20
तिलिस्म के दरवाजे पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे,एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहां पहुंचना जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकान्ता के पास पहुंचने तक जो - जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हां उसके बारे में इतना लिखा था कि 'वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़ - चढ़ के है और माल - खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहां की एक - एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े - बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाय। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।'
कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, “क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?”
ज्यो - देखा जायगा, पहले आप कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाइए।
कुमार - अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाय।
तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।
खंडहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे[1] को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे जहां खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि 'वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखीहै।'
चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे - किनारे चलते हुए उस छोटे - से दलान में पहुंचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुंह में चपला घुसी थी।
एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियां दिखाई पड़ीं।
मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहां उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुंह में डाल देती है।
बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहां से वे लोग छत पर चढ़ गए जहां से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।
किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की - सी गली उस दलान में जाने के लिए राह है जहां चपला और चंद्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।
अब कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी - खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि 'आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊंगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूंगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुंह से उसके सामने जाऊंगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं - नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हां, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूंगा और अपनी धोती उसे पहिराऊंगा, इस वक्त का काम चल जायगा। (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं - नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहां आ पहुंचा!'
ऐसी - ऐसी बातें सोचते और धीरे - धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो - दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुंह से आवाज न निकली। चलते - चलते उस दलान में पहुंचे जहां नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।
पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को यहां देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हां जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।
इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की - सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे - ”हाय चंद्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहां पहुंचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुंच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही कांटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूं? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं - नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुंह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊंगा! जल्दी मत करो, धीरे -धीरे चलो, मैं भी आता हूं, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूंगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूं, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े - बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हां - हां, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!”
इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दलान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।
कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी - लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी - बड़ी आंखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कंपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, “खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!”
यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे कांप उठे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा :
“मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह - वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूंगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूंगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?”
वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, “क्या मैं झूठा हूं? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?”
यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी। पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। ”हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? 'मुझे सब मंजूर है!' इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हां अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?”
कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, “क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?” इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, “अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूं?”
इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पांव पकड़ लिया।
चंद्रकांता
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Re: चंद्रकांता
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Re: चंद्रकांता
चौथा अध्याय - बयान 1
वनकन्या को यकायक जमीन से निकल पैर पकड़ते देख वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, “मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इसी खत में, जो आपने दी है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि 'मुझसे और कुमारी चंद्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो'और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।”
योगी - (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे झूठा बनाया चाहती है?
वनकन्या - (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूं? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकान्ता मर गई?
योगी - (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकान्ता मर गई है?
कुमार - (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती है?
योगी - जो मैं पूछता हूं, पहले उसका तो जवाब दे लो?
कुमार - पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों...!(इतना कहा था कि गला भर आया।)
योगी - (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया!
तेज - (घबड़ाकर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबड़ा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।
योगी - ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है! इस जरा - सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी! (उंगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में! इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने ओस्ताद से सुन चुके हो।
तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंधा गयी। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषीजी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबड़ाकर बोले, “ओह, यह क्या हो गया?” तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया।
कुछ देर बाद योगीजी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये। जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।
वनकन्या को यकायक जमीन से निकल पैर पकड़ते देख वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, “मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इसी खत में, जो आपने दी है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि 'मुझसे और कुमारी चंद्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो'और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।”
योगी - (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे झूठा बनाया चाहती है?
वनकन्या - (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूं? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकान्ता मर गई?
योगी - (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकान्ता मर गई है?
कुमार - (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती है?
योगी - जो मैं पूछता हूं, पहले उसका तो जवाब दे लो?
कुमार - पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों...!(इतना कहा था कि गला भर आया।)
योगी - (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया!
तेज - (घबड़ाकर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबड़ा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।
योगी - ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है! इस जरा - सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी! (उंगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में! इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने ओस्ताद से सुन चुके हो।
तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंधा गयी। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषीजी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबड़ाकर बोले, “ओह, यह क्या हो गया?” तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया।
कुछ देर बाद योगीजी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये। जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।
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Re: चंद्रकांता
आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, “मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगीजी ने उंगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहां अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहां गायब हो गये।
तेज - क्या बतावें कि वे दोनों कहां चले गये, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत तरद्दुद करना पड़ेगा।
वीरेन्द्र - आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?
तेज - हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म के बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर - अंदर यहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।
कुमार - खैर यहां से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबड़ा रही है।
जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई, इनके लश्कर वाले घबड़ा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुंचे तो सबोंका जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “इस वक्त आप सो रहें कल आपसे जो कुछ कहना है कहूंगा।”
तेज - क्या बतावें कि वे दोनों कहां चले गये, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत तरद्दुद करना पड़ेगा।
वीरेन्द्र - आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?
