कामवासना

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Re: कामवासना

Post by 007 »

काफ़ी एक्सपर्ट लगती है आपकी भाभी । नितिन भी थोङा थोङा रस सा लेता हुआ बोला - मेरे ख्याल में ऐसी गुणवान रूपवती स्त्री का कोई विवरण न मैंने आज तक सुना । न कभी पढा ।
- एक बात बताओ । अचानक मनोज उसे गौर से देखता हुआ बोला - तुमने कभी किसी लङकी किसी औरत से प्यार किया है ?
उसने ना में सिर हिलाया । और बोला - इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं गया । शायद मेरे स्वभाव में एक रूखापन है । और इससे उत्पन्न चेहरे की रिजर्वनेस से किसी लङकी की हिम्मत नहीं पङी होगी । मनोज जैसे सब कुछ समझ गया ।
- एक बात बताओ भाभी ! मनोज हैरानी से बोला - ऐसी जबरदस्त लङकी । मीन यू । मनचले लफ़ंगों से किस तरह बची रही । और खुद तुम कभी किसी से प्यार नहीं कर पायीं । ऐसा कैसे सम्भव हो सका ?
पदमिनी पदमा ने एक गहरी सांस ली । जैसे उसकी दुखती रग को किसी ने छेङ दिया हो ।
- अभी क्या बोलूँ मैं । वह माथे पर हाथ रख कर बोली - पहले बताया तो था । उसकी वजह से तो ये पूरा लफ़ङा ही बना है । वरना आज कहानी कुछ और ही होती । फ़िर उसे या मुझे रोज रोज नयी नयी कहानी क्यों लिखनी होती ? अजीव पागल था । मुझ साक्षात रूप की रानी में उसकी कोई दिलचस्पी ही न थी । अदृश्य के चक्करों में ही पङा रहता ।.. हाय राजीव ! तुमने ऐसा क्यों किया ? मेरा रूप जवानी एक बार तो देखा होता ।..अब मैं क्या करती । वो फ़िर साधु हो गया ।
- ले लेकिन । वह बोला - किसी एक के न होने से क्या होता है । बहुत से सुन्दर हेल्दी छोरे आपके आगे पीछे घूमते ।
- मनोज ! एकाएक वह सामान्य स्वर में बोली - तुम किसी लङकी का दिल नहीं समझ सकते । कोई भी लङकी अपने पहले प्यार को कभी नहीं भूल पाती । उसका तिरस्कार करने उपेक्षा करने वाले प्रेमी के लिये फ़िर उसकी एक जिद सी बन जाती है । तब मेरी भी ये जिद बन गयी कि मैं उसे अपना प्यार मानने पर मजबूर कर दूँगी । पर करती तो तब ना । जब वह सामान्य आदमी रहता । वह तो साधु ही बन गया । तब बताओ । मैं क्या करती । साधुओं के आगे पीछे घूमती क्या ? फ़िर भी वो मेरे दिल से आज तक नहीं निकला ।

कैसी अजीव उलझन थी । अगर वह इसको कोई केस मानता । कोई अशरीरी रूह प्रयोग मानता । तो फ़िर उसकी शुरूआत भी नहीं हुयी थी । देवर भाभी सम्बन्ध पर मनोबैज्ञानिक मामला मानता । तो भी बात ठीक ठीक समझ में नहीं आ रही थी । उसे अब तक यही लगा था कि एक भरपूर सुन्दर और जवान युवती देवर में अपने वांछित प्रेमी को खोज रही है । अब कोई आम देवर होता । तो उसने देवर दूसरा वर का सिद्धांत सत्य कर दिया होता । लेकिन मामला कुछ ऐसा था । भाभी डाल डाल तो देवर पात पात । पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है ।
एक बात और भी थी । ये भाभी देवर की लोलिता टायप सेक्स स्टोरी होती । तो भी वह उसे उसके हाल पर छोङकर कब का चला गया होता । पर उसका अजीवोगरीब व्यवहार । उसके पास रहती काली छाया । उसका एड्रेस बताने का अजीब स्टायल । वह इनमें आपस में कोई मिलान नहीं कर पा रहा था । और सबसे बङी प्राब्लम ये थी कि वह शायद किसी सहायता का इच्छुक ही न था । वह किसी प्रेत बाधा को लेकर परेशान था भी या नहीं । तय करना मुश्किल था । उससे सीधे सीधे कुछ पूछा नहीं जा सकता था । और जब वह बोलता था । तो भाभी पुराण शुरू कर देता । यहाँ तक कि नितिन की इच्छा अपने बाल नोचने की होने लगी । या तो ये लङका खुद पागल था । या उसे पागल करने वाला था । उसने एक नजर फ़िर उस काली छाया पर डाली । वो भी बङी शान्ति से किसी जासूस की तरह बस उनकी बातें ही सुन रही थी । अचानक ही उसे ख्याल आया । कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी चक्र व्यूह में फ़ँसा जा रहा हो । वह खुद को होशियार समझ रहा हो । जबकि ये दोनों उसे पागल बनाकर कोई मोहरा आदि बना रहे हों । वह तेजी से समूचे घटना कृम पर विचार करने लगा । तब एकाएक उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी । और फ़िर ।
- देखिये मनोज जी ! वह सामान्य स्वर में वोला - एक बात होती है । जैसे हर युवा होती लङकी को स्वयँ में ही खास सुन्दरता नजर आती है । उसे लगता है वह कुछ खास है । और सबकी निगाह बस उसी पर रहती है ।

पर ये सच नहीं होता । लोगों को वह लङकी नहीं । उसमें पैदा हो चुका सेक्स आकर्षण प्रभावित करता है । एक तरह से इसको मानसिक सम्भोग भी कह सकते हैं । और सामान्यतयाः ये हरेक स्त्री पुरुष करता है । फ़िर वह विवाहित हो । या शादीशुदा । वृद्ध । अधेङ । जवान हो । या किशोर । काम भावना वह जन्म के साथ लेकर ही आता है । अटैच्ड ।
इसलिये मुझे नहीं लगता । आप जो भी बता रहे हैं । उसमें कुछ खास बताने जैसा है । ये बस एकान्त के वे अंतरंग क्षण हैं । जिनमें हम विपरीत लिंगी से अपनी कुछ खास भावनायें जाहिर करते हैं । आपकी भाभी सुन्दर थी । उन्हें खुद का सौन्दर्य बोध था । और इसलिये वह स्वाभाविक ही चाहती थी कि उनके रूप का जादू हरेक के सर चढकर बोले । अतः इसमें कुछ अजीव नहीं । कुछ खास नहीं ।
- हाँ ! वह कुछ ठहर कर उसका चेहरा पढता हुआ सा बोला - एक बात है । जो अलग हो सकती है । आपकी भाभी में काम भावना सामान्य से बेहद अधिक हो । और वह आपके भाई से पूर्ण सन्तुष्टि न पाती हों । या उन्हें अलग अलग पुरुषों को भोगना अच्छा लगता हो । और इस स्तर पर वह अपने आपको अतृप्त महसूस करती हो । यस अतृप्त । अतृप्प्त ।
मनोज के चेहरे पर जैसे भूचाल नजर आने लगा । वह एक झटके से उठकर खङा हो गया । उसने नितिन का गिरहबान पकङ लिया ।
और दांत पीसता हुआ बोला - हरामजादे । क्या बोला तू ? अतृप्त ।

