भूत प्रेतों की कहानियाँ

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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!
"मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"बोलो खेचर!" मैंने कहा!
"चला जा यहाँ से!" मैंने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"मै नहीं जाऊँगा फिर भी!" मैंने कहा,
"सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?" उसने मुझे कहा,
"मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!" मैंने कहा,
"तुझे काट डालेगा!" वो गंभीर हो कर बोला,
"कौन?" मैंने पूछा,
"भेरू" उसने कहा,
"कौन भेरू?" मैंने कहा,
"मेरा बड़ा भाई" उसने कहा,
"अच्छा! कहाँ है भेरू?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" उसने कहा,
'कहाँ है उसका वास?" मैंने पूछा,
"वहाँ, नदी से पहले" उसने इशारा करके कहा,
मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!
"खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"पूछ" उसने कहा,
"वो औरत कौन है?" मैंने पूछा,
मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!
वो बताना नहीं चाहता था, या उसका 'समय' हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!
अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!
खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा और हटा वहाँ से,
'जी, चलिए" वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!
हम चल पड़े वापिस!
वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,
"हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!" मैंने हाथ धोते हुए कहा,
हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,
"मामला क्या है?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"ओह...." उनके मुंह से निकला,
"आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?" हरि साहब ने पूछा,
'ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा" मैंने कहा,
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी" बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!
"वैसे है क्या यहाँ?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!" मैंने बताया,
मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!
"खेचर!" मैंने कहा,
"क..क्या?" कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!
"खेचर मिला मुझे यहाँ" मैंने कहा,
"हे ईश्वर!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!" हरि साहब ने बताया!
कहानी में एक पेंच और घुस गया!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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"सपना?" मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,
"जी गुरु जी" हरि साहब बोले,
"तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब" मैंने कहा,
"अवश्य" वे बोले,
मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!
खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!
मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, "कहाँ खो गए गुरु जी?"
"कहीं नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!
"शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?"
"हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी" वे बोले,
"और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!" मैंने कहा,
"हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!" वे बोले,
"हाँ, ये सही कहा आपने" मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,
"खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?" मैंने कहा,
"हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!" वे बोले,
"अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे" मैंने कहा,
"हाँ, कल पूछते हैं उन से" वे बोले,
"हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है" मैंने कहा,
"हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ" वे बोले,
तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!
सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
"हरि साहब?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी?" वे चौंके!
''आपकी पत्नी कहाँ है?" मैंने पूछा,
"मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी" वे बोले,
'अच्छा, आने दीजिये फिर" मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
"वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा" मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
"आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,
"खेचर ने" वे बोलीं,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!" उन्होंने बताया,
"किसी ने कुछ कहा आपसे?" मैंने पूछा,
"हाँ एक औरत ने कहा था कुछ" वे बोलीं,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!" ये बताया उन्होंने
"अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था" वे बोलीं,
"ओह...भामा!" मैंने कहा,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"बाकी वही जो मैंने आपको बताया है" वे बोलीं,
"ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!
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बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, "हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?"
"हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर" उन्होंने बताया,
"क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?" मैंने पूछा,
"कहाँ तक?" उन्होंने पूछा,
"जहां वो बरसाती नदी है" मैंने कहा,
"हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे" वे बोले,
"पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली" मैंने कहा,
"कब चलना है?" उन्होंने पूछा,
"जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए" मैंने कहा,
"ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ" वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, "चलिए गुरु जी"
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
"ये है जी वो नदी" हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
"कोई पुराना मंदिर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको" हरि साहब ने कहा,
"कुछ जानते हैं इसके बारे में?" मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने" वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
"ज़हरीला सांप है जी ये?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!" वे बोले,
"ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!" मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
"ये नहीं काटता!" मैंने कहा,
"कमाल है गुरु जी!" वे बोले,
मै उठा गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
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इसका अर्थ था कि ये था स्थान भेरू का! खेचर इसीलिए आया था यहाँ! उसने तो मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया था! अब सोचने वाली बात ये कि वो क्यों चाहता था कि मै यहाँ आऊं? भेरू के स्थान पर? जबकि वो चाहता तो मुझे अपने रास्ते से कब का हटा चुका होता! खेचर इसी मंदिर में समा गया था, यही स्थान था, हाँ यही स्थान!
