भूत प्रेतों की कहानियाँ

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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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वो हंसती रही! उसने और धन प्रकट किया वहाँ! इतना तो मैंने कभी न सुना और न देखा!
"ये सब ले जा!" वो बोली,
"नहीं!" मैंने कहा,
"मूर्ख तो नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपने हाथ से कुछ स्वर्ण उठाया और मुझ पर फेंका!
"ले! लेजा!" उसने फिर से कहा,
"नहीं चाहिए मुझे!" मैंने कहा,
"धनसुली का धन माया नहीं होता साधक!" उसने कहा,
"मानता हूँ" मैंने कहा,
"ले जा फिर! सारा! जितना चाहिए वो भी लेजा!" उसने कहा,
धनसुली! धन-यक्षिणी की सहोदरी!
"मुझे नहीं चाहिए" मैंने फिर से मना कर दिया!
अब वो क्रोध में आई!
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने गुस्से से पूछा,
"आप जाइये और भ्रू को लाइए सामने" मैंने कहा,
झम्म!
वो झम्म से लोप, साथ ही सारा धन भी लोप! टूटे घड़े भी लोप, रह गये तो बस उनके चिन्ह! मिट्टी में अंकित चिन्ह!
"भेरू?" मैंने चिल्लाया!
कोई नहीं आया!
"कुछ और भी बाकी है तो ले आ!" मैंने डंका बजाते हुए कहा!
भेरू प्रकट हुआ! हाथों में हाथ बांधे!
भेरू जैसे भीरु बन गया था!
"क्या बात है भेरू?" मैंने पूछा,
भेरू चुप!
अब मैंने अट्टहास लगा!
"पंचमहाभूत! हाँ! पंचमहाभूत! ये जस की तस रहती है भेरू!" मैंने कहा,
अब भेरू को चढ़ा ताप!
"सुन लड़के!" उसने कहा,
"सुनाओ?" मैंने कहा,
"तूने अपने काल को स्वयं आम्नात्री किया है, मै तुझे जीवित नहीं छोड़ने वाला!" उसने कहा,
"तो करके देख ले ये भी!" मैंने कहा,
उसने गुस्से में मेरी ओर अपना त्रिशूल दे मार फेंक कर! मुझ तक आने से पहले ही ताम-मंत्र ने त्रिशूल को भूमि पर ही गिरा दिया!
अब मै हंसा!
भेरू क्रोधित!
वो भयानक रूप से चिल्लाया! हड़कम्प सा मच गया उस स्थान पर! मेरी अलख जैसे अनाथ होने के भय से कांपने लगी!
भेरू स्वयं आगे बढ़ा!
ये मुझे पता था!
"ठहर जा!" मैंने कहा,
वो नहीं माना!
मैंने तभी यम्त्रास-मंत्रिका का जाप किया! मुझ तक आते आते कलाबाजी सी खायी भेरू ने और नीचे गिर गया! फ़ौरन उठ भी गया! अचंभित! हैरत में!
मेरी हंसी छूट गयी!
"भेरू!" मैंने कहा और अब मै उसकी तरफ बढ़ा!
भेरू पीछे हटा!
"भेरू! मै तुझे नहीं क़ैद करूँगा! घबरा नहीं!" मैंने कहा,
वो पीछे हटा फिर भी! डरा हुआ सा!
"भेरू! बहुत समय बीत गया भटकते भटकते! अब समय पूर्ण हुआ!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो बोला,
"मान जा!" मैंने समझाया उसे!
"नहीं!" वो घबराया!
"ठीक है!" मैंने कहा और मै पीछे अपनी अलख तक गया!
"भेरू!" मैंने पुकारा,
"बोल?" वो चिल्ला के बोला,
"जा!" मैंने कहा,
"कहाँ?" वो निहत्था सा खड़ा हुआ मुझसे पूछ रहा था!
"तेरे पालनहार बाबा नौमना के पास!" मैंने कहा,
ये सुनते ही बिफर गया वो!
"क्यों?" उसने पूछा,
"जा बुला उसको अब!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो चिल्लाया!
"भेरू! क्या नही किया तूने उसके लिए! तुझे बचाने नहीं आएगा वो?" मैंने उपहास किया!
वो चुप्प!
"जा!" मैंने कहा,
और तभी वो झप्प से लोप हुआ!
