भूत प्रेतों की कहानियाँ

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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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अब मैंने वहाँ से अपना सामान-सट्टा उठाया और अलख को वहीँ छोड़ दिया, अलखदान मै सुबह उठा सकता था, अतः अलख वहीँ छोड़ दी मैंने भड़कती ही, बाकी सारा सामान इकट्टा कर मै और शर्मा जी वहाँ से वापिस हो लिए!
वहां वे सभी हमारी चिंता में लगे थे, हमे कुशल से देख प्रसन्न हुए और फिर हम अब चल पड़े वहाँ से, हरि साहब के घर! आज रात विश्राम करना था और कल फिर रात्रिकाल में एक गंभीर टकराव होना था, देखना था ऊँट किस करवट बैठता है!
हम घर पहुँच गए, नहाए धोये और फिर विश्राम करने के लिए कमरे में आ गए, भोजन कर ही लिया था सो भोजन की मनाही की और सीधा बिस्तर में कूद गए! नशा छाया हुआ था! शाकुण्ड के बातें रह रह के याद आने लगी थीं! मेरे मस्तिष्क पटल पर एक एक का रेखाचित्र गढ़ता चला गया! अब दो शेष थे, एक भेरू बाबा और एक बाबा नौमना!
नींद से खूब ज़द्दोज़हद हुई और आखिर नींद को लालच देकर पटा ही लिया! अंकशायिनी बनने को सहर्ष तैयार हो गयी और मै उसके आलिंगन में ढेर हो गया!
सुबह नींद खुली तो सात बज चुके थे, शर्मा जी उठ चुके थे और कमरे में नहीं थे, गौर किया तो उनकी और हरि साहब की बातें चल रही थीं, बाहर बैठे थे दोनों ही! मै उठा, अंगड़ाइयां लीं और फिर नहाने का मन बनाया, नहाने गया, वहाँ से फारिग हुआ और फिर कपडे पहन कर वापिस आ गया, और कमरे से बाहर निकला, हरि साहब और शर्मा जी से नमस्कार हुई और फिर वहाँ बिछी एक कुर्सी पर मै बैठ गया, सामने पड़ा अखबार उठाया, चित्र आदि का अवलोकन किया और फिर रख दिया अखबार वहीँ, अब तक चाहि आ गयी, चाय पी, नाश्ता भी किया और फिर यहाँ वहाँ की बातें चलती रहीं!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"आप हरि साहब को आज का सामान लिखवा दीजिये" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब मै उठा वहाँ से और कमरे में आ गया, फिर से लेट गया, तभी थोड़ी देर बाद वहाँ शर्म जी आ गए,
"लिखवा दिया सामान?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"दोपहर तक मिल जाना चाहिए" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"ठीक" मैंने कहा,
"आज खेतों में तो कोई काम नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, आज वहाँ कोई काम नहीं" मैंने कहा,
"तो सीधे वहीँ जाना है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"आज बहुत मुश्किल रात है" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ" वे बोले,
मैंने करवट बदली और दूसरी ओर मुंह कर लिया,
शर्मा जी भी लेट गए अपने बिस्तर पर,
"आज मै आपको अपने साथ नहीं बिठाऊंगा, हाँ मुझे नज़र में ही रखना" मैंने कहा,
"अवश्य गुरु जी" वे बोले,
हम बातें करते रहे निरंतर, एक दो फ़ोन भी आये दिल्ली से, बात हुई और फिर से यहीं का घटनाक्रम आगे आकर खड़ा हो गया सामने!
घंटे पर घंटे बीते, कभी उठ जाते कभी एक आद झपकी ले लेते! और आखिर ७ बज गए! तिथि का प्रथम करण आरम्भ हो गया था, दूसरा आने में अभी समय बाकी था, मैंने पुनः सामान की जांच की, सब कुछ सही पाया, कुछ मंत्र भी जागृत कर लिए और अब मै मुस्तैद हो गया!
