अपनी ज़िम्मेदारी

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Kamini
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अपनी ज़िम्मेदारी

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अपनी ज़िम्मेदारी


आनन्द कुमार


“संध्या की मम्मी, यह कैसा खाना बनाया है ? मुँह में डालना मुश्किल हो रहा है। लगता है, जैसे गैया भैंसिया की सानी बना कर रख दी है। यह खाना तो हम नहीं खा पायेंगे” गुस्से में तमतमाते हुये संध्या के पापा बोले।
“हाँ मम्मी, यह तो बिल्कुल ही बेकार खाना है। हमसे तो खाया नहीं जा रहा है”, मुकेश और शिल्पी साथ साथ बोल पड़े।
“देखो, बच्चों के भी गले के नीचे खाना नहीं उतर रहा है। यह तुम को आज क्या हो गया है ? ऐसे काम नहीं चलेगा। खाना फिर से बनाओ, यह खाना हम लोग नहीं खायेंगे”, उसी तमतमाती आवाज़ में पापा बोले।
दर्द से कराहते हुये मरियल सी आवाज़ में संध्या की मम्मी बोलीं ” आज जो कुछ बना है, उसे खा लीजिये। आपके हाथ जोड़ते हैं। बहुत दर्द हो रहा है हमें, खड़े भी नहीं हुआ जा रहा है हमसे।”
थोड़ा नरम पड़ते हुये, फिर भी गुस्से भरी आवाज़ में पापा बोले ” ऐसा क्या दर्द। खाना ही तो बनाना है। डॉक्टर ने बोझ उठाने और मेहनत करने को मना किया है। पर खाना बनाने में कौन सी मेहनत ?”
उसी दर्द भरी मरियल सी आवाज़ में मम्मी बोलीं “आज खा लीजिये। कल से खाना ठीक हो जायेगा। बेटा तुम लोग भी खाना खा लो। भूखे मत रहो। हम फिर से खाना नहीं बना पायेंगे। संध्या, तुम भी खा लो बेटा, थाली छोड़ कर मत भागो।”
सबने किसी तरीके से खाना खाया। संध्या जो कि चार साल की थी, एक कौर खाती थी, और फिर थोड़ा पानी पीती थी। इस तरह से उसने थोड़ा खाना खाया, और बाकी छोड़ कर उठ गई। और दिन होते तो मम्मी उसे गोदी में बैठा कर, बहला फुसला कर, एक एक कौर खिलातीं। पर आज दर्द से इतना परेशान थीं कि सब लोगों को खाता छोड़ कर ही बीच में उठ गईं, और पेट पकड़ कर कराहते हुये जाकर लेट गईं।
दस दिन अस्पताल में रहकर कल शाम ही घर लौटी थीं। वहाँ पर डॉक्टरों ने ऑपरेशन कर के उनकी बच्चेदानी निकाली थी। इसके पहले पिछले एक साल से उनकी कमर और पेड़ू में बहुत दर्द रहता था। पहले तो उन्होंने इस बात को अपने तक ही रक्खा, लेकिन जब दर्द बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो अपने पति को बताया, जो उन्हें अस्पताल ले गये। जाँच के बाद डॉक्टरों ने बताया कि उनकी बच्चेदानी में कई गाँठें पड़ गई हैं, जिनकी वजह से दर्द हो रहा है। खाने को कुछ दवाइयाँ दीं। दवाइयों से एक दो महीने थोड़ी राहत रही, पर फिर दर्द बढ़ गया और बढ़ता ही गया। दवाइयाँ बदली गईं, लेकिन नाकामयाब रहीं। बच्चेदानी की गाँठें आकार और संख्या दोनों में ही बढ़ रही थीं। बस एक ही इलाज था – बच्चेदानी निकाल देना।
उस समय ऑपरेशन की बात छह महीने टाल दी गई थी। एक तो ऑपरेशन का भय, और वह भी बड़ा ऑपरेशन – इसके लिये मम्मी और पापा तैयार नहीं थे। फिर बच्चेदानी निकाल देने का मतलब था कि और बच्चे नहीं हो सकते। वैसे तो भगवान की दया से उनके तीन स्वस्थ बच्चे थे – सबसे बड़ा मुकेश, जो कि दस साल का था, फिर छह साल की शिल्पी, और आखिरी चार साल की संध्या। लेकिन ऐसी हालत जिसमें कि बच्चे ना हो पायें, कि कल्पना ही डरा देती थी।
डॉक्टरों के हिसाब से इस रोग में ऑपरेशन ही प्रमुख परेशानी थी, दूसरी कोई नहीं। यह रोग बहुत आम था, और सभी महिलाओं को बच्चेदानी निकाल देने से मुस्तक़िल आराम मिल जाता था। बस ऑपरेशन के तीन चार महीने बाद तक कमज़ोरी रहती थी – कोई वज़न नहीं उठाना और कोई मेहनत नहीं। घर के कामकाज किये जा सकते थे। शुरू में थोड़ी तकलीफ़ रहती है, पर यह धीरे धीरे कम हो जाती है।
ऑपरेशन की बात टाल तो दी गई थी, पर कमर और पेड़ू का दर्द बढ़ता ही जा रहा था, और बढ़ते बढ़ते असहनीय हो गया। ऐसे हालात में आनन फानन में ऑपरेशन किया गया, और दस दिन बाद वहाँ से छुट्टी मिल गई।
दर्द में बहुत राहत थी, पर कमज़ोरी बहुत थी, कुछ काम नहीं हो पाता था, और बात बात में रोना आता था। दूसरी तरफ़ पति और बच्चों को पुरानी वाली काम काजू, और सबका ख्याल रखने वाली पत्नी और मम्मी चाहिये थी। सब डॉक्टर की बात को भूल गया थे कि ऑपरेशन के तीन चार महीने तक बहुत कमज़ोरी रहती है। पति को यह लगता था कि दर्द खतम हो गया, तो कोई परेशानी नहीं। कमज़ोरी तो काम करने से दूर हो जायेगी।
रविवार का दिन था, बच्चे अपने पापा के साथ मेले में जाने के लिये तैयार हो रहे थे। मम्मी ने साथ जाने से मना कर दिया था क्योंकि उनको बहुत कमज़ोरी थी। संध्या को मम्मी ने जो फ़्रॉक पहनाई, वह संध्या को पसन्द नहीं थी, और गुस्से में संध्या ने रोना और हाथ पैर पटकना शुरू कर दिया।
शोर सुनकर पापा भी आ गये और बोले “बिटिया को उसके मन की फ़्रॉक काहे नहीं पहना देती हो ?”
