मेरठ की एक घटना वर्ष २०12

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Re: मेरठ की एक घटना वर्ष २०12

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वो रुक गयी! एक दम रुक गयी! अपने दोनों होठों को अपने मुंह के अन्दर लेने की कोशिश करने लगी! आँखें चौड़ी कर लीं! और फू-फू की आवाजें निकालने लगी!
"ताम्रा?" मैंने पूछा,
उसने मुझे देखा, बहुत गुस्से से!
"पहचाना मुझे?" मैंने पूछा,
वो कुत्ते की तरह से आगे आई और आकर मेरे सामने खड़ी हो गयी! मै भी खड़ा हो गया!
"ताम्रा?" मैंने पुकारा,
"बोल?" वो बोली,
"बैठ जा!" मैंने कहा,
वो बैठ गयी! अपने दोनों हाथों को मकड़ी सा बनाते हुए!
"तीमन रन्ध गया?" उसने पूछा,
"अभी नहीं" मैंने कहा,
"बुला हराम के बच्चे को यहाँ?" वो गुस्से से बोली,
"गुस्सा ना कर, आ जाएगा वो!" मैंने कहा,
"नाह! अभी बुला!" उसने जिद सी पकड़ ली!
अब मेरी मजबूरी थी, मुझे जय साहब को बुलाना पड़ा!
"आ रे कमीन यहाँ" वो अपने बाप से बोली!
जैस साहब जैसे प्राण ही छोड़ने वाले थे अपने देह के चोले से, मैंने हिम्मत बंधाई उनकी! और उनको अपने पास बिठा लिया!
"क्यूँ रे? तीमन ना रांधा अभी?" उसने गुस्से से पूछा,
मैंने अनुवाद किया और वो समझ गए!
"अभी बस थोड़ी देर और" वे बोले,
"ले आ, जा?" उसने अपने बाप को लात मारते हुए कहा,
वे बाहर चले गए! क्या करते!
"ताम्रा, तू यहीं बैठ, मै देखता हूँ तीमन में देरी क्यों?" मैंने कहा!
"जा, जल्दी आ, और लेत्ता आइयो!" वो बोली,
मै उठा वहाँ से! पहुंचा सीधा जय साहब के पास!
वे बेचारे रोने लगे, वे उनकी पत्नी और उनकी बेटी और सबसे छोटा बेटा, अपने माँ-बाप को रोता देख कर!
"जय साहब, किसी को भेजकर आप मांस मंगवाइये, तैयार, नहीं तो इस लड़की की जान खतरे में है, सौ फी सदी" मैंने कहा,
वे संकुचाये!
"संकोच ना करो!" मैंने कहा,
"मै ही लाता हूँ" वे बोले,
"जल्दी जाइये" मैंने कहा,
एक बाप की विवशता!
पर क्या करें!
मै वापिस आया वहाँ पर, शर्मा जी चुपचाप बैठे थे!
"बोल आया कमीन के बच्चे को?" वो बोली,
"हाँ" मैंने कहा,
"हरामजादा है ये पूरा" वो बोली,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"किसी को बोलियों मत" उसने कहा,
"नाह, बता?" मैंने कहा,
अब काम की बात आने वाली थी सामने!
"इसकी औरत और दादा ने माँगा था चन्द्रबदनी से लड़का, हो गया, कुछ ना दिया!" वो बोली,
ओह!ये कैसी विडंबना! मै किसका पक्ष लूँ? बात तो इसने सही कही! माँगा है तो देना पड़ेगा!
"कहाँ है ये?" उसने गुस्से में कहा,
"आने वाला है" मैंने कहा,
"किंगे मर गया?" वो बोली,
"यहीं है" मैंने कहा,
"तो बुला उसे?" उसने कहा,
"बेसब्री ना हो, आ जाएगा!" मैंने कहा,
"अच्छा! सुम्मा लाया?" उसने पूछा,
"ना, आड़े कुछ और है, लाऊं?" मैंने पूछा,
"ले आ" वो बोली,
तब मैंने शर्मा जी से कह कर एक बोतल शराब मंगवा ली उनकी गाड़ी से! शराब आ गयी!