रात्रि समय ठीक साढ़े ग्यारह बजे हम निकल पड़े वहीँ उसी भेरू बाबा के स्थान की ओर! आज की रात भयानक थी, अत्यंत भारी, पता नहीं कल सूर्या को सिंहासनरूढ़ कौन देखने वाला था!
हिचकोले खाती गाड़ी ले चली हम को वहीँ के लिए, इंच, मीटर और फिर किलोमीटर तय करते करते हम पहुँच गए वहाँ!
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मैंने टोर्च ली, शर्मा जी को भी साथ लिया, बैग उठाया और उसमे से सभी वस्तुएं निकाल लीं, हवा एकदम शांत थी, न कोई स्पर्श ही था और न कोई झोंका ही! अब मुझे एक उपयुक्त स्थान चुनना था, मैंने नज़र दौड़ाई तो एक जगह के एक शिला के पास वो जगह मिल गयी, साफ़ जगह था वो, वहां रेत था कुछ मिट्टी सी, ये स्थान ठीक था, हाँ मै किसी और के स्थान में अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर गया था, अब मैंने यहाँ अपना बैग रखा, एक जगह हाथ से गड्ढा खोदा दो गुणा डेढ़ फीट का, यहाँ अलख उठानी थी मुझे! मैंने सबसे पहले अपना आसन बिछाया, मंत्र पढ़ते हुए, फिर त्रिशूल गाड़ा मंत्र पढ़ते हुए, कपाल रखे वहाँ और कपाल कटोरा मुंड के सर पर रख दिया! फिर एक एक करके संभी सामग्री और सामान वहां व्यवस्थित किया, अलख के लिए मैंने सार आवश्यक सामान अलख में रखा और फिर मैंने शर्मा जी से कहा,"अब आप जाइये शर्मा जी"
"जाता हूँ गुरु जी, एक बार जांच कर लीजिये, किसी वस्तु की कोई कमी तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, कोई कमी नहीं, सब ठीक है" मैंने कहा,
वे उठे,
"सफलता प्राप्त करें गुरु जी" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"मै चलता हूँ" वे चलने लगे वहाँ से,
"ठीक है, मुझे दूर से नज़र में ही रखना, किसी को यहाँ नहीं आने देना, चाहे कुछ भी हो जाए" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" वे बोले और अब वापिस हुए,
अब मैंने अपना चिमटा उठाया और फिर अपनी अलख और उस क्रिया-स्थान को उस चिमटे की सहायता से एक घेरे में ले लिया, ये औंधी-खोपड़ी मसान का रक्षा-घेरा था, उसको आन लगाते हुए मैंने वो प्राण-रक्षा वृत्त पूर्ण कर लिया और अब अलख उठा दी! अलख चटख कर उठी, मैंने अलख को प्रणाम किया और फिर गुरु-वंदना कर मैंने अलख-भोग दिया! तीन थालियाँ निकाली और उनमे सभी मांस, मदिरा आदि रख दिए, ये शक्ति-भोग था!
अब मैंने सबसे महत्वपूर्ण मंत्र जागृत किये, कलुष, महाताम, भंजन, एवाम, अभय एवं सिंहिका आदि मंत्र! मै एक एक करके उनको नमन करते हुए शिरोधार्य करता चला गया! अंत में देह-रक्षण अघोर-पुरुष को सौंपा और अब मै तत्पर था!
अब मैंने भस्म-स्नान किया और फिर कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी और फिर गटक गया! कुरुंड-मंत्र से देह स्फूर्तिमान हो गयी, नेत्र चपल और जिव्हा केन्द्रित हो गयी!
मै खड़ा हुआ और एक अट्टहास किया! महानाद! और फिर बैठ गया, क्रिया आरम्भ हो गयी थी!
