सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post Reply
User avatar
xyz
Expert Member
Posts: 3886
Joined: 17 Feb 2015 17:18

Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

उस रात हम काफी देर तक बातचीत करते रहे, या यूँ कहें कि पेंच निकालते और डालते रहे, कई जगह रुके और फिर आगे चले, फिर वापिस मुडे और फिर आगे चले! यही करते रहे, जब मदिरा का मद हावी हुआ तो जस के तस पसर गए बिस्तर पर, हाँ मैं कुछ बड़बड़ाता रहा रात भर, शायद पद्मा जोगन से की हुई कुछ बातें थीं!
और जब सुबह मेरी नींद खुली तो सर भन्ना रहा था! घड़ी देखी तो सुबह के छह बजे थे, सर पकड़ कर मैं चला स्नानालय और स्नान किया, थोड़ी राहत मिली, स्नान से फारिग हुआ तो कमरे में आया, शर्मा जी भी उठ गए थे, नमस्कार हुई, मौन नमस्कार, और वे फिर स्नान करने के लिए स्नानघर चले गए, वे भी स्नान कर आये और अब हम दोनों बैठ गए, तभी सहायक आ गया, चाय लेकर आया था, साथ में फैन थे , करारे फैन, दो शर्मा जी ने खाये और तीन मैंने, चाय का मजा आ गया!
"सर में दर्द है, आपके भी है क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, दर्द तो है" वे बोले,
"अभी चलते हैं बाहर, यहाँ बाहर अर्जुन के पेड़ हैं उसकी छाल चबाते हैं, दर्द ठीक हो जाएगा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम बाहर चले और एक छोटे अर्जुन की पेड़ की छाल निकाली और फिर चबा ली, अब आधे घंटे में दर्द ख़तम हो जाना था!
"आज हनुमान सिंह खुद बात करेगा या उसको फ़ोन करना पड़ेगा?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं बात करेगा वो" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी मैंने सामने देखा, एक बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही थी, उसकी निगाहें हम पर ही थीं, मैंने हाथ से शर्मा जी को रोका, कार्य-सिद्ध होने का ये शकुन था! अर्थात आज हमारी नैय्या पार लग जाने वाली थी! मांसाहारी पशु यदि दुग्धपान कर रहे हों तो कार्य सिद्ध होता है और यदि शाकाहारी पशु हों तो कार्य सिद्ध नहीं होता! ऐसा यहाँ लिखने से मेरा अभिप्रायः ये नहीं कि अंधविश्वास को मैं बढ़ावा दूँ, परन्तु मैं शकुन-शास्त्र से ही चलता हूँ और ये मेरे अनुभूत हैं, तभी मैंने यहाँ ऐसा लिखा है!
"चलिए वापिस" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और तभी हनुमान सिंह का फ़ोन आ गया, आज भूमि मिल जानी थी, अतः मैं आज सामग्री इत्यादि खरीद सकता था! ये भी अच्छा समाचार था!
"आज शाम को सामान खरीद लेते हैं" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब वापिस आ गए कक्ष में!
मैं आते ही लेट गया, वे भी लेट गए, सहायक आया और अपने साथ किसी को ले आया, ये स्वरूपानंद थे, यहाँ के एक पुजारी, मैं खड़ा हुआ, नमस्कार की, वे बुज़ुर्ग थे,
"जी?" मैंने कहा,
"दिल्ली से आये हैं आप?" उन्होंने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
"पद्मा जोगन के लिए आये हैं?" उन्होंने पूछा,
बात हैरान कर देने वाली थी!
"हाँ जी" मैंने कहा,
"मुझे छगन ने बताया" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैं उसका ताऊ हूँ" उसने कहा,
मेरे होश उड़े!
"पद्मा ने कभी नहीं बताया?" मैंने पूछा,
"वो मुझसे बात नहीं करती थी" वे बोले,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसके बाप की, यानि मेरे छोटे भाई की भूमि के लेन देन के कारण" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"बस, यहीं से फटाव हो गया, मेरे लड़के आवारा निकले, सब बेच दिया" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"आपको पता चला कुछ??" उन्होंने पूछा,
"कोई सटीक नहीं" मैंने कहा,
"आप पता कीजिये" वे बोले,
"कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"एक एहसान करेंगे?" उन्होंने पूछा,
मैं विस्मित!
"कैसा एहसान?" मैंने पूछा,
"मुझे बता दीजियेगा जब आप जान जाएँ" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
सहायक इस बीच चाय ले आया और हम चाय पीने लगे!
User avatar
xyz
Expert Member
Posts: 3886
Joined: 17 Feb 2015 17:18

Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

चाय समाप्त की और स्वरूपानंद को विदा किया और अब कुछ देर लेटे हम! आराम करने के लिए, सर का दर्द समाप्त हो चुका था, जैसे था ही नहीं!
"गुरु जी?" शर्मा जी बोले,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"खबर करेंगे क्या इनको?" उन्होंने पूछा,
"कर देंगे" मैंने आँखें बंद करते हुए कहा,
"केवल उत्सुकता है इनको" वे बोले,
"हाँ, लेकिन खून, खून के लिए भागता है" मैंने कहा,
"ये तो है" वे बोले,
कुछ और इधर-उधर की बातें और फिर झपकी!
आँख खुली तो एक बजा था!
"उठिए" मैंने सोते हुए शर्मा जी को उठाया
"क्या बजा?" उन्होंने अचकचाते हुए पूछा,
"एक बज गया" मैंने कहा,
"बड़ी जल्दी?" वे उठे हुए बोले,
"हाँ!" मैंने हँसते हुए कहा,
वे उठ गए! आँखें मलते हुए!
"चलिए, भोजन किया जाए" मैंने कहा,
"अभी कहता हूँ" वे उठे और बाहर चले गए, फिर थोड़ी देर में आ गए,
"कह दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
और तभी सहायक आ गया, आलू की सब्जी और गरम गरम पूरियां! साथ में सलाद और दही! मजा आ गया! पेट में भूख बेलगाम हो गयी!
खूब मजे से खाया, और भी मंगवाया! और हुए फारिग! लम्बी लम्बी डकारों ने' स्थान रिक्त नहीं' की मुनादी कर दी!
"आइये" मैंने कहा,
"कहाँ" उन्होंने पूछा,
"स्वरूपानंद के पास" मैंने कहा,
"किसलिए?" उन्होंने उठते हुए पूछा,
"देख तो लें?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम बाहर आये, स्वरूपानंद का कक्ष पूछा और चल दिए वहाँ, वो नहीं मिले वहाँ, ढूँढा भी लेकिन नहीं थे, पता चला कहीं गए हैं!
फिर समय गुजरा, दिन ने कर्त्तव्य पूर्ण किया और संध्या ने स्थान लिया, अब हम बाहर चले, सामग्री लेने, बाज़ार पहुंचे, मदिर, सामग्री आदि ले और सवारो गाड़ी पकड़ कर चल दिए हनुमान सिंह के पास!
वहाँ पहुंचे, हनुमान सिंह से बात हुई, गले लग के मिला हमसे, अक्सर दिल्ली आता रहता है, सो मेरे पास ही आता है!
"हो गया प्रबंध?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
"क्या ज़रुरत!: उसने हंस के कहा,
हम बाहर चल पड़े, अच्छा ख़ासा बड़ा शमशान था, कई चिताएं जल रही थीं वहाँ! दहक रही थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"सामान है?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक" उसने कहा और सामान लिया, मैं एक बोतल उसके लिए भी ले आया था!
"ठीक है, आप स्नान कीजिये" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"आप, शर्मा जी, वहाँ कक्ष में रहना" मैंने कक्ष दिखाया,
"जी" वे बोले,
अब मैं स्नान करने चला गया!
वापिस आया तो सारा सामान उठाया, हनुमान सिंह ने मुझे एक चिता दिखायी, ये एक जवान चिता थी, जवाब देह की चिता!
"ठीक है" मैंने कहा,
अब मैंने अपना बैग खोला और आवश्यक सामान निकाला, और भस्म आदि सामने रख ली!
अब!
अब मैंने भस्म स्नान किया!
तंत्राभूषण धारण किये!
लंगोट खोल दी!
आसान बिछाया!
और तत्पर हुआ!
क्रिया हेतु!
भस्म-स्नान किया सबसे पहले!
User avatar
xyz
Expert Member
Posts: 3886
Joined: 17 Feb 2015 17:18

Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

केश बांधे!
रक्त से टीका लगाया माथे पर!
माथे पर अंगूठे से, काजल ले, टीका लगाया!
अपना त्रिशूल निकाला और बाएं गाड़ा आसान के!
चिमटा लिया और दायें रखा!
गुरु-वंदना की!
अघोर-पुरुष से सफलता व उद्देश्य पॄति केतु कामना की!
शक्ति को नमन किया!
दिक्पालों की वंदना की!
प्रथम आसान भूमि को चूमा!
पिता रुपी आकाश को नमन किया!
आठों कोणों को बाँधा!
और!
फिर, उस चिता के पाँव पर जाकर नमन किया!
उसके सर पर शीश नवाया!
तीन परिक्रमा की!
और, अपने आसान पर विराजमान हो गया! चिमटा खड़का कर समस्त भूत-प्रेतों को अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी! फिर दो थाल निकाले, उनमे मांस सजाया, कुछ फूल आदि भी, काली छिद्रित कौड़ियां सजायीं! कपाल निकाला, उसकी खोपड़ी पर एक दिया जलाया! और कपाल-कटोरा निकाला! उसमे मदिरा परोसी और अघोर-पुरुष को समर्पित कर कंठ से नीचे उतार लिया!
महानाद किया!
सर्वदिशा अटटहास किया!
और फिर मैंने पद्मा का आह्वान किया! उसके आत्मा का आह्वान! मंत्र पढ़े, मंत्र तीक्ष्ण हुए, और तीक्ष्ण, महातीक्ष्ण, रज शक्ति के अमोघ मंत्र!
परन्तु?
एक पत्ता भी न खड़का!
ऐसा क्यों?
क्यों ऐसा?"
उफ्फ्फ्फ़! नहीं! ये नहीं हो सकता! कदापि नहीं हो सकता! नहीं औघड़! ये तू क्या सोच रहा है? अनाप शनाप? नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं सोचना! नहीं तो तेरा त्रिशूल तेरे हलक से होत्ता हुआ गुद्दी से बाहर!
लेकिन!
सोचूं कैसे ना ओ औंधी खोपड़ी???
कहाँ है पद्मा??
पद्मा की आत्मा??
है तो ला?
ला मेरे सामने?
खींच के क्यों नहीं लाता?"
मुक्त तो नहीं हुई होगी!
हा! हा! हा! हा!
मुक्त कैसे??' भला कैसे ओ औंधी खोपड़ी??
कैसे??
जवाब दे??
तू?? तू जवाब तो दे ना!
कहाँ है?? कहाँ है????
मुझे बताने चला था!
हाँ!
मदिरा! मदिरा! प्यास! प्यास!
कंठ जल रहा है!
मदिरा!
मदिरा!
फिर से कपाल-कटोरा भरा और कंठ से नीचे!
हाँ!
अब ठंडा हुआ कंठ!
सुन ओ औंधी खोपड़ी?
कहाँ है पद्मा की रूह??
ला उसको सामने??
हा! हा! हा! हा! हा! हा!
मैंने सही था! ये औघड़ सही था!
वो हो गयी क़ैद!
किसी ने कर लिया उसको क़ैद!
सुन बे औंधी खोपड़ी!
क़ैद हो गयी वो!
जाने कहाँ!
जाने किसने?
है ना??
लेकिन!
पता चल जाएगा!
चल जाएगा पता!
अभी! अभी!
मैंने त्रिशूल लिया और लहराया!
ये भाषा है शमशान की मित्रगण! मसान से वार्तालाप!
User avatar
xyz
Expert Member
Posts: 3886
Joined: 17 Feb 2015 17:18

Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

वो क़ैद थी! लेकिन कहाँ? किसके पास? अब सिपाही रवाना करना था, एक बात तो तय थी, जिसने क़ैद किया था वो भी खिलाड़ी थी, अब यहाँ दो वजह थीं, या तो किसी ने केवल रूह को पकड़ा था, या कुछ कुबुलवाने के लिए, जैसे कि वो सिक्का कहाँ है! इन्ही प्रश्नों का उत्तर खंगालना था! और यही देखते हुए मुझे ये तय करना था कि किसे तलाश में भेजा जाए, जो उसका पता भी निकाल ले और खुद को क़ैद का भय भी न हो! ये काम कोई महाप्रेत या चुडैल नहीं कर सकती थी, इसके लिए मुझे अपना खबीस, तातार खबीस भेजना था, अतः मैंने ये निसहाय किया कि अब तातार ही वहाँ जाएगा, और मैंने तभी तातार का शाही-रुक्का पढ़ा!
हवा पर बैठा हुआ तातार हाज़िर हुआ! उस समय मई चिता से दूर पहुँच गया था, शमशान में कीलित भूमि पर खबीस हाज़िर नहीं होते!
मैंने तातार को उसका उद्देश्य बताया, उसको उसका अंगोछा दिया, उसने गंध ली और अपने कड़े टकराता हुआ मेरा सिपाही हवा में सीढ़ियां चढ़ रवाना हो गया! मई वहीँ बैठ गया!
कुछ समय बीता,
थोड़ा और,
और फिर!
हाज़िर हुआ! जैसे हवा की रानी ने हाथ से रखा हो उसको मेरे सामने!
अब उसने बोलना शुरू किया! मैंने सुना और मेरी त्यौरियां चढ़ती चली गयीं! उसके अनुसार एक औघड़ रिपुष नाथ के पास उसकी आत्मा थी, काले रंग के घड़े में बंद! और वो औघड़ वहाँ से बहुत दूर असम के कोकराझार में था उस समय! और हाँ, रिपुष के पास कोई भी सिक्का नहीं था!
मई खुश हुआ, तातार को मैंने भोग दिया और मैंने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए उसको शुक्रिया कहा, तातार मुस्कुराया और झम्म से लोप हुआ!
अब मैं उठा वहाँ से, चिता-नमन किया, गुरु-नमन एवं अघोर-नमन किया और वापिस आ गया! स्नान किया और सामान्य हुआ, सामान आदि बाँध लिया, रख लिया, शत्रु और उसकी क़ैदगाह मुझे पता थी अब!
मैं कक्ष में आया, नशे में झूमता हुआ! और वहीँ लेट गया! शर्मा जी और हनुमान सिंह समझ गए कि क्रिया पूर्ण हो गयी, वे दोनों उठे और कक्ष से बाहर चले गए! वे भी सो गए और मैं भी!
सुबह हुई!
शर्मा जी मेरे पास आये!
"नमस्कार" वे बोले,
"नमस्कार" मैंने उत्तर दिया,
"सफल हुए?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"पद्मा मिली?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो चौंके!
"नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर सफल कैसे?" उन्होंने पूछा,
"वो क़ैद है" मैंने अब आँखों में आँखें डाल कर देखा और कहा,
"क़ैद?" अब जैसे फटे वो!
"हाँ!'' मैंने कहा,
"ओह!" उनके मुंह से निकल,
"अब?" वो बोले,
"हमको जाना होगा,
"कब?", उन्होंने पूछा,
"कल ही?" मैंने कहा,
"कहाँ?",उन्होंने पूछा
"असम",मैंने कहा,
अब कुछ पल चुप्पी!
"ठीक है",उन्होंने पूछा
"अब चलते हैं यहाँ से",मैंने कहा,
"जी",उन्होंने पूछा
इतने में हनुमान सिंह भी आ गया, चाय लेकर! हमने चाय पी!
"सही निबटा सब?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो" उसने कहा,
"अब हम चलते हैं" मैंने कहा,
"जी" वो बोला,
और हम वहाँ से निकल पड़े!
अब मंजिल दूर थी, हाँ एक बात और, रंगा पहलवान, बिलसा और वो दीनानाथ अब सब संदेह के दायरे से मुक्त थे!
User avatar
xyz
Expert Member
Posts: 3886
Joined: 17 Feb 2015 17:18

Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

Post by xyz »

अगला दिन,
हमे वहाँ से अब गाड़ी पकड़ी असम के लिए, आरक्षण श्रद्धा जी से करवा लिया था, सौभाग्य से हो भी गया, और हम गाड़ी में बैठ गए, हमको करीब ग्यारह घंटे लगने थे,
आराम से पसर गए अपने अपने बर्थ पर!
और साहब!
जब पहुंचे वहा तो शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो गालियां न दे रहा हो, कुछ तो मौसम, कुछ लोग ऐसे और कुछ भोजन! हालत खराब!
खैर,
मैं अपने जान-पहचान के एक डेरे पर गया, डबरा बाबा का डेरा! डबरा बाबा को मेरे दादा श्री का शिष्यत्व प्राप्त है! हम वहीं ठहरे! ये डेरा अपनी काम-सुंदरियों के लिए विख्यात है तंत्र-जगत में! स्व्यं डबरा बाबा के पास नौ सर्प अथवा नाग-कन्याएं हैं!
"पहुँच गए आखिर" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
कक्ष काफी बड़ा था, दो बिस्तर बिछे थे भूमि पर, मैं तो जा पसरा! मुझे पसरे देखा शर्मा जी भी पसर गए!
"आज आराम करते हैं, कल निकलते हैं वहाँ रिपुष के पास" मैंने कहा
"हां" वे बोले,
हम नहाये धोये, भोजन किया और सो गए, शेष कुछ नहीं था करने के लिए!
अगले दिन प्रातः!
मैं बाबा डबरा के पास गया, वे पूजन से उठे ही थे,
"कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक" वे बोले और हमको बिठा लिया उन्होंने, उनकी आयु आज इक्यानवें साल है,
"बाबा, आप किसी रिपुष को जानते हैं?" मैंने पूछा,
"रिपुष?" उन्होंने सर उठा के पूछा,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
Post Reply