कामवासना

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Re: कामवासना

Post by 007 »

मितवाऽऽ.. भूल नऽऽ जानाऽऽ । निमाङ की हरी भरी वादियों में अचानक ये करुण पुकार दूर दूर तक गूँज गयी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
छत पर खङी उदास रोमा के दिल में धक्क सी हुयी । आसमान जैसे वह शब्द उसके पास ले आया था - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । किसी सच्चे प्रेमी के दिल से उठती आसमान का भी कलेजा चीर देने वाली पुकार । उसके कलेजे में एक तेज हूक उठी । उसकी निगाह निमाङ की उन्हीं वादियों की तरफ़ ही थी । घबराकर उसने मुँडेर पर सिर टिका लिया । और बेतरह दोनों हाथों से कलेजा मसलने लगी । ये अजीब सा दर्द उसे चैन न लेने दे रहा था । वादियों में गूँजती उस सच्चे प्रेमी की विरह पुकार वादियों से आती हवायें उस तक निरन्तर पहुँचा रही थी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
- ये तुम क्या करते हो.. विशाल । वह फ़फ़क फ़फ़क कर रो पङी - मैं कैसे.. भूल जाऊँगी तुम्हें । पर कुछ तो मेरा.. भी ख्याल करो । मैं कितनी.. मजबूर हूँ ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते रोते पक्षी संदेश सुनाते हुये गुजर गये ।
- नहींऽऽ ।..नहींऽऽ भगवान नहीं । वह दिल ही दिल में चीख पङी - ऐसा मत करो । प्रभु हमारे साथ । ऐसा मत करो । वह मर जायेगा । प्रभु..उस पर कुछ तो दया करो ..प्रभु कुछ तो दया करो । कहती कहती वह जमीन पर गिरकर जोर जोर से रोने लगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । घाटियों से आते बादल तङप कर फ़िर बोले ।
- खुद कोऽऽ संभालो विशाल । वह सुबक कर बोली - हिम्मत से काम लो । हाँ साजन ! यदि तुम ही यूँ टूट गये
तो फ़िर मुझे हिम्मत कैसे बंधेगी । ..तुम्हारे बिना फ़िर मैं भी न जी पाऊँगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । दसों दिशायें भीगे स्वर में एक साथ बोली ।
- नहीं..नहीं विशाल नहीं । वह पागल हो गयी - खुद को संभालो प्रियतम ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते उदास पथिक बोले ।
- हे राम । हे राम । वह सीने पर मुक्के मारती हुयी बोली - विशाल क्या करूँ मैं । अब क्या करूँ मैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते दुखी रास्ते वोले ।
और तब । उसके बरदाश्त के बाहर हो गया । वह गला फ़ाङकर चिल्लाई - विऽऽशालऽऽ । और गिर कर बेहोश हो गयी ।
- रोमा ।.. रोमा ।.. मेरी जान ।.. तू आ गयी ना.. रोमा । वह पागल दीवाना दौङकर उससे लिपट गया - रोमा ..मेरी जान । मुझे मालूम था । तू जरूर आयेगी ..हाँ ।
- ह हाँ.. हाँ विशाल । वह कसकर उसके सीने से लिपटती हुयी बोली - मैं आ गयी । अब हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
वे दोनों कसकर लिपटे हुये थे । और एक दूसरे की तेजी से चलती धङकन को सुन रहे थे । ये दो अभिन्न प्रेमियों का मधुर मिलन था । पर फ़िजा किसी अज्ञात भय से सहमी हुयी थी । वादियाँ भी जैसे किसी बात से डरी हुयी थीं । पेङ पौधे उदास से शान्त खङे थे । पक्षी चहकना भूलकर गुमसुम से गरदन झुकाये बैठे थे । हवा मानों बहना भूलकर एक जगह ही ठहर गयी थी । आसमान में छाये बादल सशंकित से जैसे उनकी रखवाली में लगे थे । पर वे दोनों प्रेमी इससे बेपरवाह एक दूसरे में खोये हुये थे । और लिपटे हुये एक दूसरे के दिल को अपने सीने में धङकता महसूस कर रहे थे । ये मधुर आलिंगन उन्हें अदभुत आनन्द दे रहा था ।
- व विशाल । अचानक सहमी सी रोमा कांपते स्वर में बोली - ये दुनियाँ हमारे प्यार की दुश्मन क्यों हो गयी ? हमने इनका क्या बिगाङा है ?
- पता नहीं रोमा । वह दीवाना सा उसको यहाँ वहाँ चूमता हुआ मासूमियत से बोला - मैं भला क्या जानूँ । मैंने तो बस तुम्हें प्यार ही किया है । और तो कुछ भी नहीं किया ।

हाँ विशाल । वह उसके कन्धे पर सर रख कर बोली - शायद ..शायद ये दुनियाँ प्यार करने वालों से जलती है । ये दो प्रेमियों को प्यार करते नहीं देख सकती.. है ना ।
- नहीं जानता । वह उसकी सुन्दर आँखों में झांक कर बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? अचानक वह उदास हँसी हँसती हुयी बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह कहीं खोया खोया सा बोला - शायद..इस धरती के पार भी । किसी नयी दुनियाँ में । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न होती हो ।
- चल पागल । वह खिलखिला कर बोली - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
- मेरा यकीन कर प्यारी । वह उसका चेहरा हाथों में भर कर बोला - मैं सच कह रहा हूँ । एकदम सच ।
वह तो भौंचक्का ही रह गयी । लेकिन वह जैसे पूरे विश्वास से कह रहा था । भला ऐसी भी कोई जगह है ? उसने कुछ देर सोचा । पर उसे कुछ समझ में न आया । तब वह उसकी गोद में सर रख कर लेट गयी । विशाल उसके बालों में उँगलियाँ फ़िराने लगा ।
- रोमा । अचानक वह बोला - तू ठीक से जानती है । मेरे अन्दर ऐसी कोई इच्छा नहीं । पर कहते हैं । दो प्रेमी तब तक अधूरे हैं । जब तक उनके शरीरों का भी मिलन नहीं हो जाता । तब तू बार बार मुझे क्यों रोक देती है । क्या तुझे मुझसे प्यार नहीं है ?
