चंद्रकांता

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Re: चंद्रकांता

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तेजसिंह ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा, “आप इस बाग को देखकर चौंके क्यों? इसमें कौन - सी अद्भुत चीज आपकी नजर पड़ी?”

कुमार - मैं इस बाग को पहचान गया।

तेज - (ताज्जुब से) आपने इसे कब देखा था?

कुमार - यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आंखें खुली थीं, इसी बाग में जब आंखें खुलीं तो कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी और इसी बाग में खाना भी मिला था जिसे खाते ही मैं बेहोश होकर दूसरे बाग में पहुंचाया गया था। वह देखो, सामने वह छोटा - सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊंचे दिखाई दे रहे हैं।

तेज - हम भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था।

कुमार - चलो घूमो, मैं ख्याल करता हूं कि उस कमरे का दरवाजा भी खुला होगा जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी।

चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे। तीसरे भाग में इस बाग की पूरी कैफियत लिखी जा चुकी है, दोहराकर लिखना पढ़ने वालों का समय खराब करना है।

कमरे के दरवाजे खुले हुए थे, जो - जो चीजें पहले कुमार ने देखी थीं आज भी नजर पड़ीं। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नाम - निशान न था।

पहली दफे जब कुमार इस बाग में आये थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबड़ा रही थी, कई बातों का सोच घेरे हुए था, इसलिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे, पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं, बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बंधा रही है। खुशी - खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, कोई दरवाजा बंद नहीं है, सब जगहों को देखते, अपने ऐयारों को दिखाते और मौके - मौके पर यह भी कहते जाते हैं - ”इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था, इस जगह सो गये थे कि दूसरे बाग में पहुंचे।”

तेजसिंह ने कहा, “दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुंचे थे, जरूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा,अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।”

कुमार - मैं भी यही सोचता हूं।

देवी - (कुमार से) पहली दफे जब आप इस बाग में आये थे तो खूब खातिर की गयी थी, नहाकर पहनने के कपड़े मिले, पूजा - पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी - अच्छी चीजें मिली थीं, पर आज तो कोई बात भी नहीं पूछता, यह क्या?

कुमार - यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है।

घूमते - घूमते एक दरवाजा इन लोगों को मिला जिसे खोल ये लोग दूसरे बाग में पहुंचे। कुमार ने कहा, “बेशक यह वही बाग है जिसमें दूसरी दफे मेरी आंख खुली थी या जहां कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर, पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर चलो इस बाग में चलकर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनक बाकी है या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूं।” इतना कह कुमार आगे हुए और उनके पीछे - पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े।
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Re: चंद्रकांता

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विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकान्ता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती - जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन - सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में खाना - पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा - सा लिखा हुआ कागज लेकर हाजिर हुआ।

इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, “यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?”

जासूस ने अर्ज किया, “इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी - बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़कर दरबार में ले आया हूं। बाजार में इन कागजों को पढ़ - पढ़कर लोग बहुत घबड़ा रहे हैं।”

जासूस के हाथ से कागज लेकर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -

“नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजों, सरदारों और बड़े - बड़े सेठ - साहूकारों को चुन - चुनकर मारूंगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि हमारे यहां बड़े - बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे - ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी - अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!

-ऐयारों का गुरुघंटाल - जालिमखां”

इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सबों को ढाढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा, “हम ऐसे - ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते! कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाय कि जालिमखां को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबराकर या डरकर अपना मकान न छोड़े! मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा - पूरा किया जाय और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएं।”

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गए।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच - विचारकर हरदयालसिंह ने कहा, “हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।” महाराज जयसिंह ने कहा, “तुम इसी वक्त एक खत यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।”

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिखकर तैयार की और एक जासूस को देकर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया,इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को बिदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस तरद्दुद में गुजर गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज लाकर पेश किया और कहा, “आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।” दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था:

“वाह वाह वाह! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

- वही - जालिमखां”

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सबों के छक्के छूट गये। अपनी - अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाय एक धाूम - सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सबों की जुबान पर जालिमखां सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बंधी हुई थी।

जाहिर में महाराज ने सबों को ढाढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, “शहर में मुनादी करा दी जाय कि जो कोई इस जालिमखां को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहां के कुल हालचाल की खत पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाए।”

यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो खत लेकर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे कांप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका।

दूसरे दिन सबेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, यह लिखा था :

“इन पांच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। ले अब खूब सम्हलकर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पावेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूंगा!!