नितिन के मानों छक्के ही छूट गये । उसे ऐसी कतई उम्मीद ही न थी । वह एकदम हङबङा कर रह गया । मनोज ने तमंचा निकाला । और उसकी तरफ़ तानता हुआ बोला - मैं तुझे बुलाने गया था कि सुन मेरी बात ? फ़िर तूने मेरी भाभी को अतृप्त कैसे बोला । प्यासी । प्यासी औरत । वासना की भूखी ? हरामजादे ! मैं तेरा खून कर दूँगा ।
वह चाहता । तो एक भरपूर मुक्के में ही इस नशेङी को धराशायी कर देता । उसकी सब दादागीरी निकाल देता । पर इसके ठीक उलट उसने अपना कालर छुङाने की कोशिश भी नहीं की । मनोज कुछ देर उसे खूँखार नजरों से देखता रहा ।
फ़िर बोला - बता कौन ऐसा है । जो अतृप्त नहीं है । तू मुझे सेक्स से तृप्त हुआ एक भी आदमी औरत बता । तू मुझे धन से तृप्त हुआ एक भी आदमी औरत बता । तू मुझे सभी इच्छाओं से त्रुप्त हुआ एक भी बन्दा बता । फ़िर तू ही कौन सा तृप्त है ? कौन सी प्यास तुझे यहाँ मेरे पास रोके हुये है । साले मैंने कोई तुझसे मिन्नते की क्या ? बोल बोल ? अब बोल । अतृप्त ।
- मनोज ! यदि तुम ऐसा सोचते हो । पदमा अपनी हिरनी जैसी बङी बङी काली आँखों से उसकी आँखों में झांक कर बोली - कि मैं तुम्हारे भाई से तृप्त नहीं होती । तो तुम गलत सोचते हो । दरअसल वहाँ त्रुप्त अतृप्त का प्रश्न ही नहीं है । वहाँ सिर्फ़ रुटीन है । पति को यदि पत्नी शरीर की भूख है । तो पत्नी उसका सिर्फ़ भोजन है । वह जब चाहते हैं । मुझे नंगा कर देते हैं । और जो जैसा चाहते हैं । करते हैं । मैं एक खरीदी हुयी वैश्या की तरह मोल चुकाये पुरुष की इच्छानुसार आङी तिरछी होती रहती हूँ ।
तुम यकीन करो । उन्हें मेरे अपूर्व सौन्दर्य में कोई रस नहीं । मेरे अप्सरा बदन में उन्हें कोई खासियत कभी नजर ही नहीं आती । उनके लिये मैं सिर्फ़ एक शरीर मात्र हूँ । घर की मुर्गी । जो किसी खरीदी गयी वस्तु की तरह उनके लिये मौजूद रहता है । अगर समझ सको । तो मेरे जगह साधारण शक्ल सूरत वाली । साधारण देहयष्टि वाली औरत भी उस समय हो । तो भी उन्हें बस उतना ही ? मतलब है । उन्हें इस बात से फ़र्क नहीं । वह सुन्दर है । या फ़िर कुरूप । उस समय बस एक स्त्री शरीर । यही हर पति की जरूरत भर है । और मैं उनकी भी गलती नहीं मानती । उनके काम व्यवहार के समय मैं खुद रोमांचित होने की कोशिश करूँ । तो मेरे अन्दर कोई तरंगे ही नहीं उठती । जबकि हमारी शादी को अभी सिर्फ़ चार साल ही हुये हैं ।
- एक सिगरेट .सिगरेट । मनोज नदी की तरफ़ देखता हुआ बोला - दे सकते हो ।
खामोश से खङे उस बूढे पीपल के पत्ते रहस्यमय ढंग से सरसरा रहे थे । काली छाया औरत जाने किस उद्देश्य से शान्त बैठी थी । और रह रह कर बीच बीच में शमशान के उस आयताकार काले स्थान को देख लेती थी । जहाँ आदमी जिन्दगी के सारे झंझटों को त्याग कर एक शान्ति की मीठी गहरी नींद में सोने के लिये हमेशा को लेट जाता था ।
- तुमने कभी सोचा मनोज ! पदमा जैसे बैठे बैठे हुये थक कर उसके पास ही लेटती हुयी बोली
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

एक सुन्दर जवान औरत कितनी आकर्षक लगती है । रंग बिरंगे लचकते मचकते फ़ूलों की डाली जैसी । तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रसभरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस । अदाओं में रस । वाणी में रस । चितवन में रस । सर्वांग रस ही रस । सोचो । कोई एक स्थान बता सकते हो । जहाँ रस ना हो ? पूर्ण रसमय औरत । प्रकृति का मधुर संगीत औरत । देव की अनूठी कलाकृति । और वो राजीव कहता था - माया । नारी साक्षात माया । बताओ । मुझ में अखिर माया वाली क्या बात है ?
- सुनो बङे भाई ! मनोज उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - मैंने अब तक जो भी कहा । उसमें तुम ऐसा एक भी शब्द बता सकते हो । जो झूठा हो । असत्य हो । जिसकी बुनियाद न हो । इसीलिये मैं कहता हूँ । ये दुनियाँ साली एक पाखण्ड है । एक झूठ रूपी बदबू मारते कूङे का ढेर । ये जिस जीने को जीना कहती है । वह जीना जीना नहीं । एक गटर लाइफ़ है । जिसमें बिजबिजाते कीङे भी अपने को श्रेष्ठ ही समझते हैं ।
जैसे ठीक उलटा हो रहा था । खरबूजा छुरी को काटने पर आमादा था । वह उसका इलाज करना चाहता था । यह लङका खुद उसका इलाज किये दे रहा था । उसकी सोच झटका सा खाने लगी थी । उसकी विचार धारा ही चेंज हो जाना चाहती थी । और आज जिन्दगी में वह कितना वेवश खुद को महसूस कर रहा था । वह इस कहानी को बीच में अधूरा भी नहीं छोङ सकता था । और पूरी कब होगी । उसे कोई पता न था । होगी भी या न होगी । ये भी नहीं पता । उसकी कोई भाभी है । नहीं है । कहाँ है ? कैसी है । कुछ पता नहीं । देखना नसीब होगा । नहीं होगा । आगे क्या होगा । कुछ भी पता नहीं । क्या कमाल का लेखक था इसका । कहानी न पढते बनती । न छोङते बनती । बस सिर्फ़ जो आगे हो । उसको जानते जाओ ।
- लेकिन तुम औरत को कभी नहीं जान सकते मनोज । पदमा उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाती हुयी बोली - जब तक कि वह खुद न चाहे कि तुम उसे जानो । और कितना जानो । किसी औरत को ऐसा नंगा करना असंभव है । उसके पति के लिये भी । वह जिसको पूर्ण समर्पित होती है । बस उसी के लिये नंगी होती है । दूसरा उसे कोई कभी नंगी कर ही नहीं सकता ।
उसने उसका हाथ सहलाते सहलाते हुये अपने लगभग अर्धनग्न स्तन पर सटा लिया । और घुटना उठाकर मोङा ।
उसकी सिल्की मैक्सी घुटने से नीचे सरक गयी । बस फ़िर वह मुर्दा सी होकर रह गयी ।
उसकी हथेली से सटे उस दूधिया गोरे पुष्ट स्तन से निकलती ऊर्जा तरंगे मनोज के जिस्म में एक नयी अनुभूति का संचार करने लगी । वह अनुभूति जिसकी उसने आज तक कल्पना भी नहीं की थी । मात्र एक निष्क्रिय रखा हाथ स्त्री उरोज के सिर्फ़ स्पर्श से ऐसी सुखानुभूति करा सकता है । शायद बिना अनुभव के वह कभी सोच तक नहीं पाता ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ । अपने आपको । उसे आँख बन्द किये पदमा की बेहद मादक बुदबुदाती सी धीमी आवाज सुनाई दी - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
एक विधुत प्रवाह सा निरन्तर उसके शरीर में दौङता जा रहा था । उस पदमिनी के अस्फ़ुट शब्दों में एक जादू सा समाया था । वह वास्तव में ही खुद को भूलने लगा । उसे भाभी भी नजर नहीं आ रही थी । पदमा भी नजर नही आ रही थी । पदमिनी नायिका भी नहीं । कोई औरत भी नहीं । बस एक प्राकृतिक मादक सा संगीत उसे कहीं दूर से आता सा प्रतीत हो रहा था - प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
स्वतः ही उसके हाथ उंगलियाँ शरीर सब कुछ हलचल में आ गये । उसके हाथों ने मैक्सी को वक्ष से हटा दिया । और आहिस्ता आहिस्ता वह उन साजों पर सुर ताल की सरगम सी छेङने लगा ।
- आऽऽह ..आऽऽ ! उस जीते जागते मय खाने बदन से उस अंगूरी के मादक स्वर उठे - आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
- सोचो बङे भाई । वह ऊपर पीपल को देखता हुआ बोला - इसमें क्या गलत था ? कोई जबरदस्ती नहीं । यदि अच्छा न लग रहा हो । तो कहानी पढना सुनना बन्द कर सकते हो । पढना मैंने इसलिये कहा । क्योंकि ये कहानी तुम्हारे अन्दर उतरती जा रही है । इसलिये तुम मेरे बोले को लिखे की तरह सुनने द्वारा पढ ही तो रहे हो ।
- छोङो मुझे । अचानक पदमा उसे चौंकाती हुयी सी झटके से उठी । उसने जबरदस्ती उसका हाथ अपने स्तनों से हटाया । और मैक्सी के बन्द सही से लगाती हुयी बोली - ये सब गलत है । मैं तुम्हारी भाभी हूँ । ये अनैतिक है । पाप है । हमें नरक होगा ।
नितिन भौंचक्का रह गया । अजीव औरत थी । ये लङका पागल होने से कैसे बचा रहा ? जबकि वह सुनकर ही पागल सा हो रहा था । वास्तव में वह सही कह रहा था - कोई जबरदस्ती नहीं । यदि अच्छा न लग रहा हो । तो कहानी पढना सुनना बन्द कर सकते हो । और उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहानी अच्छी है । या बुरी । वह सुने । या ना सुने ।
- चौंको मत राजा ! वह अपने कजरारे नयनों से उसे देख कर बोली - अब ये मैं हूँ । तुम्हारी भाभी । पदमिनी पदमा । फ़िर वह कौन थी ? जो मादक आंहे भर रही थी । और सोचो मेरे दिलवर । ये तुम हो । लेकिन मेरे यौवन फ़लों का रस लेने वाला वह कौन था ? दरअसल ये सब हो रहा है । जो अभी हुआ । वो खुद हुआ ना । ना मैंने किया । ना तुमने किया । खुद हुआ ना । बोलो हुआ कि नहीं ?

