भूत प्रेतों की कहानियाँ

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xyz
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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मै वापिस आया, सीधे शर्मा जी और हरि साहब के पास, शर्मा जी वहाँ से उठ कर मुझे देख आगे आये, मैंने कहा, "इनसे बोलिए कि हमको आज फिर उसी स्थान पर जाना है जहां आज गए थे, पुराने मंदिर के पास, अब कि बार नदी पार करनी है"
"अभी कह देता हूँ" वे बोले,
और फिर शर्मा जी ने सारी बात उनको बता दी, वे तैयार हो गए और हम सब गाड़ी में बैठ, चल पड़े वहां से, नौमना बाबा का स्थान देखने!
"कोई सुराग हाथ लगा है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ, ये सुराग ही है" मैंने कहा,
गाड़ी सर्राटे से भागी जा रही थी नदी की तरफ!
"क्या मसला है गुरु जी?" हरि साहब बे पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और खतरनाक मसला है हरी साहब, सही वक़्त पर मै आ गया, नहीं तो यहाँ कोई अनहोनी हो जाती" मैंने कहा,
"अरे बाप रे" उनके मुंह से निकला,
"सही वक़्त पर आ गया मै" मैंने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी, ऐसे ही सर पर हाथ रखे रहें" वे बोले,
"अभी कहानी आरम्भ हुई है, अंत कहाँ है ये मुझे अब भी नहीं पता हरी साहब" मैंने कहा,
"अब आप है यहाँ, अब कोई चिंता नहीं" हरी साहब हाथ जोड़ कर बोले,
मै चुप रहा, कुछ नहीं बोला,
हमको नदी के पार जाना था, अतः एक नया ही रास्ता लिया गया था, और किसी तरह करके हम वहाँ पहुँच गए, पथरीले रास्ते पर गाड़ी भागने लगी, भागने क्या, हिचकोले खाती हुई अपनी मजबूती का इम्तिहान देने लगी थी!
और हम वहाँ पहुँच गए जहां जाना था, यहाँ खंडहर थे, काफी विशाल क्षेत्र था, निर्जन, किसी समय में जगमग रहने वाला आज निर्जन पड़ा था, शहर से दूर, परित्यक्त, अब वहाँ इंसानों का बसेरा नहीं, कीड़े-मकौडों और साँपों आदि का स्वर्ग था ये अब! मैंने वो खंडहर देखे अपने किसी समय में भव्य होने के प्रमाण शेष बचे भग्नावशेषों से पता चल रहा था! मै आगे बढ़ा और अपने साथ शर्मा जी को लिया, बाकी उन दोनों को गाड़ी में ही बैठने को कह दिया, वे गाड़ी में बैठ गए!
"आइये" मैंने शर्मा जी से कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
हम दोनों आगे बढ़ चले,
"तो ये है नौमना बाबा का स्थान!" मैंने कहा,
मै आगे चला,
आगे दो काले सर्प-युगल प्रणय में सलिंप्त थे, मैंने हाथ जोड़े और अपना मार्ग बदल लिया, वे प्रणय में ही व्यस्त रहे, मै अपने दूसरे मार्ग पर प्रशस्त हो गया, आगे चलता रहा, शर्मा जी को हाथ के इशारे से आगे बुलाया, वे आगे आ गए,
"यहाँ कुछ अजीब दिख रहा है?" मैंने पूछा,
"क्या अजीब?" उन्होंने आसपास देख कर कहा,
"यहाँ ये जो खंडहर हैं छोटे छोटे, ये आठ हैं, एक दूसरे से कराब पचास-पचास मीटर दूर, और हम अब मध्य भाग में हैं, सभी की दूरी यहाँ से लगभग समान है!" मैंने कहा,
"अरे हाँ!" वे बोले,
तभी मैंने शर्मा जी का कन्धा पकड़ते हुए एक तरफ खींच लिया, वहाँ से एक गोह गुजर रही थी, मुंह में एक पक्षी को लिए हुए!
"गोह" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"हाँ, तो देखा ये स्थान?" मैंने अपनी बात वहीँ से आरम्भ की जहां छोड़ी थी!
