अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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Jemsbond
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अंधे बाबा अब्दुल्ला की कहानी

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अंधे बाबा अब्दुल्ला की कहानी

बाबा अब्दुल्ला ने कहा कि मैं इसी बगदाद नगर में पैदा हुआ था। मेरे माँ बाप मर गए तो उनका धन उत्तराधिकार में मैंने पाया। वह धन इतना था कि उससे मैं जीवन भर आराम से रह सकता था किंतु मैंने भोग-विलास में सारा धन शीघ्र उड़ा दिया। फिर मैंने जी तोड़ कर धनार्जन किया और उससे अस्सी ऊँट खरीदे। मैं उन ऊँटों को किराए पर व्यापारियों को दिया करता था। उनके किराए से मुझे काफी लाभ हुआ और मैंने कुछ और ऊँट खरीदे और उनको साथ में ले कर किराए पर माल ढोने लगा।

एक बार हिंदुस्तान जानेवाले व्यापारियों का माल ऊँटों पर लाद कर मैं बसरा ले गया। वहाँ माल को जहाजों पर चढ़ा कर और अपना किराया ले कर अपने ऊँट ले कर बगदाद वापस आने लगा। रास्ते में एक बड़ा हरा-भरा मैदान देख कर मैंने ऊँटों के पाँव बाँध कर उन्हें चरने छोड़ दिया और खुद आराम करने लगा। इतने में बसरा से बगदाद को जानेवाला एक फकीर भी मेरे पास आ बैठा। मैंने भोजन निकाला और उसे साथ में आने को कहा। खाते-खाते हम लोग बातें भी करते जाते थे। उसने कहा, तुम रात-दिन बेकार मेहनत करते हो। यहाँ से कुछ दूर पर एक ऐसी जगह है जहाँ असंख्य द्रव भरा है। तुम इन अस्सी ऊँटों को रत्नों और अशर्फियों से लाद सकते हो। और वह धन तुम्हारे जीवन भर को काफी होगा।

मैंने यह सुन कर उसे गले लगाया और यह न जाना कि वह इससे कुछ स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। मैंने उससे कहा, तुम तो महात्मा हो, तुम्हें सांसारिक धन से क्या लेना-देना। तुम मुझे वह जगह दिखाओ तो मैं ऊँटों को रत्नादि से लाद लूँ। मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें उनमें से एक ऊँट दे दूँगा। मैंने कहने को तो कह दिया किंतु मेरे मन में द्वंद्व होने लगा। कभी सोचता कि बेकार ही एक ऊँट इसे देने को कहा, कभी सोचता कि क्या हुआ, मेरे लिए उन्यासी ऊँट ही बहुत हैं। वह फकीर मेरे मन के द्वंद्व को समझ गया। उसने मुझे पाठ पढ़ाना चाहा और बोला, एक ऊँट को ले कर मैं क्या करूँगा, मैं तुम्हें इस शर्त पर वह जगह दिखाऊँगा कि तुम खजाने से भरे अपने ऊँटों में से आधे मुझे दे दो। अब तुम्हारी मरजी है। तुम खुद ही सोच लो कि चालीस ऊँट क्या तुम्हारे लिए कम हैं। मैंने विवशता में उसकी बात स्वीकार कर ली। मैंने यह भी सोचा कि चालीस ऊँटों का धन ही मेरी कई पीढ़ियों को काफी होगा।

हम दोनों एक अन्य दिशा में चले। एक पहाड़ में तंग दर्रे से निकल कर हम लोग पहाड़ों के बीच एक खुले स्थान में पहुँचे। वह जगह बिल्कुल सुनसान थी। फकीर ने कहा, ऊँटों को यहीं बिठा दो और मेरे साथ आओ। मैं ऊँटों को बिठा कर उसके साथ गया। कुछ दूर जा कर फकीर ने सूखी लकड़ियाँ जमा कर के चकमक पत्थर से आग निकाली और लकड़ियों को सुलगा दिया। आग जलने पर उसने अपनी झोली में से सुगंधित द्रव्य निकाल कर आग में डाला। उसमें से धुएँ का एक जबर्दस्त बादल उठा और एक ओर को चलने लगा। कुछ दूर जा कर वह फट गया और उसमें एक बड़ा टीला दिखाई दिया। जहाँ हम थे वहाँ से टीले तक एक रास्ता भी बन गया। हम दोनों उसके पास पहुँचे तो टीले में एक द्वार दिखाई दिया। द्वार से आगे बढ़ने पर एक बड़ी गुफा मिली जिसमें जिन्नों का बनाया हुआ एक भव्य भवन दिखाई दिया।

वह भवन इतना भव्य था कि मनुष्य उसे बना ही नहीं सकते। हम लोग उसके अंदर गए तो देखा कि उसमें असीम द्रव्य भरा हुआ था। अशर्फियों के एक ढेर को देख कर मैं उस पर ऐसे झपटा जैसा किसी शिकार पर शेर झपटे। मैंने ऊँटों की खुर्जियों में अशर्फियाँ भरना शुरू किया। फकीर भी द्रव्य संग्रह करने लगा किंतु वह केवल रत्नों को भरता। उसने मुझे भी अशर्फियों को छोड़ कर केवल रत्न उठाने को कहा मैं भी ऐसा करने लगा। हम लोगों ने सारी खुर्जियाँ बहुमूल्य रत्नों से भर ली। मैं बाहर जाने ही वाला था कि वह फकीर एक और कमरे में गया और मैं भी उसके साथ चला गया। उसमें भाँति-भाँति की स्वर्णनिर्मित वस्तुएँ रखी थीं। फकीर ने एक सोने का संदूकचा खोला और उसमें से एक लकड़ी की डिबिया निकाली और उसे खोल कर देखा। उसमें एक प्रकार का मरहम रखा हुआ था। उसने डिबिया बंद करके अपनी जेब में रख ली। फिर उसने आग जला कर उसमें सुगंध डाली और मंत्र पढ़ा जिससे वह महल गायब हो गया और वह गुफा और टीला भी गायब हो गया जो उसने मंत्र बल से पैदा किया था। हम लोग उसी मैदान में आ गए जिसमें मेरे ऊँट बँधे बैठे थे।

हम ने सारे ऊँटों को खुर्जियों से लादा और वादे के अनुसार आधे-आधे ऊँट बाँट कर फिर उस तंग दर्रे से निकले जहाँ से हो कर आए थे। बसरा और बगदाद के मार्ग पर पड़नेवाले मैदान में पहुँच कर मैं अपने चालीस ऊँट ले कर बगदाद की ओर चला और फकीर चालीस ऊँट ले कर बसरे की ओर रवाना हुआ। मैं कुछ ही कदम चला हूँगा कि शैतान ने मेरे मन में लोभ भर दिया और मैंने पीछे की ओर दौड़ कर फकीर को आवाज दी। वह रुका तो मैंने कहा, साईं जी आप तो भगवान के भक्त हैं, आप इतना धन ले कर क्या करेंगे। आपको तो इससे भगवान की आराधना में कठिनाई ही होगी। आप अगर बुरा न मानें तो मैं आपके हिस्से में से दस ऊँट ले लूँ। आप तो जानते ही है कि मेरे जैसे सांसारिक लोगों के लिए धन का ही महत्व होता है। फकीर इस पर मुस्कुराया और बोला, अच्छा, दस ऊँट और ले जाओ।

जब फकीर ने अपनी इच्छा से बगैर हीला-हुज्जत किए दस ऊँट मुझे दे डाले तो मुझे और लालच ने धर दबाया और मैंने सोचा कि इससे दस ऊँट और ले लूँ, इसे तो कोई अंतर पड़ना ही नहीं है। अतएव मैं उसके पास फिर गया और बोला, साईं जी, आप कहेंगे कि यह आदमी बार-बार परेशान कर रहा है। लेकिन मैं सोचता हँ कि आप जैसे संत महात्मा तीस ऊँटों को भी कैसे सँभालेंगे।

इससे आपकी साधना-आराधना में बहुत विघ्न पड़ेगा। इन में से दस ऊँट मुझे और दे दीजिए। फकीर ने फिर मुस्कुरा कर कहा, तुम ठीक कहते हो मेरे लिए बीस ऊँट काफी हैं। तुम दस ऊँट और ले लो।

दस ऊँट और ले कर मैं चला। किंतु मुझ पर लालच का भूत बुरी तरह सवार हो गया था। या यह समझो कि वह फकीर ही अपनी निगाहों और अपने व्यवहार से मेरे मन में लालच पैदा किए जा रहा था। मैंने अपने रास्ते से पलट कर पहले जैसी बातें कह कर और दस ऊँट उससे माँगे। उसने हँस कर यह बात भी स्वीकार कर ली और दस ऊँट अपने पास रख कर दस ऊँट मुझे दे दिए। किंतु मैं अभागा इतने से भी संतुष्ट न हुआ। मैंने बाकी दस ऊँटों का विचार अपने मन से निकालना चाहा किंतु मुझे उनका ध्यान बना रहा। मैं रास्ते से लौट कर एक बार फिर उस फकीर के पास गया और उसकी बड़ी मिन्नत-समाजत करके बाकी के ऊँट भी उससे माँगे। वह हँस कर बोला, भाई, तेरी तो नियत ही नहीं भरती। अच्छा यह बाकी दस ऊँट भी ले जा, भगवान तेरा भला करे।

सारे ऊँट पा कर भी मेरे मन का खोट न गया। मैंने उससे कहा, साईं जी आपने इतनी कृपा की है तो वह मरहम की डिबियाँ भी दे दीजिए जो आपने जिन्नों के महल से उठाई थी। उसने कहा कि मैं वह डिबिया नहीं दूँगा। अब मुझे उस का लालच हुआ। मैं फकीर से उसे देने के लिए हुज्जत करने लगा। मैंने मन में निश्चय कर लिय था कि यदि फकीर ने अपनी इच्छा से वह डिबिया नहीं दी तो मैं जबर्दस्ती करके उससे डिबिया ले लूँगा। मेने मन की बात को जान कर फकीर ने वह डिबिया भी मुझे दे दी और कहा, तुम डिबिया जरूर ले लो लेकिन यह जरूरी है कि तुम इस मरहम की विशेषता समझ लो। अगर तुम इसमें से थोड़ा सा मरहम अपनी बाईं आँख में लगाओगे तो तुम्हें सारे संसार के गुप्त कोश दिखाई देने लगेंगे। किंतु अगर तुमने इसे दाहिनी आँख में लगाया तो सदैव के लिए दोनों आँखों से अंधे हो जाओगे।

मैंने कहा, साईं जी, आप तो इस मरहम के पूरे जानकार हैं। आप ही इसे मेरी आँख में लगा दें। फकीर ने मेरी बाईं आँख बंद की और थोड़ा-सा मरहम ले कर पलक के ऊपर लगा दिया। मरहम लगते ही वैसा ही हुआ जैसा उस फकीर ने कहा था, यानी दुनिया भर के गुप्त और भूमिगत धन-कोश मुझे दिखाई देने लगे। मैं लालच में अंधा तो हो ही रहा था। मैंने सोचा कि अभी और कई खजाने होंगे जो नहीं दिखाई दे रहे हैं। मैंने दाहिनी आँख बंद की और फकीर से कहा कि इस पर भी मरहम लगा दो ताकि बाकी खजाने भी मुझे दिखने लगे। फकीर ने कहा, ऐसी बात न करो, अगर दाहिनी आँख में मरहम लगा तो तुम हमेशा के लिए अंधे हो जाओगे।

मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था। मैंने सोचा कि यह फकीर मुझे धोखा दे रहा है। यह भी संभव है कि दाहिनी आँख मैं मरहम लग जाने से मुझे उस फकीर की शक्तियों के रहस्य मालूम हो जाए। मैं उसके पीछे पड़ गया। वह बार-बार कहता था कि यह मूर्खता भरी जिद छोड़ो और मरहम को दाईं आँख में लगवाने की बात न करो, किंतु मैं यही समझता कि वह स्वार्थवश ही मेरी दाईं आँख में मरहम नहीं लगा रहा है। मैं बराबर उससे कहता रहा कि दाहिनी आँख में मरहम लगा दो।

उसने मुझसे कहा, भाई, तू क्यों जिद कर रहा है। मैंने तेरा जितना लाभ कराया है क्या उतनी ही हानि मेरे हाथ से उठाना चाहता है। मैं एक बार भलाई करके अब तेरे साथ बुराई क्यों करूँ।

किंतु मैंने कहा, जैसे आपने अभी तक मेरी हर एक जिद पूरी की वैसे ही आखिरी जिद भी पूरी कर दीजिए। अगर इससे मेरी कोई हानि होगी तो मुझी पर उसकी जिम्मेदारी होगी, आप पर नहीं।

उसने कहा, अच्छा, तू अपनी बरबादी चाहता है तो वही सही। यह कह कर उसने मेरी दाहिनी आँख की पलक पर भी उस मरहम को लगा दिया। मरहम लगते ही मैं बिल्कुल अंधा हो गया। मुझे अपार दुख हुआ, मुझे अपनी मूर्खता याद न रही। मैंने फकीर को भला-बुरा कहना शुरू किया और कहा, अब यह सारा धन मेरे किस काम का? तुम मुझे अच्छा कर दो और अपने हिस्से के चालीस ऊँट ले कर चले जाओ। उसने कहा, अब कुछ नहीं हो सकता, मैंने तुम्हें पहले ही चेतावनी दी थी।

मैंने उससे और अनुनय-विनय की तो वह बोला, मैंने तो तुम्हारी भलाई का भरसक प्रयत्न किया था और तुम्हें हमेशा सत्परामर्श ही दिया था किंतु तुमने मेरी बातों को कपटपूर्ण समझा और गलत बातों के लिए जिद की। अब जो कुछ हो गया है वह मुझसे ठीक नहीं हो सकता, तुम्हारी दृष्टि कभी वापिस नहीं लौटेगी। मैंने उससे बहुत ही गिड़गिड़ा कर कहा, साईं जी, मुझे अब कोई लालच नहीं रहा। अब शौक से सारी धन संपदा और मेरे सभी अस्सी ऊँट ले जाइए, सिर्फ मेरी आँखों की ज्योति वापस दिला दीजिए। उसने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि सारे ऊँट और उन पर लदी हुई संपत्ति ले कर बसरा की ओर चल दिया। ऊँटों के चलने की आवाज सुन कर मैं चिल्लाया, साईंजी, इतनी कृपा तो कीजिए कि इस जंगल में इसी दशा में न छोड़िए। अपने साथ लिए चलिए। रास्ते में कोई व्यापारी बगदाद जाता हुआ मिलेगा तो मैं उसके साथ हो लूँगा। किंतु उसने मेरी बात न सुनी और चला गया। अब मैं अँधेरे में इधर-उधर भटकने लगा। मुझे मार्ग का भी ज्ञान न था कि पैदल ही चल देता। अंत में थक कर गिर रहा और भूख प्यास से मरणासन्न हो गया।

मेरे सौभाग्य से दूसरे ही दिन व्यापारियों का एक दल बसरा से बगदाद को जाते हुए उस मार्ग से निकला। वे लोग मेरी हालत पर तरस खा कर बगदाद ले आए। अब मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं रहा कि मैं भीख माँग कर पेट पालूँ। मुझे अपने लालच और मूर्खता का इतना खेद हुआ कि मैंने कसम खा ली कि किसी से तब तक भीख नहीं लूँगा जब तक वह मेरे सिर पर एक धौल न मारे। इसीलिए कल मैंने आपसे धृष्टता की थी।

खलीफा ने कहा, तुम्हारी मूर्खता तो बहुत बड़ी थी। भगवान तुम्हें क्षमादान करेंगे। अब तुम जा कर अपनी सारी भिक्षुक मंडली को अपना वृत्तांत बताओ ताकि सभी को मालूम हो कि लालच का क्या फल होता है। अब तुम भीख माँगना छोड़ दो। मेरे खजाने से तुम्हें हर रोज पाँच रुपए मिला करेंगे और यह व्यवस्था तुम्हारे जीवन भर के लिए होगी। बाबा अब्दुल्ला ने जमीन से सिर लगा कर कहा, सरकार के आदेश का मैं खुशी से पालन करूँगा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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सीदी नोमान की कहानी

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सीदी नोमान की कहानी

भिखारी की कहानी सुनने के बाद खलीफा ने बराबर घोड़ी दौड़ानेवाले पर ध्यान दिया और उससे पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है। उसने अपना नाम सीदी नोमान बताया। खलीफा ने कहा, मैंने बहुत-से घुड़सवारों और साईसों को देखा है कि वह घुड़सवारी सिखाने या घोड़े को सिखाने में बहुत श्रम करते हैं। मैंने स्वयं भी बहुत-से घोड़ों को फेरा है लेकिन तुम्हारी तरह घोड़ी दौड़ाते मैंने किसी को नहीं देखा। तुम्हारी घोड़ी दौड़ती चली जाती थी फिर भी तुम उसे बराबर चाबुक मारे जा रहे थे। सभी को तुम्हारे इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था। किंतु सबसे अधिक ताज्जुब मुझे ही हो रहा था। इसलिए मैंने कल उस जगह खड़े लोगों से तुम्हारे इस बर्ताव का कारण पूछा था किंतु किसी को भी पता नहीं था कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो तुम सच-सच सारा हाल बताओ।

सीदी नोमान के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने समझा कि खलीफा मेरी हरकत से बहुत नाराज है और न मालूम क्या सजा देगा। वह यह भी समझ गया कि खलीफा को उसका रहस्य जानने की अत्यंत प्रबल इच्छा है और बगैर पूरी बात बताए उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। फिर भी भय के कारण उसकी जबान बंद हो गई थी और वह मूर्तिवत निश्चल खड़ा था। खलीफा ने यह देख कर कहा, सीदी नोमान, डरो मत। मैं तुम से मित्र भाव से यह बात पूछ रहा हूँ। अगर तुमसे कोई अपराध भी हुआ है तो मैंने अभी से तुम्हें उसके लिए क्षमा कर दिया। अब तुम निर्भय हो कर अपनी बात कहो।

सीदी नोमान को यह सुन कर ढाँढ़स हुआ। वह हाथ जोड़ कर बोला। संसार के स्वामी, आपकी आज्ञानुसार मैं अपनी पूरी कहानी आपके सम्मुख रखता हूँ। मैंने किसी जाति या किसी धर्म के नियमों का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी यदि मेरा कोई अपराध सिद्ध हो तो मुझे निःसंदेह दंड मिले। मैं अपनी घोड़ी के प्रति जो कठोरता बरतता हूँ उससे आपको बुरा लगा और घोड़ी पर आपको दया आई। किंतु जब इसकी कहानी सुनेंगे तो आप भी इस नतीजे पर पहुँचेंगे कि यह दंड उसके लिए कम है।

यह कहने के बाद सीदी नोमान ने अपनी कहानी शुरू की। उसने कहा कि मेरे माता-पिता की मृत्यु के बाद मुझे उत्तराधिकार में इतना धन मिला जो मेरे जीवन भर के लिए काफी था। मैं बड़े आराम से गुजारा कर रहा था और मुझे किसी बात की चिंता नहीं थी। मेरी तरुणावस्था थी इस लिए स्वभावतः ही मेरी इच्छा विवाह करने की हुई। भगवान की ऐसी इच्छा न थी कि मुझे सुगृहणी मिले। मैंने एक स्त्री से अनिंद्य सौंदर्य को देख कर विवाह किया। आप जानते ही है कि हमारी जात में पहले से लड़की को देख-परख कर विवाह करने का रिवाज नहीं है। इसीलिए हमारे लिए उचित है कि मृदुल या कर्कशा जैसी स्त्री भाग्य से मिले उसी पर संतोष करना चाहिए और उसके साथ प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह करना चाहिए। किंतु हर बात की एक सीमा होती है और ऐसी स्थितियाँ भी आ जाती हैं कि एक दिन के लिए भी निर्वाह नहीं होता।

मैं अपनी पत्नी के अनूप रूप को देख कर बड़ा प्रसन्न था किंतु दूसरे दिन ही से उसकी कुत्सितता का हाल खुलना शुरू हो गया। सुहागरात के दूसरे दिन मैं दिन का भोजन करने बैठा तो मैंने अपनी पत्नी को भी साथ खाने के लिए बुलाया। हमारे सामने पुलाव था। मैं अपने समाज की रीति के अनुसार चम्मच से उठा-उठा कर पुलाव खा रहा था किंतु मेरी पत्नी कान खोदने की सलाई से चावल का एक एक दाना उठा कर खाने लगी। मुझे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने कहा, प्यारी, क्या तुम्हारे मायके में इसी तरह से लोग खाना खाया करते हैं। जितनी देर तुमने भोजन किया है उसमें तुमने दस-पंद्रह चावलों से अधिक न खाया होगा। तुम दाने गिन-गिन कर क्यों खा रही हो? क्या तुम किफायत के लिए ऐसा कर रही हो? अगर ऐसा है तो तुम किफायत का ख्याल छोड़ दो और जैसे मैं खुल कर खा रहा हूँ वैसे ही तुम भी खाओ। मुझे भगवान ने इतना दे रखा है कि तुम्हें पेट भर खाना खिला सकूँ।

उसने मेरी बात का कोई उत्तर न दिया। पूर्ववत ही एक-एक दाना उठा कर खाती रही, बल्कि मुझे खिजाने के लिए एक-एक दाना भी बहुत देर में उठाने लगी। जब हमारे सामने शीरमाल और बाकर खानी रोटियाँ आईं तो उसने एक रोटी के छिलके का बहुत ही छोटा टुकड़ा तोड़ कर बड़े नखरे से मुँह में रखा। जितना खाना कुल मिला कर उसने खाया वह एक चिड़िया का पेट भरने को भी काफी नहीं था।

मुझे उसकी अल्प भोजन की जिद पर आश्चर्य हुआ किंतु मैंने सोचा कि यह मेरे साथ पहली बार खाना खा रही है और किसी पुरुष के साथ खाने का पहला मौका होने के कारण लजा रही है, जब इसे मेरे साथ खाने की आदत हो जाएगी तो खुल कर खाएगी। मैंने यह भी सोचा कि हो सकता है कि मेरे साथ खाने के पहले यह कोई चीज अधिक मात्रा में खा चुकी हो और इस समय इसके पेट में जगह न हो। एक विचार यह भी आया कि शायद इसे अकेले ही खाने की आदत हो। यह सब सोच कर मैंने उससे कुछ न कहा और वह पूर्ववत ही नाम चार के लिए खाती रही। खाने के बाद मैं घूमने-फिरने चला गया और यह बात बिल्कुल भूल गया कि मेरी पत्नी कितनी अल्पभक्षी है।

किंतु शाम के खाने पर भी उसका यह हाल रहा। बाद में भी कई दिनों तक मैंने खाने के मामले में उसका यही रवैया देखा तो मुझे यह आश्चर्य हुआ कि यह स्त्री इतना कम खाने पर भी न केवल जीवित है अपितु स्वस्थ भी है। एक दिन हम दोनों सोने के लिए लेटे तो यह मुझे सोता जान कर सावधानी से उठी। मैं आँखें बंद किए था किंतु जाग रहा था। मैं जान-बूझ कर खर्राटे भरने लगा। वह उठ कर अंदर गई और कपड़े पहन कर घर से बाहर निकली। मैं भी अपने कपड़ों को कंधे पर डाल कर चुपके-चुपके उसके पीछे चल दिया। बाहर चाँदनी थी इसलिए उसका पीछा करना मुश्किल न हुआ। वह चलते-चलते हमारे घर के समीपवर्ती कब्रिस्तान में पहुँची। मैं ओट में खड़ा हो कर देखने लगा। मैंने देखा कि मेरी पत्नी एक नरभक्षी जंगली के साथ बैठी है और उससे प्रसन्नतापूर्वक कुछ बातें कर रही है वे बातें मेरी समझ में नहीं आईं क्योंकि मैं दूर खड़ा हुआ था।

