कामवासना

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Re: कामवासना

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रात के आठ से ऊपर हो चले थे । वह शान्ति से अपने कमरे में बन्द था । और उसने दरवाजा अन्दर से लगाया हुआ था । वास्तव में यही समय था उसके पास । जब उनमें से कोई उसे डिस्टर्ब न करता । वे लोग इस समय टी वी के सामने बैठे हुये भोजन आदि में लगे होते थे । पदमा खाना तैयार करने जैसे कामों में व्यस्त हो जाती ।
वह जमीन पर बैठा था । और एक छोटी कटोरी का दीपक जैसा इस्तेमाल करते हुये उसमें जलती मोटी बाती को अनवरत अपलक देख रहा था । प्रेत दीपक । आज ही उसे ऐसा समय भी मिला था । और आज ही वह इस घर को और इसके घरवालों को कुछ कुछ समझ भी पाया था ।
उस मोटी बाती की रहस्यमय सी चौङी लौ किसी कमल पुष्प की पंखरी के समान ऊपर को उठती हुयी जल रही थी । और वह उसी बाती की लौ के बीच में गौर से देख रहा था । जहाँ काली काली छाया आकृतियाँ कुछ सेकेंड में बनती । और फ़िर लुप्त हो जाती । वह किसी बिज्ञान के छात्र की भांति सावधानी सतर्कता से उसका अध्ययन करता रहा । और अन्त में सन्तुष्ट हो गया । उसने एक कागज पर मन्त्र जैसा कुछ लिखा । उस कागज को पानी में डुबोया । और फ़िर उसी पानी में उँगली डुबोकर हल्के हल्के छींटे उस लौ में मारने लगा । अचानक उसके दरवाजे पर दस्तक हुयी । वह हौले से मुस्कराया । दरवाजे पर पदमा खङी थी ।
- अब और क्या चाहते हो ? वह व्याकुल स्वर में बोली - किसी की शान्ति में खलल डालना अच्छा नहीं ।
उसने बाहर की तरफ़ देखा । दोनों भाई शायद अन्दर ही थे । उसने कमरा बन्द कर दिया । और टहलता हुआ सा छत पर आ गया । उसने घङी देखी । नौ बजने वाले थे । कुछ सोचता हुआ सा वह विचार मग्न फ़िर बैंच पर लेट गया ।
- एक औरत । आंगन में फ़ूलों की क्यारी के पास उससे अभिसार करती हुयी पदमा अपने चेहरे पर लटक आये बालों को पीछे झटकती हुयी बोली - के अन्दर क्या क्या भरा है । क्या क्या मचल रहा है ? उसके क्या क्या अरमान है । इसको जानने समझने की कोशिश कोई कभी नहीं करता । इस तरह उसकी तमाम उन्मुक्त इच्छायें दमित होती रहती हैं । तब इसकी हद पार हो जाने पर मधुर मनोहर इच्छाओं की लतायें विष बेल में बदल जाती है । और फ़िर अंग अंग से मीठा शहद टपकाती वह सुन्दर माधुरी औरत जहरीली नागिन सी बन जाती है । जहरीली नागिन । पुरुष को डसने को आतुर । जहरीली नागिन ।
लेकिन उसकी दमित इच्छाओं से हुये रूपान्तरण का यही अन्त नहीं है । क्योंकि वह जहर पहले तो खुद उसको ही जलाता है । और तब उस आग में जलती हुयी वो हो जाती है - चुङैल ..प्यासी चुङैल .. अतृप्त .. अतृप्त ।
- लेकिन । भूतकाल का मनसा फ़िर बोला - यदि उस आवेश को प्रोत्साहित करते हुये उसका दर बङाते चले जाओ । तब वे असामान्य लक्षण तुम्हें स्पष्ट महसूस होंगे । साफ़ साफ़ दिखाई देंगे ।
हुँऽऽ ..हुँऽ.. की तेज फ़ुफ़कार सी मारती हुयी वह विकृत मुख होने लगी । एक अजीव सी तेज मुर्दानी बदबू उसके आसपास फ़ैल गयी । जैसे कोई मुर्दा सङ रहा हो । उसकी आँखों में एक खौफ़नाक बिल्लौरी चमक की चिंगारी सी फ़ूट रही थी । पहले सुन्दर दिखाई देते लेकिन अब उसके भयानक हो चुके मुख से बदबू के तेज भभूके छूट रहे थे । वह इतनी घिनौनी हो उठी थी कि देखना मुश्किल था ।

हुँऽऽ..। वह खौफ़नाक स्वर में दाँत भींचते हुये बोली - प्यासी चुङैल ।
यह बङा ही नाजुक क्षण था । एक सफ़ल पूर्ण आवेश । उसे ऐसी स्थिति का कोई पूर्व अनुभव नहीं था । और आगे अचानक क्या स्थिति बन सकती है । यह भी वह नहीं जानता था । पर एक बात जो साधारण इंसान भी ऐसी स्थिति में ठीक से समझ सकता था । वही तुरन्त उसके दिमाग में आयी । नयी स्थिति को सहयोग करना । आगन्तुक की इच्छा अनुसार ।
उसने चुङैल के मुँह और शरीर से छूटते बदबूदार भभूकों की कोई परवाह न की । और यकायक उसे बाहों में लिये ही खङा हो गया । उसे केवल एक डर था । अचानक कोई आ न जाये । पर वह उसकी परवाह करता । तो फ़िर वह स्थिति कभी भी हो सकती थी । तब इस आपरेशन को करना आसान न था ।
नितिन का ध्यान फ़िर से उसके शब्दों पर गया - इस तरह उसकी तमाम उन्मुक्त इच्छायें दमित होती रहती हैं । तब इसकी हद पार हो जाने पर मधुर मनोहर इच्छाओं की लतायें विष बेल में बदल जाती है । और फ़िर अंग अंग से मीठा शहद टपकाती वह सुन्दर माधुरी औरत जहरीली नागिन सी बन जाती है । जहरीली नागिन । .. लेकिन उसकी दमित इच्छाओं से हुये रूपान्तरण का यही अन्त नहीं है । क्योंकि वह जहर पहले तो खुद उसको ही जलाता है । और तब उस आग में जलती हुयी वो हो जाती है - चुङैल ..प्यासी चुङैल .. अतृप्त .. अतृप्त ।
दमित काम इच्छायें । उसने उस अजनवी स्त्री को कस कर अपने साथ लगा लिया । और उसके समस्त बुरे रूपान्तरण को नजर अन्दाज सा करता हुआ वह उसके फ़ैले नितम्बों पर हाथ फ़िराने लगा । वह नागिन के समान भयंकर रूप से फ़ूँ फ़ूँ कर रही थी । और अब खुरदरी हो चुकी जीभ को लपलपाती हुयी उसको जगह जगह चाट सी रही थी । तब वह किसी अनुभवी के समान उसके राख से पुते से झुरझुरे स्तनों से खेलने लगा ।
- ठीक है । आखिर कुछ देर बाद वह सन्तुष्ट सी होकर बोली - क्या चाहते हो तुम ?
क्या चाहता था वह ? उसने सोचा । शायद कुछ भी नहीं । जीवन के इस रंगमंच पर कैसे कैसे अजीव खेल घटित हो रहे हैं । इसको शायद तमाम लोग कभी नहीं जान पाते । एक आम आदमी शायद इससे ज्यादा कभी नहीं सोच पाता । पहले जन्म हुआ । फ़िर बालपन । फ़िर लङकपन । युवावस्था । जवानी । अधेङ । बुढापा । और अन्त में मृत्यु । और फ़िर शायद यही चक्र ? शायद ? किसी बिज्ञान की किताब में दर्शाये जीवन चक्र के गोलाकार चित्र सा । इसके साथ ही आयु की इन्हीं अवस्थाओं के अवस्था अनुसार ही जीवन व्यवहार । और तेरा मेरा का व्यापार । बस हर इंसान को लगता है । जैसे सिर्फ़ यही सच है । इतना ही । जैसे सिर्फ़ इतनी ही बात है । ऐसी ही व्यवस्था की गयी है । ऊपर आसमान पर बैठे किसी अज्ञात से ईश्वर द्वारा । लेकिन तब । तब फ़िर इस जीवन का मतलब क्या है ? और अगर जीवन का यही निश्चित चित्र निश्चित कृम निर्धारित है । फ़िर तमाम मनुष्यों के जीवन में ऊँच नीच सुख दुख अमीर गरीब स्वस्थ रोगी आदि जैसी भारी असमानतायें विसमतायें क्यों ?
- बस यही । वह पूर्ण सरलता मधुरता से साधारण स्वर में ही बोला - कौन हो तुम ?
- दो बदन । उसने एक झटके से कहा ।
दो बदन । उसने बैंच पर लेटे लेटे ही अधलेटा होकर एक सिगरेट सुलगायी । एक और नयी बात । वह उसके आगे बोलने की तेजी से प्रतीक्षा कर रहा था कि अचानक वह वापिस रूपान्तरित होकर सामान्य होने लगी । वह एकदम हङबङा गया । और तेजी से उसके गाल थपथपाने लगा । पर वह जैसे नींद में बेहोश सी होती हुयी उसकी बाँहों में झूल गयी । जैसे पूरा बना बनाया खेल चौपट हो गया । एक और मुसीबत । उसने तेजी से उसे कपङे पहनाये । और खुद को व्यवस्थित कर उसे पलंग पर लिटा आया ।
दो बदन । रह रह कर यह शब्द उसके दिमाग में गूँज रहा था । क्या मतलब हो सकता है इसका ? वह बहुत देर सोचता रहा । पर उसकी समझ में कुछ न आया । तब वह पेट के बल लेट कर सङक पर जलती मरकरी को फ़ालतू में ही देखने लगा । उसे एक बात में खासी दिलचस्पी थी । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । पर ये कमरा कहाँ था ? ये पता करने का कोई तरीका उसे समझ में न आ रहा था । जाने क्यों उसे लग रहा था । इस पूरे झमेले के तार उसी कमरे से जुङे हुये हैं । या हो सकते हैं । उस कमरे का एक स्पष्ट चित्र उसके दिमाग में था । पूरी तरह याद था । कमरा सामान्य बङे भूमिगत कक्ष जैसा ही था । पर जाने क्यों उसे रहस्यमय लगा था । जाने क्यों । जैसी रहस्यमय वह औरत थी । पदमा ।