“क्या करें ? और सारे कपड़े गन्दे हैं। सबके इतने सारे गन्दे कपड़े जमा हो गये थे। धीमे धीमे करके धो रहे हैं। कमज़ोरी इतनी लगती है कि काम हो नहीं पाता है” मम्मी निढाल स्वर में बोलीं।
“यह थकान का अच्छा रोना इतने दिन से हम सुनते आ रहे हैं। जब देखो तब थकान, खाना बनाने में तो थकान, कपड़ा धोने में तो थकान, बच्चों को तैयार करने में तो थकान। बस खाना खाने में थकान नहीं लगती तुम को,” झल्लाई आवाज़ में पापा ने जवाब दिया।
फिर संध्या को पुचकारते हुये बोले “चुप हो जाओ बेटा, और आज इसी फ़्रॉक से काम चला लो। तुम्हारी मम्मी कामचोर हो गई हैं। उनका कोई इलाज निकालना ही होगा।”
जब पापा बच्चों को मेला घुमाने के लिये घर से निकल गये, तब घर को अन्दर से बन्द कर के अकेले में मम्मी भौं भौं कर के खूब रोईं और बोलीं “ऐसे जीवन से क्या फ़ायदा भगवान। तुमने ऊपर ही क्यों नहीं उठा लिया। ऐसे तकलीफ़ दे दे कर मारने में तुम को क्या सुख मिल रहा है ? एक तो इतना बड़ा शारीरिक कष्ट। हमने तो अपने पुरखों में किसी की इतनी तकलीफ़ नहीं सुनी थी। और उसका इलाज भी क्या – बच्चेदानी निकाल देना। जब बच्चेदानी निकल गयी, तब औरत होने का क्या मतलब है? यह जीवन तो बैल जैसा है, बस काम करो और खाना खाओ। मरद मिला तो वो भी ऐसा स्वार्थी और मतलबी – हमारी कमज़ोरी, हमारी तकलीफ़, हमारा दुःख कुछ समझ में ही नहीं आता। बस अपनी और अपने बच्चों की पड़ी रहती है। ऑपरेशन करवा दिया और उनका काम पूरा। फिर तो बैल की तरह रगेदो। ऐसे जीने से तो ना जीना ही अच्छा है। पर क्या करें। बच्चों का मुँह देखकर जीना पड़ता है – यह सब तकलीफ़, यह सारे ताने झेलते हुये भी। और बच्चे भी ऐसे नासमझ – उनको बस पुरानी वाली मम्मी चाहिये, जो उनकी हर इच्छा पूरा करती थी। मम्मी को क्या हो रहा है, उसकी ज़रा भी चिन्ता नहीं”, रोते रोते मम्मी सो गईं।
देर शाम को चहकते हुये बच्चे मेले से लौटे। दरवाज़ा खुलते ही शिल्पी और संध्या मम्मी से लिपट गईं।
“मेले में खूब मज़ा आया मम्मी। आप भी साथ में होतीं, तो आपको भी खूब मज़ा आता”, फुदकते हुये शिल्पी बोली।
“हम लोग घोड़े वाले झूले पे झूले, और बड़े गोल झूले पे झूले”, बीच में कूदते हुये संध्या बोली।
बात को बीच में ही काटते हुये मुकेश बोला “गोल झूले पर संध्या रोने लग गई थी”।
“और हम लोगों ने कचौड़ी और चाट खाई, और गरम गरम इमिरती भी”, बात को बढ़ाते हुये संध्या बोली।
तीनों बच्चों ने मेले से जो कुछ लिया था, वो मम्मी को दिखाया।
फिर शरमाते हुये शिल्पी बोली “आपके लिये यह चूरन की गोलियां लेकर आये हैं। बेचने वाला कह रहा था कि इसको खाते ही सारे दर्द फुर्र से खतम हो जाते हैं, और ताकत आ जाती है। आप इसको खाकर जल्दी से ठीक हो जाइये, ताकि अगली बार आप भी हम लोगों के साथ मेले में मजा करके आइये।”
शिल्पी की बात पूरी होने के पहले ही मम्मी ने शिल्पी को खींच कर अपने सीने से लगा लिया।
अपने को पिछड़ता देख, खट से संध्या बोली “हम लोग लौटते में मंदिर भी गये थे। हमने भगवान जी से कहा कि हमारी मम्मी को जल्दी से ठीक कर दो। उनकी खराब तबियत देखकर हमको अच्छा नहीं लगता है।”
मम्मी ने संध्या को भी खींचकर अपने अंक में भर लिया।
पापा यह सब देख रहे थे, और उन्हें अपना गाँव याद आ गया। सन पचहत्तर में जब नज़दीक के कस्बे से इण्टर पास किया था तो उनकी उम्र उन्नीस बीस साल रही होगी। रोज़गार के लिये अपने एक नातेदार के साथ, भिलाई में स्टील प्लान्ट आ गये थे। घर में ठीक ठाक खेती-पाती थी, पर परिवार भी बड़ा था। गुज़ारे और तरक्की, दोनों के लिये यह ज़रूरी था कि कुछ लड़के परदेस कमाने के लिये निकलें। आठ महीने टेम्पोरेरी काम करने के बाद, प्लान्ट में पक्की नौकरी मिल गई। काम मिलने के कुछ ही सालों में वो अपने परिवार को, जो उस समय उनकी पत्नी और बेटा मुकेश भर था, भिलाई में साथ रहने के लिये ले आये थे। भिलाई में रहने की और बच्चों की पढ़ाई की सुविधा अच्छी थी, और गाँव जवार के काफ़ी लोग थे। यही सब सोच कर परिवार को भी साथ ले आये। आने जाने में थोड़ा कष्ट था – गाँव से भिलाई तक का रास्ता सीधा नहीं था। पहले इलाहाबाद आना होता था, और फिर वहाँ से तीन जगह ट्रेन बदलनी पड़ती थी। पूरे सफ़र में डेढ़ दो दिन लग जाते थे। काम करने में चुस्त थे और व्यवहार में कुशल, तो प्रमोशन भी मिले। उठने बैठने और रहने के ढंग में बदलाव आय। परिवार भी फला फूला – दो स्वस्थ, नटखट और चुलबुली बेटियाँ उनके जीवन में आईं।
