मनोहर कहानियाँ

Jemsbond
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‘‘हवस का शिकारी’’


दिव्या उम्र के 17वें पड़ाव पर पहुंच गई थी। उसका निखरता हुआ शरीर इस बात की सूचना दे रहाथा कि वह जवानी की दहलीज में कदम रख चुकी है। दिव्या का जितना प्यारा नाम था, उतना ही खूबसूरत चेहरा भी था। गोरा रंग होने के साथ-साथ उसके चेहरे पर एक अजीब सी कशिश थी, जो किसी को भी उसका दिवाना बना देती थी। हसमुख होने के कारण वह सहज लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाया करती थी।
सत्रह बसन्त पार कर लेने के बाद अब दिव्या उम्र के उस नाजुक दौर में पहुंच चुकी थी, जहां युवतियों के दिल की जवान होती उमंगे, मोहब्बत के आसमान पर बिना नतीजा सोचे उड़ जाना चाहती है। ऐसी ही हसरतें दिव्या के दिल में भी कुचांले भरने लगी थी, पर उम्र के इस पायदान पर खड़ी दिव्या ने अभी तक किसी की तरफ नजर भरकर देखा तक नही था।
यूं तो दिव्या बचपन से ही महत्वाकांक्षी थी। लिहाजा वह पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह घर का काम-काज भी मेहनत और लगन से किया करती थी, पर हाईस्कूल करने के बाद अचानक घर पर काम की अधिकता के चलते उसे स्कूल जाने का समय नही मिल पाता था। लिहाजा उसके पिता ने घर पर ही उसके शिक्षा का प्रबंध कर उसकी इंटर की परीक्षा उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा परिशद बोर्ड से दिलवाने का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में अपने बहन-बहनोई से राय-मशवरा कर चंदौली जनपद से इण्टर का फार्म भरवा दिया।
वक्त बीतता रहा, वक्त के साथ ही नजदीक आ गई। परीक्षा देने के लिए वह सप्ताह भर पहले पटना से वाराणसी अपनी बुआ रजनी के यहां आ गई और मन लगा कर परीक्षा की तैयारी करने में जुट गई। दिव्या की बुआ के पति डाँक्टर हैं। उन्होंने वाराणसी में अपना भव्य व आलीशान मकान बनवा रखा है।
दिव्या जब अपने बुआ के घर आई तो घर में रंग-रोगन का काम चल रहा था । काम ठेकेदारी से करवाया जा रहा था। काम का ठेका रामनाथ ने ले रखा था। उसी के दिशा-निर्देश पर घर की रंगाई-पुताई की जाती थी। रंगाई-पुताई के लिए रामनाथ ने 3-4 कारीगर रखे थे, उन्ही में एक कारीगर संजय भी था।
25 वर्षीय संजय कुछ दिनों से वह राजनाथ के साथ ही था। संजय काम करने में तो मेहनती था पर शुरू से ही वह मनचला प्रवृत्ति का था। जब भी कोई हसीन व जवान लड़की उसके पास से गुजरती तो उसका मन उसे पाने के लिए लालायित हो जाता था। काम करने के दौरान भी अगर कोई लड़की उसे अकेले मिल जाती थी तो वह जबरन उसे अपनी हवस का शिकार बना लेता था। लड़की शर्म बस इस बात को उजागर नही करती थी। इसके चलते उसका हौसला काफी बढ़ चुका था।
दिव्या की बुआ के यहां भी वह ठेकेदार राजनाथ के आदमी के रूप में काम कर रहा था। पहली बार जब उसने दिव्या को देखा तो उसे पाने के लिए लालायित रहने लगा था। पर काम के दौरान दिव्या की बुआ वअन्य कारीगर भी होते थे, लिहाजा वह मन मारकर रह जाता और उचित मौके की तलाश में रहने लगा। संयोग से उसे एक दिन मौका मिल ही गया।
अचानक एक दिन किसी कारण बस अन्य कारीगर काम पर नही आए तो संजय अकेले ही रंग-रोगन का काम करने लगा। उस दिन वह किचन के आस-पास ही रंगाई-पुताई कर रहा था। लगभग 9 बजे दिव्या की बुआ के पति अपनी क्लीनिक पर चले गए। उनके बच्चे भी पढ़ने के लिए स्कूल जा चुके थे। अब घर पर दिव्या व उसकी बुआ ही रह गयी थी। दिव्या अपने कमरे में बैठी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। लगभग एक बजे चौका बर्तन करने वाली आ गई थी, अचानक थोड़ी देर बाद रजनी को याद आया कि आज उसे कैंट स्थित पोस्ट आफिस में पैसा जमा करना जरुरी है। तब वह उठती हुई बोली, ‘‘दिव्या…’’
‘‘जी बुआ…’’
‘‘मै जरा पोस्टआफिस पैसा जमा कर आती हूँ।’’
प्रतीक चित्र
दिव्या कुछ बोल पाती इससे पहले ही रजनी पासबुक आदि लेकर घर से निकल गई। उन्होंने सोचा था जब तक बाई काम कर रही है, वह वापस लौट आएगी। लेकिन उनके आने से पहले ही बाई अपना काम निपटाकर चली गई, तो दिव्या घर में अकेली हो गई। दिव्या को अकेली देख संजय के मन में पहले से बैठा शैतान जाग उठा और वह दिव्या को अपनी हवस का शिकार बनाने का मन बना काम से अपना हाथ रोकते हुए आवाज लगाई, ‘‘दीदी… प्यास लगी है, जरा एक ग्लास पानी तो देना…..’’