लेकिन अब हमारे सामाजिक नैतिक बोध फ़िर से जागृत हो उठे । सिर्फ़ इतनी ही बात के लिये मुझे घोर नरक होगा । तुम्हें भी होगा । फ़िर वहाँ हम दोनों को तप्त जलती विपरीत लिंगी मूर्तियों से सैकङों साल लिपटाया जायेगा । क्योंकि मैंने पर पुरुष का सेवन किया है । और तुमने माँ समान भाभी का । और ये धार्मिक कानून के तहत घोर अपराध है । लेकिन मैं तुमसे पूछती हूँ । जब तुम मेरे स्तनों को मसल रहे थे । और मैं आनन्द में डूबी सिसकियाँ भर रही थी । तब क्या वहाँ कोई पदमा मौजूद थी । या कोई भाभी थी । तब क्या वहाँ कोई मनोज मौजूद था । या कोई देवर था । वहाँ थे सिर्फ़ एक स्त्री । और एक पुरुष । एक दूसरे में समा जाने को आतुर । प्यासे.. प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त । फ़िर हमें सजा किस बात की ? हमें नरक क्यों ?
उसे बहुत बुरा लग रहा था । ये अचानक उस बेरहम औरत ने क्या कर दिया । वह बेखुद सा मस्ती की रसधार में बहा जा रहा था । वह सोचने लगा था कि वो उसको पूर्ण समर्पित है । पर यकायक ही उसने कैसा तिलिस्मी रंग बदला था ।
- बोलो । जबाब दो मुझे । मनोज तुम जबाब दो मुझे । वह उसकी आँखों में आँखें डालकर बोली - अब कैसा लग रहा है तुम्हें ? मैंने तो तुम्हें कुछ दिया ही । तुम्हारा कूछ लिया क्या । फ़िर क्यों बैचेन हो । क्यों ऐसा लग रहा है । तुमसे यकायक कुछ छीन लिया गया । तुम्हारी चाह भटक कर रह गयी । तृप्त नहीं हुयी । क्यों अपने को अतृप्त महसूस कर रहे हो ?
- बोलो बङे भाई । मनोज बोला - है कोई जबाब ? उसने एक करारा तमाचा सा मारा था । इस दुनियाँ के कानून को । ये कानून जो मचलते जवान अरमानों का सिर्फ़ गला घोंटना ही जानता है ।
उसे एक तेज झटका सा लगा । कमाल की कहानी है । जो नियम अनुसार पूरी गलत है । पर सच्चाई के धरातल पर पूरी सही । क्या कहता वह । ये लङका और उसकी अनदेखी अपरचित नायिका भाभी मानों उसकी पूरी फ़िलासफ़ी ही बदल देना चाहते थे ।
उसे परम्परागत धारणा से उपजे अपने ही तर्क में कोई दम नजर न आया । फ़िर भी वह जिद भरे खोखले स्वर में बोला - किसी भी बात को अपने भाव अनुसार अच्छे बुरे में बदला जा सकता है । जन्मदायी माँ को । बाप की लुगाई । पिता की जोरू भी कह सकते हैं । और आदरणीय माँ भी कह सकते हैं । माँ तूने मुझे जन्म दिया । ऐसा भी कह सकते है । और तेरे और पिता की वासनामयी भूख का परिणाम हूँ मैं । ऐसा भी कह सकते हैं । ये सब अपनी अपनी जगह ठोस सत्य हैं । पर तुम कौन सा सत्य पसन्द करोगे ? एक ही बात स्थिति से बने भाव अनुसार मधुर और तल्ख दोनों हो सकती है ।
- हुँऽऽ ! मनोज ने एक गहरी सांस ली । और वह गम्भीर होकर विचार मग्न सा हो गया । उसने एक गहरा कश लगाया । और ढेर सा धुँआ बाहर निकाला ।
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Re: कामवासना

Post by 007 »