दीनबंधु, आपको मालूम ही है कि नरभक्षी जंगली रास्ते में इक्का-दुक्का मुसाफिर को देख कर उसे मार डालते हैं और खा लेते हैं। जब उन्हें कोई मुसाफिर नहीं मिलता तो वे कब्रिस्तान में चले जाते हैं और नए दफन होनेवाले मुर्दों को खाते हैं। मैं अपनी पत्नी को ऐसे जंगली के पास बैठे देख कर घबराया और समझ गया कि मेरी पत्नी भी इसी जाति की है। इन दोनों ने मिल कर उसी दिन बनी हुई एक नई कब्र खोदी और उसमें से लाश निकाल कर बाहर लाए और उसे काट-काट कर खाने लगे। वे बातें भी करते जाते थे किंतु मेरा भय से बुरा हाल था और मैं थर-थर काँप रहा था। जब वे दोनों पूरी लाश का मांस खा चुके तो उन्होंने उसकी हड्डियों को कब्र में वापस डाला और कब्र पर मिट्टी इस तरह चढ़ा दी जिससे मालूम हो कि कब्र खोदी ही नहीं गई थी।

मैं उन दोनों को वहीं छोड़ कर घर में आ गया और दरवाजा खुला छोड़ कर पलंग पर जा लेटा और सोता हुआ दिखने लगा। कुछ देर में मेरी पत्नी आई। उसने अंदर के कमरे में जा कर वस्त्र बदले और सावधानी से मेरे पलंग पर लेट गई। उसके बर्ताव से स्पष्ट था कि वह यह नहीं जानती कि मैं उसके पीछे पीछे जा कर उसका सारा हाल देख आया हूँ। मुझे ऐसी मुर्दाखोर स्त्री के साथ सोने में बड़ी घृणा उत्पन्न हुई और मैं उससे बच कर ही लेटा रहा और सो गया। सुबह मसजिद के मुल्ला की अजान सुन कर मैं उठा। नित्य कर्म से निवृत्त हो कर मैंने स्नान किया फिर मसजिद में जा कर दूसरी नमाज पढ़ी। इसके बाद मैं बागों की सैर करने चला गया। टहलते-टहलते मैं सोचने लगा कि किस प्रकार अपनी स्त्री की यह गंदी आदत छुड़ाऊँ। घर आ कर भी मैं यही सोचता रहा।

दोपहर के भोजन के समय उसने पुराना क्रम जारी रखा यानि एक-एक दाना उठा कर खाने लगी। मैंने कहा, रानी, अगर तुम्हें कोई विशेष वस्तु पसंद न हो तो दूसरी मँगवा लो, यहाँ तो रसोई में सब कुछ है। फिर हर रोज खाने में भी बदल-बदल कर बनाए जाते हैं, इसलिए एकरसता का सवाल भी नहीं है। अगर तुम्हें इन खानों में कुछ भी पसंद न हो तो अपने पसंद की जो भी चीज जैसे भी चाहो बनवा लो या बना लो। मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि क्या दुनिया में मुर्दे के मांस से, जिसे तुम स्वाद से खाया करती हो, अधिक स्वादिष्ट भोजन कोई नहीं है?

मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वह समझ गई कि मैंने उसका शवभक्षण का भेद जान लिया है। क्रोध के मारे उसका चेहरा लाल हो गया, उसकी आँखें उभर आईं और उसके मुँह से झाग निकलने लगा। उसका क्रोध देख कर मैं भयभीत हो गया कि न जाने यह दुष्ट अब क्या करे। उसने दाँत पीसते हुए कहा, नीच, दुष्ट, कमीने, तूने छुप कर मेरा रहस्य जान लिया। लेकिन तू अब इस योग्य नहीं रहेगा कि किसी से वह भेद कह सके। यह कह कर उसने पास रखे हुए गिलास के जल में उँगलियाँ डुबोईं और कुछ बोलने लगी जिसे मैं समझ न सका। फिर उसने उँगलियों का पानी मुझ पर छिड़क कर कहा, कुत्ता बन जा। उसके इस शब्दों के साथ ही मैं कुत्ता बन गया।

वह एक लकड़ी उठा कर मुझे मारने लगी। वह शायद मुझे इतना मारती कि मैं मर ही जाता। इसलिए मैं जान बचा कर भागा और सारे घर में दौड़ने लगा कि शायद कहीं बचने की जगह मिल जाए। वह लकड़ी लिए हुए मुझे सारे घर में खदेड़ती और पीटती रही। जब थक गई तो उसने दरवाजा खोल दिया और मैं दर्द से चिल्लाता हुआ घर के बाहर भाग गया ताकि उसकी पिटाई से बच सकूँ।

बाहर आ कर भी मुझे चैन न मिला। मुहल्ले के कुत्ते मुझे देख कर भौंकने लगे और मुझे पकड़ कर झिंझोड़ने भँभोड़ने लगे। मैं बाजार में भाग कर गया और एक दुकान में, जहाँ बकरी के सिरी पाए और जीभ बिकती थी, घुस कर एक कोने में छुप गया। दुकानदार को मुझ पर दया आई और उसने मेरे पीछे पड़े हुए कुत्तों को भगा दिया। मैं रात भर वहीं पड़ा रहा। सुबह दुकानदार सिरी पाए लेने गया और बहुत-सा माल ले कर अपनी दुकान में रखा। मांस की गंध पाकर बहुत-से कुत्ते दुकान के सामने आ गए। मैं भी जा कर उनमें मिल गया। दुकानदार ने देखा कि मैं रात भूखा ही रहा हूँ इसलिए मेरे सामने उसने मांस का एक लोथड़ा डाल दिया। मैं मांस की ओर झुका भी नहीं, दुकानदार के सामने जा कर दुम हिलाने लगा। दुकानदार यह न चाहता था कि मैं हमेशा उसकी दुकान में रहूँ इसलिए उसने एक लकड़ी उठा कर मुझे धमकाया। मैं भाग कर एक नानबाई की दुकान के आगे पहुँचा। वह उस समय भोजन कर रहा था। उसने रोटी का एक टुकड़ा मेरे आगे फेंक दिया। मेरा इरादा उससे खाना माँगने का न था फिर भी मैं कुत्तों की भाँति झपटा और रोटी खाने लगा। फिर उसके आगे जा कर दुम हिलाने लगा। वह मेरा रूप देख कर प्रसन्न हुआ और मुस्कुराने लगा। मैंने समझ लिया कि इसे इस बात में कोई आपत्ति नहीं है कि मैं उसकी दुकान में रहूँ। मैं उसकी दुकान के सामने उसकी ओर मुँह करके बैठ गया।

शाम को जब नानबाई ने दुकान बंद की तो वह मुझे अपने घर ले गया। इसके बाद उसका नियम हो गया कि रात को अपने घर में रखता और दिन में उसकी दुकान के सामने बैठा रहता था। उसे यह देख कर भी बड़ी खुशी हुई कि मैं उसकी अनुमति के बगैर उसके घर के अंदर पाँव नहीं रखता। वह मुझे बहुत प्यार से रखता था और खूब खाने को देता था। मैं भी उसकी ओर ताकता रहता था और उसके इशारे पर ही सब काम किया करता था। उसने मेरा एक नाम भी रख दिया था।

मैं हर जगह अपने नए मालिक के पीछे-पीछे घूमता था और उसे भी मेरा इतना शौक हो गया था कि अगर कभी वह बाहर जाता और उस समय मैं अपने कोने में सो रहा होता तो वह मेरा नया नाम ले कर पुकारता और मैं उसके पास दौड़ कर चला जाता। वह मुझसे तरह-तरह से दिल बहलाया करता था। मैं उसके इशारे पर कभी लेटता कभी बैठता, कभी दो टाँगों पर खड़ा होता, कभी कोई फेंकी हुई चीज उठा लाता। इसी तरह बहुत दिन बीत गए। मेरा मालिक मुझसे और मैं अपने मालिक से बहुत प्रसन्न रहा करते थे और एक-दूसरे का साथ पसंद करते थे।

एक दिन उसकी दुकान में एक स्त्री आई और सामान खरीद कर जब दाम देने लगी तो अच्छे सिक्कों के साथ एक खोटा सिक्का भी मिला कर देने लगी। नानबाई ने खोटा सिक्का उसे फेर कर दिया तो वह तकरार करने लगी। नानबाई ने कहा, तुम मेरी बात नहीं मानती हो। इस सिक्के को तो मेरा कुत्ता भी खोटा कह देगा। यह कह कर उसने मुझे पुकारा। मैं दौड़ कर उसके सामने गया तो उसने उस स्त्री को दिए सभी सिक्के मेरे आगे फेंक दिए और कहा कि इनमें खोटा सिक्का पहचान ले। मैंने सारे सिक्के अलग-अलग किए फिर मैंने उसमें से सारे अच्छे सिक्के एक ओर समेट दिए और खोटे सिक्के पर पंजा रख कर नानबाई की ओर देखने लगा। नानबाई यह देख कर बहुत खुश हुआ। उस स्त्री को भी आश्चर्य हुआ और उसने खोटा सिक्का बदल दिया।

उस स्त्री के जाने के बाद नानबाई ने आसपास के लोगों से कहा कि मेरे कुत्ते को खरे-खोटे सिक्कों की पहचान है। उन्होंने पहले विश्वास न किया और मेरी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने अच्छे सिक्कों में खोटे सिक्के मिला कर मेरे आगे फेंक दिए और देखने लगे कि मुझे खरे-खोटे की पहचान है या नहीं। मैंने उन सिक्कों को देखा और एक-एक करके सारे खोटे सिक्कों पर अपना पंजा रखता चला गया। पड़ोसी दुकानदारों को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने दूसरे दुकानदारों तथा ग्राहकों से कहा कि फलाने नानबाई के कुत्ते को खरे-खोटे सिक्कों की परख हैं। कुछ ही दिनों में यह समाचार सारे नगर में फैल गया और बहुत-से लोग सिक्कों को परखवाने के लिए नानबाई के पास आने लगे।

अब यह हाल हो गया कि नानबाई के दुकान के आगे सिक्के परखवानेवालों की भीड़ लगने लगी। मैं दिन भर सिक्के परखता रहता। नानबाई का व्यापार चमक उठा क्योंकि सिक्के परखवानेवाले उसी से सौदा लेते थे। आसपास के नानबाई इस बात से जलने लगे और चाहने लगे कि मुझे उड़ा ले जाएँ। इस कारण मेरा मालिक मेरी और अच्छी तरह देखभाल करने लगा।

एक दिन एक स्त्री नानबाई के पास आई और छह अच्छे सिक्कों के साथ एक खोटा सिक्का मिला कर उसे देने लगी। नानबाई के इशारे पर मैंने खोटे सिक्के पर पाँव रख दिया। स्त्री ने स्वीकारा कि सिक्का खोटा है, और उसे बदल दिया। फिर उसने नानबाई की नजर बचा कर मुझे इशारा किया कि उसके साथ उसके घर को जाऊँ। मैं बराबर यह चाहता था कि किसी प्रकार फिर मनुष्य बनूँ। उस स्त्री की निगाहों से मुझे ऐसा लगा कि उसके द्वारा यह बात संभव है। मैं उसकी ओर बराबर देखने लगा। वह अपने घर की ओर चली और कई कदम चल कर वापस लौटी और फिर मुझे अपने साथ आने का इशारा किया। अब मैंने निश्चय कर लिया कि उसके साथ जाऊँ। मैं अपने मालिक नानबाई की नजर बचा कर उसके साथ हो लिया। वह यह देख कर बड़ी प्रसन्न हुई। उसने तुरंत रास्ता बदल दिया जिससे नानबाई मुझे उसके साथ जाता हुआ न देख सके।

वह स्त्री मुझे अपने घर ले गई। मेरे अंदर जाने पर उसने बाहर का दरवाजा बंद कर दिया और मुझे घर के अंदर ले गई। अंदर एक नवयौवना सुंदरी कीमती जरी के वस्त्र पहने बैठी थी। मुझे अंदाजे से लगा कि वह उस स्त्री की पुत्री है जो मुझे बाजार से लाई थी। घर के अंदर बैठी हुई सुंदरी जादू की विद्या में अति प्रवीण थी। जो स्त्री मुझे लाई थी उसने उस सुंदरी से कहा, यही वह कुत्ता है जो खोटे-खरे सिक्कों की पहचान जानता है। मैंने कई दिनों से इसका हाल सुन रखा था। मुझे ऐसा लगा कि यह जन्मजात कुत्ता नहीं है, बल्कि कोई आदमी है जिसे जादू से कुत्ता बना दिया गया है। इसीलिए मैं इसे आज घर ले आई। बेटी, तुम देख कर बताओ कि मेरा अंदाजा ठीक है या नहीं। नवयौवना ने ध्यानपूर्वक मुझे देखा और बोली, अम्मा, तुम ठीक कहती हो, इसे जादू से कुत्ता बनाया गया है। मैं अपनी रमल की पुस्तक देख कर अभी इसका हाल तुम्हें बताती हूँ। यह कह कर वह एक अंदर के कमरे में चली गई।

उसने वापस आ कर एक पानी के बर्तन में हाथ डाल कर मुझ पर पानी छिड़का और बोली, अगर तुझे जादू से कुत्ता बनाया गया है तो फिर से आदमी हो जा। उसके यह कहते ही मैं मनुष्य बन गया। मैंने सुंदरी के पैरों पर गिर कर उसके वस्त्रों को चूमा और कहा, आपने मुझ पर ऐसा अहसान किया है जिसे मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकता। मैं चाहता हूँ कि मैं आपका हमेशा के लिए गुलाम बन जाऊँ। यह कह कर मैंने बताया कि क्यों मेरी पत्नी ने मुझे जादू से कुत्ता बना दिया था और उस सुंदरी की दया भावना की अत्यधिक प्रशंसा करने लगा। उसने कहा, मेरी इतनी प्रशंसा न करो। मैं तुम्हारी स्त्री का हाल विवाह के पहले से जानती हूँ। मुझे यह भी मालूम है कि वह जादू की विद्या में पारंगत है। दरअसल हम दोनों जादू के मामले में एक ही शिक्षिका की शिष्याएँ हैं। पहले मेरी उससे मित्रता थी किंतु उसकी दुष्टता के कारण मैंने उससे मिलना-जुलना छोड़ दिया और उससे घृणा करने लगी। मैंने तुम्हें मनुष्य का शरीर वापस दिलाया है किंतु मैं इतने ही पर बस नहीं करूँगी। तुम्हारे जैसे भले मानस के साथ उसने जो दुष्टता की है उसका दंड मैं उसे अवश्य दिलाऊँगी। मैं तुम्हारे ही हाथों उसे पशु बनवाऊँगी। तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आती हूँ।

वह फिर अंदर चली गई। कुछ देर में आई तो उसके हाथ में एक बोतल और एक प्याला था। उसने मुझसे कहा, सीदी नोमान, मैंने अभी अपनी रमल पुस्तक देख कर मालूम किया है कि तुम्हारी पत्नी इस समय तुम्हारे घर में नहीं है। तुम्हें घर से निकालने के बाद उसने तुम्हारे नौकरों से कहा कि मेरा पति किसी काम से बाहर चला गया और यह भी कहा कि दरवाजा खुला पा कर एक कुत्ता घर में घुस आया था, उसे मैंने उसे मार कर भगा दिया। अब तुम तुरंत ही अपनी स्त्री के वापस आने के पहले अपने घर जाओ। इस बोतल को अलग न करना और अपनी पत्नी की प्रतीक्षा करना। वह जल्दी ही घर आएगी। तुम्हें देख कर वह परेशान होगी और भागने की कोशिश करेगी। तुम इस बोतल का पानी प्याले में डालना और इसमें से कुछ उस पर छिड़क कर यह शब्द जो मैं तुम्हें बताती हूँ पढ़ देना। इससे अधिक कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम इसी से मेरे जादू का कमाल देखोगे।

मैं उसका सिखाया हुआ मंत्र अच्छी तरह याद करके अपने घर आया। सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा उस सुंदरी ने कहा था। मेरी पत्नी शीघ्र ही वापस आई और मुझे देखा तो परेशान हो कर भागने लगी। मैंने तुरंत ही बोतल का पानी प्याले में डाल कर उस पर छिड़का और मंत्र पढ़ दिया।

इससे वह घोड़ी बन गई। वह स्त्री वही घोड़ी है जिसे आपने कल देखा था। मैंने उसे घोड़ी के रूप में देखा तो आश्चर्य करने लगा। फिर मुझे उस सुंदरी के शब्द याद आए। मैंने घोड़ी को ले जा कर घुड़साल में बाँध दिया और उसे इतने चाबुक मारे कि मारते-मारते थक गया।

अपना वृत्तांत पूरा करके सीदी नोमान बोला, सरकार, अब यह कहानी सुनने के बाद मुझे क्षमा करेंगे और यह स्वीकार करेंगे कि मैं घोड़ी बनी हुई अपनी स्त्री को जो दंड देता हूँ वह उचित है। अगर अब भी आप मेरा कार्य अनुचित समझें तो जो चाहे वह सजा दें। खलीफा ने कहा, तुम्हारी कहानी वास्तव में विचित्र है और तुम्हारी स्त्री ने जो अपराध किया है उसे देखते हुए उसका दंड कम ही है। किंतु मैं तुम से पूछता हूँ कि क्या तुम आजीवन उसे इसी तरह मारते रहोगे? तुम ऐसा क्यों नहीं करते कि उस सुंदरी के पास जा कर फिर से अपनी पत्नी को स्त्री रूप दिलवाओ। सीदी नोमान ने कहा, आपकी आज्ञा शिरोधार्य किंतु मेरी पत्नी फिर दुष्टता पर उतरी तो क्या करूँगा? खलीफा ने कहा, तुम ठीक कहते हो। उसे ऐसा ही रहने दो और जब तक चाहो उसे इसी तरह सजा देते रहो।

फिर खलीफा ने तीसरे आदमी यानी ख्वाजा हसन हब्बाल की ओर दृष्टि की और कहा, ख्वाजा हसन, कल मैंने तुम्हारी गली में जा कर तुम्हारा महल देखा। मैं उससे बहुत प्रभावित हुआ। फिर मैंने वहाँ के लोगों से पूछा कि यह विराट भवन किसका है तो तुम्हारे पड़ोसियों ने तुम्हारा नाम लिया।

साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि तुम्हारा पेशा रस्सी बनाने का है। इस पेशे में तो अधिक आय नहीं होती। तुम्हारे पड़ोसियों का भी कहना है कि कुछ समय पूर्व तक तुम कठिनाई से जीवन निर्वाह करते थे। तुम्हारे पड़ोसी तुम्हारी इस बात में बड़ी प्रशंसा करते हैं कि तुम अपने पुराने जीवन को नहीं भूले और अपने धन को व्यर्थ खर्च नहीं करते हो। मैं यह सब सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ कि मेरे राज्य में तुम जैसे भले आदमी रहते हैं। फिर भी मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूँ कि तुमने इतना धन किस प्रकार प्राप्त किया। तुम मेरे प्रश्न से कुछ भयभीत न होना। मुझे तुम्हारी धन-संपत्ति से कुछ लेना देना नहीं है। तुम्हें यह धन भगवान ने दिया है। तुम इसका जैसा चाहो उपयोग करो। भगवान तुम्हारी संपत्ति और बढ़ाए। मुझे केवल यह जानने की उत्कंठा है कि तुम्हारे जैसे निर्धन व्यक्ति को इतनी संपदा मिली कैसे।

ख्वाजा हसन ने सिंहासन के पाए को चूम कर कहा, भगवान आपको हमेशा सही- सलामत रखे। मैं सारा वृत्तांत सच्चा-सच्चा कहता हूँ। भगवान जानते हैं कि मैंने कभी कोई बात ऐसी नहीं की जिसे हमारे इस्लाम धर्म या मेरी जाति-बिरादरी ने वर्जित किया हो। मुझे जो कुछ मिला है भगवान की कृपा ही से मिला है। अब आपकी आज्ञानुसार अपना हाल कहता हूँ।
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ख्वाजा हसन हव्वाल की कहानी

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ख्वाजा हसन हव्वाल की कहानी

ख्वाजा हसन ने कहा कि मैं अपनी बात बताने के पहले अपने दो मित्रों के बारे में बताना चाहता हूँ। वे अभी जीवित हैं और यहीं बगदाद में रहते हैं। वे मेरे प्रत्येक कथन की पुष्टि करेंगे। उनमें से एक का नाम सादी है। सादी का विश्वास था कि संसार में आनंद धन ही से मिलता है और धन उद्योग और परिश्रम ही से प्राप्त होता है। इसके विरुद्ध साद का मत था कि धन ईश्वर की कृपा और मनुष्य के भाग्य ही से मिलता है। दोनों में गाढ़ी दोस्ती थी और कोई झगड़ा नहीं होता था किंतु इस विषय पर हमेशा बहस होती थी। एक दिन इस बात को ले कर दोनों के बीच बहुत अधिक वाद-विवाद हुआ। सादी का कहना था, या तो आदमी गरीब परिवार में पैदा हो कर हमेशा गरीब रहता है, या धनी परिवार में जन्म ले कर जवानी में भोग-विलास में धन को फूँक कर निर्धन हो जाता है। वरना उद्यमी और समझदार आदमी गरीब नहीं होता। साद कहता था, उद्यम और बुद्धि से कुछ नहीं होता। आदमी अपने भाग्य ही से धनवान होता है। गरीबी और अमीरी प्रारब्ध के खेल हैं। पूँजी और उद्यम के अलावा और भी कई रास्तों से दौलत आती है। सादी ने कहा, तुम्हारी यह बात बिल्कुल झूठ है। आओ, हम दोनों अपने-अपने कथन की परीक्षा करें। हम किसी गरीब पेशेवर आदमी को तलाश करेंगे। मैं उसे कुछ धन दूँगा। तुम देख लेना कि वह उस धन के बल पर उद्यम करके बड़ा आदमी बन जाएगा। तभी तुम्हें मेरी बात का विश्वास होगा।

फिर वे दोनों घूमते-घूमते मेरे घर की ओर आए। मैं अपने घर के सामने बैठा हुआ रस्सी बट रहा था, क्योंकि रस्सी बटने का पेशा मेरे बाप-दादा के जमाने से होता आया था। उन दोनों को देख कर मैंने सलाम किया। उन्हें मेरे वस्त्रों और घर की हालत देख कर मेरी निर्धनता का बोध हुआ। साद ने सादी से कहा, यह ऐसा ही आदमी है जैसा तुम तलाश कर रहे थे। मैं इसे काफी दिनों से जानता हूँ। यह बड़ा गरीब है। दिन भर कड़ी मेहनत करके रस्सी बटता रहता है और फिर भी कठिनता से परिवार का पालन- पोषण करता है। सादी ने कहा, अच्छा, लेकिन पहले हम उसे अच्छी तरह देख तो लें। उन्होंने यह बातें इतने धीमे स्वर में की थीं कि मैं कुछ सुन न सका। फिर सादी ने, जो साद से अधिक धनवान था, मेरे और पास आ कर मेरा नाम पूछा।