संजय की आवाज सुनकर दिव्या ने अपनी पढ़ाई रोक दी और शीशे के एक ग्लास में पानी लेकर संजय के पास आ गई। जैसे ही दिव्या ने पानी देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो संजय ने उसकी कलाई पकड़ लिया। संजय के इस कृत्य से दिव्या घबरा गई और उसके हाथ से पानी का ग्लास छूट कर गिर गया। इस बौखलाहट में वह कुछ सोच-समझ पाती कि अचानक संजय ने उसे दबोच कर फर्श पर गिरा दिया। दिव्या बचाव के लिए हाथ पांव मारती रही, पर संजय कहां मानने वाला था। वह दिव्या के नाजुक अंगों से छेड़छाड़ करते हुए उसे वस्त्रविहीन करने लगा तो दिव्या गिड़-गिड़ा उठी, लेकिन संजय पर तो जैसे भूत सवार हो चुका था।
संजय की हैवानियत रूकते न देख दिव्या के मुंह से चीख निकल गई। चीख सुन संजय हैवान बन गया और एक हाथ से उसका मुंह दबा कर उसे आवरण विहीन कर दिया और उसके उरोजो को बेदर्दी से मसलते हुए उसके उपर छा गया। दिव्या दर्द से छटपटती रही पर संजय को इससे कुछ लेना देना नही था,उसे तो बस अपने जिस्म की प्यास बुझाने से मतलब था। वह तभी उठा जब उसके जिस्म का सारा लावा उबलकर बाहर आ गया
संजय जब अपने हवस की प्यास बुझाकर उठा तब तक दिव्या बेहोश हो चुकी थी। यह देख संजय घबरा गया और अपने बचने का उपाय सोचने लगा अचानक वही पास पड़े ईंट से दिव्या पर वार करने लगा और तब तक वार करता रहा जब तक दिव्या की मौत नही हो गई। फिर वही पास में पड़े लोहे के एक बड़े बक्से में शव छिपाने के बाद काम में जुटा ही था कि दिव्या की बुआ आ गई। घर में दिव्या को न देख कर संजय से पूछातो उसने टाल-मटोल सा जवाब दे दिया और फरार होने का बहाना ढूढ़ता रहा। रजनी दिव्या के मिलने तक उसे रूके रहने को कह पति को दिव्या के गायब होने की जानकारी दे दी ।
दिव्या की खोज होती रही अचानक कौतूहल बस रजनी ने बक्सा खोला तो उसमें से उठ रही गंध से वह शंकित हो रजाई आदि निकालने लगी। इसी बीच लघुशंका का बहाना कर संजय फरार हो गया। दिव्या का शव मिलने पर किसी ने पुलिस को खबर कर दिया। संजय पकड़ा गया तो उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया तब पुलिस ने हवस के इस शिकारी को जेल भेज दिया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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‘‘भाई-बहन के अनैतिक प्यार की कहानी’’

यौवन के व्रक्ष पर खूबसूरती के फूल खिले हो तो मंजर किसी कयामात से कम नही होता। यही हाल था मीना का, यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार यौवन की बहार में कदम रखा तो उसकी खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी।
वह आईना देखती तो जैसे आईना भी खुद पर गर्व करता। उसकी सांस थम जाती और वह दुनिया में खूबसूरती के उदाहरण चांद को भी नसीहत दे डालता, ‘‘ऐ चांद, खुद पर न कर इतना गुरूर। तुझ पर तो दाग है। मगर मेरे वजूद में जो चांद सिमटा है, वह बेदाग है।’’
मीना मुस्कराती तो लगता जैसे गुलाब का फूल सूरज की पहली किरण से मिलते हुए मुस्करा रहा है। अक्सर उसकी सहेलियां इस पर उसे टोक देतीं, ‘‘ऐसे मत मुस्कराया कर मीना, अगर किसी मनचले भंवरे ने देख लिया तो बेचारा जान से चला जाएगा।’’
वक्त गुजरता रहा इसी बीच एक दिन मीना रात में बाथरूम के लिए उठी तो उसने लाइट जलाई। बाथरूम करके जब वह वापस आई तो अनायास शंकर पर उसकी नजर पड़ी। शंकर उसका भाई है। वह टांगे पसारकर बेसुध सोया था और उस समय उसके शरीर पर सिर्फ एक जांघिया था।
मीना उसे एक-दो पल देखती रही तो उसके जिस्म में सिर से पांव तक एक झुरझुरी सी दौड़ने लगी। ऐसा अनुभव उसे पहले कभी नहीं हुआ था। उसके लिए यह बड़ा मीठा और अकल्पनीय अनुभव था। पता नही क्यों, मीना को शंकर की खुली टांगे अच्छी लगने लगी। वह एकटक उसकी मांसल टांगो के इर्द-गिर्द अपनी नजर फिराती रही तो उसके शरीर में दौड़ने वाली वह मीठी-सी झुरझुरी बढ़ती ही चली गयी।
मीना के विवेकी मन ने उसे एक झटका-सा दिया, नहीं यह सब गलत है, तुम अपने भाई को गलत नजर से देख रही हो। पर तभी उसके इस विचार को उसके अविवेकी मन ने दबा दिया। वह संज्ञा शून्य-सी होने लगी। उसे लगा कि वह अपना संयम खोती जा रही है।
किशोरावस्था की यह विडंबना होती है कि जो विचार मन में उठता है। वह किसी ज्वार की तरह उठता है। वह सही-गलत, आगे-पीछे कुछ नहीं देखता। बस अपनी उफनती चाल में सब कुछ बहा ले जाता है।
मीना भी किशोर मन के कुविचार के एक बवंडर में आ फंसी थी। अब उसे अपना भाई शंकर नहीं दिखाई पड़ रहा था, बल्कि उसकी जगह यौवन से खिला एक पुरूष शरीर दिखाई पड़ रहा था। बस यही वह समय था, जब मीना के मन में आये कुविचार ने उसके अंदर एक तूफान मचा दिया। एक ऐसा तूफान जो सारी हदों-मर्यादाओं और रिश्तों को उखाड़ फेंकने पर आमादा हो गया।
मीना अब खलिस मीना नहीं रही थी । वह उस विरह-पीडि़त हिरणी की तरह हो गयी थी जिसके काम का ताप उसके शरीर को झुलसाता-तड़पाता रहा और मन भटकता रहता है। मीना भी अब पूरी तौर पर भटक चुकी थी।
मीना शंकर की अधखुली देह को निहारते-निहारते वहीं बैठ गयी। फिर उसके हाथ ने हरकत की और वह शंकर की चिकनी टांग पर फिसलने लगा। शंकर अब भी नींद में बंसुध पड़ा था। कुछ ही देर मे मीना का हाथ कुछ आगे बढ़कर शंकर के पुरुषांग पर पहुंच गया। मीना की अंगुलियां जब उस पर फिरने लगीं तो शंकर की छठी इंद्रिय जागी और उसकी नींद उचट गयी।
आंख खुली तो शंकर ने अपनी दीदी को अजीब हरकत करते देखा। वह एक झटके में उठ बैठा और बोला, ‘‘यह क्या कर रही हो?’’