सोचते सोचते उसका दिमाग झनझनाने लगा । तब वह उठकर छत पर ही टहलने लगा । समय दस से ऊपर हो रहा था । उसने एक निगाह बङे तखत पर रखे तकिया चादर पर डाली । जिन्हें वह साथ ही लाया था । क्या अजीव बात थी । जो वाकया कल यकायक उसके साथ घटा था । आज वह उसके फ़िर से होने के ख्वाव देख रहा था । बल्कि कहो । उस स्थिति को खुद क्रियेट कर रहा था । और उसके लिये उसे पदमा के ऊपर आने की सख्त आवश्यकता थी । पर क्या वो आयेगी ? शायद आये । शायद न आये । लेकिन जाने क्यों बार बार उसका दिल कह रहा था । वह आयेगी । और जरूर आयेगी । और वह इसी बात का तो इंतजार कर रहा था ।
तभी अचानक घुप अंधेरा हो गया । यकायक उसकी समझ में नहीं आया कि ये अक्समात क्या हो गया । लेकिन अगले ही क्षण वह समझ गया । बिजली चली गयी थी । और मरकरी बुझ गयी थी । शायद अंधेरा पक्ष शुरू हो गया था । रात बेहद काली काली सी हो रही थी ।
शायद ये सच है । इंसान जो सोचता है । वैसा कभी होता नहीं है । और जो वह नहीं सोचता । वह अक्सर ही हो जाता है । यदि सोचा हुआ ही होने लगे । तब जिन्दगी शायद इतनी रहस्यमय न लगे । सोची सोच न होवई । जे सोची लख बार । उसने एक गहरी सांस ली । और फ़िर कब उसे नींद आ गयी । उसे पता ही न चला ।
यकायक अपने बदन पर रेंगते नाजुक मुलायम स्त्री हाथों से उसकी चेतना सी लौटी । वह उसके पैरों के आसपास हाथ फ़िरा रही थी । वह सोये रहने का बहाना किये रहा । वह हाथ को उसके पेंट के अन्दर ले गयी ।
ऐऽऽ जागोऽ ना । वह उसके कानों में फ़ुसफ़ुसाई - फ़िर मेरा इंतजार क्यों कर रहे थे । लो मैं आ गयी । मैं जानती थी तुम्हारे मन की बात कि तुम भी बहुत बैचेन हो मेरे लिये ।
- तुम्हें । वह कुछ घबराये से स्वर में बोला - बिलकुल भी डर नहीं लगता । उनमें से कोई आ जाये तब ?
- जलती जवानी की एक एक रात । वह उसके ऊपर होती हुयी थरथराते स्वर में बोली - बेहद कीमती होती है । इसे ये वो किन्तु परन्तु में नष्ट नहीं करना चाहिये । तुम उनकी फ़िक्र न करो । क्योंकि तुम नहीं जानते । वे कमजोर थके घोङे से घोङे बेच कर सोते हैं । मनोज चरस का नशा भी कर लेता है । और अनुराग भी थकान दूर करने को ड्रिंक करता है । इसलिये वे अक्सर जागते हुये भी सोये से ही रहते हैं ।
- अधिकतर प्रेत बाधाओं का कारण । भूतकाल का मनसा प्रकट सा हुआ - या इंसान का प्रेत योनि में चले जाने का कारण । उसकी अतृप्त या दमित इच्छायें ही अधिक होती हैं । अतृप्त काम वासना । बदले की आग । किसी कमजोर पर ताकतवर का जबरदस्ती का जुल्म । दूसरे के धन पर निगाह । जान बूझ कर किये किसी गलत कर्म का बाद में घोर पश्चाताप होना आदि कारण ऐसे हैं । जो प्राप्त आयु को भी स्वाभाविक ही तेजी से क्षीण करते हैं । घटा देते हैं । और इंसान अपने उसी नीच कर्म के संजाल में लिपटता चला जाता है । ये स्थितियाँ प्रेतत्व को आमंत्रित करती हैं । और वास्तव में इंसान मरने से पूर्व ही जीवित शरीर में ही प्रेत होना शुरू हो जाता है । प्रेतों के लिये भूत शब्द का खास इसीलिये प्रचलन है कि उसके भूतकाल की कहानी । भूतकाल का परिणाम ।
उसके भूतकाल की कहानी । नितिन जैसे अचानक सचेत हुआ । यदि तुम इस रहस्य को वाकई जानना चाहते हो । उसके कानों में अपने गुरु की सलाह फ़िर गूँजी - तो पहले तुम्हें उसके भूतकाल को जानना होगा ।
- पदमा जी ! उसे खुश रखने के उद्देश्य से वह उसकी नंगी पीट को सहलाता हुआ बोला - आपने कई बार अपने प्रेम या प्रेमी का जिक्र किया है । मेरी बङी उत्सुकता है कि वह कहानी क्या थी । जो उस पागल इंसान ने आप जैसी अति रूपसी की उपेक्षा की ।
- भूतकाल । वह धीमे से उसी विशेष स्वर में बोली - भूतकाल को.. छोङो । जो बीत गया । उसे छोङो । सेक्स .सेक्स..सिर्फ़ सेक्स । एक भरपूर जवान और अति सुन्दर औरत इस तन्हा काली रात में खुद चलकर तुम्हारे पहलू में आयी है । और तुम बासी कहानियों को पढना चाहते हो । कोई नयी कहानी लिखो ना । कोई नया मधुर गीत । मेरे रसीले होठों पर । पर्वत शिखर से वक्षो पर । गहरी खाई सी मेरी नाभि पर । नागिन सी बलखाती कमर पर । फ़िसलन भरी योनि की घाटियों पर । काली घटाओं सी जुल्फ़ों पर । देखो..मेरा हर अंग एक सुन्दर रंगीली नशीली कविता जैसा ही तो है ।

जैसे फ़िर एक नया चैलेंज । जैसे उसके दिमाग से उसका दिमाग ही जुङा हो । कहीं ये कर्ण पिशाचनी तो नहीं ? भूतकाल शब्द को जिस तरह उसने एकाएक जिस व्यंगात्मक अन्दाज में बोला था । और कई बार उसकी सोची बात को तुरन्त प्रकट किया था । उससे यही साबित होता था । तब फ़िर उसे क्या हासिल हो सकता था ? जब वह उसकी हर बात को पहले ही जान जाती थी । तब । तब तो वह उसके हाथों में उलट पलट होता एक सेक्स टाय जैसा भर ही था । सेक्स टाय । जिससे वह मनमाने तरीके से खेल रही थी ।
खुद को बेहद असहाय सा महसूस करते हुये उसने एक लम्बी गहरी सांस भरी । क्या इस अनोखी औरत को खोलने की कोई चाबी कहीं थी । या फ़िर चाबी बनाने वाला इसकी चाबी बनाना ही भूल गया था । या वो चाबी किन्हीं तिलिस्मी कहानियों जैसे अजीव से गुप्त स्थान पर छुपी रखी थी । चाबी ।
और तव घोर निराशा में आशा की किरण खोजते हुये उसे रामायण याद आयी । कामी रावण की काम चाहत के चलते सोने की लंका विनाश के कगार पर पहुँच गयी थी । तमाम महाबली योद्धा मौत के मुँह में जा चुके थे । मगर इस सबसे बेखबर कुम्भकरण गहरी निद्रा में सोया पङा था । अब उसको जगाना आवश्यक हो गया था । रावण ने स्वयं जाकर उसे जगाया ।
एक लम्बी स्वस्थ भरपूर नींद के बाद उसका तामसिक राक्षसी मन भी भोर जैसी सात्विकता से परिपूर्ण हो रहा था । ज्ञान जैसे उसमें स्वतः स्थिति ही था । और समस्त वासनायें अभी सांसारिक भूख से रहित ही थी । तब वह रावण की सहयोगी आशा के विपरीत उल्टा उसे ही सीख देने लगा । और पर स्त्री से काम वासना की चाहत रखने से होने वाले विनाश पर धर्म नीति बताने लगा । हर तरह से उसकी गलती दोष बताने लगा । सीता के रूप में जगदम्बा को वह साफ़ साफ़ पहचान रहा था ।
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Re: कामवासना

Post by 007 »