वह उठकर बैठ गयी । उसके चेहरे पर गम्भीरता छायी हुयी थी । और वह जैसे दूर शून्य 0 में कहीं देख रही थी । फ़िर उसने उसका हाथ पकङा ।
और हथेली अपने गालों से सटा कर बोली - ऐसा नहीं है विशाल । मेरा ये तन मन अब तुम्हारा ही तो है । मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप चुकी हूँ । फ़िर मैं मना क्यों करूँगी । सच तो ये है कि खुद मेरा दिल ऐसा करता है । हम दोनों प्यार में डूबे रहें ।
पर हमेशा से मेरे दिल में एक अरमान था । जो शायद हर कुँवारी लङकी का ही होता है । उसकी सुहाग रात का ।

यादगार सुहाग रात । मैंने देवी माँ से मन्नत मानी थी कि मैं अपना कौमार्य सदैव बचा कर रखूँगी । और अपनी सुहाग रात को उसे अपने पति को ही भेंट करूँगी । हे देवी माँ ! मुझे मेरी इच्छा का ही पति देना । और माँ ने मेरी बात सुन ली । मेरी मुराद पूरन हो गयी । और तुम मुझे मिल गये । तब ये मन्नत तुम्हारे लिये ही तो है । बस हमारी शादी हो जाये ।
लेकिन..यदि तुम इस बात पर उदास हो । और मुझे पाना ही चाहते हो । तो फ़िर मुझे कोई ऐतराज भी नहीं । क्योंकि मैं तो तुम्हारी ही हूँ । आज । या कल । मुझे खुद को तुम्हें ही सौंपना है । और मैं मन से तुम्हारी हो ही चुकी हूँ । सिर्फ़ चार मन्त्रों की ही तो बात है ।..मेरे प्रियतम ! तुम अभी यहीं अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो ।
वह जैसे बिलकुल ठीक कह रही थी । वह प्यार ही क्या । जो शरीर का भूखा हो । वासना का भूखा हो । जब उसने अपनी अनमोल अमानत उसी के लिये बचा कर रखी थी । तब उसे जल्दी क्यों हो । उसका ध्यान ही इस बात से हट गया ।
यकायक जैसे फ़िजा में अजीव सी बैचेनी घुलने लगी । भयभीत पक्षी सहमे अन्दाज में चहचहाये । विशाल बेखुद सा बैठा था । पर रोमा की छठी इन्द्रिय खतरा सा महसूस करते हुये सजग हो गयी । उसकी निगाह पहाङी से नीचे दूर वादी में गयी । और..
- विशाऽऽल । अचानक वह जोर से चीखी - भागो.. विशाल..भागो ।
शायद दोनों इस स्थिति के पूर्व अभ्यस्त थे । विशाल हङबङा कर उठा । और दोनों तेजी से अलग अलग भागने लगे । भागा भाग । भागा भाग । जितना तेज भाग सकते थे । रोमा तेजी से घाटी में उतर गयी । और एक झाङी की आङ में खङी होकर हाँफ़ने लगी । उसका सीना जोर जोर से धङक रहा था । फ़िर वह छुपती छुपाती दूसरी पहाङी पर सिर नीचा किये थोङा ऊपर चढी । और उधर ही देखने लगी ।
उन चारों ने उसके पीछे आने की कोई कोशिश नहीं की । उनका लक्ष्य सिर्फ़ विशाल था । वे चारों अलग अलग उसको घेरते हुये तेजी से उसी की तरफ़ बढ रहे थे । और काफ़ी करीब पहुँच गये थे । रोमा का कलेजा मुँह को आने लगा । वह एकदम घिर चुका था ।
जब वे उससे कुछ ही दूर रह गये । तब विशाल ने तेजी से घूम कर चारों तरफ़ देखा । पर भागने के लिये कोई जगह ही न बची थी । वह बहुत घबरा गया । और बिना सोचे समझे ही एक तरफ़ भागा ।
जोरावर के हाथ में दबी कुल्हाङी उसके मजबूत हाथों से निकल कर हवा में किसी चक्र की भांति तेजी से घूमती चली गयी । और सनसनाती हुयी विशाल की पीठ से जाकर टकराई । रोमा की दिल दहलाती चीख से मानों आसमान भी थर्रा गया । विशाल दोहरा होकर वहीं गिर गया । भागना दूर । यकायक उठ सके । ऐसी भी हिम्मत उसमें नहीं बची थी । भयानक पीङा से उसकी आँखें उबली पङ रही थी ।

मैं मना कियो तेरे कू । जोरावर जहर भरे स्वर में नफ़रत से बोला - ठाकुरन की इज्जत से कभी न खेलियो । पर तू नई मानियो ।
रोमा ने घबरा कर उसे देखा । वह दर्द से बुरी तरह तङप रहा था । और कुछ भी नहीं बोल सकता था । पर उन हैवानों पर इस बात का कोई असर न था । वह अभी ज्यादा दूर न भागी थी । विशाल को यूँ घिरा देख कर उसके चेहरे पर एक अजीव सी दृढता आ गयी । और वह वापिस भाग कर वहीं जा पहुँची । वहाँ । जहाँ विशाल उन राक्षसों से घिरा हुआ था । उन चारों ने बेहद नफ़रत से एक निगाह उसे देखा । और फ़िर वापिस विशाल को देखने लगे ।
- जोरावर । अचानक उन तीनों में से एक ऊबता हुआ सा पंछी बोला - के सोच रहा अब । के करूँ हरामजादे का ? और के करेगा । जोरावर घृणा से बोला - खत्म कर साले को ।
पंछी ने कुल्हाङी उठा ली । और सधे कदमों से उसकी ओर बढा । रोमा को एकदम तेज चक्कर सा आया । वह गिरने को हुयी । फ़िर पूरी ताकत से उसने अपने आपको संभाला । और दौङकर जोरावर के पैरों से लिपट गयी ।
- पापा नहीं । वह गिङगिङा कर बोली - नहीं । मत मारो उसे । छोङ दो ।
- ऐ छोरी । जोरावर उसे लाल लाल आँखों से घूरता हुआ बोला - बन्द कर ये बेहयापन ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । हवा के झोंके उसे छूकर बोले ।
