सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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महिषिका आ धमकी! साथ में दो उप-सहोदरि अपने अपने अस्त्र लिए! यहाँ त्रिजा भी प्रकट हो गयी थी! आमना-सामना हुआ उनका और फिर त्रिजा के समक्ष नतमस्तक हुई महिषिका और भन्न! दोनों ही लोप!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये! समझ नहीं आया कि क्या करें!
मैंने त्रिशूल हिलाया!
उन्होंने भी हिलाया!
मैं आसन से उठा!
कपाल उठाया और अपने सर पर रखा!
उन्होंने कपाल के ऊपर पाँव रखा!
अर्थात वे नहीं मान रहे थे हार!
डटे हुए थे!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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तीन वार हो चुके थे! अब मेरा वार था! मुझे करना था वार! उनकी देख मुझ तक पहुंची और मैंने तब एक अट्ठहास किया! मैंने एक घड़ा लिया छोटा सा, उनमे मूत्र त्याग किया, साध्वी के पेट पर रख कर! वो फुंफना रही थी, कुछ बुदबुदा रही थी, इसकी निशिका-चक्र कहते हैं, उसकी रूह किसी और दुनिया में अटकी थी, उसका शरीर ही था यहाँ! मैने उस मूत्र से भर घड़े को अपने हाथों से एक गड्ढा खोद कर भूमि में गाड़ दिया! और मंत्रोच्चार किया! ये देख के कब्जे में आया और दूसरी वे दोनों औघड़ जाने गए मैं क्या करने वाला हूँ!
"हाँ?" मैंने कहा,
"बोल?" वे बोले,
"भूमि?" मैंने कहा,
"चरण" वे बोले,
"आग" मैंने कहा,
"चिता" वे बोले,
संवरण हुआ!
कोई तैयार नहीं झुकने को!
मृत्यु संधि कराये तो कराये!
तभी वो घड़ा बाहर आया और उसमे से दो कन्याएं प्रकट हुईं, धामन कन्यायें! उनके मुख नहीं थी, बस दंतमाला ही दिख रही थी, अत्यंत रौद्र होती हैं ये धामन कन्याएं! उद्देश्य जान वे ज़मीन पर रेंगती हुई भूमि में समा गयीं!
वहाँ!
अपने चारों और अपने त्रिशूल ताने वे देख रहे थे! और तभी भूमि फाड़ वे कन्याएं उत्पन्न हुईं! दम्मो आगे आया और उनको त्रिशूल के वार से शिथिल कर दिया! मृतप्रायः सी वे फिर पड़ीं वहाँ, उनकी ग्रीवा पर पाँव रखते हुए उनको लोप कर दिया, वे भूमि में पुनः समा गयीं!
उनकी जीत हुई!
इस जीत से बालकों की तरह उत्साहित हो गए वे दोनों!
हंसी मुझे भी आयी!
"बोल?" रिपुष दहाड़ा!
"जा!" मैंने धिक्कारा!
"आ" मुझे झुकने को कहा,
"अंत" मैंने शब्द-वाणी बंद की!
अब दम्मो ने हाथ हिलाते हुए, कुटकी-मसानी का आह्वान किया! कुटकी जहाँ भी जाती है वहाँ भूत-प्रेत सब भाग जाते हैं! मैदान छोड़ जाते हैं! उसीका आह्वान किया था उसने!
मैंने फ़ौरन ही धनंगा महाबली का आह्वान किया! महातम शक्ति!
दोनों ओर महाजाप!
वे दोनों साध्वियों पर सवार!
और मैं अपनी साध्वी के कन्धों पर बैठा!
लगा जाप करने!
कुटकी अत्यंत तीक्ष्ण मसानी है! ममहामसानी! अक्सर सिद्ध ही इसका प्रयोग करते हैं! सिद्ध होने पर भार्या समान सेवा करती है! ये वीर्य-वर्धक होती है! साधक के मृत्योपरांत सेवा करती है! वही है कुटकी!
मैंने धनंगा का आह्वान किया! ये मात्र धनंगा से ही सहवास करती है! धनंगा कृषु-वेताल सेवक होता है! बेहद परम शक्तिशाली!
कुटकी वहाँ प्रकट हुई!
और यहाँ केश रहित धनंगा!
धनंगा गदाधारी है! ताम्र गदा! मूठ अस्थिओं के बने होते हैं!
अपनी जीत देख, मद में चूर, भेज दिया कुटकी को! क्रंदन करी मात्र एक क्षण में प्रकट हो गई! मार्ग में आये धनंगा से आलिंगनबद्ध हो गयी और फिर दोनों लोप!
हा! हा! हा! हा! हा!
अट्ठहास लगाया मैंने!