साम दाम दण्ड भेद का चतुर खिलाङी रावण तुरन्त उसकी स्थिति को समझ गया । और फ़िलहाल विषयान्तर करते हुये उसने उसके लिये मांस मदिरा के साथ सुन्दर अप्सराओं के नृत्य जैसे भोग विलासों की भरपूर व्यवस्था की । और तब कुम्भकरण के मन पट पर वही कहानी लिखने लगी । जो रावण चाहता था ।
जो रावण चाहता था । जो नितिन चाहता था । सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स..। पदमा की सुरीली आवाज जैसे फ़िर गूँजी । अगर उसकी ये जिद बन गयी थी कि वह इस रहस्य की तह में जाकर ही रहेगा । तो फ़िर उसे उसकी इच्छानुसार उसके रंग में रंगना ही होगा । और खास तब । जब वह असल उसी तरह प्रकट होगी ।
- ओ के । वह उसके ब्लाउज में हाथ डालता हुआ बोला - तुम ठीक कहती हो । भूतकाल को छोङो । जिन्दगी बहुत छोटी है । हमें इसे भरपूर जीना चाहिये ।
- ह हाँ हाँऽऽ । वह उसे अपने ऊपर खींचती हुयी बोली - यहाँ हर इंसान की जिन्दगी रेगिस्तान में भटके मुसाफ़िर के समान है । सुनसान वीरान रेतीला सूखा उजाङ रेगिस्तान । जिसमें पानी बहुत कम । प्यास बहुत ज्यादा है । इसीलिये तो हम सब प्यासे ही भटक रहे हैं । फ़िर यकायक आगे कहीं दूर पानी नजर आता है । झिलमिलाता स्वच्छ पारदर्शी कांच की लहरों के समान मनमोहक जल । आहऽऽ ..पानी । प्यासा तप्त इंसान उसकी तरफ़ तेजी से दौङता है । मगर पास जाकर अचानक हताश हो जाता है । क्योंकि वह जिसे शीतल मधुर मीठा जल समझ रहा था । वह सिर्फ़ मृग मरीचिका ही थी । मृग मरीचिका । झूठा जल । मायावी ।
नितिन ने अचानक उसके हमेशा रहने वाले विशेष स्वर के बजाय उसकी आवाज में एक भर्राया पन महसूस किया । लेकिन घुप अंधेरा होने से वह उसके भाव देखने में नाकाम रहा ।
- इसीलिये । जैसे अचानक वह संभल कर बोली - सदियों सदियों से भटकती हम सब प्यासी रूहें उसी मधुर शीतल जल की तलाश में बैचेन घूम रही हैं । जल । मीठा मधुर जल । जो रेगिस्तान में भी कभी कभी कहीं मिल जाता है । और तब उसको पीकर उस बेहद तप्त जलती सुलगती भूमि में कोई मामूली छायादार कंटीला छोटा वृक्ष भी अति सुखदाई मालूम होता है । जैसे जन्म जन्म से प्यासी रूह को अब कुछ चैन आया हो ।

- आऽऽह । वह एकदम मचलने लगी - मैं प्यासी हूँ ।
वह समझ गया । वह जो खेल में किसी बाह्य सहयोगी की भांति बेमन से खेलता हुआ अपना काम निकालना चाहता था । उससे काम नहीं चलने वाला था । उसे फ़ुल फ़ार्म में आना ही होगा । और उसका वास्तविक कामना पुरुष बनना ही होगा । जैसा वह चाहती थी । वैसा ।
तब उसने उस रहस्य आदि झमेले को दिमाग से दूर निकाल फ़ेंका । और उसका ब्लाउज ऊपर खिसका दिया । उसके मजबूत पंजे में भिंचते उसके स्तन मानों दर्द से चीख उठे । तेज दर्द से वह एकदम बल खाकर ऊपर से नीचे तक लहरा गयी । उसने किसी हल्की रजाई की तरह उसे ऊपर खींचा । और उसके होठों को किसी लालची बच्चे की भांति लालीपाप सा चूसा । अनमना पन त्याग कर जब पुरुष अपनी पूर्ण भूमिका में आता है । तव वह होता है । एक कुशल कामयाव खिलाङी । चैंपियन ।
अब यदि वह कला थी । तो वह नट था । वह उमङती नदी थी । तो वह सफ़ल तैराक था । वह जहरीली नागिन थी । तो वह खिलाङी नेवला था । नेवला ।
वास्तव में वह बारबार नागिन सी बलखाती हुयी ही उसकी पकङ से फ़िसल रही थी । उसे उत्तेजित कर रही थी । जैसे मछली हाथ से फ़िसल रही हो । और वह भूखे बाज सा उस पर झपट रहा था ।
- आऽऽह । वह बुदबुदाकर बोली - मैं प्यासी हूँ ।
एक तरफ़ वह उसकी उत्तेजना को चरम पर पहुँचा रही थी । दूसरी ओर वह उसको हर कदम पीछे भी धकेल देती थी । फ़िर नयी उत्तेजना । फ़िर नया कदम । दो नंगे तार । उसके कानों में उसकी नशीली आवाज फ़िर से गूँजी - आपस में कभी नहीं मिलते । लेकिन जब कभी मिलते हैं । तो पैदा होती है । एक अदभुत चिंगारी । एक दिव्य चमक । और उसको कहते हैं । रियल सेक्स । सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स ।
और तब मानों उसकी चाल को भांप कर उसके अन्दर स्वतः ही एक पूर्ण पुरुष जागृत हुआ । और उसने अपने मजबूत हाथों में किसी कपङे की हल्की सी गुङिया की भांति उसे हवा में उठा लिया । और सरकस के कुशल कलावाज की तरह ऊपर नीचे झुलाने लगा

और तब । जादूगरनी जैसे अपना सब जादू भूली । नटनी सारे करतब भूल गयी । फ़ुंकारती नागिन जैसे वश में होकर बीन के इशारे पर नाचने लगी । खूँखार शेरनी जैसे पिंजङे में फ़ँस गयी । लकङी के इशारे पर बन्दरिया नाचने लगी । घायल चुहिया बिलौटे के जबङे में आ गयी । उङते लहराते शक्तिशाली बाज के नुकीले पंजो में घायल चिङिया फ़ङफ़ङाई ।
उसकी बेतहाशा चीखें निकलने लगी । चीखें । जिनकी अब उस क्रूर शिकारी को कोई परवाह न थी । और अपने शिकार के लिये उसके मन में कोई दया भी न थी ।
- बस..बस..बस..। वह आकुल व्याकुल होकर दर्द से चिल्लाई - रुक जाओ । रुक जाओ । और नहीं । अब और नहीं ।.. मैं तुम्हारी गुलाम हुयी । जो बोलोगे । करूँगी । ये मेरा वादा है । हाँ साजन । ये मेरा वादा है ।
और तभी अचानक बिजली आ गयी । घुप अंधेरे में डूबी छत पर हल्का सा उजाला फ़ैल गया । वे दोनों उठ कर टहलने लगे । और टहलते टहलते छत के किनारे आ गये ।
- कोई भी स्त्री । फ़िर वह एक जगह रुक कर बोली - सदैव बहुत दयालु और कोमल स्वभाव की होती है । और नितिन जी ! वह जिसके प्रति दिल से भावना से समर्पित होती है । उसके लिये जान भी दे देती है । लेकिन नितिन ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई एक 1 भी आय रिपीट कोई एक 1 भी पुरुष ऐसा हो । जो स्त्री में ऐसी पूर्ण समर्पण की भावना को जगा सके । स्वतः स्फ़ूर्त प्रेम भावना को जगा सके । ऐसा अभिन्न । दो 2 जिस्म । एक 1 रूह । प्रेम जगा सके । तब अधिकतर पति पत्नी प्रेमी प्रेमिका स्त्री पुरुषों नर मादा अण्डरस्टेंड आय रिपीट अगेन नर मादा का प्रेम प्रेम नहीं । स्वार्थी प्रेम की दैहिक वासना ही होती है । एक सौदा । व्यापार । जिन्दगी की जरूरतें पूरी करने भर का सौदा । फ़िर..फ़िर बोलो आप । इसमें प्यार कहाँ ? समर्पण कहाँ ।
- आह ऽऽ । उसके कलेजे में अचानक जैसे अनजान हूक सी उठी - मैं प्यासी हूँ ।
हाँ नितिन ! दरअसल रहस्य शब्द एक ही बात कहता है कि हम किसी चीज को अन्दर तक नहीं देखना चाहते । सिर्फ़ स्थूल सतही व्यवहार को बरतने की हमें आदत सी बन गयी है । इसीलिये हर साधारण बात भी रहस्यमय मालूम होती है । इसलिये नितिन जी स्त्री को सदा अपने अनुकूल रखने के लिये किसी झूठे वशीकरण की नहीं । शुद्ध पवित्र पावन निश्छल दिली आत्मिक प्रेम की आवश्यकता होती है । आत्मिक प्रेम ।
आहऽऽ । अचानक आतुर सी वह दौङकर उससे लिपट गयी - मैं प्यासी हूँ ।
स्वतः ही नितिन ने उसे बाँहों में भर लिया । और अपने मजबूत आगोश में कसते हुये दीवाना सा चूमने लगा । जैसे सदियों से बिछुङे प्रेमी जन्म जन्म के बाद मिले हों । उनके होंठ आपस में चिपके हुये थे । और वे लगातार एक दूसरे को चुम्बन किये जा रहे थे । लगातार । लगातार । अनवरत । और फ़िर वे एक दूसरे में उतरने लगे । पदमा नितिन के शरीर में समा गयी । और वह पदमा के शरीर में समा गया ।
उसका शरीर बहुत ही हल्का हो रहा था । बल्कि शरीर अब था ही नहीं । वे शरीर रहित होकर खुद को अस्तित्व मात्र महसूस कर रहे थे । हवा । वायु । और फ़िर उसी अवस्था में उनके पैर जमीन से उखङे । और वे आकाश में उढते चले गये । अज्ञात । अनन्त । नीले आकाश में किसी छोटे पक्षी के समान
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Re: कामवासना

