चंद्रकांता

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Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

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दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सबों का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।

उस खूनी को कमंद से बांधो साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुंचे।

महा - बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?

बद्री - कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।

महा - फिर?

बद्री - फिर क्या? मुझे तो मालूम होता हेै कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।

पानी मंगवाकर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सबों में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देखकर बोले, “बस - बस मालूम हो गया, यह तो नाज़िम का साला है, मैं ख्याल करता हूं कि जालिमखां वगैरह जो कैद हैं वे भी नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहां लाना चाहिए।”

महाराज के हुक्म से जालिमखां वगैरह भी दरबार में लाए गए।

बद्री - (जालिमखां की तरफ देखकर) अब तुम लोग पहचाने गये कि नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।

जालिमखां इसका कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा, “जालिमखां, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना। यह झूठे हैं, तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुंचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाय मगर अपने मुंह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।”

जालिम - (जोर से) ऐसा ही होगा।

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आंखें लाल हो गईं, बदन कांपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देखकर बोले, “बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाये।

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल - उछलकर लोगों ने अपने - अपने हाथों की सफाई दिखाई। सबों की लाशें उठाकर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए। तेजसिंह ने हाथ जोड़कर अर्ज किया -

“महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहां किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।”

महा - अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो!

तेज - बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूं कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूंगा।

तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।

तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - ”अब आप और महाराज सुरेन्द्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ लेकर खुशी - खुशी लौट आवें।”

तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपककर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा, “तुम अभी बाहर जाकर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान - पूजा करके कुछ खाओ - पीओ। मैं जाकर कुमारी की मां को यह खुशखबरी सुनाताहूं।

आज के दिन का तीन हिस्सा तरद्दुद - रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुंह में एक दाना अन्न नहीं गया था।

तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गये और महाराज ने महल में जाकर कुमारी चंद्रकान्ता की मां को कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।

अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सबों के चेहरे पर हंसी दिखाई देने लगी। होते - होते यह बात हजारों घरों में फैल गयी कि महाराज कुमारी चंद्रकान्ता को लाने के लिए जाते हैं।

यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी - सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

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पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकान्ता और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जायेंगे और वहां से राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार को साथ लेकर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जायेंगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को लेकर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़कर पहले तुम आकर एक दफे हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आंखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिपकर वहां रहने वालों की बातचीत सुनिये। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहां निकल जाय और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जायं, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहां तक पहुंचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुंचिए जिसमें कुमार ने चंदकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।

आप उसी बाग में पहुंच गये। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊंचे - ऊंचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं। कुछ - कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमर्मर के चबूतरे पर तीन पलंग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियां अच्छे - अच्छे बिछौने बिछा रही हैं; खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलंग की सजावट पर सबों का ज्यादा ध्यान है। उधरदेखिये वह घास का छोटा - सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें की हरी - हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग - बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधो - सीधो गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पल्टनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।

उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या ही रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा - सा खूबसूरत बंगला क्या मजा दे रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादे फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो किसी एक तरफ खड़े होकर बिना इधर - उधर हटे हाथ भर का चंगेर भर लीजिये। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइये, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग - बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊंचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुंदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूंघरवाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्तो क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिये जो सिर्फ हाथ भर ऊंचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तो के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाये हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग - बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।

अब तो हमारी निगाह इधर - उधर और खूबसूरत क्यारियो, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जाकर अटक गयी है, जो मेंहदी के पत्तो तोड़कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहां निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियां हैं।

वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख।

वे तीनों मेंहदी की पत्तियां तोड़ चुकीं, अब इस संगमर्मर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो।

हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियां जमीन पर उझलकर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलंग पर लेट गयी और दोनों सखियां अगल - बगल वाले दोनों पंलगों पर बैठ गयीं। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े होकर इन तीनों की बातचीत सुनें।

वनकन्या - ओफ, थकावट मालूम होती है!

सब्ज कपड़े वाली सखी - घूमने में क्या कम आया है?

सुर्ख कपड़े वाली सखी - (दूसरी सखी से) क्या तू भी थक गयी है?

सब्ज सखी - मैं क्यों थकने लगी? दस - दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं।

सुर्ख सखी - ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।

सब्ज - आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।

सुर्ख - खुद ज्योतिषीजी की अक्ल चकरा गयी जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे!

