भूत प्रेतों की कहानियाँ

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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

Post by xyz »

लगता था जैसे किसी विशेष आयोजन हेतु चावल उबाले जा रहे हों! किसी महाभोज की तैय्यारियाँ चल रही हों! ये गंध मुझे ही नहीं, शर्मा जी को भी आई थी, तीक्ष्ण गंध थी बहुत! नथुनों के पार होते हुए अन्तःग्रीवा पर अपना स्वाद छोड़ते हुए! मै उन सीढ़ियों से ऊपर की तरफ चला, ये एक बड़ा सा शिलाखंड था, जो अब टूटा हुआ पड़ा था, तभी मुझे वहाँ किसी के खिलखिलाने की आवाजें आयीं! जैसे कई बालक किसी के पीछे शोर मचाते हुए घूम रहे हों और वो उनको समझा रहा हो! जैसे बालकों ने उसको उपहास का पात्र मान लिया हो! फिर अचानक से आवाज़ बंद हो गयी! वहाँ फिर से सन्नाटे की जो काई फटी थी, फिर से एक हो गयी! मै उस शिलाखंड से नीचे उतरा, और मेरे सामने खड़ा था खेचर!
मै ठिठक के खड़ा हो गया!
"अब जा यहाँ से" खेचर ने कहा,
"क्यों खेचर?" मैंने पूछा,
"बस, बहुत हुआ" वो गुस्से में बोला,
"क्यों? तू ही तो लाया था मुझे यहाँ?" मैंने कहा,
"नहीं, अब जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं तो?" मैंने पूछा,
"जान से जाएगा" वो बोला,
"भेरू मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
"फूंक देगा तुझे" वो बोला,
"आने दो उसको फिर!" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा?" उसने अब धमकाया मुझे!
"नहीं" मैंने कहा,
"तेरे भले के लिए कह रहा हूँ" उसने कहा,
"कोई आवश्यकता ही नहीं" मैंने कहा,
खेचर लोप हुआ! और मै अब सन्न! सन्न इसलिए की न जाने अब क्या हो आगे? कौन आये? भेरू अथवा नौमना बाबा!
मैंने अब त्वरित निर्णय लिया, गुरु-वन्दना कर मैंने महा-वपुरूप मंत्र का जाप किया! और फिर उस से अपने को और शर्मा भी को सशक्त किया! शक्ति-संचार हुआ, रोम-रोम खड़ा हो गया! और हम अब एक अभेद्य-ढाल में सुरक्षित हो गए!
मै वहाँ से आगे आया, कुछ दूर गया, तभी मेरे कंधे पर जैसे किसी ने हाथ रखा, ये वही औरत थी, भाभरा! उसने हाथ नहीं रखा था, बल्कि अपने केशों का बंधा हुआ चुटीला टकराया था मुझसे! उसने अपना हाथ आगे उठाया और बढाते हुए मेरी ओर किया, मैंने अपना हाथ आगे बाधा दिया और उसने अपने हाथ से मेरे हाथ में कुछ दे दिया, मैंने खोल का देखा, ये एक गंडा था, सोने से बना हुआ, काले रंग के धागे से गुंथा हुआ, मैंने सामने देखा, भाभरा नहीं थी वहाँ! वो जा चुकी थी!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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भाभरा सच में एक दयालु प्रेतात्मा थी, मै आज भी उसका सम्मान करता हूँ, उसने वो गंडा मेरी रक्षा हेतु दिया था, या यूँ कहिये कि उस गंडे ने मेरे मनोबल स्थिर रखा था! मुझे अभी भेरू बाबा और नौमना बाबा से भी मिलना था, अतः ये गंडा मेरे लिए किसी संजीवनी से कमतर नहीं था!
मैंने वो गंदा अपनी जेब में रखा और वहाँ से निकलने लगा, अब मुझे आवश्यक तैयारिया करनी थीं! समय आ पहुंचा था एक दूसरे को आंकने का! तोलने का! अतः मै और शर्मा जी वहाँ से फ़ौरन ही निकले, गाड़ी में बैठे और फिर हरि साहब के घर की ओर चल दिए!

हम घर पहुंचे, मई सीधे ही स्नान करने चला गया, और फिर शर्मा जी भी स्नान करने चे अगये, वे आये और मैंने फिर अपना बैग खोला, बैग में से अब सभी आवश्यक वस्तुएं बाहर निकालीं, और एक छोटे बैग में भर दीं, आज संध्या-समय इनमे शक्ति जागृत करनी थी, ये परम आवश्यक ही थी, ये ऐसे ही है किस जैसे किसी बन्दूक या राइफल को साफ़ करना!
