कामवासना

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कामवासना

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कामवासना

उस दिन मौसम अपेक्षाकृत शान्त था । पर आकाश में घने काले बादल छाये हुये थे । जिनकी वजह से सुरमई अंधेरा सा फ़ैल चुका था । अभी 4 ही बजे होंगे । पर गहराती शाम का आभास हो रहा था । उस एकान्त वीराने स्थान पर एक अजीव सी डरावनी खामोशी छायी हुयी थी । किसी सोच विचार में मगन चुपचाप खङे वृक्ष भी किसी रहस्यमय प्रेत की भांति मालूम होते थे ।
नितिन ने एक सिगरेट सुलगाई । और वृक्ष की जङ के पास मोटे तने से टिक कर बैठ गया । सिगरेट । एक अजीव चीज । अकेलेपन की बेहतर साथी । दिलो दिमाग को सुकून देने वाली । एक सुन्दर समर्पित प्रेमिका सी । जो अन्त तक सुलगती हुयी सी प्रेमी को उसके होठों से चिपकी सुख देती है । उसने एक हल्का सा कश लगाया । और उदास निगाहों से सामने देखा । सामने । जहाँ टेङी मेङी अजीव से बल खाती हुयी नदी उससे कुछ ही दूरी पर बह रही थी ।

कभी कभी कितना अजीव सा लगता है सब कुछ । उसने सोचा - जिन्दगी भी क्या ठीक ऐसी ही नहीं है । जैसा दृश्य अभी है । टेङी मेङी होकर बहती उद्देश्य रहित जिन्दगी । दुनियाँ के कोलाहल में भी छुपा अजीव सा सन्नाटा । प्रेत जैसा जीवन । इंसान का जीवन और प्रेत का जीवन समान ही है । दोनों ही अतृप्त । बस तलाश वासना तृप्ति की ।
- उफ़्फ़ोह ! ये लङका भी अजीव ही है । उसके कानों में दूर माँ की आवाज गूँजी - फ़िर से अकेले में बैठा बैठा क्या सोच रहा है ? इतना बङा हो गया । पर समझ नहीं आता । ये किस समझ का है । आखिर क्या सोचता रहता है । इस तरह ।
- क्या सोचता है । इस तरह ? उसने फ़िर से सोचा - उसे खुद ही समझ नहीं आता । वह क्या सोचता है ।
क्यों सोचता है ? या कुछ भी नहीं सोचता है ? जिसे लोग सोचना कहते हैं । वह शायद उसके अन्दर है ही नहीं । वह तो जैसा भी है है ।
उसने एक नजर पास ही खङे स्कूटर पर डाली । और छोटा सा कंकर उठाकर नदी की ओर उछाल दिया ।
नितिन B.A का छात्र था । और मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला था । उसके पिता शहर में ही मध्य स्तर के सरकारी अफ़सर थे । और उसकी माँ साधारण सी घरेलू महिला थी । उसकी 1 बडी बहन थी । जिसकी मध्य प्रदेश में ही दूर किसी अच्छे गाँव मे शादी हो चुकी थी । उसका कद 5 फ़ुट 9 इंच था ।
वह साधारण शक्ल सूरत वाला । सामान्य से पैन्ट शर्ट पहनने वाला । एक कसरती युवा था । उसके बालों का स्टायल साधारण था । और वाहन के रूप में उसका अपना स्कूटर ही था ।
वह शुरु से ही अकेला और तनहाई पसन्द था । शायद इसीलिये उसकी कभी कोई प्रेमिका नही रही । और न ही उसका कोई खास दोस्त ही था । दुनियाँ के लोगों की भीङ में भी वह खुद को बेहद अकेला महसूस करता था । वो हमेशा चुप और खोया खोया रहता । यहाँ तक कि काम भाव भी उसे स्पर्श नही करता ।
तब इसी अकेलेपन और ऐसी आदतों ने उसे 16 साल की उमर मे ही गुप्त रूप से तन्त्र मन्त्र और योग की रहस्यमयी दुनिया की तरफ़ धकेल दिया । लेकिन उसके जीवन के इस पहलू को कोई नही जानता था ।
अंतर्मुखी स्वभाव का ये लङका स्वभाव से शिष्ट और बेहद सरल था । बस उसे एक ही शौक था । कसरत करना ।
कसरत । वह उठकर खङा हो गया । उसने खत्म होती सिगरेट में आखिरी कश लगाया । और सिगरेट को दूर उछाल दिया । स्कूटर की तरफ़ बढते ही उसकी निगाह साइड में कुछ दूर खङे बङे पीपल पर गयी । और वह हैरानी से उस तरफ़ देखने लगा । कोई नवयुवक पीपल की जङ से दीपक जला रहा था । उसने घङी पर निगाह डाली । ठीक छह बज चुके थे । अंधेरा तेजी से बङता जा रहा था । उसने एक पल के लिये कुछ सोचा । फ़िर तेजी से उधर ही जाने लगा ।
- क्या बताऊँ दोस्त ? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे । ये बङी अजीव कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है ? तुम कहोगे । बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ । बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है । फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
ये दीपक ? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक आप यहाँ क्यों ..मतलब ?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल । ये दीपक क्यों ? दरअसल मुझे खुद पता नहीं । ये दीपक क्यों ? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है । लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह ? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है । नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है । तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तव हम वह काम भी करते हैं । जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुर ताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीव भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली । और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूङे पुराने पीपल के पत्तों की अजीव सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी । अंधेरा फ़ैल चुका था । वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे । मरघट के पास का मैदान । उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल । और ये तन्त्र दीप । नितिन के रोंगटे खङे होने लगे । उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी । उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी । वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा । जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी । और मानों उस तन्त्र दीप का उपहास उङा रही हो ।

मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है । क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता । पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ । तुम्हें सब बता डालूँ
दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा । कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है ये मरघट । फ़िर वह एक गहरा कश लगाकर दोबारा बोला - ओशो कहते हैं । दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली थी । और जमीन पर ही बैठ गया था । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया था । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला था । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया । लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

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तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे । नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली । और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा । उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी । और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी । नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रह कर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था । और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था । पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीव है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।
- आपको । नितिन सरल स्वर में बोला - घर नहीं जाना । रात बढती जा रही है । मेरे पास स्कूटर है । मैं आपको छोङ देता हूँ ।
- एक सिगरेट..सिगरेट और दोगे । वह प्रार्थना सी करता हुआ बोला - प्लीज प्लीज बङे भाई ।
उसने बङे अजीव ढंग से फ़िर उस काली छाया को देखा । और पैकेट उसे थमा दिया । थोङी थोङी हवा चलने लगी थी । दिये की लौ लपलपा उठती थी । मनोज ने उसे जङ की आङ में कर दिया । और दोबारा पुङिया निकाल ली ।