वनकन्या - ज्योतिषीजी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।

सब्ज - मालूम नहीं इस तावीज (यंत्र) में कौन - सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती!

वनकन्या - मैंने यही बात एक दफे सिद्धनाथ बाबाजी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गये। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या - क्या कह गये हां, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएं हैं, उनसबों को एक साथ मिलाकर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिये से कुछ नहीं देख सकेगा।

सुर्ख - बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिये मैं सूरजमुखी बनकर गयी थी, तब भी ज्योतिषीजी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।

वनकन्या - कुमार तो खूब ही छके होंगे?

सुर्ख - कुछ न पूछिये, वे बहुत ही घबराये कि यह शैतान कहां से आयी और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है?

सब्ज - उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बनकर खत का जवाब लेने गयी थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूं।

सुर्ख - यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिये जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुरायी थी और जंगल में ले जाकर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुंचकर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोदकर देखा तो तिलिस्मी किताब है।

वनकन्या - ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, तिस पर भी कसम दे दी थी कि दूर - दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।

सुर्ख - इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे।

वनकन्या - यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता।

सब्ज - हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम - घूमकर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।

सुर्ख - क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहां तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगाजी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए।

सब्ज - हम लोग तो जान - बूझकर उन लोगों को अपने साथ लाये ही थे।

वनकन्या - चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हां, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है!

सुर्ख - तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं।

वनकन्या - (हंसकर) इसका हाल तो तुम ही जानो।

सुर्ख - आप तो दिल्लगी करती हैं।

सब्ज - हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं।

सुर्ख - जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह बद्रीनाथ की गठरी लेकर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गये।

वनकन्या - बड़े ही घबराये होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया?

सुर्ख - जरूर घबराये होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिये मैं उधर सूरजमुखी बनकर कह आयी कि शिवदत्त को छुड़ा दूंगी और इधर इस बात की कसम खिलाकर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।

वनकन्या - मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बांधी, उसके कसम का कोई एतबार नहीं।

सुर्ख - इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पाकर फिर कुमार को दे दी। हां, क्रूरसिंह ने एक दफे हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जायगा, बस लड़ ही तो गयी। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी मारा गया।

सब्ज - उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें।

वनकन्या - मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ।

सुर्ख - इसमें काम ही कितना था, तिस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद!

वनकन्या - खैर एक बात तो है।
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Re: चंद्रकांता

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अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़ तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लेकर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पांच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुंचकर डेरा डाला।

राजा सुरेन्द्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गये और अपने साथ शहर में आये।

महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और ज्याफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने ज्याफत से इंकार किया और कहा कि ”कई वजहों से मैं आपकी ज्याफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि ज्याफत से क्यों इनकार करता हूं।”

राजा सुरेन्द्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।

रात के वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठाकर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।

रात को ही यह राय पक्की हो गयी कि सबेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़भाड़ लेकर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुंचे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर अर्ज किया, “जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि 'जब वे लोग इस खोह के पास पहुंच जायं तो तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़कर पहले अकेले आकर हमसे मिल जाना।' अब आप कहें तो योगीजी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जाकर मिल आऊं।”

महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “योगीजी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिलकर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ताहै।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ लेकर खोह में गये। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों,मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।

बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले, “आप लोग आ गए ?”

पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुंचकर उनकी बात का जवाब दिया :

कुमार - आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़कर आपसे मिलने आया हूं।

सिद्धनाथ - बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आये, आज कुमारी चंद्रकान्ता से आप लोग जरूर मिलोगे।

तेज - आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।

सिद्धनाथ - कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।

तेज - (ताज्जुब से उनकी तरफ देखकर) हां उत्पात तो हुआ था, कोई जालिमखां नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।

सिद्धनाथ - हां यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा ओस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गये, अब उनके संगी - साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते - टहलते हम लोग बात करें।

कुमार - बहुत अच्छा।

तेज - जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिमखां कौन था?

सिद्धनाथ - यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाज़िम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।

कुमार - ठीक है जो आप सोचते हैं वही होगा।

सिद्धनाथ - महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गये?

कुमार - जी हां, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।

सिद्धनाथ - जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।

कुमार - क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बांधोंगे?