अब हरि साहब से मैंने अधिक बातें नहीं कीं, उन्होंने भोजन के बारे में पूछा तो हमने हामी भरी और भोजन लगवा दिया गया, किसी प्रकार से भोजन हलक के नीचे उतारा और फिर हम विश्राम करने चले गये! दरवाज़ा भेड़ दिया था, और मै अब लेट गया, शर्मा जी कुर्सी पर बैठे आज का अखबार खंगालने लगे! अखबार अब एक ओर रख उन्होंने और मुझसे पूछा, "गुरु जी?"
"बोलो?" मैंने कहा,
"सोये तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं तो" मैंने कहा,
"मुझे कुछ समझाइये" वे बोले,
"पूछिए" मैंने कहा,
"भामा और शामा, ये पत्नियां हैं भेरू की" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो भेरू ने उनको बलि चढ़ाया बाबा नौमना के लिए" वे बोलते गए,
"हाँ" मैंने कहा,
"किस कारण से?" उन्होंने पूछा,
"स्पष्ट है, बाबा नौमना को प्रसन्न करने के लिए!" मैंने बताया,
"प्रसन्न किसलिए?" उन्होंने पूछा,
'शक्ति प्राप्त कने हेतु" मैंने कहा,
"अच्छा, तो भामा और शामा ही क्यूँ?" उन्होंने पूछा,
"अर्थात?" मै अब उठ खड़ा हुआ!
"कोई और भी हो सकता था उनके स्थान पर?" उन्होंने शंका का डंका बजा दिया!
"हाँ, हो सकता है ऐसा. परन्तु उन्होंने स्वयं बताया था कि नौमना बाबा को प्रसन्न करने के लिए" मैंने कहा,
"अच्छा, तो फिर ये खेचर? और उसकी पत्नी भाभरा?" उन्होंने पूछा,
"ह्म्म्म! ये तो बलि नहीं चढ़े!" मैंने कहा,
"इनका क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, ये तो नहीं पता चला अभी" मैंने कहा,
"जहां तक ये सवाल है,वहाँ तक उसका जवाब भी उलझा हुआ है गुरु जी" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"देखा जाए तो खेचर और भाभरा ने अभी तक हमारी मदद ही कि है, वो गंडा भी भाभरा ने आपको दे दिया, है या नहीं?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"ये मदद किसलिए?" उन्होंने पूछा,
"शायद मुक्ति के लिए?" मैंने पूछा,
"हाँ, संभव है ये, लेकिन मैंने सोचा, किसी प्रतिकार के लिए" वे बोल गए,
मुझे जैसे विद्युत् का झटका लगा!
"प्रतिकार? कैसा प्रतिकार?" मैंने पूछा,
"मदद? कैसी मदद?" वे बोले,
धम्म! जैसे में मुंह के बल गिरा ज़मीन पर!
बात में दम था! अवश्य ही ये भी एक गूढ़ रहस्य ही था! मदद! कैसी मदद??
"आपको क्या लगता है?" मैंने पूछा,
"अभी कुछ और परतें शेष हैं" वे बोले,
"यक़ीनन!" मैंने कहा,
और सच में, अभी भी कई परतें थीं वहाँ खोलने के लिए!
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सच कहा था शर्मा जी ने, परतें तो बहुत थीं इस मामले में! और न जाने कितने परतें बाकी थीं खुलने में!
"चलिए शर्मा जी, अब ये भी जानते हैं की भेरू बाबा कब आ रहा है!" मैंने कहा,
"ये कौन बताएगा?" उन्होंने पूछा,
"खेचर या भामा और शामा, कोई भी इन में से!" मैंने कहा,
"अर्थात आज रात फिर से खेत पर जाना होगा" वे बोले,
"हाँ, जाना तो होगा ही" मैंने कहा,
"ठीक है, अब इस कहानी का रहस्योद्घाटन कर दीजिये गुरु जी!" वे बोले,
"आज यही प्रयास करूँगा" मैंने कहा,
उसके बाद हम लेट गए, थकावट हो चली थी सो थोड़ी देर के विश्राम के लिए आँखें बंद कीं और फिर कुछ ही देर में सो गए हम!
जब नींद टूटी तो शाम के छह बजे थे, नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया था, वो चाय ले आया था, साथ में हरि साहब भी थे, नौकर ने चाय टेबल पर रखी और हमने एक एक कप उठा लिया, चुस्की लेते हुए, नींद की खुमारी तोड़ते रहे!