‘‘चुप रहो, दीपक सुन लेगा।’’ मीना ने उसे हौले से झिड़की दी और अपनी हरकत जारी रखी।
शंकर भी किशोर उम्र की पगडंडी से गुजर रहा था। उसके तन-मन में भी भूचाल आने लगा और फिर कुछ देर में ही उसके सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे गयी। उसे अब न केवल मीना की हरकत अच्छी लगने लगी बल्कि उसके हाथ भी मीना के कोमल जिस्म में फिसलने लगे।
इसके बाद तो उस अंधेरी रात में वे दोनो एक ऐसा गुनाह कर बैठे, जिसने भाई-बहन के पवित्र रिश्तें को जलाकर खाक कर दिया।
एक बार उन दोनों ने पाप के कुंड में डुबकी क्या लगायी कि अब हर रात उनका मन यह सब करने को मचलने लगा। हर रात वे भाई-बहन के पाक रिश्तें की होली जलाकर उसे नापाक करते रहे। लेकिन अब तक परिवार में उनके शर्मनाक संबंधों की भनक किसी को भी नही लग पाई थी।
वक्त गुजरता रहा इसी बीच एक दिन रात मे जब दोनों भाई-बहन अपने पवित्र रिश्तें को कलंकित करने के अभियान में तल्लीन थे, तभी पानी पीने के लिए कमरे से बाहर आई मीना की मां मेनका ने मीना की सिसकारियां सुन ली। उसने बच्चों के कमरे में आकर जब लाइट जलाई तो वहां का शर्मनाक मंजर देखकर उनकी आंखें फटी रह गयीं।
मां द्वारा रंगे हाथ पकड़े जाने से दोनों एक-दूसरे से अलग हो गये और कपड़े पहनने लगे।
कुछ देर तक तो मेनका को जैसे काठ मार गया, और उसका क्रोध सातवें आसमान में जा पहुंचा, ‘‘निर्लज्जों, तुम दोनों ने इस दुनिया का सबसे बड़ा पाप किया है। तुम्हारा यह पाप यह धरती न जाने कैसे झेल पाई। तुम्हारा यह घिनौना गुनाह देखकर आसमान क्यों नही फटा, और तुम्हारा यह पाप देखकर मेरी कोख में कीड़े क्यों नही पड़ गये।’’
‘‘हमें माफ कर दो मम्मी, हमसे गलती हो गई।’’ मीना ने सिर झुकाते हुए कहा।
‘‘गलती… अरे इस गलती को तो भगवान भी माफ नहीं करेगा। होने दो सुबह, तुम्हारे पापा को सब कुछ बताऊॅगी मैं। कल लोग जब यह जानेंगे कि तुम दोनों ने भाई-बहन के पवित्र रिश्तें पर थूककर मुंह काला किया है, तो वे तुम जैसे भाई-बहन को जन्म देना ही बंद कर देंगे।’’ फिर मेनका अपने कमरे में चली गयी।
प्रतीक चित्र
मीना और शंकर एक-दूसरे को भयभीत नजरों से देखने लगे।
‘‘तू बाथरूम गई थी, दरवाजा बंद करना क्यों भूल गई। वही हुआ न, जिसका डर था।’’ शंकर मीना पर बरसने लगा, ‘‘कल सुबह मम्मी पापा को यह बात बतायेगी, शाम तक पूरे इलाके में बात फैल जाएगी, फिर न जाने क्या होगा।’’
‘‘सुबह होने से पहले हमें कुछ सोचना पड़ेगा, वरना हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।’’ मीना ने परेशान लहजे में कहा।
‘‘बस एक ही रास्ता है।’’
‘‘कौन सा रास्ता?’’
‘‘हमारे राज को सिर्फ मम्मी जानती है, इसलिए हमें सुबह होने से पहले मम्मी का मुंह बंद करना होगा।’’
‘‘यानी मम्मी का खून…।’’ मीना कांप उठी।
‘‘हां, गुनाह हमने किया और सजा मम्मी को भोगनी पड़ेगी।’’ शंकर की आंखो में दर्द छलक आया, ‘‘मम्मी भी तो गुनहगार है, हम जैसी संतान को पैदा करना भी तो गुनाह ही है। मम्मी को इस गुनाह की सजा जरूर मिलनी चाहिए।’’
फिर शंकर ने आलमारी में रखा एक बैग खोलकर लम्बे फलवाला चाकू निकाला और अपने कमरे से बाहर निकलकर मेनका के कमरे मे चला गया। मेनका लाइट जलाकर ही सोती थी। शंकर डबडबाई आंखों से कुछ पल गहरी नींद में सो रही मेनका को देखता रहा, फिर बड़बड़ाया, ‘‘काश! तुमने हमारा पाप नहीं देखा होता तो हम तुम्हारे खून से अपने हाथ कभी न रंगते मम्मी। अगले जन्म में हम जैसी पापी संतान को पैदा मत करना।’’
फिर शंकर ने बाएं हाथ से गहरी नींद में सो रही मेनका का मुंह पूरी ताकत से दबा दिया और दाएं हाथ में थामे चाकू से उसके चेहरे और गले में ताबड़तोड़ वार करने लगा। उसने कई वार मेनका के पेट पर भी किए। काफी देर तक खून से लिथड़ी मेनका तड़पती रही। फिर जब उसके प्राण शरीर से जुदा हो गए तो शंकर ने उसकी लाश को घसीटकर फर्श पर डाल दिया। उस वक्त उसके शरीर पर सिर्फ जांघिया ही था, जिस पर खून लग चुका था।
‘‘त…तूने सचमुच ही मम्मी का खून कर दिया?’’ मीना ने हैरत से आंखे फैलाकर पूछा।
‘‘हां।’’ शंकर ने सपाट लहजे में कहा।
‘‘सुबह पापा लाश देखेंगे तब…।’’
‘‘तब की तब देखी जाएगी।’’
उस वक्त रात के डेढ़ बज रहे थे। खून से सना चाकू मेज पर रखने के बाद शंकर बेड पर लेटकर सोने का उपक्रम करने लगा, मगर जिस बेटे के हाथ अपनी मां के खून से रंगे हों, भला उसे नींद कहां आती!