सिद्धनाथ - कौन ठिकाना!

कुमार - अब हुक्म हो तो बाहर जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊं।

सिद्धनाथ - हां मगर पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।

कुमार - कहिये।

सिद्धनाथ - कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गयी हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाय, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकान्ता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकान्ता से किसी तरह की बेअदबी हो जाय या जोश में आकर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।

अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई! मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन - रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी - सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना! कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे - पीछे रवाना हो गए।

थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुलाकर सिद्धनाथ ने कहा, “तू अभी चंद्रकान्ता के पास जा और कह कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जाकर बैठो।”

यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर- धर घूमने लगे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी - अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गये कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगीजी के पीछे - पीछे घूमते रह गये।

घूम - फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुंचे जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहां पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देखकर कहा :

“जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकान्ता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूं।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस कमरे में अंदर घुसे। दूर से कुमारी चंद्रकान्ता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।

देखते ही कुंवर वीरेन्द्रसिंह कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकान्ता कुमार की तरफ, अभी एक - दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिरकर बेहोश हो गए।

तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बंधा गई। बेचारी चंपा कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला लेकर दौड़ी हुई आई।

दोनों के मुंह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा - सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल हलका लखलखा बनाकर दोनों को सुंघाया।

कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकान्ता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता दोनों होश में आए, दोनों एक - दूसरे की तरफ देखने लगे, मुंह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन - सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठावें, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आकर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आंखें डबडबा आई थीं बल्कि आंसू की बूंदें बाहर गिरने लगीं।

घंटों बीत गये, देखा - देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तनोबदन की सुधा न रही। कहां हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हां, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुंचा हुआ प्रेम देखकर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा - देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाय। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगें। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली -

“कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूंगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?”

किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़कर न बिगाड़े इसीलिये योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे; दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हां चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आंखें जो मिल - जुलकर एक हो रही थीं हिल - डोलकर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ - कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बेसिर - पैर की टूटी - फूटी पागलों की - सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आए। न तो कुमारी चंद्रकान्ता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।

वे दोनों पहरों आमने - सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहां दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आकर कहा, “कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबाजी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।”

कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबराकर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल की दिल ही में रह गई।

कुमारी चंद्रकान्ता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुंचकर जल्दी मचा दी। आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े जिन्होंने कुमार को अपने पास बुलाकर कहा -

“कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकान्ता के पास बैठे रहो। दोपहर हुआ चाहती है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।”

कुमार - (सूरज की तरफ देखकर) जी हां दिन तो...

बाबा - दिन तो क्या?

कुमार - (सकपकाये से होकर) देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊं?

बाबा - हां जाओ उन लोगों को यहां ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लायें जो कुमारी चंद्रकान्ता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।

कुमार - बहुत अच्छा।

बाबा - जाओ अब देर न करो।

कुमार - प्रणाम करता हूं।

बाबा - इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।

तेज - दण्डवत।

बाबा - तुमको तो जन्म भर दण्डवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हालखोह के बाहर वाले न सुनें और आती वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।

तेज - जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे!

बाबा - अच्छा जाओ।

दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से बिदा हो उसी मालूमी राह से घूमते - फिरते खोह के बाहर आए।
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Re: चंद्रकांता

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दिन दोपहर से कुछ ज्यादे जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान - पूजा कुछ नहीं की थी।

लश्कर में जाकर कुमार राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबाजी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा कहकर दोनों अपने - अपने डेरे में आए और स्नान - पूजा करके भोजन किया।

राजा सुरेन्द्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठकर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस - किस को खोह के अंदर ले चलें।

सुरेन्द्र - योगीजी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी हो सके।

जयसिंह - हम, आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस - जिसको आप चाहें ले चलें।

सुरेन्द्र - बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं हां, ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।

जयसिंह - आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चलें!

