दिन दोपहर से कुछ ज्यादे जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान - पूजा कुछ नहीं की थी।
लश्कर में जाकर कुमार राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबाजी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा कहकर दोनों अपने - अपने डेरे में आए और स्नान - पूजा करके भोजन किया।
राजा सुरेन्द्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठकर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस - किस को खोह के अंदर ले चलें।
सुरेन्द्र - योगीजी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी हो सके।
जयसिंह - हम, आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस - जिसको आप चाहें ले चलें।
सुरेन्द्र - बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं हां, ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।
जयसिंह - आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चलें!
बातचीत और राय पक्की करते दिन थोड़ा रह गया, सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुलाकर पूछा कि ”यहां से चलकर बाबाजी के पास पहुंचने तक राह में कितनी देर लगती है?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “अगर इधर - उधर ख्याल न करके सीधो ही चले चलें तो पांच - छ: घड़ी में उस बाग तक पहुंचेंगे जिसमें बाबाजी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहां चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अंधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।”
कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।
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बहुत सबेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आये। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जाकर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते - फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सबों को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुंचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बताकर कहा, “देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।”
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकारकर कहा, “खबरदार, मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।”
इरादा करते रह गये, किसी की मजाल न हुई कि दण्डवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे कि बाबाजी ने दण्डवत करने से क्यों रोका। पास पहुंचकर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबाजी ने इसे भी मंजूर न करके कहा, “महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।”
सुरेन्द्र - साधुओं से बढ़कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।
बाबाजी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूं।
सुरेन्द्र - साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।
बाबाजी - किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो!
सुरेन्द्र - तो आप कौन हैं?
बाबाजी - कोई भी नहीं।
जय - आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, तरद्दुद, सोच और घबराहट बढ़ाती है।
बाबाजी - (हंसकर) अच्छा आइये इस बाग में चलिए।
सबों को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गये।
पाठक, घड़ी - घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल - बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे - चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी - चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुमार वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकान्ता से मिले थे।
जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उसी पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बिठाकर उनके दोनों तरफ दर्जे - ब - दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबाजी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं।
दोनों राजा - आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
बाबाजी - आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजियेगा।
जयसिंह - यहां आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकान्ता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।
बाबा - (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठावेंगे।
जयसिंह - आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।
बाबा - शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।
बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि ”हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।”
बाबाजी सबों को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सबों ने स्नान किया और उत्तार तरफ वाले दलान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हां इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा:
“यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे - छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में है, मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर - ही - ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?”
बाबा - इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ नहीं सकता था, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आये हैं, दूसरी राह बाहर आने - जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादे छिपी हुई है।
सुरेन्द्र - आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।
बाबाजी - मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूं सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।
सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) आप किसके नौकर हैं?
बाबाजी - यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर - सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे - पीछे दस - पंद्रह लौंडियों की भीड़ थी।
बाबा - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।
सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुंअर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकान्ता इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकान्ता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकान्ता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।
नीचे मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते - सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।
कुमार के दिल में चंद्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोचकर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे :
“नहीं - नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम - राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया! इससे बढ़कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।”
कुमार क्या सबो के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा :
“बेचारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसकर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?”
बाबा - नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसी थी उस वक्त यहां का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।
सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह यहां न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुंह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धारकर नीचे की तरफ दबाया!
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ाकर बोले, “आप कृपा कर के पेचीली और बहुत से मानी पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकान्ता कहां है?”
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल - बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबाजी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, “लीजिए यही आपकी चंद्रकान्ता है!”
चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबो ने कुमारी चंद्रकान्ता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठाकर देर तक अपनी छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।
सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से भी झिल्ली उतार दी! लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं।
मारे खुशी के सबो का चेहरा चमक उठा, आज की - सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठाकर सूंघा।
घंटों तक मारे खुशी के सबों की अजब हालत रही। कुंअर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।
महाराज जयसिंह की तरफ देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, “आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे - फिरे या दूसरे कमरे में चली जाय और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।”
जयसिंह - बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाय।
बाबा - (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।
जयसिंह - खैर जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।
बाबा - अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।
चंद्रकांता
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Re: चंद्रकांता
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Re: चंद्रकांता
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकान्ता का हाल कहना शुरू किया।
बाबाजी - मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा - सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बंधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।
सुरेन्द्र - पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?
बाबा - तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल - खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे - अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी - अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बांधाते हैं।
आजकल तो तिलिस्म बांधाने का यह कायदा है कि थोड़ा - बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो - एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या सांप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बांधाने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े - बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बांधाने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी,नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा - सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहां का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन - शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।
जयसिंह - खैर इसका हाल कुछ - कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये?
बाबा - सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूं। जब कुमारी चंद्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फंसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहां पहुंचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहां वह फंसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊंगा।
सुरेन्द्र - सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?
बाबा - यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।
कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुंचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुंचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते।
बाबा - सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकान्ता फंसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहां पहुंचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहां का माल - असबाब कुमारी के हाथ लगे।
कुमार - आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुंच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।
बाबा - आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूं, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुंचा और जो - जो किया सो कहता हूं, सुनिए।
बाबाजी - मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा - सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बंधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।
सुरेन्द्र - पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?