हर सुबह मेनका छः बजे के आसपास चाय बनाकर सभी को ‘बेड-टी’ देती थी, मगर उस सुबह सात बजे तक भी मेनका चाय बनाकर नहीं लाई तो विजय दुकान से बाहर निकलकर मेनका के कमरे में गया। वहां मेनका की लाश देखकर उसके होश फाख्ता हो गये। वह दूसरे कमरे मे अपने बच्चों को जगाने गया तो वहां मेजपर खून से सना चाकू तथा शंकर के जांघिए पर खून लगा देख वह समझ गया कि मेनका का खून शंकर ने ही किया है। विजय शंकर पर टूट पड़ा, ‘‘कमीने, क्यों मारा अपनी मां को तूने… क्या दुश्मनी थी तेरी उससे?’’
शंकर और मीना रोने लगे। फिर उन दोनों ने सारी हरकत बयान कर दी। हकीकत सुनकर विजय अपना माथा पीटने लगा।
‘‘मैं और तुम्हारी मम्मी तो भूल ही गये थे कि तुम दोनों जवान हो गये हो। तुम्हें एक साथ नहीं सोने देना चाहिए था। गलती तुम्हारी नही, हमारी सोच की थी। हमे क्या पता था कि जमाना इतना बदल गया है कि भाई-बहन ही… खैर! मेनका तो गई। अब मैं नही चाहता कि भांडा फूटे और तुम दोनो जेल जाओ।’’
फिर विजय ने दोनों को समझाया कि पुलिस जब उनसे पूछताछ करे तो उन्हें क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। इसके बाद विजय ने फोन कर पुलिस नियंत्रण कक्ष को अपनी पत्नी का कत्ल होने की सूचना दे दी।
जांच शुरू हुई कुछ ही देर मे सच्चाई पुलिस के सामने आ गई तब जांच अधिकारी ने विजय की निशानशानदेही पर मकान की छत पर रखी पानी की टंकी के पास से खून सना, शंकर का जांघिया और हत्या में प्रयुक्त चाकू बरामद करने के बाद विजय, शंकर और मीना को गिरफ्तार कर लिया।
अगले दिन विजय को हत्या के सुबूत छिपाने व हत्यारों को बचाने के जुर्म में तथा मीना एवं शंकर को योजना बनाकर हत्या करने के जुर्म में कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया।
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‘‘जब बीवी ढूंढे किसी और के बाहों में प्यार का सुख’’

अनीता एक आधुनिक विचारधारा की युवती थी। यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार यौवन की बहार में कदम रखा तो उसकी खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी। यद्यपि वह शादी-शुदा थी, पर टी.बी. रोग से पीडि़त अपने पति से संतुष्ट नहीं थी तथा बीमारी से उसकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय हो गयी थी। इस कारण वह जल्द ही प्रमोद के प्रेम जाल में आ फंसी थी।
प्रमोद भी विवाहित था तथा उसके दो बच्चे भी थे, पर वह वाराणसी में अकेले ही रहता था। स्वभाव से रंगीन मिजाज प्रमोद को अपनी पत्नी का साधारण नैन-नक्ष पसंद नही था। यही वजह थी कि उसने अपनी पत्नी को गांव में अपने पिता के पास छोड़ रखा था। वाराणसी में अनीता से एक बार परिचय हुआ तो जल्द ही दोनों एक-दूसरे के इतने निकट आ गए, कि उनके बीच अंतरंग संबंध भी कायम हो गये।
वक्त के साथ उनका प्यार परवान चढ़ता रहा। दरअसल प्रमोद को अनीता की हर अदा काफी पसंद थी। साल-दो साल बाद जब उसके पति का देहांत हो गया, तो अनीता ने प्रमोद से दूसरी शादी कर ली। शादी के बाद प्रमोद ने उसके तीनों बच्चों को भी ने अपना लिया था।
अनीता शुरू से ही दिलफेंक और मनचली युवती थी। एक खूंटे से बंधकर रहना उसकी आदत में शुमार नही था। शुरू के कुछ वर्ष तो वह प्रमोद के प्रति पूरी निष्ठावान रही, पर जल्द ही उसके पांव डगमगाने लगे और वह छिपी नजरों से अपने किसी नये प्रेमी की तलाश में लग गयी। उसकी पड़ोस में विजय रहता था। पड़ोसी होने की वजह से विजय व प्रमोद में अच्छी जान-पहचान थी तथा दोनों एक-दूसरे के घर अक्सर आते-जाते रहते थे।
अचानक प्रमोद का काम किन्ही कारणों से ठप पड़ गया, जिस कारण वह आर्थिक परेशानी में आ गया। ऐसे समय में विजय ने उसकी आर्थिक मदद की। विजय की स्वार्थ रहित मदद लगातार मिलते रहने पर अनीता के अंदर विजय के प्रति एक अहसान का भाव घर कर गया। साथ ही वह विजय की नेकी से भी काफी प्रभावित थी। इस कारण उसका झुकाव विजय की तरफ बढ़ता चला गया। एक रोज अनीता ने विजय से कहा, ‘‘ आपने हमारी जो मदद की, उसका एहसान शायद ही कभी चुका पाऊॅगी। आप तो हमारे परिवार के लिए साक्षात देवता के समान है।’’
‘‘इसमें अहसान की क्या बात है। एक-दूसरे की मदद करने से तो संसार चलता है।’’ मुस्कराते हुए विजय ने जवाब दिया।
‘‘पर मेरे दिल में आपकी नेकियों का एक बोझ-सा बना रहता है।’’ अनीता बोली, ‘‘फिलहाल मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नही है?’’