वह हङबङा कर उठ बैठी । तेज धूप की तपिश से उसको पसीना आ रहा था । आँसू उसकी आँखों के कोर से बह कर गालों पर आ रहे थे । वह फ़िर ऊँची मुँडेर के सहारे खङी हो गयी । और व्याकुल भाव से वादियों की ओर देखने लगी । यूँ ही । बेवजह । क्योंकि वहाँ से कुछ भी नजर न आ रहा था ।
तभी जीने का दरबाजा खुलने की आवाज आयी । और ऊपर आते कदमों की आहट आने लगी ।
- बीबी । उसकी भाभी बेहद दुख से उसे देखते हुये बोली - मेरी जान के बदले भी यदि तुम्हारा प्रेम मिल जाये । तो मैं अपनी जिन्दगी तुम्हें निछावर करती हूँ । तुम जैसा बोलो । मैं करूँगी । मुझसे तुम्हारा दुख नहीं देखा जाता ।
उसने बङी उदास नजरों से भाभी को देखा । वह उसके लिये खाना लेकर आयी थी । और सिर्फ़ यही वो समय था । जिसमें वह उससे बात कर सकती थी । उसका हाल चाल जान सकती थी । वह नजरबन्द थी । और जीने पर हमेशा भारी ताला लगा रहता था । उसकी जरूरत दिनचर्या का सभी सामान उसे ऊपर ही उपलब्ध होता था । छत पर ।
उसने घोर नफ़रत और उपेक्षा से खाने की थाली को देखा । खाना । उसकी आँखों से आँसू बह निकले । उसे मालूम था । वह खाना तो दूर । पानी भी नहीं पीता होगा । पानी भी । फ़िर वह खाना कैसे खा सकती है ?
- ये लो । भाभी एक कौर बना कर उसको स्वयं खिलाती हुयी बोली - बीबी ! तुम्हें मेरी कसम । मुझे मालूम है । तुम सारा खाना नीचे कूढे पर फ़ेंक देती हो ।..ऐसे तो तुम मर ही जाओगी । लेकिन इससे क्या फ़ायदा ?

प्रेम और जिन्दगी । जिन्दगी और प्रेम । शायद दोनों एकदम अलग चीजें हैं । दोनों के नियम अलग हैं । दोनों की कहानी अलग है । दोनों के रास्ते अलग हैं । प्रेमियों को दुनियाँ कभी रास नहीं आती । और दुनियाँ को कभी प्रेमी रास नहीं आते । इनका सदियों पुराना वैर चला आ रहा है ।
रोमा की दुनियाँ भी जैसे उजङ चुकी थी । उसके जीवन में अब कुछ न बचा था । वह छत पर खङी खङी सूनी आँखों से वादियों की ओर ताकती थी । और अनायास ही उसके आँसू बहने लगते । प्रेमियों के आँसू । प्रेम के अनमोल मोती । जिनका दुनियाँ वालों की नजर में कोई मोल नहीं होता ।
- मैं वचन देती हूँ पापा । वह आँसुओं से भरा चेहरा उठाकर रोते हुये बोली - मैं आज के बाद इससे कभी न मिलूँगी । लेकिन भगवान के लिये इस पर दया करो । इसे छोङ दो ।..लेकिन । अचानक वह आँसू पोंछकर उसकी आँखों में आँखें डालकर दृढ स्वर में बोली - यदि इसे कुछ हो गया । तो फ़िर मैं खुद को भी गोली मार लूँगी ।
जोरावर के बेहद सख्त चेहरे पर क्रूरता के भाव आये । उसने पंछी को इशारा किया । वह जीत की मुस्कान लिये रुक गया । फ़िर जोरावर ने झटके से उसका हाथ थामा । और लगभग घसीटता हुआ वहाँ से ले जाने लगा । उसका चेहरा फ़िर आँसुओं से भर उठा । और उनके साथ घिसटती हुयी वह बारबार मुढ कर विशाल को देखने लगी । जो लगभग बेहोशी की हालत में पङा दर्द से कराह रहा था ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में उङते हुये हरे हरे तोते उसको देख कर बोले ।
- कभी नहीं भूलूँगी । उसके आँसू सूख चुके थे । वह दृढता से बोली - हरगिज नहीं । मरते दम तक नहीं ।
- तू पागल हो गयी है छोरी । उसकी माँ भावहीनता से कठोर स्वर में बोली - तू मरवायेगी उस लङके को । ठाकुर उसे जीता न छोङेगा ।..मेरी बात समझ । ठाकुरों की लङकियाँ कभी प्रेम व्रेम नहीं करती । वे खूँटे से गाय की तरह बाँध दी जाती हैं । जिसके हाथ में उनकी रस्सी थमा दी जाती है । वही उसकी जिन्दगी का मालिक होता है । इसके अलावा किसी दूसरे के बारे में वे सोच भी नहीं सकती । फ़िर क्यों तू उस छोरे की जान की दुश्मन बनी है । भूल जा उसे । और नया जीवन शुरू कर ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में चमकते तारे उसको देख कर बोले ।

तुम सच ही कहते हो । वह उदासी से हँसकर बोली - नहीं भूलूँगी । नहीं भूल सकती । कभी नहीं ।
कितने बजे होंगे ? यकायक उसने सोचा । कितने भी बजे हों । उसे नींद ही कहाँ आती है । वह छत पर अकेली टहलती हुयी सुन्दर शान्त नीले आकाश में झिलमिलाते चमकते तारों को देखने लगी । जाने क्यों आज उसे आसमान पर चमकते तारों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था । बहुत अच्छा ।
- नहीं जानता । अचानक तारों के बीच से झांकता हुआ विशाल बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? वह उदास हँसी हँसती हुयी आसमान में उसकी ओर देख कर बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह बेहद प्रेम से उसको देखता हुआ बोला - शायद..इस धरती के पार । किसी नयी दुनियाँ में । वहाँ । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न हो ।