और अब! अब मुझे स्वागत करना था बाबा नौमना का!
मै तैयार था!
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भेरू बाबा चला गया था! मै नहीं कहूँगा कि मुंह की खाकर! ये ऐसा कोई अस्तित्व का द्वन्द नहीं था, ये तो शक्ति-सामर्थ्य का द्वन्द था, दादा श्री की असीम कृपा से मै अभी तक अपने उचित मार्ग पर प्रशस्त था! लोभ-लालच आदि को पछाड़ दिया था मैंने! मैंने अपनी गुरु को नमन किया, उनके आशीर्वाद से मै अभी तक डटा हुआ था!
वहाँ भयानक सन्नाटा छाया हुआ था! अलख की रौशनी चटक-चटक कर उठ रही थी! मै औघड़-मद में डूबा था, मदिरापान करता हुआ आगे देखे जा रहा था! दीन-दुनिया से कटा हुआ भिड़ा हुआ था वहाँ के 'शासक औघड़' की प्रतीक्षा में! चन्द्रमा सर पर टंगे हुए थे! उन्हें सब मालूम था, हाँ सब मालूम! मै रह रह कर उस एकांकी रात्रि भ्रमणकारी को देखता! जो न जाने कितनी सदियों से अनवरत हराता आया है ऐसे समय समय के तमसपूर्ण नाभिय-औघड़ों को! चन्द्रमा को देखता और आंसू निकालता जाता! सलाम बजाता जाता! गर्दन थक जाती तो झटका खाके नीचे हो जाती! मै फिर से गर्दन उठा लेता!
तभी!
तभी जैसे कोई भारी-भरकम आकाशीय पिंड गिरा भूमि पर, दूर अँधेरे में! अनपढ़ और गंवार कीड़े मकौड़े जो बेसुरा तान छेड़े हुए थे, सब शांत हो गए!
मै खड़ा हुआ!
त्रिशूल सीधे हाथ में थामा!
सामने देखा!
वहाँ था! कोई न कोई अवश्य ही था! पर स्पष्ट नहीं था! मेरी अलख की रौशनी की हद में नहीं था! और तभी भूमि पर जैसे थाप सी हुई, कोई बढ़ा मेरी तरफ! और जो मैंने देखा, वो आजतक नहीं देखा!
उसको इंसान कहूँ, या बिजार! सांड या भैंसा! महाप्रेत कहूँ या फिर कोई राक्षस! यक्ष कहूँ कि कोई आततायी गान्धर्व! दैत्य या कोई दानव? क्या कहूँ????
भयानक शरीर उसका! केश रुक्ष और जटाओं में परिवर्तित! कुछ सर पर बंधे हुए और कुछ घुटनों तक आये हुए, हाथों में अस्थियों के भुजबंध और चांदी के भारी भारी कड़े! पांव में घुटनों तक चांदी के कड़े! छाती पर भयानक बाल! अस्थिमाल धारण किये हुए! स्फटिक की मालाएं, महारुद्र की घंटियाँ! मानव अस्थियों से बना दंड! भुजाओं में बंधे अस्थिमाल! कोहनी से नीचे भास्मिकृत अस्थियाँ! बंधी हुईं, लटकी हुईं मनकों की तरह! तीन फाल वाला बड़ा सा त्रिशूल, उस पर चार-पांच इंसानी मुंडों से बने डमरू बंधे थे!
और अब शरीर!
लम्बाई करीब आठ या साढ़े आठ फीट कम से कम! दानव! मेरी एक जांघ और उसकी कलाइयां, बराबर! मेरी छाती और उसका एक पाँव! लात मार दे तो सीधा उसी से मिलन. जिसने भेजा यहाँ पृथ्वी पर! चेहरा इतना चौड़ा कि अश्व भी शर्मा के भाग जाए! जबड़ा इतना बड़ा कि एक-दो मुगे तो बिना हड्डी निकाले ही चबा जाए! भयानक इतना कि कोई देख ले तो विस्मृति का रोग तत्क्षण मार जाए!
सच में ही नौमना! नाम साक्षात्कार कर दिया था उसने! किसी जिन्न से संकर प्राणी था वो, लगता है!
"कौन है तू?" उनसे सिंह की जैसी दहाड़ में पूछा,
ऐसी दहाड़ कि एक बार को मै भी सिहर गया!