मैंने कहा, मेरा नाम हसन है और रस्सी बटने के कारण मुझे लोग हसन हव्वाल कहते हैं। सादी ने कहा, तुम्हें अपने पेशे में अच्छी-खासी आमदनी हो जाती होगी। तुम्हारे बाप-दादा भी यही काम करते थे, इसलिए उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ छोड़ा होगा। तुमने भी अपनी मेहनत से काफी पैसा कमाया होगा और तुम्हारी संपत्ति और बढ़ गई होगी। मैंने उत्तर दिया, ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। मेरे पास कुछ भी धन-संपत्ति नहीं है। मुझे पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। मैं सुबह से शाम तक रस्सी बटता हूँ, एक क्षण के लिए भी आराम नहीं लेता हूँ। फिर भी जैसे-तैसे सूखी रोटी ही अपने परिवार के लिए जुटा पाता हूँ। मेरे छोटे-छोटे पाँच बच्चे हैं। उनमें से कोई योग्य नहीं कि मेरी मदद कर सके। मैं अकेला ही उनके लिए खाना कपड़ा जुटाता हूँ। मैं रस्सी बेचता हूँ, उसके मूल्य से कुछ तो खाने आदि में खर्च करता हूँ और बाकी का सन खरीद कर दूसरे दिन उससे रस्सी बनाता हूँ। फिर भी मैं ईश्वर का धन्यवाद देता हूँ कि मैं केवल निर्धन हूँ। किसी का गुलाम नहीं हूँ, आजादी से अपना काम करता हूँ।

सादी ने कहा, तुमने अपना पूरा हाल मुझे बताया। इसके लिए धन्यवाद लेकिन मैं जो कुछ समझा था इससे तो उलटा ही निकला। अच्छा, अगर मैं तुम्हें दो सौ अशर्फियाँ दे दूँ तब तो तुम्हारी यह दशा नहीं रहेगी। दो सौ अशर्फी पा कर तो तुम धनवान हो जाओगे और आनंदपूर्वक जीवन निर्वाह करोगे? मैंने कहा, दो सौ अशर्फियाँ खुद तो मुझे धनवान नहीं बना सकतीं। लेकिन इससे मैं अपने पेशे को और अच्छी तरह चला सकता हूँ और अधिक धनोपार्जन कर सकता हूँ। सादी ने देखा कि मैं विश्वसनीय आदमी हूँ तो उसने अपनी जेब से दो सौ अशर्फियों की थैली निकाली और मुझे दे कर कहा, मैं यह दो सौ अशर्फियाँ तुम्हें दे रहा हूँ। यह उधार नहीं, दान में दे रहा हूँ। तुम इससे अपना व्यापार बढ़ाओ। भगवान तुम्हारी कमाई में बरकत दें। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह धन बेकार खर्च न हो। तुम्हारी समृद्धि में मैं ही नहीं, मेरा परम मित्र साद भी प्रसन्न होगा। भगवान तुम पर अपनी कृपा करें।

मैं दो सौ अशर्फियाँ पा कर फूला न समाया। मैंने धन्यवादस्वरूप सादी का वस्त्र चूमा और उसकी दीनबंधुता की बड़ी प्रशंसा की। इसके बाद वे दोनों चले गए। उनके जाने के बाद मुझे यह चिंता हुई कि मैं इन अशर्फियों को कहाँ रखूँ। मेरे घर में न तो कोई सुरक्षित स्थान था न संदूकचा ही था जहाँ मैं इतना धन, जो मैंने सारी उम्र नहीं देखा था, रखता। आखिर में यह तय किया कि थैली को अपनी पगड़ी ही में छुपा लूँ। मैंने थैली में से दस अशर्फियाँ ले कर जेब में डालीं और थैली का मुँह कस कर डोरे से बाँधा और उसे सावधानी से पगड़ी में रख लिया। मैंने अपने स्त्री-बच्चों को इस धन के बारे में कुछ भी नहीं बताया। वही पगड़ी सिर पर रख कर मैं बाजार गया और यथेष्ट सन खरीदा। लौटते समय कसाई के यहाँ से थोड़ा-सा मांस शाम के भोजन के लिए खरीदा क्योंकि महीनों से मांस खाने को नहीं मिला था। खरीदा हुआ मांस मेरे हाथ में था। रास्ते में एक चील ने मांस पर झपट्टा मारा। मैंने हाथ खींच कर दूसरे हाथ से चील को भगाया। अब चील ने दूसरी ओर से झपट्टा मारा। मैंने इस बार भी मांस को बचा कर दूसरे हाथ से चील को भगाया। लेकिन इस उछलकूद में मेरी पगड़ी मेरे सिर से गिर पड़ी और कमबख्त चील वही पगड़ी ले कर उड़ गई और शीघ्र ही, निगाहों से ओझल हो गई। मैं एकदम से चिल्ला उठा। इससे मुहल्ले की औरतें-बच्चे जमा हो गए और मेरा हाल सुन कर चील के पीछे दौड़ने लगे लेकिन चील कहाँ हाथ आने वाली थी। मैं महादुखी हो कर अपने घर आया और पगड़ी के साथ जानेवाली एक सौ नब्बे अशर्फियों का अफसोस करने लगा जो मेरी मूर्खता के कारण मेरे हाथ से निकल गई थीं।

खैर दस अशर्फियाँ तो थी हीं। उनके बल पर कुछ दिन मेरे स्त्री-बच्चों ने भरपेट भोजन किया।

दो-एक कपड़े भी स्त्री-बच्चों के लिए बन गए। किंतु यह कब तक चल सकता था। कुछ ही दिनों के बाद मैं पूर्ववत निर्धन हो गया। मैंने अपनी दशा पर संतोष कर के भगवान को धन्यवाद दिया कि मेरा अपना तो कुछ नहीं गया था। मैं अपने जी को यह सोच-सोच कर तसल्ली देता था कि जब निर्धनता और परिश्रम ही मेरे भाग्य में लिखा है तो मुझे उसी में संतोष करना चाहिए, अगर वे अशर्फियाँ मेरे भाग्य की होतीं तो मेरे हाथ से निकलतीं ही क्यों।

मैं तरह-तरह से अपने मन को समझाता था फिर भी खोए हुए धन की कसक मेरे मन से नहीं निकलती थी। मैंने अशर्फियों का हाल पत्नी और बच्चों को भी नहीं बताया था। वे सब मेरी चिंता और उदासी देख कर मुझसे उसका कारण पूछने लगे। मेरे कई पड़ोसियों ने भी आ कर पूछा कि तुम इतने उदास क्यों रहने लगे हो। पहले मैं चुप रहा किंतु उन लोगों के बहुत जोर देने पर मैंने उन्हें सारी बात बता दी। मेरे पड़ोसी, यहाँ तक कि बच्चे भी, मेरी बातों पर हँसने लगे। वे कहने लगे, तुमने सारे जीवन में एक भी अशर्फी देखी है कि दो सौ अशर्फियों की बातें करते हो? तुम्हारे पास दो सौ अशर्फियाँ आईं कहाँ से? चील के पगड़ी ले कर उड़ने की बात भी खूब रही, चील पगड़ी का क्या करेगी? पड़ोसियों ने तो विश्वास न किया किंतु मेरी पत्नी को मेरी बात पर विश्वास था और वह इस पर बहुत रोई। फिर जीवन वैसे ही चलने लगा।

छह महीने बाद दोनों मित्र सादी और साद मेरी गली में आए। साद ने कहा कि चल कर हसन हव्वाल को देखें कि दो सौ अशर्फियाँ पा कर उसकी दशा कितनी बदलती है। सादी ने कहा, यह बहुत अच्छा कहा। हम उसे जरूर देखेंगे। अगर उसकी दशा में सुधार हुआ तो हमें यह देख कर संतोष होगा कि हमारे दिए हुए धन से एक निर्धन का जीवन सुधरेगा। वे दोनों और निकट आए तो साद ने कहा, भाई, मुझे तो उसकी दशा पहले जैसी लग रही है। उसके कपड़े वैसे ही फटे-पुराने हैं, हाँ, उसकी पगड़ी जरूर नई मालूम हो रही है। तुम भी देखो, शायद मुझसे देखने में भूल हुई हो। सादी ने भी देखा और कहा, तुम ठीक कहते हो।

अब दोनों मेरे पास आए। साद ने कहा, हसन भाई, अब तुम्हारा क्या हाल है? दो सौ अशर्फियों से तुम्हारा व्यापार तो अच्छा-खासा बढ़ गया होगा। मैंने कहा, मैं अपने दुर्भाग्य का हाल आप लोगों से क्या कहूँ। मुझे कहते हुए शर्म आती है। न बताऊँ तो भी काम नहीं चलता। आप लोगों ने मुझ पर इतनी कृपा की, आप से छुपाऊँ भी क्या, हालाँकि मेरा हाल सुन कर आप को ताज्जुब ही होगा। यह कह कर मैंने सारा हाल बताया। सादी ने कहा, हसन, क्यों हमें बेवकूफ बना रहे हो। चील खाने की चीजें लेती है या पगड़ियाँ। तुमने भी वही किया है जो तुम्हारे जैसे लोग करते हैं। जब अप्रत्याशित रूप से धन मिलता है तो अपना काम-काज छोड़ भोग-विलास में पड़ जाते हैं। और कुछ दिनों में सब कुछ लुटा कर फिर फटीचर बन जाते हैं। तुमने भी यही किया है।

मैंने कहा, मेरे लिए जो कुछ भी कहें उसे कहने का आपको पूरा हक है। किंतु मैंने कुछ भी झूठ नहीं कहा है। मुझ पर जो कुछ गुजरी है वह यहाँ सभी लोग जानते हैं। मैं भी जानता हूँ कि साधारणतः चील पगड़ियाँ नहीं ले जातीं किंतु मेरे साथ यह अघट घटना घटी है और उसके साक्षी बहुत-से लोग हैं। साद ने मेरा पक्ष ले कर कहा, इसमें अविश्वास करने की कोई बात नहीं है। कई बार ऐसा देखा गया है कि चीलों ने ऐसी वस्तुएँ भी ले ली हैं जो उनके खाने के काम नहीं आ सकती। यह सुन कर सादी ने अपनी जेब से एक भारी थैली निकाली और उसमें से दो सौ अशर्फियाँ गिन कर मुझे दे दीं और कहा, भाई हसन, मैं फिर तुम्हें दो सौ अशर्फियाँ दे रहा हूँ। इन्हें सावधानी से सुरक्षापूर्वक रखना और पहले की भाँति इन्हें खो मत देना। इससे अपना व्यापार बढ़ाना जिससे तुम्हारी आर्थिक अवस्था ठीक हो जाए। इनका कोई दुरुपयोग भी न करना। मैंने सादी को बहुत धन्यवाद दिया और उसकी लंबी उम्र की कामना की। इसके बाद दोनों मित्र से विदा ले कर चले गए।

मैं अशर्फियाँ ले कर अपने घर के अंदर गया। उस समय मेरी पत्नी और पुत्र कहीं गए हुए थे। मैंने सोचा कि अशर्फियों को किसी ऐसी जगह रखा जाए जहाँ किसी बाहरी आदमी की नजर न पड़े। मैंने दस अशर्फियाँ निकाल कर शेष अशर्फियाँ एक पुराने-से चीथड़े में बाँधीं किंतु घर में कोई संदूक आदि तो था ही नहीं। इधर-उधर देखा तो एक कोने में एक नाँद रखी दिखाई दी जिसमें भूसी भरी हुई थी। मैंने उसी भूसी के अंदर अशर्फियों की पोटली रख दी। कुछ देर में मेरी स्त्री आई। मैंने फिर उससे अशर्फियों की बात छुपाई और रस्सी के लिए सन खरीदने को बाजार चला गया। इधर एक फेरीवाला अया जो सिर धोने की मिट्टी बेचता था। मेरी पत्नी को मिट्टी की जरूरत थी किंतु घर में एक पैसा भी नहीं था। उसने फेरीवाले से कहा, भाई मेरे, पास पैसा तो है नहीं, तुम मुझे इतनी मिट्टी दे दो और इसके बदले में नाँद समेत यह भूसी ले जाओ। फेरीवाले को यह सौदा लाभदायक लगा और उसने इसे मंजूर कर लिया। अतएव वह फेरीवाला सिर धोने की मिट्टी दे कर भूसी की नाँद उठा ले गया।

उसके जाने के बाद मैं सन का गट्ठा सिर पर लादे अपने घर आया। घर में आ कर सबसे पहले भूसी की नाँद को देखा तो उसे वहाँ नहीं पाया जहाँ वह रखी थी। मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि नाँद कहाँ गई तो उसने कहा कि फेरीवाले को नाँद दे कर सिर धोने की मिट्टी ले ली। मैंने यह सुन कर सिर पीट लिया और अपनी पत्नी पर बरसने लगा। मैंने कहा, कमबख्त तूने गर्दन काटने का काम किया है। सारे परिवार को भूखों मार दिया और फेरीवाले का घर भर दिया। तू जा कर कहीं डूब मर। उसकी समझ में मेरी नाराजगी नहीं आई और उसने पूछा, क्यों चिल्ला रहे हो तो मैंने बताया कि एक मित्र ने मुझे फिर दो सौ अशर्फियाँ दी थीं जिनमें से दस निकाल कर बाकी को एक कपड़े में बाँध कर मैंने भूसी में छुपा दिया था ताकि किसी और की निगाह उन पर न पड़े।

यह सुन कर मेरी पत्नी ने अपना सिर पीट डाला और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। उसने कहा, हाय अब मैं उस बदमाश फेरीवाले को कहाँ पाऊँगी। मैं तो उसको पहचानती भी नहीं। कोई मुहल्लेवाला भी उसे नहीं जानता। वह तो पहली बार ही मुहल्ले में आया था। और तुम भी मुझे अपना दुश्मन समझते हो कि मुझे नहीं बताया। दोनों बार मुझसे अशर्फियों को छुपाया और दोनों बार उसे खो दिया। मैंने उससे कहा, अभागी, जो हानि होगी वह तो हो ही गई। अब क्यों इतना चिल्ला रही हो? पड़ोसी यह सुनेंगे तो हमारी मूर्खता पर हँसेंगे ही। अब रोने-पीटने से क्या लाभ।

हम दोनों ने दस अशर्फियों से कुछ सामान घर-गृहस्थी का खरीदा, फिर उसी तरह निर्धनता का जीवन व्यतीत करने लगे। मेरी चिंता और लज्जा का ठिकाना न था। गरीबी की तो शुरू से आदत थी। उसकी इतनी चिंता नहीं थी। परेशानी यह थी कि अब की बार सादी आएगा तो उससे क्या कहूँगा। मैं कोई झूठ बात कह नहीं सकता और सच बात का उसे विश्वास नहीं होगा और वह यही समझेगा कि मैंने भोग-विलास में दो सौ अशर्फियाँ उड़ा दीं। कुछ दिनों के बाद फिर मेरे बारे में बहस करते हुए साद और सादी मेरे घर आए। मैं उन्हें दूर से आता देख कर सोचने लगा कि अब इनसे कैसे आँखें मिलाऊँगा। मैं चाहता था कि उठ कर कहीं चला जाऊँ किंतु वे सीधे मेरे पास आ गए। और मुझे सलाम करके मेरी कुशल-क्षेम पूछने लगे। मैं शर्म के मारे सिर झुकाए बैठा रहा। वे लोग मेरी निर्धनता को पूर्ववत देख कर आश्चर्य करने लगे। सादी ने कहा, क्या बात है? मैंने कहा, आप विश्वास करें या न करें, सच्ची बात यह है कि आपके जाने के बाद मैंने अशर्फियों को एक नाँद में भूसी के अंदर छुपा दिया था। हाँ, उसमें से दस अशर्फियाँ जरूर पहले निकाल ली थीं। उस समय घर में मेरे सिवा कोई न था। दस अशर्फियाँ ले कर मैं बाजार गया ताकि सन मोल लूँ। इस बीच मेरी पत्नी घर आ गई थी। कुछ देर में एक फेरीवाला सिर धोने की मिट्टी बेचता हुआ इधर से निकला। मेरी पत्नी के पास उस समय एक पैसा भी नहीं था। उसने भूसी को बेकार समझ कर फेरीवाले से कहा कि भूसी की नाँद के बदले मुझे सिर धोने की मिट्टी दे दो। फेरीवाला इस सौदे पर राजी हो गया। और मेरी पत्नी ने मिट्टी के बदले उसे भूसी की नाँद दे दी। उसके साथ आपकी दी हुई अशर्फियों में से एक सौ नब्बे अशर्फियाँ भी चली गईं।

सादी ने कहा, तुमने अपनी पत्नी को यह बताया क्यों नहीं कि नाँद में अशर्फियाँ रखी हैं? मैंने कहा, आपने कहा था कि अशर्फियाँ सावधानी से रखना सो मैंने उन्हें सुरक्षित स्थान में रखा। स्त्री के आने पर मुझे बाजार जाने की जल्दी थी और फिर मैं उसे बताना भी नहीं चाहता था क्योंकि स्त्रियों के पेट में बात पचती नहीं है। यह भी डर था कि वह कहीं अपनी शौकीनी में उन्हें खर्च न कर दें। आप ने दो-दो बार मुझे निर्धन से धनवान बनाने का प्रयत्न किया किंतु क्या आप कर सकते हैं और क्या मैं कर सकता हूँ। निर्धनता तो मेरे भाग्य ही में लिखी हैं, फिर मेरे पास धन आएगा कहाँ से। हाँ, आप ने जो अहसान मुझ पर किया उसे मैं जन्म भर नहीं भूलूँगा और जीवन भर आपके गुण गाता रहूँगा। सादी ने कहा, भाई, मैंने तुम्हें जो सहायता दी थी वह अपने गुण गवाने के लिए नहीं दी थी बल्कि इसलिए दी थी कि तुम धनवान बनो। मुझे अत्यंत खेद है कि दो बार प्रयत्न कर करने पर भी मैं यह न कर सका।

अब साद ने, जो मुझे पहले से जानता था, अपनी जेब से एक ताँबे का पैसा निकाला। उसने सादी से कहा, यह पैसा मैं हसन को दे रहा हूँ। तुम देखना कि ईश्वर ने चाहा तो इसी से इसकी किस्मत पलट जाएगी और यह धनवान हो जाएगा। सादी इस बात पर ठहाके लगा कर हँसने लगा। कहने लगा, यह एक पैसा जरूर इसे निर्धन से धनवान बनाएगा। इस एक पैसे को व्यापार में लगा कर यह हजारों रुपए पैदा कर लेगा। तुम भी क्या मूर्खता की बातें कर रहे हो। यह कह कर वह फिर हँसने लगा।

साद ने मुझ से कहा, तुम सादी की बातों का ख्याल न करो। इसे हँसने दो। इसकी तो आदत ही है कि बगैर सोचे-समझे हँसता रहता है। तुम देखना। ईश्वर चाहेगा तो एक दिन के अंदर ही तुम्हें इसका चमत्कार दिखाई देगा। इसी से तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। मुझे भी इस बात पर विश्वास न हुआ कि एक पैसे से दरिद्रता कैसे दूर होगी। फिर भी मैंने धन्यवाद दे कर वह पैसा अपनी जेब में रख लिया। कुछ देर में दोनों मित्र विदा हो गए और मैं पूर्ववत रस्सी बटने लगा और पैसे को भूल ही गया।

रात में सोने के लिए जब मैं कपड़े उतारने लगा तो वह पैसा जमीन पर गिर गया। मैंने उसे उठा कर एक ताक में रख लिया। संयोग से उसी रात को एक मछवारे को एक पैसे की जरूरत पड़ी। उसका जाल कुछ टूट गया था और उसे ठीक करने के लिए उसे सुतली लेनी थी। उसने अपनी स्त्री से कहा कि किसी पड़ोसी से एक पैसा माँग ला। वह सब के घर गई किंतु उसे एक पैसा कहीं से नहीं मिला। मछवारे ने उससे पूछा कि तू हसन हव्वाल के यहाँ गई थी या नहीं। उसने कहा, मैं वहाँ नहीं गई, उसका घर दूर पड़ता है। मछवारे ने उसे डाँटा कि तुझसे जरा-सा पाँव भी नहीं हिलाए जाते, तू अभी वहाँ जा, उसके यहाँ से पैसा जरूर मिलेगा। चुनांचे वह स्त्री बड़बड़ाती हुई मेरे घर आई और दरवाजा खुलवा कर बोली, हसन भैया, हमें जाल के लिए सुतली लाने के लिए एक पैसा चाहिए, तुम्हारे पास हो तो दे दो। मुझे उस पैसे का ध्यान आया जो मैंने उसी समय ताक पर रखा था। और मैंने अपनी पत्नी से कहा कि ताक पर रखा पैसा इसे दे दे। मछुवारे की स्त्री ने मेरी पत्नी का बड़ा अहसान माना और कहा, तुम लोगों की वजह से हमारा कल का दिन खराब होने से बच गया। मेरा पति दिन निकलने के पहले ही मछलियाँ पकड़ने जाता है। मैं तुमसे वादा करती हूँ कि पहली बार जाल डालने से जितनी मछलियाँ आएँगी वह मैं तुम्हें दे दूँगी। मेरी पत्नी ने इस पर कुछ नहीं कहा। मछवारे की स्त्री ने जब उसे पैसा दिया और कहा कि मैं पहली बार की मछलियों के देने का वादा कर आई हूँ तो उसने खुशी से यह बात स्वीकार कर ली।

सुबह मुँह अँधेरे मछवारा उठा और नदी पर चला गया। उसने भगवान का नाम ले कर जाल डाला और खींचा तो उसमें सिर्फ एक ही मामूली आकार की मछली आई। उसने उसे अलग रख लिया क्योंकि उस मछली को मुझे देना था। फिर उसने कई बार जाल फेंका और हर बार बड़ी-बड़ी और कई-कई मछलियाँ जाल में फँसीं। सभी मछलियाँ उस मछली से बड़ी थीं जिसे पहली बार के जाल डालने में पकड़ा गया था। दिन चढ़े वह मछवाहा मछलियों की खेप ले कर अपने घर आया और उन्हें बाजार ले जाने के पहले मेरे हिस्से की मछली ले कर मेरे घर आया और मुझसे बोला, हसन भाई, रात को मेरी पत्नी ने तुम लोगों से वादा किया था कि पहले जाल की मछलियाँ तुम्हें दी जाएँगी। वह मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ। अब यह तुम्हारा भाग्य है कि पहली बार सिर्फ यही एक मामूली-सी मछली फँसी। अगर पहली बार में अधिक मछलियाँ आतीं तो वो सब तुम्हें देता। अब इसी एक मछली को स्वीकार करो।