गुस्सा होकर, झल्ला कर, ताने मार कर, पाँव पटक कर, रो कर, धीमे धीमे परिवार ने मम्मी की कमज़ोरी के साथ जीना सीखा। इधर मम्मी की हालत भी धीरे धीरे बेहतर होती गई। चार पाँच महीने बाद, हालात सहज हो गये, और परिवार अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों में उलझता, और खुशियों में प्रसन्न होता रहा।
फिर ऑपरेशन के लगभग चार साल बाद, मम्मी को पेट के निचले हिस्से में दर्द होना शुरू हुआ। शुरू में तो दर्द पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। पर दर्द बढ़ता ही गया, और कुछ दिनों बाद पेशाब में खून आने लगा। यह दर्द बच्चेदानी की गाँठों वाले दर्द से अलग था – पेट के निचले हिस्से में था, जबकि पिछला दर्द पेट के बीच के हिस्से में होता था। पेशाब में खून भी रोज़ आता था, और मासिक के खून से अलग था।
जब खून का स्राव बढ़ गया, तो उन्होंने यह बात पापा को बताई और दोनों जने डॉक्टर के पास गये। जाँच के बाद डॉक्टर ने बताया कि उनका एक गुरदा फ़ेल कर रहा है। खराब हुये हिस्से को ठीक नहीं किया जा सकता, पर ठीक हिस्से को और खराब होने से रोका जा सकता है। किस्मत से दूसरा गुरदा पूरी तरह से स्वस्थ था, और गुरदे के ना काम करने की वजह से शरीर में ज़हर फैलने का कोई डर नहीं था। डॉक्टर ने दवाइयाँ लिखीं, परहेज बताये, और हिदायत दी कि दवा और परहेज में कोई गफ़लत नहीं होनी चाहिये।
अस्पताल से घर तक पूरे रास्ते किसी ने एक दूसरे से एक शब्द भी नहीं कहा। मम्मी को घर पर छोड़ कर पापा काम पर चले गये।
अकेले, मम्मी ने अपना सिर हाथ में पकड़ा और कुर्सी में धँस गईं “भगवान यह हमारे साथ क्या हो रहा है? बच्चेदानी निकलना, उसके साथ का दर्द, और इनके ताने क्या कम नहीं थे, कि अब गुरदा भी फ़ेल करवा दिया। हमारे ऊपर ही मुश्किलों का पहाड़ टूटना था। क्यों ? माना कि हमने जीवन में पाप किये हैं, पर इतने तो नहीं कि इतनी भारी सज़ा हमें दी जाये। यह कैसा न्याय है आपका ? भारी भारी पाप करने वाले मजे से घूम रहे हैं, और हमको आप पीसे चले जा रहे हैं।” सोचते सोचते उनकी आँखों से आँसू चुपचाप बहने लगे।
यह बात जैसे जैसे दोस्तों में फैली, लोग हाल जानने के लिये मिलने आये। कई अलग अलग तरह के मशवरे मिले। जो कुछ डॉक्टर के बताये परहेज से टकराता नहीं था, उन सब उपायों पर अमल किया गया। डॉक्टर की बताई दवा और परहेज से फ़ायदा था – पेशाब से खून आना बिल्कुल बन्द हो गया था, और पेट का दर्द लगभग खतम हो गया था – कभी कभी होता था।
कुछ लोगों ने राजनांदगाँव से उत्तर डिंडोरी के पास एक बैगा ओझा के बारे में बताया जिसके पास गुरदे के रोग का अचूक इलाज था। बहुत लोगों को उसके इलाज से फ़ायदा हुआ था। पर मम्मी पापा के जानने वालों में से कोई ऐसा नहीं था, जिसको खुद फ़ायदा हुआ हो।
बैगा उस क्षेत्र की बहुत पिछड़ी जनजाति है, जो बहुत घने जंगलों के बीच में रहती है। इस जनजाति को भारत सरकार ने आदिम जाति का दर्जा दे रक्खा है। बैगा लोगों कि अपनी बहुत पुरानी चिकित्सा की परम्परा है, जिसका आज भी बड़ा मान है – इस क्षेत्र में बैगा ओझा या चिकित्सक प्रसिद्ध हैं। लेकिन यह आसानी से उपलब्ध नहीं हैं – उनके पास पहुँचना बहुत कठिन होता है।
काफ़ी ढूँढने पर एक जानकार मिला जो उस इलाके को जानता था, और उस बैगा ओझा के पास पहुँच सकता था। एक दिन पापा और मम्मी, उस जानकार के साथ बैगा ओझा से मिलने के लिये निकले और कई सवारियाँ बदलने के बाद, दूसरे दिन दोपहर में उसके पास पहुँचे। बैगा ओझा ने कई सवाल पूछे, चेहरे और हाथ की चमड़ी को देखा, फिर कुछ समय के लिये चला गया। लौटकर उसने कुछ जड़ी बूटियों के नाम और उनसे दवा बनाने के तरीके को बताया। कुछ परहेज भी बताये। यह सब पापा ने लिख लिया। फिर उसने दस दिन की दवा बनाकर साथ में दे दी। चलते समय पापा ने उसे कुछ पैसे देने की कोशिश की, पर उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया। । यह लोग साथ में जो फल ले गये थे, उसे ओझा के देव स्थान पर चढ़ा कर वापस भिलाई लौट आये।
दूसरे दिन से बैगा ओझा की दवा शुरू कर दी गई, पर डॉक्टर की दवा बन्द नहीं की गई। बैगा ओझा की दवा का असर जल्द ही महसूस हुआ और अच्छा रहा। दर्द तो बिल्कुल खतम हो गया, और सेहत में सुधार हुआ – चेहरे की रंगत सुधरी, थोड़ा वजन बढ़ा, और मिज़ाज खुशनुमा हुआ। पर बताई गई जड़ी बूटियाँ बाज़ार में बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलीं। जब दवा खतम होने लगी तो पापा फिर से बैगा ओझा के पास गये। उसने बीस दिन की दवा बना कर दे दी, और फिर पैसे लेने से इंकार कर दिया। बताई गई जड़ी बूटियों की तलाश आस-पास के कई शहरों और कस्बों में की गई, पर वह कहीं भी नहीं मिलीं। दवा खतम होने के पहले पापा अपने एक साथी को लेकर गये, और फिर बीस दिन की दवा लेकर आ गये।