- चल पागल । अचानक वह जोर से खिलखिलाई - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
यकायक वह जोर जोर से पागलों की भांति हँसने लगी । फ़िर वह लहरायी । और चक्कर खाती हुयी छत पर गिर गयी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । चाँद जैसे उसको देख कर रो पङा ।
- हा..। अचानक वह चौंक कर उठ बैठी । उसके सीने पर हाथ रखकर किसी ने हिलाया था । उसके मुँह से चीख निकलने को हुयी । पर तभी उसने उसके मुँह पर हाथ रख दिया । रोमा का कलेजा जोरों से धक धक कर रहा था ।
रात को टहलते टहलते उसकी याद में रोते हँसते हुये वह अचानक चक्कर खाकर गिर गयी थी । और पता नहीं कितनी देर बेहोश रही थी । कई दिनों से उसने ठीक से खाना भी न खाया था । और बेहद कमजोर हो चुकी थी ।
- तुमऽऽ । वह हैरत से फ़ुसफ़ुसा कर बोली - तुम ऊपर कैसे आ गये ? भाग जाओ विशाल । वरना ये लोग तुम्हें मार डालेंगे ।
- परवाह नहीं । वह दीवाना सा उसको चूमता हुआ बोला - वैसे ही तेरे बिना कौन सा जीवित हूँ मैं । ऐसे जीने से हमारा मर जाना ही अच्छा है ।
वह बिलकुल ठीक कह रहा था । वह ही कहाँ इस तरह जीना चाहती है । उनका जीना एक दूसरे के लिये हो चुका था
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

उसके मुर्दा जिस्म में वह अचानक प्राण बन कर आया था । और खुशियाँ जैसे अचानक उस रात उसकी झोली में आ गिरी थी । जैसे भाग्य की देवी मेहरबान हुयी हो ।
- खाना । वह कमजोर स्वर में बोला - मुझसे खाना भी न खाया गया । मैं भूखा हूँ ।
उसके आँसू निकल आये । अब खाना कहाँ से लाये वो । खाना तो उसने शाम को ही फ़ेंक दिया था । और जीने में ताला लगा था । खाने का कोई उपाय ही न था । वेवशी में वह रोने को हो आयी । और अभी कुछ कहना ही चाहती थी ।
- चल । वह कुछ खोलता हुआ सा बोला - हम दोनों खाना खाते हैं । माँ ने हम दोनों के लिये पराठें बनाये हैं । बहुत सारे ।
दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम । वो भूखा उठाता अवश्य है । पर भूखा सुलाता नहीं । जलचर जीव बसे जल में । उनको जल में भोजन देता । नभचर जीव बसे नभ में । उनको नभ में भोजन देता । कहीं भी कैसी भी कठिन से कठिन स्थिति हो । वो भूखे को भोजन देता है । वो अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता । भूखा नहीं रहने देता । फ़िर दो प्रेमियों को कैसे रहने देता ?
नीबू के अचार से वो माँ की ममता के स्वादिष्ट पराठें एक दूसरे को अपने हाथ से खिलाने लगे । वो खा रहे थे । और निशब्द रो रहे थे । आँसू जैसे उनके दिल का सारा गम ही धोने में लगे थे ।
- विशाल । वह निराशा से बोली - हमारा क्या होगा ? हम कैसे मिल पायेंगे ।
- तू चिन्ता न कर । वह उसको थपथपा कर बोला - हम यहाँ से भाग जायेंगे । बहुत दूर । फ़िर हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात की रानी उसको अकेला देख कर बात करती हुयी बोली ।
- कभी नहीं । वह चंचल मुस्कान से उत्तर देते हुये बोली - कैसे भूल सकती हूँ ।
कहाँ और किस हाल में होगा वह ? उसने टहलते हुये सोचा । उस रात तब उसकी जान में जान आयी । जब दो घन्टे बाद वह सकुशल वापिस उतर कर चला गया । और कहीं कैसी भी गङबङ नहीं हुयी । पर अभी आगे का कुछ पता न था । क्या होगा ? कैसे होगा ? कोई उपाय भी न था । जिससे वह कुछ खोज खबर रख सकती थी ।
उसकी रात ऐसे ही टहलते हुये बीतती थी । उसकी माँ भाभी घर के और लोग उसकी हालत जानते थे । लेकिन शायद कोई कुछ न कर सकता था । सब जैसे अपने अपने दायरों में कैद थे । दायरे । सामाजिक दायरे । जैसे वह छत के दायरे में कैद थी ।

प्यार उसे आज कैसे मोढ पर ले आया था । प्यार से पैदा हुयी तनहाई । जुदाई से पैदा हुयी तङप । विरह से पैदा हुयी कसक । शायद आज उसे वास्तविक प्यार से रूबरू करा रही थी । वास्तविक प्यार । जिसमें लङके को सुन्दर लङकी का खिंचाव नहीं होता । लङकी को उसके पौरुषेय गुणों के प्रति आकर्षण नहीं होता । यह सब तो वह देख ही नहीं पाते थे । सोच ही नहीं पाते थे । वह तो मिलते ही एक दूसरे की बाहों में समा जाते । और एक दूसरे की धङकन सुनते । बस इससे ज्यादा प्यार का मतलब ही उन्हें न पता था ।
दैहिक वासना ने जैसे उनके प्यार को छुआ भी न था । उस तरफ़ उनकी भावना तक न जाती थी । कभी कोई ख्याल तक न आता ।
