वो क़ैद थी! लेकिन कहाँ? किसके पास? अब सिपाही रवाना करना था, एक बात तो तय थी, जिसने क़ैद किया था वो भी खिलाड़ी थी, अब यहाँ दो वजह थीं, या तो किसी ने केवल रूह को पकड़ा था, या कुछ कुबुलवाने के लिए, जैसे कि वो सिक्का कहाँ है! इन्ही प्रश्नों का उत्तर खंगालना था! और यही देखते हुए मुझे ये तय करना था कि किसे तलाश में भेजा जाए, जो उसका पता भी निकाल ले और खुद को क़ैद का भय भी न हो! ये काम कोई महाप्रेत या चुडैल नहीं कर सकती थी, इसके लिए मुझे अपना खबीस, तातार खबीस भेजना था, अतः मैंने ये निसहाय किया कि अब तातार ही वहाँ जाएगा, और मैंने तभी तातार का शाही-रुक्का पढ़ा!
हवा पर बैठा हुआ तातार हाज़िर हुआ! उस समय मई चिता से दूर पहुँच गया था, शमशान में कीलित भूमि पर खबीस हाज़िर नहीं होते!
मैंने तातार को उसका उद्देश्य बताया, उसको उसका अंगोछा दिया, उसने गंध ली और अपने कड़े टकराता हुआ मेरा सिपाही हवा में सीढ़ियां चढ़ रवाना हो गया! मई वहीँ बैठ गया!
कुछ समय बीता,
थोड़ा और,
और फिर!
हाज़िर हुआ! जैसे हवा की रानी ने हाथ से रखा हो उसको मेरे सामने!
अब उसने बोलना शुरू किया! मैंने सुना और मेरी त्यौरियां चढ़ती चली गयीं! उसके अनुसार एक औघड़ रिपुष नाथ के पास उसकी आत्मा थी, काले रंग के घड़े में बंद! और वो औघड़ वहाँ से बहुत दूर असम के कोकराझार में था उस समय! और हाँ, रिपुष के पास कोई भी सिक्का नहीं था!
मई खुश हुआ, तातार को मैंने भोग दिया और मैंने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए उसको शुक्रिया कहा, तातार मुस्कुराया और झम्म से लोप हुआ!
अब मैं उठा वहाँ से, चिता-नमन किया, गुरु-नमन एवं अघोर-नमन किया और वापिस आ गया! स्नान किया और सामान्य हुआ, सामान आदि बाँध लिया, रख लिया, शत्रु और उसकी क़ैदगाह मुझे पता थी अब!
मैं कक्ष में आया, नशे में झूमता हुआ! और वहीँ लेट गया! शर्मा जी और हनुमान सिंह समझ गए कि क्रिया पूर्ण हो गयी, वे दोनों उठे और कक्ष से बाहर चले गए! वे भी सो गए और मैं भी!
सुबह हुई!
शर्मा जी मेरे पास आये!
"नमस्कार" वे बोले,
"नमस्कार" मैंने उत्तर दिया,
"सफल हुए?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"पद्मा मिली?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो चौंके!
"नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर सफल कैसे?" उन्होंने पूछा,
"वो क़ैद है" मैंने अब आँखों में आँखें डाल कर देखा और कहा,
"क़ैद?" अब जैसे फटे वो!
"हाँ!'' मैंने कहा,
"ओह!" उनके मुंह से निकल,
"अब?" वो बोले,
"हमको जाना होगा,
"कब?", उन्होंने पूछा,
"कल ही?" मैंने कहा,
"कहाँ?",उन्होंने पूछा
"असम",मैंने कहा,
अब कुछ पल चुप्पी!
"ठीक है",उन्होंने पूछा
"अब चलते हैं यहाँ से",मैंने कहा,
"जी",उन्होंने पूछा
इतने में हनुमान सिंह भी आ गया, चाय लेकर! हमने चाय पी!
"सही निबटा सब?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो" उसने कहा,
"अब हम चलते हैं" मैंने कहा,
"जी" वो बोला,
और हम वहाँ से निकल पड़े!
अब मंजिल दूर थी, हाँ एक बात और, रंगा पहलवान, बिलसा और वो दीनानाथ अब सब संदेह के दायरे से मुक्त थे!
सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
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(रेशमा - मेरी पड़ोसन complete).....(मेरी मस्तानी समधन complete)......
(भूत प्रेतों की कहानियाँ complete)....... (इंसाफ कुदरत का complete).... (हरामी बेटा compleet )-.....(माया ने लगाया चस्का complete). (Incest-मेरे पति और मेरी ननद complete ).