बताऊँ । वह फ़िर से उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - या ना बताऊँ ?
वह उसे फ़िर से सिगरेट में चरस भरते हुये देखता रहा । उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि जो प्रेतक उपस्थिति के अनुभव उसे हो रहे हैं । क्या उसे नहीं हो रहे । या फ़िर नशे की वजह से वह उन्हें महसूस नहीं कर पा रहा । या
फ़िर अपने किसी गम की वजह से वह उसे महसूस नहीं कर पा रहा । या या..उसके दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ - या वह ऐसे अनुभवों का अभ्यस्त तो नहीं है । उसकी निगाह तुरन्त तन्त्र दीप पर गयी । और स्वयं ही उस काली छाया पर गयी । छाया जो किसी औरत की थी । और पीली मुर्दार आँखों से उन दोनों को ही देख रही थी ।
एकाएक जैसे उसके दिमाग में सब तस्वीर साफ़ हो गयी । वह निश्चित ही प्रेत वायु का लम्बा अभ्यस्त था । साधारण इंसान किसी हालत में इतनी देर प्रेत के पास नहीं ठहर सकता था ।
- मेरा बस चले तो साली की माँ ही...। उसने भरपूर सुट्टा लगाया । और घोर नफ़रत से बोला - पर कोई सामने तो हो । कोई नजर तो आये । अदृश्य को कैसे क्या करूँ । बोलो । तुम बोलो । गलत कह रहा हूँ मैं ।
- लेकिन मनोज जी ?
- बताता हूँ । सब बताता हूँ । बङे भाई । जाने क्यों अन्दर से आवाज आ रही है । तुम्हें सब बताऊँ । जाने क्यों । जाने क्यों । मेरे गाली बकने को गलत मत समझना । आदमी जब वेवश हो जाता है । तो फ़िर उसे और कुछ नहीं सूझता । सिवाय गाली देने के ।
पदमा ने धुले हुये कपङों से भरी बाल्टी उठाई । और बाथरूम से बाहर आ गयी । उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बार बार उसके चेहरे पर झूल जाती थी । जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी । विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था । उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती थी । उसकी छातियों में एक अजीव सा रोमांच भर उठता था । वाकई पुरुष के हाथ में कोई जादू होता है । उसकी समीपता में एक विचित्र ऊर्जा सी होती है । जो लङकी की जवानी को फ़ूल की तरह से महका देती है ।
विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था । उसके एकदम गोल उन्नत स्तन और भी विकसित हुये थे । ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी । कितने बेशर्म और लालची होते हैं सब पुरुष । सब यहीं ताकते हैं । बूढी हो या जवान । इन्हें एक ही काम । इसके लिये शायद औरत कहीं भी सेफ़ नहीं । शायद अपने ही घर में भी नहीं ।
उसने एक गहरी सांस ली । और उदास नजरों से नितिन को देखा । उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।

नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीव बनाया है । दुनियाँ का ये सामाजिक ढांचा भी । और कैसा अजीव बनाया है । देवर भाभी का सम्बन्ध भी । दरअसल..मेरे दोस्त । ये समाज समाज नहीं । पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं । हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है । हम सब पाखण्डी हैं । तुम । मैं । और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया था । मैं पुत्रवत ही उसके सीने से लिपट जाता था । कहीं भी छू लेता था । क्योंकि तब उस स्पर्श में काम वासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी । और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी । सिर्फ़ एक भरपूर जवान स्त्री । मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया । और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । अपनी भाभी के ही स्तन मुझे अच्छे लगने लगे । चुपके चुपके उन्हें देखना । और झिझकते हुये छूने को जी सा ललचाने लगा । जिस भाभी को मैं कभी भी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं मैं नहीं.. कहता उनके सीने से लग जाता ।
अब उसी को छूने में एक अजीव सी झिझक होने लगी । इस काम वासना ने हमारे पवित्र माँ बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी । भाभी के अन्दर नहीं । उसे पता भी नहीं कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ? मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से निकालकर कपङे निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने ब्लाउज पर गयी । आँचल रहित सीना । साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था । वह चोर नजरों से उसके ब्लाउज से बाहर छलकते सुडौल स्तनों को देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? पदमा ने सोचा - कुछ भी तो नहीं । ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा शरीफ़ है । जो स्त्री कुचों का दीवाना नहीं । बूढा । जवान । बच्चा । अधेङ । शादीशुदा । या फ़िर कुंवारा । भूत प्रेत । या देवता भी । सच तो ये है । स्त्री भी स्त्री के स्तनों को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं । नारी स्तन । नारी का सौन्दर्य है । नारी स्तन ।
उसने अपने आँचल को ठीक करने का कोई उपकृम नहीं किया । और सीधे ही तपाक से पूछा - सच बता । क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया । उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया । उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे । पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला । और उसके पास ही सामने चारपाई पर बैठ गयी । उसने अपने आँचल को अभी भी ज्यों का त्यों ही रखा । उसके मन में एक अजीव सा भाव था । शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।
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Re: कामवासना