"ले ताम्रा!" मैंने कहा,
उसने दो-तीन लम्बी लम्बी साँसें लीं!
"ला, गोश्त ला!" उसने कहा,
"पहले सुम्मा तो ले ले?" मैंने कहा,"
"हाँ बेटा! ला" उसने कहा,
मैंने बोतल दी और उसने मुंह से लगा कर सारी खाली कर दी!
कमाल!
"कुन्नु को बुला" उसने कहा,
"कौन कुन्नु?" मैंने पूछा!
अब मै एक अजीब ही स्थिति में था!

मै राह का रोड़ा था, ये तो स्पष्ट था! और मै अपने होते हुए उनके मासूम लड़के को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहता था! बस यही थी ये कहानी! बलभूड़ा एक उप-उप-सहोदरी थी, जो अब ये खेल ख़तम करने आई थी!
"चल जा! जा यहाँ से" मैंने कहा उस से!
"नहीं समझा मेरी बात?" उसने गुस्से से कहा,
"समझ गया, तभी बोला, जा, जा यहाँ से" मैंने कहा,
"तेरी भी बहुत सुन ली मैंने, अब चुप रह" वो बोली,
"और मैंने भी तेरा बहुत सम्मान कर लिया" मैंने कहा,
"मेरे रास्ते में न आ, ओ अंका!" उसने फिर से कहा,
"अवश्य ही आऊंगा" मैंने कहा,
"प्राण से जाएगा" वो बोली,
"देख लेंगे" मैंने कहा,
"देख, मान जा मेरी बात, ये तुझसे सम्बंधित नहीं" वो बोली,
"एक मासूम जान से जाए?, इसमें सम्बन्ध है मेरा" मैंने कहा,
"वो तो जाएगा ही, तू कैसे रोक पायेगा?" उसने कहा,
"तू कैसे कर पाएगी?" मैंने कहा,
"जब चाहे तब मार दूँ उसे" उसने कहा,
'असंभव, मेरे होते हुए नहीं" मैंने कहा,
"चल भाग!" उसने कहा,
"तू भी चल, निकल यहाँ से" मैंने कहा,
वो गुस्से में पाँव पटकती हुई चली गयी! फिर से दैविक-मुद्रा में बैठ गयी! हाँ, लोगों में अब श्रद्धा का भाव कम और डर, भय, अधिक हो गया था!
"अब क्या होगा?" जय साहब ने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने हिम्मत बंधाई उनकी,
"बचा लीजिये गुरु जी" वे रोते हुए बोले,
"एय कुछ नहीं होगा, एक बात बताइये, ये मांग किसने रखी थी?" मैंने पूछा,"आज से सत्रह बरस पहले की बात है, मेरी पत्नी और मै वहाँ गए थे स्याही देवी के पास, तभी ये मांग रखी गयी थी, जैसा बताया गया था वैसा ही किया था हमने तो" वे बोले,
"हां, अर्थात आपका पुत्र हो गया सोलह बरस का?" मैंने पूछा,
हाँ जी, दो महीने हो गए" वे बोले,
"हुए होंगे, सोलह बरस की प्रतीक्षा रहती है" मैंने कहा,
"हमे ऐसा किसी ने बताया ही नहीं" वे बोले,
"कोई बात नहीं, ये स्याही नहीं करवा रहीं ये एक तिरस्कृत उप-उप-सहोदरी है, कोई और नहीं" मैंने कहा,
"हमको ज्ञान नहीं गुरु जी" वे बोले और अपने आंसू पोंछे,
"आपका पुत्र कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अपने मामा के पास, दिल्ली" वे बोले,
"कुशल से है?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, शाम को ही बात हुई थी" वे बोले,
"चलिए अच्छी बात है" मैंने कहा,
अब मै उठा और शर्मा जी के साथ बाहर आ गया,
"क्या करना है अब?" उन्होंने पूछा,
