुई लड़की पर ज़ोर दे रही थीं, और अँकुर रंजना के अलावा किसी को सुनने को तैयार नहीं था। कहा सुनी काफ़ी ज़ोर से हुई और माँ बेटा दोनों ही गुस्से में खाना छोड़ कर उठ गये। दूसरे दिन सुबह सुभद्रा बिस्तर से नहीं उठीं। बताया कि बदन दर्द कर रहा है और कमज़ोरी लग रही है। शैलेन्द्र को चिन्ता हुई और डॉक्टर को दिखाने की बात कही। सुभद्रा ने जवाब दिया कि अगर शाम तक तबियत नहीं सुधरी तो दिखायेंगे।
दोपहर में स्वाति ने अँकुर को डाँट लगाई “तुम्हारी वजह से मम्मी की तबियत खराब हुई है। तुम रंजना के मोह में ऐसे दीवाने हो गये हो कि तुम्हें मम्मी पापा की, उनकी भावनाओं की कोई कदर ही नहीं रही है। अब तुम बड़े हो गये हो, अपनी ज़िम्मेदारी समझो। अब तुम बच्चे नहीं रहे कि चाहे जो हो जाये, तुम्हारी ज़िद पूरी होनी चाहिये।”
“लेकिन दीदी, मम्मी दूसरी लड़की की बात कर रहीं थीं। हमको रंजना से ही शादी करनी है। किसी और के बारे में क्यों बात करें?”
“फिर वही अपनी मनमानी। मम्मी पापा ने रंजना की बात को आगे बढ़ाया ना। वो तुम्हारी बात के सामने झुके। और तुम हो कि सुनने को तैयार नहीं हो। अगर मम्मी कुछ कह रही हैं, तो तुम्हारे भले के लिये ही कह रही हैं।”
“दीदी, मम्मी बात को समझती नहीं हैं।”
“और तुम सब जानते और समझते हो?” स्वाति गुर्राई।
“फिर हम क्या करें?”
“पहले जाकर मम्मी से माफ़ी माँगो। फिर वो जो लड़की बता रही हैं, उस लड़की के साथ बात आगे बढ़ाओ। कौन सी उससे तुम्हारी शादी हुई जा रही है।”
अँकुर बुझी हुई आवाज़ में “ठीक है दीदी, तुम जैसा कह रही हैं, हम वैसा ही करेंगे।”
रात में जब शैलेन्द्र और सुभद्रा अकेले थे तब शैलेन्द्र हँस कर बोले “याsर, तुम भी नाटक कर लेती हो।”
“नाटक ना करते तो लड़का काबू में आता? आप की तरह माटी के माधो बने रहें तो वो हाथ से ही निकल जाये। इतने दिन आपके हिसाब से चलकर इतना बिगड़ गया है।”
“कौन सा हमारे हिसाब से चला। चला तो तुम्हारे हुकुम से ही।”
कुछ दिनों बाद तय हुआ कि अँकुर अपनी मौसी की बताई लड़की से गोल मार्केट के रिट्ज़ रेस्टोरेंट में मिलेगा। उसके बाद बात आगे बढ़ेगी।
मुलाकात के बाद अँकुर जब लौटा तब सुभद्रा ने उससे पूछा “कैसी लगी?”