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औरत । पुरुष की कामना । औरत ।.. औरत । पुरुष की वासना । औरत ।.. औरत । पुरुष की भावना । औरत ।
फ़िर वह मनोज के स्वाभाविक भावों को कौन से नजरिये से गलत समझे । उसकी जगह उसका कोई दूर दराज का चाचा ताऊ भी निश्चित ही उसके लिये यही आंतरिक भाव रखता । क्योंकिं वह एक सम्पूर्ण लौकिक औरत थी ।
भांति भांति के कुदरती सुन्दर फ़ूलों की तरह ही सृष्टि कर्ता ने औरत को भी विशेष सांचे में ढाल कर बनाया । जहाँ उसके अंगों में फ़लों का सा मधुर रस भर दिया । वहीं उसके सौन्दर्य में फ़ूलों की अनुपम महक भी डाल दी । जहाँ उसके मादक अंगों से सुरा के पैमाने छलका दिये । वहीं उसकी सादगी में एक शान्त धीर गम्भीर देवी नजर आयी ।
कुछ ऐसी ही थी पदमा भी । उसकी बङी बङी काली आँखों में एक अजीव सा सम्मोहन था । जो साधारण दृष्टि से देखने पर भी यौन आमन्त्रण जैसा मालूम होता था । पदमिनी स्त्री प्रकार की ये नायिका मानों धरा के फ़लक पर कयामत बनकर उतरी थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके कन्धों पर फ़ैले रहते थे । वह नये नये स्टायल का जूङा बनाने और इत्र लगाने की बेहद शौकीन थी ।
पदमा की लम्बाई 5 फ़ीट 8 इंच थी । और उसका फ़िगर 34-26-34 की मनमोहक बनाबट में खूबसूरती से गढा गया था । अपनी 5 फ़ीट 8 इंच की लम्बाई के बाद भी वह 2 इंच ऊँची हील वाली सेंडल पहनती थी । और अपनी मदमस्त चाल से पुरुषों के दिल में उथल पुथल मचा कर रख देती थी । उसके लचकते मांसल नितम्बों की थिरकन कब्र में पैर लटकाये बूङों में जोश की तरंग पैदा कर देती थी ।
- मनोज ! वह सम्मोहनी आँखों से देखती हुयी बोली - मैं जानना चाहती हूँ । तुम चोरी चोरी अभी क्या देख रहे थे । डरो मत । सच बताओ । मैं किसी को बोलूँगी नहीं । शायद मेरे तुम्हारे मन में एक ही बात हो ।
- भाभी ! वह कठिनता से कांपती आवाज में बोला - आपने कभी किसी से प्यार किया है ?
- प्यार..प्यार ? हाँ किया है ना । वह सहजता से सरल स्वर में बोली - देख मनोज । हर लङका लङकी किशोरावस्था में किसी न किसी विपरीत लिंगी से प्यार करते ही हैं । भले ही वो प्यार एक तरफ़ा हो । दो तरफ़ा हो । सफ़ल हो । असफ़ल हो । मैंने भी अपने गाँव में एक लङके राजीव से प्यार किया । पर वो ऐसा पागल निकला । मुझ रूप की रानी के प्यार की परवाह न कर साधु बाबा हो गया । हाँ मनोज । उसका मानना था । ईश्वर से प्यार ही सच्चा प्यार है । बाकी मेरी जैसी सुन्दर रसीली रस भरी औरत तो जीती जागती माया है । माया ।
माया । उसने एक गहरी सांस ली । वह चुप ही रहा । पर रह रह कर भाभी के सीने का आकर्षण उसे वहीं देखने को विवश कर देता । और पदमा उसे इसका भरपूर मौका दे रही थी । इसीलिये वह अपनी नजरें उससे मिलाने के बजाये इधर उधर कर लेती ।
- बस । कुछ देर बाद वह बोली - एक बार तुम बिलकुल सच बताओ । तुम चोरी चोरी क्या देख रहे थे । फ़िर मैं भी तुम्हें कुछ बताऊँगी । शायद जिस सौन्दर्य की झलक मात्र से तुम बैचेन हो । वह सम्पूर्ण सौन्दर्य खुल कर तुम्हारे सामने हो । क्योंकि..कहते कहते वह रुकी - मैं भी एक औरत हूँ । और मैं अपने सौन्दर्य प्रेमी को अतृप्त नहीं रहने दे सकती । कभी नहीं ।
- नहीं । वह तेजी से बोला - ऐसा कुछ नहीं । ऐसा कुछ नहीं है भाभी माँ । मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता । पर मैं सच कहूँगा । ये..ये आपके ब्लाउज के अन्दर जो हैं । बस ना जाने क्यों । इन्हें देखने को दिल सा करता है ।..भाभी.वो गाना है ना - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । जाने क्यों मुझे ये गाना आपके इनके लिये गाना अच्छा लगता है । जब भी मुझे आपकी बाहर कहीं याद आती है । मैं इन्हीं को याद कर लेता हूँ - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन ।
उसकी साफ़ सरल सीधी सच्ची स्पष्ट बात और मासूमियत पर पदमा हँसते हँसते पागल हो उठी । यकायक उसके मोतियों जैसे चमकते दाँतों की बिजली सी कौंधती । और उसके हँसने की मादक मधुर स्वर लहरी वातावरण में काम रस सा घोल देती । वह भी मूर्खों की भांति उसके साथ हँसने लगा ।