विजय बखूबी समझ चुका था कि अनीता उसके पहलू में आने को उतावली है। अतः उसने मजाकिया लहजे मे कहा, ‘‘जब देना ही चाहती हो तो मुझे अपना दिल दे दो। इससे तुम्हारा बोझ भी उतर जायेगा।’’
अनीता कसमसा गयी। उसने तिरछी नजरों से विजय को पलभर को देखा। फिर बोली, ‘‘ये दिल तो कब का तुम्हारा हो चुका है, पर तुमने एक औरत की चाहत को समझा ही नही।’’
‘‘अनीता मेरा मानना है कि हर चीज शांति से करनी चाहिए। अब तुम सोच लो। एक बार कलाई पकड़ूंगा तो फिर आसानी से छोड़ूंगा नहीं।’’ कहते हुए विजय ने अनीता की कलाई थाम ली।
‘‘वह तो तुम पकड़ ही चुके हो। अब जो मर्जी में आए करो। मैं कभी चूं तक नही करूंगी।’’ कहती हुई अनीता स्वयं ही कटे व्रक्ष की तरह विजय की गोद में आ गिरी।
प्रतीक चित्र
अब विजय, प्रमोद व बच्चों की अनुपस्थिति में देर तक उसके घर में रहने लगा। पड़ोसियों को जब यह संबंध खटकने लगा तो दबी जुबान से इसकी चर्चा में होने लगी। उड़ते-उड़ते यह खबर प्रमोद तक भी जा पहुंची। तब उसने अनीता को विजय से संबंध रखने को मना किया, अपने बच्चों और घर-परिवार की दुहाई दी, किन्तु कामांध अनीता को प्रमोद के उपदेश अच्छे नही लगे। जब पानी सर के उपर गुजरने लगा , तो प्रमोद के लिए अनीता का यह व्यभिचार असहनीय हो गया। वह अनीता के साथ मार पीट करने लगा।
विजय से प्रमोद झगड़ा मोल लेना नही चाहता था, क्योंकि उसे भय था कि विजय उसकी आर्थिक मदद बंद कर सकता है। जब अनीता ने विजय से अपना संबंध नहीं तोड़ा, तब प्रमोद ने वहां से मकान खाली कर लेने का निर्णय कर लिया। दरअसल प्रमोद की सोच थी कि दूसरी जगह चले जान पर अनीता व विजय की दोस्ती टूट सकती हैं। लेकिन प्रमोद की यह सोच गलत साबित हुई, यहां भी अनीता व विजय का आपस में मिलना-जुलना जारी रहा। अब प्रमोद को समझ में नही आ रहा था कि वह क्या करे।
उसने हर कोशिश करके देख ली थी, पर अनीता विजय से अपना संबंध तोड़ने को राजी नही थी। लिहाजा प्रमोद मानसिक तनाव में रहने लगा। वह जब-तब बिना किसी वजह के अनीता को पीट डालता, वहीं विजय को भी भला-बुरा करने पर अब उसे कोई संकोच नहीं था। यों कहें कि अनीता ने अपनी हरकतों से प्रमोद को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था।
प्रमोद द्वारा लगातार मार-पीट किये जाने से अनीता आखिरकार उससे तंग आ गयी और उसने अपनी परेशनी विजय को बतायी। इस पर विजय ने राय दी ‘‘वह जब तक जिंदा रहेगा तब तक तुम उससे परेशान रहोगी और उसके जीवित रहते हम दोंनों खुलकर मिल भी नही सकते।’’
‘‘तुम सही कर रहे हो।’’ अनीता ने अपनी सहमति देते हुए कहा, ‘‘अब उसे यमलोक पहुंचा ही दो।’’
विजय ने हामी भर दी उसके बाद योजनानुसार विजय व अनीता ने प्रमोद से अपनी गलती के लिए माफी मांग ली और उसे आश्वासन दिया कि पुनः उन दोनों से ऐसी गलती नही होगी। फिर प्रमोद ने उन्हें माफ भी कर दिया।
योजनानुसार कुछ दिन बाद अनीता काम का बहाना कर अपने मायके चली गई। अगले दिन विजय प्रमोद के घर आया और बोला, ‘‘भाई साहब आज हम साथ-साथ खाना खायेंगे। ’’
प्रमोद को भला इसमें क्या इतराज था, दोनों ने छत पर साथ बैठकर खाना खाया। फिर बातचीत करते रात गहरा गई तब विजय ने प्रमोद से कहा, ‘‘आज हम यहीं सो जाते हैं। सुबह चले जायेंगे।’’
इसके बाद विनोद नीचे कमरे में चला आया जबकि प्रमोद छत पर सो गया। कुछ देर बाद जब प्रमोद खर्राटे भरने लगा तो विजय उठा और उसके जिस्म पर चापड़ से तब तक प्रहार करता रहा, जब तक उसकी मौत नही हो गई। इसके बाद वह सावधानी पूर्वक वहां से निकल भागा। अगले दिन विजय ने फोन कर इस घटना की सूचना अनीता को दी, अनीता इससे काफी खुश हुई। उसने सोचा अब वह विजय के साथ नई ग्रहस्थी बसायेगी। पर पुलिस की सूझबूझ से अनीता व विजय गिरफ्तार कर लिए गए।
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‘‘तीन दिनों का नर्क’’


उस दिन अनुराधा के शरीर पर फ्राक और चड्ढी थी। फ्राक पेट से ऊपर उठी हुई थी, अतः उसके नीचे का हिस्सा खुला हुआ था। उसके के गोरे-गोरे पैरों को देखते हुए राजेश की आंखों में सुर्ख डोरे उभर आए थे। वह बार-बार अपने होठों पर जुबान फिरा रहा था। उसने अपनी मां को देखा ता उसकी मां गहरी नींद में थी। अचानक राजेश घुटनों के बल फर्श पर बैठ गया फिर आहिस्ता-आहिस्ता अनुराधा के पेट को चूमने लगा। वह काफी देर तक ऐसा ही करता रहा। उसकी सांसे लोहार की धौंकनी की मानिंद तीव्रतर हो उठी।
फिर न जाने अचानक राजेश के मन में क्या विचार आया, उसने अनुराधा को अपनी बांहों में भरकर उठाना चाहा तभी उसके मां की आंख खुल गयी तो उसकी मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है राजू…… अनु को उठाये कहां ले जा रहा है?’’