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मितवाऽऽ.. भूल नऽऽ जानाऽऽ । निमाङ की हरी भरी वादियों में अचानक ये करुण पुकार दूर दूर तक गूँज गयी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
छत पर खङी उदास रोमा के दिल में धक्क सी हुयी । आसमान जैसे वह शब्द उसके पास ले आया था - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । किसी सच्चे प्रेमी के दिल से उठती आसमान का भी कलेजा चीर देने वाली पुकार । उसके कलेजे में एक तेज हूक उठी । उसकी निगाह निमाङ की उन्हीं वादियों की तरफ़ ही थी । घबराकर उसने मुँडेर पर सिर टिका लिया । और बेतरह दोनों हाथों से कलेजा मसलने लगी । ये अजीब सा दर्द उसे चैन न लेने दे रहा था । वादियों में गूँजती उस सच्चे प्रेमी की विरह पुकार वादियों से आती हवायें उस तक निरन्तर पहुँचा रही थी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
- ये तुम क्या करते हो.. विशाल । वह फ़फ़क फ़फ़क कर रो पङी - मैं कैसे.. भूल जाऊँगी तुम्हें । पर कुछ तो मेरा.. भी ख्याल करो । मैं कितनी.. मजबूर हूँ ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते रोते पक्षी संदेश सुनाते हुये गुजर गये ।
- नहींऽऽ ।..नहींऽऽ भगवान नहीं । वह दिल ही दिल में चीख पङी - ऐसा मत करो । प्रभु हमारे साथ । ऐसा मत करो । वह मर जायेगा । प्रभु..उस पर कुछ तो दया करो ..प्रभु कुछ तो दया करो । कहती कहती वह जमीन पर गिरकर जोर जोर से रोने लगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । घाटियों से आते बादल तङप कर फ़िर बोले ।
- खुद कोऽऽ संभालो विशाल । वह सुबक कर बोली - हिम्मत से काम लो । हाँ साजन ! यदि तुम ही यूँ टूट गये
तो फ़िर मुझे हिम्मत कैसे बंधेगी । ..तुम्हारे बिना फ़िर मैं भी न जी पाऊँगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । दसों दिशायें भीगे स्वर में एक साथ बोली ।
- नहीं..नहीं विशाल नहीं । वह पागल हो गयी - खुद को संभालो प्रियतम ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते उदास पथिक बोले ।
- हे राम । हे राम । वह सीने पर मुक्के मारती हुयी बोली - विशाल क्या करूँ मैं । अब क्या करूँ मैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते दुखी रास्ते वोले ।
और तब । उसके बरदाश्त के बाहर हो गया । वह गला फ़ाङकर चिल्लाई - विऽऽशालऽऽ । और गिर कर बेहोश हो गयी ।
- रोमा ।.. रोमा ।.. मेरी जान ।.. तू आ गयी ना.. रोमा । वह पागल दीवाना दौङकर उससे लिपट गया - रोमा ..मेरी जान । मुझे मालूम था । तू जरूर आयेगी ..हाँ ।
- ह हाँ.. हाँ विशाल । वह कसकर उसके सीने से लिपटती हुयी बोली - मैं आ गयी । अब हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
वे दोनों कसकर लिपटे हुये थे । और एक दूसरे की तेजी से चलती धङकन को सुन रहे थे । ये दो अभिन्न प्रेमियों का मधुर मिलन था । पर फ़िजा किसी अज्ञात भय से सहमी हुयी थी । वादियाँ भी जैसे किसी बात से डरी हुयी थीं । पेङ पौधे उदास से शान्त खङे थे । पक्षी चहकना भूलकर गुमसुम से गरदन झुकाये बैठे थे । हवा मानों बहना भूलकर एक जगह ही ठहर गयी थी । आसमान में छाये बादल सशंकित से जैसे उनकी रखवाली में लगे थे । पर वे दोनों प्रेमी इससे बेपरवाह एक दूसरे में खोये हुये थे । और लिपटे हुये एक दूसरे के दिल को अपने सीने में धङकता महसूस कर रहे थे । ये मधुर आलिंगन उन्हें अदभुत आनन्द दे रहा था ।
- व विशाल । अचानक सहमी सी रोमा कांपते स्वर में बोली - ये दुनियाँ हमारे प्यार की दुश्मन क्यों हो गयी ? हमने इनका क्या बिगाङा है ?
- पता नहीं रोमा । वह दीवाना सा उसको यहाँ वहाँ चूमता हुआ मासूमियत से बोला - मैं भला क्या जानूँ । मैंने तो बस तुम्हें प्यार ही किया है । और तो कुछ भी नहीं किया ।

हाँ विशाल । वह उसके कन्धे पर सर रख कर बोली - शायद ..शायद ये दुनियाँ प्यार करने वालों से जलती है । ये दो प्रेमियों को प्यार करते नहीं देख सकती.. है ना ।
- नहीं जानता । वह उसकी सुन्दर आँखों में झांक कर बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? अचानक वह उदास हँसी हँसती हुयी बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह कहीं खोया खोया सा बोला - शायद..इस धरती के पार भी । किसी नयी दुनियाँ में । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न होती हो ।
- चल पागल । वह खिलखिला कर बोली - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
- मेरा यकीन कर प्यारी । वह उसका चेहरा हाथों में भर कर बोला - मैं सच कह रहा हूँ । एकदम सच ।
वह तो भौंचक्का ही रह गयी । लेकिन वह जैसे पूरे विश्वास से कह रहा था । भला ऐसी भी कोई जगह है ? उसने कुछ देर सोचा । पर उसे कुछ समझ में न आया । तब वह उसकी गोद में सर रख कर लेट गयी । विशाल उसके बालों में उँगलियाँ फ़िराने लगा ।
- रोमा । अचानक वह बोला - तू ठीक से जानती है । मेरे अन्दर ऐसी कोई इच्छा नहीं । पर कहते हैं । दो प्रेमी तब तक अधूरे हैं । जब तक उनके शरीरों का भी मिलन नहीं हो जाता । तब तू बार बार मुझे क्यों रोक देती है । क्या तुझे मुझसे प्यार नहीं है ?
वह उठकर बैठ गयी । उसके चेहरे पर गम्भीरता छायी हुयी थी । और वह जैसे दूर शून्य 0 में कहीं देख रही थी । फ़िर उसने उसका हाथ पकङा ।
और हथेली अपने गालों से सटा कर बोली - ऐसा नहीं है विशाल । मेरा ये तन मन अब तुम्हारा ही तो है । मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप चुकी हूँ । फ़िर मैं मना क्यों करूँगी । सच तो ये है कि खुद मेरा दिल ऐसा करता है । हम दोनों प्यार में डूबे रहें ।
पर हमेशा से मेरे दिल में एक अरमान था । जो शायद हर कुँवारी लङकी का ही होता है । उसकी सुहाग रात का ।