एक मिनट एक मिनट यार । वह अपने को संयमित करती हुयी बोली - क्या बात कही । मनोज मुझे तेरी बात पर अपनी एक सहेली की याद आ गयी । उसकी नयी नयी शादी हुयी थी । पहली विदाई में जब वह पीहर आने लगी । तो उसका पति बहुत उदास हो गया । वह बोली - ऐसे क्यों मुँह लटका लिया । मैं मर थोङे ना गयी । सिर्फ़ 8 दिन को ही तो जा रही हूँ । तब उसका पति बोला - मुझे तेरे जाने का दुख नहीं । तू जाती हो तो जा । पर मुझे इन दोनों
की बहुत याद आयेगी । ऐसा कर इन्हें काट कर मुझे दे जा ।
अचानक अब तक गम्भीर बैठे नितिन ने जोरदार ठहाका लगाया । ऐसी अजीव बात उसने पहली बार ही सुनी थी । माहौल की मनहूसियत एकाएक छँट सी गयी । मनोज हल्के नशे में था । वह भी उसके साथ हँसा ।
- तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । फ़िर वह धीमे धीमे सुबकने लगा ।
अजीव सस्पेंस फ़ैलाया था । इस लङके ने । वह सिर्फ़ इस जिज्ञासा के चलते उसके पास आया था कि वो ये तन्त्र दीप क्यों जला रहा था ? कौन सी प्रेत बाधा का शिकार हुआ था । और अभी इस साधारण से प्रश्न का उत्तर मिल पाता । वह काली अशरीरी छाया एक बङे अनसुलझे रहस्य की तरह वहाँ प्रकट हुयी । एक और प्रश्न ?
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें ।
वह काली छाया अभी भी बूङे पीपल के आसपास ही टहल सी रही थी । वह शहर से बाहर स्थानीय उजाङ और खुला शमशान ही था । सो अशरीरी रूहों के आसपास होने का अहसास उसे बारबार हो रहा था । पर मनोज इस सबसे बिलकुल बेपरवाह बैठा था ।
दरअसल नितिन ने प्रत्यक्ष अशरीरी भासित रूह को पहली बार ही देखा था । पर वह तन्त्र क्रियाओं से जुङा होने के कारण ऐसे अनुभवों का कुछ हद अभ्यस्त था । लेकिन वह युवक तो उपचार के लिये आया था । फ़िर वह कैसे ये सब महसूस नहीं कर रहा था ? और उसके ख्याल में कारण दो ही हो सकते थे । उसका भी प्रेतों के सामीप्य का अभ्यस्त होना । या फ़िर नशे में होना । या उसकी निडरता अजानता का कारण वह भी हो सकता था । या फ़िर वह अपने ख्याली गम में इस तरह डूबा था कि उसे माहौल की भयंकरता पता ही नहीं चल रही थी । उसकी निगाह फ़िर एक बार काली छाया पर गयी ।
- मैं सोचता हूँ । वह कुछ अजीव से स्वर में बोला - हमें अब घर चलना चाहिये ।
- अरे बैठो दोस्त ! मनोज फ़िर से गहरी सांस भरता हुआ बोला - कैसा घर । कहाँ का घर । सब मायाजाल है साला । चिङा चिङी के घोंसले । चिङा चिङी..अरे हाँ ..मुझे एक बात बताओ । तुमने औरत को कभी वैसे देखा है । बिना वस्त्रों में । एक खूबसूरत जवान औरत । पदमिनी नायिका । रूपसी । रूप की रानी जैसी । एक नंग्न औरत ।
- सुनो ! वह हङबङा कर बोला - तुम बहकने लगे हो । हमें अब चलना चाहिये ।
ठ ठ ठहरो भाई ! तुम गलत समझे । वह उदास हँसी हँसता हुआ बोला - शायद फ़िर तुमने ओशो को नहीं पढा । मैं आंतरिक भावों से नग्न औरत की बात कर रहा हूँ । और इस तरह औरत को कोई नग्न नहीं कर पाता । शायद उसका पति भी नहीं । शायद उसका पति । यानी मेरा सगा भाई । भाई । भाई मुझे समझ नहीं आता । मैं कसूरवार हूँ या नहीं । याद रखो ।.. वह दार्शनिकता दिखाता हुआ बोला - औरत को नग्न करना आसान नहीं । वस्त्र रहित नग्नता नग्नता नहीं है ।
- ठीक है मनोज । पदमा जबरदस्त मादक अंगङाई लेकर अपनी बङी बङी आँखों से सीधी उसकी आँखों में झांकती हुयी सी बोली - तुमने बिलकुल सही और सच बोला । हाँ ये सच है । किसी भी लङकी में जैसे ही यौवन सुन्दरता के ये पुष्प खिलना शुरू होते हैं । वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती है । एक सादा सी लङकी मोहक मोहिनी में रूपांतरित होने लगती है । तुमने कभी इस तरह सोचा ।..मैं जानती हूँ । तुम मुझे पूरी तरह देखना चाहते हो । छूना चाहते हो । खेलना चाहते हो । क्योंकि ये सब सोचते समय तुम्हारे अन्दर मैं तुम्हारी भाभी नहीं । सिर्फ़ एक खूबसूरत औरत होती हूँ । उस समय भाभी मर जाती है । सिर्फ़ औरत । सिर्फ़ औरत ही रह जाती है । बताओ मैंने सच कहा ना ?
- गलत । वह कठिन स्वर में बोला - एकदम गलत । ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं । बस सच इतना ही है कि जब भी इस घर में तुम्हें चलते फ़िरते देखता हूँ । तो मैं तुम्हें पहले पूरा ही देखता हूँ । लेकिन फ़िर न जाने क्यों मेरी निगाह इधर हो जाती है । यहाँ देखना क्यों आकर्षित करता है । मैं समझ नहीं पाता ।
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क्या । वह हैरत से बोली - तुम्हें मुझे पूरी तरह से देखने की इच्छा नहीं करती ?
- कभी नहीं । वह एक झटके से सख्त स्वर में बोला - क्योंकि साथ ही मुझे ये भी पता है । तुम मेरी भाभी हो । भाभी माँ । और एक बच्चा भी अपने माँ के आँचल से प्यार करता है । सम्मोहित होता है । उसे भी उन स्तनों से लगाव होता है । जिनसे वह पोषण पाता है । वह ठीक पति की तरह माँ के शरीर को कहीं भी स्पर्श करता है । उसके पूर्ण शरीर पर जननी भूमि की तरह खेलता है । पर आप बताओ । उसकी ऐसी इच्छा कभी हो सकती है कि मैं अपनी माँ को नंगा देखूँ ।
पदमा की बङी बङी काली आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी । उसका सौन्दर्य अभिमान पल में चूर चूर हो गया । मनोज जितना बोल रहा था । एकदम सच बोल रहा था ।
क्या अजीव झमेला सा था । नितिन बङी हैरत में था । वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था । यहाँ रुके । या घर चला जाये । इसको साथ ले जाये । या इसके हाल पर छोङ जाये । कौन था ये लङका ? कैसी अजीव सी थी इसकी कहानी । और वह काली स्त्री छाया ।
उसने फ़िर से उधर देखा । वह भी मानों थक कर जमीन पर बैठ गयी थी । और अचानक वह चौंका । मनोज ने जेब से देशी तमंचा निकाला । और उसकी ओर बङाया ।
- मेरे अजनबी दोस्त । वह डूबे स्वर में बोला - आज तुम मेरी कहानी सुन लो । मुझे कसूरवार पाओ । तो बे झिझक मुझे शूट कर देना । और यदि तुम मेरी कहानी नहीं सुनते । बीच में ही चले जाते हो । फ़िर मैं ही अपने आपको शूट कर लूँगा । और इसके जिम्मेदार तुम होगे । सिर्फ़ तुम ।
उसने उँगली नितिन की तरफ़ उठाई । वह कुछ न बोला । और चुप बैठा हुआ उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।

मध्य प्रदेश । यानी मध्य भारत का 1 राज्य । राजधानी भोपाल । यह प्रदेश 1 NOV 2000 तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बडा राज्य था । लेकिन 1 NOV 2000 के दिन इस राज्य के कई नगर उससे हटा कर छत्तीसगढ़ बना दिया गया । इस प्रदेश की सीमायें - महाराष्ट्र । गुजरात । उत्तर प्रदेश । छत्तीसगढ़ । और राजस्थान से मिलती है ।
भारत की गौरवशाली संस्कृति में मध्य प्रदेश किसी जगमगाते दीप के जैसा है । जिसकी रोशनी की अलग ही चमक और अलग प्रभाव है । विभिन्न संस्कृतियों की अनेकता में एकता के आकर्षक गुलदस्ता जैसा । जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से सजाया हो । और जिसका सौन्दर्य और सुगन्ध चारों ओर फैल रहे हों । यहाँ की आबोहवा में कला । साहित्य । संस्कृति की मधुर गन्ध सी बहती है । यहाँ के लोक समूहों और जन जाति समूहों में प्रतिदिन नृत्य । संगीत । गीत की रसधार सहज प्रवाहित होती है । इसलिये हर दिन ही उत्सव जैसा होकर जीवन में आनन्द रस घोल देता है । मध्य प्रदेश के तुंग उतुंग पर्वत शिखर । विन्ध्य सतपुड़ा । मैकल कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजती अनेक पौराणिक कथायें । नर्मदा । सोन । सिन्ध । चम्बल । बेतवा । केन । धसान । तवा । ताप्ती आदि नदियों के उदगम और मिलन की कथाओं से फूटती हजारों धारायें यहाँ के जीवन को हरा भरा कर तृप्त करती हैं ।
इस राज्य में 5 लोक संस्कृतियों का समावेश है । ये 5 साँस्कृतिक क्षेत्र है - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर ( चंबल ) प्रत्येक भू भाग का अलग जीवंत लोक जीवन । साहित्य । संस्कृति । इतिहास । कला । बोली और परिवेश है ।
इस राज्य की संस्कृति बहुरंगी है । महाराष्ट्र । गुजरात । उड़ीसा की तरह मध्य प्रदेश को खास भाषाई संस्कृति से नहीं पहचाना जाता । बल्कि यहाँ विभिन्न लोक और जन जातीय संस्कृतियों का समागम है । इसलिये कोई एक लोक संस्कृति नहीं है । एक तरफ़ यहाँ 5 लोक संस्कृतियों का आपसी समावेश है । दूसरी ओर अनेक जन जातियों की आदिम संस्कृतियों का सुखद नजारा है ।

