सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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xyz
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

एक छोटे से पात्र में आने को कहा मैंने और पद्मा जोगन उसमे वास कर गयी!
अब छोटे मेरे आंसू!
सब्र टूट गया!
तभी मुझे बाबा डबरा आते दिखायी दिए!
वे आये, मुझे उठाया,
मैं उन के पाँव पकड़ पागल की भांति रोता रहा!
उन्होंने नहीं रोका!
अवसाद था, जितना निकल जाए उतना अच्छा!
उन्होंने मेरे माथे को सहलाया,
"अब सब ख़तम" वे बोले,
मैं चुप, केवल सिसकियाँ!
"तुम विजयी हुए" वे हंस के बोले,
मैं चुप!
कुछ पल!
और कुछ पल!
"बाबा?" मैं बोल पड़ा आखिर!
"बोलो!" वे बोले,
"वो स्तम्भन नहीं था" मैंने कहा,
"मैं जानता हूँ" वे बोले,
"मार्ग बंद किया गया था लौहिताओं का" मैंने कहा,
"हाँ!" वे हंसके बोले!
शान्ति!
मैं खोया अब उसी कड़ी में!
"मैंने भी लौहिताएँ सिद्ध की हैं!" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"ठीक हो जाओ, अब मैं सिद्ध करवाऊंगा तुमको" वे हंस के बोले,
उन्होंने उठाया मुझे!
ले गए अपने स्थान पर, अंगोछा खोला, तो सूजन, सूजन मेरी आँखों तक आ पहुंची थी!
शर्मा जी को बुलाया गाय, वे हैरान-परेशान!
उसी सुबह मुझे ले जाया गया अस्पताल! मेरा इलाज हुआ और हड्डी को जोड़ दिया गया, मात्र हड्डी टूटने के अलावा और कोई ज़ख्म नहीं था!
ग्यारह दिन में मैं ठीक होने लगा, सूजन गायब हो गयी!
इन दिनों में मैंने सारा बखान कर दिया किस्सा कि क्या हुआ था!
करीब तेरह-चौदह दिनों के बाद मैं अब शर्मा जी के साथ वापिस हुआ, बाबा डबरा के पाँव छू कर मैंने विदा ली, सीखने के लिए समय निश्चित हो गया! और हम वापिस हुए!
हाँ, मुझे खबर मिली बाबा डबरा से, कि दम्मो अँधा हो गया था, उसकी वाणी भी सदा के लिए साथ दे चुकी थी, रिपुष को इन्फेक्शन हो गया था हाथ में, उसका एक हाथ कंधे से ही काटना पड़ा था! सारी औघडाई हाथ के साथ ही कट गयी थी!
मैं वापिस सियालदह आ गया! वहीँ ठहरा!
दो दिन बाद पद्मा जोगन के कक्ष में मैंने मुक्ति क्रिया का प्रबंध किया!
पद्मा को पात्र से मुक्त किया!
पद्मा ने मुझे जो कारण बताया वो मैं आपको नहीं बता सकता, कुछ विशेष कारण है! हाँ, वो सिक्का! सिक्का उसने आटे का पेड़ा बनाकर, उसमे रखकर निगल लिया था, उस सिक्के के कारण ही उसका ये हश्र हुआ था! बाबा कर्दुम का वो सिक्का और किसी के हाथ नहीं लगने देना चाहती थी, एक अमावस की रात को वो निर्णय लेकर एक दूर-दराज के तालाब में जल-समाधि के औचित्य से पहुंची और जल-समाधि ले ली!
इस से आगे मैंने कुछ नहीं पूछा! सो लिख भी नहीं सकता!
हाँ, बस इतना कि पद्मा मुक्त हो गयी थी!
मित्रगण! प्राण जाने का भय किसे?
जिसने लोभ पाले हों!
मोहपाश में बंधा हो!
जागृत न हो!
आत्म-ज्ञान से कोसों दूर हो!
जिसमे तृष्णा बलवती हो!
जो चिरावस्था का लोलुप हो!
को कर्त्तव्य-विहीन जीवन जीने का आदि हो!
जो मानस रूप में पशु हो!
जिसे भौतिकता से इतना प्रेम हो जो ज्ञान को झुठलाये!
मैं ओ इतना ही कहूंगा, प्राण आपके नहीं, किसी और की विरासत हैं, आपको केवल उधार दिए गए हैं! वो जब मांगेगा तब आप तो क्या कोई भी रोक नहीं पायेगा जाने से! प्राण स्व्यं खींचे चले जायेंगे इस देह से! और ये देह! ये तो नश्वरता का सबसे बड़ा उदाहरण है!
इस से प्रेम??
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