और तभी मेरे सामने से खेचर, भाभरा, भामा, शामा और मुंड-रहित किरली निकल गए! एक झांकी के समान! और फिर वही शाकुण्ड बाबा! वही गुजरे वहाँ से!
दूसरा करण आरम्भ हुआ और यहाँ मैंने अब अलख से वार्तालाप आरम्भ किया, नाद और घोर होता गया, मुझे औघड़-मद चढ़ने लगा!
अब मैंने भेरू को बुलाने के लिए, मांस के टुकड़े अभिमंत्रित किये और उनको चारों दिशाओं में फेंक दिया! फिर से मंत्र पढ़े, एक बार को हतप्रभ से वे सभी वहाँ फिर प्रकट हुए और फिर लोप हुए! समय थम गया! वहाँ क दृश्य चित्र में परिवर्तित हो गया, सुनसान बियाबान में लपलपाती अलख, उसके साथ बैठा एक औघड़ और वहाँ मौजूद कुछ प्रेतात्माएं! खौफनाक दृश्य! और हौलनाक वो चित्र! अलख की उठी लपटों ने भूमि को चित्रित कर दिया!
और तभी, तभी एक महाप्रेत सा प्रकट हुआ! मैंने उसको ध्यान से देखा, कद करीब सात फीट! गले में सर्प धारण किये हुए, मुझे एकदम से हरि साहब की पत्नी क ध्यान आया, उन्होंने ही बताया था, एक महाप्रेत भेरू गले में सर्प धारण किये हुए, तो ये भेरू था! आन पहुंचा था वहाँ! बेहद कस हुआ शरीर था उसका, चौड़े कंधे और दीर्घ जांघें! साक्षात भयानक जल्लाद! साक्षात यमपाल! नीचे उसे लंगोट धारण कर रखी थी, हाथ में त्रिशूल और त्रिशूल में बंधा एक बड़ा सा डमरू! वो हवा में खड़ा था, भूमि से चंद इंच ऊपर! गले में मालाएं धारण किये, अस्थियों से निर्मित मालाएं! गले में एक घंटाल सा धारण किये हुए! हाथों में असंख्य तंत्राभूषण! बलिष्ठ भुजाएं और चौड़ी गर्दन! एक बार को तो मुझे भी सिहरन सी दौड़ गयी! काले रुक्ष केश, जैसे विषधर आदि लिपटें हों उसके सर पर! मस्तक पर चिता-भस्म और पीले रंग से खिंचा एक त्रिपुंड!
"कौन है तू?" उसने भयानक गर्जना में मुझसे पूछा,
मैंने उसको परिचय दिया अपना!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने फिर से पूछा,
मैंने अपना मंतव्य बता दिया!
उनसे एक विकराल अट्टहास किया! जैसे किसी बालक( यहाँ मै इंगित हूँ) ने ठिठोली की हो!
"ये जानते हुए कि मै कौन हूँ?" उसने कहा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब चला जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना पड़ेगा" उसने कहा,
"नहीं, कदापि नहीं" मैंने कहा,
"प्राण गंवाएगा?" उसने कहा,
"देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तूने मुझे आँका नहीं?" उसने फिर से डराया मुझे!
"नहीं आंकता तो यहाँ नहीं आता!" मैंने कहा,
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा, अभी भी समय शेष है" उसने समझाया,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
एक पल को अभेद्य शान्ति!
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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"हठ मत कर" उसने कहा,
"कोई हठ नहीं कर रहा मै" मैंने कहा,
"क्यों मौत को बुलावा देने पर तुला है?" उसने कहा,
"मौत आएगी तो देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा इसका मतलब?" उसने अब अपना त्रिशूल भूमि में मारे हुए कहा,
"आपके अनुसार नहीं" मैंने कहा,
"अंतिम बार चेतावनी देता हूँ मै!" उसने त्रिशूल मेरी ओर करके कहा, उसने त्रिशूल मेरी ओर किया और मेरी अलख की लपटें झूल कर मेरी ओर झुक गयीं! ऐसा प्रताप उसका!