"कौन है तू?" उसने कहा,
मैंने गर्दन उठा के उसको देखा, वो अकेला ही था!
मैंने अपना परिचय दे दिया!
"बस! बहुत हुआ, अब यहाँ से जा!" वो दहाड़ा!
"मै नहीं जाऊँगा!
"जाना होगा!" वो भर्रा के बोला,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो चिल्ला के बोला,
मैंने कुछ नहीं कहा,
और तभी मैंने उसके पीछे एक एक किरदार को देखा! खेचर! भाभरा, किरली, भामा, शामा और शाकुण्ड!
"जा अब यहाँ से?" उसने धमकाया!
"क्यों?" मैंने कहा,
वो भयानक अट्टहास लगाते हुए हंसा!
"ये मेरा स्थान है" उसने कहा,
"स्थान था, अब नहीं!" मैंने कहा,
वो चुप हुआ!
"प्राणों से मोह नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
वो हंसता था तो उसका बड़ा सा घड़ेनुमा पेट नृत्य सा करता था!
"जा, बहुत हुआ" उसने पलटते हुए कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर पलटा!
और अब उसने थूका मुझ पर! थूक मुझ तक आया! मेरी अलख काँप गयी, मेरी गोद में बैठने के लिए 'लालायित' हो गयी! वो सरंक्षण चाहती थी!
मैंने भी थूका उधर!
ये देख वो अब बौराया! गुस्से में चिल्लाया! उसकी चिल्लाहट से सभी किरदार लोप हो गए! रह गया केवल मै!
केवल मै!
अकेला!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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यमदूत! साक्षात यमदूत! मृत्यु का परकाला! सच में ही था वो नौमना! मैंने ऐसा विशाल देहधारी नहीं देखा था कभी!
हाँ, मै अकेला था वहाँ! नितांत अकेला! जैसे कोई बिल्ली जंगली श्वानों के बीच फंस जाए, पेड़ पर चढ़ जाए और अब न नीचे उतरे बन और न ऊपर ही चढ़े!
"सुन ओ लड़के!" उसने अपनी साँस को विराम देते हुए कहा,
"कहो बाबा नौमना" मैंने कहा,
"चला जा यहाँ से" वो बोला,
"मै नहीं जाऊँगा!" मैंने भी स्पष्ट मंशा ज़ाहिर कर दी,
वो फिर से बिसबिसा के हंसा!
"ठीक है, मरना चाहता है तो यही सही" उसने कहा,
अब वो आगे बढ़ा, मै थोडा सा घबराया!
उसने अपने दोनों हाथ आगे किये और एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर करके हाथ खोल दिए! मै उसी काशन अपने स्थान से करीब २ फीट उड़ा और धम्म से पीछे गई गया! कमर में चोट लगी, पीठ के बल गिरने से पत्थर पीठ में चुभ गए, हाँ खून आदि नहीं निकला, ऐसा ताप उस! मै हैरान था, मेरे रक्षा-मंत्र को भेद डाला था बाबा नौमना ने! कमाल था, हैरतअंगेज़ और अविश्वश्नीय! खैर मै फिर से खड़ा हुस और अपनी कंपकंपाती अलख के पास आया!
"अब जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
अब मै ज्वैपाल-विद्या का जाप किया, उसे जागृत किया, विद्या जागृत हुई और मेरी रक्षा हेतु मुस्तैद हो गयी! नही करता तो बार बार ऐसा करते वो मेरी कमर ही तोड़ देता!
"नही समझा?'' उसने कहा,
मै कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से वही मुद्रा अपनायी! दोनों हाथ आगे किये, मंत्र बुदबुदाये और मेरी और करके हाथ खोल दिए! मुझे झटका तो लगा लेकिन मै संभल गया! विद्या ने सम्भाल लिया, हाँ मेरी अलख की लौ मेरी गोद में शरण अवश्य लेने को आतुर हो गयी!
ये देख बाबा नौमना थोडा सा अचंभित हुआ! और फिर उसने अटटहास लगाया!
"ज्वैपाल!" उसने जैसे मजाक सा उड़ाया मेरा!
मै चुप!
कहने के लिए कुछ था ही नहीं मेरे पास!
"जा, छोड़ दिया तुझे!" उसने धिक्कार के कहा मुझे!
मै चुप!