“ठीक ही है”।
सुभद्रा ने इसे अँकुर की हामी समझा, और अपनी दीदी से बात आगे बढ़ाने को कहा। चार दिन बाद उस तरफ से जवाब आया कि वो लोग बात आगे बढ़ाने में इच्छुक नहीं हैं।
रात में जब अँकुर और शैलेन्द्र घर लौटे तो सुभद्रा का गुस्सा पहले अँकुर पर फूटा “यह सब तुम्हारी कारस्तानी है। बात खतम करने का यह सबसे आसान तरीका है। लड़की की तरफ़ से बात कटवा दो। अरे कुछ नहीं तो अपने मौसा मौसी और हम लोगों की इज़्ज़त का ख्याल कर लिया होता।”
“हमने लड़की से कुछ नहीं कहा। यह निर्णय उसका अपना है। उसमें हमारा कोई हाथ नहीं।”
अब सुभद्रा शैलेन्द्र पर उबलीं “अपने बेटे को सब समझा पढ़ा कर भेजा होगा। कैसा व्यवहार करो, कैसे शेखचिल्ली बनो कि लड़की ही मना कर दे। दीदी जीजाजी की क्या साख रह जायेगी।”
शैलेन्द्र ने विरोध भरे स्वर में कहा “हमने अँकुर से इस बारे में कोई बात नहीं की। तुम मन ही मन बातें गढ़ लेती हो और दोष हमारे ऊपर मढ़ देती हो।”
काफ़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। फिर सुभद्रा ने ठंडी साँस ली और बोलीं “किस्मत से एक अच्छी लड़की का प्रपोज़ल आया था। वो भी मना हो गया। अँकुर तुम्हारा भविष्य हमें बहुत उज्जवल नहीं दिखता।”
सुभद्रा जब ठण्डी हो गईं तो रंजना और अँकुर की शादी की बात आगे बढ़ी और जल्दी ही शादी तय हो गई। बरिच्छा और गोद भराई की रस्में पूरी होने पर शादी की तारीख छह महीने बाद रक्खी गई। तारीख नज़दीक आने लगी तो इस बात पर चर्चा हुई कि बहू के लिये कमरा ठीक करवा कर तैयार किया जाये तो सुभद्रा बोलीं “हमारी मानिये तो अँकुर और बहू को अपने वृन्दावन योजना वाले मकान में जाकर रहना चाहिये। हम लोग अपने इस पुराने घर में रहेंगे।”
आश्चर्यचकित हो शैलेन्द्र और अँकुर समवेत स्वर में बोले “पर क्यों?”
“आज के समय में बहुएँ आज़ादी चाहती हैं, और हम भी इस बात के हिमायती हैं। फिर अपना मकान वहाँ पर खाली पड़ा खराब हो रहा है। यह लोग रहेंगे तो दुरुस्त बना रहेगा। नहीं तो पड़े पड़े दीमक खाये जा रही है।”
“पर मम्मी, अभी वो बस्ती पूरी तरह से बसी नहीं है। बहुत सारे घर खाली पड़े हैं। हम जब काम पर निकल जायेंगे तो रंजना घर पर अकेली असुरक्षित रहेगी – उसका मन भी घबरायेगा। ”
“तुम सही कह रहे हो। अकेले घबरायेगी। इसका इलाज यह है कि वह भी घर से बाहर निकले – कुछ काम करे। पढ़ाई लिखाई अच्छी नहीं है तो कुछ अपना बिज़नेस कर सकती है।”
“अरे तुम कहाँ की पतंग उड़ा रही हो सुभद्रा। हम लोगों का बुढ़ापा समझो आ ही गया है। बेटा बहू को साथ रहना चाहिये। जिनके बाहर रहते हैं, उनकी तो मजबूरी है। पर तुम तो साथ रहने वाले को भी अलग कर रही हो।”
“पापा सही कह रहे हैं। हम लोगों को आपके साथ रहना चाहिये। घर में जगह की कमी नहीं है। फिर दुकान भी यहाँ से पास है। वहाँ से दुकान पहुँचने में ही आधा पौना घंटा लग जायेगा।”
“हम लोग अपनी सुख सुविधा ना देख कर अँकुर और बहू का भविष्य देखें। नये बिज़नेस की सम्भावनायें तो नये लखनऊ में ही हैं, जहाँ खर्च करने के लिये पैसा है। यहाँ पुरानी टूटती इमारतों और बढ़ती हुई गरीबी के सिवा बचा क्या है?”
“तुम्हारी बात में दम है, पर अभी इतनी जल्दी कुछ नहीं हुआ जा रहा है। खैर। मुख्य बात यह है कि रिश्तेदारों, दोस्तों और समाज में बड़ी बदनामी हो जायेगी कि लड़के बहू को घर से बाहर कर दिया। और फिर हम लोग भी तो कुछ पोते पोतियों का सुख ले लें। हमको तो तुम्हारी बात समझ में नहीं आ रही है।”
“हाँ, हम भी यहीं रहना चाहते हैं। उस वीराने में हमें मत पटकिये। सब कुछ नया करना पड़ेगा, बहुत मेहनत होगी।”
तमाम विरोध के बावजूद सुभद्रा ने वृन्दावन योजना वाले मकान को अँकुर और बहू के हिसाब से तैयार करवाना शुरू कर दिया। इस बात पर घर में घमासान युद्ध चल रहा था – सुभद्रा एक तरफ़ और अँकुर और शैलेन्द्र एक तरफ़। स्वाति ने इस बारे में किसी भी खेमे में जाने से इंकार कर दिया।
शादी के दौरान सुभद्रा ने खुल कर रिश्तेदारों और दोस्तों से कहा कि अँकुर और बहू दूसरे घर में जाकर रहेंगे। शैलेन्द्र को सुभद्रा का इस तरीके से यह बात प्रचारित करना बहुत बुरा लग रहा था।
एक दिन शाम को जब कुछ दोस्त और रिश्तेदार जमा थे, तब किसी ने चुटकी ली “अरे भई शैलेन्द्र, लड़के ने ऐसा क्या कर दिया कि तो तुम लोग उसे देश निकाला दे रहे हो। इतनी ज़्यादती मत करो यार, दिल का मामला है।”
शैलेन्द्र ने झेंपते हुये जवाब दिया “नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।”
“तो फिर बेटा बहू को निकाल क्यों रहे हो?”