"बल?" मैंने कहा,
"यश" वे बोले,
"मृत्यु!" मैंने कहा,
"जीवन" वे बोले!
बड़े हठी थे वे!
"रक्त!" मैंने कहा,
"अमृत!" वे बोले,
"क्षुधा!" मैंने कहा,
"यत्रः" वे बोले,
मूर्ख दोनों!
परम मूर्ख!
साध्वियां पलटीं उन्होंने अब! मुख में उनकी मूत्र-विसर्जन किया! फिर लेप! और दोनों बैठ गए!
यहाँ,
मैंने अपनी साध्वी को अब पेट के बल लिटाया,
एक शक्ति-चिन्ह बनाया मिट्टी से!
और तत्पर!
वे भी तत्पर!
द्वन्द गहराया अब!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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द्वन्द अपनी द्रुत गति से आगे बढ़ रहा था! उनकी देख मुझ पर और मेरी उन पर नियंत्रित थी! दोनों डटे हुए थे!
तभी!
रिपुष नीचे बैठा, अपनी साध्वी को अपनी ओर किया और उसके स्तनों पर खड़िया से चिन्ह अंकित किये! और गहन मंत्रोचार में डूबा! मुझे भान नहीं हुआ एक पल को तो और तभी मेरे कारण-पटल में आवाज़ गूंजी, "स्वर्णधामा'
अब मैं समझा!
लालच!
लोभ!
वश!
वाह!
इस से पहले कि मैं उसको रोकता एक परम सुंदरी मेरे समक्ष प्रकट हो गयी! मेरी nazar उसके तीक्ष्ण सौंदर्य पर गयी! सघन केशराशि! उन्नत कंधे, उन्नत कामातुर वक्ष! सुसज्जित आभूषणों से! पूर्ण नागा! कामुक नाभि क्षेत्र! उन्नत उत्तल योनि! सब दैवीय!
"मैं स्वर्णधामा!" उनसे कहा,
"जानता हूँ हे सुंदरी!" मैंने कहा,
"मैं कामेश्वरी सखी" उसने कहा,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"चिर-यौवन!" उसने अब लालच दिया!
"नहीं" मैंने उत्तर दिया!
मैं उसकी पतली कमर और सुडौल नितम्ब देखते हुए काम-मुग्ध था!
"स्वीकार है?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"भामिका, अतौली, निहिषिका और वारुणी! ये सब भी संग!" उसने कहा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"मैं देह-रक्षक!" उसने ठिठोली सी करी!
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"मुझे अधिकार दे दो देह का!" उसने कहा,
"नहीं" मैंने मना किया,
वो हंसने लगी! खनकती हुई दैविक हंसी!
"प्रयास नहीं करोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपब मेरे शिथिल लिंग को हाथ लगाया,
जस का तस,
कोई तनाव नहीं!
वो मादक हंसी हंसी!
और,
मुझसे ऐसे लिपटी कि उसके नितम्ब मुझसे टकराने लगे, और उसने अपने हाथों से मेरे हाथ पकड़ कर अपने स्तनों पर रख दिए!
"अब बताओ?" उसने कहा,
एक भीनी मदमाती सुगंध!
मैं बेसुध!
काम आल्हादित!
हलक! सूखने लगा!
उसने मेरे हाथ के अंगूठे और तरजनी के बीच अपना स्तनाग्र फंसा दिया!
ठंडा पसीना मुझे!
हृदय में स्पंदन तीव्र हुआ!
उसने अपने नितंभ मेरे लिंग पर सबाव बनाते हुए मुझे वक्रावस्था में, धनुषावस्था में, पीछे धकेला, थोडा सा!
"बोलो?" उसने लरजती हुई आवाज़ में कहा,
सच कहता हूँ!
मेरे मुंह में 'नहीं' अटक गया!
नहीं निकला बाहर!
"स्वीकार?" उसने व्यंग्य किया!
बड़े साहस और थूक का क़तरा क़तरा इकट्ठा कर मैंने हीवह को गीला किया और कहा, "नहीं"
"क्यों?"
"माया!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने अब अपने हाथ से मेरा लिंग पकड़ा और अंडकोष सहलाने लगी!
अब मैंने अपनी आप को छुड़ाया उस से!
मैं छूट गया!
"बोलो?" उसने पूछा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"नहीं? नहीं? हाँ बोलिये" उसने अपना केश आगे किये और कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने मेरे लिंग को देखा, मैंने भी, शिथिल!
एक चूक और प्राण की हूक!
"मान जाओ" उसने मुलव्वत से पूछा,
"नहीं स्वर्णधामा! अब जाओ!" मैंने ये कहते हुए दो हड्डियों से एक विशेष मुद्रा बनाकर जालज-मंत्र का जाप करते हुए उसको लोप करा दिया!