बाबा - तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल - खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे - अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी - अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बांधाते हैं।
आजकल तो तिलिस्म बांधाने का यह कायदा है कि थोड़ा - बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो - एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या सांप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बांधाने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े - बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बांधाने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी,नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा - सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहां का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन - शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।
जयसिंह - खैर इसका हाल कुछ - कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये?
बाबा - सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूं। जब कुमारी चंद्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फंसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहां पहुंचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहां वह फंसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊंगा।
सुरेन्द्र - सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?
बाबा - यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।
कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुंचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुंचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते।
बाबा - सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकान्ता फंसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहां पहुंचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहां का माल - असबाब कुमारी के हाथ लगे।
कुमार - आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुंच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।
बाबा - आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूं, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुंचा और जो - जो किया सो कहता हूं, सुनिए।
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Re: चंद्रकांता
सिद्धनाथ योगी ने कहा, “पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुंचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकान्ता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे - छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो हमें उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।”
सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने 'हूं हूं' कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे -
सिद्ध - मैं लंगोटी बांधाकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा - सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ - दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे - धीरे जल कम होने लगा, यहां तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊंचे की तरफ चला जा रहा हूं।
आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तार के कोण में पाया और घूमता - फिरता इस कमरे में पहुंचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहां भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुंचा जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।
मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूं।” यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुंचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा - सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहां का माल - असबाब इनके हाथ लगे।
मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबो को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल - खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहां से निकालकर आपके पास पहुंचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहां का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूं। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल - असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चंद्रकान्ता को न मिले।
मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊंगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।
मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहां का माल - असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहां है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो - चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।
तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर - उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, “जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।”
मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहां गया जहां कुमारी चंद्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, “बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी - बड़ी चिउंटियां निकल रही हैं! यह क्या मामला है?”
मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउंटियां जहां नजर पड़ें समझना कि वहां जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी - सी हांडी निकली जिसका मुंह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हांडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हांडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ।
दूसरे दिन कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, “चारों तरफ घूम - घूमकर देखो, जहां ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।”
मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूं। उस गुच्छे में तीस तालियां थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर - ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायं। चार बाग और तेईस कोठरियां असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।
जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियां और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहां आया।कई दिनों में यहां के सब ताले खोले गये, तब तक यहां रहते - रहते कुमारी की तबीयत घबड़ा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि ”मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा - फिरा चाहती हूं।”
बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो - तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी - कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहां तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहां का माल - असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चंद्रकान्ता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूं।
महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बांधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहां कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊं।
सुरेन्द्र - पूछने को तो बहुत - सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूं, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूंगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?
जयसिंह - हां यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि 'मैं योगी महात्मा नहीं हूं' यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं!
बाबा - खैर यह भी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (कुमारी चंद्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?
चंद्रकान्ता - (हाथ जोड़कर) मैं तो सब - कुछ जानती हूं मगर कहूं क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती!
बाबा - आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं।
जयसिंह - जैसी आपकी मर्जी।
बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबो को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले।
सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने 'हूं हूं' कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे -
सिद्ध - मैं लंगोटी बांधाकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा - सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ - दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे - धीरे जल कम होने लगा, यहां तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊंचे की तरफ चला जा रहा हूं।
आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तार के कोण में पाया और घूमता - फिरता इस कमरे में पहुंचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहां भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुंचा जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।
मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूं।” यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुंचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा - सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहां का माल - असबाब इनके हाथ लगे।
मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबो को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल - खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहां से निकालकर आपके पास पहुंचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहां का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूं। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल - असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चंद्रकान्ता को न मिले।
मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊंगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।
मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहां का माल - असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहां है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो - चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।
तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर - उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, “जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।”
मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहां गया जहां कुमारी चंद्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, “बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी - बड़ी चिउंटियां निकल रही हैं! यह क्या मामला है?”
मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउंटियां जहां नजर पड़ें समझना कि वहां जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी - सी हांडी निकली जिसका मुंह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हांडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हांडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ।
दूसरे दिन कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, “चारों तरफ घूम - घूमकर देखो, जहां ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।”
मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूं। उस गुच्छे में तीस तालियां थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर - ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायं। चार बाग और तेईस कोठरियां असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।
जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियां और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहां आया।कई दिनों में यहां के सब ताले खोले गये, तब तक यहां रहते - रहते कुमारी की तबीयत घबड़ा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि ”मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा - फिरा चाहती हूं।”
बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो - तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी - कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहां तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहां का माल - असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चंद्रकान्ता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूं।
महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बांधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहां कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊं।
सुरेन्द्र - पूछने को तो बहुत - सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूं, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूंगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?
जयसिंह - हां यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि 'मैं योगी महात्मा नहीं हूं' यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं!
बाबा - खैर यह भी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (कुमारी चंद्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?
चंद्रकान्ता - (हाथ जोड़कर) मैं तो सब - कुछ जानती हूं मगर कहूं क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती!