मुझे घबराना चाहिए था, परन्तु मै नहीं घबराया, औघड़ तो मौत और जिंदगी की दुधारी तलवार पर निरंतर चलता है, हाँ मौत का फाल अवश्य ही बड़ा होता है!
"हट जा मेरे रास्ते से!" कहा भेरू ने!
और मेरी तरफ त्रिशूल किया, मेरी अलख की लपटें जैसे भयातुर होकर मुझसे पनाह मांगने लगीं! और दूसरे ही क्षण एक भयानक लापत से उठी वहाँ और मेरी ग्रीवा से टकराई! मुझे लगा जैसे किसी के बलिष्ठ हाथों ने मेरा कंठ जकड़ लिया हो! मैंने मन ही मन एवाम-मानता क जाप किया और मै तभी उस जकड़ से मुक्त हो गया, हाँ, साँसें तेज ह गयीं थीं अवरोध के कारण!
"हा!हा!हा!हा!" उसने भयानक अट्टहास लगाया!
"जा, तुझे छोड़ देता हूँ!" उसने हंस कर कहा,
मैंने अपनी जीव को काबू में किया और कहा, "मै यहीं डटा रहूँगा भेरू!"
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा चला जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"नहीं मानता?" उसने फिर से धमकाया!
"नहीं!" मैंने कहा,
"ठहर जा फिर!" उसने कहा,
उसने एक चुटकी मारी, चुटकी की आवाज़ ऐसी कि जैसे किसी की हड्डी टूटी हो! मैंने अपना उल्टा पाँव देखा, वो टेढ़ा हो गया था! बस टूटने की क़सर थी! मै पीछे गिर पड़ा, असहनीय दर्द हुआ, छटपटा गया मै!
वहाँ भेरू ने एक चुटकी और मारी होती तो मेरा पाँव जड़ से ही अलग हो जाता, मैंने तभी दारुष-मंत्र क बीज पढ़ा और उस क्षण मेरा पाँव ठीक हो गया! मंत्र से मंत्र टकरा रहे थे! मै खड़ा हो गया, अपने चेहरे पर आये पसीने का स्वाद मेरी जिव्हा ने ले लिया था अब तक!
"अब जाता है कि नहीं लड़के?" भेरू ने कहा, गुस्से में!
"नहीं भेरू" मैंने कहा,
"तो प्राण यहीं छोड़ने पड़ेंगे!" उसने चिल्ला कर कहा,
"मै तैयार हूँ!" मैंने कहा,
तभी झक्क से लोप हुआ वो!
मैंने चारों ओर ढूँढा उसको! वो कहीं नहीं था!
तभी मुझे अट्टहास सुनाई दिया अपनी बायीं तरफ! वो वहाँ एक शिला से सहारा लिए खड़ा था, मतलब एक पाँव उसने शिला पर रखा हुआ था! कैसी विप्लव प्रेत-माया थी!
"तुझे दिखाता हूँ कौन हूँ मै!" उसने कहा और फिर उसने अपने सर्प को कंधे से उतारा और नीचे छोड़ दिया!
सांप नीचे भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया! और तभी! तभी वहाँ न जाने कहाँ कहाँ से अनगिनत सांप आते चले गए, मेरे चारों ओर! ढेर के ढेर! रंग-बिरंगे!
"बस भेरू?" मैंने चिढाया उसे!
"देखता जा!" उसने कहा
उसने ऐसा कहा और मैंने विमोचिनी माया का जाप किया! सर्प मोम समान हो गए! विमोचिनी यक्षिणी-प्रदत्त महाविद्या है! कोई भी महाप्रेत उसको खंडित नहीं कर सकता!