- वही जालिमखां!!”

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक खत के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी।

महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।

पांचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सबों के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है, क्योंकि गर्दन में रस्से के दाग थे।

इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये।

आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर - पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर - कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाये पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा - सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।

महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं।

ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये।

जय - आज आप बड़े मौके पर पहुंचे।

बद्री - जी हां, अब आप कोई चिंता न करें। दो - एक दिन में ही जालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा।

जय - आपको जालिमखां की खबर कैसे लगी।

बद्री - इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूंगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था उसे बराबर ढाढ़स देता था कि 'घबराओ मत अब मैं आ पहुंचा हूं।' बाकी हाल एकांत में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान - पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छु्रट्टी पाकर तब कोई काम करूंगा।

अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ”पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।”

बद्री - शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?

जय - जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी।

महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आये और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा - पूरा इंतजाम कर दिया।

जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिमखां के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गये।

उस वक्त वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग बिदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयाल महाराज के पास रह गये।

पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि ”नौगढ़ में जालिमखां की खबर कैसे पहुंची?”

बद्री - नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचावेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजाहै।

महाराज - इस दुष्ट जालिमखां ने वहां तो किसी की जान न ली?

बद्री - नहीं, वहां अभी उसका दाव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।

महाराज - यहां तो उसने कई खून किए।

बद्री - शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायगा।

महाराज - अगर ज्योतिषीजी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।

बद्री - महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट काम कर रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।

महा - देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहाहै।

बद्री - घबराइए नहीं, सुबह - शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूं।

महाराज - क्या वे लोग कई आदमी हैं?

बद्री - जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की नीयत करे।

महाराज - अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।

बद्री - अब मैं रुखसत होऊंगा बहुत कुछ काम करना है।

हरदयाल - क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएंगे?

बद्री - कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा।

कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से बिदा हो बद्रीनाथ जालिमखां की टोह में रवाना हुए।
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Re: चंद्रकांता

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बद्रीनाथ जालिमखां की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धामकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा।

महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिमखां को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने लाकर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया - यह लिखा हुआ था :

“महाराज जयसिंह,

होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकड़ा क्या कर सकता है? पहले तो जालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह 'टेटी - चोटी' में बारह बजे रात को मिल सकता है।

- आफतखां खूनी”

इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे - बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जायं, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।

जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नए आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।

महाराज - अब क्या किया जाय! एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है।

हरदयाल - बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे! मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती।

महाराज - किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।

हरदयाल - नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायगी, हां सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाय तो शायद पहुंचे।

महाराज - (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है!

हरदयाल - एक ही जासूस के मरने से सबों के छक्के छूट गये।

महाराज - खैर आज शाम को हमारे कुल जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रखकर उड़ा दिये जायेंगे, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा।

हरदयाल - जो हुक्म!

महाराज - बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।

दीवान हरदयालसिंह महाराज से बिदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है!
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Re: चंद्रकांता

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कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकान्ता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहां कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं।

उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नजर पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था -

“कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लोंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म - भर न भूलूंगा।

- सिद्धनाथ योगी।”

कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, “साधु हैं, योगी हैं इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।” देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी खत को पढ़ा।

शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा, “हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।”

औरत - तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊं?

देवी - नहीं कोई जरूरत नहीं।

औरत - तो फिर यहां संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं।

तेज - उस दूसरे बाग में बावली है।

औरत - इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूं, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।

तेज - नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।

इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई।

कुमार - इस खत के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए? उसी बाग में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझकर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।

तेज - जरूर ऐसा ही है।

देवी - क्यों ओस्ताद, इसमें क्या मतलब है?