अपनी झेंप मिटाते हुये एक खोखली हँसी में जवाब दिया “यार यह मत कहो कि निकाल रहे हैं। यह सोच रहे हैं कि उस तरफ कुछ नया धन्धा शुरू किया जाये। ऐसे में वहाँ पर पहले से ठिकाना हो तो सहूलियत रहती है। पर अभी कुछ तय नहीं है।”
“पर भाभी तो कह रही हैं कि बेटा बहू जा रहे हैं।”
“अब वो जो कह रही हैं, वो ही जानें। बस इतना कह रहे हैं कि अभी कुछ पक्का नहीं है।”
“यार यह तो अजीब हालात हैं, मियाँ कुछ कह रहा है, और बीबी कुछ।”
“जैसा समझ लो।”
शैलेन्द्र के तमतमाये चेहरे को देख कर किसी ने बात आगे नहीं बढ़ाई।
सुभद्रा से एकान्त में बात करने के लिये शैलेन्द्र बेताब थे, पर शादी की भीड़ भाड़ में मौका मिल नहीं पा रहा था। और सबके सामने बखेड़ा खड़ा करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं था।
शादी निपटने के दो दिन बाद जब राहत हुई तब एकान्त में शैलेन्द्र सुभद्रा पर बरस पड़े “यह तुम क्या फ़िजूल की बातें उड़ाती फिर रही हो कि अँकुर और बहू दूसरे घर में रहेंगे। तुम को मालूम है कि हमारी कितनी बदनामी हो रही है? सब मजाक उड़ा रहे हैं। यह शादी हमारे लिये खुशी का मौका था, वो अब त्रास हो गया है। हम डरे फिर रहे हैं कि कौन इस बात को कब उछाल दे, और हम उसका कैसे जवाब देंगे।”
गुस्से में सुभद्रा पलटीं “अभी से इस बात को सबके बीच में नहीं बताते तो बाद में उनके जाने पर सब यही कहते कि बहू के घर से लेन देन में कमी की वजह से बहू को घर से निकाल दिया। तब कितनी बदनामी होती, उसके बारे में कभी सोचा? कुछ समझते तो हैं नहीं , बिना बात ही हम पर गुस्सा होते हैं – एक हम आपकी बात सुन लेते हैं इसलिये।”
“पर अँकुर और बहू को दूसरे घर भेजने का फ़ैसला सिर्फ़ तुम्हारा है। हम पहले भी उससे राज़ी नहीं थे, और अभी भी उससे राज़ी नहीं हैं। अँकुर और बहू यहीं पर हमारे साथ ही रहेंगे। यह हमारा फ़ैसला है।”
“आपका बस चले तो बहू भी नाकारा हो जाये। अभी तक तो आपके साए में रह कर सिर्फ़ लड़का ही नाकारा था – समझता है कि ज़िन्दगी में मेहनत तो बेवकूफ़ करते हैं। दूसरे घर में जाकर रहेगा, ज़िम्मेदारी उठायेगा, कुछ सुधरेगा। अँकुर और बहू दूसरे घर में जाकर ही रहेंगे। यह हमारा फ़ैसला है।”
दोनों एक दूसरे की तरफ़ पीठ कर के लेट गये और एक दूसरे से कुछ नहीं बोले।
दूसरे दिन सुबह शैलेन्द्र को सोता छोड़ कर सुभद्रा उठीं और नन्हे भैया की विदाई की तैयारी में लग गईं।

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