उसने उसके वक्षों पर कभी वासना युक्त स्पर्श तक न किया था । उसने कभी वासना से उसके होंठ भी न चूमे थे । उसने कभी जी भर कर उसका चेहरा न देखा था । उसकी आँखों में आँखें न डाली थी । और खुद उसे कभी ऐसी चाहत न हुयी कि वह ऐसा करे । फ़िर उनके बीच किस प्रकार के आकर्षण का चुम्बकत्व था ? जो वे घन्टों एक दूसरे के पास बैठे एक अजीब सा सुख महसूस करते थे । बस एक दूसरे को देखते हुये । एक दूसरे की समीपता का अहसास ।

मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में जागने वाली टिटहरी उससे बोली ।
- हाँ री । वह प्यार से बोली - तू सच कहती है । नहीं भूलूँगी । कभी नहीं ।
क्या अजीब होता है ये प्यार भी । क्या कोई जान पाया । उसने टहलते हुये सोचा । शायद यही होता है प्यार । जो आज उसने इस नजरबन्दी में महसूस किया । प्यार पे जब जब पहरा हुआ है । प्यार और भी गहरा गहरा हुआ है । ये दुनियावी जुल्म उसे प्यार से दूर करने के लिये किया गया था । पर क्या ये पागल दुनियाँ वाले नहीं जानते थे । इससे उसका प्यार और भी गहरा हुआ था । अब तो उसकी समस्त सोच ही सिर्फ़ विशाल पर ही जाकर ठहर गयी थी । सिर्फ़ विशाल पर ।
प्यार तो जैसे दो शरीरों का नहीं । दो रूहों का मिलन होता है । जन्म जन्म से एक दूसरे के लिये प्यासे दो इंसान । सदियों से एक दूसरी की तलाश में भटकते हुये । फ़िर कभी किसी जन्म में जब मिलते हैं । एक दूसरे को पहचान लेते हैं । और एक दूसरे की ओर खिंचने लगते हैं । और एक दूसरे के आकर्षण में जैसे किसी अदृश्य डोर से बँध जाते हैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में फ़ैली खामोशी बोली ।
- हाँ । वह शून्य 0 में देखती हुयी बोली - प्यार नहीं भुलाया जा सकता ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - आखिर तूने क्या सोचा । ऐसा कब तक चलेगा ।
- माँ ! वह उस उदास रात में छत पर टहलती हुयी भावहीन सी कहीं खोयी खोयी उसको देखते हुये बोली - शायद तुम प्यार को नहीं जानती । प्यार क्या अजीव शै है । इसे सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । प्यार की कीमत सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । जिसके दिल में प्यार ही नहीं । वो इसे कभी नहीं समझ सकते । हाँ माँ कभी नहीं समझ सकते ।
प्यार के लिये तो । वह मुँडेर पर हाथ रख कर बोली - अगर जान भी देनी पङे । तो भी प्रेमी खुशी खुशी सूली चढ जाते हैं । प्यार की ये शमा अपने परवाने के लिये जीवन भर जलती ही रहती है । पर..पर तुम दुखी न हो माँ । मुझे तुझसे और अपने बाबुल से कोई शिकायत नहीं । शायद विरहा की जलन में सुलगना हम प्रेमियों की किस्मत में ही लिखा होता है ।
मजबूर सी ठकुराइन यकायक रो पङी । उसने अपनी नाजों पली बेटी को कस कर सीने से लगा लिया । और फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी । वह दीवानी सी इस पगली मोहब्बत को चूम रही थी । उसकी फ़ूल सी बेटी के साथ अचानक क्या हुआ था । उसकी किस्मत ने एकाएक कैसा पलटा खाया था ।
- हे प्रभु ! उसने दुआ के हाथ उठाये - मेरी बेटी पर दया करना । दया करना प्रभु । इसके जीवन की गाङी कैसे चलेगी ।

छुक..छुक..छुक का मधुर संगीत गुनगुनाती रेल मानों प्यार की पटरी पर दौङते हुये मंजिल की ओर जाने लगी । किसी बुरे ख्वाव की तरह दुखद अतीत जैसे पीछे छूट रहा था । उसने खिङकी से बाहर झाँका ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । ट्रेन के साथ साथ तेजी से पीछे छूटते हुये पेङ बोले ।
- हाँ हाँ नहीं भूलूँगी । वह शोख निगाहों से बोली - कभी नहीं ।
जिन्दगी का सफ़र भी जैसे रेल की तरह उमृ की पटरी पर दौङ रहा है । गाङी दौङने लगी थी । किसी समाज समूह की तरह अलग अलग मंजिलों के मुसाफ़िर अपनी जगह पर बोगी में बैठ गये थे । रोमा के सामने ही एक युवा प्रेमी लङका खिङकी से बाहर झांकता हुआ अपने मोबायल पर बजते गीत भाव में बहता हुआ अपनी प्रेमिका की याद में खोया हुआ था - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । प्यार क्या शै है मियाँ.. प्यार की कीमत जानो । प्यार कर ले कोई उसे । तो गनीमत जानो । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । मुझे जब भी सुनाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - जिद्दी ठाकुर ने फ़ैसला किया है । तुझे शहर के मकान में रखेंगे । तू वहीं रह कर अपनी पढाई करेगी । आखिर तुझे कब तक यूँ कैद में रखें । मुझे दुख है । भगवान ने जाने क्या तेरी किस्मत में लिखा है ।