बैगा ओझा की दवा का बहुत फ़ायदा हो रहा था, और इसकी पुष्टि अस्पताल में पेशाब की जाँच में भी हुई। बैगा ओझा से बीस दिन की दवा का सिलसिला चलता रहा। कभी पापा जाते, कभी उनके साथी। सभी खुश थे। पापा और मम्मी अक्सर मंदिर जाते और भगवान के सामने अपना शीश नवाते।
फिर एक बार पापा जब दवाई लेने गये तो पता चला कि बैगा ओझा की मृत्यु हो गई है – उसे एक तेन्दुए ने मार डाला था। बड़े मायूस होकर पापा घर लौटे। अब तो सिर्फ़ डॉक्टर की ही दवा का सहारा था। कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा, फिर मम्मी की तबियत बिगड़ने लगी। डॉक्टर ने कई दवाइयाँ बदलीं पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पहले से खराब गुरदा पूरी तरह से फ़ेल कर गया और अब दूसरा गुरदा भी फ़ेल करने लगा। अब मम्मी को महीने में दो बार डायलिसिस करवा कर अपने शरीर की ज़हरीली गंदगी को बाहर करवा कर खून साफ़ करवाना होता था।
डायलिसिस की सुविधा सिर्फ़ सरकारी अस्पताल में थी। कहने के लिये तो यह सुविधा फ़्री थी, पर ऊपर के टेक्नीशियन के और डॉक्टर वगैरह के खर्च काफ़ी हो जाते थे। डायलिसिस शुरू होने के दूसरे महीने में ही, एक मुश्किल स्थिति पैदा हो गई।
“सुनिये जी, बैंक से पैसे निकाल लीजियेगा। आपने जो पैसे दिये थे, वो खतम हो गये”, एक शाम मम्मी बोलीं।
“अरे, इतनी जल्दी खतम हो गये। यह कैसे हो सकता है?”, अचम्भित होकर पापा बोले “अभी तो महीने में करीब दो हफ़्ते बाकी हैं।”
“आपने दिये ही कितने थे? राशन, सब्ज़ी, बच्चों की पेंसिल कॉपी में खतम हो गये।”
“बैंक में पैसे बचे कहाँ हैं। सारे तो दो महीने की डायलिसिस में खतम हो गये”।
थोड़ी देर सोचने के बाद पापा बोले “अब सवाल यह है कि रमेश से पैसे उधार लेकर महीना पार किया जाये, या फिर फ़िक्स डिपॉज़िट तुड़वाया जाये ?”
“नहीं नहीं, फ़िक्स ना तुड़वाया जाये।” बात खतम होने के पहले ही मम्मी बोल पड़ीं “इतनी मुश्किल से तो जोड़ गाँठ कर कुछ पैसे अलग किये हैं – वो भी घर की खर्चे में उड़ा दें। नहीं नहीं।”
काफ़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला – सब शान्त।
फिर गंभीर आवाज़ में पापा धीरे धीरे बोले “देखो हम लोगों के खर्चे बढ़ गये हैं। पैसा कहीं ना कहीं से तो आना ही होगा। तन्खा से घर के रोज़मर्रा के खर्चे चल जाते हैं। यह अस्पताल का खर्चा अलग से है। फ़िक्स हमें तुड़वाना ही पड़ेगा – इस महीने नहीं तो अगले महीने।”
“बात तो आप ठीक कह रहे हैं,” उलझन भरी आवाज़ में मम्मी बोलीं “पता नहीं कहाँ से यह बला सर पर आ पड़ी है। और इस बीमारी का तो कोई अन्त नहीं दिखता। यह तो चलती ही चली जायेगी। पता नहीं हमसे कहाँ पर क्या भूल हुई, क्या पाप हुआ, जिसकी सज़ा हमें मिल रही है।” थोड़ा रुक कर “जहाँ तक हमको सज़ा मिले, सो स्वीकार है, यहाँ तो पूरा परिवार बर्बाद हुआ चला जा रहा है।”
कुछ देर तक सन्नाटा रहा। पापा एक कागज़ पर कुछ जोड़ते घटाते रहे, और अपने में ही कुछ बुदबुदाते रहे।
फिर धीरे से बोले “यह फ़िक्स हम तोड़ भी दें तो भी हमारा काम अगले चार महीने तक ही चलेगा। उसके बाद हमारी फिर आज जैसी ही स्थिति होने वाली है।”
कुछ सोचने के बाद बोले “गाँव में हमारे हिस्से में कुछ ज़मीन आयेगी। उसको बेच दें तो कुछ पैसे आ जायेंगे।”
“अभी तक तो फ़िक्स ही टूट रहा था, अब ज़मीन बेचने की भी बात आ गई।” मम्मी कूद पड़ीं “अरे पुरखों की बनाई हुई ज़मीन जायदाद है। हम लोग उसमें कुछ जोड़ नहीं सकते, तो कम से कम खा पी कर खतम तो ना कर दें। बच्चों का सारा जीवन आगे पड़ा है, उनके लिये भी तो कुछ सोचें।”
“वो सब सिद्धांत तो तुम सही कह रही हो, पर डायलिसिस के लिये पैसा आयेगा कहाँ से?”, थोड़ा खीजते हुये पापा बोले “कहीं ना कहीं से तो आना ही होगा। और ज़मीन बेच कर हम कौन सा पाप करे डाल रहे हैं। चुपचाप बैठो और फालतू की बकबक ना करो। हमको सोचने दो।”