अब शर्मा जी ने हरि साहब से कह दिया की क़य्यूम भाई से कह दीजिये की रात में खेतों पर जाना है हमको, आज एक क्रिया भी करनी है वहाँ, सो सामान भी मंगवाना है कुछ, शर्मा जी ने सामान लिखवा दिया, इसमें मांस, शराब आदि सामग्रियां थीं, आज मुझे वहाँ क्रिया करनी पड़ सकती थीं, आज भेरू को जगाना था!
और इस तरह से रात दस बजे का वक़्त मुक़र्रर हो गया! हरि साहब वो परचा लेकर बाहर चले गए और मै और शर्मा जी टहलने के लिए अपने अपने जूते पहन, बाहर निकल गए!
हम करीब आधे-पौने घंटे टहले होंगे तभी फ़ोन आया हरि साहब का, शर्मा जी ने फ़ोन उठाया, शर्मा जी को हरि साहब ने बताया कि वे लोग घर आ चुके हैं और अब हम भी वहाँ पहुँच जाएँ, हम अब वापिस हो लिए थे, घर आये तो सामान का प्रबंध हो गया था!
अब मुझे अपनी सामग्री और सामान व्यवस्थित करना था, मैंने अपना त्रिशूल और कपाल-कटोरा उसी छोटे बैग में रख लिया, और कुछ और भी तांत्रिक-वस्तुएं थीं जो मैंने रख ली थीं!
धीरे धीरे घंटे गुजरे आयर बजे दस! सब वहीँ बैठे थे सो हम एक दम से उठे और सीधा गाड़ी में जा बैठे, गाड़ी दौड़ पड़ी खेतों की तरफ!
हम खेत पहुँच गए, मैंने सामान उठाया और शनकर के कोठरे पर सामान रख दिया, वहाँ से एक बड़ी टोर्च ली और मै वहाँ से उन सभी को बिठा कर शर्मा जी को साथ लेकर एक अलग ही स्थान पर चला गया, हाँ बुहारी ले ली थी मैंने शंकर से, मैंने एक पेड़ के नीचे एक जगह बुहारी लगाई, जगह साफ़ की, और फिर अपना बैग रख दिया, एक एक करके मैंने सारा सामान वहाँ रख दिया तरतीब से! अपने शरीर पर भस्म मली, शर्मा जी के माथे और छाती पर भस्म-लेप लगा दिया! ये प्रश्न-क्रिया थी, अतः मैंने शर्मा जी को अपने साथ बिठा लिया था!
अब मैंने अलखदान निकाला, और उसको अपने सामने रख दिया, उसमे सामग्री डाली और फिर अग्नि उसके मुख पर विराजमान कर दी! अलख-घोष किया और अलख चटाख-पटाख की आवाज़ के साथ जोर पकडती चली गयी! एक थाल में मांस और मदिरा रख ली, कुछ गैंदे के फूल भी रख दिए वहाँ और अब दो कपाल-कटोरे निकाले! एक शर्मा जी को दिया और एक मैंने स्वयं लिया, उनमे मदिरा परोसी और सबसे पहले अलखभोग दिया! एक अट्टहास किया! त्रिशूल बाएं भूमि में गाड़ दिया और औघड़-कलाप आरम्भ हो गया वहाँ! कपाल-कटोरे से मै और शर्मा जी मदिरा के घूँट हलक से नीचे उतारते चले गए! साथ ही साथ कलेजी के कच्चे टुकड़े चबाते चले गए!
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मैंने अब कलुष-मंत्र का संधान किया और अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! दृश्य स्पष्ट हुआ सामने का! मैंने कलेजी का एक टुकड़ा निकाला और कछ खाया, और फिर हाथ में निकाल लिया, एक मंत्र पढ़ते हुए पुनः लील गया उसको! इस से वो मंत्र मेरे अन्दर समाहित हो गया! मेरे शरीर और मस्तिष्क में एकाग्रचित होने का भाव उत्पन्न हो गया! अन मात्र लक्ष्य और केवल लक्ष्य!
मै औघड़ी मुद्रा में खड़ा हुआ! त्रिशूल लिया और भेरू बाबा का आह्वान किया!
"आओ भेरू!" मैंने कहा,
नृत्य-मुद्रा में आया!
"आओ भेरू!" मैंने फिर से कहा,
कोई नहीं आया!
"आ भेरू?" मैं गर्राया!
कोई नही आया!