मध्य प्रदेश के 5 सांस्कृतिक क्षेत्र - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर और धार - झाबुआ । मंडला - बालाघाट । छिन्दवाड़ा । होशंगाबाद । खण्डवा - बुरहानपुर । बैतूल । रीवा - सीधी । शहडोल आदि जन जातीय क्षेत्रों में विभक्त है ।
निमाड़ मध्य प्रदेश के पश्चिमी अंचल में आता है । इसकी भौगोलिक सीमाओं में एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग पर्वत श्रृंखला । और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं । और मध्य में बहती है । नर्मदा की जल धार । पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था । बाद में इसे निमाड़ कहा गया ।
महाकवि कालीदास की धरती मालवा हरी भरी धन धान्य से भरपूर रही है । यहाँ के लोगों ने कभी अकाल नहीं देखा । विन्ध्याचल के पठार पर प्रसरित मालवा की भूमि सस्य । श्यामल । सुन्दर और उर्वर तो है ही । ये धरती पश्चिम भारत की सबसे अधिक स्वर्णमयी और गौरवमयी भूमि रही है ।
उत्तर में यमुना । दक्षिण में विंध्य प्लेटों की श्रेणियों । उत्तर - पश्चिम में चंबल । और दक्षिण पूर्व में पन्ना । आजमगढ़ श्रेणियों से घिरे भू भाग को बुंदेलखंड नाम से जाना जाता है । कनिंघम ने बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के जिलों सहित विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था
बघेलखण्ड का सम्बन्ध भी अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से है । यह भू भाग रामायण काल में कोसल प्रान्त के अन्तर्गत था । महाभारत काल में विराट नगर बघेलखण्ड भूमि पर ही था । जिसका नाम आजकल सोहागपुर है । भगवान राम की वनवास यात्रा इसी क्षेत्र से हुई थी । यहाँ के लोगों में शिव । शाक्त । वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा विद्यमान है । नाथ पंथी योगियो का भी खासा प्रभाव है । पर कबीर पंथ का प्रभाव सर्वाधिक है । कबीर के खास शिष्य धर्मदास बाँदवगढ़ निवासी ही थे ।
ग्वालियर मध्य प्रदेश का चंबल क्षेत्र । भारत का मध्य भाग । यहाँ भारतीय इतिहास की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनायें हुई हैं । इस क्षेत्र का सांस्कृतिक आर्थिक केंद्र ग्वालियर शहर है । सांस्कृतिक रुप से भी यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवागमन और संगम हुआ है । 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम झाँसी की वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई ने इसी भूमि पर लड़ा था ।
इसी मध्य प्रदेश के निमाङ की अमराइयो में कोयल की कूक गूंजने लगी थी । पलाश के फूलो की लाली फ़ैल रही थी । होली का खुमार सिर चढकर बोल रहा था । मधुर गीतों की गूँज से निमाङ चहक रहा था ।
दिल में ढेरों रंग बिरंगे अरमान लिये रंग बिरंगे ही वस्त्रों में सजी सुन्दर युवतियों के होंठ गुनगुना रहे थे - म्हारा हरिया ज्वारा हो कि । गहुआ लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग । कि लाड़ी बहू सींच लिया रानी सिंची न जाण्य हो कि ज्वारा पेला पडया । उनकी सरस क्थो लाई हो । हीरा भाई ढकी लिया ।
इसी रंग बिरंगी धरती पर वह रूप की रंगीली रानी आँखों में रंग बिरंगे ही सपने सजाये जैसे सब बन्धन तोङ देने को मचल रही थी । उसकी छातियों में मीठी मीठी कसक सी होती थी । उसके दिल में कोई अनजान सी हूक उठती थी । हाय वो कौन होगा । जो उसे बाँहों में भींच कर रख देगा ।
सासु न बहू गौर पूजा ही रना देव । अडोसन पड़ोसन गौर पूजा हो रना देव । पड़ोसन पर तुटयो गरबो भान हो रना देव । कसी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव । दूध केरी दवनी मङ घेर हो रना देव । पूत करो पालनों पटसल हो रना देव । स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रना देव । असी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव ।