यादगार सुहाग रात । मैंने देवी माँ से मन्नत मानी थी कि मैं अपना कौमार्य सदैव बचा कर रखूँगी । और अपनी सुहाग रात को उसे अपने पति को ही भेंट करूँगी । हे देवी माँ ! मुझे मेरी इच्छा का ही पति देना । और माँ ने मेरी बात सुन ली । मेरी मुराद पूरन हो गयी । और तुम मुझे मिल गये । तब ये मन्नत तुम्हारे लिये ही तो है । बस हमारी शादी हो जाये ।
लेकिन..यदि तुम इस बात पर उदास हो । और मुझे पाना ही चाहते हो । तो फ़िर मुझे कोई ऐतराज भी नहीं । क्योंकि मैं तो तुम्हारी ही हूँ । आज । या कल । मुझे खुद को तुम्हें ही सौंपना है । और मैं मन से तुम्हारी हो ही चुकी हूँ । सिर्फ़ चार मन्त्रों की ही तो बात है ।..मेरे प्रियतम ! तुम अभी यहीं अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो ।
वह जैसे बिलकुल ठीक कह रही थी । वह प्यार ही क्या । जो शरीर का भूखा हो । वासना का भूखा हो । जब उसने अपनी अनमोल अमानत उसी के लिये बचा कर रखी थी । तब उसे जल्दी क्यों हो । उसका ध्यान ही इस बात से हट गया ।
यकायक जैसे फ़िजा में अजीव सी बैचेनी घुलने लगी । भयभीत पक्षी सहमे अन्दाज में चहचहाये । विशाल बेखुद सा बैठा था । पर रोमा की छठी इन्द्रिय खतरा सा महसूस करते हुये सजग हो गयी । उसकी निगाह पहाङी से नीचे दूर वादी में गयी । और..
- विशाऽऽल । अचानक वह जोर से चीखी - भागो.. विशाल..भागो ।
शायद दोनों इस स्थिति के पूर्व अभ्यस्त थे । विशाल हङबङा कर उठा । और दोनों तेजी से अलग अलग भागने लगे । भागा भाग । भागा भाग । जितना तेज भाग सकते थे । रोमा तेजी से घाटी में उतर गयी । और एक झाङी की आङ में खङी होकर हाँफ़ने लगी । उसका सीना जोर जोर से धङक रहा था । फ़िर वह छुपती छुपाती दूसरी पहाङी पर सिर नीचा किये थोङा ऊपर चढी । और उधर ही देखने लगी ।
उन चारों ने उसके पीछे आने की कोई कोशिश नहीं की । उनका लक्ष्य सिर्फ़ विशाल था । वे चारों अलग अलग उसको घेरते हुये तेजी से उसी की तरफ़ बढ रहे थे । और काफ़ी करीब पहुँच गये थे । रोमा का कलेजा मुँह को आने लगा । वह एकदम घिर चुका था ।
जब वे उससे कुछ ही दूर रह गये । तब विशाल ने तेजी से घूम कर चारों तरफ़ देखा । पर भागने के लिये कोई जगह ही न बची थी । वह बहुत घबरा गया । और बिना सोचे समझे ही एक तरफ़ भागा ।
जोरावर के हाथ में दबी कुल्हाङी उसके मजबूत हाथों से निकल कर हवा में किसी चक्र की भांति तेजी से घूमती चली गयी । और सनसनाती हुयी विशाल की पीठ से जाकर टकराई । रोमा की दिल दहलाती चीख से मानों आसमान भी थर्रा गया । विशाल दोहरा होकर वहीं गिर गया । भागना दूर । यकायक उठ सके । ऐसी भी हिम्मत उसमें नहीं बची थी । भयानक पीङा से उसकी आँखें उबली पङ रही थी ।

मैं मना कियो तेरे कू । जोरावर जहर भरे स्वर में नफ़रत से बोला - ठाकुरन की इज्जत से कभी न खेलियो । पर तू नई मानियो ।
रोमा ने घबरा कर उसे देखा । वह दर्द से बुरी तरह तङप रहा था । और कुछ भी नहीं बोल सकता था । पर उन हैवानों पर इस बात का कोई असर न था । वह अभी ज्यादा दूर न भागी थी । विशाल को यूँ घिरा देख कर उसके चेहरे पर एक अजीव सी दृढता आ गयी । और वह वापिस भाग कर वहीं जा पहुँची । वहाँ । जहाँ विशाल उन राक्षसों से घिरा हुआ था । उन चारों ने बेहद नफ़रत से एक निगाह उसे देखा । और फ़िर वापिस विशाल को देखने लगे ।
- जोरावर । अचानक उन तीनों में से एक ऊबता हुआ सा पंछी बोला - के सोच रहा अब । के करूँ हरामजादे का ? और के करेगा । जोरावर घृणा से बोला - खत्म कर साले को ।
पंछी ने कुल्हाङी उठा ली । और सधे कदमों से उसकी ओर बढा । रोमा को एकदम तेज चक्कर सा आया । वह गिरने को हुयी । फ़िर पूरी ताकत से उसने अपने आपको संभाला । और दौङकर जोरावर के पैरों से लिपट गयी ।
- पापा नहीं । वह गिङगिङा कर बोली - नहीं । मत मारो उसे । छोङ दो ।
- ऐ छोरी । जोरावर उसे लाल लाल आँखों से घूरता हुआ बोला - बन्द कर ये बेहयापन ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । हवा के झोंके उसे छूकर बोले ।
वह हङबङा कर उठ बैठी । तेज धूप की तपिश से उसको पसीना आ रहा था । आँसू उसकी आँखों के कोर से बह कर गालों पर आ रहे थे । वह फ़िर ऊँची मुँडेर के सहारे खङी हो गयी । और व्याकुल भाव से वादियों की ओर देखने लगी । यूँ ही । बेवजह । क्योंकि वहाँ से कुछ भी नजर न आ रहा था ।
तभी जीने का दरबाजा खुलने की आवाज आयी । और ऊपर आते कदमों की आहट आने लगी ।
- बीबी । उसकी भाभी बेहद दुख से उसे देखते हुये बोली - मेरी जान के बदले भी यदि तुम्हारा प्रेम मिल जाये । तो मैं अपनी जिन्दगी तुम्हें निछावर करती हूँ । तुम जैसा बोलो । मैं करूँगी । मुझसे तुम्हारा दुख नहीं देखा जाता ।
उसने बङी उदास नजरों से भाभी को देखा । वह उसके लिये खाना लेकर आयी थी । और सिर्फ़ यही वो समय था । जिसमें वह उससे बात कर सकती थी । उसका हाल चाल जान सकती थी । वह नजरबन्द थी । और जीने पर हमेशा भारी ताला लगा रहता था । उसकी जरूरत दिनचर्या का सभी सामान उसे ऊपर ही उपलब्ध होता था । छत पर ।
उसने घोर नफ़रत और उपेक्षा से खाने की थाली को देखा । खाना । उसकी आँखों से आँसू बह निकले । उसे मालूम था । वह खाना तो दूर । पानी भी नहीं पीता होगा । पानी भी । फ़िर वह खाना कैसे खा सकती है ?
- ये लो । भाभी एक कौर बना कर उसको स्वयं खिलाती हुयी बोली - बीबी ! तुम्हें मेरी कसम । मुझे मालूम है । तुम सारा खाना नीचे कूढे पर फ़ेंक देती हो ।..ऐसे तो तुम मर ही जाओगी । लेकिन इससे क्या फ़ायदा ?

प्रेम और जिन्दगी । जिन्दगी और प्रेम । शायद दोनों एकदम अलग चीजें हैं । दोनों के नियम अलग हैं । दोनों की कहानी अलग है । दोनों के रास्ते अलग हैं । प्रेमियों को दुनियाँ कभी रास नहीं आती । और दुनियाँ को कभी प्रेमी रास नहीं आते । इनका सदियों पुराना वैर चला आ रहा है ।
रोमा की दुनियाँ भी जैसे उजङ चुकी थी । उसके जीवन में अब कुछ न बचा था । वह छत पर खङी खङी सूनी आँखों से वादियों की ओर ताकती थी । और अनायास ही उसके आँसू बहने लगते । प्रेमियों के आँसू । प्रेम के अनमोल मोती । जिनका दुनियाँ वालों की नजर में कोई मोल नहीं होता ।
- मैं वचन देती हूँ पापा । वह आँसुओं से भरा चेहरा उठाकर रोते हुये बोली - मैं आज के बाद इससे कभी न मिलूँगी । लेकिन भगवान के लिये इस पर दया करो । इसे छोङ दो ।..लेकिन । अचानक वह आँसू पोंछकर उसकी आँखों में आँखें डालकर दृढ स्वर में बोली - यदि इसे कुछ हो गया । तो फ़िर मैं खुद को भी गोली मार लूँगी ।
जोरावर के बेहद सख्त चेहरे पर क्रूरता के भाव आये । उसने पंछी को इशारा किया । वह जीत की मुस्कान लिये रुक गया । फ़िर जोरावर ने झटके से उसका हाथ थामा । और लगभग घसीटता हुआ वहाँ से ले जाने लगा । उसका चेहरा फ़िर आँसुओं से भर उठा । और उनके साथ घिसटती हुयी वह बारबार मुढ कर विशाल को देखने लगी । जो लगभग बेहोशी की हालत में पङा दर्द से कराह रहा था ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में उङते हुये हरे हरे तोते उसको देख कर बोले ।
- कभी नहीं भूलूँगी । उसके आँसू सूख चुके थे । वह दृढता से बोली - हरगिज नहीं । मरते दम तक नहीं ।
- तू पागल हो गयी है छोरी । उसकी माँ भावहीनता से कठोर स्वर में बोली - तू मरवायेगी उस लङके को । ठाकुर उसे जीता न छोङेगा ।..मेरी बात समझ । ठाकुरों की लङकियाँ कभी प्रेम व्रेम नहीं करती । वे खूँटे से गाय की तरह बाँध दी जाती हैं । जिसके हाथ में उनकी रस्सी थमा दी जाती है । वही उसकी जिन्दगी का मालिक होता है । इसके अलावा किसी दूसरे के बारे में वे सोच भी नहीं सकती । फ़िर क्यों तू उस छोरे की जान की दुश्मन बनी है । भूल जा उसे । और नया जीवन शुरू कर ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में चमकते तारे उसको देख कर बोले ।