मैंने कहा, मैंने पैसा तुम्हारी जरूरत को देख कर दिया था, मछली पाने के लिए नहीं दिया था। तुम इसे भी ले जाओ। लेकिन मछवारा अपना वादा निभाने पर अड़ा रहा और अंततः जबर्दस्ती मुझे मछली दे कर चला गया। मैंने अपनी पत्नी को बुला कर कहा, तुमने कल जो पैसा मछवारे की स्त्री को दिया था उसके बदले में यह मछली मिली है। वह पैसा साद का था और साद ने कहा था कि इस एक पैसे ही से तुम्हारा भाग्य चमकेगा। सो भाग्य चमकाने के लिए यह एक मछली आई है। वह यह सुन कर हँसने लगी।

उसने सोचा कि घर में तेल-मसाला तो है नहीं जिससे यह मछली शोरबेदार बनाई जाए। इसलिए उसने सोचा कि वैसे ही भून कर बच्चों को खिलाई जाए। उसने ले जा कर मछली को साफ किया तो उसके अंदर से एक बड़ा-सा हीरा निकला। हम लोगों ने हीरा काहे को देखा था। मेरी पत्नी ने समझा कि यह शीशे का टुकड़ा है। लेकिन उसने उसे फेंका नहीं बल्कि एक तरफ रख दिया ताकि सबसे छोटे बच्चे को खेलने के लिए उसे दे दे। छोटा बच्चा आया तो मेरी स्त्री ने वह हीरा उसे खेलने के लिए दे दिया। वह कुछ देर उससे खेलता रहा। फिर उसके भाइयों ने उससे हीरा ले लिया और एक-एक करके सभी बच्चे थोड़ी थोड़ी देर के लिए उससे खेलते रहे। वे लोग शाम तक उससे खेलते रहे। अँधेरा होने पर वे उसे घर में ले आए।

जब दिया जलाया गया तो उसकी रोशनी में हीरा अत्यधिक जगमगाने लगा। सब बच्चे उसे देख कर खूब खुश होने और चिल्लाने लगे। वे काफी देर तक उससे खुश होते रहे। फिर मेरी स्त्री ने भोजन तैयार करके सभी को भोजन करने के लिए बुलाया। भोजन करते समय बड़े लड़के ने हीरे को एक ओर रख दिया और सब लोग शांतिपूर्वक भोजन करते रहे। भोजन के उपरांत मैं अपनी चारपाई पर लेट गया और बच्चे फिर हीरे से खेलने और शोर-शराबा करने लगे क्योंकि हर बच्चा जगमगाते हीरे से खेलना चाहता था। पहले उनके झगड़े पर हमने ध्यान नहीं दिया किंतु जब उनका शोर बहुत बढ़ गया तो मैंने उनसे पूछा कि क्या बात है। उन्होंने कहा कि माँ ने एक शीशे का टुकड़ा हमें खेलने के लिए दिया था। उसी पर लड़ाई हो रही है।

मैंने उसे मँगा कर देखा तो मुझे भी उसकी चमक देख कर आश्चर्य हुआ। मैंने पत्नी से पूछा कि तुमने यह टुकड़ा कहाँ पाया। उसने कहा, मछली के पेट में। मैंने दिए को ओट में रखवाया तो भी टुकड़े में इतना प्रकाश था कि हम सब कुछ अच्छी तरह देख सकते थे। मैंने कहा, चलो इतना ही काफी है। हमें ऐसी चीज मिली है जिससे तेल बत्ती की बचत हो जाएगी।

जब बच्चों ने देखा कि वह शीशे का टुकड़ा जगमगाता ही नहीं बल्कि अँधेरे में रोशनी भी देता है तो वे और भी उछलने-कूदने और शोर-शराबा करने लगे। रात काफी हो गई थी इसलिए मुहल्ले के और लोगों ने भी उनकी आवाज सुनी। जब शोर बहुत बढ़ा तो मैंने उन्हें डाँट-डपट कर चुप करा दिया। हम सब लोग अपने बिस्तरों पर सो रहे और उस शीशे के टुकड़े के बारे में मैं बिल्कुल भूल गया।

हमारे पड़ोस में एक बूढ़ा यहूदी जोड़ा रहता था। हमारे बच्चों की चीख-पुकार से उन दोनों की नींद खुल गई और फिर बहुत देर तक नहीं आई। सुबह बुढ़िया इस उलाहने को ले कर मेरे घर आई। उस समय तक मैं अपने काम में लग गया था। जब बूढ़ी यहूदिन हमारे घर आई तो मेरी पत्नी समझ गई कि क्या उलहना ले कर आई होगी। उसके बोलने के पहले ही मेरी पत्नी ने कहा, दीदी, मैं जानती हूँ कि रात को इन कमबख्तों के शोर की वजह से तुम लोगों को नींद नहीं आई होगी। हमने भी इन्हें बहुत डाँटा है, तुम भी इन्हें क्षमा करो। क्या किया जाए, बच्चे तो बच्चे ही हैं, जरा-सी बात पर खुश हो जाते हैं, जरा-सी बात पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। यह देखो, इसी शीशे के टुकड़े के लिए यह अभागे कल रात को लड़े मरे जा रहे थे। यह कह कर मेरी पत्नी ने वह हीरा उसे दिखाया।

यहूदी खुद रत्नों का व्यापारी था और यहूदिन को भी रत्नों की पहचान थी। वह आश्चर्य से जड़वत हो गई, फिर बोली, ऐसा ही एक शीशे का टुकड़ा मेरे पास है। तुम इसे बेच दो तो मैं जोड़ा बना कर पहन लूँगी। उसने अपनी चालाकी से यह न बताया कि यह अत्यंत ही मूल्यवान हीरा है। मेरी पत्नी उसे बेच भी देती लेकिन सारे बच्चे रोने लगे कि यह टुकड़ा न बेचो, हम अब कभी शोर न करेंगे। इसलिए बात खत्म हो गई क्योंकि बुढ़िया अस्लियत नहीं बताना चाहती थी। लेकिन घर जाने के पहले मेरी स्त्री से चुपके से कह गई कि इसको कोई देखने न पाए और बगैर मुझे बताए इसे किसी के हाथ न बेचना। फिर बुढ़िया ने अपने पति की दुकान पर जा कर उस हीरे का पूरा वर्णन किया तो उसने कहा, ऐसे दुर्लभ हीरे को किसी भी मूल्य पर खरीद लो। पहले तुम उसका थोड़ा दाम लगाना। वे लोग उसका मूल्य तो जानते नहीं हैं, शायद थोड़े ही में उसे दे दें। न मानें तो धीरे-धीरे दाम बढ़ाना। लेकिन किसी मूल्य पर भी हो, उसे ले जरूर लेना।

अपने पति के आदेश पर यहूदिन मेरी स्त्री के पास आई और बोली, मैं इस शीशे के टुकड़े के लिए तुम्हें बीस अशर्फी दे सकती हूँ। मेरी स्त्री यह सुन कर चौंकी और समझ गई कि इस टुकड़े में कोई खास बात है तभी यह इतना दाम देने को तैयार है। उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। इतने में मैं भी दोपहर का भोजन करने के लिए घर में आया और दोनों स्त्रियों को बातें करते देखा। मेरी पत्नी मुझे अलग ले जा कर बोली, यह यहूदिन शीशे के टुकड़े के लिए बीस अशर्फियाँ दे रही है। मैंने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है। तुम कहो तो ले लूँ, आखिर शीशे का टुकड़ा ही तो है।

मुझे उसी समय साद की बात याद आई कि यह पैसा तुम्हारी किस्मत चमका देगा। मैं कुछ कहता इसके पहले यहूदिन मेरे पास आ कर कहने लगी कि मैं इस टुकड़े को बीस अशर्फियों में लेना चाहती हूँ। मैं चुप ही रहा। फिर यहूदिन बोली, हसन मियाँ, अगर तुम्हें बीस अशर्फियाँ कम लगती हों तो मैं पचास दे दूँगी। मैंने देखा कि वह बीस से एकदम पचास आ गई है तो समझ लिया कि इस टुकड़े का बहुत मूल्य होगा। मैं फिर भी चुप रहा। उसने कहा, अच्छा सौ अशर्फी ले लो, हालाँकि मेरा पति इतने दाम देने पर क्रुद्ध होगा। मैंने कहा, देखो भाई, मैं इसे लाख अशर्फियों से कम पर न बेचूँगा। हाँ, तुम लोग पड़ोसी हो इसलिए यह कहता हूँ कि कोई दूसरा लाख अशर्फी से अधिक देगा तो भी तुम्हें ही लाख अशर्फियों में दूँगा।

यहूदिन बढ़ते-बढ़ते पचार हजार अशर्फियों तक आ गई किंतु मैं नहीं माना तो वह कहने लगी कि शाम तक इसे किसी के हाथ न बेचना, शाम को मेरा पति आ कर तुमसे खुद ही बात करेगा। शाम को बूढ़ा यहूदी आया। उसने दिए की रोशनी में हीरे को भली-भाँति परखा और उसके खरेपन को उसे विश्वास हुआ तो बोला, मेरी स्त्री इसकी पचास हजार अशर्फियाँ लगा गई है, मैं सत्तर हजार लगाता हूँ। उससे अधिक न दे सकूँगा।

मैंने कहा, तुम्हें तुम्हारी पत्नी ने बताया होगा कि मैं हीरे को एक लाख अशर्फियों से कम पर बेचने को तैयार नहीं हूँ। अगर तुम इतने पर उसे लेने को तैयार नहीं हो तो मैं दूसरे जौहरी से सौदा करूँगा। काफी झिकझिक करने के बाद यहूदी जौहरी एक लाख अशर्फियों के सौदे पर राजी हो गया क्योंकि हीरा बहुत बड़ा था और एक लाख अशर्फियों में खरीद कर भी यहूदी को बड़ा मुनाफा होना था। यहूदी ने मुझे दो हजार अशर्फियाँ बयाने में दीं और कहा कि कल शाम तक मैं पूरा दाम दे दूँगा और हीरा ले जाऊँगा। दूसरे दिन यहूदी जौहरी ने अपने कई मित्रों से कर्ज ले कर अठानबे हजार अशर्फियाँ मुझे दीं और हीरा ले लिया।

इतना धन पा कर मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसी भगवान के दिए हुए द्रव्य से मैंने धनवानों जैसा गृहस्थी का सामान खरीदा और मेरी पत्नी ने भी अपने लिए और लड़कों के लिए अच्छे कपड़े बनवाए। मैंने रहने के लिए एक बड़ा मकान खरीदा। उसमें परदे, फर्श आदि लगवाए। मैंने अपनी पत्नी से कहा, हमें इतना पैसा जरूर मिल गया है लेकिन अपना पेशा मैं पैत्रिक ही रखूँगा। वह भी इस बात से सहमत हुई। मैंने अपनी पूँजी का कुछ भाग ही व्यापार में लगाया, शेष को सावधानी से रख दिया ताकि आड़े समय काम आए। मैंने नगर के कई कारीगरों को नौकरी पर रखा और कई सौ अशर्फियाँ दे कर नगर में रस्सी बटनेवाले बहुत-से कारखाने लगवाए। कई विश्वस्त व्यवस्थापक भी रखे जिन्होंने उन कारखानों का भार सँभाल लिया। इस समय बगदाद नगर में कोई गली ऐसी नहीं है जिसमें मेरा रस्सी बटनेवाला कारखाना मौजूद न हो। इसी प्रकार अन्य बड़े नगरों और जिलों के प्रशासन केंद्रों में भी मैंने रस्सी के कारखाने खोले। वहाँ व्यवस्थापक और हिसाब-किताब के लिए मुनीमों को नौकर रखा। इससे मुझे बहुत धन प्राप्त हुआ।

मैंने एक बड़ा पुराना मकान लिया जिसमें जमीन बहुत थी। उसकी इमारत तुड़वा कर वहीं एक बड़ी इमारत बनवाई। वही आपने कल देखी थी। उसे मैंने अपना केंद्रीय कार्यालय बनाया और घर का अतिरिक्त सामान भी वहीं रखा। पुराने घर को छोड़ कर नए घर में जा बसा।

काफी दिन बाद साद और सादी मेरे पुराने मकान में मुझे पूछते हुए आए। मुहल्ले के लोगों ने कहा कि अब उसे हसन कोई नहीं कहता, अब उसे ख्वाजा हसन हव्वाल कह कर बुलाते हैं और वह उस मुहल्ले में एक बड़े मकान में रहता है। उसका बहुत बड़ा कारोबार हो गया है। वे दोनों मित्र मुझे पूछते हुए मेरे घर पर आए। उस समय सादी को यह बिल्कुल विश्वास न हुआ कि साद के दिए हुए पैसे से मेरी दशा बदली है, वह समझता था कि मैंने अशर्फियों के खोने की दो बार झूठी कहानी गढ़ी है।

उसने साद से कहा कि हसन ने दो बार मुझसे झूठ बोला कि मेरी दी हुई अशर्फियाँ उससे खो गई हैं, यह व्यापार उसने कहाँ से बढ़ाया अगर वे अशर्फियाँ खो गई थीं। किंतु उसने कहा कि हसन ने सच बोला या झूठ, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, मुझे उसकी समृद्धि देख कर प्रसन्नता ही होगी। यह मानने को मैं बिल्कुल तैयार नहीं हूँ कि जो ताँबे का पैसा तुमने उसे दिया था उससे वह अमीर बना है।

साद ने कहा, तुम्हारी बात बिल्कुल निर्मूल है। मैं हसन को बहुत दिनों से जानता हूँ। वह निर्धन था किंतु उसकी झूठ बोलने की कभी आदत नहीं थी। जो कुछ भी उसने उन अशर्फियों के बारे में कहा सब सच होगा। तुम्हें यह भी मालूम हो जाएगा कि मेरे एक पैसे की बदौलत ही उसका व्यापार इतना चमका है।

इसी प्रकार बहस करते-करते वे मेरे घर आए। उन्होंने दरवाजे पर आवाज दी तो दरबान ने फाटक खोल दिया। सादी अंदर बहुत-से नौकरों को देख कर डरा कि किसी सरदार के मकान में तो नहीं आ गया। उसने दरबान से पूछा कि ख्वाजा हसन हव्वाल यही रहते हैं? दरबान ने कहा, यहीं रहते हैं और इस समय अपनी बैठक में बैठे हैं। आप अंदर जाइए। नौकर आपके आने की सूचना उन्हें दे देगा। उन दोनों के आने की सूचना मिली तो मैं उन्हें बुलाने के बजाय दीवानखाने से उठ कर उनके स्वागत के लिए चला। उन्हें देख कर मैंने दौड़ कर सम्मानार्थ उनके वस्त्र चूमे। वे मुझे गले लगाना चाहते थे किंतु मैंने ऐसा न होने दिया क्योंकि उन्हें अब भी अपने से ऊँचा समझता था। अंदर ले जा कर मैंने उन्हें एक दालान में एक ऊँचे स्थान पर बिठाया। वे मुझे अपने बराबर बिठाना चाहते थे किंतु मैंने कहा, महानुभावो, मैं यह नहीं भूला कि मैं वही रस्सी बटनेवाला हसन हूँ और आप लोग मेरे उपकारकर्ता हैं। मैं उनके सामने बैठ गया और हम लोगों में प्रारंभिक शिष्टाचार के बाद बातें होने लगीं।

सादी ने कहा, हसन भाई, तुम्हारी इस समृद्धि को देख कर मुझे अतीव प्रसन्नता हो रही है। मैं जैसा तुम्हें देखना चाहता था वैसा ही तुम्हें देख रहा हूँ। मुझे यह पूरा विश्वास है कि तुम्हारी सारी समृद्धि उन चार सौ अशर्फियों के कारण हुई हैं जो मैंने दो बार में तुम्हें दी थीं। अब यह सच-सच बताओ कि दोनों बार मुझसे झूठ क्यों बोले थे कि अशर्फियाँ तुमसे खो गई हैं। साद मन ही मन कुढ़ता हुआ उसकी बातें सुनता रहा और उसके चुप हो जाने पर बोला, तुम क्यों अपनी बेतुकी हाँके जा रहे हो और क्यों हसन को झूठा बना रहे हो। मैं तुमसे कह चुका हूँ कि यह झूठा आदमी नहीं है। इस पर उन दोनों में फिर तकरार हो गई।

मैंने कहा, सज्जनो, आप लोग मेरी बात को ले कर आपस में झगड़ा न करें। आप सच मानें या झूठ, अशर्फियाँ मुझसे उसी तरह खो गई थीं जैसा मैंने आप लोगों को बताया था। और यह धन-संपदा मैंने कैसे प्राप्त की वह मैं आप को अभी बताता हूँ। इसके बाद, सरकार, मैंने मछली के पेट से हीरे के निकलने की बात जैसी अभी आपके सम्मुख बताई है वैसे ही उन्हें बताई। इस पर सादी ने कहा, हसन, उस छोटी मछली के पेट से इतना बड़ा हीरा निकलने की बात ऐसी ही है जैसी कि चील के पगड़ी ले जाने की बात। इन बातों पर किसे विश्वास होगा? भूसी की नाँद में रखी हुई अशर्फियों की बात संभव है किंतु विश्वास मुझे उस पर भी नहीं। खैर छोड़ो। जो हुआ अच्छा हुआ। इसके बाद दोनों विदा होने के लिए उठे। मैंने कहा, आप लोगों ने इतनी कृपा करके मेरी कुटिया को पवित्र किया है तो मेरी इतनी प्रार्थना भी स्वीकार करें कि रात को यहीं ठहरें और कल मेरे साथ चल कर मेरे देहात के मकान को भी देखें जो मैंने मनोरंजन के लिए बनवाया है और जहाँ मैं काम से थक कर आराम करने के लिए चला जाता हूँ।

पहले तो उन्होंने यह बात नहीं मानी लेकिन मैंने बहुत जोर दिया तो वे रुकने को राजी हो गए। मैंने उनके लिए भाँति-भाँति के व्यंजन बनवाए। उन्हें मैंने अपने घर का मूल्यवान सामान दिखाया। वे यह सब देख कर बड़े प्रसन्न हुए और हँसी-मजाक की बातें करते रहे। भोजन तैयार होने पर मैं उन्हें अपने भोजन कक्ष में ले गया। वहाँ मेरे सेवकों के तैयार किए हुए नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन रखे थे। जगह-जगह उचित स्थानों पर बड़े-बड़े दीप जल रहे थे, एक ओर गायक वादक मधुर स्वरों में गा बजा रहे थे, दूसरी ओर नर्तकों और नर्तकियों का कला प्रदर्शन हो रहा था। भोजन के उपरांत उन लोगों के मनोरंजन के लिए बहुत-से खेल-तमाशों का भी प्रबंध किया गया।

इसके बाद हम लोग सो रहे। सुबह उठ कर नित्यकर्म से निश्चिंत होने के बाद हम लोग एक नाव पर सवार हुए और नदी की राह से मेरे देहातवाले मकान की ओर रवाना हुए। कुछ घंटों में हम वहाँ पहुँच गए। नाव से उतर कर हम लोग गाँव की सैर करते हुए मेरे देहाती मकान में आए। वहाँ भी मैंने कारखाना लगा रखा था। वे लोग घर और कारखाने की साज-सज्जा को देख कर खुश हुए। फिर मैं उन्हें उस वाटिका में ले गया जो मैंने वहाँ लगवाई थी। बाग में तरह-तरह के फलों और फूलों के वृक्ष लगे थे। नदी से पक्की नहरों द्वारा सिंचाई का पानी वहाँ आता था। पेड़ों पर तरह-तरह के पके फल लगे थे। तरह-तरह के फूल चारों ओर सुगंध बिखेर रहे थे। जगह-जगह फव्वारे और ऊपर से नीचे गिरनेवाली पानी की चादरें दिखाई दे रही थीं। वे दोनों मित्र यह सब देख कर और भी प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे इस बात का धन्यवाद दिया कि मैंने उन्हें इतने सुंदर स्थान की सैर कराई। साथ ही उन्होंने मुझे हृदय से आशीर्वाद भी दिया कि मेरी समृद्धि और बढ़े।

फिर मैं उन्हें बाग ही में बने हुए एक छोटे-से मकान में ले गया। दोपहर के भोजन का प्रबंध मैंने उसी बगीचे के मकान में किया था। वहाँ एक सुंदर और स्वच्छ स्थान पर जहाँ मसनद तकिए लगे हुए थे उन लोगों को बिठाया। उन लोगों को यहाँ लाने के दो-तीन दिन पहले मैंने अपने दो पुत्रों और उनके शिक्षक को देहाती मकान में आबोहवा बदलने के लिए भेज रखा था। वे लड़के भी बाग में चिड़ियों के घोंसले तलाश करते घूम रहे थे। एक पेड़ पर उन्हें एक बड़ा और सफेद घोंसला दिखाई दिया। वे छोटे भी थे और पेड़ों पर चढ़ना भी नहीं जानते थे, इसलिए उन्होंने एक नौकर से कहा कि ऊपर चढ़ कर उनके खेलने के लिए वह घोंसला उतार लाए। नौकर पेड़ पर चढ़ा तो उसे देख कर आश्चर्य हुआ कि घोंसले में एक पगड़ी रखी है जिसका एक सिरा हवा के कारण घोंसले के चारों ओर लिपट गया है। नौकर ने वह घोंसला उतार कर लड़कों के हाथ में दे दिया।

लड़के मेरे पास घोंसला ले कर दौड़े आए और खुश हो कर उछल-कूद कर कहने लगे, देखिए अब्बा, यह घोंसला कपड़े का बना हुआ है। मुझे तो यह देख कर आश्चर्य हुआ ही, साद और सादी मुझसे भी अधिक आश्चर्यान्वित हुए कि घोंसले में इतना बड़ा कपड़ा कहाँ से आया। मैंने कपड़े को देखा तो मालूम हुआ कि यह पगड़ी है और वही पगड़ी है जो मेरे सिर से चील ले उड़ी थी। मैंने दोनों मित्रों से कहा, देखिए, यह वही पगड़ी है या नहीं जो मैं उस दिन पहने बैठा था। साद ने कहा, मैंने तुम्हारी पगड़ी पर ध्यान नहीं दिया इसलिए यह नहीं कह सकता कि यह वही पगड़ी है या नहीं।

सादी ने कहा, मैं भी तुम्हारी पगड़ी नहीं पहचानता। लेकिन अगर यह वही पगड़ी है तो इसमें बाकी बची हुई एक सौ नब्बे अशर्फियाँ भी होंगी। मैंने कहा, मैं तो पहचानता हूँ। यह पगड़ी वही है जिसे चील ले गई थी।

मैंने पगड़ी को घोंसले से उठाया तो वह काफी भारी लगी। मैंने उसकी तहें खोलीं तो उसमें से थैली निकली। मैंने सादी से कहा, आप मेरी पगड़ी नहीं पहचानते किंतु आप यह थैली तो पहचानते ही होंगे। दरअसल मुझे सादी के अविश्वास पर रोष आया था किंतु उसका अहसान याद करके मैंने पहले कुछ नहीं कहा था। सादी ने कहा, यह थैली तो वाकई वही है जो मैंने तुम्हें दी थी। इसमें अशर्फियाँ भी होनी चाहिए। मैंने थैली खोल कर उसके सामने उलट दी और कहा कि अशर्फियाँ भी गिन लीजिए। उसने अशर्फियाँ गिनीं तो उनकी संख्या ठीक एक सौ नब्बे निकली।