अब अट्टहास करने की मेरी बारी थी! सो मैंने किया और अपना त्रिशूल भूमि में से निकाला और पुनः मंत्र पढ़ते हुए भूमि में गाड़ दिया! सर्प लोप हो गए! शून्य में बस धूमिल होती उनकी फुफकार रह गयी!
ये देख भेरू ने अपना पाँव हटा लिया शिला से! उसने होंठ हिलाकर मुझे संभवतः अपशब्द निकाले थे!
"क्या हुआ भेरू, भेरू बाबा?" मैंने उपहास सा किया उसका!
मैंने कहा और मुझे किसी आक्रामक भैंसे की जी आवास आई, नथुने फड़काते हुए! मैंने पीछे देखा, वहाँ एक शक्तिशाली भैंसा खड़ा था! मैंने तभी रिक्ताल-मंत्र का जाप किया, और अपने को फूंक लिया उस से! वो भिनसा आगे बढ़ा और पर्चायीं की तरह मेरे ऊपर से गुजर गया!
मै सुरक्षित था!
"क्या हुआ भेरू?" मैंने कहा,
क्रोध में नहाया हुआ भेरू! फटने को तैयार भेरू!
"क्या हुआ?" मैंने फिर से उपहास उड़ाया!
भेरू ने आँखें बंद कीं और फिर! फिर ध्यान लगाया!
कुछ ही क्षण में मेरी आसपास की मिट्टी धसकने लगी, जैसे मेरा ग्रास कर जायेगी और मै ज़मींदोज़ हो जाऊँगा! मैंने अपना त्रिशूल पकड़ लिया और अलख को देखते हुए, द्वित्ठार-माया का प्रयोग कर दिया! भूमि यथावत हो गयी!
और भेरू!
भेरू को जैसे काटो तो खून नहीं!
भुनभुना गया था भेरू!
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"लड़के??" भेरू गरज के बोला
मैंने उसको देखा!
"क्या समझता है तू?" उसने कहा,
"कुछ भी नहीं!" मैंने कहा,
"चला जा! अभी भी समय है" उसने हाथ के इशारे से कहा,
"मै नहीं जाने वाला भेरू बाबा!" मैंने कहा,
"अपान-वायु से तेरे प्राण खींच लूँगा मै!" उसने कहा,
"वो भी कर के देख लो भेरू!" मैंने कहा,
भेरू गुस्से में उबल रहा था! उसके अन्दर क्रोध का लौह धधक धधक कर बुलबुले छोड़ रहा था!
उसने झुक कर मिट्टी उठायी, मै समझ गया कि फिर से भेरू कोई प्रपंच लड़ाने वाला है!
भेरू ने उस मिट्टी को अभिमंत्रित किया और मेरी ओर उछाल दिया! ये देह-घातिनी शक्ति थी! मैंने फ़ौरन ही दिक्पात शक्ति का संधान कर उसको भी एक प्रकार से निरस्त कर दिया!
अब तो भेरू की सब्र-सीमा लंघ गयी! वो कभी वहाँ प्रकट होता, लोप होता और फिर कहीं दूसरे स्थान पर प्रकट हो लोप होता! मुझे उसके लिए पूर्णाक्ष घूमना पड़ता!
"क्या हुआ भेरू?" अब मैंने कहा,
भेरू चुप्प!
"क्या हुआ? बस? बल सीमा समाप्त?" मैंने पूछा,
उसने फिर से ज़मीन धसकाने वाला प्रयोग किया! मुझे बार बार उछलना पड़ता! तो मैंने अपने त्रिशूल को उखाड़ कर फिर से स्तम्भन-मंत्र पढ़ कर गाड़ दिया, धसकना समाप्त हुआ!
इस सोते हुए संसार में दो औघड़ एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे! एक देहधारी था और एक मात्र छाया!
"अकेले पड़ गए भेरू तुम!" मैंने कहकहा लगाया!
उसने चिल्ला के मुझे चुप रहने को कहा!