तुम सच ही कहते हो । वह उदासी से हँसकर बोली - नहीं भूलूँगी । नहीं भूल सकती । कभी नहीं ।
कितने बजे होंगे ? यकायक उसने सोचा । कितने भी बजे हों । उसे नींद ही कहाँ आती है । वह छत पर अकेली टहलती हुयी सुन्दर शान्त नीले आकाश में झिलमिलाते चमकते तारों को देखने लगी । जाने क्यों आज उसे आसमान पर चमकते तारों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था । बहुत अच्छा ।
- नहीं जानता । अचानक तारों के बीच से झांकता हुआ विशाल बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? वह उदास हँसी हँसती हुयी आसमान में उसकी ओर देख कर बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह बेहद प्रेम से उसको देखता हुआ बोला - शायद..इस धरती के पार । किसी नयी दुनियाँ में । वहाँ । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न हो ।
- चल पागल । अचानक वह जोर से खिलखिलाई - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
यकायक वह जोर जोर से पागलों की भांति हँसने लगी । फ़िर वह लहरायी । और चक्कर खाती हुयी छत पर गिर गयी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । चाँद जैसे उसको देख कर रो पङा ।
- हा..। अचानक वह चौंक कर उठ बैठी । उसके सीने पर हाथ रखकर किसी ने हिलाया था । उसके मुँह से चीख निकलने को हुयी । पर तभी उसने उसके मुँह पर हाथ रख दिया । रोमा का कलेजा जोरों से धक धक कर रहा था ।
रात को टहलते टहलते उसकी याद में रोते हँसते हुये वह अचानक चक्कर खाकर गिर गयी थी । और पता नहीं कितनी देर बेहोश रही थी । कई दिनों से उसने ठीक से खाना भी न खाया था । और बेहद कमजोर हो चुकी थी ।
- तुमऽऽ । वह हैरत से फ़ुसफ़ुसा कर बोली - तुम ऊपर कैसे आ गये ? भाग जाओ विशाल । वरना ये लोग तुम्हें मार डालेंगे ।
- परवाह नहीं । वह दीवाना सा उसको चूमता हुआ बोला - वैसे ही तेरे बिना कौन सा जीवित हूँ मैं । ऐसे जीने से हमारा मर जाना ही अच्छा है ।
वह बिलकुल ठीक कह रहा था । वह ही कहाँ इस तरह जीना चाहती है । उनका जीना एक दूसरे के लिये हो चुका था
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

उसके मुर्दा जिस्म में वह अचानक प्राण बन कर आया था । और खुशियाँ जैसे अचानक उस रात उसकी झोली में आ गिरी थी । जैसे भाग्य की देवी मेहरबान हुयी हो ।
- खाना । वह कमजोर स्वर में बोला - मुझसे खाना भी न खाया गया । मैं भूखा हूँ ।
उसके आँसू निकल आये । अब खाना कहाँ से लाये वो । खाना तो उसने शाम को ही फ़ेंक दिया था । और जीने में ताला लगा था । खाने का कोई उपाय ही न था । वेवशी में वह रोने को हो आयी । और अभी कुछ कहना ही चाहती थी ।
- चल । वह कुछ खोलता हुआ सा बोला - हम दोनों खाना खाते हैं । माँ ने हम दोनों के लिये पराठें बनाये हैं । बहुत सारे ।
दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम । वो भूखा उठाता अवश्य है । पर भूखा सुलाता नहीं । जलचर जीव बसे जल में । उनको जल में भोजन देता । नभचर जीव बसे नभ में । उनको नभ में भोजन देता । कहीं भी कैसी भी कठिन से कठिन स्थिति हो । वो भूखे को भोजन देता है । वो अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता । भूखा नहीं रहने देता । फ़िर दो प्रेमियों को कैसे रहने देता ?
नीबू के अचार से वो माँ की ममता के स्वादिष्ट पराठें एक दूसरे को अपने हाथ से खिलाने लगे । वो खा रहे थे । और निशब्द रो रहे थे । आँसू जैसे उनके दिल का सारा गम ही धोने में लगे थे ।
- विशाल । वह निराशा से बोली - हमारा क्या होगा ? हम कैसे मिल पायेंगे ।
- तू चिन्ता न कर । वह उसको थपथपा कर बोला - हम यहाँ से भाग जायेंगे । बहुत दूर । फ़िर हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात की रानी उसको अकेला देख कर बात करती हुयी बोली ।
- कभी नहीं । वह चंचल मुस्कान से उत्तर देते हुये बोली - कैसे भूल सकती हूँ ।
कहाँ और किस हाल में होगा वह ? उसने टहलते हुये सोचा । उस रात तब उसकी जान में जान आयी । जब दो घन्टे बाद वह सकुशल वापिस उतर कर चला गया । और कहीं कैसी भी गङबङ नहीं हुयी । पर अभी आगे का कुछ पता न था । क्या होगा ? कैसे होगा ? कोई उपाय भी न था । जिससे वह कुछ खोज खबर रख सकती थी ।
उसकी रात ऐसे ही टहलते हुये बीतती थी । उसकी माँ भाभी घर के और लोग उसकी हालत जानते थे । लेकिन शायद कोई कुछ न कर सकता था । सब जैसे अपने अपने दायरों में कैद थे । दायरे । सामाजिक दायरे । जैसे वह छत के दायरे में कैद थी ।

प्यार उसे आज कैसे मोढ पर ले आया था । प्यार से पैदा हुयी तनहाई । जुदाई से पैदा हुयी तङप । विरह से पैदा हुयी कसक । शायद आज उसे वास्तविक प्यार से रूबरू करा रही थी । वास्तविक प्यार । जिसमें लङके को सुन्दर लङकी का खिंचाव नहीं होता । लङकी को उसके पौरुषेय गुणों के प्रति आकर्षण नहीं होता । यह सब तो वह देख ही नहीं पाते थे । सोच ही नहीं पाते थे । वह तो मिलते ही एक दूसरे की बाहों में समा जाते । और एक दूसरे की धङकन सुनते । बस इससे ज्यादा प्यार का मतलब ही उन्हें न पता था ।
दैहिक वासना ने जैसे उनके प्यार को छुआ भी न था । उस तरफ़ उनकी भावना तक न जाती थी । कभी कोई ख्याल तक न आता ।
उसने उसके वक्षों पर कभी वासना युक्त स्पर्श तक न किया था । उसने कभी वासना से उसके होंठ भी न चूमे थे । उसने कभी जी भर कर उसका चेहरा न देखा था । उसकी आँखों में आँखें न डाली थी । और खुद उसे कभी ऐसी चाहत न हुयी कि वह ऐसा करे । फ़िर उनके बीच किस प्रकार के आकर्षण का चुम्बकत्व था ? जो वे घन्टों एक दूसरे के पास बैठे एक अजीब सा सुख महसूस करते थे । बस एक दूसरे को देखते हुये । एक दूसरे की समीपता का अहसास ।

मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में जागने वाली टिटहरी उससे बोली ।
- हाँ री । वह प्यार से बोली - तू सच कहती है । नहीं भूलूँगी । कभी नहीं ।
क्या अजीब होता है ये प्यार भी । क्या कोई जान पाया । उसने टहलते हुये सोचा । शायद यही होता है प्यार । जो आज उसने इस नजरबन्दी में महसूस किया । प्यार पे जब जब पहरा हुआ है । प्यार और भी गहरा गहरा हुआ है । ये दुनियावी जुल्म उसे प्यार से दूर करने के लिये किया गया था । पर क्या ये पागल दुनियाँ वाले नहीं जानते थे । इससे उसका प्यार और भी गहरा हुआ था । अब तो उसकी समस्त सोच ही सिर्फ़ विशाल पर ही जाकर ठहर गयी थी । सिर्फ़ विशाल पर ।
प्यार तो जैसे दो शरीरों का नहीं । दो रूहों का मिलन होता है । जन्म जन्म से एक दूसरे के लिये प्यासे दो इंसान । सदियों से एक दूसरी की तलाश में भटकते हुये । फ़िर कभी किसी जन्म में जब मिलते हैं । एक दूसरे को पहचान लेते हैं । और एक दूसरे की ओर खिंचने लगते हैं । और एक दूसरे के आकर्षण में जैसे किसी अदृश्य डोर से बँध जाते हैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में फ़ैली खामोशी बोली ।
- हाँ । वह शून्य 0 में देखती हुयी बोली - प्यार नहीं भुलाया जा सकता ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - आखिर तूने क्या सोचा । ऐसा कब तक चलेगा ।
- माँ ! वह उस उदास रात में छत पर टहलती हुयी भावहीन सी कहीं खोयी खोयी उसको देखते हुये बोली - शायद तुम प्यार को नहीं जानती । प्यार क्या अजीव शै है । इसे सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । प्यार की कीमत सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । जिसके दिल में प्यार ही नहीं । वो इसे कभी नहीं समझ सकते । हाँ माँ कभी नहीं समझ सकते ।
प्यार के लिये तो । वह मुँडेर पर हाथ रख कर बोली - अगर जान भी देनी पङे । तो भी प्रेमी खुशी खुशी सूली चढ जाते हैं । प्यार की ये शमा अपने परवाने के लिये जीवन भर जलती ही रहती है । पर..पर तुम दुखी न हो माँ । मुझे तुझसे और अपने बाबुल से कोई शिकायत नहीं । शायद विरहा की जलन में सुलगना हम प्रेमियों की किस्मत में ही लिखा होता है ।
मजबूर सी ठकुराइन यकायक रो पङी । उसने अपनी नाजों पली बेटी को कस कर सीने से लगा लिया । और फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी । वह दीवानी सी इस पगली मोहब्बत को चूम रही थी । उसकी फ़ूल सी बेटी के साथ अचानक क्या हुआ था । उसकी किस्मत ने एकाएक कैसा पलटा खाया था ।
- हे प्रभु ! उसने दुआ के हाथ उठाये - मेरी बेटी पर दया करना । दया करना प्रभु । इसके जीवन की गाङी कैसे चलेगी ।