"जा! अब नहीं आना यहाँ कभी, दो टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा मै!" मैंने कहा,
"ज़िद न कर!" उसने ऐसा कहा जैसे मुझे समझाया हो!
"कोई ज़िद नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"मान जा! वापिस चला जा!" उसने फिर से कहा,
"असम्भव है बाबा!" मैंने कहा,
कयों?" उसने पूछा,
"मै सत्य के मार्ग पर हूँ, मुझे कैसा डर?" केह ही दिया मैंने,
वो अब फट कर हंसा! खौफनाक हंसी उसकी!
"सत्य!" उसने हँसते हँसते कहा,
"हाँ बाबा सत्य" मैंने भी मोदन किया!
"दिखाता हूँ!" उसने कहा,
अब उसने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर एक वृत्त बना दिया! और फिर उसमे थूक दिया!
तभी उसकी क्रिया स्पष्ट हुई!
चौरासी डंक-शाकिनियां प्रकट हुईं! अपने शत्रु का भंजन करने हेतु!
अर्राया बाबा नौमना! बढ़ चलीं वे सभी मेरी तरफ!
मैंने तभी रिपुभान-चक्र का जाप किया और मै उसके सुरक्षा आवरण में खच गया! अब वे मेरा कुछ नहीं कर सकती थीं! जैसे एक गोश्त के टुकड़े पर सैंकड़ों चींटियाँ आ लिपटती हैं, वैसे ही वे सभी डंक-शाकिनियां मुझसे आ लिपटीं! रिपुभान-चक्र से जैसे उनके दांत भोथरे हो गए! वो एक एक करके लोप होती गयीं!
"वाह!" बोला बाबा नौमना!
ये व्यंग्य था या सराहना?
"वाह!" उसने कहा,
अब आप मेरी मनोस्थिति समझिये! मै नहीं जान पा रहा था कि ये प्रशंसा है या कोई व्यंग्य बाण!
"कौन है इस तेरा खेवक?" उसने पूछा,
खेवक! एक प्राचीन तांत्रिक-शब्द! अब प्रचलन में नहीं है!
मैंने अपने दादा श्री का नाम बता दिया उसका!
"बढ़िया खे गया तुझे! उसने कहा,
अब मुझे धन्यवाद कहना ही पड़ा!
"अब मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"जाने को मत कहना" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
"नहीं कह रहा!" उसने कहा,
"बोलिये" मैंने कहा,
"तेरे पास अभी वर्ष शेष हैं, सदुपयोग कर उनका!" वो बोला,
"वही कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा!" उसने कहा,
"मै कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"मेरा कहना नहीं मान रहा तू!" उसने कहा,
वाद-प्रतिवाद में निपुण था बाबा नौमना!
"मैं कैसे मान लूँ? जाऊँगा नहीं मैं" मैंने कहा!
"पछतायेगा!" वो बोला,
"मेरा भाग!" मैंने कहा,
"मै अब खेल नहीं खेलूंगा लड़के!" उसने कहा,
"मुझे पता है!" मैंने कहा,
अब कुछ अल्पविराम!
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वो आगे बढ़ा!
मैं वहीँ अलख पर डटा था, ईंधन डालकर और भड़का लिया था मैंने उसको!
विकराल बाबा नौमना भयानक लग रहा था! मेरी इहलीला का कभी भी भक्षण कर सकता था वो!
"अब देख लड़के!" वो चिल्ला के बोला,
मैं तो तैयार था!
उसने त्रिशूल आगे किया और उसपर से डमरू उतारा एक! उसने एक ख़ास मुद्रा में डमरू बजाया!
और ये क्या???
भूमि में से जगह जगह सर्प निकलने लगे! विषैले भुजंग! ये माया नहीं थी! सर्प कुंडली मार कर बैठ गए थे, मुझे घेर के!
मैंने तब सर्प-मोहिनी विद्या जागृत की, महामोचिनी विद्या का जाप भी किया लेकिन सर्प लोप नहीं हुए! अब प्राण संकट में थे! ये तो वज्रपात सा था!
नौमना बाबा ने फिर से डमरू बजाया, और डमरू बजाते हुए जिसे वे सर्प उसके हाथ की कठपुतलियां हों, ऐसे व्यवहार करते हुए आने लगे मेरी तरफ! उनकी फुफकार ऐसी कि जैसे कोई रस्सी खींची जा रही हो कुँए से, जिसके सहारे कोई बड़ी सी बाल्टी लटकी हो!