"भेरू! जाओ, जाकर बुलाओ अपने नौमना बाबा को!" मैंने चुनौती दी उसको!
नौमना बाबा का नाम सुनकर भड़क गया वो! अनाप-शनाप बोलने लगा, जिग्साल-साधना के अंश पढने लगा! फिर आकाश में उड़ते हुए लोप हो गया! मैंने उसको लोप होते हुए देखा और फिर कुछ पल की असीम शान्ति! वो चला गया था शायद! मै अपने आसन पर जैसे ही बैठने लगा तभी मैंने अपने समक्ष दो सुंदरियों को देखा! हाथ में लोटे लिए हुए, लोटों में दूध भरा था, सच कहता हूँ, कोई अतिश्योक्ति नहीं, वे अद्वितीय सुंदरियां थीं! सुडौल देह, उन्नत वक्ष-स्थल, संकीर्ण कमर, दीर्घ नितम्ब-क्षेत्र! केश कमर तक झूलते हुए, चमकदार, आभूषण धारण किये हुए! कामातुर आवेश! त्वचा ऐसी, कि हाथ लगाओ मैली!
अब मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"हम रम्भूक कन्याएं हैं ओ साधक!" उन्होंने एक साथ कहा!
रम्भूक कन्याएं! मेरा अहोभाग्य! स्वयं महासिद्धि मेरे समक्ष खड़ी थीं! तोरम-रुपी कन्याएं!
"क्या चाहती हो?" मैंने पूछा,
"आप दुग्धपान करें!" वे बोलीं, खनकती आवाज़ उनकी!
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"सिद्देश्वर-चरण पूर्ण करने हेतु!" वे बोलीं,
ओह! कितना असीम लालच! मेरे मस्तिष्क में तार झनझना गए! भाड़ में जाएँ हरि साहब! इनको स्वीकार करो और जय जयकार!
नहीं! कदापि नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! दंड का भागी हो जाऊँगा मै, मुख नहीं दिखा सकता अपने गुरु को! श्रापग्रस्त हो किसी बरगद के वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस का दास हो जाऊँगा! नहीं ऐसा संभव नहीं!
क्या प्रपंच लड़ाया था भेरू बाबा ने!
दिव्या रम्भूक कन्याएं! मेरे समक्ष!
"नहीं!" मैंने कहा,
"लीजिये!" वे बोलीं, मेरी तरफ लोटा करते हुए! पात्र में केसर के रंग से मिला दूध था! मै उसको दिव्य दूध ही कहूँगा!
"लीजिये?" वे बोलीं!
"नहीं!" मैंने कहा,
मैंने आकाश में देखा! चाँद-तारे सभी देख रहे थे इस खेल को! और मै ढूंढ रहा था उस भेरू बाबा को!
वो वहाँ कहीं नहीं था!
"वाह भेरू वाह!" मैंने हंस कर कहा,
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"लीजिये?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"पछतायेंगे!" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये" वे फिर से बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये, हठ कैसा?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने फिर से मना किया,
अब वे पीछे हटीं,
दुग्ध-पात्र अपनी कमर में लगाए, पीछे मुड़ीं और लोप हो गयीं!
ओह! कितना सुकून! जैसे सुलगता, दहकता शरीर झम्म से गोता लगा गया हो हिम-जल में! ऐसा परमानन्द का एहसास! जैसे अवरुद्ध नथुने एक झटके से खुल गए हों! ओह! वर्णन नहीं कर सकता मै और अधिक!
फिर से कुछ समय बीता, जैसे युद्ध-विश्राम का समय हो गया हो!
और तभी जैसे ध्वनि-रहित दामिनी कड़की और मै उसके तमरूपी प्रकाश से सराबोर हो गया!
एक अनुपम, दिव्यसुन्दरी प्रकट हुई! मेरे माथे पर शिकन उभरीं अब! ये कैसी माया? अब कौन! हलक में थूक अटक के रह गया, यही होती है अवाक रह जाने की स्थिति!