बातचीत और राय पक्की करते दिन थोड़ा रह गया, सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुलाकर पूछा कि ”यहां से चलकर बाबाजी के पास पहुंचने तक राह में कितनी देर लगती है?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “अगर इधर - उधर ख्याल न करके सीधो ही चले चलें तो पांच - छ: घड़ी में उस बाग तक पहुंचेंगे जिसमें बाबाजी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहां चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अंधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।”

कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।






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बहुत सबेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आये। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जाकर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।

घुमाते - फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सबों को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुंचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बताकर कहा, “देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।”

दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकारकर कहा, “खबरदार, मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।”

इरादा करते रह गये, किसी की मजाल न हुई कि दण्डवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे कि बाबाजी ने दण्डवत करने से क्यों रोका। पास पहुंचकर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबाजी ने इसे भी मंजूर न करके कहा, “महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।”

सुरेन्द्र - साधुओं से बढ़कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।

बाबाजी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूं।

सुरेन्द्र - साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।

बाबाजी - किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो!

सुरेन्द्र - तो आप कौन हैं?

बाबाजी - कोई भी नहीं।

जय - आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, तरद्दुद, सोच और घबराहट बढ़ाती है।

बाबाजी - (हंसकर) अच्छा आइये इस बाग में चलिए।

सबों को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गये।

पाठक, घड़ी - घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल - बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे - चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी - चढ़ी है।

महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुमार वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकान्ता से मिले थे।

जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उसी पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बिठाकर उनके दोनों तरफ दर्जे - ब - दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।

बाबाजी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं।

दोनों राजा - आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।

बाबाजी - आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजियेगा।

जयसिंह - यहां आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकान्ता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।

बाबा - (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठावेंगे।

जयसिंह - आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।

बाबा - शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।

बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि ”हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।”

बाबाजी सबों को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सबों ने स्नान किया और उत्तार तरफ वाले दलान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हां इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।

जब सब लोग निश्चित होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा:

“यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे - छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में है, मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर - ही - ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?”

बाबा - इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ नहीं सकता था, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आये हैं, दूसरी राह बाहर आने - जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादे छिपी हुई है।

सुरेन्द्र - आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।

बाबाजी - मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूं सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।

सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) आप किसके नौकर हैं?

बाबाजी - यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायगा।

जयसिंह - (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर - सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?

महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे - पीछे दस - पंद्रह लौंडियों की भीड़ थी।

बाबा - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।

सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुंअर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकान्ता इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकान्ता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकान्ता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।

नीचे मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते - सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।

कुमार के दिल में चंद्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोचकर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे :

“नहीं - नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम - राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया! इससे बढ़कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।”

कुमार क्या सबो के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा :

“बेचारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसकर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?”

बाबा - नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसी थी उस वक्त यहां का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।

सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह यहां न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुंह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धारकर नीचे की तरफ दबाया!

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ाकर बोले, “आप कृपा कर के पेचीली और बहुत से मानी पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकान्ता कहां है?”

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल - बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबाजी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, “लीजिए यही आपकी चंद्रकान्ता है!”

चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबो ने कुमारी चंद्रकान्ता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठाकर देर तक अपनी छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।

सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से भी झिल्ली उतार दी! लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं।

मारे खुशी के सबो का चेहरा चमक उठा, आज की - सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठाकर सूंघा।

घंटों तक मारे खुशी के सबों की अजब हालत रही। कुंअर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।

महाराज जयसिंह की तरफ देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, “आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे - फिरे या दूसरे कमरे में चली जाय और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।”

जयसिंह - बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाय।

बाबा - (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।

जयसिंह - खैर जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।

बाबा - अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।
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Re: चंद्रकांता

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महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकान्ता का हाल कहना शुरू किया।

बाबाजी - मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा - सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बंधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।

सुरेन्द्र - पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?

बाबा - तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल - खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे - अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी - अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बांधाते हैं।

आजकल तो तिलिस्म बांधाने का यह कायदा है कि थोड़ा - बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो - एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या सांप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बांधाने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े - बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बांधाने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी,नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा - सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहां का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन - शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।

जयसिंह - खैर इसका हाल कुछ - कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये?

बाबा - सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूं। जब कुमारी चंद्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फंसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहां पहुंचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहां वह फंसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊंगा।

सुरेन्द्र - सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?

बाबा - यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।

कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुंचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुंचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते।

बाबा - सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकान्ता फंसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहां पहुंचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहां का माल - असबाब कुमारी के हाथ लगे।

कुमार - आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुंच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।

बाबा - आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूं, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुंचा और जो - जो किया सो कहता हूं, सुनिए।
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