बाबा - आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं।
जयसिंह - जैसी आपकी मर्जी।
बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबो को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: चंद्रकांता
बाबाजी यहां से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुंचे और वहां घूम - फिरकर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, “वाह - वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!”
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो - तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :
“आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।”
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, “मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूं जरा सब्र कीजिए।” इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन - चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, “हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूंगा।”
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर - उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा - धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल - चाल मालूम करने की फुरसत कहां! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि 'तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो' गले लगा लिया और कहा, “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले,आज तक अच्छे - अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने - अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चंद्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच - समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़ - चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आंखों को पोंछकर कहा, “आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात - बेरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, “जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होगी!”
इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?”
जीत -अब सबों को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल - असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल - असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहां तक मैं समझता हूं, कुमारी चंद्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहां लाए थे, बुला के कहा, “तुम लोग अपने - अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रखी है।”
जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियां जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :
“वाह - वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा!”
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, “वाह - वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!”
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो - तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :
“आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।”
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, “मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूं जरा सब्र कीजिए।” इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन - चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, “हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूंगा।”
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर - उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा - धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल - चाल मालूम करने की फुरसत कहां! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि 'तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो' गले लगा लिया और कहा, “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले,आज तक अच्छे - अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने - अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चंद्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच - समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़ - चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आंखों को पोंछकर कहा, “आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात - बेरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, “जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होगी!”
इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?”
जीत -अब सबों को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल - असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल - असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहां तक मैं समझता हूं, कुमारी चंद्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहां लाए थे, बुला के कहा, “तुम लोग अपने - अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रखी है।”
जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियां जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :
“वाह - वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा!”
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: चंद्रकांता
जिस राह से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह आया - जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आये थे वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी - घोड़े या पालकी पर सवार होकर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मंगाई मगर दोनों महाराज और कुंअर वीरेन्द्रसिंह किस पर सवार होंगे अब वे सोचने लगे।
वहां खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मंगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियां थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुंचे और उसकी दाहिनी आंख में उंगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया। जैसे - जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे - तैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था, यहां तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्जी से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आकर बोले, “इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।”
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए।[1]
दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुंचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहां से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहिर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियां भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहां तक कि उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गयीं।
राजा सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुंचे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आये।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुंचा और बड़ी धुमधाम से वीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक! अब तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता का वृत्तात समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखा चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हांडियां रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक - माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक - एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल - खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूं कि अच्छी सायत में कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धुमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी - चढ़ी थी। बारात पहुंचने के पहले ही समां बंधा हुआ था, अच्छी - अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रण्डियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुंची अजब झमेला मचा।
बारात के आगे - आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बांधो कमर से दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झण्डा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुंचे, इसके बाद धीरे - धीरे कुल जलूस पहुंचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर गए।
कुमार वीरेन्द्रसिंह का घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो - हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुंह से यही आवाज निकल रही है कि 'हमारी मदद को कोई न आवे, सब दूर से तमाशा देखें।' एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी - अभी सरपेंच बांधो हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहिरे हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बांधा लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे - पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुंची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहिरे हुए महाराज शिवद्त्त को एक खंभे के साथ खूब कसकर बांधा दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर उनके हाथ में थमा आप कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुंह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की!!
अब तो मारे हंसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूं।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बांधा झंडा ले कुमार की बारात के आगे - आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे - आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सम्हाल न सके, तलवार निकालकर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी - खुशी कुमारी चंद्रकान्ता के साथ हो गई।
॥ चंद्रकांता समाप्त॥
वहां खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मंगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियां थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुंचे और उसकी दाहिनी आंख में उंगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया। जैसे - जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे - तैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था, यहां तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्जी से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आकर बोले, “इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।”
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए।[1]
दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुंचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहां से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहिर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियां भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहां तक कि उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गयीं।
राजा सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुंचे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आये।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुंचा और बड़ी धुमधाम से वीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक! अब तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता का वृत्तात समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखा चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हांडियां रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक - माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक - एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल - खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूं कि अच्छी सायत में कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धुमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी - चढ़ी थी। बारात पहुंचने के पहले ही समां बंधा हुआ था, अच्छी - अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रण्डियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुंची अजब झमेला मचा।
बारात के आगे - आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बांधो कमर से दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झण्डा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुंचे, इसके बाद धीरे - धीरे कुल जलूस पहुंचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर गए।
कुमार वीरेन्द्रसिंह का घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो - हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुंह से यही आवाज निकल रही है कि 'हमारी मदद को कोई न आवे, सब दूर से तमाशा देखें।' एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी - अभी सरपेंच बांधो हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहिरे हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बांधा लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे - पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुंची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहिरे हुए महाराज शिवद्त्त को एक खंभे के साथ खूब कसकर बांधा दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर उनके हाथ में थमा आप कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुंह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की!!
अब तो मारे हंसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूं।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बांधा झंडा ले कुमार की बारात के आगे - आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे - आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सम्हाल न सके, तलवार निकालकर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी - खुशी कुमारी चंद्रकान्ता के साथ हो गई।
॥ चंद्रकांता समाप्त॥
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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