काफ़ी देर सोचने के बाद पापा बोले “ज़मीन बेचना इतना आसान नहीं है। अभी बाबूजी ज़िन्दा हैं तो ज़मीन का पूरा हक उनका ही है। उनके बाद हमारा हक बनता है। फिर ज़मीन अभी भी अज्जा के नाम से ही है। पहले वो चच्चा लोगों और बाबूजी के नाम से दाखिल खारिज हो, फिर खसरा खतौनी में बँटवारा हो, तब जाकर बाबूजी के नाम से हो। फिर बाबूजी हमको कुछ हिस्सा देने को तैयार हों।” काफ़ी देर तक और सोचने के बाद “बहुत ज़्यादा टाइम और पैसा लगेगा। समय से पैसा नहीं, आधे से ज़्यादा पैसा खर्चे में, ऊपर से कुल खानदान और गाँवै में बदनामी कि ‘मुन्नू बँटवारा करवा ले लन’। इस तरफ़ तो सोचना ही बेकार है।”
काफ़ी देर तक फिर कोई कुछ नहीं बोला।
आहिस्ता आहिस्ता ऊँची आवाज़ में मम्मी बोलीं “हमारी मानिये तो यह डायलिसिस का चक्कर खतम कीजिये। हम लोग भगवान पर भरोसा करें – जिसने यह तकलीफ़ दी है, वही इससे मुक्ति दिलायेगा। उस पर भरोसा कीजिये।”
गुस्से में पापा एकदम से चिल्लाने लगे “क्या उजड्ड गँवार जैसी बात कर रही हो। भगवान पर भरोसा करने का यह मतलब तो नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहें। भगवान पका पकाया खाना हमारे मुँह में डाल देगा।”
साँस लेने के लिये थोड़ा रुके और फिर चिल्लाना जारी रखते हुये बोले “तुमने सोचा भी है कि तुम क्या बोल रही हो। बस जो मन में आया बिना सोचे समझे बोल दिया।” साँस लेने के बाद फिर शुरू हो गये “डायलिसिस बंद होने का मतलब है कि कुछ महीने में तुम्हारा राम नाम सत। उसके बाद इन बच्चों को देखेगा कौन ? हम नौकरी करेंगे या बच्चों को देखेंगे ? ऐसा कुछ बोलने के पहले बच्चों के बारे में तो सोच लिया होता।”
थोड़ा रुकने के बाद खीझे हुये स्वर में बोले “चलो बहुत हो गया। आज इस पर और कुछ बात नहीं करेंगे। सब लोग खाना खाओ और सो जाओ।”
अगले दिन शाम को पापा जब घर लौटे तब फ़िक्स तुड़वा कर घर के खर्चे के लिये पैसे ले आये थे।
इसके बाद मम्मी ने घर के खर्चे में जम कर कटौती करनी शुरू की। बच्चों की टॅाफ़ी बिस्कुट लगभग बन्द हो गये – बस महीने में एक दो बार। जहाँ नये जूतों या कपड़ों की ज़रूरत थी, वहाँ पर मरम्मत से काम चलाया गया। दाल में पानी ज़्यादा और दाल कम, सबसे सस्ती सब्ज़ी और अक्सर सिर्फ़ आलू या वह भी नहीं। बच्चे बहुत रोये चिल्लाये पर उन्हें डाँट कर चुप करवा दिया। एक महीने बाद जब हिसाब जोड़ा तो पाया कि बचत हुई थी, पर इतनी नहीं कि वेतन से घर के खर्चे और इलाज दोनों ही पूरे पड़ जायें।
एक दिन मम्मी ने पापा को सुझाव दिया “क्यों ना हम लोग अचार, मुँगौरी, कोंहड़ौरी वगैरा बना कर बेचें ? हम यह सब घर पर बना देंगे, और आप उन्हें दुकानों पर बेच आइयेगा।”
पापा ने किराना दुकानों पर जाकर पूछा कि क्या वह उनसे अचार वगैरह लेंगे। अधिकतर ने तो मना कर दिया, पर चार दुकानदारों ने कहा कि सैम्पल देखने के बाद ही बतायेंगे। पापा घर पर रक्खे अचार और मुँगौरी कोंहड़ौरी ले गये। तीन दुकानदार यह सामान बेचने को राज़ी हो गये, और अपना रेट बताया। पापा ने अपने दोस्त के साथ बैठकर हिसाब लगाया कि कुछ बचेगा या नहीं। हिसाब से कुछ बचत होनी चाहिये थी।
अगले हफ़्ते से यह काम शुरू हो गया। मम्मी ने घर पर अचार डाले, और मुँगौरी बनाई। उनको तकलीफ़ हुई पर दर्द और कमज़ोरी के बावजूद वो इस काम में जुट गईं। घर चलाना, बच्चों को संभालना, और साथ ही साथ यह काम करना। दुकानदार की माँग पर जब सामान तैयार हो जाता, पापा उसे दुकान पर दे आते। दुकानदारों से यह तय था कि माल देने के पंद्रह दिन बाद पैसे मिलेंगे, और वो भी बिके हुये माल के। दुकानों पर से सामान पहले महीने में ही अच्छा उठा। दूसरे महीने तो माँग काफ़ी बढ़ गई।
दूसरे महीने के बाद जब हिसाब किया गया तो बचत अच्छी ख़ासी थी। सबने राहत की साँस ली। दूसरे महीने के हिसाब के बाद से यह आस बँधी कि धंधा थोड़ा और बढ़ जाये तो तन्ख़ाह और धंधे की कमाई से घर का और बीमारी का खर्च सहज रूप से पूरा हो जायेगा। पूरा परिवार भगवान के इस अनुग्रह को स्वीकारने के लिये मंदिर दर्शन करने गया।
तीसरे महीने के आखिर में सबसे बड़े दुकानदार ने यह कहते हुये कि नब्बे प्रतिशत माल नहीं बिका है, सिर्फ़ दस प्रतिशत के पैसे दिये। उसने अगले हफ़्ते के लिये पहले से भी बड़ा ऑर्डर दिया। ऑर्डर सप्लाई करने के दो हफ़्ते बाद जब पापा पैसे लेने गये तो फिर सिर्फ़ दस प्रतिशत के पैसे दिये, बकाया कुछ नहीं दिया, और एक बड़ा ऑर्डर फिर दे दिया। पापा ने इस बारे में मम्मी से और अपने दोस्तों से चर्चा की। सबकी राय थी कि दुकानदार की नियत खराब हो गई है। पापा दुकानदार से जाकर मिले और उससे कहा कि वह इस धंधे को बन्द कर रहे हैं, और उनको अपने माल के पैसे चाहिये।
दुकानदार “माल तो बिका ही नहीं है, पैसे कहाँ से दे दें ?”