- माँ । वह भावहीन स्वर में बोली - हम प्रेमियों की किस्मत भगवान नहीं लिखते । प्रेमी स्वयं अपनी किस्मत लिखते हैं । प्रेमियों की जिन्दगी के प्रेम गृन्थ के हर पन्ने पर सिर्फ़ प्रेम लिखा होता है । एक दूसरे के लिये मर मिटने का प्रेम ।
वह ठाकुर की पत्नी थी । लेकिन उससे ज्यादा उसकी माँ थी । अपनी पगली दीवानी लङकी के लिये वह क्या करे ।
जिससे उसे सुख हो । शायद वह किसी तरह भी न सोच पा रही थी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते गाँव बोले ।
- तुम ठीक कहते हो । वह प्यार से बोली - नहीं भूलूँगी ।
न चाहते हुये भी उस विरहा गीत के मधुर बोल फ़िर उसे खींचने लगे । किस प्रेमी के दिल की तङप थी यह - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । कभी खुशबू भरे खत को सिरहाने रख कर सोती थी । कभी यादों में बिस्तर से लिपट कर खूब रोती थी । कभी आँचल भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । ये उसकी सादगी है जो । ये उसकी सादगी है जो । हमें अब भी रुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
जुदाई में याद की तङप से और भी तङपाते मधुर गीत ने डिब्बे में एक सन्नाटा सा कर दिया था । हरेक को जैसे अपना प्रेमी याद आ रहा था । लङके के चेहरे पर प्रेम उदासी फ़ैली हुयी थी । ठीक सामने बैठी सुन्दर जवान लङकी रोमा तक में उसकी कोई दिलचस्पी न थी । उसने उसे एक निगाह तक न देखा था । और अपनी प्रेमिका की विरह याद में खोया वह लगातार खिङकी से बाहर ही देख रहा था । पता नहीं इसकी प्रेमिका कहाँ थी ? उसने सोचा । और पता नहीं उसका प्रेमी कहाँ था ?
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गीत के बोलों में प्रेमियों की रूह बोली ।
- नहीं भूलूँगी । वह गुनगुनाई - मैं नहीं भूल सकती ।
दीन दुनियाँ से बेखबर वह प्रेमी नम आँखों से जैसे रेल के सहारे दौङती अधीर प्रेमिका को ही देख रहा था । दोनों की एक ही बात थी । उसकी कल्पना में प्रेमी था । और उसकी कल्पना में उसकी प्रेमिका - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम ।
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

चली आती थी मिलने के लिये । मुझे वो बहाने से । गुजरती थी कयामत । दिल पर उसके लौट जाने से । मुझे बेहद सुकूं मिलता । हाँ उसके मुस्काराने से । उतर कर चाँदनी सी जब वह । छत पर मुस्कराती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते बच्चे हाथ हिलाकर बोले ।
- ना ना । वह मुस्करा कर बोली - नहीं भाई । कैसे भूलूँगी ।
प्रेमियों को ये दुनियाँ शायद कभी नहीं समझ सकती । डिब्बे में आते जाते लोग अपनी अपनी धुन में खोये हुये थे । जैसे सबको अपनी मंजिल पर पहुँचने का इंतजार हो । शायद उनमें से बहुतों की मंजिल कुछ ही आगे आनी वाली थी । लेकिन उसकी मंजिल तक पहुँचने के लिये गाङी कैसे टेङे मेङे रास्तों पर और जायेगी । उसे पता न था । कुछ भी पता न था । वो अभी भी किसी कैदी की भांति एक जेल से दूसरी जेल में जा रही थी । लेकिन क्या सारे प्रेमियों की कहानी एक ही होती है ? फ़िर क्यों उन दोनों को ये प्रेम गीत अपना ही गीत लग रहा था । हाँ बिलकुल अपना - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना वो मेरा नाम । वो मेरा नाम । वो मेरा नाम गीतों के । बहाने गुनगुनाती थी । मैं रोता था तो वो भी आँसुओं में डूब जाती थी । मैं हँसता था तो मेरे साथ । वो भी मुस्कराती थी । वो भी मुस्कराती थी । अभी तक याद उसकी प्यार के मोती लुटाती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गाङी में चढती हुयी छात्र लङकियाँ बोली ।
- ना भई ना । वह अदा से बोली - कैसे भूलूँगी भला ।
- समय । उसकी माँ बोली - ये क्रूर समय इंसान को बङी से बङी अच्छी बुरी बात भुला देता है । मुझे उम्मीद है बेटी । समय के साथ साथ तू अपना अच्छा बुरा खुद सोच पायेगी । देख बेटी । किसी भी इंसान को उसका मनचाहा हमेशा नहीं मिलता । जिन्दगी के रास्ते बङे टेङे मेङे हैं । उतार चढाव वाले हैं । तू अभी कमसिन है । नादान है । तुझे जिन्दगी की समझ नहीं । उसकी हकीकत से तेरा अभी कोई वास्ता नहीं ।
जिन्दगी की हकीकत । क्या है जिन्दगी की हकीकत ? वह नहीं जानती थी । बस उसे प्यार की हकीकत पता थी । इस प्यार के रोग की सिर्फ़ वह अकेली तो रोगी नहीं थी । ये लङका भी था । जिसे उसी की तरह दीन दुनियाँ से कोई मतलब न रहा था । मतलब था । तो ख्यालों में मचलती अपनी हसीन प्रेमिका से - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । जहाँ मिलते थे दोनों । वो ठिकाना याद आता है । वफ़ा का दिल का चाहत का । फ़साना याद आता है कि उसका ख्वाव में आकर । सताना याद आता है । सताना याद आता है । वो नाजुक नर्म अकेली अब भी । मुझको खुद बुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रास्ते में आये शहर बोले ।