तेज - देखो मालूम ही हुआ जाता है।

कुमार - तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे?

तेज - हमने यह सोचा कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने - पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जायं तो उठवाकर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जायगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बनाकर लाये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ न कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि ज्याफत कबूल करके मौका पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।

देवी - तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है?

तेज - (हंसकर) तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिसकर सबों को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौनहै?

कुमार - हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए।

तेज - ठीक ही है।

इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।

उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा, “अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।”

“आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं!” कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले - ”जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है!”

संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिसकर सबों को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें।

थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंअर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां पांच - सात औरतें इधर - उधर घूमती - फिरती दिखाई पड़ीं और दो - तीन पेड़ों के नीचे। कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना जरूरी था।

शाम हो गई थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे, “चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिण्ड न छोडूंगा। हाल मालूम हो जायगा कि वनकन्या कौन है,तिलिस्मी किताब उसने क्योकर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकान्ता कहां चली गई?”

दीवानखाने में पहुंचे। आज यहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगीजी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा - चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाये योगीजी बैठे हुए थे। बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार - पांच लौंडियां हाथ जोड़े खड़ी थीं।

कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम - भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी।

सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगीजी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोलकर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगीजी न जानने पावें। कुछ ठहरकर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।

योगी - आप और आपकी मंडली के लोग कुशल - मंगल से तो हैं?

कुमार - आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु...

योगी - परंतु क्या?

कुमार - परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जायगा।

योगी - परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग - सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात - भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा। ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।

योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बंधा गई कि अब सब काम पूरा हो जायगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे - महाराजे के और किसी के यहां न पाई जायं। खाने - पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हटकर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गईं।

रात पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा :

“अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूंगा।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत - सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं। आखिर खूब सम्हलकर बैठे और योगी से पूछने लगे।
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Re: चंद्रकांता

Post by Jemsbond »

जो कुछ दिन बाकी था दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने - बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए।

खुद महाराज जयसिंह ने जासूसों से पूछा, “तुम लोग जालिमखां का पता क्यो नहीं लगा सकते?” इसके जवाब में उन्होंने अर्ज किया, “महाराज, हम लोगों से जहां तक बनता है कोशिश करते हैं, उम्मीद है कि पता लग जायगा।”

महाराज ने कहा, “आफतखां एक नया शैतान पैदा हुआ? इसने अपने इश्तिहार में अपने मिलने का पता भी लिखा है, फिर क्यों नहीं तुम लोग उसी ठिकाने मिलकर उसे गिरफ्तार करते हो?” जासूसों ने जवाब दिया, “महाराज आफतखां ने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा है, अब हम लोग क्या जानें 'टेटी-चोटी' कहां है, कौन - सा मुहल्ला है, किस जगह को उसने इस नाम से लिखा है, इसका क्या अर्थ है तथा हम लोग कहां जायें?”

यह सुनकर महाराज भी 'टेटी-चोटी' के फेर में पड़ गए। कुछ भी समझ में न आया। जासूसों को बेकसूर समझ कुछ न कहा, हां डरा - धामका के और ताकीद करके रवाना किया।

अब महाराज को अपने जीने की उम्मीद कम रह गई, खौफ के मारे रात भर हाथ में तलवार लिये जागा करते, क्योंकि थोड़ा - बहुत जो कुछ भरोसा था अपनी बहादुरी ही का था।

दूसरे दिन इश्तिहार फिर शहर में चिपका हुआ पाया गया जिसे पहरे वालों ने लाकर हाजिर किया। दीवान हरदयालसिंह ने उसे पढ़कर सुनाया, यह लिखा था:

“देखना, खूब सम्हले रहना! बद्रीनाथ को गिरफ्तार कर चुका हूं, अपने पहले वादे के बमूजिब कल बारह बजे रात को उसका सिर लेकर तुम्हारे महल में हम लोग कई आदमी पहुंचेंगे। देखें कैसे गिरफ्तार करते हो!!

- आफतखां”
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