“अगर माल नहीं बिका है, तो हमें माल ही लौटा दीजिये। उसे हम जैसे तैसे कहीं लगा देंगे।”
“अरे पप्पू, ज़रा देखो वो अन्दर वाले गोदाम में इनके अचार और बड़ियाँ रक्खी हैं। लाकर इन्हें वापस कर दो। ”
काफ़ी समय बाद पप्पू खाली हाथ लौटा और बोला “वो तो सारे सामान में भुकड़ी लग गई थी। उसे तो फेंक दिया गया।”
दुकानदार “देखिये, अब तो सारा सामान ही फिंकवा दिया गया। अब ना तो आपको माल लौटा सकते हैं, और ना ही पैसे दे सकते हैं।” थोड़ा रुक कर “ऐसे हमारा सुझाव है कि आप यह धंधा बन्द ना करें। नया माल लाइये, उसका नये सिरे से हिसाब करेंगे। जो हो गया सो हो गया। उसे भूल जाइये।”
बड़ी मायूसी और उलझन में पापा घर लौटे। हिसाब किया तो पाया कि धंधे की सारी बचत तो डूब ही गई थी, साथ में घर का भी काफ़ी पैसा उस दुकानदार के पास डूब गया था।
“अब आगे क्या किया जाये ? इस दुकान पर तो भरोसा नहीं रहा।” उलझन में अपना सिर खुजलाते हुये पापा बोले “इतने दिनों की मेहनत और ऊपर से घर का पैसा इसने मार लिया। पर मुश्किल यह है कि यही सबसे ज़्यादा माल उठाता है। और दोनों की खपत जोड़ लें तो भी ज़्यादा माल इसके यहाँ से ही निकलता है।”
“उस ने कहा है ना कि नये सिरे से हिसाब शुरू करते हैं।” निराशा कम करने की कोशिश करते हुये मम्मी बोलीं “समझ लेंगे कि तीन महीने हम लोगों ने मेहनत की ही नहीं।”
“यह तो अपने को समझा लें कि तीन महीने मेहनत की ही नहीं। पर यह कैसे भूल जायें कि अपने घर का भी पैसा डूबा है उसके पास। इसका तो कोई भरोसा नहीं है कि वो अगली बार भी हमारा पैसा नहीं मारेगा।” थोड़ा सोचने के बाद “पर यह बात भी सही है कि माल तो उसके यहाँ से ही निकलता है। आमदनी असली वहीं से है।”
“हम लोगों के पास आमदनी का दूसरा तरीका भी तो नहीं है। पैसों की हमको ज़रूरत है।”
काफ़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला।
मम्मी ” ऐसा करते हैं, इस दुकानदार को छोड़ देते हैं। और दोनों के साथ काम बढ़ाते हैं। इतना अब समझ में आ गया है कि हमारे हाथ का बनाया सामान बिकता है। और दुकानों को ढूँढेंगे, दो तीन तो मिल ही जायेंगी।”
और दुकानें नहीं मिलीं। भिलाई और उसका जुड़वाँ दुर्ग, छोटे शहर थे, अधिकतर परिवार अचार और बड़ियाँ घर पर ही बनाते थे। बने बनाये सामान की खपत कम थी।
फ़िक्स तुड़वा कर जो पैसे आये थे, वो सिर्फ़ एक महीना और चलने वाले थे। पापा और मम्मी इस बात पर सहमत हो गये थे कि बड़े दुकानदार के साथ फिर काम शुरू किया जाये। इसी बीच एक जानने वाले ने कुवैत में नौकरी की बात की। उनके भाई कुवैत में काम करते थे। और भाई की कम्पनी को पापा जैसा काम करते थे, वैसे अनुभव के लोग चाहिये थे। पापा मम्मी ने इस बारे में बातचीत की। कुवैत जाने का मतलब यह था कि पैसों की मुश्किल निपट जायेगी। लेकिन यह भी मतलब था कि मम्मी को अकेले ही घर और बच्चों को देखना होगा, और अपनी बीमारी को भी संभालना होगा।
“भगवान ने आखिर हमारी सुन ही ली। डूबने से पहले हमको एक सहारा दे दिया”, राहत की साँस लेते हुये मम्मी बोलीं।
“भगवान की बड़ी अनुकम्पा है कि यह रास्ता दिखा रहा है। अब हो जाये तो जानो। पर हमारे मन में एक खटका है” पसोपेश में पड़े पापा बोले “तुम्हारे ऊपर बहुत बोझ आ जायेगा। वैसे ही तुम्हारी तबियत ठीक नहीं रहती है। उस पर से घर, बच्चे, बाहर, बिमारी सारी जिम्मेदारी तुम ही पर आ जायेगी।”
“अरे उसके लिये आप मत घबराइये। मुकेश अब चौदह साल का हो गया है। बाहर की जिम्मेदारी वो संभाल लेगा। शिल्पी और संध्या भी बड़ी हो गई हैं। अपना काम खुद कर लेती हैं, और शिल्पी तो घर के काम में भी हाथ बँटा लेती है। भगवान की ऐसी ही अनुकम्पा बनी रही, तो सब संभल जायेगा।”
“बात तो तुम ठीक कह रही हो, पर कोई इमरजेंसी आ गई तो ?”
“अरे नन्हे भैया हैं, मुकुन्द भैया हैं, महमूद भैया हैं, और पड़ोसी हैं। हम लोग इतने साल से रह रहे हैं। सबने अब तक हमारी बहुत मदद की है, तो आगे भी करेंगे। उसके आगे भगवान का सहारा है।”
दो महीने बाद कुवैत से सारे कागज़ तैयार होकर आ गये। यहाँ से भी पासपोर्ट और वीसा का काम भी पूरा हो गया। तब पापा और मम्मी ने चैन की साँस ली। मन्दिर जाकर सवा किलो का प्रसाद चढ़ाया और अगले हफ़्ते कुवैत जाने की तैयारी शुरू की।
जिस समय पापा को दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी (कुवैत के लिये फ़्लाइट दिल्ली से लेनी थी) उसके आधे घंटे पहले से संध्या ने रोना शुरू कर दिया “पापा, आप मत जाइये। पापा, मत जाइये।”
उसे बहलाने, फुसलाने, समझाने की बहुत कोशिश करी गई। पर उसका उल्टा ही असर हुआ – उसका रोना और तेज हो गया और बाद में वह दहाड़ें मार कर रोने लगी “पा S S S पा S S S, म S S त जाइये S S S, ऊँ ऊँ ऊँ S S S।”
उसका रोना देख पापा सोचने लगे “यह लड़की कभी इतना रोती नहीं है। आज क्यों इतना रो रही है ? कहीं कुछ अनिष्ट तो नहीं होने वाला है ? अभी छोटी बच्ची है – कहीं इसको अनिष्ट को अंदेसा तो नहीं हो रहा है ?”