राजेश बुरी तरह बौखला गया। उसने अनुराधा को वापस बेड पर लिटाया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘मां, यहां इसे गर्मी लग रही है न……’’
‘‘क्या बात कर रहा है। यहां तो कूलर चल रहा है।’’ मां ने बेड से उठते हुए कहा।
‘‘ओह!’’ राजेश के मुख से निकला।
‘‘कितनी बार कहा तुझसे। इतनी शराब मत पिया कर। यह शराब तुझे पागल बनाकर ही छोड़ेगी।’’ राजेश की मां बोली और बाथरूम की ओर बढ़ गई।
राजेश अपने कमरे में घुस गया। वह बेड पर लोटकर सोने का प्रयास करने लगा परन्तु नींद तो उससे कोसों दूर जा चुकी थी। उसकी आंखों के सामने तो अपनी ही कमसिन बेटी अनुराधा का जिस्म थिरक रहा था । राजेश रातभर बिस्तर पर बेचैनी से करवटें बदलता रहा।
उस रात जब से राजेश ने अनुराधा के पेट आदि को अपने होठों से स्पर्श किया था, तब से वह अंदर ही अंदर तड़प रहा था। हर समय उसके सामने उसकी अपनी ही मासूम बेटी का जिस्म थिरकता रहता। जिससे उसके समूचे जिस्म में वासना का लावा भर जाता था, तथा वह यह भी भूल जाता कि अनुराधा उसी की मासूम बेटी है, जिसका कन्यादान करने से ही उसका जीवन सार्थक होगा।
अब राजेश के सामने जब भी अनुराधा पड़ती तो वह उसे गोद में बैठाने की कोशिश करता, मगर अनुराधा अपने पिता के हाव-भाव देखकर सहमी-सहमी सी रहने लग गई थी, वह मासूम बच्ची अपने बाप की आंखों में हैवानियत की चमक देख चुकी थी।
वक्त बीतता रहा एक रात जब राजेश की मां एक रिश्तेदार की शादी में गई हुई थीं, तो राजेश की हैवानियत और बढ़ गई और उसने पक्का फैसला कर लिया कि आज रात वह अपने तन-मन में सुलगती आग को शांत करके ही मानेगा। फिर कुछ सोच विचार के बाद उसने अपने छोटे भाई को भी किसी काम से इतनी दूर भेज दिया कि रात मे वह न लौट सके।
अब घर पर राजेश व अनुराधा ही रह गए थे। उस रात राजेश ने शराब का आखिरी पैग रात ग्यारह बजे लिया फिर वह नशे में झूमता आंगन में गया, जहां अनुराधा लेटी थी। एक पल अनुराधा को देखते रहने के बाद राजेश बोला, ‘‘अनुराधा, सो गई क्या?’’
‘‘नही पापा, जाग रही हूँ।’’ अनुराधा ने खटिया पर बैठते हुए कहा।
‘‘तू जल्दी से उठकर कटोरी में तेल लेकर मेरे पास आ जा।’’
‘‘क्यों पापा?’’ यह सुनकर अनुराधा सहम गई थी।
‘‘मेरे पैर में कुछ तकलीफ है। जरा तेल लगाकर मालिश कर दे।’’ इतना कहकर राजेश कमरे में चला गया। उसने कमरे की खिड़की के पट बंद किए फिर बेड पर आकर पसर गया।
कुछ ही देर में अनुराधा कटोरी में तेल लेकर वहां आ गई। उस समय उसने जींस और टी-शर्ट पहन रखी थी। उसे देखते ही राजेश की आंखों में शैतानियत के बिच्छू तैर उठे और उसने अपने होंठों पर जुबान फिराते हुए कहा, ‘‘आ, मेरे पास आकर बैठ…’’
प्रतीक चित्र
अनुराधा सहमती हुई बेड पर उसके पायताने बैठ गई तो राजेश ने फौरन ही बेड से उठकर दरवाजा भीतर से ही लाँक कर दिया। फिर वह बेड पर अनुराधा से सटकर बैठ गया और फिर उसने अनुराधा को अपनी बांहों में भीच लिया।
‘‘यह, क्या करते हो पापा?’’ अनुराधा उसकी अप्रत्याशित हरकत से भयभीत हो उठी।
‘‘प्यार कर रहा हूँ।’’ कहते ही राजेश उसके कपड़े उतारने लगा। अनुराधा ने बेड से उठने की कोशिश की मगर राजेश ने उसे जबरन बेड पर लिटा दिया।
‘‘आज मै तेरी मालिश करूंगा। तुझे बहुत अच्छा लगेगा।’’ फिर उसने अनुराधा को पूर्णतः निर्वस्त्र कर दिया। राजेश उसके कोमलांगों पर तेल लगाने लगा तो अनुराधा रोने लगी।
‘‘चुपचाप लेटी रह, रोई तो गर्दन काटकर फेंक दूंगा।’’ गुस्से से राजेश बोला फिर उसने अपने कपड़े उतार दिए। अपने बाप को जन्मजात नग्नावस्था में देख, अनुराधा ने अपनी पलके बंद कर लीं।
इसके बाद किसी भयंकर काले बादल की तरह राजेश अपनी बेटी अनुराधा पर छा गया। अनुराधा दर्द से बुरी तरह फड़फड़ाती रही। कुछ देर बाद अनुराधा पीड़ा की अधिकता से मूर्छित हो गयी।
राजेश की मां और उसका छोटा भाई तीन दिनों तक घर से बाहर रहे। इन तीन दिनों में अनुराधा के साथ राजेश ने कई बार बेरहमी से दुश्कर्म किया। इस दौरान अनुराधा दर्द से छटपटाती छोड़ देने की फरियाद करती, तो वह और ज्यादा बेरहमी दिखाने लगता था।