सादी यह देख कर लज्जित हुआ किंतु उसने कहा, तुम्हारी एक बार की कही हुई बात तो साबित हो गई लेकिन मैं यह नहीं मानता कि एक पैसे में तुम्हारी किस्मत बदली है। तुमने चार सौ अशर्फियों से न सही, उन दो सौ अशर्फियों से जरूर व्यापार आरंभ किया होगा जो मैंने तुम्हें दूसरी बार दी थीं। मैं इस पर चुप हो रहा किंतु साद ने फिर उसे टोका कि तुम बेकार की जिद पर अड़ हुए हो। उन दोनों में फिर से वही बेतुकी बहस शुरू हो गई।

खैर भोजन आया तो बहस खत्म हुई। भोजन के बाद हम लोग वहीं सो रहे। साद और सादी को दूसरे दिन जरूरी काम था और रात ही में हम लोगों को लौटना था। रात में धारा से उलटे चल कर नदी की राह से वापस होने में कोई तुक न थी। इसलिए हम तीनों शाम को घोड़ों पर सवार हो कर बगदाद को रवाना हुए। हमारे साथ तीन गुलाम थे। रात काफी हो गई तो हम एक जगह उतर गए। घोड़ों को शाम को दाना नहीं मिला था इसलिए मैंने दासों से कहा कि कहीं से घोड़ों के चारे का प्रबंध करें। रात हो जाने से सारी दुकानें बंद हो गई थीं, सिर्फ एक परचून की दुकान खुली थी। दाना तो नहीं मिला किंतु भूसी से भरी एक नाँद मिली। मेरे दासों ने इसी को गनीमत जाना और भूसी के दाम दे कर और सवेरे खाली नाँद के वापस करने का वादा करके नाँद उठा लाए। एक नौकर नाँद में से भूसी निकाल-निकाल कर घोड़ों को देने लगा तो उसका हाथ एक पोटली पर लगा और उसे वह मेरे पास ले आया ताकि सवेरे दुकानदार को थैली दे दी जाए।

मैंने पोटली को देखा तो पहचान गया कि वही पोटली है जिसमें अशर्फियाँ बाँध कर मैंने भूसी की नाँद में रखा था। बाहर जा कर नाँद को देखा तो उसे भी पहचान लिया कि मेरी ही है। मैंने दोनों मित्रों को बुला कर नाँद और उसमें से निकली पोटली दिखाई, फिर पोटली खोल कर उसमें की अशर्फियाँ सादी के सामने उलट दीं, और कहा, इन्हें गिन लीजिए। उसने गिनीं तो पूरी एक सौ नब्बे निकलीं। सादी ने कहा, अब मुझे हसन की सत्यवादिता पर और तुम्हारे सिद्धांत पर पूरा विश्वास हुआ कि धन न पूँजी के बल पर आता है, न उद्यम के बल पर बल्कि भाग्य से मिलता है। इसके बाद हम सो रहे ओर सवेरे बगदाद आ गए जहाँ दोनों मित्र मुझसे विदा हो कर अपने घर चले गए।

खलीफा ने हसन की पूरी कहानी सुन कर कहा, हसन मियाँ, तुम्हारे पड़ोसियों से सुना था कि तुम धन को समझ-बूझ कर खर्च करनेवाले आदमी हो। तुम्हारी कहानी से मालूम हुआ कि तुम सीधे-सच्चे और सभ्य आदमी भी हो। तुम जिस हीरे की बात कर रहे हो वह खजाने में हैं, मैंने उसे यहूदी जौहरी से डेढ़ लाख अशर्फियों में खरीदा था। तुम सादी को यहाँ भेजना कि वह हीरा देखे और इत्मीनान कर ले। तुम मेरे कोषाध्यक्ष के पास जा कर मेरा आदेश दो कि वह तुम्हारे मुँह से हीरे की प्राप्ति का वृत्तांत सुने और लिखवा कर हीरे के साथ रखवा दे।

यह कह कर खलीफा ने हसन को विदा होने के लिए इशारा किया। वह सिंहासन का पाया चूम कर वापस हुआ। बाबा अब्दुल्ला और सीदी नुमान भी खलीफा के सिंहासन का पाया चूम कर अपने-अपने घरों को चले गए।

कहानी सुन कर दुनियाजाद ने उसकी प्रशंसा की और पूछा कि और कोई कहानी भी आती है या नहीं। शहरजाद ने कहा कि एक बड़ी मनोरंजक कहानी है। किंतु शहरयार ने कहा, अब सवेरा हो गया है। दूसरी कहानी कल शुरू करना।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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अलीबाबा और चालीस लुटेरों की कहानी

अगली रात को मलिका शहरजाद ने नई कहानी शुरू करते हुए कहा कि फारस देश में कासिम और अलीबाबा नाम के दो भाई रहते थे। उन्हें पैतृक संपत्ति थोड़ी ही मिली थी। किंतु कासिम का विवाह एक धनी-मानी व्यक्ति की पुत्री से हुआ था। उसे अपने ससुर के मरने पर उसकी बड़ी दुकान उत्तराधिकार में मिली और जमीन में गड़ा धन भी। इसलिए वह बड़ा समृद्ध व्यापारी बन गया। अलीबाबा की पत्नी निर्धन व्यक्ति की पुत्री थी इसलिए वह बेचारा गरीब ही रहा। वह अपने तीन गधे ले कर रोजाना जंगल में जाता और वहाँ लकड़ियाँ काट कर गधों पर लाद कर शहर लाता और उन्हें बेच कर पेट पालता।

एक दिन अलीबाबा ने जंगल में जा कर लकड़ियाँ काटीं और उन्हें गधों पर लादा। वह उन्हें हाँक कर नगर की आरे आने ही वाला था कि एक ओर उड़ती हुई धूल को देख कर ठिठक गया। कुछ देर में उसे उस धूल के अंदर से सवार आते हुए दिखाई दिए। वह उनको देख कर घबरा गया।

वह समझ गया था कि यह लुटेरे हैं, मेरे पास कुछ नहीं है तो वे मुझे मार कर मेरे गधों ही को ले जाएँगे। वह सोचने लगा कि जल्दी से जंगल से निकल जाए किंतु यह संभव न था क्योंकि सवार बड़ी तेजी से आ रहे थे। उसने अपने गधों को इधर-उधर हाँक दिया और खुद एक घने पेड़ पर चढ़ गया जहाँ से वह तो सब कुछ देख सकता था लेकिन उसे कोई नहीं देख सकता था।

उस वृक्ष के पास एक बहुत ऊँचा पहाड़ था। सवार आ कर उसी पहाड़ के पास उतर पड़े। अलीबाबा को निश्चय हो गया कि यह डाकू हैं। उनके पास बड़े-बड़े बोरे थे। जिनमें परदेशी यात्रियों से लूटी हुई संपत्ति थी। अलीबाबा ने गिन कर देखा तो वे संख्या में चालीस थे। घोड़ों से उतर कर उन्होंने उनकी लगामें उतार दीं और सोने-चाँदी से भरी बोरियाँ उतार लीं। फिर उनके सरदार ने पहाड़ की खड़ी चट्टान के पास जा कर कहा, खुल जा समसम। समसम अरबी में तिल को कहते हैं।

सरदार के यह कहते ही खड़ी चट्टान में एक द्वार खुल गया। सरदार और उसके उनतालीस साथी उस दरवाजे से हो कर अंदर चले गए। उनके अंदर जाने पर वह द्वार बंद हो गया और चट्टान जैसी की तैसी लगने लगी। अलीबाबा ने एक बार सोचा कि पेड़ से उतरे और सारी लगामें एक घोड़े पर लाद कर उस पर चढ़ कर भाग जाए ताकि वे उसका पीछा न कर सकें। किंतु डर था कि इस अवधि में वे निकल आए तो उसे मार ही डालेंगे। उसका सोचना ठीक था। क्योंकि थोड़ी ही देर में दरवाजा खुला और सारे लुटेरे बाहर आ गए। सबके बाद सरदार निकला और निकल कर बोला, बंद हो समसम। उसके यह कहते ही दरवाजा बंद हो गया और चट्टान पूर्ववत हो गई। इसके बाद इन लुटेरों ने अपने-अपने घोड़ों पर जीनें कसीं और लगामें लगाईं और खाली बोरियाँ ले कर जिधर की ओर से आए थे उधर ही की ओर चले गए। स्पष्ट था कि वे दूसरी बार डाका मारने जा रहे थे। कुछ ही देर में वे नजरों से गायब हो गए और उनके घोड़ों के सुमों से उड़ी हुई धूल भी बैठ गई।

उन लोगों के प्रस्थान के कुछ देर बार अलीबाबा पेड़ से उतरा। उस समय तक उसे विश्वास हो गया था कि लुटेरे जल्द वापस न आएँगे। वह चट्टान के पास गया और उसने चाहा कि इस बात की परीक्षा करें कि वह भी दरवाजे को खोल सकता है या नहीं। चुनांचे उसने जोर से कहा, खुल जा समसम। उसके यह कहते ही चट्टान में दरवाजा खुल गया। वह अंदर गया तो उसने देखा कि गुफा बहुत लंबी-चौड़ी और साफ-सुथरी है। उसे यह देख कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि पहाड़ खोद कर कैसे इतनी लंबी-चौड़ी जगह निकाली गई। गुफा का विस्तार तो बहुत था किंतु उसकी छत आदमी की ऊँचाई से कुछ ही अधिक थी। किंतु इधर-उधर पहाड़ के ढलान पर बने हुए सुराखों से उसमें ऐसी रोशनी आ रही थी कि सब कुछ दिखाई दे रहा था।

अलीबाबा ने देखा कि वह पूरी गुफा मूल्यवान वस्तुओं से भरी पड़ी है। हर प्रकार के माल की गठरियाँ वहाँ रखी दिखाई दीं। कई जगह फर्श से ले कर छत तक बहुमूल्य वस्त्रों यथा कमख्वाब, चिकन, अतलस आदि के थान कायदे से रखे हुए थे। इसके अतिरिक्त बहुमूल्य मसालों और कपूर आदि की पेटियाँ थीं। गुफा के एक सिरे पर कई संदूक और कई घड़े अशर्फियों, रुपयों आदि से भरे हुए रखे हुए थे। अलीबाबा के सामने स्पष्ट हो गया कि यह सारी संपत्ति इन चालीस लुटेरों ही की जमा की हुई नहीं है बल्कि सैकड़ों वर्षों से इन लुटेरों के पूर्वज इसे उस गुफा में जमा करते आए हैं क्योंकि जहाँ तक दृष्टि जाती थी वहाँ तक गुफा में मूल्यवान वस्तु रखी दिखाई देती थी।

अलीबाबा के अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। यह द्वार इसी प्रकार बना था कि लोगों के अंदर जाते ही अपने आप बंद हो जाता था। अलीबाबा जितनी अशर्फियों की थैलियाँ उठा सकता था उतनी उठा लाया और मंत्र द्वारा दरवाजा खुलवा कर उसने अपने गधों पर थैलियाँ लादीं और उन्हें छुपाने के लिए कुछ लकड़ियाँ रखीं और फिर कहा, बंद हो जा समसम। उसके यह कहते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। अलीबाबा रोज की भाँति गधे हाँकता हुआ अपने घर आ गया। घर के अंदर गधे ला कर उसने दरवाजा बंद किया और एक ओर लकड़ियाँ रख दीं और दूसरी ओर अशर्फियों की थैलियाँ। आज उसे लकड़ियों की चिंता नहीं थी। जब वह अशर्फियों को अपनी स्त्री के पास ले गया तो वह बहुत घबराई। उसने समझा कि अलीबाबा इन्हें किसी से लूट कर या किसी के यहाँ से चुरा कर लगाया है। उसने अपने पति को बहुत भला-बुरा कहा और कहने लगी, मैं तो मेहनत की थोड़ी कमाई में खुश हूँ। जो माल तुम लूट कर लाए हो उसे मैं हाथ भी नहीं लगाऊँगी। अलीबाबा ने कहा, तू मूर्ख है। मैंने कोई अपराध करके इन्हें प्राप्त नहीं किया, तुम पूरा हाल सुनोगी तो इस ईश्वरीय देन पर प्रसन्न होगी। यह कह कर उसने सारी कहानी सुना कर अपनी पत्नी को संतुष्ट कर दिया।

अलीबाबा ने उन्हें उसके सामने ढेर कर दिया तो स्त्री की आँखें चौंधिया गईं। फिर वह अशर्फियों को गिनने लगी। अलीबाबा ने कहा, तुम्हें बिल्कुल समझ नहीं है - यह अशर्फियाँ इतनी हैं कि शाम तक गिनती रहोगी। लाओ, मैं गढ़ा खोद कर इन्हें गाड़ देता हूँ कि किसी को इसका पता न चले। उसकी पत्नी ने कहा, अच्छा, मैं इन्हें गिनूँगी नहीं किंतु अंदाजा जरूर करना चाहती हूँ कि यह कितनी हैं। मैं इन्हें तोल लूँगी। यह कह कर वह कासिम के घर गई और उसकी स्त्री से तराजू माँगने लगी। कासिम की स्त्री को ताज्जुब हुआ कि इन रोज बाजार से लाने और खानेवाले लोगों के पास कौन-सा अनाज आ गया जिसे यह तोलना चाहती है। यह जानने के लिए उसने तराजू के पलड़ों में थोड़ी-थोड़ी चरबी लगा दी ताकि तोली जाने वाली वस्तु कुछ उन में चिपक जाए। अलीबाबा की स्त्री ने अशर्फियाँ तोलीं और अलीबाबा ने घर के आँगन में एक गढ़ा खोदा ओर दोनों ने मिल कर सारी अशर्फियाँ उसमें दबा दीं।

अलीबाबा की स्त्री जब कासिम के घर तराजू वापिस करने गई तो उसने जल्दी में यह न देखा कि तराजू के एक पलड़े में एक अशर्फी लगी रह गई है। वह तो तराजू दे कर लौट आई उधर कासिम की स्त्री ने तराजू में अशर्फी चिपकी देखी तो पहले तो उसकी समझ में न आया। फिर जब समझ में आया कि तराजू में अशर्फियाँ तोली गई हैं तो वह ईर्ष्या की आग में जलने लगी। साथ ही वह इस बात पर आश्चर्य भी करने लगी कि अलीबाबा जैसे गरीब लकड़हारे को इतनी अधिक अशर्फियाँ कहाँ से मिलीं कि उन्हें तोलने की जरूरत पड़ गई। शाम को जब कासिम दुकान बंद करके घर आया तो उसकी स्त्री ने ताने के स्वर में कहा, तुम अपने को बड़ा अमीर समझते हो। तुम अलीबाबा के मुकाबले कुछ नहीं हो। तुम अशर्फियाँ गिन कर रखते हो, वह तोल कर रखता है। कासिम ने कहा, यह तू क्या बक रही है? उसकी स्त्री ने दिन में घटी घटना उसे सुना दी। साथ ही तराजू में चिपकी अशर्फी भी दिखाई जिस पर पुराने जमाने के किसी बादशाह के नाम की मोहर लगी हुई थी।

कासिम को भी जलन के मारे रात भर नींद नहीं आई। दूसरे दिन तड़के ही उठ कर वह अलीबाबा के घर गया और बोला, भाई, तुम लोगों से अपनी निर्धनता का बहाना क्यों करते हो जब कि तुम्हारे पास अपार संपत्ति है। तुम्हारे पास इतनी अशर्फियाँ हैं कि उन्हें गिनने की तुम्हें फुरसत नहीं है। अलीबाबा को कुछ खटका तो हुआ लेकिन उसने कहा, भैया, मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा। सभी जानते हैं कि मैं निर्धन लकड़हारा हूँ। कासिम ने कहा, तुम मुझसे झूठ बोलने की कोशिश न करो। वह देखो, इसी प्रकार की अनगिनत अशर्फियाँ कल तुमने तोली थीं या नहीं? उन्हीं को तोलने के लिए तो तुम्हारी स्त्री कल मेरे यहाँ से तराजू माँग लाई थी। यह कह कर उसने अशर्फी अलीबाबा के सामने रख दी।

अब अलीबाबा को मालूम हो गया कि कासिम की स्त्री ने तराजू में कोई चिपकनेवाली चीज लगा कर अशर्फियों का भेद जान लिया है। उसने पिछले दिन की पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुनाई। कासिम ने कहा, तुम्हारी बात से मालूम होता है कि डाकू दो चार दिन तक वापस नहीं आएँगे। इसलिए तुम अभी मुझे पूरी तरह बताओ कि वह जगह कहाँ है और उसकी क्या पहचान है। बल्कि तुम आज न जाओ, तुम काफी पैसे ले आए। मुझे यह भी बताओ कि द्वार खोलने का मंत्र क्या है। न बताओगे तो मैं तुम्हें चोरी के इल्जाम में धरवा दूँगा। अलीबाबा ने विवश हो कर उसे सब कुछ बता दिया। कासिम दस खच्चर ले कर उस जंगल की ओर चल पड़ा। उसे जल्दी ही वह जगह मिल गई और उसने खुल जा समसम कहा तो द्वार भी खुल गया।

कासिम खच्चरों को बाहर छोड़ कर गुफा के अंदर गया। उसके अंदर जाते ही दरवाजा बंद हो गया। कासिम ने इतनी दौलत देखी तो आनंद से नाचने लगा। वह हर चीज को अच्छी तरह परख कर देखता रहा। इस चक्कर में उसे न सिर्फ बहुत देर हो गई अपितु वह खुल जा समसम का मंत्र भी भूल गया। आखिर में वह सबसे कीमती सिक्कों और रत्नों के दस भारी बोझ बना कर दरवाजे के पास लाया किंतु चूँकि वह ठीक शब्द भूल गया था इसलिए कभी कहता खुल जा गेहूँ। कभी कहता खुल जा जौ और द्वार बंद का बंद रहता। अब उसकी जान सूखने लगी कि वह इस गुफा में भूखा प्यासा मर जाएगा। संयोग की बात थी कि लुटेरे भी कहीं से लूटपाट करके उसी दोपहर को आ गए। उन्होंने गुफा के बाहर दस खच्चर बँधे देखे तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इन खच्चरों को यहाँ कौन लाया है। आसपास देखा तो कोई दिखाई नहीं दिया।

अंत में उन्होंने खच्चरों की चिंता छोड़ कर अपनी लाई हुई संपत्ति को गुफा में रखने की सोची। सरदार ने कहा, खुल जा समसम, और यह कहते ही दरवाजा खुल गया। कासिम यह तो समझ ही गया था कि लुटेरे आ गए हैं। वह दरवाजा खुलते ही जान बचाने के लिए बाहर भागा लेकिन डाकुओं ने उसे वहीं दबोच लिया। वे उसे घसीट कर गुफा के अंदर ले गए और उसे मार कर उसके शरीर के चार टुकड़े कर दिए। वे लोग देर तक इस बात पर बहस करते रहे कि इस आदमी को इस गुफा का भेद कैसे मालूम हुआ। और किसने इसे गुप्त द्वार खोलने की तरकीब बताई।

देर तक बहस करने के बाद भी वे किसी नतीजे पर न पहुँचे। उन्होंने तय किया कि लाश को गुफा के अंदर ही सड़ने दिया जाए क्योंकि बाहर फेंकने से यह खतरा था कि औरों की निगाह पड़ेगी। उन्होंने दरवाजे के पास ही इधर-उधर लाश के टुकड़े फेंक दिए और लूट का माल रख कर जल्दी से बाहर आ गए। जल्दी और कासिम के द्वारा की हुई गड़बड़ से उन्हें यह न मालूम हुआ था कि अशर्फियाँ कम हो गई हैं। वे बाहर आ कर कासिम के खच्चर भी हाँक ले गए और आश्वस्त हो गए कि अब इनका भेद कोई नहीं जानता।

इधर रात होने पर भी जब कासिम घर वापस नहीं लौटा तो उसकी स्त्री अलीबाबा के घर आई। उसे यह तो मालूम नहीं था कि अलीबाबा और कासिम में क्या बात हुई थी और अलीबाबा ने उसे क्या बताया था। उसने अलीबाबा से कहा, देवर जी, तुम्हारे भाई साहब दिन में दस खच्चर ले कर न जाने कहाँ चले गए हैं। मुझ से कह गए कि दो तीन घंटों में वापस आ जाऊँगा। देर हुई तो मैंने दुकान में भी पुछवाया। वहाँ नौकरों ने बताया कि आज मालिक आए ही नहीं। अब रात हो गई है। अभी तक वह नहीं आए हैं। समझ में नहीं आता क्या करूँ और किससे पूछूँ, तुम्हीं कुछ पता लगाओ उनका।

अलीबाबा का माथा ठनका कि जंगल में कहीं कुछ गड़बड़ हो गई। प्रकट में उसने कहा, भाभी, घबराओ नहीं। भैया होशियार आदमी हैं, कोई बच्चे नहीं हैं। किसी जरूरी काम से कहीं रह गए होंगे। सुबह तक आ ही जाएँगे। वैसे भी रात को कहाँ तलाश किया जाए। शहर का फाटक भी बंद हो गया होगा इसलिए बाहर भी नहीं जाया जा सकता। कासिम की पत्नी विवश हो कर घर लौट गई। वह रात भर अपने पति के लिए व्याकुल रही और चुपके-चुपके रोती रही। उसे आवाज इसलिए दबानी पड़ी कि उसे पति के गायब हो जाने में किसी रहस्य का आभास हो गया था और वह यह नहीं चाहती थी कि इस बात का पता पड़ोसियों को चले। वह बार-बार स्वयं को धिक्कारती थी कि उसे अलीबाबा के भाग्य से क्यों ईर्ष्या हुई और क्यों उसने अपने पति को उकसाया, अब न जाने वह किस मुसीबत में पड़ा हो।

सुबह वह फिर अलीबाबा के पास गई और उसने कहा, तुम्हारे भाई अब तक नहीं लौटे। कुछ पता लगागो। अलीबाबा ने अपनी भावज को सांत्वना दे कर उसके घर भेजा और खुद अपने तीनों गधे ले कर जंगल में गया और उसी गुफा के पास पहुँचा। उसे वहाँ अंदर की ओर से रिसा हुआ कुछ खून दिखाई दिया बाहर दस खच्चरों में से एक भी न था। उसे विश्वास हो गया कि कासिम के साथ बुरी बीती। उसने इधर-उधर देख कर कहा, खुल जा समसम। दरवाजा खुल गया और उसके अंदर जाते ही बंद हो गया।

अंदर जाते ही अलीबाबा चौंक पड़ा। दरवाजे के पास ही दोनों ओर कासिम की लाश के दो-दो टुकड़े पड़े थे। उसे समझने में देर न लगी कि कासिम के रहते ही डाकू वापस आ गए और उन्होंने उसे मार डाला और खच्चर भी ले गए। उसने वहीं से एक चादर उठा कर कासिम के शरीर के टुकड़ों की गठरी बनाई। ढेर सारी और अशर्फियाँ भी दो बोरियों में भरीं और मंत्र से द्वार खोल कर बाहर आ गया। उसने एक गधे पर कासिम की लाश और बाकी दो पर अशर्फियाँ लादीं और उन्हें लकड़ियों से छिपा कर होशियारी से शहर में होता हुआ अपने घर आया। उसने अशर्फियों की बोरियाँ अपनी पत्नी को दीं किंतु कासिम का कुछ हाल उसे नहीं बताया और तीसरा गधा ले कर वह कासिम के घर पहुँचा। आवाज देने पर कासिम की दासी ने, जिसका नाम मरजीना था और जो बहुत होशियार थी, दरवाजा खोला। अलीबाबा ने गधा अंदर करके दरवाजा बंद कर लिया और मरजीना को कासिम के बारे में बताया और कहा, समझ में नहीं आता इसकी मौत कैसे बताई जाए और इस टुकड़े-टुकड़े शरीर को कैसे दफन किया जाय। मरजीना ने कुछ सोच कर कहा, आप मालकिन को सँभालें। बाकी काम मैं ठीक कर लूँगी।