कुछ देर ऐसे ही सोचते रहने के बाद बोले “हम अपना कुवैत जाने का प्रोग्राम रद्द कर रहे हैं। संध्या का इतना रोना किसी अनिष्ट का अंदेसा है। हम नहीं चाहते कि जब तुम लोगों पर बाधा आये तब तुम लोग अकेले रहो। जो भी बाधा आएगी, उससे हम निपटेंगे। पैसों के इंतजाम के लिये कुछ करेंगे।”
यह कहते हुये उन्होंने रिक्शे पर से सामान उतार कर घर के अन्दर रख दिया, रिक्शे वाले को कुछ पैसे दिये और उससे माफ़ी माँग कर रवाना कर दिया।
सब चुपचाप खड़े थे। संध्या का रोना भी खतम हो गया था।
कुछ देर बाद चुप्पी तोड़ते हुये मम्मी बोलीं “संध्या अभी छोटी है। आपसे दूर होने पर रो रही है। यह कोई अनिष्ट का अंदेसा नहीं है। भगवान सब ठीक कर देगा। अगर कोई मुसीबत आती है, तो यहाँ पर इतने लोग हैं, संभाल लेंगे। और कुछ ज़्यादा ही बड़ी मुसीबत आती है, तब आपको फ़ोन करवायेंगे। तब आ जाइयेगा।”
साथ खड़े मुकुन्द भैया और महमूद भैया से कहा “भैया, आप लोग इनके साथ जाइये और ट्रेन पर बैठा कर आइये।”
परिवार का जीवन थोड़ी उथल पुथल के बाद पटरी पर आ गया। मुकेश बाहर के काम कर देता था, और शिल्पी और संध्या घर के काम में हाथ बँटा देती थीं। डायलिसिस के लिये मम्मी मुकेश को साथ ले लेतीं। उसके साथ ही से बहुत सहारा रहता था, खासकर लौटते वक़्त जब कमज़ोरी और दर्द बहुत ज़्यादा होते थे।
एक बार डायलिसिस के दिन मुकेश का परचा था। सालाना इम्तिहान थे, और परचा छुड़वाने का मतलब मुकेश का पूरा साल खराब करवाना। माँ बेटा ने यह पहले से ही तय कर लिया था, कि मुकेश अपने सारे परचे नियम से देगा, और डायलिसिस चार दिन बाद, जब सारे परचे खतम हो जायेंगे, तब करवाई जायेगी। डायलिसिस की नियत तारीख के गुज़रने के दो दिन बाद ही मम्मी की कमज़ोरी बहुत बढ़ गई।
बच्चों के स्कूल जाते ही वह पड़ोसन के पास गईं “बहन, क्या तुम हमारे साथ अस्पताल चल सकती हो ? हमको अपनी डायलिसिस करवानी है – करीब तीन घंटे लगेंगे। मुकेश के इम्तेहान हैं, तो वो हमारे साथ नहीं जा सकता।”
“हाँ हाँ, बिल्कुल चलेंगे। पर हम कभी अस्पताल अकेले नहीं गये हैं। वहाँ पर हम आपकी कोई मदद नहीं कर पायेंगे।”
“अस्पताल का हमें सब कुछ मालूम है, तुम उसकी चिन्ता ना करो। हमें साथ रहने के लिये बस एक साथी चाहिये।”
“ठीक है। हम चलेंगे। कब चलना है ?”
“अभी।”
“अभी!” सकपकाई हुई पड़ोसन बोलीं “पर अभी कैसे चल सकते है ? हमारी कोई तैयारी नही है। इनको बताया नहीं है, और अभी हमारी पूजा बाकी है। कल चलिये। कल आप जब कहेंगी तब हम चल चलेंगे।”
“बहन, आज हमारी तबियत बहुत खराब है। ना बैठते चैन है, ना लेटते। कल तक शरीर में ज़हर बहुत बढ़ जायेगा। हम तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं, अभी चल चलो। हम लोग बच्चों के घर आने के समय तक वापस आ जायेंगे।”
पड़ोसन थोड़ी देर तक सोचती रही। फिर बिना कुछ बोले उठी, तैयार हुई, और मम्मी के साथ अस्पताल चल पड़ी।
अस्पताल में, डायलिसिस में देरी करने के लिये मम्मी को डॉक्टर से काफ़ी डाँट सुननी पड़ी। डॉक्टर ने कहा कि अगर डायलिसिस और दवाई मे ज़रा भी ढीलाई हुई तो उनके गुरदा और खराब हो जायेगा, और उन्हें डायलिसिस के लिये जल्दी जल्दी आना पड़ेगा।
इसके बाद डायलिसिस के लिये मुकेश की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। दो पड़ोसनें थीं जिनके साथ मम्मी का अस्पताल जाना एक ढर्रे में बंध गया था। कभी एक पड़ोसन के साथ तो कभी दूसरे के साथ।
एक डायलिसिस के दिन मम्मी को बहुत तकलीफ़ और कमज़ोरी थी – पिछले कई दिनों से बदपरहेजी हो रही थी। डायलिसिस पर जाने के लिये वो पड़ोसन के यहाँ गईं तो पाया कि उसके यहाँ अचानक कुछ ही देर पहले गाँव से मेहमान आ गये थे। दूसरी पड़ोसन पहले से ही अपने मायके गई हुई थी।
मम्मी ने सोचा “अकेले अस्पताल चले तो जायें, पर आज कमज़ोरी इतनी ज़्यादा है कि अगर कहीं गिर गये तो कोई उठाने वाला नहीं होगा। मुकेश कहाँ कहाँ ढूँढेगा। पर आज डायलिसिस करवाना भी ज़रूरी है। जाने की हिम्मत नहीं हो रही है, पर जाना तो पड़ेगा। भगवान सहारा दें।”
पूरे शरीर में रह रह कर ऐंठन भरा दर्द हो रहा था, कमज़ोरी से चला नहीं जा रहा था, फिर भी धूप में निकलीं। देर तक कोई रिक्शा नहीं मिला। कुछ दूर चलने के बाद कहीं रिक्शा मिला। अस्पताल में पाया कि उनका डॉक्टर छुट्टी पर था, और डायलिसिस का काम बन्द पड़ा था। कर्मचारियों ने बताया कि अस्पताल के अधीक्षक के अगर आदेश हो जायेंगे, तो डायलिसिस हो सकती है। मम्मी ने अभी तक किसी अधिकारी से सीधी बात नहीं की थी।
सोचने लगीं “छोड़ो यह सब डायलिसिस का झंझट। दो दिन में कुछ खास बिगड़ नहीं जायेगा। दो दिन बाद जब डॉक्टर साहब आ जायेंगे, तब करवाई जायेगी।”
यह सोचते हुये वो अस्पताल से बाहर निकलने के लिये बढ़ीं।
तभी गुरदा विभाग की एक पुरानी नर्स सामने से आती हुई मिली, और बोली “अरे आप बिना डायलिसिस करवाये हुये जा रही हैं। एक बार सुपरिन्टेन साहब से मिल तो लीजिये, शायद मान जायें।”
मम्मी ठिठकीं और उनकी आँखों के सामने बच्चों की तस्वीर धूम गई।
उन्होंने नर्स से पूछा “भगा तो नहीं देंगे ?”
