चंद्रकांता

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Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

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कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी उनकी खोज में निकले हैं इस खबर को सुनकर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुलाकर उसने कहा, “इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गये हैं,मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूं और उस खजाने को भी लूट लूं जो तिलिस्म में से उनको मिला है।”

इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जायेगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाज़िम और अहमद भी थे जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

आखिर महाराज शिवदत्त ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवांमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गया।

सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा। तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हां तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पाकर वह बहुत खुश हुआ और बोला, “अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चंद्रकान्ता को उस खोह से निकालकर ब्याहूंगा।”

फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठकर खास दीवानखाने में आकर पलंग पर सो रहा। उसी रोज वह पलंग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहां ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलंग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आंख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे पट्टी भी बांधी गई थी जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहां उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे-धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनार पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। चुनार का जाना छोड़ जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनार की तरफ बढ़ा।

जयसिंह की फौज ने पहुंचकर चुनार का किला घेर लिया। शिवद्त्त की फौज ने किले के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। फसीलों पर तोपें चढ़ा दीं, और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।
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Re: चंद्रकांता

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चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाज़िम-क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।

अहमद-अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।

बद्री-उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो इसमें कोई शक नहीं।

नाज़िम-क्या हम लोग बेईमान हैं?

बद्री-जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे। आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली,और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियां मार-मारकर तुम दोनों की जान ले लूं।

अहमद-जुबान सम्हालकर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे। उसी जगह से पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूंघकर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे[1] में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुंचकर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्ना-अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।

बद्री-महाराज को जरा भी रंज न होगा।

पन्ना-किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकलकर लड़ नहीं सकती।

चुन्नी-आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।

राम-यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।

बद्री-एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जायं तो मैदान में निकलकर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।

पन्ना-जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।

राम-हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बांधी है। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?

चुन्नी-चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।

बद्री-नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे जरूर दोनों राजों में सुलह कराऊंगा, तब वीरेन्द्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्ना-अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर कैर करें।

बद्री-हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।

पन्ना-वह क्या?

बद्री-हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फांसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊं और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फांसकर उनकी शक्ल बना हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊंगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।

पन्ना-अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण होगे, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायगा, इसका भी ख्यालजरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।

बद्री-नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूं, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिलाकर देख लेते हैं! ऐसी नरम दवा डालूंगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

राम-बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहां से उठो।

शब्दार्थ:

छागा-एक किस्म का छीका (ढेलवांस) होता है। छीके में चारों तरफ डोरी रहती है मगर छागे में दो ही तरफ। एक तरफ की डोरी कलाई में पहिर लेते हैं और दूसरी डोरी चुटकी में थामकर बीच में से घुमाकर निशाना मारते हैं।
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Re: चंद्रकांता

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राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़ादौड़ बिना मुकाम किये दो रोज में चुनार के पास पहुंचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ था इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुंचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आकर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गये थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गये, कलेजा धाकधाक करने लगा। जब वे लोग पास आये तो पूछा, “क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?”

एक सरदार-कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी!

फतह-(घबराकर) सो क्या?

दूसरा सरदार-राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।

उन सबों को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये, कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, “आज बहुत सबेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई जिसे सुनकर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देखकर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराजजी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।”

यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा, “अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आवे तो पूरा पता लग सकता है।”सुनते ही राजा सुरेन्द्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जायं।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्द लौट आये कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आकर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहां लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा, “सब डोलियां बाहर रखी जायं, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहां लाई जाय।”

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलख सुंघाकर होश में लाये और उससे बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा कि”पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था। हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।”

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, “बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।” इसके बाद थोड़ा & सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी बिदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघाकर आप उन लोगों को होश में लाइए जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी बिदा कर दिए गए, राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेन्द्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

जीत - क्या फिक्र की जाय, कोई ऐयार भी यहां नहीं जिससे कुछ काम लिया जाय, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

राजा - तुम ही कोई तरकीब करो।

जीत - भला मैं क्या कर सकता हूं! मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आयेगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।

राजा - तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।

जीत - (मुस्कराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सफर में!