सुबह 6 बजे से कुछ पहले ही पदमा उठी । अनुराग अभी भी सोया पङा था । मनोज हमेशा की तरह खुली छत पर निकल गया था । और कच्छा पहने कसरत कर रहा था । नित्य निवृत होकर उसने अपने हर समय ही खिले खिले मुँह पर अंजुली से पानी के छींटे मारे । तो वे खूबसूरत गुलाव पर ओस की बूँदों से बने मोतियों के समान चमक उठे । वह अभी भी रात वाला झिंगोला ही पहने थी । जो स्तनों के पास से अधखुला था । उसने चाय तैयार की । और कमरे में अनुराग के पास आ गयी । पर उसकी सुबह अभी भी नहीं हुयी थी ।
उसकी सुबह शायद कभी होती ही न थी । एक भरपूर मीठी लम्बी नींद के बाद उत्पन्न स्वतः ऊर्जा और नव स्फ़ूर्ति का उसमें अभाव सा ही था । वह थका हुआ इंसान था । जो गधे घोङे की तरह जिन्दगी का बोझा ढो रहा था । वे दोनों एक ही बिस्तर पर पास पास लेटते थे । पर इस पास होने से शायद दूर होना बहुत अच्छा था । तब दिल को सबर तो हो सकता था ।
कल रात वह बेकल हो रही थी । घङी टिक टिक करती हुयी ग्यारह अंक को स्पर्श करने वाली थी । ग्यारह । यानी एक और एक । एक पदमा । एक अनुराग । पर क्या इसमें कोई अनुराग था ? वह एक उमगती स्त्री । और वह एक अलसाया बुझा बुझा पुरुष । वह हल्का हल्का सा नींद में था । घङी की छोटी सुई 54 बिन्दु पर थी । बङी सुई 45 बिन्दु पर थी । सेकेण्ड की सुई बैचेन सी चक्कर लगा रही थी ।
हर सेकेण्ड के साथ उसकी भी बैचेनी बढती जा रही थी । उसने अपनी ढीली ढाली मैक्सी को ऊपर से खोल लिया । और उससे सटती हुयी उसके सीने पर हाथ फ़ेरने लगी ।
- शऽऽ शीऽऽ ऐऽ..सुनो । वह फ़ुसफ़ुसाई । उसने हूँ हाँ करते हुये करवट बदला । और पलट कर सो गया - बहुत थका हूँ.. पद..मा । सोने.. दे ।
वह तङप कर रह गयी । उसने उदास नजर से घङी को देखा । छोटी सुई हल्का सा और सरक गयी थी । बङी सुई उसके ऊपर छाने लगी थी । फ़िर बङी सुई ने छोटी को कसकर दबा लिया । और छोटी सुई मिट सी गयी । सेकेण्ड की सुई खुशी से गोल गोल घूमने लगी । टिक टिक .. प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
कितना मधुरता आनन्द से भरा जीवन है । बारह घण्टे में बारह बार मधुर मिलन । टिक टिक .. प्यास .. प्यास .. त्रुप्त..त्रुप्त..अ� ��ृप्त ..अतृप्त
- अब उठो ना । वह उसे झिंझोङती हुयी पूर्ण मधुरता से बोली - जागो मोहन प्यारे । कब तुम्हारी सुबह होगी ? कब तुम जागोगे । देखो । चिङियाँ चहकने लगी हैं । कलियाँ खिलने लगी हैं ।
वह हङबङाकर उठ गया । उसकी आँखों के सामने सौन्दर्य की साक्षात देवी थी । उसकी बङी बङी काली आँखें अनोखी आभा से चमक रही थी । उसके अधखुले उरोज किन्हीं पक्षियों के समान घोसलों से झांक रहे थे । पतली पतली काली लटें उसके सुन्दर चेहरे को चूम रही थी । खन खन बजती उसकी चूङियाँ संगीत के सुर छेङ रही थी । उसके पतले पतले सुर्ख रसीले होठों में एक प्यास सी मचल रही थी ।
- इस तरह.. क्या देख रहे हो ? वह फ़ुसफ़ुसा कर उसको चाय देती हुयी बोली - मैं पदमा हूँ ।.. तुम्हारी बीबी ।

वह जैसे मोहिनी सम्मोहन से बाहर आया । और उसके स्तनों पर हाथ फ़ेरता हुआ बोला - सारी यार ! बङा थक जाता हूँ । कभी कभी..मैं महसूस करता हूँ । तुम्हें समय नहीं दे पाता ।
- मैं.. जानती.. हूँ । वह घुंघरुओं की झंकार जैसे मधुर स्वर में बोली - लेकिन मुझे शिकायत नहीं । बाद में ..ऐसा हो ही जाता है ।..सभी पुरुष..ऐसा ही तो करते हैं ।..फ़िर उसको सोचना कैसा ? है ना ।
- बङे भाई ! मनोज उसको सपाट नजरों से देखता हुआ बोला - उस दिन मैंने हारा हुआ पुरुष देखा । मैं नीचे उतर आया था । मेरा भाई पराजित योद्धा । हारे हुये जुआरी के समान । लज्जित सा नजरें झुकाये । उसके सौन्दर्य की चमक से चकाचौंध हो रहा था । पत्नी की जगमग जगमग आभा के समक्ष । आभाहीन पति । जबकि वह बिना किसी शिकायत के । बिना किसी व्यंग्य के । पूर्ण प्रेम भाव से ही उसे देख रही थी । उसे । जो उसका पति था । स्वामी । पतिदेव ।
- बोलो । अचानक वह जोर से चिल्लाया - इसमें क्या माया थी ? फ़िर कोई राजीव । कोई साधु । कोई धर्म शास्त्र । इस देवी समान गुण युक्त स्त्री को माया क्यों कहते हैं ? बोलो । जबाब दो । या देवी सर्वभूते । नमस्तुभ्ये । नमस्तुभ्ये । नमस्तुभ्य ।
- फ़िर क्या हुआ ? अचानक हैरतअंगेज ढंग से नितिन के मुँह से स्वतः निकल गया । इतना कि अपनी उत्सुकता पर उसे स्वयं आश्चर्य हुआ ।
मनोज ने एक नजर आसमान पर चमकते तारों पर डाली । आसमान में भी जैसे उदासी सी फ़ैली हुयी थी ।
अनुराग आफ़िस चला गया था । पदमा रसोई का सारा काम निबटा चुकी थी । ग्यारह बजने वाले थे । लेकिन रोज की भांति आज वह बाथरूम में नहीं गयी थी । बल्कि उसने एक पुरानी सी झीनी मैक्सी पहन ली थी । और हाथ में डण्डा लगा बङा सा झाङू उठाये दीवालों परदों आदि को साफ़ कर रही थी ।
- नितिन जी ! मैंने एक अजीव सी कहानी सुनी है । वह फ़िर बोला - पता नहीं क्यों । मुझे तो वह बङा अजीव सी ही लगती है । एक आदमी ने एक शेर का बच्चा पाल लिया । लेकिन वह उसे कभी माँस नहीं खिलाता था । खून का नमकीन नमकीन स्वाद उसके मुँह को न लगा था । वह सादा रोटी दूध ही खाता था । फ़िर एक दिन शेर को अपने ही पैर में चोट लग गयी । और उसने घाव से बहते खून को चाटा । खून । नमकीन खून । उसका स्वाद । अदभुत स्वाद । उसके अन्दर का असली शेर जाग उठा । शेर के मुँह को खून लग गया । उसने एक शेर दहाङ मारी और...।