- ओ हो.. नहीं नहीं । वह उस उदास प्रेमी को देखती हुयी बोली - हाँ नहीं भूलूँगी ।
- माँ । वह बोली - मैं कोशिश करूँगी कि सबका साथ निभा सकूँ । तेरा । बाबुल का । अपने राँझे का । देख ना माँ । अगर मैं बेवफ़ाई करूँगी । तो सच्चे प्रेमी बदनाम हो जायेंगे । प्रेमियों के अमर किस्से झूठे हो जायेंगे । फ़िर एक लङका लङकी आपस में प्रेम करना ही छोङ देंगे । सबका प्रेम से विश्वास जो उठ जायेगा । तुम बताओ माँ । क्या गलत कह रही हूँ मैं ? माँ इस दुनियाँ में प्रेम ही सत्य है । बाकी रिश्ते झूठे हैं ।
अगर ये सत्य न होता । उसके दिल ने कहा । तो फ़िर इस दुनियाँ में इतने प्रेम गीत भला क्यों गूँजते । सृष्टि के कण कण में गूँजते प्रेम गीत - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । वो कालिज का जमाना मुझे नश्तर चुभोता है । और उसकी याद का सावन । किताबों को भिगोता है । अकेले में अभी मुझको । यही महसूस होता है कि जैसे आज भी..कि जैसे आज भी । कालिज में पढने रोज जाती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । उदास खामोश सूना सूना घर उससे बोला ।
- अरे नहीं । वह प्रेमियों की मन पसन्द तनहाई में विचरती हुयी बोली - नहीं भूल पाऊँगी ।
विरहा की आग ने उस प्रेमिका को जलाते हुये उसकी मोहब्बत को दीवानगी में बदल दिया था । वह पगली हो गयी थी । दीवानी हो गयी थी । समस्त प्रेमियों की आत्मा जैसे उसमें समा गयी थी । अब वह रोमा न रही थी । लैला हो गयी । हीर हो गयी । शीरी । जुलियट हो गयी । ये जुदाई । ये तन्हाई । ये सूनापन उसका साथी था । बङा ही प्यारा साथी । क्योंकि यहाँ उसकी कल्पना में बेरोक टोक उसका प्रेमी उसके साथ था । शायद यही प्रेम है । शायद यही प्रेम है ।
उसने एक बार घूम फ़िर कर पहले से ही देखे हुये अपने उस बाप दादा के घर को देखा । और नल से मुँह धोने बङी ।
तभी मुख्य दरवाजे पर दस्तक हुयी । आश्चर्य से उसने दरवाजा खोला । और फ़िर उसका मुँह खुला का खुला रह गया । दरवाजे पर विशाल खङा था । सूनी सूनी आँखों से उसे ताकता हुआ ।
- तुम । वह भौंचक्का होकर बोली ।
- जिन्दा रहने के लिये । वह बेहद कमजोर स्वर में बोला - तेरी कसम । एक मुलाकात जरूरी है सनम । हाँ रोमा । मैं तेरे साथ ही आया हूँ । उसी ट्रेन से । पर तू अकेली नहीं थी । इसलिये तेरे पास नहीं आया । मुझे पता चल गया था । ठाकुर साहब तुझे शहर भेज रहे हैं । जहाँ तेरा पुश्तैनी मकान है । फ़िर मैं यहाँ आ गया ।
और फ़िर स्वाभाविक ही वे एक दूसरे से लिपट गये । उन्होंने अब तक जो नहीं किया था । वो खुद हुआ । उनके होंठ आपस में चिपक गये । और वे एक दूसरे को सहलाते हुये पागलों की भांति चूमने लगे ।
- ये घर । रोमा बिस्तर ठीक करती हुयी उसे आराम से बैठाकर बोली - हमारी पुरानी जायदाद है । जिसका इस्तेमाल अब हमारे कारोबार के सामान आदि रखने के लिये गोदाम के रूप में किया जाता है । इसकी बन्द घर जैसी बनाबट भी किसी गोदाम के समान ही है । और इसमें सबसे अच्छी बात है । वह कमरे में एक निगाह डालकर बोली - यह तलघर । इसमें तुम आराम से छुप कर रह सकते हो । भले ही हमारे घर के लोग कभी कभी आते जाते बने रहे ।
पर दीवानों को ये सब कहाँ सुनायी देता है । वह तो अपलक उसे ही देखा जा रहा था । अपनी माशूका को । जिसे आज बहुत दिनों बाद देखने का मौका मिला था । बहुत दिनों बाद छूने का मौका मिला था । रोमा को छोङने आये
लोग उनके ट्रांसपोर्ट कारोबार आफ़िस चले गये थे । और शायद ही आज लौटते । रात को कोई नौकर भले ही आ जाता ।
शाम के चार बज चुके थे । उसने पूरी तरह से सुहागिन का श्रंगार किया था । और दरवाजा ठीक से लाक करके आराम से उसके पास तलघर में बैठी थी । आज उसने एक फ़ैसला किया था । पूरी सुहागिन होने का । आज वह अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहती थी । जिसकी विशाल को कोई ख्वाहिश न थी । पर उसको थी । और जाने कब से थी । क्या पता कल क्या हो जाये ? फ़िर उसके पास उन दोनों के मधुर मिलन की यादें तो थी । उसके मांग में सजी सिन्दूर की मोटी रेखा । माथे पर दमकती बिन्दियाँ । होंठों पर चमकती लाली । और हाथों में खनकते कंगन । उस एकदम नयी नवेली दुलहिन के लिये जैसे विवाह गीत गा रहे थे । वह खामोश तलघर उनके मधुर मिलन के इन क्षणों को यादगार बनाने के लिये जैसे बैचेन हो रहा था ।