“अरे बात तो कर लीजिये।”
मम्मी ने भगवान से प्रार्थना की “भगवान, सहारा दो, शक्ति दो”, और अधीक्षक के कमरे की तरफ़ बढ़ीं। चलते हुये प्रार्थना आगे बढ़ाई “भगवन्, बच्चे, खासकर संध्या, अपने पैरों पर खड़े हो जायें तब तक नैया आगे बढ़ाते रहो। फिर तुम्हारे पास शान्ति से आ सकते हैं।”
अधीक्षक के कमरे के बाहर काफ़ी देर इंतज़ार करने के बाद उनको अन्दर जाने की इजाज़त मिली, और उन्होंने अधीक्षक से अपनी बात कही। डॉक्टर की गैर मौजूदगी में अधीक्षक डायलिसिस करवाने को तैयार नहीं था। बहुत कहने और गिड़गिड़ाने पर उसने अन्ततः डायलिसिस के आदेश दिये।
साँझ ढले मम्मी घर लौटीं। उस तकलीफ़ में भी रिक्शे पर बैठे हुये अचानक अपने ब्याह की तस्वीर उनकी आँखों के सामने घूम गई – देहात की एक अनपढ़ लड़की जो कि नज़दीक के कस्बे से कभी आगे गई नहीं। वही दुल्हन आज सोलह साल बाद एक अस्पताल के अधीक्षक से बिल्कुल अकेले अपना काम करवा कर, अपना इलाज पूरा करवा रही है। सोचते सोचते उनका चेहरा खिल उठा और आँखों में चमक आ गई।
जाने के दो साल बाद पापा छुट्टी पर घर आये। घर के अधूरे पड़े काम निपटाये। बच्चों के लिये मिठाई, खिलौने, और कपड़े आये। घूमना फिरना हुआ। एक रात पति पत्नी बैठे बातें कर रहे थे – दोनों खुश, पत्नी के दर्द नहीं के बराबर। बच्चे खाना खाकर सो चुके थे। बातों में थोड़ा विराम आया।
पापा “चलो लेट जाओ, तुम्हारा सर दबा दें। थक गई होगी। एक तो ऐसे ही बीमारी की तकलीफ़, फिर बच्चों का काम, और अब हमारा काम। बहुत मेहनत पड़ रही है तुम पर। तुम को थोड़ा आराम दे दें।”
मम्मी के चेहरे पर मुस्कान आई।
एकबारगी लाज से आँखें नीची कीं, फिर लजाते हुये पापा को देखा, और बोलीं “एकदम से हमारी तकलीफ़ की याद आ गई। नहीं तो हमारी ज़रूरत तो सिर्फ़ बच्चों को पालने के लिये है। बच्चे ना होते तो कब का हमको मरने के लिये छोड़ दिया होता।”
“क्या बात कर रही हो। तुम हो तो बच्चों का सुख है। तुम्हारे बिना तो बच्चों के सुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती।”
थोड़ी देर बाद कमरे की बत्ती बुझ गई।
बीमारी शुरू होने के छह साल बाद मम्मी का एक गुरदा पूरा और बचा हुआ गुरदा लगभग तीन चौथाई फ़ेल कर चुका था। अब उनको हफ़्ते में दो बार डायलिसिस के लिये जाना पड़ता था। मुकेश बीए में पढ़ रहा था, और शिल्पी के इण्टर के बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे। दो दिन पहले संध्या के हाई स्कूल के बोर्ड के इम्तिहान खतम हुये थे। मम्मी अब अधिकतर बिस्तर पर ही लेटी रहती थीं। अपना सारा काम वो स्वयं ही करती थीं, पर घर का काम बच्चे ही करते थे। वो बिस्तर पर लेटे लेटे सिर्फ़ बतातीं कि क्या काम होने हैं।
एक दिन बाद शिल्पी का आखिरी परचा था। मम्मी की कमज़ोरी एकदम से बढ़ गई। बिस्तर से उठकर पेशाब करने जाने की भी शक्ति कम पड़ने लगी। किसी तरह से हिम्मत कर के अपने को धकेल कर अपने काम पूरे किये, पर बच्चों से अपनी हालत के बारे में कुछ नहीं कहा।
दूसरे दिन शिल्पी अपना परचा देने गई, और मुकेश किसी काम से गया। तब मम्मी ने संध्या को बुला कर सहारा देने को कहा। उसका सहारा लेकर किसी तरह से अपने नित्य कर्म निपटाये और बिस्तर पर निढाल पड़ गईं।
संध्या से बोलीं “बेटा, आज हम अपना पाठ नहीं कर पा रहे हैं। तुम सामने बैठ कर जरा रामायण का पाठ करो।”
“ऊँSहूँ S S मम्मी,” झुँझलाते हुये संध्या बोली “पाठ करना क्या अभी ही जरूरी है। जब थोड़ा ठीक हो जाइयेगा तब कर लीजियेगा।”
“तुम्हारे मुँह से सुनेंगे तो अच्छा लगेगा,” धीमी पड़ती आवाज़ में मम्मी बोलीं।
खीजते हुये संध्या उठी और राम चरित मानस लाकर बोल बोल कर पाठ करने लगी।
थोड़ी देर बाद थक कर बोली “बस मम्मी, अभी के लिये बस इतना ही।”
मम्मी ने कुछ जवाब नहीं दिया। संध्या ने उठकर राम चरित मानस को पूजा की चौकी पर रख दिया। पर उसे थोड़ा ताज्जुब हुआ कि मम्मी ने कुछ जवाब क्यों नहीं दिया। पास जाकर देखा तो उनकी आँखें बन्द थीं, और शरीर शिथिल। उसने हिलाया डुलाया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
वह दौड़ कर पड़ोसी के यहाँ गई “अंकल, चल कर देखिये मम्मी को क्या हो गया है। ना बोल रही हैं, ना हिल डुल रही हैं।”
पड़ोसी आये और शान्त शरीर को देखकर डॉक्टर को बुलाने चले गये।
शिल्पी खुशी से चहकती हुई घर में दाखिल हुई “मम्मी, हमारी इण्टर की परीक्षा खतम, अब हम नये सत्र में डिग्री कॉलेज में पढ़ने जायेंगे।
थोड़ी देर बाद, खुशी से झूमता हुआ मुकेश घर में घुसा “मम्मी, हमारा चयन मध्य प्रदेश राज्य की बास्केट बॉल टीम में हो गया है।”
पर मम्मी अपने बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा कर भगवान के पास जा चुकी थीं।

उम्मीद है आपको यह कहानी पसन्द आई होगी।
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