"मै चाहता हूँ कि इस लड़की को एक बार शमशान ले जाया जाए, किसी भी तरह" मैंने कहा,
''मै बात करूँ?" वे बोले,
"हाँ, बात कीजिये" मैंने कहा,
शर्मा जी तभी अन्दर चले गए बात करने,
दो मिनट, पांच मिनट और फिर कोई दस मिनट के बाद वे बाहर आये, उनके साथ जय साहब भी थे,
"गुरु जी, हमारे बसकी नहीं है ऐसा करना" हाथ जोड़कर बोले वो,
"कोई बात नहीं, आप वहीँ मौजूद रहना, उठा हम लेंगे" मैंने कहा,
"जी ज़रूर" वे बोले,
"रास्ते में कोई समस्या न हो, इसलिए आप, आपनी पत्नी साथ चलेंगे हमारे" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"रात्रि समय हम ले चलेंगे उसे" मैंने कहा,
"हाँ, और आप अपनी पत्नी और जिसको भी बताना ही बता दें" शर्मा जी ने कहा,
जी" वे बोले और वापिस चल पड़े,
"अनक-भनक तो करेगी ये पक्का!" शर्मा जी बोले,
"करते रहने दो!" मैंने कहा,
"हाँ, इसका आज उतार दीजिये भूत!" वो बोले,
"भूत नहीं लुहाली-मैया!" मैंने कहा,
"हाँ, वही वही!" वे बोले और हँसे,
"चलिए शर्मा जी, तब तक सिकंदर के यहाँ हो कर आते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ, चलिए, समय भी बीत जाएगा?", वे बोले,
"इसीलिए मैंने कहा" मै बोला,
"चलिए फिर" वे बोले,
वे गाड़ी में घुसे, मै भी घुसा और गाड़ी स्टार्ट हो गयी!
हम चल पड़े सिकन्दर, हमारे एक जान-पहचान वाले एक जानकार से!
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Re: मेरठ की एक घटना वर्ष २०12

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हम सिकंदर के यहाँ पहुँच गए, उनका वेल्डिंग का बहुत बड़ा काम था, काफी पुराने जानकार हैं, बड़े अदब से मिले, हमने खाना-खूना वहीँ खाया! उनको वहां आने का सबब भी बता दिया, उन्होंने कहा कि ये चर्चा तो शहर में है! खैर, जब बजे सात शाम के तो हम निकले वहाँ से, सीधे जय साहब के यहाँ आ गए! वहाँ अभी भी भजन-कीर्तन चल रहा था! हम अन्दर चले गए, अन्दर जय साहब के कमरे में पहुंचे, वहाँ उनकी पत्नी भी थीं, और हम बैठ गए वहाँ, चाय आदि के लिए मना कर दिया!
और तभी वहाँ रविशा आ गयी!
"हो गयी तैयारी मुझे ले जाने की?" उसने मुस्कुरा के पूछा,
"हाँ ले तो जायेंगे ही, ऐसे या वैसे!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने कहा,
"हाँ, ऐसा ही" मैंने कहा,
और मित्रगण इतनी देर में ही उसकी शक्ति और मेरे मंत्र भिड़ गए एक दूसरे से! वो नीचे बैठ गयी! ज़ाहिर था, कि कोई आने वाला है!
और तभी झल्ला कर उठी वो ऊपर! आँखें चढ़ गयीं उसके, भुजाएं कठोर हो गयीं!
सिलसिलिया मसान आ चुका था!
बहुत शक्तिशाली, क्रूर और साक्षात मृत्यु है ये मसान! ये बस ककेडिया से ही नीचे है!
"कौन ले जाएगा मुझे?" उसने भयानक आवाज़ में पूछा,
सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम!
"मै" मैंने कहा,
उसने गज़ब का अट्टहास किया!