तीसरे दिन अनुराधा की दादी घर वापस लौटी तो उसने अनुराधा को गुमसुम-सा देख। जब उससे गुमसुम होने की वजह पूंछी तो वह अपनी दादी से लिपट कर फफक पड़ी। उसने अपने बाप की काली करतूत का खुलासा दादी के सामने कर दिया। बेटे की करतूतों को सुन राजेश की मां भौंचक्की रह गई। एक पल के लिए उसे लगा जैसे उसके अस्तित्व में बिस्फोट हुआ हो और उसका सारा वजूद तिनके-तिनके होकर बिखर गया हो।
आखिरकार उन्होंने उसी दिन राजेश के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी। तब पुलिस ने अनुराधा के वह्सी बाप राजेश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
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Re: मनोहर कहानियाँ

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गर्म गोश्त के सौदागर



दुख की मारी शीला के सिर से बाप का साया उसी समय उठ गया था, जब वह सवा महीने की थी। मां ने किसी तरह उसे पाला-पोसा, लेकिन नियति से यह भी नहीं देखा गया और वह सात साल पहले वह भी चल बसी, तो पड़ोसियों ने रहम करके शीला को बलिया में रहने वाले उसके चाचा-चाची के पास पहुंचा दिया था।
चाचा की भी माली हालत अच्छी नहीं थी। मेहनत-मजदूरी करके बेचारा बड़ी मुश्किल से अपनी ग्रहस्थी चला रहा था, इसके बावजूद वह भाई की मासूम बेटी को बेसहारा तो नहीं छोड़ सकता था, इसलिए रख लिया। चाचा-चाची की मोहब्बत और अपनेपन के चलते शीला अपने मां-बाप को भी भूल गयी, लेकिन मुसीबत तो बस जब जहां चाहे, टूट पड़ती है। करीब एक साल पहले संजीव की नजर शीला पर पड़ी तो, उसने तुरंत जाल फैलाना शुरू कर दिया और उसके चाचा से जान-पहचान बढ़ाकर एक दिन कहने लगा, ‘‘मेरी बीवी की तबियत थोड़ी खराब रहती है, इसलिए सोच रहा हूँ कि घर के काम-काज में उसकी मदद के लिए किसी लड़की को रख लूं, लेकिन मुश्किल यह है, सब पर भरोसा भी तो नहीं किया जा सकता।
शीला के चाचा ने सिर हिला दिया, ‘‘हां, यह बात तो है……’’
कुछ देर चुप रहने के बाद संजीव बोला, ‘‘एक बात तुमसे कहूं, शीला का स्वभाव मुझें काफी अच्छा लगता है, अगर तुम हां कर दो तो…… वैसे काम-काज कुछ ज्यादा नही है। यूं समझो कि यह रहेगी तो बीवी को थोड़ा सहारा मिल जायेगा और मुझे कोई फिक्र नही रहेगी।’’
‘‘लेकिन वह तो अभी बच्ची है…… रोज इतनी दूर जाना-आना……’’
‘‘रोज आने-जाने की क्या जरूरत है। उसे भी अपना ही घर समझो।’’ संजीव ने शीला की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसके चाचा से कहा, ‘‘यह जैसी तुम्हारी भतीजी, वैसी मेरी भतीजी, वहीं रहेगी। खाने-पहनने की भी फिक्र मत करो, तुम्हें तो हर महीने इसकी पूरी तनख्वाह मिल जाया करेगी।’’
प्रतीक चित्र
शीला जवान हो चली थी। इस उम्र में उसके चाचा उसे अपनी नजरों से ओझल नहीं रखना चाहता था, लेकिन अपनी गरीबी को देखते हुए उसने सोचा कि कम से कम मासूम शीला को तो तकलीफों से छुट्टी मिल जायेगी। फिर संजीव भी शक्ल सूरत और बात व्यवहार से बड़ा शरीफ लग रहा था, इसलिए उसने शीला को समझा-बुझाकर उसके यहां काम करने के लिए भेज दिया। लेकिन बेचारे को क्या पता था कि चेहरे से शरीफ-सा लगने वाला संजीव दरअसल आदमी नही हैवान है। घर पहुंचते ही वह शीला के साथ छेड़-छाड़ करने लगा तो वह चौंक पड़ी और शरमा कर परे सरकने लगी, पर संजीव ने वहशी की तरह झपटकर उसे दबोच लिया और अश्लील हरकतें करने लगा, शीला घबरा गयी और छूटने के लिए छटपटाती हुई गिड़गिड़ाने लगी।
‘‘तुम इतना घबरा क्यों रही हो…… डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है।’’ संजीव ने पुचकारते हुए फुसलाने की कोशिश की, ‘‘मैं तो तुम्हें गरीबी के दोजख से इसलिए निकाल कर लाया हूँ कि मेरी बात मानोगी तो तुम्हारी जिंदगी खुशियों से भर दूंगा। तुम्हारे पास दौलत ही दौलत होगी।’’
‘‘नहीं…… नहीं…… इज्जत से बड़ी कोई दौलत नहीं होती। मैं ऐसी दौलत नहीं चाहती।’’ शीला ने छूटने के लिए पूरा जोर लगाते हुए कहा, ‘‘खुदा के लिए मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं।’’