अभी मै उसको पुकारता कि वहाँ एक औघड़ सा प्रकट हुआ, गले में नेत्र-बिम्बों की माला पहने! बिम्ब-माल! बंगाल का अभेद्य तंत्र! कामरूप का सुदर्शन!
"कौन है तू?" वो दहाड़ा!
"जा! भेरू को बुला!" मैंने कहा,
"उत्तर दे, कौन है तू?" उसने कहा,
"जा, भेज उसे!" मै भी गरजा!
"क्यों मरने चला आया है यहाँ?" उसने हाथ के इशारे से कहा, उसके हाथ से कुछ रक्त की बूँदें छिटक कर मेरी ओर आई, मेरे मुख पर पड़ीं!
"सुन! जा, भेज भेरू को!" मैंने कहा,
उसने मुझे अपशब्द कहे! मै यही चाहता था, उसको भड़काना! वो भड़क गया था!
"तू जानता है मै कौन हूँ?" उसने छाती पर हाथ मारते हुए कहा,
"मै नहीं जानना चाहता, जा भेज अपने बाप भेरू को!" मैंने कहा,
"खामोश!" वो चिल्लाया!
"जा, अब निकल यहाँ से, बुला भेरू को!" मैंने कहा, धिक्कारा उसे!
"बस! बहुत हुआ! तूने शाकुण्ड को ललकारा है! टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
शाकुण्ड! तो ये शाकुण्ड औघड़ है!
तभी मेरे चारों ओर अग्नि-चक्रिका प्रकट हुई, उसका बंध धीरे धीरे कम होता जा रहा था, मैंने फ़ौरन ही ताम-मंत्र का जाप कर उसको जागृत किया, अग्नि-चक्रिका मुझे छोटे ही लोप हो गयी! ये देख शाकुण्ड की भृकुटियाँ तन गयीं! जैसे किसी दुर्दांत क्रोधित सर्प ने किसी पर वार किया हो और वार खाली चला जाए!
अब मैंने अट्टहास लगाया!
शाकुण्ड ने मायाधारी, सर्प, कीड़े-मकौड़े और न जाने क्या क्या बनैले जीव-जंतु प्रकट किये, लेकिन ताम-मंत्र ने सबका नाश कर दिया!
शाकुण्ड आगे आया!
"कौन है तू?" उसने अब धीमे स्वर में पूछा,
मैंने उसको अपना और अपने दादा श्री का परिचय दे दिया!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने पूछा,
"मुक्त! कुक्त करने आया हूँ!" मैंने कह ही दिया!
"किसे?" उसने पूछा,
"सभी को, जो यहाँ इस भूमि-खंड में फंसे रह गए हैं!" मैंने कहा,
"ये इतना सहज नहीं!" उसने कहा,
"मै जानता हूँ, आगे न जाने कितने शाकुण्ड मिलने हैं मुझे!" मैंने कहा,
"सुन! लौट जा यहाँ से!" उसने फिर से मंद स्वर में कहा,
"नहीं शाकुण्ड बाबा!" मैंने कहा,
"समझ जा!" उसने कहा,
"नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे? मांग क्या मांगता है?" उसने कहा,
"आपका धन्यवाद शाकुण्ड बाबा! मै धन्य हुआ!" मैंने कहा,
शाकुण्ड हंसा!
"भेरू बाबा को भेजो बाबा!" मैंने कहा,
'वो यहाँ नहीं है!" उसने बताया,
"तो फिर?" मैंने कहा,
"बाबा नौमना के पास है!" शाकुण्ड ने कहा,
"मै वहीँ जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना! अवश्य ही जाना! परन्तु चौदस को!" वो बोल,
फ़ौरन मै समझ गया कि क्यों चौदस!
"जी बाबा!" मैंने कहा,
और फिर मेरे देखते ही देखते शाकुण्ड बाबा भूमि में समा गए!
मै बैठ गया आसन पर!
चौदस कल थी! पंचांग के हिसाब से दिन में ५ बज कर १३ मिनट से आरम्भ था उसका, पहला करण तीक्ष्ण था और दूसरा मृदु, अतः दूसरे करण में ही जाना उचित था! ये प्रेतमाया थी! एक से एक बड़े शक्तिशाली प्रेत थे यहाँ! और न जाने कितने अभी आये भी नहीं थे!
मै बैठा और कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी! और कच्चे मांस का आनंद लिया! तभी वहाँ एक अट्टहास गूंजा! ये खेचर था! सामने उकडू बैठा हुआ!
"बहुत ज़िद्दी है तू!" उसने कहा,
"ये तो कल देखना खेचर!" मैंने कहा!