"तू ले जाएगा?" उसने पूछा,
"हाँ, मै" मैंने कहा,
"मुक्ति चाहता है देह से?" उसने भुजाएं कडकडाते हुए पूछा,
"तुझे मुक्ति चाहिए?" मैंने पूछा,
"बताता हूँ" उसने कहा और मेरी गर्दन पर हाथ डालना चाहा, मैंने तभी नाहर सिंह का आह्वान किया, ये उनके एक सिपाही कूमेक का आह्वान था! नहर सिंह का मंत्र टकराया, तलवार से तलवार टकराई, ध्वनि केवल मैंने और सिलसिलिया ने ही सुनी! सिलसिलिया पीछे हटा और मै आगे बढ़ा! चेतावनी दे दी गयी!
नहीं माना सिलसिलिया! भर्रा छोड़ने लगा मुझ पर! यहाँ मैंने उसके भर्रे को मोहम्मदा वीर की शक्ति से काटा!
धम्म से नीचे गिरी रविशा! और तभी मैंने कब्जे में ले लिए उसको, शर्मा जी तैयार थे, जय साहब ने भी फ़ौरन उसका मुंह ढक दिया एक चादर से, उसके हाथ बाँध दिए गए, पाँव भी बाँध दिए गए! चिल्लाए नहीं इसलिए बड़ी सावधानी से मुंह में कपडा ठूंस दिया गया! काम ख़तम!
"उठाओ इसे" मैंने कहा,
शर्मा जी और जय साहब ने उठाया उसको! सिल्सिलिये अशक्त हो गया था, बाहर का रास्ता बंद कर दिया गया था! और जब तक सिलसिलिया उसमे था कोई आ भी नहीं सकता था! युक्ति काम कर गयी!
"डालो गाड़ी में इसे!" मैंने कहा,
"उन्होंने उसको अपनी गाड़ी में रख लिया, डाल दिया पिछली सीट पर! गाड़ी बड़ी थी उनकी, सो कोई परेशानी नहीं हुई! भक्तगण में असंतोष तो था लेकिन अब वे भी जैसे सच्चाई जान्ने के इच्छुक थे! अतः किसी ने विरोध नहीं किया!
दो गाड़ियाँ दौड़ने लगीं सरपट मेरे शमशान की ओर!
और रात करीब ग्यारह बजे हम पहुँच गए वहाँ! अन्दर प्रवेश कर गए!
"निकाल लो इसको बाहर" मैंने कहा,
उसको बाहर निकाल गया!
"शर्मा जी, ले जाओ इसको मेरे कक्ष में" मैंने कहा,
उसको कक्ष में ले जाया गया!
"मुंह का कपडा हटा दो!" मैंने कहा,
हटा दिया गया कपडा,
मुंह में ठुंसा कपडा भी निकाल दिया गया!
अब उसकी और मेरी निगाह टकरायीं!
'छोड़ मुझे" मर्दाना आवाज़ में बोली वो!
"छोड़ने के लिए ही तो आया हूँ" मैंने कहा,
मै ध्यान दिया, उसके हाथ पाँव के नाख़ून पीले हो चले थे, ये खतरनाक स्थिति थी रविशा की देह के लिए!
मैंने फ़ौरन भर्रा वापिस किया! मसान आज़ाद हो गया!
"बता?" मैंने पूछा,
कुछ नहीं बोली वो और पीछे झुकती हुई लेट गयी! सिलसिलिया चला गया!
अब फिर से उप-उप-सहोदरी आ गयी! पीले नाख़ून ठीक हो गए!
"ऐसे जायेगी या वैसे?" मैंने पूछा,
"तेरा खून पियूंगी!" उसने कहा,
"बकवास बंद!" मैंने कहा
"आज मारके छोड़ूंगी तुझे" वो चिल्ला के बोली,
"यहाँ कोई नहीं आएगा! ये श्मशान है!" मैंने कहा,
उसने आसपास देखा!
"अब बता!" मैंने कहा,
वो चुप! मुझे घूरती रही!
"शर्मा जी, अब आप सभी जाइये यहाँ से, मै इसका इलाज करता हूँ!" मैंने कहा,
वे लोग चले गए वहाँ से, तत्क्षण!