ह्रदय पुनः व्यवस्थित हो गया अपने स्पंदन गिनने लगा!
साम दाम दंड भेद!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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स्वर्णधामा चली गयी! मैं विजयी हुआ था, बाल बाल बचा था! बड़ी सोची समझी चाल थी!
वहाँ सर पीट लिया था दोनों ने! मैंने काबू नहीं आया था! अब मेरा वार था, मैंने मूत्र लगी हुओ मिट्टी से एक गेंद बनायीं और उसको अलख के पास रक, फिर उसपर नज़रें टेकता हुआ मंत्र पढता चला गया! मैंने साध्वी उलटी लेती थी, उस पर चींटे रेंगने लगे थे!मैं समय समय पर उनको साफ़ कर देता था! अब एक मंत्र पढ़कर त्रिशूल से एक रेखा खेंच दी उसके शरीर के चारो ओर, वो चींटे तो क्या कोई सांप भी नहीं घुस सकता था उस घेरे में!
हां, अब मैंने फिर से नज़रें उस गेंद पर गड़ाईं, और फिर गेंद फट पड़ी! उसकी मिट्टी से टीका किया और फिर अब मैंने त्रांडव-कन्या का आह्वान किया! ये कन्या पीठ ही दिखाती है, और कुछ नहीं, बाल शेवट होते हैं नीचे पिंडलियों तक, शरीर पर को आवरण, आभूषण और वस्त्र नहीं होता! केवल हाथ में एक काला शंख और अस्थियों से बना एक बिंदीपाल अस्त्र होता है! ये कन्या नभ-वासिनी है और अत्यंत तीक्ष्ण हुआ करती है, अट्ठहास जहां करे वहाँ भूमि में गड्ढे पड़ने लगते हैं, कर्ण का ख़याल ना रखा जाए तो कर्ण में शूल होकर रक्त बहने लगता है! अंत में सर फट जाता है, मैंने कर्ण एवं शीश-रक्षा मंत्र जागृत किये और फिर आह्वान तेज किया!
भन्न! और वो प्रकट हो गयी आकाश से उतर कर!
मैंने भूमि पर पेट के बल लेट गया!
"माते!" मैंने कहा,
उसने हुंकार भरी!
अब मैंने उद्देश्य बताया, उसने अट्ठहास किया और जिस मार्ग से आयी थी उसी मार्ग से चली गयी!
वहाँ वे भी तैयार थे! उन्होंने त्रांडव-कन्या की काट के लिए भन्द्रिका को हाज़िर कर लिया था! दोनों समान टक्कर की थीं और प्रबल शत्रु भी!
वहाँ त्रांडव-कन्या प्रकट हुई और भन्द्रिका भी!
तांडव मच गया!
क्या मेरी और क्या उनकी!
सभी की अलख प्राण बचाने हेतु चिल्लाने लगीं! अलख छोटी और छोटी होती चली गयीं! वहाँ उसका त्रिशूल डगमगा के गिरा और यहाँ मेरा उखड़ के गिरा!
दोनों के चिमटे गिर पड़े ज़मीन पर!
ह्दय धक् धक्!
चक्रवात सा उमड़ पड़ा!
और ताहि मुझे जैसे किसीने केशों से पकड़ के ज़मीन पर छुआ दिया! मायने डामरी-विद्या का प्रयोग करते हुए प्राण बचाये!
वहाँ रिपुष को उठा के फेंक मारा!
दम्मो ज़मीन पर लेट गया तो उसकी टांगों से खींच कर उसको कोई ले गया क्रिया-स्थल से दूर!
दोनों जगह हा-हाकार सा मच गया!
"पलट?" दम्मो चीखा!
मैं पलट गया और शक्ति वापिस कर ली!
वो वहाँ से मेरे पास आ कर लोप हो गयी!
वहाँ दम्मो ने भी वापिस कर ली!
अब शान्ति!
यहाँ भी और वहाँ भी!
प्राण बच गए सभी के!
"चला जा?" दम्मो चीखा!
"नहीं" मैं चीखा!
"भाग जा?" वो चिल्लाया!
"कभी नहीं" मैंने कहा,
"मारा जाएगा?" उसने कहा,
"परवाह नहीं" मैंने कहा,
अब मैंने त्रिशूल को गाड़ा और डमरू बजाया!
बस!
बहुत हुआ!
बस!
अब देख असली खेल दम्मो!
मैं क्रोधित!
दावानल!
मेरे मस्तिष्क में दावानल फूटा!
अब मैंने भूमि में दो गड्ढे किये!
दोनों गड्ढों में पाँव रखे और फिर आह्वान किया एक प्रबल महाशक्ति का!
सहन्स्त्रिका का!
एक राक्षसी!
एक महा मायावी!