"शर्मा जी?" मी कहा,
"जी?" वो आगे आते हुए बोले,
"आपने देखा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"यही स्थान है उस भेरू का?" मैंने ये भी पूछा,
"हाँ जी, यही लगता है" वे बोले,
"तो वो क्या चाहता है?" मैंने कहा,
"नहीं पता गुरु जी" वे बोले,
"सही कहा!" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया!
"शर्मा जी, एक बात तो है, ये खेचर कुछ कहना चाहता है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"नदी का पता, ये मंदिर! है या नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, ये तो है" वे बोले,
"अब हमारा काम पूर्ण हुआ यहाँ, चलो अब वापिस चलें, अब मै दिखाता हूँ इनको अपना माया-जाल!" मैंने कहा,
"माया-जाल?" वे विस्मित से होकर पूछ गए!
"हाँ! अब हमारी मुलाक़ात शीघ्र ही भेरू से होगी" मैंने कहा,
'अच्छा!" वे बोले,
"आप एक काम करो, हरि साहब से पूछो, यहाँ कोई शमशान है?" मैंने कहा,
"अभी पूछ लेता हूँ जी" वे बोले और वो चले गए, हरि साहब की ओर!
मै कुछ एर बाद पहुंचा वहाँ, उनकी बातें चल रही थीं!
"गुरु जी, ये कहते हैं कि दो शमशान हैं यहाँ पर, एक शहर के पास और एक इसी नदी के किनारे, आपको कौन सा चाहिए?" शर्मा जी ने पूछा,
"इसी नदी के किनारे वाला" मैंने कहा,
हरि साहब ने बता दिया, ये शमशान कोई चार किलोमीटर था वहाँ से!
'चलिए, एक नज़र मार लेते हैं" मैंने कहा,
और हम अब चल पड़े वहाँ से उसी शमशान की ओर!
वहाँ पहुंचे और मै वहाँ गाड़ी से उतरा! आसपास नज़र दौड़ाई, ये शमशान नहीं लगता था, कोई प्रबंध नहीं था वहाँ, हाँ वहाँ दो चिताएं अवश्य ही जल रही थीं!
मै उन चिताओं तक गया, ठंडी हो चुकीं राख को मैंने हाथ जोड़कर उठाया और एक पन्नी में भर लिया, पन्नी वहाँ बिखरी पड़ी थीं!
"चलिए, अब सीधे खेतों की तरफ चलें!" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब बोले,
और हम चल दिए अब खेतों की तरफ!
मै सीधे ही खेतों पर पहुंचा, वहाँ अलग अलग स्थान पर पांच जगह मैंने वो भस्म ज़मीन में गाड़ दी, ये स्थान-कीलन था! जो अब ज़रूरी भी था!
"शर्मा जी, आप इस बाल्टी पानी मंगवाइये" मैंने कहा,
"अभी लीजिये" उन्होंने कहा,
उन्होंने हरि साहब को, हरि साहब ने शंकर से कहा और शंकर वो बाल्टी ले आया! मैंने उसी स्थान पर, जहां पानी नहीं रुकता था, एक बाल्टी पानी डाला, और कमाल हुआ, स्थान-कीलन चक्रिका ने वहाँ का भेदन-चक्र पूर्ण किया और मिट्टी गीली हो गयी! पानी ठहर गया! ये देख सभी की आँखें चौड़ी हो गयीं!
"अब चलो यहाँ से" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब ने कहा,
तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी, वहाँ दोनों औरतें खड़ी थीं! अपना सर हाथों में लिए!