तेज - हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म के बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर - अंदर यहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।
कुमार - खैर यहां से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबड़ा रही है।
जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई, इनके लश्कर वाले घबड़ा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुंचे तो सबोंका जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “इस वक्त आप सो रहें कल आपसे जो कुछ कहना है कहूंगा।”
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Re: चंद्रकांता
यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता जीती है, मगर कहां है और उस खोह में से क्योंकर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगीजी कहां से आये,तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सबेरा नहीं हुआ कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया।
तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, “कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?”
कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै।
तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं।
कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, “यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?”
कुमार - बखूबी याद है।
तेज - मैंने क्या कहा था?
कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा,क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।
तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्यालआया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।
तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले :
कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई?
तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।
कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?
तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा।
कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।
तेज - वह क्या?
कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।
तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।
कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?
तेज - हो सकता है।
कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?
तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी।
कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।
तेज - मैंने क्या गलती की?
कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।
तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?
कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?
तेज - ठीक है चलिए।
आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।
फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एकअंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, “मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।”
चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।[1]
एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा।
जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, “तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब
इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।”
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये।
सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे।
तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, “कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?”
कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै।
तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं।
कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, “यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?”
कुमार - बखूबी याद है।
तेज - मैंने क्या कहा था?
कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा,क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।
तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्यालआया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।
तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले :
कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई?
तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।
कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?
तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा।
कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।
तेज - वह क्या?
कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।
तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।
कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?
तेज - हो सकता है।
कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?
तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी।
कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।
तेज - मैंने क्या गलती की?
कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।
तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?
कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?
तेज - ठीक है चलिए।
आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।
फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एकअंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, “मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।”
चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।[1]
एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा।
जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, “तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब
इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।”
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये।
सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बन्धन
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Re: चंद्रकांता
राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुंचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी - बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।
दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल - इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।
राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, “इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, “आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत - कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते - सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?”
महाराज शिवदत्त ने कहा, “आपकी और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार ेको आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूं, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।” इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये।
राजा सुरेन्द्र - जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहां तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा।
शिव - जो कुछ मैं चाहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएं हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा - खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊंगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूंगा, अब मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।
सुरेन्द्र - आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।
शिव - कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा।
सुरेन्द्र - अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।
शिव - जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये।
सुरेन्द्र - आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।
शिव - मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं।
यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये।
सुरेन्द्र - रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया।
शिव - जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए?
सुरेन्द्र - (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं, अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो।
शिव - नहीं, अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी!
महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, “आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?”
शिव - जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।
बद्री - ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दीजिए।
महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी - बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, “अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।”
मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले - ”आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूंगा। तेजसिंह,देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?”
“बस और कुछ बाकी नहीं।” इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।
राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, “अच्छा अब मैं बिदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।”
शिव - (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं।
“नहीं जरूर ऐसा करना होगा!” कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये।
जीतसिंह,बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, “अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।”
सुरेन्द्र - इधर एक - एक दो - दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो।
जीत - जी हां, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना।
राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने - बुझाने के लिए साथ लेते गये।
दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल - इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।
राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, “इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, “आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत - कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते - सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?”
महाराज शिवदत्त ने कहा, “आपकी और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार ेको आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूं, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।” इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये।
राजा सुरेन्द्र - जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहां तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा।
शिव - जो कुछ मैं चाहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएं हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा - खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊंगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूंगा, अब मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।
सुरेन्द्र - आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।
शिव - कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा।
सुरेन्द्र - अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।
शिव - जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये।
सुरेन्द्र - आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।
शिव - मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं।
यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये।
सुरेन्द्र - रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया।
शिव - जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए?
सुरेन्द्र - (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं, अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो।
शिव - नहीं, अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी!
महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, “आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?”
शिव - जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।
बद्री - ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दीजिए।
महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी - बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, “अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।”
मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले - ”आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूंगा। तेजसिंह,देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?”
“बस और कुछ बाकी नहीं।” इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।
राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, “अच्छा अब मैं बिदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।”
शिव - (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं।
“नहीं जरूर ऐसा करना होगा!” कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये।
जीतसिंह,बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, “अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।”
सुरेन्द्र - इधर एक - एक दो - दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो।
जीत - जी हां, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना।
राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने - बुझाने के लिए साथ लेते गये।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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