एक रौद्र से भरपूर शक्ति!
अब पान कांपे उनके! यकीन नहीं था उनको!
"भाग जाओ" मैंने कहा,
वो चुप!
"भाग जाओ!" मैंने कहा,
चुप्पी!
"चले जाओ" मैंने चिल्ला के कहा!
दम्मो आगे आया! आकाश को देखा, हवा में एक यन्त्र बनाया, थूका और बोला, "कभी नहीं!"
और गुस्से में अपने आसान पर बैठ गया!
असल खेल अब आरम्भ हुआ था! द्वन्द मध्य भाग में प्रवेश कर गया था!
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और वही हुआ, हाथ में खप्पर लिए वहाँ प्रकट हो गयी अपनी नाचती हुई शाकिनियों के साथ! सहन्स्त्रिका से सामना हुआ और नृतकी शाकिनियां शांत! शांत ऐसे जैसे दो नैसर्गिक शत्रु एक दूसरे के सामने आ गए हों! वे अविलम्ब आगे बढ़ीं , टकरायीं, ये तो मुझे याद है, उसके बाद मै गिर पड़ा भूमि पर, जैसे मुझे किसी ने उठाकर पटका हो और मुझे भूमि में ही घुसेड़ना चाहता हो! सर ज़मीन में लगा और मै बेहोश हुआ, मेरे सर की हड्डी टूट चुकी थी! बस मुझे इतना याद है, मेरे यहाँ मेरा वक़्त थम गया था, मै हार की कगार पर पड़ा था, और कभी भी अचेतावस्था में गिर सकता था हार सकता था, मेरा मुंह खुला था और खुला ही रह गया!
कितना समय बीता?
याद नहीं!
कुछ याद नहीं!
कौन शत्रु है कौन नहीं, कुछ पता नहीं!
मै अचेत पड़ा था, साध्वी नीचे बड़बड़ाती हुई पड़ी थी!
और समय बीता!
रिपुष का क्या हुआ?
दम्मो का क्या हुआ?
ये प्रश्न मेरे साथ ही गिरे पड़े थे!
उत्तर देने वाला कोई नहीं था!
और समय बीता!
कुछ घंटे!
और सहसा!
सहसा मुझे होश सा आया, आँखें खुलीं, आकाश तारों से चमक रहा था, मेरे सर पर अंगोछा बंधा था, मैंने जायज़ा लिया, मै था तो श्मशान में ही था, लेकिन कहा? कुछ याद नहीं आ रहा था!
तभी मुझे कुछ मंत्रोच्चार की आवाज़ें आयीं,
भीषण-श्लाघा के भारी भारी मंत्र!
ये कौन है?
कहीं मै क़ैद तो नहीं,
कहीं प्राणांत तो नहीं हो गया!
ये कौन है?
मैंने स्वयं को टटोला, हाथ लगाया, मै तो जीवित था, खड़े होने के कोशिश की तो एक आवाज़ आयी, "उठ जा अब"
मैंने कोशिश की, सर घूम रहा था, बाएं गर्दन नहीं मुड रही थी!
मै किसी तरह से उठा!
अरे?????
अरे?????
ये तो बाबा हैं! बाबा डबरा!
उन्होंने सम्भाल रखा था मोर्चा!
"उठ जा अब!" वे मुसरा के बोले,
मुझे में प्राणसंचार हुआ! मै उठ बैठा और सीधे ही आसन पर बैठ गया!
"कहाँ तक पहुंचे?" मैंने पूछा,
"मै स्तम्भन कर रखा है, पर्दा कभी भी फट सकता है" वे बोले,
"कितना समय हुआ?" मैंने पूछा,
"एक घंटा" वे बोले,
"और रिपुष और दम्मो का क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वही जो तेरा हुआ, रिपुष का सर फट गया है, दम्मो सम्भाल के बैठा है, दम्मो कि एक आँख में रौशनी नहीं है" वे बोले,
"तब भी?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
और खड़े हुए!
"अब मै चलता हूँ, द्वन्द तेरा है, विजय होना" वे बोले,
और वो अपना त्रिशूल लेकर चले गए वहाँ से!
मै संयत हुआ!
देख शुरू कीं!
मर जाता तो देख भी भाग छूटतीं!
अब मैंने स्तम्भन हटा दिया! दृश्य स्पष्ट हो गया!
वे चकित!
मै चकित!
अब हम उत्तरार्ध में थे!
अब या तो वे या मै!
उन्होंने मेरे यहाँ मांस के लोथड़ों की बारिश की! जैसे सुस्वागतम के फूल बिखेरे हों!
मैंने भी वहाँ बारिश कर दी आतिश की! दुर्गन्ध की!
द्वन्द चतुर्थ और अंतिम चरण में लांघ गया!
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