पदमा बङी तल्लीनता से धूल को झाङ रही थी । वह झाङू को रगङती । फ़ट फ़ट करती । और धूल उङने लगती । कितनी कुशल गृहणी थी वो । वह उस दिन का नमकीन स्वाद भूला न था । उसके सीने की गर्माहट अभी भी उसके शरीर में रह रह कर दौङ जाती थी । वह उन अनमोल रतनों को देखने के लिये फ़िर से प्यासा होने लगा था । पर वह उसकी तरफ़ पीठ किये थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके विशाल नितम्बों को स्पर्श कर रहे थे ।
तुमने कभी सोचा मनोज ! पदमा की मधुर झंकार जैसी आवाज फ़िर से उसके कानों में गूँजी - एक सुन्दर जवान औरत कितनी आकर्षक लगती है । रंग बिरंगे लचकते मचकते फ़ूलों की डाली जैसी । तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस ।
कितना सच कहा था उसने । इस छ्लकते रस को उसने जाना ही न था । वह चित्रलिखित सा खङा रह गया । एक आवरण रहित सुन्दरता की मूर्ति । जैसे उस नाम मात्र मैक्सी के झीने पर्दे के पार थी । और तबसे बराबर उसकी उपेक्षा सी कर रही थी । उसे अनदेखा कर रही थी । वह चाह रहा था । वह फ़िर से स्नान करे । फ़िर से उसे अंगों की झलक दिखाये । फ़िर से उसकी आँखों में आँखे डाले । पर वह तो जैसे यह सब जानती ही न थी । बारबार पारदर्शी परदे की तरह हिलती ऊपर नीचे होती मैक्सी । और उसके पार खङी वो वीनस । सुन्दरता की मूरत ।
उससे ये उपेक्षा सहन नहीं हो रही थी । उसके कदम खुद ब खुद उसके पास बढते गये । वह धीरे धीरे उसके पास पहुँच गया । और लगभग सट कर खङा हो गया । उसके नथुनों से निकलती गर्म भाप पदमा की गर्दन को छूने लगी ।
- क्या हुआऽऽ । वह लगभग फ़ुसफ़ुसाई । और बिना मुङे ही रुक रुक कर बोली - क्या बात है । तुम बैचेन हो क्या । तुम्हारी कठोरता का स्पर्श.. मुझे पीछे हो रहा है । ..पूर्ण पुरुष । तुम स्त्री को आनन्दित करने वाले हो ।
- ह हाँ । उसका गला सा सूखने लगा - समझ नहीं आता । कैसा लग रहा है । शरीर में अज्ञात धारायें सी दौङ रही है । ये खुद आ तुमसे आलिंगित हुआ है..कामिनी ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ ।.. अपने आपको । वह बेहद कामुक झंकृत स्वर में बोली - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
स्वयं । स्वयं उसके हाथ पदमा के इर्द गिर्द लिपट गये । वह अपने शरीर में एक तूफ़ान सा उठता हुआ महसूस कर रहा था । उसे कोई सुध बुध न रही थी । बस तेजी से चलती सांसे ही वह सुन समझ पा रहा था । उसके हाथ स्वयं पदमा की नाभि से नीचे फ़िसलने लगे । एक मखमली दूब के रेशमी मुलायम अहसास से झंकृत होता हुआ वह बारबार जैसे ढलान पर फ़िसलने लगा ।
- आऽऽह ..आऽऽ ! उसकी खनकती आवाज में जैसे काम गीत बजा - आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।..रुको.. मत..आऽऽ ।
- औरत के हर अंग से रस टपकता है । भूतकाल के शब्द फ़िर उसके दिमाग में गूँजे - वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस ।
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: कामवासना

Post by 007 »

उसके हाथ मैक्सी के बन्द पर गये । और मैक्सी कन्धों से नीचे सरक गयी । झीने परदे के पार खङी वीनस साक्षात हो उठी । उसमें एक अजीव सी हिंसकता स्वतः जाग उठी । शेर के मुँह को खून लग गया । उसके हाथ उसके कम्पित स्तनों पर कस गये । एक ताकतवर बलिष्ट शेर । और उसके खूँखार पंजो में तङपती नाजुक बदन हिरनी । आऽऽ..मा.. प्यास .. प्यास .. त्रुप्त..त्रुप्त..अ� ��ृप्त । पदमा का वक्ष तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था । वह प्यासी नागिन की भांति कसकर उससे चिपक गयी ।
- क्यों पढ रहे हो ? ये घटिया वल्गर चीप अश्लील पोर्न सेक्सी कामुक सस्ती सी वाहियात कहानी । वह सीधे उसकी आँखों में भाव हीनता से देखता हुआ बोला - यही शब्द देते हो ना तुम । ऐसे वर्णन को । पाखण्डी पुरुष । तुम भी तो उसी समाज का हिस्सा हो । जहाँ इसे घटिया अनैतिक वर्जित प्रतिबंधित हेय मानते हैं । फ़िर क्या रस आ रहा है । तुम्हें इस कहानी में ।..गौर से सोचो । तुम उसी ईडियट सोसाइटी का अटूट हिस्सा हो । उसी मूर्ख दोगले समाज का अंग हो । जहाँ दिमाग में तो यही सब भरा है । हर छोटे बङे सभी की चाहत यही है । पर बातें उच्च सिद्धांतों आदर्श और नैतिकता की है ।
बङे भाई ! किसी मेमोरी चिप की तरह यदि ब्रेन चिप को भी पढा जा सकता । तो हर पुरुष नंगा हो जाता । और हर स्त्री नंगी । हर स्त्री की चिप में नंगे पुरुषों की फ़ाइलें ओपन होती । और हर पुरु्ष की चिप में खुलती - बस नंगी औरत । प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
वह हैरान रह गया । उसकी इस मानसिकता को क्या शब्द दे । ब्रेन वाशिंग । या ब्रेन फ़ीडिंग । या कोई सम्मोहन । या उस कयामत स्त्री का जादू । या रूप का वशीकरण । या .या स्त्री पुरुष के रोम रोम में समायी स्त्री पुरुष की अतृप्त चाहत । या फ़िर एक महान सच । महान सच । अतृप्त ।
- म..नोज..कैसा लग ..रहा है । वह कांपती थरथराती आवाज में बोली - तुम्हे..आऽऽ..तुम मुझे मारे दे रहे हो । ऊऽऽई ओऽऽ आईऽऽ ये कैसा आनन्द है ।
- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः । उसके दिमाग में भूतकाल की पदमा आकृति उभरी । साङी का पल्लू कमर में खोंसे हुये वह नजाकत से खङी हो गयी । और बोली - इनको स्वर कहते हैं । vowel । हर बच्चे को शुरू से यही सिखाया जाता है । पढाई का पहला वास्ता इन्ही से है । पर तुम इनका असली रहस्य जानते हो ? स्वर । यानी
आवाज । ध्वनि । काम ध्वनि । सीत्कार । अतृप्त शब्द । अतृप्त ।
नहीं समझे ।.. फ़िर से उसकी पतली पतली भौंह रेख किसी तीर का लक्ष्य साधते हुये कमान की तरह ऊपर नीचे हुयीं - एक सुन्दर इठलाती मदमदाती औरत के मुख से इन स्वर अक्षरों की संगीतमय अन्दाज में कल्पना करो । जैसे वह आनन्द में सिसकियाँ भर रही हो । अऽऽ । आऽऽ । इऽऽ । ईऽऽ । उऽऽ । ऊऽऽ । ओऽऽ । देखोऽ..वह महीन मधुर झनकार सी झन झन होती हुयी बोली - हर अक्षर को मीठे काम रस से सराबोर कर दिया गया है ना । सोचो । क्यों ?.. सेक्स । काम ।.. काम ही तो हमारे शरीर में बिजली सा दौङता रहता है । हाँ । जन्म से ही । पर हम समझ नहीं पाते । इन स्वर ध्वनियों में वही उमगता काम ही तो गूँज रहा है । काम । काम । सिर्फ़ काम । अतृप्त । अतृप्त ।
फ़िर इन्ही शब्दों के बेस पर व्यंजन रूप ध्वनि बनती है । क ख में अ और वासना वायु की गूंज है या नहीं । बस थोङा सा ध्यान से देखो । फ़िर इन काम स्वर और व्यंजन के मधुर मिलन से इस सुन्दर संसार की रचना होती है । गौर से देखो । तो ये पूरा रंगीन मोहक संसार इसी छोटी सी वर्णमाला में समाहित है ना