छुक..छुक..छुक का मधुर संगीत गुनगुनाती रेल मानों प्यार की पटरी पर दौङते हुये मंजिल की ओर जाने लगी । किसी बुरे ख्वाव की तरह दुखद अतीत जैसे पीछे छूट रहा था । उसने खिङकी से बाहर झाँका ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । ट्रेन के साथ साथ तेजी से पीछे छूटते हुये पेङ बोले ।
- हाँ हाँ नहीं भूलूँगी । वह शोख निगाहों से बोली - कभी नहीं ।
जिन्दगी का सफ़र भी जैसे रेल की तरह उमृ की पटरी पर दौङ रहा है । गाङी दौङने लगी थी । किसी समाज समूह की तरह अलग अलग मंजिलों के मुसाफ़िर अपनी जगह पर बोगी में बैठ गये थे । रोमा के सामने ही एक युवा प्रेमी लङका खिङकी से बाहर झांकता हुआ अपने मोबायल पर बजते गीत भाव में बहता हुआ अपनी प्रेमिका की याद में खोया हुआ था - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । प्यार क्या शै है मियाँ.. प्यार की कीमत जानो । प्यार कर ले कोई उसे । तो गनीमत जानो । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । मुझे जब भी सुनाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - जिद्दी ठाकुर ने फ़ैसला किया है । तुझे शहर के मकान में रखेंगे । तू वहीं रह कर अपनी पढाई करेगी । आखिर तुझे कब तक यूँ कैद में रखें । मुझे दुख है । भगवान ने जाने क्या तेरी किस्मत में लिखा है ।
- माँ । वह भावहीन स्वर में बोली - हम प्रेमियों की किस्मत भगवान नहीं लिखते । प्रेमी स्वयं अपनी किस्मत लिखते हैं । प्रेमियों की जिन्दगी के प्रेम गृन्थ के हर पन्ने पर सिर्फ़ प्रेम लिखा होता है । एक दूसरे के लिये मर मिटने का प्रेम ।
वह ठाकुर की पत्नी थी । लेकिन उससे ज्यादा उसकी माँ थी । अपनी पगली दीवानी लङकी के लिये वह क्या करे ।
जिससे उसे सुख हो । शायद वह किसी तरह भी न सोच पा रही थी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते गाँव बोले ।
- तुम ठीक कहते हो । वह प्यार से बोली - नहीं भूलूँगी ।
न चाहते हुये भी उस विरहा गीत के मधुर बोल फ़िर उसे खींचने लगे । किस प्रेमी के दिल की तङप थी यह - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । कभी खुशबू भरे खत को सिरहाने रख कर सोती थी । कभी यादों में बिस्तर से लिपट कर खूब रोती थी । कभी आँचल भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । ये उसकी सादगी है जो । ये उसकी सादगी है जो । हमें अब भी रुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
जुदाई में याद की तङप से और भी तङपाते मधुर गीत ने डिब्बे में एक सन्नाटा सा कर दिया था । हरेक को जैसे अपना प्रेमी याद आ रहा था । लङके के चेहरे पर प्रेम उदासी फ़ैली हुयी थी । ठीक सामने बैठी सुन्दर जवान लङकी रोमा तक में उसकी कोई दिलचस्पी न थी । उसने उसे एक निगाह तक न देखा था । और अपनी प्रेमिका की विरह याद में खोया वह लगातार खिङकी से बाहर ही देख रहा था । पता नहीं इसकी प्रेमिका कहाँ थी ? उसने सोचा । और पता नहीं उसका प्रेमी कहाँ था ?
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गीत के बोलों में प्रेमियों की रूह बोली ।
- नहीं भूलूँगी । वह गुनगुनाई - मैं नहीं भूल सकती ।
दीन दुनियाँ से बेखबर वह प्रेमी नम आँखों से जैसे रेल के सहारे दौङती अधीर प्रेमिका को ही देख रहा था । दोनों की एक ही बात थी । उसकी कल्पना में प्रेमी था । और उसकी कल्पना में उसकी प्रेमिका - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम ।
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Re: कामवासना

Post by 007 »