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
अगला दिन,
हमे वहाँ से अब गाड़ी पकड़ी असम के लिए, आरक्षण श्रद्धा जी से करवा लिया था, सौभाग्य से हो भी गया, और हम गाड़ी में बैठ गए, हमको करीब ग्यारह घंटे लगने थे,
आराम से पसर गए अपने अपने बर्थ पर!
और साहब!
जब पहुंचे वहा तो शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो गालियां न दे रहा हो, कुछ तो मौसम, कुछ लोग ऐसे और कुछ भोजन! हालत खराब!
खैर,
मैं अपने जान-पहचान के एक डेरे पर गया, डबरा बाबा का डेरा! डबरा बाबा को मेरे दादा श्री का शिष्यत्व प्राप्त है! हम वहीं ठहरे! ये डेरा अपनी काम-सुंदरियों के लिए विख्यात है तंत्र-जगत में! स्व्यं डबरा बाबा के पास नौ सर्प अथवा नाग-कन्याएं हैं!
"पहुँच गए आखिर" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
कक्ष काफी बड़ा था, दो बिस्तर बिछे थे भूमि पर, मैं तो जा पसरा! मुझे पसरे देखा शर्मा जी भी पसर गए!
"आज आराम करते हैं, कल निकलते हैं वहाँ रिपुष के पास" मैंने कहा
"हां" वे बोले,
हम नहाये धोये, भोजन किया और सो गए, शेष कुछ नहीं था करने के लिए!
अगले दिन प्रातः!
मैं बाबा डबरा के पास गया, वे पूजन से उठे ही थे,
"कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक" वे बोले और हमको बिठा लिया उन्होंने, उनकी आयु आज इक्यानवें साल है,
"बाबा, आप किसी रिपुष को जानते हैं?" मैंने पूछा,
"रिपुष?" उन्होंने सर उठा के पूछा,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
हमे वहाँ से अब गाड़ी पकड़ी असम के लिए, आरक्षण श्रद्धा जी से करवा लिया था, सौभाग्य से हो भी गया, और हम गाड़ी में बैठ गए, हमको करीब ग्यारह घंटे लगने थे,
आराम से पसर गए अपने अपने बर्थ पर!
और साहब!
जब पहुंचे वहा तो शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो गालियां न दे रहा हो, कुछ तो मौसम, कुछ लोग ऐसे और कुछ भोजन! हालत खराब!
खैर,
मैं अपने जान-पहचान के एक डेरे पर गया, डबरा बाबा का डेरा! डबरा बाबा को मेरे दादा श्री का शिष्यत्व प्राप्त है! हम वहीं ठहरे! ये डेरा अपनी काम-सुंदरियों के लिए विख्यात है तंत्र-जगत में! स्व्यं डबरा बाबा के पास नौ सर्प अथवा नाग-कन्याएं हैं!
"पहुँच गए आखिर" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
कक्ष काफी बड़ा था, दो बिस्तर बिछे थे भूमि पर, मैं तो जा पसरा! मुझे पसरे देखा शर्मा जी भी पसर गए!
"आज आराम करते हैं, कल निकलते हैं वहाँ रिपुष के पास" मैंने कहा
"हां" वे बोले,
हम नहाये धोये, भोजन किया और सो गए, शेष कुछ नहीं था करने के लिए!
अगले दिन प्रातः!
मैं बाबा डबरा के पास गया, वे पूजन से उठे ही थे,
"कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक" वे बोले और हमको बिठा लिया उन्होंने, उनकी आयु आज इक्यानवें साल है,
"बाबा, आप किसी रिपुष को जानते हैं?" मैंने पूछा,
"रिपुष?" उन्होंने सर उठा के पूछा,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
अब हम उठे वहाँ से, बाबा डबरा ने बहुत कुछ बता दिया था, अब मुझे एक घाड़ की आवश्यकता थी, कुछ अत्यंत तीक्ष्ण मंत्र जागृत करने थे! अंशुल-भोग देना था! ये बात मैंने अपने एक जानकार बुल्ला फ़कीर से कही उसने उसी रात को मुझे अपने डेरे पर बुला लिया, मैं जिस समय वहाँ पहुंचा तब रात के सवा नौ बजे थे! बुल्ले फफकीर के पास एक घाड़ था कोई उन्नीस-बीस बरस का, और बारह और औघड़ थे वहाँ, किसी को शीर्षपूजन करना था, किसी को वक्ष और किसी को लिंग पूजन, मुझे उदर पूजन करना था, शक्ति का स्तम्भन करना था, प्राण-रक्षण करना था!