वो अनुपम सुन्दरी मेरे समक्ष आई, सहस्त्र आभूषणों से सुशोभित उसकी गौर देह! उसकी आभूषणों से न ढकी त्वचा चकाचौंध कर रही थी! बलिष्ठ कद-काठी, उन्नत देह! लाल रंग का चमकीला दिव्य-वस्त्र!
वो मुस्कुराई! स्पष्ट रूप से कहता हूँ, एक पल को मै द्वन्द भूल गया और काम हिलोरें मारने लगा मुझ में! मस्तिष्क की दीवारें फटने को तैयार हो गयीं! जननेद्रिय में जैसे स्पंदन सा होने लगा! ये क्या था? कोई माया? कोई तीक्ष्ण माया? या इस सुन्दरी का दिव्य प्रभाव?
वो मुस्कुराते हुए और लरजती हुई चाल से मेरे समीप आई, केवड़े की खुशबु नथुनों में वास कर गयी! आँखें बंद होने लगीं, होश खोने को आमादा से हो गए!
"साधक!" उसने बेहद कामुकता से भरे स्वर में पुकारा!
मुझ पर मद सवार होने लगा, काम-ज्वर और तीव्र होने लगा! अब बस छटपटाने की नौबत शेष थी!
मैंने धीरे से आँखें खोलने की कोशिश की, आँखें खोल लीं! वे मेरे इतना समीप थी की उसके वक्ष के ऊपरी सिरे मुझे मेरे सीने में छू रहे थे! ये छुअन बेहद अजीब और वर्णन-रहित है, आज भी!
'साधक?" उसने पुकारा,
"हाँ" मैंने धीमे से कहा,
"जानते हो मै कौन हूँ?" उसने पूछा, उसकी साँसें मेरी ग्रीवा पर काम के गहरे चिन्ह छोड़े जा रही थीं!
"मै मृणाली हूँ!" उसने कहा,
मृणाली! ओह! ये मै कहाँ फंस गया!
मृणाली, दिव्य-स्वरुप में एक काम-कन्या है! एक दिव्य काम-सखी! इस से साधक यदि काम-क्रीडा करे तो यौवनामृत की प्राप्ति होती है! देह पुष्ट, बलशाली और निरोग हो जाती है, आयुवर्द्धक होता है इसका मात्र एक ही स्पर्श!
उसने तभी मेरे माथे को अपनी जिव्हा से छुआ! मै नीचे झूल गया पीछे की तरफ और तभी उसने मुझे संभाल लिया, मेरे नेत्र बंद हो गए!
"उठो?" उसने कहा,
मै शांत!
"साधक?" उसने पुकारा,
मै शांत!
"उठो?" उसने कहा,
मै अब संयत हुआ और खड़ा हुआ, त्रिशूल का सहारा लिया!
"क्या चाहती हो?" मैंने उन्मत्त से स्वर में पूछा,
"यही तो मै आपसे पूछ रही हूँ" उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"चले जाओ मृणाली" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
"जाओ" मैंने कहा,
वो पीछे हटी और अपने हाथों से मेरे केश पकड़ लिए और सीधे मुझे अपनी ओर खींच लिया, मुझे चक्कर सा आ गया!
"छोडो?" मैंने कहा,
अब वो हंसी!
'छोडो?" मै चिल्लाया!
"नहीं" उसने कहा,
"मृणाली? छोडो?" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
अब उसने मुझे और करीब खींचा! मै झुंझला सा गया, छूटने की कोशिश की लेकिन लगा किसी गज-शक्ति ने मुझे थाम रखा हो!
मैंने तभी उर्वार-मंत्र पढ़ा! उसने फ़ौरन ही छोड़ा मुझे और हंसने लगी!
"कच्चे हो अभी!" उसने कहा,
"अब जाओ यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
वो अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर थी! अडिग!
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