"मेरे रास्ते से हट जा" वो बोली,
"कैसे हट जाऊं?" मैंने कहा,
"तुझे क्या हक़ है बीच में आने का?" वो बोली,
"वही! तुझे भी क्या हक़ है बीच में आने का?" मैंने पूछा,
"मुझे छोड़, जाने दे" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मान ले" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"बताता हूँ, तुझे किसने अधिकृत किया उस लड़के के प्राण लेने के लिए?" तू स्व्यं स्याही तो नहीं, फिर तेरा या अधिकार?" मैंने पूछा,
"ये जानना तेरा काम नहीं" उसने कहा,
"उसी प्रकार उस लड़के के प्राण बचाना मेरा अधिकार है" मैंने कहा,
"तू भी प्राण गंवायेगा फिर" उसने कसमसाते हुए कहा,
"सत्य की ही जीत होगी, यही जानता हूँ मैं, स्व्यं स्याही भी यही जानती हैं!" मैंने कह दिया
"तू जान जाएगा कि कौन जीतेगा!" वो बोली,
"मैं तुझे पूर्ण रूप से मुक्त करूँगा, तू भी अपने जी की कर लेना!" मैंने कहा,
अब मैंने उसके हाथ-पाँव खोल दिया, वो भूमि पर लेट गयी! आर तभी मेरे सीने में भयानक शूल उठा, सांस अटक गयी, नेत्रों से एक वस्तु दो दिखाई देने लगीं! मैं सीना पकड़ते हुए नीचे टिकने लगा!
"बस?" वो बोली,
मैंने तभी जंभाल का आह्वान किया मनोश्च और शूल से मुक्त हो गया, सामान्य हो गया!
वो ये देख चौंक पड़ी! इतनी जल्दी सम्भाल कैसे सम्भव है!
"अभी भी समय है"उसने कहा,
"अब तेरे पास समय नहीं रहेगा शेष!" मैंने कहा और अब मैंने उसकी परिक्रमा करनी आरम्भ की, उसको अष्ट-चक्रिका में बाँधा, उसने छूटने का प्रयास किया लेकिन तब तब अष्ट-चक्रिका पूर्ण हो गयी और अब उसको वैसे ही शूल उठा योनि प्रदेश में! मूत्र-विसर्जन कर दिया उसने दबाव से!
और तभी जैसे मेरी रस्सी टूटी और मैं धड़ाम से नीचे गिर गया, अष्ट-चक्रिका का भेदन हो गया!
उसने अट्ठहास लगाया!
और तभी वहाँ दो पिशाचिनियां प्रकट हो गयीं! काले धूम्र स्वरुप की! उनको सरंक्षण प्राप्त था, अन्यथा मेरे समक्ष कभी प्रकट नहीं होतीं!
मैंने पहचाना, ये पिशाचिनियां नहीं, ये डाकिनियां थीं! मुझे फाड़ने और मेरे टुकड़े कर देने को आतुर! मैंने तभी व्योम-विनाशिनी का आह्वान किया, डाकिनियां उसका आह्वान सुनते ही शून्य में समा गयीं!
एक दूसरे की काट चालू थी! एक औघड़ और एक उप-उप-सहोदरी! अब मैं भी बैठ गया! विनाशिनी प्रकट हुई और फिर लोप! उसका कोई कार्य नहीं था, मैंने नमन कर उसको लोप कर दिया!
"मान जा औघड़!" वो बोली,
"नहीं, कोई प्रश्न ही नहीं" मैंने कहा,
और इस बीच एक गदाधारी प्रकट हुआ! दंडधौल नाम का एक सेवक! अतुलनीय बलशाली, एक वीर का प्रमुख सहायक है ये दंडधौल! वो अपनी सेविता के पास खड़ा हो गया!
मुझे शीघ्र ही क्कुछ करना था, अतः मैंने अन्याण्डध्रुव नाम के एक वीर के सेवक का आह्वान किया! चौबीस महाबलशाली सेवकों से सेवित है ये अन्याण्डध्रुव! एक महावीर के खडग की शक्ति है ये! मैंने प्रणाम किया!