उफ़ ! आज कितने मुद्दत के बाद यह समय आया था । जब वह अपने राँझे के सीने पर सर रख कर लेटी थी । और समय जैसे ठहर गया था । काफ़ी देर हो चुकी थी । और वह विशाल की तरफ़ से किसी पहल का इंतजार कर रही थी । पर वह उसकी पीठ सहलाता हुआ खामोश छत को देख रहा था । जैसे शून्य 0 में देख रहा हो । आखिरकार उसकी सांकेतिक चेष्टाओं से वह प्रभावित होने लगा । और उसने रोमा के ब्लाउज पर हाथ रखा ।
और तभी खट की आवाज से दोनों चौंक गये । उन्होंने घूमकर आवाज की दिशा में देखा । तलघर की सीङियों पर उसका बाप ठाकुर जोरावर सिंह एक आदमी के साथ खङा था । उसकी पत्थर सी सख्त आँखों में क्रूरता की पराकाष्ठा झलक रही थी । उसके हाथ में रिवाल्वर चमक रहा था । एक पल को रोमा के होश उङ गये । पर दूसरे ही पल उसके चेहरे पर दृढता चमक उठी ।
- तूने वचन भंग किया बेटी । वह भावहीन खुरदुरे स्वर में बोला - अब मैं मजबूर हुआ । अब दोष न दियो मुझे ।
वह बिस्तर से उठकर खङी हो गयी । और सूनी आँखों से उस प्यार के दुश्मन जल्लाद को देखने लगी । जिसके साथी के चेहरे पर हैरत नाच रही थी । यकायक उसे कुछ न सूझा । क्या करे । क्या न करे । रहम की भीख माँगे । या बेटी बाबुल से प्यार माँगे । कैसे और क्या माँगे । उस पत्थर दिल इंसान में कहीं कोई गुंजाइश ही नजर न आती थी ।
- पापा । फ़िर स्वतः ही उसके मुँह से निकला - वचन भंग हुआ । उसके लिये । मैं माफ़ी चाहती हूँ आपसे । पर ये मेरा प्यार है ।.. मैं क्या करूँ । हम दोनों एक दूजे के बिना नहीं रह सकते ।.. नहीं रह सकते बाबुल । अगर मारना ही है । तो उसको मारने से पहले मुझे मारना होगा । हम साथ जीयेंगे । साथ मरेंगे । और ये उस लङकी की आवाज है । जिसकी रगों में आपके ही खानदानी ठाकुर घराने का खून दौङ रहा है । हमारे जिस्म मर जायेंगे । पर हमारी मोहब्बत कभी नहीं मरेगी ।..पापा मैं तो आपकी बेटी ही हूँ । वह भर्रायी आवाज में बोली - आपने ही मुझे जन्म दिया बाबुल । आपकी ही गोद में खेलकर बङी हुयी हूँ । आप ही मार भी दोगे । तो क्या दुख । कैसा दुख ।
वाकई आज ये एक कमजोर लङकी की आवाज नहीं थी । ये मोहब्बत की बुलन्द आवाज थी । उसकी आवाज उस जालिम की आवाज को भी कमजोर कर रही थी । उसमें एक चट्टानी मजबूती थी । उसमें ठाकुरों के खून की गर्मी थी । जोरावर का रिवाल्वर वाला हाथ कांप कर रह गया ।
इतना सस्ता भी नहीं होता । दो इंसानों का जीवन । मारने का ख्याल करना अलग बात है । और मारना अलग बात । क्रोध में अँधा होकर क्या करने जा रहा था वह ? उसने सोचा । आखिर क्या गलती की उसकी मासूम बेटी ने ? जोरावर ये क्या अनर्थ करने जा रहा है तू । उसका कलेजा कांप कर रह गया । अन्दर ही अन्दर वह कमजोर पङने लगा ।
खुद ब खुद उसके दिमाग में उसके नन्हें बचपन की रील चलने लगी । जब वह अपनी फ़ूल सी बेटी को एक कंकङ चुभना भी बरदाश्त नहीं कर सकता था । वह अपनी ही गलती से गिर जाती थी । और वह आग बबूला होकर तमाम नौकरों को कोङे मारता था । आखिर मेरी बेटी गिरी तो गिरी क्यों । क्यों ? उसके मुँह से निकली बात आधी रात को भी पूरी की जाती । उसकी एक मुस्कान के लिये वह हीरे मोती लुटा डालता । कितने ख्वाव थे उसके । उसको अपने हाथों डोली में विदा करने के मधुर ख्यालों में वह कितनी बार रोया । और आज । आज क्या हो गया उसे ? अगर उसकी बेटी ने अपने सपनों का राजकुमार खुद चुना था । तो इसमें कौन सा आसमान टूट गया था । नहीं । वह ऐसा कभी नहीं कर सकता कि अपनी ही राजकुमारी को अपने ही हाथों से मार डाले ।
- हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । उसके दिमाग में ठाकुरों के सख्त चेहरे अट्टाहास कर उठे - तेरी बेटी ने खानदान की नाक कटवा दी । एक गङरिया ही मिला तुझे दामाद बनाने को । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । एक पाल लङका । हा ..हा..हा ठाकुरों ! तुम्हारी औरतें बाँझ हो गयी । अब ठाकुरों की बेटियाँ ऐसी जातियों में शादियाँ करेगी । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । तेरी गर्दन नीची कर दी । इस नीच वैश्या लङकी ने । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।..अरे नहीं नहीं । ठाकुर जोरावर सिंह नहीं ।.. जोरावर गङरिया । जोरावर गङरिया ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।
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