आज की रात । उसने सोचा । इसी वीराने में बीतने वाली थी । कहाँ का फ़ालतू लफ़ङा उसे आ लगा था । साँप के मुँह छछूँदर । न निगलते बने । न उगलते ।
- पर पर मेरे दोस्त । वह फ़िर से बोला - जिन्दगी किसी हसीन ख्वाव जैसी नहीं होती । कभी नहीं होती । जिन्दगी की ठोस हकीकत कुछ और ही होती है ? कुछ और ही ।
यकायक वह उकता सा उठा । वह उठ खङा हुआ । और फ़िर बिना बोले ही चलने को हुआ । मनोज ने उसे कुछ नहीं कहा । और तमंचा कनपटी से लगा लिया - ओ के मेरे अजनबी दोस्त अलबिदा ।
आ वैल मुझे मार । जबरदस्ती गले लग जा । शायद इसी के लिये कहा गया है । हारे हुये जुआरी की तरह वह फ़िर से बैठ गया । उसने एक सिगरेट निकाली । और सुलगा ली । लेकिन नितिन खामोशी से उस छाया को ही देखता रहा ।
- लेकिन मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ । पदमा सहजता से बोली - अभी भी नहीं हूँ । अभी अभी तुमने कहा । तुम्हें मुझे यहाँ देखना भाता है । फ़िर बताओ । क्यों । बोलो बोलो । ऐसे ही मैं भी तुमको बहुत निगाहों से देखती हूँ । अगर तुम्हारे दिल में कुछ काम रस सा जागता है । फ़िर मेरे दिल में क्यों नहीं ? और वैसे भी देवर भाभी का सम्बन्ध अनैतिक नहीं है । देवर को द्वय वर कहा गया है । दूसरा वर । यह एक तरह से समाज का अलिखित कानून है । देवर भाभी के शरीरों का मिलन हो सकता है ।
मनोज शायद तुम्हें मालूम न हो । अभी तुम दुनियादारी के मामले में बच्चे हो । अगर किसी स्त्री को उसके पति की कमी से औलाद ना होती हो । तो उसकी अतृप्त जमीन में देवर ही बीजारोपण का प्रथम अधिकारी होता है । उसके बाद । कुछ परिस्थितियों में जेठ भी । और जानते हो । ऐसा हमेशा घर वालों की मर्जी से उनकी जानकारी में होता है । वे कुँवारे और शादीशुदा देवर को प्रेरित करते हैं कि वह भाभी की उजाङ जमीन पर खुशियों की फ़सल लहलहा दे ।
नितिन के दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ । कैसा अजीव संसार है यह । शायद यहाँ बहुत कुछ ऐसा विचित्र है । जिसको उस जैसे लोग कभी नहीं जान पाते । तन्त्र दीप से शुरू हुयी उसकी मामूली प्रेतक जिज्ञासा इस लङके के दिल में घुमङते कैसे तूफ़ान को सामने ला रही थी । उसने सोचा तक न था । सोच भी न सकता था ।
- शब्द । शब्द । वह तमंचा जमीन पर रखता हुआ बोला - और शब्द । शब्दों का कमाल । कितनी हैरानी की बात थी । भाभी के शब्द आज मुझे जहर से लग रहे थे । उसके चुलवुले पन में मुझे एक नागिन नजर आ रही थी । उसके बेमिसाल सौन्दर्य में मुझे काली नागिन नजर आ रही थी । एक खतरनाक चुङैल । खतरनाक चुङैल । मुझे..अचानक उसे कुछ याद सा आया - एक बात बताओ । तुम भूत प्रेतों में विश्वास करते हो । मेरा मतलब । भूत होते हैं । या नहीं होते हैं ?
नितिन ने एक सिहरती सी निगाह काली छाया पर डाली । उसका ध्यान सरसराते पीपल के पत्तों पर गया ।
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

निरन्तर कभी कभी आसपास महसूस होती अदृश्य रूहों पर गया । उसने गौर से मनोज को देखा ।
और बोला - पता नहीं । कह नहीं सकता । शायद होते हों । शायद न होते हों ।
अब वह बङी उलझन में था । उसने सोचा । ये अपने दिल का गम हल्का करना चाहता है । क्या वह स्वयं इससे प्रश्न पूछे । और जल्दी जल्दी ये बताता चला जाये । और बात खत्म हो । पर तुरन्त ही उसका दिमाग रियेक्ट करता । इसके अन्दर कोई बहुत बङा रहस्य । कोई बहुत बङी आग जल रही है । जिसका निकल जाना जरूरी है । वरना शायद ये खुद को गोली भी मार ले । मार सकता था । इसलिये एक जिन्दगी की खातिर उसमें स्वयं जो क्रिया हो रही थी । वही तरीका अधिक उचित था । और तब उसे सिर्फ़ सुनना था । देखना था ।
- मनसा जोगी । वह भाव से बे स्वर बोला - रक्षा करें ।
- लेकिन मैं जानता हूँ । वह फ़िर से बोला - मैंने उन्हें कभी देखा तो नहीं । पर मुझे 100% पता है । होते हैं । और तुम जानते हो । इनके भूत प्रेत होने का जो मुख्य कारण है । बस एक ही । सेक्स । काम वासना । व्यक्ति में निरन्तर सुलगती काम वासना । काम वासना से पीङित । काम वासना से अतृप्त रहा । इंसान निश्चय ही भूत प्रेत के अंजाम को प्राप्त होता है ।
ये अचानक से क्या हो गया था । पदमिनी नायिका पदमा भावहीन चेहरे से आंगन में खिलते गमलों को देख रही थी । उसे लग रहा था । कुछ असामान्य सा था । जो एकदम घटित हुआ था । वह इतना अनुभवी भी नहीं था कि इन बातों का कोई ठीक अर्थ निकाल सके । बस यार दोस्तों के अनुभव के चलते उसे कुछ जानकारी थी ।
- भाभी ! तब अचानक वह उसकी ओर देखता हुआ बोला - एक बात बोलूँ । सच सच बताना । क्या तुम भैया से खुश नहीं हो ? क्या तुम्हें तृप्ति नहीं होती ।
दूसरी तरफ़ देखती पदमा ने यकायक झटके से मुँह घुमाया । उसने तेजी से ब्लाउज के ऊपरी तीन हुक खोल दिये । और नागिन सी चमकती आँखों से उसकी तरफ़ देखा ।
- देखो इधर । वह सख्त स्वर में बोली - ये दो बङे बङे माँस के गोले । सिर्फ़ चर्बी माँस के गोले । अगर एक सुन्दर जवान मरी औरत का शरीर लावारिस फ़ेंक दिया जाये । तो फ़िर इस शरीर को कौवे कुत्ते ही खायेंगे । मेरी ये मृगनयनी आँखें किसी प्यासी चुङैल के समान भयानक हो जायेंगी । मेरे इस सुन्दर शरीर से बदबू और घिन आयेगी । बताओ । इसमें ऐसा क्या है ? जो किसी स्त्री को नहीं पता । जो किसी पुरुष को नहीं पता । फ़िर भी कोई तृप्त हुआ आज तक । अन्तिम अंजाम । जानते हुये भी ।
- नितिन जी ! वह ठहरे स्वर में बोला - बङे ही अजीव पल थे वो । वक्त जैसे थम गया था । उस पर काम देवी सवार थी । और मुझे ये भी नहीं पता । उस वक्त उसकी मुझसे क्या ख्वाहिश थी । सच ये है कि मैं किसी सम्मोहन सी स्थिति में था । लेकिन उसका सौन्दर्य । उसके अंग । सभी मुझे विषैले नाग बिच्छू जैसे लग रहे थे । और जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी । मुझे सही गलत का बोध करा रही थी । शब्द जैसे अपने आप मेरे मुँह से निकल रहे थे । जैसे शायद अभी भी निकल रहे हैं । शब्द ।
लेकिन भाभी ! मेरा ये मतलब नहीं था । मैंने सावधानी से कहा - औरत की काम वासना को यदि उसके लिये नियुक्त पुरुष मौजूद हो । तब ऐसी बात कुछ अजीब सी लगती है ना । इसीलिये मैंने कहा । शायद आप अतृप्त तो नहीं हो ।
- अतृप्तऽऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्त । अतृप्त । अतृप्त । मनोज का यह शब्द रह रह कर उसके दिमाग में हथौङे सी चोट करने लगा । एकाएक उसकी मुखाकृति बिगङने लगी । उसका बदन ऐंठने लगा । उसका सुन्दर चेहरा बेहद कुरूप हो उठा । उसके चेहरे पर राख सी पुती नजर आने लगी । वह बङी जोर से हँसी । और
- हाँ ! हाँ ! उसने ब्लाउज के पल्ले पकङकर एक झटका मारा । एक झटके से ब्लाउज दूर जा गिरा - हाँ मैं अतृप्त ही हूँ । सदियों से प्यासी । एक अतृप्त औरत । एक प्यासी आत्मा । जिसकी प्यास आज तक कोई दूर न कर सका । कोई भी ।
अब तक उकताहट महसूस कर रहा नितिन एकाएक सजग हो गया । उसकी निगाह स्वतः ही काली छाया पर गयी । जो बैचेनी से पहलू बदलने लगी थी । पर मनोज उन दोनों की अपेक्षा शान्त था ।
- फ़िर क्या हुआ ? बेहद उत्सुकता में उसके मुँह से निकला ।
- कुछ नहीं । उसने भावहीन स्वर में उत्तर दिया - कुछ नहीं हुआ । वह बेहोश हो गयी ।