अब दोनों अपने अपने स्थान पर शत्रु-भेदन के लिए तत्पर थे! हाँ, सहोदरी घबरा अवश्य गयी थी! घबराया तो मैं भी था!
और फिर दोनों आगे बढे! अन्याण्डध्रुव के समक्ष दंडधौल ने शस्त्र गिरा दिया और लोप हो गया!
अन्याण्ड ध्रुव विजयी हुआ, एक अभय-मुद्रा में मुझे आशीर्वाद दे भन्न से लोप हो गया!
ये देखा फट सी पड़ी सहोदरी!
अब कुछ क्षण युद्धनीति में बीते!
"क्या चाहता है तू?" वो बोली!
हाँ! अब आयी थी वो सीधे रास्ते पर!
"कुछ नहीं!" मैंने कहा,
'सिद्धियाँ?" उसने हँसते हुए पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"आयुध-ज्ञान?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"धन?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"रतिसुख?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने उत्तर दिया,
"तो फिर क्या? मुझे बता?" उसने कहा,
'वो तू जानती है" मैंने कहा,
अब फिर से शान्ति!
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"मैं तेरे प्रलोभन में नहीं आने वाला!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"सच में?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
वो उठी और उसने शरीर की एक भंगिमा सी बनायी,, मुस्कुरायी और दोनों हाथ तेजी से नीचे ले आयी! अचम्भा हुआ! मेरे सामने अँधेरा छा गया! जैसे नेत्रों की ज्योति छीन ली हो! जैसे मैं किसी गहन अन्धकार में विचरण कर रहा होऊं! मैं नग्न था, पूर्ण नग्न! मैं हाथों के सहारे ही चल रहा था, हाँ, बैठा वहीँ था अपने कक्ष में, लेकिन लगा कि मैं कहीं और फेंक दिया गहा हूँ, जैसे समय-स्थानभ्रंश में आ गया होऊं! मैं आगे बढ़ रहा था, मेरे हाथों में तभी किसी वृक्ष पर लटकती हुई लता सी आयी, मैंने खींच के देखा तो सर पर पत्ते बिखरने लगे, माहुअल बड़ा ही गर्म सा था वहाँ, जैसे अलाव जल रहे हों, लेकिन था गहन अन्धकार! मैं वहीँ ठहर गया, और तभी मुझे कुछ आवावज़ें आयीं मेरे पीछे से, मैं पलटा और उस तरफ चल पड़ा, अब पहली बार मेरा प्रकाश से सामना हुआ! मैं प्रकाश की ओर चल पड़ा! धीरे धीरे! नीचे पड़े पत्ते आदि वनस्पति चर्र-चर्र कर रहे थे, और फिर मैं प्रकाश की ओर बढ़ते बढ़ते एक स्थान पर आ गया, हैरान था! आकाश आधा काला और आधा धूप से नहाया था! ये कैसे सम्भव है?? और ये कौन सा स्थान है?
मैंने आगे बढ़ा तो सामने एक जल-कुंड दिखायी दिया, आवाज़ें यहीं से आ रही थीं, मैं आगे बढ़ चला, जैसे कोई मुझे पीछे से धक्का दे रहा हो! मैं जल-कुंड के मुझ्ाने तक आ गया, ये सफ़ेद पत्थर से बनाया हुआ था, ये जल-कुंड तीस गुणा चालीस फीट का तो रहा ही होगा! मैं नीचे उतरा वहाँ तो पानी में मुझे कुछ नग्न-कन्याएं दिखाई दीं, शरीर पर कुछ नहीं बस बाह्य-अंग उनके, उनके सघन केशमाला से ढके थे, देखने में यक्ष-कन्याएं लगती थीं! अत्यंत एवं अनुपम सौंदर्य! पृथ्वी पर ऐसी कौन सी कन्या है जिसको मैं इनके साथ तुलना करूँ! कोई नहीं, पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ सौंदर्य यहाँ कुरूपता ही कहा जाएगा!