महामोचिनी विद्या प्रभावहीन हो गयी थी! अब मैंने गुरु-आज्ञा ली और सर्पकुंडा नामक कन्या का आह्वान किया! सर्पकुंडा प्रकट हुई, मैंने नमन किया और वे सर्प भाग के पीछे हटे! जैसे कोई दिव्य-नौल(नेवला) देख लिया हो!
सर्पकुंड आने नृत्य की भावभंगिमा में अपने दोनों पाँव थिरकाए और वे सर्प जहां से आये थे वहीँ घुस गए! मैंने मस्तक झुकाया सर्पकुंडा के समख और वो भन्न से लोप हुई!
ये देख सूजन सी आ गयी चेहरे पर नौमना बाबा के! उसका वो प्रपंच भेद डाला था मैंने!
वो बेहद गुस्सा हुआ! अपने गले की मालाएं तोड़ के फेंक दीं!
"नौमना बाबा!" मैंने हंसा अब!
हालांकि मेरी ये हंसी मेरी जीत की तो क़तई नहीं थी, बस पारिस्थितिक हंसी थी! हाँ बस यही!
"सुन लड़के?" उसने कहा,
"जी?" अब मैंने सम्मान सूचक शब्द कहा!
"क्या चाहिए तुझे?" उसने पूछा,
"आप जानते हैं" मैंने कहा,
"हम्म!" उसने कहा,
और फिर से डमरू उठा लिया, मैं आसान से खड़ा हो गया, कोई नयी विपदा आने वाली थी, निश्चित ही!
तभी आकाश से कुछ महाभीषण प्रेत प्रकट हुए, गले में त्रिकोण धारण किये हुए! मैं जान गया, ये वज्राल महाप्रेत हैं! किसी भी शक्ति से टकराने वाली वज्राल महाप्रेत, कुल सोलह!
"अब नहीं बचेगा तू लड़के!" खिलखिला के हंसते हुए कहा नौमना बाबा ने!
सोलह आने सच थी उसकी बात!
मेरे पास वज्राल से बचने का कोई सटीक उपाय नहीं था! हाँ, कोई घाड़ पास में होता आसान के स्थान पर होता तो मैं निपट लेता!
तभी एक युक्ति काम आयी! मैंने फ़ौरन अपने चाक़ू से अपना जिव्हा-भेदन किया और रक्त की कुछ बूँदें लीं, बूँदें अलख में डालीं, अलख भड़की, मेरे मंत्र ज़ारी थे! और वहाँ वज्राल बढ़ चले थे मेरी ओर!
तभी मैंने आमुंडनी का आह्वान किया! वज्राल थम गए वहीँ के वहीँ! और थम गया आंकेहन चौड़ी कर बाबा नौमना!
भड़भड़ाती हुई आमुंडनी प्रकट हुई! मेरी रुकी हुई साँसें फिर चलने लगीं!
मैंने नमन किया उसको! उसने प्रयोजन भांपा और वो चल पड़ी वज्राल महा प्रेत के समूह की ओर! वे भाग खड़े हुए! जहां थे वहीँ से ऊपर उड़ चले! मैंने एक एक को देखा! सभी के सभी नदारद हो गए! मेरे सम्मुख आयी आमुंडनी तो मैंने मस्तक झुका दिया, वो भन्न से लोप हो गयी! अब मैंने बाबा नौमना को देखा! वो धम्म से नीचे बैठ गया!
"बस बाबा?" मैंने कहा,
वो कुछ नहीं बोला!
"बाबा?" मैंने फिर से पुकारा!
अबकी बाबा ने एक माला मेरी ओर फेंक दी गले से उतार के!
मैं उठा और जाकर वो माला उठायी, ये माला इंसान के हाथ के पोरों की हड्डिओं की बनी थीं, उसमे बीच में मानव केश गुंथे हुए थे, डोर भी मानव-आंत से बनी थी!
"ये किसलिए बाबा?" मैंने पूछा,
"ये मेरा गुरु-माल है" उसने कहा,
हाथ काँप गए मेरे! जड़ हो गया शरीर! परखच्चे से उड़ने को तैयार मैं!