अलीबाबा अपनी भावज के पास गया तो उसने कहा, क्या खबर लाए? भगवान सब भला करें। तुम्हारे चेहरे पर दुख दिखाई देता है। अलीबाबा ने उसे कासिम की लाश के चार टुकड़ों में मिलने की बात बताई। वह चीख कर रोने लगी तो अलीबाबा ने उसे डाँट कर कहा, क्या करती हो भाभी? भैया तो गए ही, क्या अब रो-पीट कर तुम सारा भेद खोलना चाहती हो? लोगों को अस्लियत मालूम हुई तो हम सब की जानों पर बन आएगी। या तो शहर कोतवाल हमारे धन के लालच में हम पर कासिम की हत्या का आरोप लगा कर फाँसी दे देगा या डाकुओं को पता चला तो वे आ कर हमें मार डालेंगे। कासिम की स्त्री ने कहा, मैं कहाँ जाऊँगी, क्या करूँगी? मेरा तो कोई लड़का भी नहीं जो दुकान सँभाले। अलीबाबा बोला, बाद में सब ठीक हो जाएगा, मैं तुमसे विवाह कर लूँगा। मेरी स्त्री सुशील है, वह तुमसे झगड़ा न करेगी। पहले भैया के दफन का प्रबंध तो कर लें। कासिम की स्त्री चुपचाप आँसू बहाने लगी।

उधर मरजीना पहले एक अत्तार की दुकान पर गई और उसे मरणासन्न रोगी को दी जानेवाली दवा माँगी। अत्तार ने पूछा कि ऐसा बीमार कौन है तो उसने कहा कि मेरे मालिक की दशा बहुत खराब है। अत्तार ने एक दवा दी और कहा कि इससे ठीक न हो तो फिर आना, मैं और प्रभावकारी औषधि दूँगा। मरजीना दवा ले कर एक बूढ़े मोची के पास, जो दूर के एक मुहल्ले में रहता था, गई। मोची का नाम मुस्तफा था। उसकी दुकान में अँधेरा सा था लेकिन वह डट कर काम कर रहा था। मरजीना बोली, बाबा मुस्तफा, तुम तो बड़े होशियार आदमी मालूम होते हो, इतने अँधेरे में ऐसी नाजुक सिलाई कर रहे हो। मोची हँस कर बोला, लड़की, तू समझती क्या है। मैं तो इससे अधिक अँधेरे में तुझे काट कर दुबारा जोड़ दूँ। मरजीना ने पास आ कर फुसफुसा कर कहा, बाबा, मुझे तुम मत काटो जोड़ो। लेकिन एक ऐसा ही काम है। दाम अच्छे मिलेंगे, लेकिन किसी को पता न चले। एक अशर्फी मिलेगी। अशर्फी के लालच में बूढ़ा तैयार हो गया। मरजीना ने कहा, किंतु उस चौराहे के आगे मैं तुम्हारी आँखों पर पट्टी बाँध दूँगी। बूढ़ा पहले इस पर तैयार नहीं हुआ। किंतु जब उसे मरजीना ने एक अशर्फी और देने का वादा किया तो वह तैयार हो गया।

उस समय तक अँधेरा हो गया था। चौराहे पर आ कर मरजीना ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँधी और गलियों-गलियों उसे अपने घर तक लाई। बूढ़ा घाघ था। वह अपने कदम गिनता गया और मोड़ों का ध्यान रखता गया। घर ले जा कर उसने एक कोठरी में रखी कासिम की लाश उसे दिखा कर कहा, इन टुकड़ों को सी कर एक पूरा शरीर बनाना है। मुस्तफा को और भेद जान कर क्या करना था। उसने घंटे दो घंटे में टुकड़े सी कर पूरा शरीर बना दिया। मरजीना ने उसे दो के बजाय तीन अशर्फियाँ दीं और कहा, मैं तुम्हें जिस तरह लाई थी उसी तरह वापस तुम्हारी दुकान के सामनेवाले चौराहे पर पहुँचा दूँगी। यह अतिरिक्त अशर्फी इसलिए है कि तुम इस बात को गुप्त रखो। मुस्तफा ने यह वादा कर लिया।

मरजीना रात ही में मुस्तफा को उसकी दुकान के सामनेवाले चौराहे पर उसकी आँखों में पट्टी बाँध कर छोड़ आई। घर में उसने और अलीबाबा ने मिल कर लाश को नहलाया और कफन में लपेट दिया। दूसरी सुबह मरजीना फिर रोती हुई अत्तार के पास गई और उससे कहा, जो दूसरी दवा तुम कहते थे वह दे दो। मालिक की हालत अब तब हो रही है। मालूम नहीं यह दवा भी वे ले सकेंगे या पहले ही दम तोड़ देंगे।

अत्तार ने दवा दे दी और मरजीना चली गई। अत्तार ने और लोगों को भी कासिम की हालत के बारे में बताया। कासिम मुहल्ले का प्रतिष्ठित व्यक्ति था इसलिए कई आदमी उसके द्वार पर उसका हाल पूछने आ गए। कुछ ही देर में घर के अंदर से रोने-पीटने की आवाजें आने लगीं और दस-पाँच मिनट में अलीबाबा आँसू पोंछते हुए आया। उसने लोगों को बताया कि कल सुबह ही कासिम को जानलेवा रोग हुआ और आज सुबह उसने दम तोड़ दिया।

सब लोगों ने इस पर खेद प्रकट किया। मुहल्ले के और बहुत से लोग आए। मसजिद के इमाम भी आ गए। लाश को मुहल्ले के कब्रिस्तान में ले जा कर दफन कर दिया गया। मसजिद के इमाम ने जनाजे की नमाज पढ़ी और इस तरह कासिम की बीमारी से स्वाभाविक मृत्यु की बात मुहल्ले में मशहूर हो गई। अलीबाबा ने चालीस दिन तक घर में बैठ कर अपने भाई के लिए रस्म के अनुसार शोक किया। चेहल्लुम के बाद वह अपने बड़े भाई के घर में, जो स्वभावतः ही काफी लंबा और चौड़ा था, आ गया और उसकी पत्नी और एकमात्र पुत्र वहीं रहने लगे। मातम की मुद्दत खत्म होने के बाद अलीबाबा ने अपनी विधवा भावज के साथ निकाह कर लिया था। अलीबाबा का पुत्र जो किसी व्यापारी के साथ व्यापार का काम सीख चुका था, कासिम की दुकान को सँभालने लगा और अलीबाबा घर में आराम से रहने लगा।

उधर दो-चार दिन बाद लुटेरे फिर गुफा में आए तो उन्हें यह देख कर घोर आश्चर्य हुआ कि जिस आदमी को मारा गया था उसकी लाश के टुकड़े गायब हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि अशर्फियों के ढेर में से चार-पाँच बोरी अशर्फियाँ भी गायब हो गई हैं। डाकुओं ने सोचा कि यह तो बहुत बुरी बात हुई, मृत मनुष्य के अलावा भी कोई आदमी ऐसा है जो गुफा के भेद को और उसे खोलने की तरकीब को जानता है, वह मृतक के शरीर के टुकड़े भी उठा ले गया है और धन को भी। स्पष्ट है कि वह मृतक का कोई संबंधी होगा लेकिन जब मृतक ही का पता नहीं तो संबंधी का पता कैसे चले।

सरदार ने कहा, भाइयो, हाथ पर हाथ धर कर बैठने से काम नहीं चलेगा। जो आदमी हमारा भेद जानता है वह हमारे और हमारे पुरखों के जमा किए धन को लूट ले जाएगा। हम में से कोई यहाँ रह भी नहीं सकता क्योंकि हमने अपने निवास स्थान से दूर संग्रह स्थान बनाया है, यहाँ किसी के रहने से हमारा भेद खुल जाएगा। तुम लोगों में से जो सबसे होशियार हो वह शहर में जा कर मुहल्ले-मुहल्ले घूम-घूम कर पता लगाए और होशियारी से काम करे। अभी सिर्फ यह जानने की जरूरत है कि कौन आदमी टुकड़े-टुकड़े कर के मारा गया है और दफन हुआ है। बाकी काम बाद में देखा जाएगा। जो यह पता लगाएगा वह लूट के माल में अपने हिस्से के अलावा भारी इनाम पाएगा। किंतु यह भी शर्त है कि असफलता की स्थिति में उसे प्राणदंड दिया जाएगा।

एक डाकू ने इस काम का बीड़ा उठाया। वह शहर में आ कर कई मुहल्लों में टोह लेता फिरा किंतु उसे कुछ पता न चला। संयोग से वह मुस्तफा मोची के पास जा निकला। उसने कहा बाबा, तुम इस उम्र में भी अँधेरी जगह में ऐसी होशियारी से काम करते हो। बूढ़ा तारीफ सुन कर फूल गया। प्रतिज्ञा भूल कर बोला, अरे यह काम क्या है? कुछ दिन पहले मैंने इससे भी अँधेरे में एक लाश के चार टुकड़ों को सी कर एक पूरा शरीर बनाया था। डाकू ने बनावटी ताज्जुब से कहा, कटे आदमी को तुमने क्यों सिया? मुस्तफा ने कहा, भाई, मैंने तुम्हें गलती से वह बात बताई है। मैंने उस बात को गुप्त रखने का वादा किया था। अब मैं इस बारे में तुम से कोई बात नहीं करूँगा, बल्कि तुमसे कोई बात भी नहीं करूँगा।

डाकू ने उसके हाथ पर एक अशर्फी रखी और कहा, मैं इस बात को बिल्कुल नहीं पूछूँगा। तुम सिर्फ यह करो कि मुझे वह मकान बता दो जहाँ पर तुमने लाश के टुकड़े सिए थे। मुस्तफा घबराया। उसने कहा, तुम अपनी अशर्फी वापस ले लो। मकान मैं इसलिए नहीं बता सकता कि एक दासी उस चौराहे से मुझे रात के समय आँखों पर पट्टी बाँध कर ले गई थी और उसी तरह वहाँ छोड़ गई थी। डाकू ने उसे एक अशर्फी और दी कहा, बाबा, तुम बहुत होशियार आदमी हो। मैं रात में आऊँगा और तुम्हारी आँखों में पट्टी बाँधूँगा। तुम मुझे वहाँ ले चलो।

बूढ़े को लालच आ गया। उसने कहा, अच्छा भाई, तुम रात को आना। काम बड़ा खतरनाक है लेकिन तुम इतना जोर देते हो तो करना ही पड़ेगा। रात में भी मुस्तफा ने दुकान बंद नहीं की पर दुकान में दिया भी नहीं जलाया। डाकू के आने पर वह उसे चौराहे पर ले गया जहाँ डाकू ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी। मुस्तफा अपने कदमों को गिनता और निश्चित संख्या के बाद दाएँ या बाएँ मुडने को कहता। अंत में वह एक जगह ठहर गया और बोला कि यहीं तक आया था और उस ओर के मकान में मुझे दासी ले गई थी। डाकू ने उसकी आँखें खोल कर कहा, बता सकते हो कि वह कौन सा मकान है और किसका है। आँखें खोल कर मैं अपनी दुकान के चौराहे पर वापस भी नहीं जा सकता, तुम मुझे पट्टी बाँध कर ही वापस ले चलो। यहाँ किसका कौन सा मकान है यह मैं नहीं जानता, मैं दूर के मुहल्ले में रहता हूँ।

डाकू ने उससे बहस न की। मोची ने बंद आँखों से जो मकान बताया था उसके दरवाजे पर उसने खड़िया से एक निशान बना दिया। फिर वह मुस्तफा की आँखों पर पट्टी बाँध कर उसकी दुकान के चौराहे पर छोड़ गया। रात भर वह उसी नगर में अपने निवास स्थान पर रहा। दूसरे दिन सुबह उठ कर वह अपने दल में गया और सारा हाल बताया कि किस तरह फलाँ मुहल्ले के बूढ़े मोची की आँखों में पट्टी बाँध कर वह उस मकान में गया जहाँ मोची ने चार टुकड़ों को सी कर पूरी लाश बनाई थी और स्पष्टतः वह उसी आदमी की लाश थी जिसे हमने मारा था। सरदार ने कहा, ठीक है, आज रात को मेरे साथ चल कर तुम मुझे वह मकान दिखाना।

इधर सुबह मरजीना घर से बाहर निकली तो उसे अपने द्वार पर खड़िया का निशान मिला। उसे खटका हो गया क्योंकि उसे डाकुओं के बारे में मालूम था। उसने हाथ में खड़िया ली और आसपास के दस बारह मकानों पर ठीक वैसा ही निशान बना दिया जैसा उसके मकान पर बना हुआ था। रात को जासूस डाकू अपने सरदार और दो-एक और साथियों के साथ वहाँ आया तो देखा कि कई मकानों पर वैसे ही निशान बने हैं।

जासूस डाकू यह देख कर बहुत परेशान हुआ। वह उस मकान को बिल्कुल न पहचान सका जिस पर उसने निशान लगाया था। उसने कसमें खा कर कहा कि मैंने एक ही दरवाजे पर निशान लगाया था और बिल्कुल नहीं जानता कि अन्य दरवाजों पर निशान कैसे बन गए। सरदार अपने सभी साथियों को ले कर जंगल में आया और पहले घोषित की हुई शर्त के मुताबिक उसे मृत्युदंड दिया गया। याद रखना चाहिए कि डाकू जितने निर्मम और लोगों के लिए होते हैं उतने ही अपने साथियों के लिए भी होते हैं और ऐसे मौकों पर इस बात का खयाल नहीं करते कि उनका कोई साथी उनके प्रति अब तक कितना वफादार रहा है।

खैर, उस जासूस डाकू को मारने और उसकी लाश ठिकाने लगाने के बाद डाकू फिर सोच-विचार करने लगे कि कैसे उस आदमी का पता लगाया जाए जो गुफा का भेद जान गया है। सरदार ने इनाम की रकम बढ़ा दी और उस का कुछ हिस्सा पेशगी देने का वादा किया। कुछ देर के बाद एक और डाकू ने बीड़ा उठाया कि उस आदमी का पता लगाऊँगा जो गुफा में जा कर अशर्फियाँ भी ले गया और मृत व्यक्ति का शव भी। सरदार ने उसे पेशगी इनाम दे कर विदा किया। वह डाकू कुछ दिनों तक इधर-उधर पूछता रहा फिर वह भी मुस्तफा मोची के पास पहुँचा। मुस्तफा को इस तरह भारी इनाम पाने की आदत पड़ गई थी और उसे यह विश्वास हो गया था कि इस सौदे में उसे किसी तरह का खतरा नहीं है इसलिए वह कुछ ही देर में इस बात के लिए तैयार हो गया कि रात को उसे आँखों पर पट्टी बाँध कर इच्छित भवन तक ले जाया जाए। दूसरे जासूस डाकू ने वहाँ पहुँच कर और मकान के बारे में आश्वस्त हो कर उस पर लगे हुए सफेद निशान के बगल में एक लाल निशान लगा दिया है और अच्छी तरह याद रखा कि सफेद निशान के किस ओर लाल निशान लगा है।

मरजीना की तेज निगाहों से दूसरी बार को वह लाल निशान भी नहीं बच सका। अब उसे पूरा विश्वास हो गया कि कोई बुरी नीयत से कासिम के घर को, जिसमें अब अलीबाबा रहता था, चिह्नित करना चाहता है। उसने सुबह ही सुबह पड़ोस के सारे मकानों में सफेद निशानों की बगल में वैसे ही छोटे लाल निशान बना दिए।

इधर दूसरा जासूस डाकू अपने सरदार के पास गया और उससे कहने लगा कि मैंने अबकी ऐसा निशान लगाया है जो आसानी से किसी को दिखाई भी नहीं देगा। सरदार दो साथियों और जासूस डाकू को ले कर रात में वहाँ पहुँचा तो सब ने देखा कि पहले जैसा ही धोखा हुआ है। मुहल्ले के सारे मकानों पर एक ही जैसे निशान बने हुए हैं। दूसरा जासूस डाकू भी बड़ा लज्जित हुआ और जब डाकू अपने अड्डे पर पहुँचे तो वह सरदार से अपने प्राणों की भीख माँगने लगा। किंतु सरदार किसी प्रकार की ढिलाई दिखा कर दल का अनुशासन कमजोर नहीं करना चाहता था इसलिए उसने उसे भी मरवा दिया।

दो-दो जासूस डाकुओं की असफलता और मौत देख कर अब कौन वांछित व्यक्ति का पता लगाने को तैयार होता। इसलिए सरदार ने स्वयं ही यह काम करना तय किया। वह भी मुस्तफा मोची के यहाँ पहुँचा और उसे अशर्फियाँ दे कर उसकी आँखों में पट्टी बाँध कर अलीबाबा के मकान के सामने पहुँचा। वह देख चुका था कि मकान पर निशान लगाने की विधि दो बार असफल रही थी, इसलिए उसने घूम-फिर कर सारे मकानों की अच्छी तरह पहचान की। अलीबाबा के मकान के विशेष चिह्नों को भी याद रखा। दूसरे दिन दोपहर के समय उस मुहल्ले में जा कर पूछताछ की और अलीबाबा के बारे पता लगाया कि वह शांत और सौम्य स्वभाव का अतिथिप्रेमी व्यक्ति है।

डाकुओं के सरदार ने अपने अड्डे पर वापस जा कर अलीबाबा को मारने की योजना बनाई। वह यह काम चुपचाप करना चाहता था। उसने अपने आदमियों को भेज कर अड़तीस बड़े-बड़े तेल के कुप्पे जिनमें एक आदमी सिकुड़ कर आसानी से बैठ सकता था तथा उन्नीस खच्चर मँगाए। उसे अपने बचे हुए सैंतीस साथियों को एक-एक कुप्पे में बिठाया और संतुलन पूरा करने के लिए एक कुप्पे में ऊपर तक तेल भरवाया। फिर एक-एक खच्चर पर दो-दो कुप्पे इधर-उधर लटका कर शहर को चल दिया। सरदार ने कुप्पों के अलावा सैंतीस आदमियों के लिए भोजन भी उनके पास रखवा दिया।

सब के पास एक-एक तेज छुरी भी थी। सरदार ने योजना सबको समझाई कि हम लोग अलीबाबा के घर में ठहरेंगे और आधी रात को जब कुप्पों पर मेरी फेंकी हुई कंकड़ियाँ लगे तो सभी डाकू छुरियों से अपने-अपने कुप्पों को चीर कर निकल आएँ और अलीबाबा तथा उसके परिवार के सदस्यों की हत्या करके रात ही रात चुपचाप शहर में इधर-उधर छुप जाएँ और सुबह शहर से बाहर निकल कर अपने अड्डे पर वापस आ जाएँ। सभी डाकुओं को यह योजना पसंद आई।

शाम को दिया जलने के बाद सरदार व्यापारी के वेश में अपने उन्नीस खच्चर लिए हुए अलीबाबा के घर पहुँचा। उसने खच्चर बाहर रहने दिए और खुद अंदर गया। अलीबाबा अपनी बैठक में बैठा था। सरदार ने उसे सलाम करके कहा, महाशय, मैं बाहर से आया हुआ तेल का व्यापारी हूँ और यहाँ के व्यापारियों के हाथ बेचने के लिए तेल लाया हूँ। मुझे रास्ते में देर लग गई और इस समय किसी सराय में जगह भी नहीं मिली। यदि आप अनुमति दें तो आपके अहाते में अपने खच्चर बाँध दूँ और तेल के कुप्पे रखवा दूँ। सुबह उन्हें फिर खच्चरों पर लाद कर तेल की मंडी में चला जाऊँगा।

अलीबाबा ने उसको अतिथि बनाना मंजूर कर लिया। उसने अपने आदमी से कुप्पे उतरवाए और खच्चरों के लिए घास की व्यवस्था करने को कहा किंतु डाकू सरदार ने कहा कि मेरे पास खच्चरों का दाना है। अलीबाबा उसके बदले हुए वेश में उसकी आवाज भी नहीं पहचान सका। उसने कहा, आप मेरे साथ भोजन करें और आप के लिए बाहर की ओर एक कमरा खाली कर दिया है, उसमें सोएँ। इसे अपना ही घर समझें। उसने मरजीना से कहा कि मेहमान के लिए अच्छा भोजन पकाओ। साथ ही उसने आज्ञा दी, कल सुबह मैं हम्माम में स्नान करना चाहता हूँ इसलिए मेरे नौकर अब्दुल्ला को मेरे नए कपड़ों का एक जोड़ा निकाल कर दे देना। साथ ही स्नान के पूर्व मैं पौष्टिक यखनी (मांस रस) पीना चाहता हूँ, वह भी रात ही में चढ़ा देना ताकि सुबह तक भली-भाँति तैयार हो जाए। मरजीना ने कहा, यह सारी बातें हो जाएँगी।

डाकू सरदार और अलीबाबा भोजन करके अपने-अपने कमरों में जा कर लेटे और सो गए। डाकू ने सोचा था कि एक नींद ले लूँ क्योंकि आधी रात के बाद तो रात भर जागना ही था। इधर मरजीना ने अलीबाबा के लिए कपड़े निकाल कर अब्दुल्ला को दिए। फिर वह यखनी चढ़ाने की तैयारी करने लगी। संयोग से उसी समय रसोई के दिए का तेल खत्म हो गया। घर में जलाने का तेल भी नहीं था। वह परेशान हुई तो अब्दुल्ला ने कहा, रोती क्यों है। व्यापारी के इतने सारे कुप्पे रखे हैं। जरा-सा तेल उससे ले ले, व्यापारी को क्या पता चलेगा? मरजीना ने कहा, फिर तू ही तेल ले आ। अब्दुल्ला बोला, मुझे तो सुबह जल्दी उठ कर मालिक के साथ हम्माम को जाना होगा। मैं तो सोने के लिए जाता हूँ। तू ही तेल ला। यह कह कर अब्दुल्ला चला गया।

मरजीना एक कटोरा ले कर तेल लेने एक कुप्पे के पास पहुँची तो उसमें छुपे डाकू ने समझा कि सरदार आया है। उसने पूछा, समय हो गया है क्या सरदार? मरजीना चौंक कर खड़ी हो गई। किंतु उसने अपने होश-हवाश दुरुस्त रखे। एक क्षण बाद भारी आवाज करके बोली, अभी नहीं। फिर वह सभी कुप्पों के पास गई जहाँ उससे वही सवाल किया गया और उसने वहीं जवाब दिया। सिर्फ एक कुप्पे में उसे ऊपर तक भरा हुआ तेल मिला। उसने जल्दी से तेल ले कर यखनी चढ़ाई फिर बड़ी भट्टी में आग जला कर उस पर घर की सबसे बड़ी देग रखी। फिर कई बार जा कर उसने कुप्पे का सारा तेल देग में डाल दिया। जब तेल खूब खौल गया तो उसने अंदाजे से डोई में खौलता तेल ले कर एक-एक करके सभी कुप्पों में डाल दिया। वे डाकू साँस घुटने से पहले ही अधमरे थे, खौलता तेल ऊपर गिरा तो तड़प कर मर गए, उनकी चीखें भी तेज न निकलीं। यह सब करके मरजीना यखनी तैयार करने लगी।