वो तनिक भी नहीं शर्माईं, न वहाँ कोई पहरेदार था ना ही कोई अन्य इनकी सखियाँ! ये हैरान कर देने वाली बात थी! मैं मंत्रमुग्ध सा वहीँ खड़ा था, उनका सौंदर्य निहार रहा था! तभी उनमे से चार जल से बाहर आयीं, कुल सोलह थीं वे! सीढ़ियां चढ़ने लगीं, मेरी तरफ आने लगीं! मैं भावहीन सा खड़ा था! वे चारों आयीं और मुझे देख मुस्कुरायीं! मैं भी मुस्कुराया! उन्होंने मुझे इशारा किया अपने पीछे आने का, मैं किसी मंत्र में बंधा, सम्मोहित सा चल पड़ा उनके पीछे! सबे नीची सीढ़ी पर वे खड़ी हो गयीं, जल में से ऐसी भीनी सुगंध आ रही थी जैसे वो जल, जल ना होकर इत्र ही हो! सारा का सारा!
"आइये" उनमे से एक ने कहा!
और देखिये, मैं चल पड़ा नीचे जल में!
उन्होंने मुझे घेर कर मुझे स्पर्श किया, उनका स्पर्श ऐसा था कि जैसा उँगलियों के पोरुओं पर मोमबत्ती से टपका गरम मोम का सा गरम एहसास!
कौन? कैसे? कब? कहाँ? ऐसे शब्द जैसे रिक्त हो गए थे मेरे मस्तिष्क से! जैसे इन शदों का कोई अस्तित्व ही नहीं था! वे मुझे स्नान कराने लगीं, उनके स्पर्श से मैं कामोत्तेजित हो गया! श्वास तेज होने लगीं! वो मुझे अपने नखों से उत्तेजित करती जातीं और मैं कम पानी में तड़पती हुई मीन की भांति फड़फड़ा जाता! मीन के गिलों की ही तरह मेरा हृदय स्पंदन करता! उनका स्पर्श पल-प्रतिपल मुझे कामावेश में नहलाता जाता! मेरा कंठ शुष्क हो जाता! उनके अंग मुझसे टकराते तो मै किसी सर्प की भाँती कुंडली सी मारता! अपने आप में ही!
और!
तभी, सहसा मुझे किसी का का भान हुआ!
मेरी जैसी आँखें खुल गयीं! जैसे प्रकाश फ़ैल गया! और अन्धकार का नाश हो गया! मैं जैसे जाग गया!
"कौन हो आप?" मैंने अब पूछा,
"आपकी सेविकाएं" उनमे से एक ने हंस के कहा, मेरे वक्ष पर हाथ फेरते हुए!
"मैं कहाँ हूँ?" मैंने पूछा,
"भामिनी-मंडल में" उसने कहा,
भामिनी-मंडल?
यही सुना ने मैंने?"
वे हंसने लगीं सभी!
मैंने ऊपर देखा, न सूर्य ही थे और न चाँद! मई अवश्य भामिनी-मंडल में ही हूँ! भामिनी तो एक सहोदरी है! यक्षिणी-सहोदरी! ओह! तो मुझे यहाँ भेज दिया गया है!
"आप जब तक चाहें यहाँ निवास करें, हम आपके साथ ही हैं" उनमे से एक बोली,
"नहीं!" मैंने कहा,
मुझे चलना होगा यहाँ से!
अब मैंने आँखें बंद कर के उत्परनी का जाप किया और क्षणों में ही मेरे नेत्र खुल गए! मै अपने कक्ष में ही बैठा था! मेरे सामने रविशा लेटे हुई थी! शांत!

वो उठी!
मुझे देख मुस्कुरायी!