रात के दस बजने वाले थे । बादलों से फ़ैला अंधेरा कब का छँट चुका था । नीले आसमान में चाँद निकल आया था । उस शमशान में दूर दूर तक कोई रात्रिचर जीव भी नजर नहीं आ रहा था । सिर्फ़ सिर के ऊपर उङते चमगादङों की सर्र सर्र कभी कभी उन्हें सुनाई दे जाती थी । बाकी भयानक सन्नाटा ही सांय सांय कर रहा था । पर मनोज अब काफ़ी सामान्य हो चुका था । और बिलकुल शान्त था ।
लेकिन अब उसके मन में भयंकर तूफ़ान उठ रहा था । क्या बात को यूँ ही छोङ दिया जाये । इसके घर या अपने घर चला जाये । या घर चला ही नहीं जाये । यहीं । या फ़िर और कहीं । वह सब जाना जाये । जो इस लङके के दिल में दफ़न था । यदि वह मनोज को यूँ ही छोङ देता । तो फ़िर पता नहीं । वह कहाँ मिलता । मिलता भी या नहीं मिलता । आगे क्या कुछ होने वाला था । ऐसे ढेरों सवाल उसके दिलोदिमाग में हलचल कर रहे थे ।
- बस हम तीन लोग ही हैं घर में । वह बिलकुल सामान्य होकर बोला - मैं । मेरा भाई । और मेरी भाभी ।
वे दोनों वापस पुल पर आ गये थे । और पुल की रेलिंग से टिके बैठे थे । यह वही स्थान था । जहाँ नीचे बहती नदी से नितिन उठकर उसके पास गया था । और जहाँ उसका वेस्पा स्कूटर भी खङा था । आज क्या ही अजीव सी बात हुयी थी । उन्हें यहाँ आये कुछ ही देर हुयी थी । और ये बहुत अच्छा था । वह काली छाया यहाँ उनके साथ नहीं आयी थी । बस कुछ दूर पीछे चलकर अंधेरे में चली गयी थी । यहाँ बारबार आसपास ही महसूस होती अदृश्य रूहें भी नहीं थी । और सबसे बङी बात । जो उसे राहत पहुँचा रही थी । मनोज यहाँ एकदम सामान्य व्यवहार कर रहा था । उसके बोलने का लहजा शब्द आदि भी सामान्य थे । फ़िर वहाँ क्या बात थी ? क्या वह किसी अदृश्य प्रभाव में था । किसी जादू टोने । किसी सम्मोहन । या ऐसा ही और कुछ अलग सा ।
- फ़िर क्या हुआ ? अचानक जब देर तक नितिन अपनी उत्सुकता रोक न सका । तो स्वतः ही उसके मुँह से निकला - उसके बाद क्या हुआ ?
- कब ? मनोज हैरानी से बोला - कब क्या हुआ ? मतलब ?
नितिन के छक्के छूट गये । क्या वह किसी ड्र्ग्स आदि का आदी था । या कोई प्रेत रूह । या कोई शातिर इंसान । अब उसके इस कब का वह क्या उत्तर देता । सो चुप ही रह गया ।
- मुझे अब चलना चाहिये । अचानक वह उठता हुआ बोला - रात बहुत हो रही है । तुम्हें भी घर जाना होगा । कह कर वह तेजी से एक तरफ़ बढ गया ।
- अरे सुनो सुनो । वह हङबङा कर जल्दी से बोला - कहाँ रहते हो आप । मैं छोङ देता हूँ । सुनो भाई । एक मिनट..मनोज । तुम्हारा एड्रेस क्या है ?
- बन्द गली । उसे दूर से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
- हा हा हा । जोगी ने भरपूर ठहाका लगाया
बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता ।
वह एकदम हैरान रह गया । हमेशा गम्भीर सा रहने वाला उसका तांत्रिक गुरु खुल कर हँस रहा था । उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान खेल रही थी । मनसा जोगी कुछ कुछ काले से रंग का विशालकाय काले पहाङ जैसा भारी भरकम इंसान था । और कोई भी उसको देखने सुनने वाला धोखे से गोगा कपूर समझ सकता था । बस उसकी एक आँख छोटी और सिकुङी हुयी थी । जो उसकी भयानकता में वृद्धि करती थी । मनसा बहुत समय तक अघोरियों के सम्पर्क में उनकी शिष्यता में रहा था । और मुर्दा शरीरों पर शव साधना करता था । पहले उसका झुकाव पूरी तरह तामसिक शक्तियों के प्रति था । लेकिन भाग्यवश उसके जीवन में यकायक बदलाव आया । और वह उसके साथ साथ द्वैत की छोटी सिद्धियों में हाथ आजमाने लगा । अघोर के उस अनुभवी को उम्मीद से पहले सफ़लता मिलने लगी । और उसके अन्दर का सोया इंसान जागने लगा । तब ऐसे ही किन्ही क्षणों में नितिन से उसकी मुलाकात हुयी । जो एकान्त स्थानों पर घूमने की आदत से हुआ महज संयोग भर था ।
मनसा जोगी शहर से बाहर थाने के पीछे टयूब वैल के पास घने पेङों के झुरमुट में एक कच्चे से बङे कमरे में रहता था । कमरे के आगे पङा बङा सा छप्पर उसके दालान का काम करता था । जिसमें अक्सर दूसरे साधु बैठे रहते थे ।
नितिन को रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी । तब वह सुबह इसी आशा में चला आया था कि मनसा शायद कुटिया पर ही हो । और संयोग । वह उसे मिल भी गया था । वह भी बिलकुल अकेला । इससे नितिन के उलझे दिमाग को बङी राहत मिली थी । पूरा विवरण सुनने के बाद जब मनसा एड्रेस को लेकर बेतहाशा हँसा । तो वह सिर्फ़ भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ।
- भाग जा बच्चे । मनसा रहस्यमय अन्दाज में उसको देखता हुआ बोला - ये साधना सिद्धि तन्त्र मन्त्र बच्चों के खेल नहीं । इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है । जिस पर जाना तो आसान है । पर लौटने का कोई विकल्प ही नहीं है ।