लेकिन शीला के लाख रोने-गिड़गिड़ाने के बावजूद संजीव नहीं माना और उस मासूम कमसीन लड़की को औरत बनाकर ही छोड़ा। शीला घुटनों में सिर छिपाकर सिसकने लगी तो संजीव पुचकारता हुआ बोला, ‘‘जो होना था सो हो चुका। अब तो घर लौटने का रास्ता भी बंद हो गया, क्योंकि यह सब जानने के बाद तुम्हारा चाचा तुम्हें अपने दरवाजे पर भी नहीं खड़ी होने देगा, इसलिए रोना-धोना बेकार है और जैसा मैं कहूं, वैसा ही करती रहो तो मजा भी करोगी और ऐश भी।’’
शीला अभी उस हादसे से उबर भी नहीं पायी थी कि शमीम के साथ उसका दोस्त हीरालाल ने भी वही सब करके उसे पूरी तरह जिन्दा लाश बना दिया। इन दोनों के अलावा बाबू नाम का एक और आदमी अक्सर उसके पास आया करता था। उसकी दुकान संजीव के ब्यूटी पार्लर के पास ही थी इसलिए दोनों में ज्यादा जान-पहचान हो गयी थी।
संजीव उससे जबर्दस्ती धंधा करवाना शुरू कर दिया, तब पता चला कि उसने और हीरालाल ने शहर में कई मेंस ब्यूटीपार्लर खोल रखे है, इन ब्यूटी पार्लरों में तमाम लड़कियां काम करती हैं, लेकिन यह सब सिर्फ दिखाने के लिए है। दरअसल वह सेक्स रैकेट का अड्डा है और संजीव तथा हीरालाल ब्यूटी पार्लरों की ओट में जिस्मफरोसी का धंधा करते है। वह अकेली ऐसी लड़की नही है, बल्कि संजीव और हीरालाल ने दर्जनों लड़कियों को फांस रखा है। उनमें काजल और नीटू नाम की दो खास लड़कियां हैं, जो खुद तो धंधा करती ही हैं। संजीव के इशारों पर वे दूसरी लड़कियों को भी फंसाकर लाया करती हैं, जिनमें से कई एक तो अच्छी-खासी पढ़ी लिखी और सम्भ्रांत परिवारों की भी लगती है। काजल और नीटू ने उन लोगों को लाखों रूपये की कमाई करायी ही है, खुद भी वह खूब कमाती है।
प्रतीक चित्र
शीला जैसी कम उम्र और गोरी देह दिखाकर उसे ग्राहकों के साथ होटल में या किसी और जगह भेजा जाता था, बदले में एक-एक ग्राहक से पांच-पांच हजार रूपये वसूले जाते थे। एक-एक दिन में उसे कई-कई ग्राहकों को निपटाना पड़ता था, जिससे संजीव को रोज हजारों रूपये की कमाई होती, लेकिन उसके अपने पल्ले एक भी पैसा नहीं पड़ता था। संजीव ने उसको अपनी निगरानी में रखने के लिए एक कमरा ले रखा था। इसके अलावा उसको खाना और कपड़ा भर मिलता था, बस। अगर कभी वह कुछ रूपए चुरा-छिपाकर बचाने की भी कोशिश करती तो शक होते ही संजीव उसकी तलाशी लेता और कपड़े तक उतरवाकर छिपाए गए रूपए छीन लेता था। संजीव और हीरालाल लड़कियों को ग्राहक के पास भेजने से पहले अक्सर ब्लू फिल्में दिखाया करते थे।
एक साल में ही शमीम उसे इतने ग्राहकों के सामने परोस चुका है कि अब तो उसको उनकी गिनती भी नही याद रह गयी है। बाबू का नाम सिर्फ इसलिए याद है क्योंकि वह संजीव का खास जान-पहचान वाला था और अक्सर आता रहता। ग्राहक की मांग पर संजीव कलकत्ता, पटना जैसे दूसरे शहरों से भी लड़कियां मंगवा लिया करता था और यहां की लड़कियों को भी बाहर भेजकर वह मोटी रकम कमाया करता है।
पिछले दिनों शीला को भी कलकत्ता ले जाने की बात हो रही थी। वहां से आए दो मोटे आदमियों ने उसको देख कर पसंद भी कर लिया था, पर अचानक उसकी तबीयत खराब हो गयी। कुछ खाने पीने का मन नहीं होता था, रह-रहकर चक्कर आ जाता और कई बार उलटी भी हो गयी। जब उसने डाँक्टर को दिखाया तो पता चला कि वह मां बनने वाली है। यह सुनकर उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। फिर वह कुछ सोच-समझ पाती, इसके पहले ही संयोग से परस्पर बतियाते संजीव और हीरालाल की कुछ बातें उसके कानों में पड़ गयी, तब पता चला कि कलकत्ता से आए दोनों आदमियों ने उसे क्यों पसन्द किया था। दरअसल संजीव उसको बेचने के लिए कलकत्ता ले जाना चाहता था। यह जानकारी होते ही शीला अपनी सारी तकलीफ भूल गयी और वह गुपचुप ढंग से भाग कर रास्ता पूंछती-पूंछती अपने चाचा के यहां लौट आयी। उसी दिन उसके चाचा उसे लेकर थाने गए और रिपोर्ट दर्ज करवा दिया। उनकी रिपोर्ट पर कार्यवाही करते हुए पुलिस ने संजीव व उसके साथी जेल की सलाखों के पिछे पहुंचा दिया।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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