"अब सोच लो" उसने कहा,
"सोच लिया" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"तुझे विदा करना है यहाँ से!" मैंने कहा,
"और मै न जाऊं तो?" उसने कहा,
"तो मुझे क़ैद करना होगा तुझे" मैंने कहा,
"इतना सरल है?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा,
"सरल तो नहीं है, परन्तु सरल बना सकता जून मै" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने पूछा,
"मै तुझसे ज्येष्ठ सुशोभना का आह्वान करूँगा, उसका मलय तुझे क़ैद करेगा!" मैंने कहा,
"मै करने दूँगी?" उसने कहा,
"तेरे बस में नहीं है अब कुछ भी देवसखी, तू बस अब हठ पर अड़ी है" मैंने कहा,
"मै नहीं जाने वाली कहीं" उसने कहा,
"तुझे जाना होगा" मैंने कहा,
"मै नहीं जाउंगी!" उसने कहा,
"तब मै विवश हूँ" मैंने कहा,
अब मैंने कोड़ामार महापिशाचिनी कर्णशूल का आह्वान किया! वही इसको सबक सिखा सकती थी! उठा-पटक कर सकती थी!
कर्णशूल महापिशाचिनी की भारत में एक स्थान पर पूजा की जाती है, वहाँ इसको देवी की संज्ञा मिली हुई है, इसका वाहन गधा है! आगे आप ढूंढ लीजिये!
मै अब उसके आह्वान में लग गया, दिशाएं कील दीं! स्थान कील दिया, और अब मै आह्वान में खो गया! कर्णशूल के मंत्र ठ: और ख: भोजी हैं, अतः समय लगता है!
मै खो गया आह्वान में! और ता मेरी पीठ पर स्पर्श करते हुए कर्णशूल प्रकट हो गयी! देवसखी अब भयाक्रांत!
मैंने नमन किया! और फिर उद्देश्य बताया! कर्णशूल के सेवकों ने खींच लिया देवसखी को! और अब हुई पिटाई शुरू! कोड़ामार पिटाई!
और फिर कुछ क्षणों के बाद सब समाप्त! ले गयी देवसखी को कर्णशूल महापिशाचिनी अपने संग! बाँध कर!
दुःख!
दुख तो हुआ मुझे, परन्तु मै विवश था!
मै भूमि पर लेट गया! चिंतित! हठी देवसखी की याद लिए!
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और फिर अगले ही पल वे सभी प्रकट हुए! देवसखी अब संयत थी! कर्णशूल ने सीधा कर दिया था उसको!
कर्णशूल अब लोप हुई!
"चलो साधक" वो बोली,
रविशा अभी भी लेटी थी!
"हे देवसखी, मेरा आपसे कोई बैर नहीं! बस मै अपने मार्ग पर हूँ! मैंने बहुत समझाया लेकिन आप नहीं समझीं! मै क्षमा चाहूंगा अब आप से" मैंने हाथ जोड़कर कहा,
"विलक्षण हो आप! और आपकी विद्या!" वो बोली,
अब मुझसे रुका नहीं गया, मैंने चरण पकड़ लिए उसके, आखिर मै एक मनुष्य हूँ!
"मै जानती हूँ! मै जा रही हूँ! साधक, मै जा रही हूँ, तुझसे खुश हूँ! स्याही देवी का भंडारा करना! ग्यारह दिन अखंड!" उसने कहा,
"मेरा अहोभाग्य!" मैंने कहा,
और फिर समय रुक गया! शून्य की सत्ता हो चली! मै अब वहाँ से चला, शर्मा जी को आवाज़ दे कर बुलाया, वे आये मैंने सबकुछ बताया, उन्होंने मुझे गले से लगा लिया! मेरे पिता समक्ष शर्मा जी के कंधे गीले कर दिए मैंने रो रो कर!
सब ख़तम!
आज!
आज रविशा का व्याह हो चुका है! भंडारा ग्यारह दिन नहीं इकत्तीस दिन चला! दिल खोल के लगाया जय साहब ने!
आज सभी सुखी हैं!
देवसखी! मै गया स्याही देवी के मंदिर, जी नियम हैं वो किये! और फिर एक बार और आशीर्वाद लिया देवी स्याही का!
आज सब ठीक!
औघड़ क्या चाहे! एक बोतल शराब और तेरे घर का खाना!
सब ठीक हो गया!
वाह मेरे औघड़दानी! तेरी लीला तू ही जाने!
इतिश्री!
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