आधी रात को डाकू सरदार ने कंकड़ियाँ फेंकनी शुरू की लेकिन किसी कुप्पे में कोई हरकत नहीं हुई। हालाँकि चाँदनी में सब कुछ दिखाई दे रहा था, सरदार ने समझा कि डाकू सो गए हैं। वह झुँझलाता हुआ उठा। खामोशी से दरवाजा खोल कर वह अहाते के अंदर गया और कुप्पे में ठोकर मार कर डाकू को जगाना चाहा। फिर भी कोई हरकत न हुई तो उसने कुप्पे में झाँक कर देखा। उसे तेल और जले हुए मांस की गंध आई। उसने कुप्पे का मुँह खोला तो अंदर जला और मरा हुआ साथी निकला। फिर वह दूसरे कुप्पों के पास गया। सभी में उसने यह हाल देखा कि डाकू जले और मरे पड़े हैं। उसने यह भी देखा कि तेल का कुप्पा खाली पड़ा हे। वह समझ गया कि किसी ने उसी के तेल से उसके साथियों को मार डाला है। वह अपने भाग्य को कोसने लगा। कहाँ तो वह यह सोच कर आया था कि अलीबाबा को मार कर अपना कोष सुरक्षित करे, यहाँ यह हो गया कि उसका पूरा दल ही खत्म हो गया। डाकू सरदार थोड़ी देर के लिए जड़वत हो कर सिर पर हाथ धरे बैठा रहा।

फिर उसने स्वयं को व्यवस्थित किया। उसके लिए अपनी जान बचाना जरूरी था। दल तो धीरे-धीरे फिर बन जाता, वह दरवाजे को खोल कर नहीं जा सकता था क्योंकि उसमें ताला लगा हुआ था। इसलिए वह दीवार पर चढ़ा और बाहर सड़क पर कूद गया और भागता हुआ दूर जा कर कहीं छुप रहा। मरजीना ने उसे अपने कमरे से निकलते, कुप्पों के पास जाते और फिर दीवार पर चढ़ कर बाहर छलाँग मारते देखा। उसने सोचा कि डाकुओं का दल तो समाप्त हुआ लेकिन उनका सरदार बच रहा है। वह अकेला क्या कर लेगा? अकेला डाका भी नहीं डाल सकता। कम से कम उस रात को तो वह कुछ कर ही नहीं सकता था। इसलिए मरजीना यखनी के नीचे की आँच निकाल कर अपनी कोठरी में जा कर सो गई।

अलीबाबा अँधेरे में उठ कर अब्दुल्ला को ले कर हम्माम चला गया। दो तीन घंटे के बाद लौटा तो देखा कि अहाते में खच्चर वैसे ही बँधे हैं और तेल के कुप्पे वैसे ही रखे हैं। उसने मरजीना से कहा, क्या वह तेल का व्यापारी अभी सो कर नहीं उठा। उसे तो इस समय तक बाजार में होना चाहिए था। मरजीना ने कहा, मालिक, भगवान आपकी लंबी उम्र करें। वह व्यापारी भाग गया। आप नाश्ता कीजिए, फिर मैं आपको सारा हाल बताऊँगी।

इसीलिए मैंने एकांत कर लिया है। पहले आप उन कुप्पों में झाँक कर देख आइए। अलीबाबा हैरान हो गया। उसने एक कुप्पे में झाँक कर देखा तो मरा आदमी दिखाई दिया। वह भाग कर फिर मरजीना के पास आ कर बोला कि जल्दी बता कि क्या बात है। मरजीना ने कहा कि आप इत्मीनान से बैठिए। मैं आपको पूरा हाल बताऊँगी। आपकी जान को कल रात बड़ा भारी खतरा पैदा हो गया था किंतु ईश्वर की कृपा से वह खतरा टल गया है।

फिर मरजीना बोली, उन अड़तीस कुप्पों में से सिर्फ एक में तेल था और बाकी में डाकू छुपे थे। वह व्यापारी उन का सरदार था। मुझे पिछले चार-पाँच दिनों से शक था कि कोई व्यक्ति आप का अनिष्ट करना चाहता है। मैं सजग भी हो गई और अपनी समझ के अनुसार सावधानी भी बरती जो भगवान की दया से सफल हुई। एक दिन मैंने घर के दरवाजे पर सफेद खड़िया का निशान देखा। मैं समझ गई कि कोई व्यक्ति बुरी नीयत से आप का मकान पहचानना चाहता है। इसलिए मैंने वैसे ही खड़िया के निशान मुहल्ले के सारे दरवाजों पर बना दिए जिससे आपके घर की पहचान खत्म हो जाए। दो-तीन दिन बाद मैंने देखा कि सफेद निशान के पास एक छोटा-सा लाल निशान बना है। मुझे विश्वास हो गया कि आपके किसी दुश्मन की यह कार्रवाई है। आपका शहर में कोई दुश्मन हो ही नहीं सकता। इसलिए मैंने सोचा कि यह गुफावाले डाकू ही हैं जो आपके पीछे पड़े हैं। मैंने मुहल्ले के सारे घरों के दरवाजों पर सफेद निशानों के पास वैसे ही लाल निशान बना दिए इस प्रकार एक बार फिर उन लोगों की योजना असफल हो गई। मैंने आपसे उस समय इसलिए कुछ नहीं कहा कि आप मेरा विश्वास तो करते नहीं, बेकार और लोगों में बात फैलती और यह भी संभव था कि डाकुओं को आपका घर मालूम हो जाता।

किंतु मेरी चुप्पी के बावजूद डाकुओं ने किसी तरह आपके घर का पता लगा लिया और सरदार आपने सैंतीस साथियों को तेल के कुप्पों में बंद कर एक तेल के कुप्पे के साथ यहाँ लाया था। मालूम होता है कि जासूसी असफल होने पर उसने अपने दो साथियों को मार डाला। वरना वह बीस खच्चर लाता और उन पर अपने उनतालीस साथी लाता। मुझे उस व्यापारी की अस्लियत का जिस तरह पता चला वह भी ईश्वर की कृपा ही समझिए। जब आपने यखनी बनाने को कहा तो पहले मैंने आपके संदूक के कपड़ों का जोड़ा आपके लिए निकाल कर अब्दुल्ला को दिया। उसी समय रसोई का दिया तेल की कमी से बुझने लगा। अब्दुल्ला ने सुझाव दिया कि व्यापारी के कुप्पों से थोड़ा तेल ले ले। वह खुद सोने चला गया क्योंकि आज उसे आपके साथ हम्माम जाना था।

मैं कटोरा ले कर तेल लेने गई तो एक कुप्पे में से छुपे हुए डाकू ने पूछा कि क्या समय आ गया है? मैं समझ गई कि यह डाकू आपको मारने आए हैं। मैंने उत्तर दिया कि अभी नहीं आया। इसी तरह मैंने सैतीसों कुप्पों के अंदर से वही प्रश्न सुना और वही उत्तर दिया। आखिरी कुप्पे का तेल मैं धीरे-धीरे रसाई में ले आई और बड़ी देग भट्टी पर चढ़ा कर उसमें वह तेल डाल कर गर्म किया। जब तेल उबलने लगा तो एक डोई में तेल भर-भर कर उन सभी कुप्पों में डाल आई। आधी रात को मैंने देखा कि जिस कमरे में व्यापारी ठहरा है उसमें से कंकड़ियाँ आ-आ कर कुप्पों में लग रही हैं। मैं समझ गई कि यह डाकुओं को बाहर निकल कर हम सभी को मार देने का इशारा है। मैं देखती रही। फिर मैंने देखा कि वह व्यापारी बना हुआ डाकू सरदार नीचे आया और अपने साथियों को मुर्दा पा कर थोड़ी देर तक सिर पकड़े बैठा रहा। उसके बाद बाहरी दीवार पर चढ़ा और सड़क की ओर कूद गया। मैंने सड़क पर उसके भागने की आवाज भी सुनी। इस प्रकार जब मैंने खतरा टला देखा तो जा कर सो गई।

अलीबाबा कुछ देर तो हक्का-बक्का देखता रहा। फिर बोला, मरजीना, तू कहने को दासी है लेकिन काम तूने कुटुंबियों से बढ़ कर किया है। मेरी समझ में नहीं आता कि तुझे क्या इनाम दूँ। मेरी तो अभी यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि इन लाशों, और खच्चरों और कुप्पों का क्या करूँ।

मरजीना ने कहा, मालिक, सरदार या अधिक से अधिक उसके दो साथी बचे होंगे। उनसे अभी कोई तात्कालिक खतरे की संभावना नहीं है। इस समय आप घर के सभी नौकरों को बुला कर अहाते में एक बड़ा भारी गढ़ा खुदवाएँ, फिर नौकरों को बाहर काम पर भेज दें। इसके बाद हम दोनों कुप्पों में से लाशें निकाल निकाल कर उस गढ़े में भर दें और गढ़े के ऊपर से मिट्टी डाल कर दबा दें ताकि गढ़े का निशान भी न दिखाई दे। अलीबाबा को उसकी राय पसंद आई। उसने नौकरों से बड़ा-सा गढ़ा खुदवाया, फिर नौकरों को बाहर भेज कर लाशों को मरजीना की मदद से गढ़े में डाल कर गढ़ा बंद कर दिया। उसने एक-एक दो-दो करके सारे कुप्पे और खच्चर बाजार में बिकवा दिए।

डाकुओं के सरदार को अपने निवास स्थान पर जा कर भी चैन न आया। उसका सारा दल खत्म हो गया था। उसे नए सिरे से छिटपुट लूट-मार करके धीरे-धीरे नया दस्यु दल तैयार करना था। साथ ही अलीबाबा भी अभी जिंदा था जो उसके सारे खजाने पर कब्जा कर सकता था। उसका एक दिन इसी उलझन में बीता। फिर वह यह सोच कर नगर में आया कि अलीबाबा सैंतीस लाशों को छुपा नहीं सकेगा और संभवतः इतने लोगों की हत्या के अपराध में मृत्युदंड भी पा जाए। इसलिए वह एक सराय में ठहरा और भटियारे से शहर के समाचार पूछने लगा। भटियारों को इन बातों के सुनाने में मजा आता है। किंतु जैसा समाचार वह सुनना चाहता था वैसा भटियारा उसे न सुना सका। उसने दो-चार और सरायों में जा कर इसी तरह टोह ली लेकिन कहीं पर यह नहीं सुना कि बादशाह ने अलीबाबा को सैंतीस आदमियों के मारने के अभियोग में गिरफ्तार किया होगा। ऐसा होता तो डाकू सरदार का एकमात्र शत्रु उसके हाथ पाँव हिलाए बगैर ही मारा जाता किंतु ऐसा नहीं होना था।

डाकू सरदार ने यह तो समझ लिया कि अलीबाबा देखने में सीधा-सादा है लेकिन वास्तव में बुद्धिमान है कि न सिर्फ अपने भाई की लाश को ला कर गुप्त रुप से उसके टुकड़े सिलवा कर उसे दफन कर दिया बल्कि उसके सैंतीस साथियों की लाशों को भी अत्यंत चतुरता से घोंट गया। ऐसे आदमी से बदला लेना आसान काम नहीं था। फिर भी डाकू सरदार ने अलीबाबा की हत्या करने का विचार न छोड़ा। उसने सोचा कि इस आदमी को मारने के बाद ही नए दल का संगठन किया जाए।

उसने पता लगा कर मालूम किया कि अलीबाबा कासिम के घर पर ही रहता है किंतु उसका पुत्र अपने पुराने घर में रहता है और अपने दिवंगत चचा की दुकान चलाता है। डाकू सरदार ने उसके पुत्र ही से अपनी बदले की भावना की शुरुआत की। उसने कासिम की दुकान के सामनेवाली दुकान मोल ली और उसमें व्यापार का सामान रख कर बैठने लगा और अपना नाम ख्वाजा हसन मशहूर किया। कुछ ही दिनों में उसने अलीबाबा के पुत्र से जो बड़ा सभ्य और सुशिक्षित था गहरी दोस्ती कर ली। उसने कई दिन तक इधर-उधर की बातें करके जान लिया कि इसे गुफा के खजाने के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। स्पष्ट था कि उसे यानी अलीबाबा के पुत्र को डाकुओं की भी कोई आशंका नहीं थी और पुत्र के द्वारा पिता से संपर्क स्थापित किया जा सकता था। अलीबाबा खुद भी कभी दुकान पर अपने पुत्र को देखने जाता था। डाकू ने दूर से उसे पहचान लिया। उसने अलीबाबा के पुत्र से इतनी मित्रता की कि रोज उसके साथ घूमने लगा और कई बार उसे अपने घर बुला कर उसकी शानदार दावत कर डाली।

अलीबाबा के पुत्र ने एक दिन अपने पिता से कहा, एक नया व्यापारी ख्वाजा हसन मेरा गहरा मित्र हो गया है। वह कई बार मुझे अपने घर ले जा कर भोजन करा चुका है। मैं भी उसे अपने यहाँ भोजन पर बुलाना चाहता हूँ। लेकिन मेरा घर इतना छोटा है कि उसमें दावत का ठीक प्रबंध नहीं हो सकेगा। इसलिए अगर आप अनुमति दें तो आपके अच्छे घर में उसकी दावत का इंतजाम हो जाए। अलीबाबा ने कहा, कल शुक्रवार है, बाजार बंद रहेगा। तुम घूमते-घूमते उसे शाम को यहाँ ले आना। मैं उसकी दावत का प्रबंध कर रखूँगा। मरजीना अच्छा भोजन तैयार कर देगी।

दूसरे दिन शाम को अलीबाबा का पुत्र और डाकू सरदार टहलते-टहलते अलीबाबा के मकान पर आए। डाकू को पहले ही इसका आभास हो गया था और वह अलीबाबा की हत्या की तैयारी करके आया था। जब अलीबाबा के पुत्र ने कहा कि यह मेरे पिता का मकान है तो दिखाने के लिए डाकू ने कहा, रहने दीजिए। क्यों बुजुर्ग आदमी के आराम में हम लोग दखल दें। मेरे जाने से उन्हें कष्ट होगा। आप ही चले जाएँ। मैं वापस जाता हूँ। अलीबाबा के पुत्र ने कहा, उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा, प्रसन्नता ही होगी। मैंने उनसे आपका उल्लेख किया तो उन्होंने कहा था कि कोई अवसर हुआ तो ख्वाजा हसन से मिलूँगा। आप अंदर चलिए। घर में ला कर अलीबाबा के पुत्र ने अपने मित्र को अपने पिता से मिलाया तो अलीबाबा ने कहा, आप से मिल कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इस बच्चे ने मुझ से आप की बड़ी प्रशंसा की है। मालूम हुआ है कि इसे जितना प्यार मैं करता हूँ उससे अधिक आप करते हैं।

डाकू सरदार ने कहा, यह इतने सभ्य और सुशील हैं कि इन्हें कौन प्यार न करेगा। इनकी नौजवानी ही है लेकिन इनकी बुद्धिमानी, व्यवहारकुशलता और गंभीरता अधिकतर वयस्कों से भी अधिक है। क्यों न हो, यह पुत्र तो आप ही जैसे सज्जन के हैं। इसी प्रकार उन लोगों में बहुत देर तक सौहार्द और शिष्टाचारपूर्ण बातें होती रहीं।

फिर डाकू सरदार ने घर जाने की अनुमति माँगी। अलीबाबा ने कहा, यह आप क्या कह रहे हैं। बगैर भोजन किए आप यहाँ से नहीं जाएँगे, बल्कि आज रात आप मेरी कुटिया में मेहमान रहेंगे। मैं जानता हूँ कि यहाँ आपको अपने घर जैसा आराम न मिलेगा, न हमारे घर का रूखा-सूखा भोजन आपके योग्य होगा। फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिए आप मेरा अनुरोध स्वीकार करें। डाकू ने कहा, ऐसी बातें करके आप मुझे लज्जित कर रहे हैं। आपके यहाँ किस चीज की कमी है। लेकिन मेरी कुछ मजबूरी है। मैं अपने घर के अलावा और कहीं नहीं खाता। कारण यह है कि मुझे ऐसा रोग है जिसमें नमक बिल्कुल नहीं खाया जा सकता। अलीबाबा ने कहा, यह क्या मुश्किल है। मैं अभी आपके लिए बगैर नमक के भोजन का प्रबंध कराए देता हँ।

उसने अंदर आ कर मरजीना से कहा, हमारा मेहमान एक रोग के कारण नमक नहीं खाता। उसके लिए जो कुछ बनाओ बगैर नमक का हो। मरजीना अलीबाबा से तो कुछ न बोली किंतु बैठक के परदे के पीछे छुप कर देखने लगी कि यह कौन आदमी है जो नमक नहीं खाता और इतना बड़ा रोग ले कर भी यहाँ पैदल आया है। गौर से देखा तो पहचान गई कि यह वही दुष्ट डाकू सरदार है जो कुछ महीने पहले तेल का व्यापारी बन कर हमारे यहाँ ठहरा था। जब वह खाना परोसने के लिए आई तो उसने देखा कि डाकू अपने कपड़ों में पैनी छुरी छुपाए है। वह समझ गई कि यह नमक इसलिए नहीं खा रहा कि जिसका नमक खाया जाता है उसे अपने हाथ से मारना जघन्य नैतिक अपराध होता है। पिछली बार तो उसके साथी हत्या करते इसीलिए उस बार उसने नमक से परहेज नहीं किया था। मरजीना ने तय कर लिया कि यह अलीबाबा को मारे इससे पहले मैं ही उसे मार दूँ।

जब अलीबाबा, उसका पुत्र और डाकू सरदार भोजन कर चुके तो अब्दुल्ला और मरजीना ने वहाँ के बर्तन उठा कर एक तिपाई रखी जिस पर सुगंधित मदिरा की सुराही और तीन प्याले रखे थे।

उन दोनों ने ऐसा प्रकट किया कि अब वे खाना खाएँगे। डाकू सरदार इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि नौकर खाना खाने जाए तो अलीबाबा का काम तमाम कर दूँ और उसे छुरी के एक ही वार से खत्म करके बाग की दीवार फाँद कर निकल जाऊँ और यदि अलीबाबा का कोमल-सा पुत्र प्रतिरोध करे तो उसे भी मार दूँ। मरजीना की निगाहें बड़ी तेज थीं। वह डाकू के आँखों के भाव से समझ गई कि उसका इरादा क्या है। उसने अब्दुल्ला से कहा कि तुम दफ अच्छा बजाते हो, मालिक के मेहमान के आगे भी अपना कमाल दिखाओ। खाना तो हम लोग बाद में भी खा लेंगे। अब्दुल्ला इस बात पर राजी हो गया।

दो-चार मिनट ही में वे दोनों मुख्य कक्ष में आ गए। अब्दुल्ला वाद्य वादकों के कपड़े पहने था और उसके हाथ में दफ था। मरजीना ने नृत्यांगना की पोशाक पहनी, सिर पर रेशमी पगड़ी रखी और कमर में सुनहरा पटका बाँधा जिसमें छुरी खोंसी हुई थी। मुख्य कक्ष में आ कर उसने अलीबाबा से अनुमति माँगी कि मेहमान का नृत्य से मनोरंजन उसे करने दिया जाए। अलीबाबा ने खुशी से अनुमति दे दी। डाकू सरदार ने भी मजबूरी में सहमति प्रकट की क्योंकि इनकार करके वह अपने भेद के खुलने का खतरा मोल लेता।

मरजीना ने तरह-तरह के नाच दिखाए। अब्दुल्ला भी कलाकार था। उसने मस्त हो कर दफ बजाया। नृत्य वाद्य वादन से खुश हो कर अलीबाबा और उसके पुत्र ने दोनों को एक एक अशर्फी इनाम में दी। डाकू सरदार ने भी दोनों को एक-एक अशर्फी का इनाम दिया। मरजीना डाकू की नजरों से समझ गई कि अब वह नाच गाना बंद करने का आदेश देने ही वाला है उसने तय किया कि इसी समय यदि डाकू की हत्या न की गई तो वह मालिक और उसके पुत्र की हत्या कर देगा और अभी तक मरजीना ने जो कुछ किया था सब मिट्टी में मिल जाएगा।

मरजीना ने कहा - सरकार, अब मैं आप लोगों को अपना सर्वश्रेष्ठ और अंतिम नृत्य दिखाऊँगी। यह छुरी का नाच कहलाता है और इस देश में मेरे अलावा और कोई इसे नहीं जानता। आप लोग इसे देख कर अति प्रसन्न होंगे। यह कह कर मरजीना ने कमर से छुरी खींच ली। यह छुरी अत्यंत पैनी थी और मोमबत्तियों के प्रकाश में खूब चमचमा रही थी। फिर उसने तेज नाच शुरू कर दिया। छुरी को उसने बड़ी तेजी से घुमाते हुए ऐसा दिखाया कि वह अपने हृदय में छुरी घुसेड़ना चाहती है। फिर यही उसने अब्दुल्ला के साथ किया फिर पाँच-छह बार नाचते-नाचते यह किया कि कभी अपने हृदय तक छुरी की नोक ले जाती कभी अब्दुल्ला के हृदय तक। इस नाच से मेजबान और मेहमान सभी आनंदित हुए। फिर मरजीना नाचते-नाचते अलीबाबा के पास गई और उसके हृदय के ऊपर उसने छुरी की नोक छुआई। दो बार अलीबाबा के साथ यह खेल दिखाने के बाद उसने दो बार यही उसके पुत्र के साथ किया। फिर वह नाचते-नाचते डाकू के पास गई। वह निश्चल बैठा रहा जैसा अलीबाबा और उसके पुत्र ने किया था। लेकिन इस बार मरजीना ने पूरी ताकत से वार किया और पूरी छुरी उसके हृदय में उतार दी। डाकू सरदार एक क्षण तक तड़पने के बाद ठंडा हो गया।

अलीबाबा सदमे से बाहर हुआ तो चीखा, अभागिनी तूने मेरे अतिथि को मार डाला और मेरे सिर पर मित्रघात का कलंक लगा दिया। तुझे इसका दंड दिया जाएगा। मरजीना ने कहा, जो दंड का भागी था उसे दंड मिल गया। आपकी भगवान ने रक्षा की। यह आप का मित्र नहीं परम शत्रु है। आप दो-दो बार देख कर इस डाकू सरदार को नहीं पहचान सके और आज इसके हाथ से मारे जाते। मुझे इसके नमक न खाने से संदेह हुआ और मैंने देख लिया कि यह अपने कपड़ों में क्या छुपाए हैं। यह देखिए। यह कह कर उसने डाकू का वस्त्र हटा कर छुपी हुई छुरी को दिखाया। उसने कहा कि जो काम यह तेल का व्यापारी बन कर न कर सका था वह ख्वाजा हसन बन कर करना चाहता था, आज यह आपकी हत्या किए बगैर न जाता।