कमाल की हैं । मनोज जी आपकी भाभी भी । नितिन हँसते हँसते मानों पागल हुआ जा रहा था - आय थिंक । किसी भाषा शास्त्री किसी महा विद्वान ने भी स्वर रहस्य को इस कोण से कभी न जाना होगा । लेकिन अब मुझे उत्सुकता है । फ़िर क्या हुआ ?
आज रात ज्यादा हो गयी थी । आसमान बिलकुल साफ़ था । और रात का शीतल शान्त प्रकाश बङी सुखद अनुभूति का अहसास करा रहा था । काली छाया औरत बूढे पीपल के तने से टिक कर शान्त खङी थी । नितिन के स्त्री रहित बृह्मचर्य शरीर मन मष्तिष्क में स्त्री तेजी से घुलती सी जा रही थी । एक दिलचस्प रोचक आकर्षक किताब की तरह । किताब । जिसे बहुत कम लोग ही सही पढ पाते हैं । किताब । जिसे बहुत कम लोग ही सही पढना जानते हैं । बहुत कम ।
- लेकिन पढना । बहुत कठिन भी नहीं । पदमा अपना हाथ उसके शरीर पर घुमाती हुयी बोली - एक स्वस्थ दिमाग स्वस्थ अंगों वाली खूबसूरत औरत खुली किताब जैसी ही होती है । एक नाजुक और पन्ना पन्ना रंग बिरंगी अल्पना कल्पना से सजी सुन्दर सजीली किताब । जिसके हर पेज पर उसके सौन्दर्य की कविता लिखी है । बस पढना होगा । फ़िर पढो ।
पर उसकी हालत बङी ही अजीव सी थी । वह इस नैसर्गिक संगीत का सा रे गा मा भी न जानता था । उसे तो बस ऐसा लग रहा था । जैसे एकदम अनाङी इंसान को उङते घोङे पर सवार करा दिया हो । लगाम कब खींचनी है । कहाँ खींचनी है । घोङा कहाँ मोङना है । कहाँ सीधा करना है । कहाँ उतारना है । कैसे चढाना है । उसे कुछ भी तो न पता था । कुछ भी ।
अचानक वह मादकता से चलती हुयी बिस्तर पर चढ गयी । और आँखे बन्द कर ऐसी मुर्दा पङ गयी । जैसे थकन से बेदम हो गयी हो । वह हक्का बक्का सा इस तरह उसके पास खिंचता चला गया । जैसे घोङे की लगाम उसी के हाथ हो ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ ।.. अपने आपको । वह जैसे बेहोशी में बुदबुदाई - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
स्वयं । वह हैरान था । वह कितनी ही देर से उसके सामने आवरण रहित थी । लेकिन फ़िर भी वह उसको ठीक से देख न सका था । वह उसके अधखुले स्तनों को स्पष्ट देखता था । तब उनकी एकदम साफ़ तस्वीर उसके दिमाग
में बनती थी । वह उसके लहराते बालों को स्पष्ट देखता था । तब उसे घिरती घटायें साफ़ दिखाई देती थी । वह उसके रसीले होठों को स्पष्ट देखता था । तब सन्तरे की खट्टी मीठी मिठास उसके अन्दर स्वतः महसूस होती थी । जब वह उसको टुकङा टुकङा देखता था । तब वह पूर्णता के साथ नजर आती थी । और जब वह किताब की तरह खुद ही खुल गयी थी । तब उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । कुछ भी तो न था ।
उसने फ़िर से भूतकाल के बिखरे शब्दों को जोङने की कोशिश की - तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस ।
पर कहाँ था । कोई रस । जिनमें रस था । अब वो अंग ही न थे । कोई अंग ही न था । अंगहीन । बस हवा में फ़ङफ़ङाते खुले पन्नों की किताब । और बस वहाँ वासना की हवा ही अब बह रही थी । प्रकृति में समाई सुन्दर खिले नारी फ़ूल की मनमोहक खुशबू । जिसको वह मतवाले भंवरे के समान अपने अन्दर खींच रहा था ।
फ़िर कब वह उल्टी हुयी । कब वह सीधा हुआ । कब वह तिरछी हुयी । कब वह टेङा हुआ । कब वह उसको मसल देता । कब वह चीख उठती । कब वह उसको दबा डालता । कब वह कलाबाजियाँ सी पलटती । कब वह उसको काट लेता । कब वे खङे होते । कब लेट जाते । कब वह उसमें चला जाता । कब वह उसमें आ जाती । कब ? ये सब कब हुआ । कौन कह सकता है ? वहाँ इसको जानने वाला कोई था ही नहीं । थी तो बस वासना की गूँज । आऽऽह ..आऽऽ ! आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।..रुको.. मत..आऽऽ ।
- बङे भाई ! वह सिगरेट का कश लेता हुआ बोला - मैं अब अन्दर कहीं सन्तुष्ट था । मैं उसके काम आया था । मैं अब सन्तुष्ट था । भाई की पराजय को भाई ने दूर कर दिया था । नैतिक अनैतिक का गणित मैं भूल चुका था । खुशी बस इस बात की थी । सवाल हल हो गया था । सवाल । उलझा हुआ सवाल ।
मैंने देखा । वह अधलेटी सी नग्न ही शून्य निगाहों से दीवाल पर चिपकी छिपकली को देखे जा रही थी । जो बङी साबधानी सतर्कता से पतंगे पर घात लगाये जहरीली जीभ को लपलपा रही थी । उसकी आँखों में खौफ़नाक चमक लहरा रही थी । और उसकी आँखे अपलक थी । एकदम स्थिर । मुर्दा ।
मैं उसके पास ही बैठ गया । और बेमन से उसका स्तन टटोलता हुआ बोला - अब प्यास तो नहीं । क्यों हो कोई अतृप्त । खत्म । कहानी खत्म ।
यकायक उसके मुँह से तेज फ़ुफ़कार सी निकली । उसकी आँखें दोगुनी हो गयी । उसका चेहरा काला बाल रूखे और उलझे हो गये । उसकी समस्त पेशियाँ खिंच उठी । और वह किसी बदसूरत घिनौनी चुङैल की तरह दांत पीसने लगी ।
- मूर्ख ! वह गुर्राकर बोली - औरत कभी तृप्त नहीं होती । फ़िर तू उसकी वासना को क्या तृप्त करेगा । तू क्या कहानी खत्म करेगा ।
- बङे भाई ! वह अजीव से स्वर में बोला - मैं हैरान रह गया । वह कह रही थी ।.. कमाल की कहानी लिखी है ।
इस कहानी के लेखक ने । राजीव ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. वह भयानक स्वर में बोली - क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।
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Re: कामवासना

Post by 007 »