"हाँ, लेकिन अजीब नहीं है इसमें कुछ?" वे बोले,
"अब देखो, अज से चार सौ वर्ष पहले ये बरसाती नदी भी यही होगी, या कहीं आसपास बहती होगी, उसमे बढ़ भी आती होगी, तो बाढ़ आने के खतरे से बचने के लिए यहाँ ये भवन निर्माण कैसे किया होगा?" मैंने पूछा,
"हां" वे बोले,
"तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम किसी या तो उस समय की पहाड़ी या किसी ऊंचे टीले पर खड़े हैं आज वर्तमान में" मैंने बताया,
"हाँ, संभव है" वे बोले,
अभी मै बात आगे बढाता कि मुझे वहाँ किसी की पदचाप सुनाई दी, तेज तेज क़दमों से कोई चहलकदमी कर रहा था! लेकिन दिख नहीं रहा था, मैंने तभी कलुष मंत्र का संधान कर अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! आँखें खोलीं तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया! मैंने आगे पीछे देखा, कोई नहीं था, तभी शर्मा जी ने कुछ देखा और चुटकी मार कर मेरा ध्यान उस तरफ किया! मैंने वहीँ देखा, ये सीढियां थीं, और उस पर बीच में से चिरी एक औरत थी, वो कलेजे तक चिरी हुई थी, अङ्ग बाहर निकल कर झूल रहे थे, उसका आधा हिस्सा आगे और आधा हिस्सा पीछे ढुलक रहा था! उसके हाथ में एक थाल सा कोई बर्तन था,
"भाग जाओ!" एक आवाज़ आई!
मैंने चारों तरफ से देखा, कोई नहीं था वहाँ, बस वही चिरी हुई औरत थी जो सीढ़ियों पर खड़ी थी! और वो बोल नहीं सकती थी!
"कौन है?" मैंने चिल्ला के पूछा,
"भाग जाओ यहाँ से" फिर आवाज़ आई,
"कौन है, सामने आओ?" मैंने भी चिल्ला के कहा,
तभी उस औरत ने थाल मेरी तरफ फेंका, थाल में सूखी हुई अस्थियाँ, और मछलियाँ पड़ी थीं!
"भाग जाओ!" फिर से आवाज़ आई!
लेकिन वहाँ कोई नहीं था, कोई नहीं आया!
वहाँ केवल हम तीन ही थे!
रहस्य के गुरुत्वाकर्षण से मेरे पाँव जैसे भूमि में समा गए थे!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई,
"जो भी है, सामने आये" मैंने कहा,
कुछ पल शांति!
"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई, इस बार आवाज़ पीछे से आई थी, हम दोनों ने फ़ौरन ही पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था, एक जंगली पेड़ था वहाँ और कुछ बड़े बड़े पत्थर, और कुछ भी नहीं, और कुछ था भी तो कलुष-मंत्र की जद में नहीं था वो!
अब मैंने सामने देखा, चिरे हुए सर वाली औरत भी गायब थी और वो थाल और सूखी हुई अस्थियाँ और मछलियाँ भी!
"यहाँ एक गंभीर खेल खेला जा रहा है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी" उन्होंने कहा,
"कोई हमे यहाँ से भगा देना चाहता है, लेकिन मै नहीं हटने वाला!" मैंने कहा,
"कौन है यहाँ?" अब शर्मा जी ने आवाज़ लगाई,
मैंने आसपास एख, कोई नहीं था वहाँ!
सहसा, हवा में से एक पाँव गिरा, एक कटा हुआ पाँव, पाँव में पायजेब थी, अतः ये पाँव किसी स्त्री का था, घुटने से नीचे तक कटा हुआ! बिलकुल मेरे सामने! मै और शर्मा जी पीछे हट गए!
तभी एक और पाँव गिरा, ये दूसरा पाँव था, उसी स्त्री का, पायजेब पहले, दोनों पाँव एक दूसरे से साथ सट गए थे!
"भाग जाओ यहाँ से!" अबकी बार एक औरत का स्वर सुनाई दिया!
"मै नहीं जाऊँगा, मै नहीं डरता, सामने आओ मेरे, सम्मुख बात करो मुझसे!" मैंने अब ज़िद में आकर कहा,
दोनों कटे पाँव गायब हुए उसी क्षण और मेरे समाख एक नग्न स्त्री प्रकट हो गयी, उसके शरीर पैर न कोई आभूषण था, नो कोई रक्त के निशान बस उसकी छाती पर ऊपर गले से नीचे एक गोदना था, ये गोदना ऐसा था जैसे किसी का परिचय लिखा गया हो, वो स्त्री बहुत सुंदर और शांत थी, मुझे भी भय नहीं लगा उस से! ना जाने क्यों!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भाभरा" उसने मंद स्वर में कहा,
"कौन भाभरा?" मैंने पूछा,
"खेचरी" उसने कहा,
अब मै समझ गया, खेचर की औरत! उसकी पत्नी!
मैंने उसको ऊपर से नीचे तक देखा!