"किसलिए बाबा?" मैंने घुटनों पर बैठते हुए बोला,
"समय पूर्ण हुआ" उसने कहा,
"कैसा समय बाबा?" मैंने विस्मय से पूछा,
"तू जानता है" वो बोला,
"नहीं बाबा, मैं नहीं जानता" मैंने गर्दन हिलायी और माला अपनी छाती से लगायी!
"धारण कर ले इसे!" उसने कहा,
ओह! नौमना बाबा के गुरु की माला! मेरा अहोभाग्य! मैंने कांपते हाथों से माला धारण कर ली!
"बाबा डोम! वे हैं मेरे गुरु!" वो बोला,
कुछ आहट हुई!
मैंने आसपास देखा!
सभी मौजूद थे वहाँ!
सभी!
कुछ देखे और कुछ अनदेखे!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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वे सभी वहीँ खड़े थे, समूह में! शांत! जैसे बरसों से किसी की राह ताक़ रहे हों! जैसे कोई लेने आएगा उन्हें! जैसे भटकाव समाप्त!
शाकुण्ड सबसे पहले आये मेरे पास!
"उठ बेटा!" वे बोले,
मै मंत्र-मोहित सा उठ गया!
बरसों बीत गए हम प्रतीक्षा में!" वे बोले,
"प्रतीक्षा?" मैंने मन ही मन सोचा!
"हाँ, बरसों गुजर गए!" भाभर ने कहा,
मैंने भाभर को देखा!
संकुचाते हुए खड़ी थी वो!
"मै इसीलिए लिवा कर आया था तुम्हे!" खेचर ने कहा,
अब मै समझा!
भामा और शामा आगे आयीं अब! अपनी कटारें गिरा दीं ज़मीन पर, उनकी दुर्गन्ध, सुगंध में परिवर्तित हो गयी!
अब मेरी हिम्मत बढ़ चली! मै आगे बढ़ा! बाबा नौमना के पास! वो बैठा हुआ था, और बैठे हुए भी वो मेरे क़द के बराबर ही आ रहा था!
मैंने उसके समक्ष हाथ जोड़े! बहुत ऊंचा दर्ज़ा था बाबा नौमना का! बाबा नौमना मुस्कुराए!
"बादल छंट गए! अन्धकार मिट गया! आज!" वे बोले,
मुझे इतना सुकून! इतना सुकून कि जैसे मै उसका मद बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, अपना भार भी सहन नहीं कर पाऊंगा, गिर जाऊँगा भूमि पर! तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने, मैंने पीछे मुडकर देखा, ये बाबा भेरू था! मैंने प्रणाम किया, उसने प्रणाम स्वीकार किया! और मुस्कुराया!
"धन्य है तू और तेरा खेवक!" वो बोला!
मैंने गर्दन झुक कर स्वीकार किया!
"सुनो?" शाकुण्ड ने कहा,
"आदेश?" मैंने कहा,
"पिंजरा टूट गया, अब उड़ना है!" वे बोले,
मै मर्म समझ गया!
"अवश्य!" मैंने कहा,
मै पाँव छूने झुका बाबा शाकुण्ड के!
"नहीं" वे बोले,
मुझे समझ नहीं आया!
"अभी नहीं" वे बोले,
अब मै समझ गया!
"सुनो" ये नौमना बाबा की आवाज़ थी!
मै वहाँ गया!
"किरली का मंदिर निकालो" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"वहाँ हमारा स्थान बनाना" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"सभी का" वे बोले,
"अवश्य" मैंने गर्दन भी हिलाई ये कह के!
शान्ति! एक अजीब सी शान्ति!
"कुछ चाहिए?" बाबा भेरू ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गया बाबा भेरू!
"मै कल मंदिर निकलवाता हूँ बाबा नौमना!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"अब हम वहीँ मिलेंगे!" वे बोले,
"जैसी आज्ञा!" मैंने कहा और आँखें बंद कीं!
और जब आँखें खोलीं तो वहाँ कोई नहीं था!
मै अत्यंत भारी मन से लौट पड़ा अपनी अलख के पास! और बुक्का फाड़ के रोया! आंसू न थमे! मै रो रो के सिसकियाँ भरने लगा! और लेट गया! मै बाबा नौमना के प्रबाव में था! एक असीम सा सुख! एक अलग ही सुख!
मै होश खो बैठा!
बेहोश हो गया!
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