अब गौर से याद कर कहानी । मैंने कहा था । मैं राजीव जी से प्यार करती थी । पर वह कहता था । स्त्री माया है । ये मैंने तुझे कहानी के शुरू में बताया । मध्य में बताया । इशारा किया । फ़िर मैंने तुझ पर जाल फ़ेंका । दाना डाला । और तुझसे अलग हट गयी । फ़िर भी तू खिंचा चला आया । और खुद जाल में फ़ँस गया । मेरा जाल । मायाजाल ।.. वह फ़ूट फ़ूट कर रो पङी - राजीव जी तुम फ़िर जीत गये । मैं फ़िर हार गयी । ये मूर्ख लङका मुझसे प्रभावित न हुआ होता । तो मैं जीत.. न गयी होती ।
नितिन हक्का बक्का रह गया । देवर भाभी की लव स्टोरी के इस द एण्ड की तो कोई कल्पना ही न हो सकती थी ।
- सोचो बङे भाई । वह उदास स्वर में बोला - मैं हार गया । इसका अफ़सोस नहीं । पर तुम भी हार गये । इसका है । मैंने कई बार कहा । क्यों पढ रहे हो । इस कामुक कथा को । फ़िर भी तुम पढते गये । पढते गये । उसने जो सबक मुझे पढाया था । वही तो मैंने तुम पर आजमाया । पर तुम हार गये । और ऐसे ही सब एक दिन हार जाते हैं । और जीवन की ये वासना कथा अति भयानकता के साथ खत्म हो जाती है ।
नितिन को तेज झटका सा लगा । वह जो कह रहा था । उसका गम्भीर दार्श भाव अब उसके सामने एकदम स्पष्ट हो गया था । वह उसे रोक सकता था । कहानी का रुख मोङ सकता था । और तब वह जीत जाता । और कम से कम तब मनोज उदास न होता । पर वह तो कहानी के बहाव में बह गया । ये कितना बङा सत्य था ।
मनोज की आँखों से आँसू बह रहे थे । अब जैसे उसे कुछ भी सुनाने का उत्साह न बचा था । नितिन असमंजस में उसे देखता रहा । उसने मोबायल में समय देखा । रात का एक बज चुका था । चाँद ऊपर आसमान से जैसे इन दोनों को ही देख रहा था । काली छाया भी जैसे उदास सी थी । और अब जमीन पर बैठ गयी थी ।
चलो हार जीत कुछ हुआ । इसका भाभी पुराण तो समाप्त हो गया । उसने सोचा । और बोला - ये शमशान में तंत्र दीप ..मेरा मतलब ।
- तुम्हें फ़िर गलतफ़हमी हो गयी । वह रहस्यमय आँखों से उसे देखता हुआ बीच में ही बोला - कहानी अभी खत्म नहीं हुयी । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है ? जिसकी कहानी । वही इसे खत्म करेगा ।
लेकिन अबकी बार वह सतर्क था । एक बार जो किसी बात पर कोई पागल बन जाये । कोई बात नहीं । सबके साथ ही हो जाता है । दोबारा फ़िर उसी बात पर पागल बन जाये । चलो जानते हुये भी ठोकर लग गयी । मजबूती आ गयी । यही जीवन है । लेकिन तीन बारा फ़िर उसी बात पर पागल बन जाये । उसे पागल ही कहा जायेगा । और अब वह पागल हरगिज नहीं बनना चाहता था ।
- मनसा जोगी । वह मन ही मन बोला - रक्षा करें ।
- इसीलिये मैंने कहा था ना । तुम्हें फ़िर गलतफ़हमी हो गयी । वह एक नयी सिगरेट सुलगाता हुआ बोला - कहानी अभी खत्म नहीं हुयी । बल्कि इसे यूँ कहो । कहानी अब शुरू हुयी । रात आधे से ज्यादा हो रही है । पूरा शहर सो रहा है । और सिर्फ़ हम तीन जाग रहे हैं । तो क्या । किसी ब्लू फ़िल्म सी इस कामुक कथा का रस लेने के लिये ।
अभी वह हम तीन की बात पर चौंका ही था कि मनोज बोला - ये बूढा पीपल भी । ये पीपल भी तो हमारे साथ है ।
नितिन ने चैन की सांस ली । एक और संस्पेंस क्रियेट होते होते बचा था । लेकिन हम तीन सुनते ही उसकी निगाह सीधी उस काली छाया औरत पर गयी । जो अब भी वैसी ही शान्ति से बैठी थी । कौन थी । यह रहस्यमय अशरीरी रूह ? क्या इसका इस सबसे कोई सम्बन्ध था । या ये महज उनके यहाँ क्यों ? होने की उत्सुकता वश ही थी । कुछ भी हो । एक अशरीरी छाया को उसने पहली बार बहुत निकट से देर तक देखा था । और देखे जा रहा था ।
लेकिन कितना वेवश भी था वो । अगर मनोज वहाँ न होता । तो वह उससे बात करने की कोई कोशिश करता । एक वायु शरीर से पहली बार सम्पर्क का अनुभव करता । जो कि इस लङके और उसकी ऊँट पटांग कहानी के चलते न हो पा रहा था । एक मामूली जिज्ञासा से बढ गयी कहानी कितनी नाटकीय हो चली थी । समझना कठिन हो रहा था । और कभी कभी तो उसे लग रहा था कि वास्तव में कोई कहानी है ही नहीं । ये लङका मनोज सिर्फ़ चरस के नशे का आदी भर है ।
- नितिन जी ! अचानक वह सामान्य स्वर में बोला - अगर आप सोच रहे हैं कि मैं आपको उलझाना चाहता हूँ । और मुझे इसमें कोई मजा आता है । या मैं कोई नशा वशा करता हूँ । तो सारी । आप फ़िर गलत है । तब आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया - और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह से कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता । ..हाँ । यही सच है । अचानक ही सामान्य या खास शब्द अपने आप मेरे मुँह से निकलते हैं । यदि मैं इन्हें कहना चाहूँ । तो नहीं कह सकता ।
बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।