चली आती थी मिलने के लिये । मुझे वो बहाने से । गुजरती थी कयामत । दिल पर उसके लौट जाने से । मुझे बेहद सुकूं मिलता । हाँ उसके मुस्काराने से । उतर कर चाँदनी सी जब वह । छत पर मुस्कराती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते बच्चे हाथ हिलाकर बोले ।
- ना ना । वह मुस्करा कर बोली - नहीं भाई । कैसे भूलूँगी ।
प्रेमियों को ये दुनियाँ शायद कभी नहीं समझ सकती । डिब्बे में आते जाते लोग अपनी अपनी धुन में खोये हुये थे । जैसे सबको अपनी मंजिल पर पहुँचने का इंतजार हो । शायद उनमें से बहुतों की मंजिल कुछ ही आगे आनी वाली थी । लेकिन उसकी मंजिल तक पहुँचने के लिये गाङी कैसे टेङे मेङे रास्तों पर और जायेगी । उसे पता न था । कुछ भी पता न था । वो अभी भी किसी कैदी की भांति एक जेल से दूसरी जेल में जा रही थी । लेकिन क्या सारे प्रेमियों की कहानी एक ही होती है ? फ़िर क्यों उन दोनों को ये प्रेम गीत अपना ही गीत लग रहा था । हाँ बिलकुल अपना - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना वो मेरा नाम । वो मेरा नाम । वो मेरा नाम गीतों के । बहाने गुनगुनाती थी । मैं रोता था तो वो भी आँसुओं में डूब जाती थी । मैं हँसता था तो मेरे साथ । वो भी मुस्कराती थी । वो भी मुस्कराती थी । अभी तक याद उसकी प्यार के मोती लुटाती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गाङी में चढती हुयी छात्र लङकियाँ बोली ।
- ना भई ना । वह अदा से बोली - कैसे भूलूँगी भला ।
- समय । उसकी माँ बोली - ये क्रूर समय इंसान को बङी से बङी अच्छी बुरी बात भुला देता है । मुझे उम्मीद है बेटी । समय के साथ साथ तू अपना अच्छा बुरा खुद सोच पायेगी । देख बेटी । किसी भी इंसान को उसका मनचाहा हमेशा नहीं मिलता । जिन्दगी के रास्ते बङे टेङे मेङे हैं । उतार चढाव वाले हैं । तू अभी कमसिन है । नादान है । तुझे जिन्दगी की समझ नहीं । उसकी हकीकत से तेरा अभी कोई वास्ता नहीं ।
जिन्दगी की हकीकत । क्या है जिन्दगी की हकीकत ? वह नहीं जानती थी । बस उसे प्यार की हकीकत पता थी । इस प्यार के रोग की सिर्फ़ वह अकेली तो रोगी नहीं थी । ये लङका भी था । जिसे उसी की तरह दीन दुनियाँ से कोई मतलब न रहा था । मतलब था । तो ख्यालों में मचलती अपनी हसीन प्रेमिका से - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । जहाँ मिलते थे दोनों । वो ठिकाना याद आता है । वफ़ा का दिल का चाहत का । फ़साना याद आता है कि उसका ख्वाव में आकर । सताना याद आता है । सताना याद आता है । वो नाजुक नर्म अकेली अब भी । मुझको खुद बुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रास्ते में आये शहर बोले ।
- ओ हो.. नहीं नहीं । वह उस उदास प्रेमी को देखती हुयी बोली - हाँ नहीं भूलूँगी ।
- माँ । वह बोली - मैं कोशिश करूँगी कि सबका साथ निभा सकूँ । तेरा । बाबुल का । अपने राँझे का । देख ना माँ । अगर मैं बेवफ़ाई करूँगी । तो सच्चे प्रेमी बदनाम हो जायेंगे । प्रेमियों के अमर किस्से झूठे हो जायेंगे । फ़िर एक लङका लङकी आपस में प्रेम करना ही छोङ देंगे । सबका प्रेम से विश्वास जो उठ जायेगा । तुम बताओ माँ । क्या गलत कह रही हूँ मैं ? माँ इस दुनियाँ में प्रेम ही सत्य है । बाकी रिश्ते झूठे हैं ।
अगर ये सत्य न होता । उसके दिल ने कहा । तो फ़िर इस दुनियाँ में इतने प्रेम गीत भला क्यों गूँजते । सृष्टि के कण कण में गूँजते प्रेम गीत - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । वो कालिज का जमाना मुझे नश्तर चुभोता है । और उसकी याद का सावन । किताबों को भिगोता है । अकेले में अभी मुझको । यही महसूस होता है कि जैसे आज भी..कि जैसे आज भी । कालिज में पढने रोज जाती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । उदास खामोश सूना सूना घर उससे बोला ।
- अरे नहीं । वह प्रेमियों की मन पसन्द तनहाई में विचरती हुयी बोली - नहीं भूल पाऊँगी ।
विरहा की आग ने उस प्रेमिका को जलाते हुये उसकी मोहब्बत को दीवानगी में बदल दिया था । वह पगली हो गयी थी । दीवानी हो गयी थी । समस्त प्रेमियों की आत्मा जैसे उसमें समा गयी थी । अब वह रोमा न रही थी । लैला हो गयी । हीर हो गयी । शीरी । जुलियट हो गयी । ये जुदाई । ये तन्हाई । ये सूनापन उसका साथी था । बङा ही प्यारा साथी । क्योंकि यहाँ उसकी कल्पना में बेरोक टोक उसका प्रेमी उसके साथ था । शायद यही प्रेम है । शायद यही प्रेम है ।
उसने एक बार घूम फ़िर कर पहले से ही देखे हुये अपने उस बाप दादा के घर को देखा । और नल से मुँह धोने बङी ।
तभी मुख्य दरवाजे पर दस्तक हुयी । आश्चर्य से उसने दरवाजा खोला । और फ़िर उसका मुँह खुला का खुला रह गया । दरवाजे पर विशाल खङा था । सूनी सूनी आँखों से उसे ताकता हुआ ।
- तुम । वह भौंचक्का होकर बोली ।
- जिन्दा रहने के लिये । वह बेहद कमजोर स्वर में बोला - तेरी कसम । एक मुलाकात जरूरी है सनम । हाँ रोमा । मैं तेरे साथ ही आया हूँ । उसी ट्रेन से । पर तू अकेली नहीं थी । इसलिये तेरे पास नहीं आया । मुझे पता चल गया था । ठाकुर साहब तुझे शहर भेज रहे हैं । जहाँ तेरा पुश्तैनी मकान है । फ़िर मैं यहाँ आ गया ।
और फ़िर स्वाभाविक ही वे एक दूसरे से लिपट गये । उन्होंने अब तक जो नहीं किया था । वो खुद हुआ । उनके होंठ आपस में चिपक गये । और वे एक दूसरे को सहलाते हुये पागलों की भांति चूमने लगे ।
- ये घर । रोमा बिस्तर ठीक करती हुयी उसे आराम से बैठाकर बोली - हमारी पुरानी जायदाद है । जिसका इस्तेमाल अब हमारे कारोबार के सामान आदि रखने के लिये गोदाम के रूप में किया जाता है । इसकी बन्द घर जैसी बनाबट भी किसी गोदाम के समान ही है । और इसमें सबसे अच्छी बात है । वह कमरे में एक निगाह डालकर बोली - यह तलघर । इसमें तुम आराम से छुप कर रह सकते हो । भले ही हमारे घर के लोग कभी कभी आते जाते बने रहे ।
पर दीवानों को ये सब कहाँ सुनायी देता है । वह तो अपलक उसे ही देखा जा रहा था । अपनी माशूका को । जिसे आज बहुत दिनों बाद देखने का मौका मिला था । बहुत दिनों बाद छूने का मौका मिला था । रोमा को छोङने आये
लोग उनके ट्रांसपोर्ट कारोबार आफ़िस चले गये थे । और शायद ही आज लौटते । रात को कोई नौकर भले ही आ जाता ।
शाम के चार बज चुके थे । उसने पूरी तरह से सुहागिन का श्रंगार किया था । और दरवाजा ठीक से लाक करके आराम से उसके पास तलघर में बैठी थी । आज उसने एक फ़ैसला किया था । पूरी सुहागिन होने का । आज वह अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहती थी । जिसकी विशाल को कोई ख्वाहिश न थी । पर उसको थी । और जाने कब से थी । क्या पता कल क्या हो जाये ? फ़िर उसके पास उन दोनों के मधुर मिलन की यादें तो थी । उसके मांग में सजी सिन्दूर की मोटी रेखा । माथे पर दमकती बिन्दियाँ । होंठों पर चमकती लाली । और हाथों में खनकते कंगन । उस एकदम नयी नवेली दुलहिन के लिये जैसे विवाह गीत गा रहे थे । वह खामोश तलघर उनके मधुर मिलन के इन क्षणों को यादगार बनाने के लिये जैसे बैचेन हो रहा था ।
उफ़ ! आज कितने मुद्दत के बाद यह समय आया था । जब वह अपने राँझे के सीने पर सर रख कर लेटी थी । और समय जैसे ठहर गया था । काफ़ी देर हो चुकी थी । और वह विशाल की तरफ़ से किसी पहल का इंतजार कर रही थी । पर वह उसकी पीठ सहलाता हुआ खामोश छत को देख रहा था । जैसे शून्य 0 में देख रहा हो । आखिरकार उसकी सांकेतिक चेष्टाओं से वह प्रभावित होने लगा । और उसने रोमा के ब्लाउज पर हाथ रखा ।
और तभी खट की आवाज से दोनों चौंक गये । उन्होंने घूमकर आवाज की दिशा में देखा । तलघर की सीङियों पर उसका बाप ठाकुर जोरावर सिंह एक आदमी के साथ खङा था । उसकी पत्थर सी सख्त आँखों में क्रूरता की पराकाष्ठा झलक रही थी । उसके हाथ में रिवाल्वर चमक रहा था । एक पल को रोमा के होश उङ गये । पर दूसरे ही पल उसके चेहरे पर दृढता चमक उठी ।
- तूने वचन भंग किया बेटी । वह भावहीन खुरदुरे स्वर में बोला - अब मैं मजबूर हुआ । अब दोष न दियो मुझे ।
वह बिस्तर से उठकर खङी हो गयी । और सूनी आँखों से उस प्यार के दुश्मन जल्लाद को देखने लगी । जिसके साथी के चेहरे पर हैरत नाच रही थी । यकायक उसे कुछ न सूझा । क्या करे । क्या न करे । रहम की भीख माँगे । या बेटी बाबुल से प्यार माँगे । कैसे और क्या माँगे । उस पत्थर दिल इंसान में कहीं कोई गुंजाइश ही नजर न आती थी ।
- पापा । फ़िर स्वतः ही उसके मुँह से निकला - वचन भंग हुआ । उसके लिये । मैं माफ़ी चाहती हूँ आपसे । पर ये मेरा प्यार है ।.. मैं क्या करूँ । हम दोनों एक दूजे के बिना नहीं रह सकते ।.. नहीं रह सकते बाबुल । अगर मारना ही है । तो उसको मारने से पहले मुझे मारना होगा । हम साथ जीयेंगे । साथ मरेंगे । और ये उस लङकी की आवाज है । जिसकी रगों में आपके ही खानदानी ठाकुर घराने का खून दौङ रहा है । हमारे जिस्म मर जायेंगे । पर हमारी मोहब्बत कभी नहीं मरेगी ।..पापा मैं तो आपकी बेटी ही हूँ । वह भर्रायी आवाज में बोली - आपने ही मुझे जन्म दिया बाबुल । आपकी ही गोद में खेलकर बङी हुयी हूँ । आप ही मार भी दोगे । तो क्या दुख । कैसा दुख ।
वाकई आज ये एक कमजोर लङकी की आवाज नहीं थी । ये मोहब्बत की बुलन्द आवाज थी । उसकी आवाज उस जालिम की आवाज को भी कमजोर कर रही थी । उसमें एक चट्टानी मजबूती थी । उसमें ठाकुरों के खून की गर्मी थी । जोरावर का रिवाल्वर वाला हाथ कांप कर रह गया ।
इतना सस्ता भी नहीं होता । दो इंसानों का जीवन । मारने का ख्याल करना अलग बात है । और मारना अलग बात । क्रोध में अँधा होकर क्या करने जा रहा था वह ? उसने सोचा । आखिर क्या गलती की उसकी मासूम बेटी ने ? जोरावर ये क्या अनर्थ करने जा रहा है तू । उसका कलेजा कांप कर रह गया । अन्दर ही अन्दर वह कमजोर पङने लगा ।
खुद ब खुद उसके दिमाग में उसके नन्हें बचपन की रील चलने लगी । जब वह अपनी फ़ूल सी बेटी को एक कंकङ चुभना भी बरदाश्त नहीं कर सकता था । वह अपनी ही गलती से गिर जाती थी । और वह आग बबूला होकर तमाम नौकरों को कोङे मारता था । आखिर मेरी बेटी गिरी तो गिरी क्यों । क्यों ? उसके मुँह से निकली बात आधी रात को भी पूरी की जाती । उसकी एक मुस्कान के लिये वह हीरे मोती लुटा डालता । कितने ख्वाव थे उसके । उसको अपने हाथों डोली में विदा करने के मधुर ख्यालों में वह कितनी बार रोया । और आज । आज क्या हो गया उसे ? अगर उसकी बेटी ने अपने सपनों का राजकुमार खुद चुना था । तो इसमें कौन सा आसमान टूट गया था । नहीं । वह ऐसा कभी नहीं कर सकता कि अपनी ही राजकुमारी को अपने ही हाथों से मार डाले ।
- हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । उसके दिमाग में ठाकुरों के सख्त चेहरे अट्टाहास कर उठे - तेरी बेटी ने खानदान की नाक कटवा दी । एक गङरिया ही मिला तुझे दामाद बनाने को । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । एक पाल लङका । हा ..हा..हा ठाकुरों ! तुम्हारी औरतें बाँझ हो गयी । अब ठाकुरों की बेटियाँ ऐसी जातियों में शादियाँ करेगी । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । तेरी गर्दन नीची कर दी । इस नीच वैश्या लङकी ने । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।..अरे नहीं नहीं । ठाकुर जोरावर सिंह नहीं ।.. जोरावर गङरिया । जोरावर गङरिया ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

(¨`·.·´¨) Always

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`·.¸.·´
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