- मेरी ऐसी कोई खास ख्वाहिश भी नहीं । वह साधारण स्वर में बोला - पर इस दुनियाँ में कुछ चीजें लोगों को इस तरह भी प्रभावित कर सकती हैं क्या ? कि जीवन उनके लिये एक उलझी हुयी पहेली बनकर रह जाये । उनका जीना ही दुश्वार हो जाये । मैं उसे बुलाने नहीं गया था । उससे मिलना एक संयोग भर था ।
जिस मुसीवत में वो आज था । उसमें कल मैं भी हो सकता हूँ । अन्य भी हो सकते हैं । तब क्या हम हाथ पर हाथ रखकर ऐसे ही बैठे देखते रहें ।
शायद यही होता है । एक पढे लिखे इंसान । और लगभग अनपढ साधुओं में फ़र्क । मनसा इन थोङे ही शब्दों से बेहद प्रभावित हुआ । उसे इस सरल मासूम लङके में जगमगाते हीरे सी चमक नजर आयी । शायद वह एक सच्चा इंसान था । त्यागी था । और उसके हौंसलों में शक्ति का उत्साह था । सो वह तुरन्त ही खुद भी सरल हो गया ।
वही उस दिन वाला स्थान आज भी था । नदी के पुल से नीचे उतरकर । बहती नदी के पास ही बङा सा पेङ । पिछले तीन दिन से वह यहीं मनोज का इंतजार कर रहा था । पर वह नहीं आया था । मनसा ने उसे - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । का मतलब भी समझा दिया था । और भी बहुत कुछ समझा दिया था । बस रही बात मनोज को फ़िर से तलाशने की । तो मनसा ने जो उपाय बताया । वो कोई गुरु ज्ञान जैसा नहीं था । बल्कि एक साधारण बात ही थी । जो अपनी हालिया उलझन के चलते यकायक उसे नहीं सूझी थी कि - वो निश्चित ही उपचार के लिये तन्त्र दीप जलाने उसी स्थान पर आयेगा ।
सो वह पिछले तीन दिन से उसे देख रहा था । पर वह नहीं आया था । उसने एक सिगरेट सुलगायी । और यूँ ही कंकङ उठाकर नदी की तरफ़ उछालने लगा ।
- कमाल के आदमी हो भाई । मनोज उसे हैरानी से देखता हुआ बोला - क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे । पर आना उसकी मजबूरी है । क्योंकि आगे जाने के लिये गाङी यहीं से मिलेगी ।
- यही बात । अबकी वह सतर्कता से बोला - मैं आपसे भी पूछ सकता हूँ । क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे ।
ये चोट मानों सीधी उसके दिल पर लगी । वह बैचेन सा हो गया । और कसमसाता हुआ पहलू बदलने लगा ।
- दरअसल मेरी समझ में नहीं आता । आखिर वह सोचता हुआ सा बोला - क्या बताऊँ । और कैसे बताऊँ । मेरे परिवार में मैं मेरी भाभी और मेरे भाई हैं । हमने कुछ साल पहले एक नया घर खरीदा है । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक कुछ अजीव सा घटने लगा । और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता । ये दीपक..उसने दीप की तरफ़ इशारा किया - एक उपचार जैसा बताया गया है । मुझे नहीं पता कि इसका सत्य क्या है ? यहाँ शमशान में । खास इस पीपल के वृक्ष के नीचे । कोई दीपक जला देने से भला क्या हो सकता है । मेरी समझ से बाहर है । पर आश्वासन यही दिया है । इससे हमारे घर का अजीव सा माहौल खत्म हो जायेगा ।
- क्या अजीव सा ? वह दूर देखता हुआ बोला ।
- कुछ सिगरेट वगैरह पीते हो ? वह बैचेनी से बोला ।
उसने आज एक बात अलग की थी । वह अपना स्कूटर ही यहीं ले आया था । और उसी की सीट पर आराम से बैठा था । शायद कोई रात उसे पूरी तरह वहीं बितानी पङ जाये । इस हेतु उसने बैटरी से छोटा बल्ब जलाने का खास इंतजाम अपने पास कर रखा था । और सिगरेट के एक्स्ट्रा पैकेट भी ।
सुबह के ग्यारह बजने वाले थे । पदमा काम से फ़ारिग हो चुकी थी । वह अनुराग के आफ़िस चले जाने के बाद सारा काम जल्दी से निबटाकर तब नहाती थी । उतने समय तक मनोज पढता रहता । और उसके घरेलू कार्यों में भी हाथ बँटा देता । भाभी के नहाने के बाद दोनों साथ खाना खाते ।
दोनों के बीच एक अजीव सा रिश्ता था । अजीव सी सहमति थी । अजीव सा प्यार था । अजीव सी भावना थी । जो काम वासना थी भी । और बिलकुल भी नहीं थी ।
पदमा ने बाथरूम में घुसते घुसते कनखियों से मनोज को देखा । एक चंचल शोख रहस्यमय मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी । उसने बाथरूम का दरवाजा बन्द नहीं किया । और सिर्फ़ हलका सा परदा ही डाल दिया । परदा । जो मामूली हवा के झोंके से उङने लगता था ।
आंगन में कुर्सी पर पढते मनोज का ध्यान अचानक भाभी की मधुर गुनगुनाहट हु हु हु हूँ हूँ आऽऽ आऽऽ । पर गया । वह किताब में इस कदर खोया हुआ था कि उसे पता ही नहीं था कि भाभी कहाँ है । और क्या कर रही है ? तब उसकी दृष्टि ने आवाज का तार पकङा । और उसका दिल धक्क से रह गया । उसके कुंवारे शरीर में एक गर्माहट सी दौङ गयी ।
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