राजा - तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।

जीत - जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पावे यह काम आपके जिम्मे रहा।

हरदयाल - बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

जीत - आप जाकर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से बिदा हो अपने डेरे जाता हूं क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा & बुझा के बिदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बुङ्ढा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम इसी बुङ्ढे के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गये है, शायद कोई जरूरत पड़ जाय, तब बहुत& सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बुङ्ढे खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मंगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम & दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था -

“तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूं। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।”

इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी & सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुंचते - पहुंचते शाम हो गई,अस्तु किले के इधर - उधर घूमने लगे। जब खूब अंधेरा हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी कमंद लगाकर चढ़ गये। अंदर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं। किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबड़ाये हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था, इधर - उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहां तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे & चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहां कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पावे जो फंसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ावे।
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Re: चंद्रकांता

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फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सबेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। तरद्दुद में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर - उधर घबराये घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आकर गुल & शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्री - (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

चोबदार - आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुधा ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुंअर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम - घूमकर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहां तक खबर देने आया हूं। आती दफे रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

पन्ना - यह बुरी खबर सुनने में आई!

बद्री - वे लोग कै आदमी हैं, तुमने देखा है?

चोब - कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।

बद्री - तुम उसे पहचान सकते हो?

चोब - हां, जरूर पहचान लूंगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखीहै।

बद्री - मैं उन लोगों को ढूंढने चलता हूं, तुम साथ चल सकते हो?

चोब - क्यों न चलूंगा, मुझे उसने अधामरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ना है!

बद्री - अच्छा चलो।

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ - साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुंचकर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी,मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंककर कहा, “देखो - देखो एक और आदमी उसने मारा!” यह कहकर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा,समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, “आप इसे छोड़िये, चलकर पहले उस बदमाश को ढूंढिए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूं। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जायं।”

बद्रीनाथ ने कहा, “पहले उसी जगह चलना चाहिए जहां महाराज जयसिंह कैद हैं।” सबों की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुंचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देखकर कहा, “नहीं, वे लोग यहां तक नहीं पहुंचे, चलिए दूसरी तरफ ढूंढें।” चारों तरफ ढूंढने लगे। घूमते - घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे। खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, “देखो - देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था!” यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुंच गये।

बद्री - (चोबदार से) चलो, अंदर चलो।

चोब - पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।

बद्री - हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशालहै।

चोब - नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊंगा, एक दफे किसी तरह जान बची, अब कौन & सी कम्बख्ती सवार है कि जानबूझकर भाड़ में जाऊं।

बद्री - वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहां नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर!

चोब - लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है!

इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी & सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी उसमें आग लगा दी। वह बत्ती बलकर सुरसुराती हुई घुस गई।

पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुमाते & फिराते वह जगह देख ली जहां महाराज जयसिंह कैद थे। फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद[1] पाव भर के अंदाज कोनेमें रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर चौखट के बाहर निकाल दीथी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़ उस जगह गये जहां महाराज जयसिंह कैद थे। वहां बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काटकर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बताकर कहा, “जल्द यहां से चलिए।”

जिधर से जीतसिंह कमंद लगाकर किले में आये थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, “आप नीचे ठहरिये, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बांधाकर उन लोगों को लटकाता जाता हूं आप खोलते जाइये। अंत में मैं भी उतरकर आपके साथ लश्कर में चलूंगा।” महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फंसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम धूएं से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीटकर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक - एक करके सबों को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुंचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी - बेड़ी डालकर खेमे में कैर कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे - धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Post by Jemsbond »

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सबेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले -

“तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।”

यह कह कुमार ने खत पढ़ी :

“किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ।

-तुम्हारी दासी...

वियोगिनी”

कुमार - तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।

तेजसिंह - (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे - कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!

कुमार - (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!

देवी - मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूं।

कुमार - ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।

देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ”लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुंची मगर वहां अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।”

इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुंचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।”

तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।

कुमार - हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन - सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे,दोनों हाथ लड्डू हैं।

तेज - शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायं। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

कुमार - क्या हर्ज है रात ही को सही। रात - भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ - पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।

देवी - कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

ज्यो - सो क्यों?

देवी - आप ब्राह्मण हैं, वहां क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

कुमार - हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

ज्यो - अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहतीहैं।

देवी - अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।

कुमार - फायदा क्या?

देवी - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

ज्यो - क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।

इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते - होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।
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