लम्बा-चौड़ा बदन, बलिष्ठ एवं गौर-वर्ण, अत्यंत रूपवान! उसकी भुजाएं मेरी भुजाओं से भी अधिक मोटी और बलशाली थीं!
"जाओ, चले जाओ यहाँ से" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा आने वाला है" उसने बताया,
"तो?" मैंने पूछा,
"वो काट देगा तुमको" वो बोली,
"क्यों काटेगा?" मैंने पूछा,
"उसको अन्य कोई सहन नहीं यहाँ, उसके स्थान पर" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"मुझे जानती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कौन हूँ मै?" मैंने पूछा,
उसने मेरे सब आगा-पीछा बता दिया!
"मै कहीं नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"व्यर्थ में हलाक़ कर दिए जाओगे" वो बोली,
"देखते हैं" मैंने कहा,
"मान जाओ, चले जाओ" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने में आँखों में देखा, जैसे कोई दया का भाव हो उसकी आँखों में, मै जान रहा था परन्तु मै जानना नहीं चाहता था! मुझे भेरू से मिलना था!
मेरे देखते ही देखते भाभरा लोप हो गयी!
"भाभरा!" मैंने कहा,
अब मै आगे बढ़ा, उन्ही सीढ़ियों पर, सीढ़ी पर जैसे ही आया मुझे चावल उबलने की गंध आई, बेहद तेज, जैसे बड़ी मात्र में चावल उबाले जा रहे हों!
मै आगे बढ़ गया!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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लगता था जैसे किसी विशेष आयोजन हेतु चावल उबाले जा रहे हों! किसी महाभोज की तैय्यारियाँ चल रही हों! ये गंध मुझे ही नहीं, शर्मा जी को भी आई थी, तीक्ष्ण गंध थी बहुत! नथुनों के पार होते हुए अन्तःग्रीवा पर अपना स्वाद छोड़ते हुए! मै उन सीढ़ियों से ऊपर की तरफ चला, ये एक बड़ा सा शिलाखंड था, जो अब टूटा हुआ पड़ा था, तभी मुझे वहाँ किसी के खिलखिलाने की आवाजें आयीं! जैसे कई बालक किसी के पीछे शोर मचाते हुए घूम रहे हों और वो उनको समझा रहा हो! जैसे बालकों ने उसको उपहास का पात्र मान लिया हो! फिर अचानक से आवाज़ बंद हो गयी! वहाँ फिर से सन्नाटे की जो काई फटी थी, फिर से एक हो गयी! मै उस शिलाखंड से नीचे उतरा, और मेरे सामने खड़ा था खेचर!
मै ठिठक के खड़ा हो गया!
"अब जा यहाँ से" खेचर ने कहा,
"क्यों खेचर?" मैंने पूछा,
"बस, बहुत हुआ" वो गुस्से में बोला,
"क्यों? तू ही तो लाया था मुझे यहाँ?" मैंने कहा,
"नहीं, अब जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं तो?" मैंने पूछा,
"जान से जाएगा" वो बोला,
"भेरू मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
"फूंक देगा तुझे" वो बोला,
"आने दो उसको फिर!" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा?" उसने अब धमकाया मुझे!
"नहीं" मैंने कहा,
"तेरे भले के लिए कह रहा हूँ" उसने कहा,
"कोई आवश्यकता ही नहीं" मैंने कहा,
खेचर लोप हुआ! और मै अब सन्न! सन्न इसलिए की न जाने अब क्या हो आगे? कौन आये? भेरू अथवा नौमना बाबा!
मैंने अब त्वरित निर्णय लिया, गुरु-वन्दना कर मैंने महा-वपुरूप मंत्र का जाप किया! और फिर उस से अपने को और शर्मा भी को सशक्त किया! शक्ति-संचार हुआ, रोम-रोम खड़ा हो गया! और हम अब एक अभेद्य-ढाल में सुरक्षित हो गए!
मै वहाँ से आगे आया, कुछ दूर गया, तभी मेरे कंधे पर जैसे किसी ने हाथ रखा, ये वही औरत थी, भाभरा! उसने हाथ नहीं रखा था, बल्कि अपने केशों का बंधा हुआ चुटीला टकराया था मुझसे! उसने अपना हाथ आगे उठाया और बढाते हुए मेरी ओर किया, मैंने अपना हाथ आगे बाधा दिया और उसने अपने हाथ से मेरे हाथ में कुछ दे दिया, मैंने खोल का देखा, ये एक गंडा था, सोने से बना हुआ, काले रंग के धागे से गुंथा हुआ, मैंने सामने देखा, भाभरा नहीं थी वहाँ! वो जा चुकी थी!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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भाभरा सच में एक दयालु प्रेतात्मा थी, मै आज भी उसका सम्मान करता हूँ, उसने वो गंडा मेरी रक्षा हेतु दिया था, या यूँ कहिये कि उस गंडे ने मेरे मनोबल स्थिर रखा था! मुझे अभी भेरू बाबा और नौमना बाबा से भी मिलना था, अतः ये गंडा मेरे लिए किसी संजीवनी से कमतर नहीं था!