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मै उनकी ओर चल पड़ा, शर्मा जी चलने लगे तो मैंने उनको रोक दिया, मै अकेला ही जाना चाहता था वहां, मैंने हाथ के इशारे से उनको रोक दिया और फिर वापिस शंकर के यहाँ भेज दिया, मै अब उन औरतों की तरफ बढ़ने लगा, वे दोनों औरतें मुड़ीं और आगे चलने लगीं, जैसे मुझे ही लेने आई हों! वो आगे चलती रहीं और मै उनके पीछे! मुझे जैसे सम्मोहन पाश में जकड़ लिया था उन्होंने, सच कह रहा हूँ, उस समय मै सारी सुध-बुध खो बैठा था! बस उनके पीछे पीछे पागल सा चले जा रहा था, और फिर वो कुआँ आया, कुँए में से जैसे पानी बाहर आ रहा था, बहता पानी मेरे जूतों से टकरा रहा था, मै जैसे किसी और की लोक में विचरण करने लगा था, प्रेतलोक में जैसे! कुआँ भी पार कर लिया और फॉर मैंने ज़मीन पर तड़पती हुई मछलियाँ देखीं! जैसे उनको पानी से निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया हो! वो मुड-मुड कर उछल रही थीं, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ! सभी बड़ी बड़ी! मै एकटक उनको देखता रहा! धप्प-धप्प की आवाज़ आ रही थी उन मछलियों की, जब वो नीचे गिरती थीं! बड़ा ही अजीब सा दृश्य था!
वे औरतें और आगे चलीं, ये उन खेतों का निर्जन स्थान था, वहाँ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, तभी वे एक बड़े से पत्थर के पीछे जाकर गायब हो गयीं, मै वहाँ उस पत्थर के सामने गया, और क्या देखा!! जो देखा अत्यंत भयानक था! वहाँ ७ सर पड़े थे, कटे हुए, धड भी थे उनके, पेट फटे हुए थे और सर उन आतों में उलझे हुए थे! मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनकी भिनभिनाहट बहुत तीव्र और भयानक थीं, कुछ अन्य कीड़े भी लगे थे वहाँ! एक दूसरे पर चढ़े हुए! चार सर औरतों के थे और तीन सर पुरुषों के! सभी जीवित! एक एक करके सभी मेरा नाम पुकारे जा रहे थे! मै जैसे जड़ता से बाहर निकला! तभी एक औरत का धड़ खड़ा हुआ, जैसे नींद से जागा हो! सभी कटे सर चुप हो गए, केवल एक के अलावा, वो सर उसी धड़ का था!
"कौन है तू?" उस सर ने कहा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
मै चुप रहा!
''जल्दी बता!" उसने धमका के पूछा,
मैंने कारण बता दिया!
तभी सभी कटे सर अट्टहास कर उठे! और एक एक करके खड़े हो गए! चौकड़ी मार के बैठ गए, अपने हाथों से आंते हटायीं उन्होंने अपने अपने सर पर उलझी हुई! मेड की पिचकारियाँ छूट पड़ीं आँतों से, कुछ मेरे जूते से भी टकराई, मक्खियों का झुण्ड भाग उठा एक पल को!
"चल! भाग जा यहाँ से!' एक पुरुष के सर ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"नहीं मानेगा?" उसने धमकाया मुझे!
"नहीं!" मैंने कहा,
"सोच ले, दुबारा नहीं कहूँगा!" उसने चुटकी मार के कहा,
नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"ठीक है, तो अब देख!" उसने कहा,
तभी धूल का गुबार उठा और मेरे चेहरे से टकराया! धूल से सन गया मै! मैंने आँखें खोलीं, सब गायब! सब गायब! वहाँ केवल बड़े बड़े विषधर! फुफकारते विषधर! तभी वे आगे बढे और मुझे घेरे में डाल लिया, ले लिए! मेरी पिंडलियों पर उनकी फुफकार पड़ने लगी! गर्म और विष भरी!
अब मैंने ताम-मंत्र का जाप किया! और नीचे झुक कर मिटटी उठायी और अभिमंत्रित कर उन सर्पों पर बिखेर दी! वे एक क्षण में श्वेत हुए और धुंध के सामान लोप! मायापाश था वो! वहाँ अब कोई कीड़ा नहीं, ना ही कोई मक्खी! सब लोप हो गया!
मैंने सामने देखा, सामने वही दोनों औरतें खड़ी थीं! मै दौड़ पड़ा उनकी तरफ! मै आ गया उनके पास! अब पहली बार उनके चेहरे पर शांत भाव आये और होठों पर मुस्कराहट!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भामा!" एक ने कहा,
"शामा" दूसरी ने कहा,
भामा और शामा!
"बहनें हो?" मैंने पूछा,
मैंने ऐसा इसलिए पूछा क्योंकि दोनों की शक्लें हू-ब-हू एक जैसी ही थीं!
"हाँ!" दोनों ने कहा,
अब कुछ बात बनी थी! वे बातचात करने को तैयार लगीं!
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