अलीबाबा ने उठ कर मरजीना को गले लगा लिया और बोला, तूने कई बार मेरी जान बचाई। मैं तुझे इस अहसान का पूरा बदला तो नहीं दे सकूँगा, फिर भी जो कर सकता हूँ वह करूँगा। मैं तुझे इसी क्षण दासत्व से मुक्त करता हूँ। मैं तुझे अपनी पुत्रवधू बनाना चाहता हूँ। यह कह कर उसने अपने पुत्र से पूछा कि तुम्हें यह प्रस्ताव स्वीकार है या नहीं। उसने तुरंत ही यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और दो-चार दिन में मरजीना से उसका विवाह हो गया।

फिर चारों ने मिल कर डाकू सरदार की लाश को होशियारी से मकान के अंदर इस तरह गाड़ा कि उसका पता किसी को न चले। अब्दुल्ला को भी भारी इनाम मिला। मरजीना के साथ अलीबाबा के पुत्र का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ और कई दिनों तक नाच रंग होते रहे। कुछ दिनों बाद अलीबाबा ने अपने पुत्र को डाकुओं के छुपे हुए खजाने का हाल विस्तारपूर्वक बताया। वह उसे वहाँ ले भी गया और गुफा के द्वार खोल कर भी दिखाया। कई दिनों तक वे दोनों पता लगाते रहे कि कोई डाकू बचा है या नहीं। जब कई दिन तक किसी घोड़े की टापों के निशान न देखे और खजाने में भी कोई घटत-बढ़त न देखी तो दोनों कई दिनों में थोड़ा-थोड़ा खजाना छुपा कर अपने घर में लाते रहे और गुफा को खाली कर दिया। फिर उन दोनों ही ने नहीं उनकी कई पीढ़ियों ने सुख से जीवन व्यतीत किया।

शहरजाद ने यह कहानी खत्म की तो दुनियाजाद ने उसे और कहानी सुनाने के लिए कहा। उस दिन सवेरा हो गया था इसलिए अगले दिन शहरजाद ने नई कहानी शुरू की।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Jemsbond
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बगदाद के व्यापारी अली ख्वाजा की कहानी

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बगदाद के व्यापारी अली ख्वाजा की कहानी

खलीफा हारूँ रशीद के राज्य काल में बगदाद में अलीख्वाजा नामक एक छोटा व्यापारी रहता था। वह अपने पुश्तैनी मकान में, जो छोटा-सा ही था, अकेला रहता था। उसने विवाह नहीं किया था और उसके माता पिता की भी मृत्यु हो गई थी। उसका बहुत छोटा व्यापार था और सिर्फ दो-चार आदमी ही उसे जानते थे। उनमें उसका एक सौदागर घनिष्ट मित्र था।

उक्त व्यापारी ने लगातार तीन रातों तक यह स्वप्न देखा कि एक दिव्य रूप का वृद्ध व्यक्ति उससे ही कह रहा है, तू अपना हज करने का इस्लामी कर्तव्य क्यों नहीं निभाता? तू अविलंब मक्का के लिए रवाना हो जा। अब उसने तय किया कि मक्का जाना ही चाहिए। उसने अपना व्यापार समेटा और मकान में एक किराएदार रख लिया। व्यापार समेट कर उसने जो कुछ पाया उसमें से कुछ तो यात्रा के खर्च के लिए अपने पास रख लिया बाकी एक हजार अशर्फियाँ बचीं जिनसे उसने हज से लौट कर दोबारा व्यापार करने की योजना बनाई। वह उन्हें साथ में न रखना चाहता था। क्योंकि राह में लुटने का भी भय था। उसने एक हँडिया में अशर्फियाँ रखीं और फिर उसके मुँह तक जैतून का तेल भर दिया। अपने व्यापारी मित्र के पास जा कर उसने कहा, भाई, मैं हज को जाना चाहता हूँ। मेरी यह तेल की हाँड़ी रख लो। मैं इसे वापस आ कर ले लूँगा। उसने उसे यह नहीं बताया कि इसमें अशर्फियाँ हैं। व्यापारी ने उसे अपने गोदाम की चाबी दी और कहा, जहाँ तुम चाहो अपने तेल की हाँड़ी रख दो। लौटना तो वहीं से उठा लेना। मित्र व्यापारी ने हाँड़ी की ओर देखा तक नहीं।

अलीख्वाजा ने हाँड़ी गोदाम में रख कर मक्के का सफर शुरू कर दिया किंतु वह ऊँट पर लाद कर कुछ छोटी-मोटी बिक्री की वस्तुएँ भी ले गया ताकि वहाँ भी कुछ व्यापार करे। हज के सारे कर्तव्य पूरे करने के बाद उसने वहीं अपनी छोटी-सी दुकान खोल दी। एक दिन उसकी दुकान पर दो व्यक्ति आए और कहने लगे कि तुम्हें यहाँ कम मुनाफा होगा, तुम्हारी यह चीजें काहिरा में ऊँचे दामों पर बिकेंगी।

अलीख्वाजा का कोई अपना संबंधी तो था ही नहीं जो बगदाद में उसकी वापसी की प्रतीक्षा करता। उसने मिस्र देश के सौंदर्य की प्रशंसा भी सुन रखी थी। वह फौरन अपनी वस्तुएँ ऊँट पर लाद कर व्यापारी दल के साथ काहिरा के लिए रवाना हो गया। वहाँ उसने अपनी वस्तुएँ काफी ऊँचे मूल्य पर बेचीं और खूब मुनाफा कमा कर अपना व्यापार और फैलाया। उसने काहिरा तथा मिस्र देश के अन्य स्थानों में खूब सैर-सपाटा भी किया। उसने नील नदी पर सदियों से बने अहराम (पिरामिड) भी देखे और काहिरा के दर्शनीय स्थानों को देखने के बाद मिस्र के अन्य नगरों की भी सैर की। इस तरह वहाँ कई महीने बिताने के बाद वह दमिश्क की ओर चला। रास्ते में वह रोड्स नामक द्वीप में भी गया और वहाँ पुराने जमाने में मुसलमानों द्वारा बनवाई हुई प्रसिद्ध मसजिदों को भी उसने देखा। फिर वह सैर के साथ व्यापार करता हुआ दमिश्क नगर पहुँचा। दमिश्क बड़ा सुंदर नगर था। वहाँ के बाजार और महल बहुत सजे हुए थे और उसके आसपास अनगिनत बाग थे जहाँ तरह-तरह के फल-फूल और जल कुंड, नहरे, झरने आदि थे। यहाँ का सौंदर्य देख कर वह बगदाद को भूल ही गया। कई वर्षों के बाद उसका वहाँ से भी जी भर गया। इसके बाद उसने हलब, मोसिल और शीराज आदि नगरों में जा कर निवास किया। इसके बाद वह बगदाद वापस आया। उसकी वापसी इस नगर में सात वर्षों के बाद हुई।

विदेश रह कर अलीख्वाजा ने केवल इतना व्यापार किया था कि उसका काम चलता रहा, बाकी समय में वह सैर-सपाटा करता रहता था। बगदाद आ कर उसे व्यापार जमाने के लिए अपनी बचाई हुई हजार अशर्फियों की जरूरत पड़ी। किंतु उसकी वापसी के कुछ दिन ही पहले उसके व्यापारी मित्र ने उसके साथ धोखा कर डाला था। हुआ यह कि एक दिन व्यापारी के आने के कुछ दिन ही पहले उसके व्यापारी मित्र ने उसके साथ धोखा कर डाला था। हुआ यह कि एक दिन व्यापारी की पत्नी ने कहा कि बहुत दिनों से घर की किसी चीज में जैतून का तेल नहीं पड़ा है, कल बाजार से लाना। व्यापारी को अलीख्वाजा की हाँड़ी याद आई और उसने कहा, अलीख्वाजा हज को जाते समय मेरे मालगोदाम में जैतून के तेल की हाँड़ी रख गया था। उसी में से थोड़ा-सा तेल ले ले। वैसे वह तेल बहुत पुराना हो गया है और खराब हो गया होगा। किंतु देखते हैं, शायद अच्छा हो।

उसकी पत्नी बोली, यह क्या करते हो? किसी की धरोहर को छूने में भी पाप लगता है। मुझे जैतून के तेल का ऐसा शौक नहीं है कि तुम मेरे लिए धर्म और नैतिकता के विरुद्ध कोई काम करो। व्यापारी ने कहा, तुम पागल हो गई हो। अगर पूरी हाँड़ी में से एक कटोरी तेल ले लिया तो क्या कमी हो जाएगी। फिर अलीख्वाजा का क्या पता? वह सात वर्ष पूर्व हज करने गया था। हज करने में सात वर्ष तो नहीं लगते। न मालूम वह कहाँ है और क्या मालूम आए या न आए। मालूम नहीं वह मर गया है या जिंदा है। स्त्री बोली, कुछ भी हो, उसका तेल नहीं छूना है। यह तुम कैसे कह सकते हो कि वह अब नहीं आएगा। सात वर्ष की अवधि कौन ऐसी अधिक होती है। संभव है कल ही आ जाए।

व्यापारी उस समय तो अपनी स्त्री के कहने से मान गया। किंतु अब उसने सोचा कि अलीख्वाजा ने जैतून के तेल की हाँड़ी क्यों रखवाई। ऐसी क्या बात थी उस तेल में जिससे उसे सँभाल कर रखवाने की आवश्यकता पड़ी। रात वह अपनी पत्नी से छुप कर गोदाम में यह देखने को गया कि वह तेल कैसा है और उसकी क्या दशा है। उसने गोदाम में जा कर मोमबत्ती जलाई ओर एक नई हाँड़ी ले कर उसने अलीख्वाजा की हाँड़ी को हिलाया और उसमें से अपनी हाँड़ी में तेल डालने लगा। तेल स्वाद में भी खराब था और उसमें से दुर्गंध भी आ रही थी किंतु हाँड़ी हिलाने से एक अशर्फी व्यापारी की हाँड़ी में आ गिरी। अब उसे तेल का भेद मालूम हुआ। उसने धीरे से सारा तेल अपनी हाँड़ी में उलट दिया और अलीख्वाजा की हाँड़ी की सारी अशर्फियाँ निकाल लीं। हाँड़ी का थोड़ा तेल गिर कर फैल भी गया था और अशर्फियाँ निकल जाने पर हाँड़ी में उसकी सतह नीची भी हो गई थी इसलिए उस व्यापारी ने फर्श अच्छी तरह साफ किया और हँडिया का खराब और बदबूदार तेल बाहर नाली में फेंक दिया। सुबह उठ कर उसने बाजार से जैतून का तेल खरीदा और उसे अलीख्वाजा की हँड़िया में मुँह तक भर कर यथास्थान रख दिया।

इसके एक महीने बाद ही अलीख्वाजा विदेश यात्रा से लौटा और उसने अपने व्यापारी मित्र से अपनी तेल की हँड़िया माँगी। व्यापारी ने कहा, भाई मैंने तो तुम्हारी हँड़िया देखी भी नहीं थी। तुम्हीं ने उसे गोदाम में रखा था। चाबी लो और जहाँ तुमने अपनी हँड़िया रखी हो वहाँ से ले जाओ।

अलीख्वाजा गोदाम में गया और अपनी हँड़िया ले कर अपने घर चला गया। उसने घर जा कर हँड़िया का तेल दूसरे बर्तन में डाला और अपनी अशर्फियाँ तलाश कीं लेकिन उसे एक भी अशर्फी नहीं मिली। वह उलटे पाँव व्यापारी मित्र के पास गया और बोला, इसमें रखी एक हजार अशर्फियाँ कहाँ हैं? व्यापारी ने कहा, कैसी अशर्फियाँ? अलीख्वाजा ने रुआँसे हो कर कहा, भाई, मैं ईश्वर की सौगंध खा कर कहता हूँ कि मैंने तेल की हँड़िया की तह में एक हजार अशर्फियाँ रखी थीं। अगर तुम ने उन्हें किसी जरूरत से खर्च कर दिया है तो कोई बात नहीं, बाद में वापस कर देना।

व्यापारी मित्र ने कहा, अलीख्वाजा, तुम कैसी बातें कर रहे हो। मैंने तुम्हारे लाते और ले जाते समय तुम्हारी हँड़िया पर निगाह तक नहीं डाली और तुम्हीं ने उसे गोदाम में रखा और वापस हो कर उसी जगह से उठाया था। मैं क्या जानूँ कि उसमें अशर्फियाँ थीं या क्या था। तुम बेकार ही मुझ पर झूठा आरोप लगाते हो। यह बातें न मित्रता की हैं न भलमनसाहत की। जब तुमने तेल की हाँड़ी राखी थी तो तुमने तेल ही रखने को कहा था, अशर्फियों की तो कोई बात तुमने नहीं की थी। तुमने तेल कहा था, वह तुम्हें मिल गया। अगर उसमें अशर्फियाँ होतीं तो वह भी तुम्हें मिल जातीं।

अलीख्वाजा ने उसके बहुत हाथ-पाँव जोड़े। उसने कहा, अशर्फियाँ न मिलीं तो मैं बरबाद हो जाऊँगा। मेरे पास इस समय कुछ भी नहीं है। उन्हीं अशर्फियों से मुझे व्यापार चलाना है। मुझ पर दया करो और मेरा माल मुझे दे दो। व्यापारी ने क्रुद्ध हो कर कहा, अलीख्वाजा, तुम बड़े नीच आदमी हो। मुझ पर झूठा चोरी का आरोप लगा रहे हो और बेईमानी से मुझसे हजार अशर्फियाँ ऐंठना चाहते हो। तुम भाग जाओ और कभी मेरे सामने न आना। झगड़ा बढ़ा तो मुहल्ले के बहुत से लोग जमा हो गए। कुछ लोग अलीख्वाजा को सच्चा समझते थे और कुछ व्यापारी को। शाम तक सारे बगदाद में अलीख्वाजा और उसके मित्र व्यापारी का झगड़ा मशहूर हो गया। और लोग तरह-तरह की बातें करने लगे।

अलीख्वाजा ने काजी के पास जा कर नालिश की। उसने व्यापारी को बुलाया और दोनों के बयान सुने। उसने अलीख्वाजा से कहा, क्या तुम्हारे पास तुम्हारी बात सिद्ध करने के लिए कोई गवाह है? अली ख्वाजा ने कहा, कोई नहीं, सरकार! मैंने भेद खुलने के डर से किसी को यह बात नहीं बताई थी। काजी ने व्यापारी से कहा कि क्या तुम ईश्वर की सौगंध खा कर कह सकते हो कि तुमने अशर्फियाँ नहीं लीं? उसने कहा, ईश्वर की सौगंध मैं अशर्फियों के बारे में कुछ नहीं जानता। यह सुन कर काजी ने उसे छोड़ दिया। अलीख्वाजा ने एक अर्जी खलीफा के नाम लिखी और खलीफा जब जुमे की नमाज को निकले तो उन्हें दे दी। उन्होंने अर्जी पढ़ कर कहा, कल तुम उस व्यापारी को ले कर दरबार में आना, तभी मैं निर्णय दूँगा।

उसी शाम को खलीफा अपने मासिक नियम अनुसार मंत्री जाफर के साथ वेश बदल कर प्रजा का हाल जानने को निकले। रात होने पर चाँदनी फैल गई। खलीफा ने देखा कि एक मैदान में दस-बारह लड़के खेल रहे हैं। उनमें से एक बालक ने, जो सबसे सुंदर और बुद्धिमान लगता था, कहा, आओ हम लोग अलीख्वाजा के मुकदमे का खेल खेलें। तुम लोगों में से कोई अलीख्वाजा बन कर हजार अशर्फियों का दावा करे, दूसरा व्यापारी बन कर प्रतिवाद करे, मैं काजी बन कर फैसला करूँगा। यह सुन कर खलीफा और जाफर छुप कर देखने लगे कि इस मुकदमे का, जिसकी अर्जी खलीफा को उसी दिन मिली थी, यह बालक किस तरह फैसला करते हैं।

वह सुंदर और बुद्धिमान बालक एक ऊँची जगह पर काजी की तरह शान से बैठ गया और दो-एक लड़के उसके प्यादे आदि हो गए। एक लड़का अलीख्वाजा बन कर हजार अशर्फियों के लिए रोता-पीटता आया। दूसरा लड़का व्यापारी बन कर गंभीरता से खड़ा हो गया। ऊँची जगह पर शान से काजी बने हुए लड़के ने अलीख्वाजा से पूछा, तुम्हारा क्या मामला है? उसने विस्तार में वही सब कुछ बताया जो उसको अलीख्वाजा ने बताया था। काजी ने दूसरे लड़के से पूछा, क्या तुम स्वीकार करते हो कि तुमने अलीख्वाजा की अशर्फियाँ ली हैं? उसने कहा, मैं भगवान की सौगंध खा कर कहता हूँ कि मैंने वह अशर्फियाँ देखी भी नहीं हैं। काजी बना हुआ लड़का बोला, मैं वह तेल की हँड़िया देखना चाहता हूँ जिसमें अलीख्वाजा का रखा हुआ तेल है। अलीख्वाजा बना हुआ लड़का कहीं से एक कुल्हिया उठा लाया और बोला, सरकार यही है वह हँड़िया और वह तेल जो मुझे व्यापारी के यहाँ से मिला था।

काजी बने हुए लड़के ने कुल्हिया में उँगली डाल कर झूठमूठ ही तेल को चखा। फिर वह बोला, मेरा खयाल था कि सात वर्ष पुराना तेल बिल्कुल सड़ गया होगा। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस तेल का स्वाद बहुत अच्छा है। यह पता लगाना कठिन है कि तेल नया है या पुराना। फिर उसने कहा कि बाजार से तेल के व्यापारियों को ला कर यहाँ हाजिर करो।

दो और बालक तेल के व्यापारी बन कर आ गए। काजी बने लड़के ने उन से पूछा कि क्या तुम तेल बेचते हो? उन्होंने कहा, हाँ सरकार, हमारा यही धंधा है। उसने कहा, तुम बता सकते हो कि जैतून का तेल कब तक खराब नहीं होता। उन्होंने कहा, अधिक से अधिक तीन वर्ष तक ठीक रहता है। फिर चाहे कितने ही यत्न से रखा जाय उसका स्वाद और गंध दोनों बिगड़ जाते हैं और ऐसी हालत में उसे फेंक दिया जाता है। काजी बना हुआ लड़का बोला, इस हाँड़ी के तेल को देख कर बताओ कि इस का रंग और स्वाद कैसा है। उन दोनों ने कुल्हियों में झूठमूठ उँगली डाल कर कल्पित तेल को सूँघा और चखा। फिर बोले, यह तेल बहुत अच्छा है, यह अधिक से अधिक एक साल का हो सकता है। काजी बना हुआ बालक बोला, तुम लोग बिल्कुल गलत हो। अलीख्वाजा सात वर्ष पहले यह तेल व्यापारी के गोदाम में रख कर गया था। व्यापारी बने हुए बालक बोले, सरकार जो चाहे कहें लेकिन सच्ची बात यह है कि यह तेल साल भर के अंदर ही कोल्हू से निकाला गया है। आप बगदाद भर से किसी भी व्यापारी को बुला कर दिखा लीजिए। कोई इस तेल को एक वर्ष से पुराना नहीं कहेगा।

अब काजी बने हुए लड़के ने प्रतिवादी बने हुए लड़के से कहा, अब तुम इस तेल को चख कर कहो कि तेल नया है या पुराना। उसने हाथ जोड़ कर कहा, सरकार मुझ पर दया कीजिए। मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। मैंने एक महीने पहले ही इस हाँड़ी का तेल और अशर्फियाँ निकाल कर इसमें दूसरा तेल भरा था। काजी बने हुए लड़के ने कहा, तुमने धरोहर में बेईमानी की और भगवान की झूठी सौगंध भी खाई। तुमने फाँसी पाने का काम किया है और तुम्हें वही दंड मिलेगा। सिपाहियो, इसे पकड़ के ले जाओ। सिपाही बने हुए दो लड़के उसे घसीट कर ले गए। बाकी लड़के उछल-कूद कर के शोर मचाने लगे। अदालत का खेल खत्म हो गया।

खलीफा बालक की बुद्धि देख कर ताज्जुब में पड़ा। उसने जाफर से कहा, कल इन बालकों को दरबार में हाजिर करना। कल इसी बालक से फैसला करवाऊँगा। साथ ही बाजार से दो तेल के व्यापारियों को भी ले आना। अलीख्वाजा को कहलवा भेजना कि नालिश के लिए आए तो तेल की हँड़िया भी लेता आए। यह कह कर खलीफा महल में चला गया।

मंत्री ने सुबह उस मोहल्ले में जा कर वहाँ के मदरसे के अध्यापक से पूछा कि तुम्हारे यहाँ कौन-कौन लड़के पढ़ते हैं। उसके बताए हुए सभी लड़कों को मंत्री ने उन के घरों से ले कर दरबार में पहुँचा दिया। बच्चों के माता-पिता घबराए तो मंत्री ने उन्हें आश्वस्त किया कि बालकों को कोई हानि नहीं पहुँचाई जाएगी। इस पर संतुष्ट हो कर उन के अभिभावकों ने उन्हें अच्छे वस्त्र पहना कर दरबार में भेज दिया। खलीफा ने कहा, तुम लोगों ने कल शाम जो मुकदमे का खेल खेला था उसमें कौन लड़का काजी बना था? काजी बने लड़के ने सिर झुका कर कहा, मैं बना था। खलीफा ने उसे अपने पास बिठाया और कहा, तुम कल ही की तरह आज असली मुकदमे का फैसला करना। तुम्हीं को सारी सुनवाई भी करनी है।

संबंधित पक्षों के आने पर खलीफा ने घोषणा की, इस मुकदमे की सुनवाई और फैसला मैं नहीं करूँगा बल्कि यह बच्चा करेगा। अतएव बालक ने दोनों पक्षों के बयान लिए। व्यापारी ने कहा, भगवान की सौगंध मुझे अशर्फियों के बारे में कुछ नहीं मालूम। बच्चे ने कहा, सौगंध खाने के लिए तुझे किसने कहा? मैं उस हाँड़ी को देखना चाहता हूँ जिसमें तेल रखा है। हाँड़ी बालक के सामने रखी गई। बालक के कहने से खलीफा ने खुद भी तेल को चखा और तेल के व्यापारियों को भी चखाया। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि तेल अच्छा है और एक वर्ष के अंदर ही तैयार किया गया है। अब बालक ने प्रतिवादी व्यापारी से कहा, तुम्हारी सौगंध झूठी है। अलीख्वाजा ने सात वर्ष पहले तेल रखा था इसमें नया तेल कहाँ से आ गया। व्यापारी ने स्वीकार लिया कि उसने तेल बदला है और अशर्फियाँ निकाली हैं। बालक ने हाथ जोड़ कर खलीफा से कहा, सरकार, आपके आदेश से निर्णय मैंने कर लिया किंतु आज के मुकदमे में दंड देना या न देना आप के हाथ में है। खलीफा ने कहा, मैं वही दंड नियत करता हूँ जो तुमने किया था। व्यापारी की संपत्ति जब्त करके उसे फाँसी दी जाए और उसकी संपत्ति में से एक हजार अशर्फियाँ अलीख्वाजा को दी जाएँ। उसने काजी बननेवाले बालक को एक हजार अशर्फियाँ का इनाम दिया और अन्य बालकों को भी कुछ इनाम दिया।

यह कहानी कह कर मलिका शहरजाद ने अगले दिन नई कहानी शुरू कर दी।
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बन्धन
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