मैंने वो गंदा अपनी जेब में रखा और वहाँ से निकलने लगा, अब मुझे आवश्यक तैयारिया करनी थीं! समय आ पहुंचा था एक दूसरे को आंकने का! तोलने का! अतः मै और शर्मा जी वहाँ से फ़ौरन ही निकले, गाड़ी में बैठे और फिर हरि साहब के घर की ओर चल दिए!

हम घर पहुंचे, मई सीधे ही स्नान करने चला गया, और फिर शर्मा जी भी स्नान करने चे अगये, वे आये और मैंने फिर अपना बैग खोला, बैग में से अब सभी आवश्यक वस्तुएं बाहर निकालीं, और एक छोटे बैग में भर दीं, आज संध्या-समय इनमे शक्ति जागृत करनी थी, ये परम आवश्यक ही थी, ये ऐसे ही है किस जैसे किसी बन्दूक या राइफल को साफ़ करना!
अब हरि साहब से मैंने अधिक बातें नहीं कीं, उन्होंने भोजन के बारे में पूछा तो हमने हामी भरी और भोजन लगवा दिया गया, किसी प्रकार से भोजन हलक के नीचे उतारा और फिर हम विश्राम करने चले गये! दरवाज़ा भेड़ दिया था, और मै अब लेट गया, शर्मा जी कुर्सी पर बैठे आज का अखबार खंगालने लगे! अखबार अब एक ओर रख उन्होंने और मुझसे पूछा, "गुरु जी?"
"बोलो?" मैंने कहा,
"सोये तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं तो" मैंने कहा,
"मुझे कुछ समझाइये" वे बोले,
"पूछिए" मैंने कहा,
"भामा और शामा, ये पत्नियां हैं भेरू की" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो भेरू ने उनको बलि चढ़ाया बाबा नौमना के लिए" वे बोलते गए,
"हाँ" मैंने कहा,
"किस कारण से?" उन्होंने पूछा,
"स्पष्ट है, बाबा नौमना को प्रसन्न करने के लिए!" मैंने बताया,
"प्रसन्न किसलिए?" उन्होंने पूछा,
'शक्ति प्राप्त कने हेतु" मैंने कहा,
"अच्छा, तो भामा और शामा ही क्यूँ?" उन्होंने पूछा,
"अर्थात?" मै अब उठ खड़ा हुआ!
"कोई और भी हो सकता था उनके स्थान पर?" उन्होंने शंका का डंका बजा दिया!
"हाँ, हो सकता है ऐसा. परन्तु उन्होंने स्वयं बताया था कि नौमना बाबा को प्रसन्न करने के लिए" मैंने कहा,
"अच्छा, तो फिर ये खेचर? और उसकी पत्नी भाभरा?" उन्होंने पूछा,
"ह्म्म्म! ये तो बलि नहीं चढ़े!" मैंने कहा,
"इनका क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, ये तो नहीं पता चला अभी" मैंने कहा,
"जहां तक ये सवाल है,वहाँ तक उसका जवाब भी उलझा हुआ है गुरु जी" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"देखा जाए तो खेचर और भाभरा ने अभी तक हमारी मदद ही कि है, वो गंडा भी भाभरा ने आपको दे दिया, है या नहीं?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"ये मदद किसलिए?" उन्होंने पूछा,
"शायद मुक्ति के लिए?" मैंने पूछा,
"हाँ, संभव है ये, लेकिन मैंने सोचा, किसी प्रतिकार के लिए" वे बोल गए,
मुझे जैसे विद्युत् का झटका लगा!
"प्रतिकार? कैसा प्रतिकार?" मैंने पूछा,
"मदद? कैसी मदद?" वे बोले,
धम्म! जैसे में मुंह के बल गिरा ज़मीन पर!
बात में दम था! अवश्य ही ये भी एक गूढ़ रहस्य ही था! मदद! कैसी मदद??
"आपको क्या लगता है?" मैंने पूछा,
"अभी कुछ और परतें शेष हैं" वे बोले,
"यक़ीनन!" मैंने कहा,
और सच में, अभी भी कई परतें थीं वहाँ खोलने के लिए!
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सच कहा था शर्मा जी ने, परतें तो बहुत थीं इस मामले में! और न जाने कितने परतें बाकी थीं खुलने में!