खेचर अट्टहास लगाते ही लोप हो गया! और मैंने कपाल-कटोरा रिक्त कर दिया!
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अब मैंने वहाँ से अपना सामान-सट्टा उठाया और अलख को वहीँ छोड़ दिया, अलखदान मै सुबह उठा सकता था, अतः अलख वहीँ छोड़ दी मैंने भड़कती ही, बाकी सारा सामान इकट्टा कर मै और शर्मा जी वहाँ से वापिस हो लिए!
वहां वे सभी हमारी चिंता में लगे थे, हमे कुशल से देख प्रसन्न हुए और फिर हम अब चल पड़े वहाँ से, हरि साहब के घर! आज रात विश्राम करना था और कल फिर रात्रिकाल में एक गंभीर टकराव होना था, देखना था ऊँट किस करवट बैठता है!
हम घर पहुँच गए, नहाए धोये और फिर विश्राम करने के लिए कमरे में आ गए, भोजन कर ही लिया था सो भोजन की मनाही की और सीधा बिस्तर में कूद गए! नशा छाया हुआ था! शाकुण्ड के बातें रह रह के याद आने लगी थीं! मेरे मस्तिष्क पटल पर एक एक का रेखाचित्र गढ़ता चला गया! अब दो शेष थे, एक भेरू बाबा और एक बाबा नौमना!
नींद से खूब ज़द्दोज़हद हुई और आखिर नींद को लालच देकर पटा ही लिया! अंकशायिनी बनने को सहर्ष तैयार हो गयी और मै उसके आलिंगन में ढेर हो गया!
सुबह नींद खुली तो सात बज चुके थे, शर्मा जी उठ चुके थे और कमरे में नहीं थे, गौर किया तो उनकी और हरि साहब की बातें चल रही थीं, बाहर बैठे थे दोनों ही! मै उठा, अंगड़ाइयां लीं और फिर नहाने का मन बनाया, नहाने गया, वहाँ से फारिग हुआ और फिर कपडे पहन कर वापिस आ गया, और कमरे से बाहर निकला, हरि साहब और शर्मा जी से नमस्कार हुई और फिर वहाँ बिछी एक कुर्सी पर मै बैठ गया, सामने पड़ा अखबार उठाया, चित्र आदि का अवलोकन किया और फिर रख दिया अखबार वहीँ, अब तक चाहि आ गयी, चाय पी, नाश्ता भी किया और फिर यहाँ वहाँ की बातें चलती रहीं!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"आप हरि साहब को आज का सामान लिखवा दीजिये" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब मै उठा वहाँ से और कमरे में आ गया, फिर से लेट गया, तभी थोड़ी देर बाद वहाँ शर्म जी आ गए,
"लिखवा दिया सामान?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"दोपहर तक मिल जाना चाहिए" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"ठीक" मैंने कहा,
"आज खेतों में तो कोई काम नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, आज वहाँ कोई काम नहीं" मैंने कहा,
"तो सीधे वहीँ जाना है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"आज बहुत मुश्किल रात है" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ" वे बोले,
मैंने करवट बदली और दूसरी ओर मुंह कर लिया,
शर्मा जी भी लेट गए अपने बिस्तर पर,
"आज मै आपको अपने साथ नहीं बिठाऊंगा, हाँ मुझे नज़र में ही रखना" मैंने कहा,
"अवश्य गुरु जी" वे बोले,
हम बातें करते रहे निरंतर, एक दो फ़ोन भी आये दिल्ली से, बात हुई और फिर से यहीं का घटनाक्रम आगे आकर खड़ा हो गया सामने!
घंटे पर घंटे बीते, कभी उठ जाते कभी एक आद झपकी ले लेते! और आखिर ७ बज गए! तिथि का प्रथम करण आरम्भ हो गया था, दूसरा आने में अभी समय बाकी था, मैंने पुनः सामान की जांच की, सब कुछ सही पाया, कुछ मंत्र भी जागृत कर लिए और अब मै मुस्तैद हो गया!
रात्रि समय ठीक साढ़े ग्यारह बजे हम निकल पड़े वहीँ उसी भेरू बाबा के स्थान की ओर! आज की रात भयानक थी, अत्यंत भारी, पता नहीं कल सूर्या को सिंहासनरूढ़ कौन देखने वाला था!
हिचकोले खाती गाड़ी ले चली हम को वहीँ के लिए, इंच, मीटर और फिर किलोमीटर तय करते करते हम पहुँच गए वहाँ!
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