नितिन वाकई हक्का बक्का ही रह गया । क्या प्रथ्वी पर कोई युवती इतनी सुन्दर भी हो सकती है ? अकल्पनीय । अवर्णनीय । क्या हुआ होगा । जव यौवन विकास काल में यह लहराती पतंग की तरह उङी होगी । गुलावी कलियों सी चटकी होगी । अधखिले फ़ूलों सी महकी होगी । गदराये फ़लों जैसी फ़ूली होगी । क्या हुआ होगा ? क्या हुआ होगा । जब इसकी मादक अदाओं ने बिजलियाँ गिरायी होंगी । तिरछी चितवन ने छुरियाँ चलायी होंगी । इसकी लचक मचक चाल से मोरनियाँ भी घबरायी होंगी । इसके इठलाते बलखाते बलों से नाजुक लतायें भी आभा हीन हुयी होंगी । लगता ही नहीं । ये कोई स्त्री है । ये तो अप्सरा ही है । रम्भा । या मेनका । या लोचना । या उर्वशी । जो स्वर्ग से मध्य प्रदेश की धरती पर उतर आयी । फ़िर क्यों न इस पर श्रंगार गीत लिखे गये । क्यों न इस पर प्रेम कहानियाँ गढी गयीं । क्यों न किसी चित्रकार ने इसे केनवास पर उतारा । क्यों न किसी मूर्तिकार ने इसे शिल्प में ढाला । क्यों ? क्यों ? क्योंकि ये कवित्त के श्रंगार शब्दों । प्रेम कथा के रसमय संवादों । चित्र तूलिका के रंगो । और संगेमरमर के मूर्ति शिल्प में समाने वाला सौन्दर्य ही नहीं था । ये उन्मुक्त रसीला नशीला मधुर तीखा खट्टा चटपटा अनुपम असीम सौन्दर्य था । वाकई । वाकई वह जङवत होकर रह गया ।
पहले वह सोच रहा था । किशोरावस्था के नाजुक रंगीन भाव के कल्पना दौर से ये लङका गुजर रहा है । और इसकी काम वासना ही इसे इसकी भाभी में बेपनाह सौन्दर्य दिखा रही है । पर अब वह खुद के लिये क्या कहता ? क्योंकि पदमा काम से बनी कल्पना नहीं । सौन्दर्य की अनुपम छटा बिखेरती हकीकत थी । एक सम्मोहित कर देने वाली । जीती जागती हकीकत । और वो हकीकत । अब उसके सामने थी ।
- नितिन जी ! अचानक उसकी बेहद सुरीली मधुर आवाज की खनखन पर वह चौंका - कहाँ खो गये आप ? चाय लीजिये ना ।
- रूप । सुन्दर रूप । रूप की देवी । रूपमती । रूपमाला । रूपसी । रूपशीला । रूप कुमारी । रूपचन्द्रा । रूपवती । रूपा । रूप ही रूप । हर अंग रंगीली । हर रंग रंगीली । हर संग रंगीली । रूप छटा । रूप आभा । चारों और रूप ही रूप । किन शब्दों का चयन करे वो । खींचता रूप । बाँधता रूप । कैसे बच पाये वो । वह खोकर रह गया ।
यकायक..यकायक उसे झटका लगा - कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । राजीव ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य बस माया जाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. क्योंकि तू .. तू भी फ़ँस गया ना । मेरे माया जाल में ।
- मनसा जोगी ! वह मन ही मन सहम कर बोला - रक्षा करें ।
- अब गौर से याद कर कहानी । उसके कानों में फ़िर से भूतकाल बोला - मैंने कहा था । मैं राजीव जी से प्यार करती थी । पर वह कहता था । स्त्री माया है । ये मैंने तुझे कहानी के शुरू में बताया । मध्य में बताया । इशारा किया । फ़िर मैंने तुझ पर जाल फ़ेंका । दाना डाला । और तुझसे अलग हट गयी । फ़िर भी तू खिंचा चला आया । और खुद जाल में फ़ँस गया । मेरा जाल । माया जाल ।.. राजीव जी तुम फ़िर जीत गये । मैं फ़िर हार गयी । ये मूर्ख लङका मुझसे प्रभावित न हुआ होता । तो मैं जीत.. न गयी होती ।
उसे फ़िर झटका सा लगा । ठीक यही तो उसके साथ भी हुआ जा रहा है । उसका भी हाल वैसा ही हो रहा है । शमशान में जलते तंत्र दीप से बनी सामान्य जिज्ञासा से कहानी शुरू तो हो गयी । पर अभी मध्य को भी नहीं पहुँची । और अन्त का तो दूर दूर तक पता नहीं । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । उसने अपनी समूची एकाग्रता को केन्द्रित किया । और बङी मुश्किल से उस रूपसी से ध्यान हटाया ।
कल रात वे दोनों चार बजे लौटे थे । मनोज सामान्य हो चुका था । वह उसे उसके घर छोङ आया था । और फ़िर अपने घर न जाकर सीधा मनसा की कुटिया पर जाकर सो गया था । सुबह वह कोई दस बजे उठा ।
- इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं मेरे बच्चे । उसकी बात सुनकर मनसा कतई अप्रभावित स्वर में बोला - ये जीवन का असली गणित है । गणित । जिसके सही सूत्र पता होने पर जिन्दगी का हर सवाल हल करना आसान हो जाता है । एक सामान्य मनुष्य दरअसल तत्क्षण उपस्थिति चीजों से हर स्थिति का आंकलन करता है । जैसे कोई झगङा हुआ । तो वह उसी समय की घटना और क्रिया पर विचार विमर्श करेगा । पर ज्यों ज्यों खोजेगा । झगङे की जङ भूतकाल में दबी होगी । जैसे कोई यकायक रोगी हुआ । तो वह सोचेगा । अभी की इस गलती से हुआ । पर ऐसा नहीं । रोग की जङ कहीं भूतकाल में पनप रही होगी । धीरे धीरे ।
- मैं कुछ समझा नहीं । वह उलझकर बोला - आपका आशय क्या है ?
- हुँऽ । जोगी विचार युक्त भाव से गहरी सांस लेकर बोला - मेरे कहने का मतलब है । आज जो तुम्हारे सामने है । उसकी जङे बीज कहीं दूर भूतकाल में है । और तुम्हारे लिये अदृश्य भूमि में अंकुरित हो रहे हैं । धीरे धीरे बढ रहे हैं । मैं सीधा तुम्हारे केस पर बात करता हूँ । पदमा के रहस्य की हकीकत जानने के लिये तुम्हें भूतकाल को देखना होगा । उसकी जिन्दगी के पिछले पन्ने पलटने होंगे । अब उनमें कुछ भी लिखा हो सकता है । मगर उस इबारत को पढकर ही तुम कुछ या सब कुछ जान पाओगे । अब ये तुम पर निर्भर है कि तुम क्या कैसे और कितना पढ पाते हो ?

पर । उसने जिद सी की - इसमें पढने को अब बाकी क्या है ? पदमा 30 साल की है । विवाहित । अति सुन्दर । उसका एक देवर है । पति है । बस । वह अपने पति से न सन्तुष्ट है । न असन्तुष्ट ।..लेकिन अपनी तरुणाई में वह
किसी राजीव से प्यार करती थी । मगर वह साधु हो गया । बस अपने उसी पहले प्यार को वह दिल से निकाल नहीं पाती । क्योंकि कोई भी लङकी नहीं निकाल पाती ।.. और शायद उसी प्यार को हर लङके में खोजती है । क्योंकि पति में ऐसा प्रेमी वाला प्यार खोजने का सवाल ही नहीं उठता । पति और प्रेमी में जमीन आसमान का अंतर होता है ।..इसके लिये वह किसी लङके को आकर्षित करती है । उसे अपने साथ खेलने देती है । यहाँ तक कि काम धारा भी बहने लगती है । यकायक वह विकराल हो उठती है । और तब सब सौन्दर्य से रहित होकर वह घिनौनी और कुरूप हो उठती है । उसकी मधुर सुरीली आवाज भी चुङैल जैसी भयानक विकृत हो उठती है । अब रहा उस तंत्र दीप का सवाल । कोई साधारण आदमी भी जान सकता है । वह कोई प्रेतक उपचार है । कोई रूहानी बाधा । बस एक रहस्य और बनता है । वह काली छाया औरत । लेकिन मुझे वह भी कोई रहस्य नहीं लगती । वह वहीं शमशान में रहने वाली कोई साधारण स्त्री रूह हो सकती है । जो उस वीराने में हम दोनों को देखकर महज जिज्ञासा वश आ जाती होगी । क्योंकि उसने इसके अलावा कभी कोई और रियेक्शन नहीं किया । या शायद इंसानी जीवन से दूर हो जाने पर उसे दो मनुष्यों के पास बैठना सुखद लगता हो ।
- शिव शिव । मनसा आसमान की ओर दुआ के अन्दाज में हाथ उठाकर बोला - वाह रे प्रभु ! तू कैसी कैसी कहानी लिखता है । मेरे बच्चे की रक्षा करना । उसे सही राह दिखाना ।
- सही राह । उसने सोचा । और बहुत देर बाद एक सिगरेट सुलगायी - कहाँ हो सकती है । सही राह । इस घर में । पदमा के पीहर में । या अनुराग में । या उस राजीव में । या फ़िर कहीं और ?
एकाएक फ़िर उसे झटका सा लगा । उसे सिगरेट पीते हुये पदमा बङे मोहक भाव से देख रही थी । जैसे उसमें डूबती जा रही हो । सिगरेट का कश लगाने के बाद जब वह धुँये के छल्ले छोङता । तो उसके सुन्दर चेहरे पर स्मृति विरह के ऐसे आकर्षक भाव बनते । मानों उन छल्लों में लिपटी हुयी ही वह गोल गोल घूमती उनके साथ ही आसमान में जा रही हो । वह घबरा सा गया । उसकी एक दृष्टि मात्र से घबरा गया । ऐसे क्या देख रही थी वह । क्यों देख रही थी वह ?
- राजीव जी भी ! वह दूर अतीत में कहीं खोयी सी बोली - सिगरेट पीते थे । मुझे उन्हें सिगरेट पीते देखना बहुत अच्छा लगता था । तब मैं महसूस करती थी कि सिगरेट की जगह मैं उनके होंठों से चिपकी हुयी हूँ । और हर कश के साथ उनके अन्दर उतर रही हूँ । उतरती ही जा रही हूँ । मेरा अस्तित्व धुँआ धुँआ हो रहा है । और मैं धुँआ के छल्ले सी ही गोल गोल आकाश में जा रही हूँ ।
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !

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