"चलिए शर्मा जी, अब ये भी जानते हैं की भेरू बाबा कब आ रहा है!" मैंने कहा,
"ये कौन बताएगा?" उन्होंने पूछा,
"खेचर या भामा और शामा, कोई भी इन में से!" मैंने कहा,
"अर्थात आज रात फिर से खेत पर जाना होगा" वे बोले,
"हाँ, जाना तो होगा ही" मैंने कहा,
"ठीक है, अब इस कहानी का रहस्योद्घाटन कर दीजिये गुरु जी!" वे बोले,
"आज यही प्रयास करूँगा" मैंने कहा,
उसके बाद हम लेट गए, थकावट हो चली थी सो थोड़ी देर के विश्राम के लिए आँखें बंद कीं और फिर कुछ ही देर में सो गए हम!
जब नींद टूटी तो शाम के छह बजे थे, नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया था, वो चाय ले आया था, साथ में हरि साहब भी थे, नौकर ने चाय टेबल पर रखी और हमने एक एक कप उठा लिया, चुस्की लेते हुए, नींद की खुमारी तोड़ते रहे!
अब शर्मा जी ने हरि साहब से कह दिया की क़य्यूम भाई से कह दीजिये की रात में खेतों पर जाना है हमको, आज एक क्रिया भी करनी है वहाँ, सो सामान भी मंगवाना है कुछ, शर्मा जी ने सामान लिखवा दिया, इसमें मांस, शराब आदि सामग्रियां थीं, आज मुझे वहाँ क्रिया करनी पड़ सकती थीं, आज भेरू को जगाना था!
और इस तरह से रात दस बजे का वक़्त मुक़र्रर हो गया! हरि साहब वो परचा लेकर बाहर चले गए और मै और शर्मा जी टहलने के लिए अपने अपने जूते पहन, बाहर निकल गए!
हम करीब आधे-पौने घंटे टहले होंगे तभी फ़ोन आया हरि साहब का, शर्मा जी ने फ़ोन उठाया, शर्मा जी को हरि साहब ने बताया कि वे लोग घर आ चुके हैं और अब हम भी वहाँ पहुँच जाएँ, हम अब वापिस हो लिए थे, घर आये तो सामान का प्रबंध हो गया था!
अब मुझे अपनी सामग्री और सामान व्यवस्थित करना था, मैंने अपना त्रिशूल और कपाल-कटोरा उसी छोटे बैग में रख लिया, और कुछ और भी तांत्रिक-वस्तुएं थीं जो मैंने रख ली थीं!
धीरे धीरे घंटे गुजरे आयर बजे दस! सब वहीँ बैठे थे सो हम एक दम से उठे और सीधा गाड़ी में जा बैठे, गाड़ी दौड़ पड़ी खेतों की तरफ!
हम खेत पहुँच गए, मैंने सामान उठाया और शनकर के कोठरे पर सामान रख दिया, वहाँ से एक बड़ी टोर्च ली और मै वहाँ से उन सभी को बिठा कर शर्मा जी को साथ लेकर एक अलग ही स्थान पर चला गया, हाँ बुहारी ले ली थी मैंने शंकर से, मैंने एक पेड़ के नीचे एक जगह बुहारी लगाई, जगह साफ़ की, और फिर अपना बैग रख दिया, एक एक करके मैंने सारा सामान वहाँ रख दिया तरतीब से! अपने शरीर पर भस्म मली, शर्मा जी के माथे और छाती पर भस्म-लेप लगा दिया! ये प्रश्न-क्रिया थी, अतः मैंने शर्मा जी को अपने साथ बिठा लिया था!
अब मैंने अलखदान निकाला, और उसको अपने सामने रख दिया, उसमे सामग्री डाली और फिर अग्नि उसके मुख पर विराजमान कर दी! अलख-घोष किया और अलख चटाख-पटाख की आवाज़ के साथ जोर पकडती चली गयी! एक थाल में मांस और मदिरा रख ली, कुछ गैंदे के फूल भी रख दिए वहाँ और अब दो कपाल-कटोरे निकाले! एक शर्मा जी को दिया और एक मैंने स्वयं लिया, उनमे मदिरा परोसी और सबसे पहले अलखभोग दिया! एक अट्टहास किया! त्रिशूल बाएं भूमि में गाड़ दिया और औघड़-कलाप आरम्भ हो गया वहाँ! कपाल-कटोरे से मै और शर्मा जी मदिरा के घूँट हलक से नीचे उतारते चले गए! साथ ही साथ कलेजी के कच्चे टुकड़े चबाते चले गए!
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