पूजन का समय सवा बार बजे का था, अतः मैं स्नान करने गया, और उसके बाद तांत्रिक-श्रृंगार किया, भस्म-स्नान किया! लिंग-स्थानोपत्ति पूजन किया फिर हगाड़ पूजन आरम्भ हुआ!
मेरा क्रमांक वहाँ ग्यारहवां था अतः मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया, षष्ट-मुद्रा में घाड़ जागृत हो गया, और उठकर बैठ गया था!
नशे में चूर!
झूमते हुए, गर्दन हिलाते हुए, आँखें चढ़ी गईं!
और फिर आया मेरा वार!
मैंने घाड़ के उदर का पूजन किया! उसने अपने हाथों से अपने अंडकोष पकडे थे, मैं समझ सकता था कि क्यों!
अब मैंने प्रश्न किये उस से!
"रिपुष का दमन होगा?"
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"दम्मो आएगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"क्षति होगी?" मैंने पूछा,
"डबरा वाला जीतेगा" वो बोला!
ओह!
"कुशाल कौन चढ़ेगा?" मैंने पूछा,
"दम्मो" वो बोला,
"मरेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"नव-लौहिताएँ?" मैंने पूछा,
"आएँगी" वो बोला,
और फिर धाड़ से उसने अपने गले में रुंधती हुई आवाज़ बाहर निकाली, जैसे कोई कपडा फाड़ा हो!
"भोग लेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने शराब की बोतल दी उसको!
एक बार में ही बोतल ख़तम!
मैंने अपना चाक़ू निकाला और अपना हाथ काट कर उसको चटा दिया! उसने कूटे की तरह से रक्त पी लिया और तीन बार छींका!
मेरा वार समाप्त!
जानकारी पूर्ण हुई!
मैं अब श्रृंगार मुक्त होने चला गया!
मुक्त हुआ!
स्नान किया!
और वापिस शर्मा जी के पास!
"हो गया पूजन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलें" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब हम उठे और एक कक्ष में आ गए!
"कल चलना है दम्मो के पास?'' उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले और लेट गए!
मैं भी लेट गया!
दारु के भभके आ रहे थे!
सर घूम रहा था! अन नींद का समय था!
हम सो गए!
सुबह उठे!
आठ बजे का वक़्त था!
"उठो?" मैंने शर्मा जी की चादर खींच कर कहा,
अलसाते हुए वे भी उठ गए!
पूजन का समय सवा बार बजे का था, अतः मैं स्नान करने गया, और उसके बाद तांत्रिक-श्रृंगार किया, भस्म-स्नान किया! लिंग-स्थानोपत्ति पूजन किया फिर हगाड़ पूजन आरम्भ हुआ!
मेरा क्रमांक वहाँ ग्यारहवां था अतः मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया, षष्ट-मुद्रा में घाड़ जागृत हो गया, और उठकर बैठ गया था!
नशे में चूर!
झूमते हुए, गर्दन हिलाते हुए, आँखें चढ़ी गईं!
और फिर आया मेरा वार!
मैंने घाड़ के उदर का पूजन किया! उसने अपने हाथों से अपने अंडकोष पकडे थे, मैं समझ सकता था कि क्यों!
अब मैंने प्रश्न किये उस से!
"रिपुष का दमन होगा?"
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"दम्मो आएगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"क्षति होगी?" मैंने पूछा,
"डबरा वाला जीतेगा" वो बोला!
ओह!
"कुशाल कौन चढ़ेगा?" मैंने पूछा,
"दम्मो" वो बोला,
"मरेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"नव-लौहिताएँ?" मैंने पूछा,
"आएँगी" वो बोला,
और फिर धाड़ से उसने अपने गले में रुंधती हुई आवाज़ बाहर निकाली, जैसे कोई कपडा फाड़ा हो!
"भोग लेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने शराब की बोतल दी उसको!
एक बार में ही बोतल ख़तम!
मैंने अपना चाक़ू निकाला और अपना हाथ काट कर उसको चटा दिया! उसने कूटे की तरह से रक्त पी लिया और तीन बार छींका!
मेरा वार समाप्त!
जानकारी पूर्ण हुई!
मैं अब श्रृंगार मुक्त होने चला गया!
मुक्त हुआ!
स्नान किया!
और वापिस शर्मा जी के पास!
"हो गया पूजन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलें" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब हम उठे और एक कक्ष में आ गए!
"कल चलना है दम्मो के पास?'' उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले और लेट गए!
मैं भी लेट गया!
दारु के भभके आ रहे थे!
सर घूम रहा था! अन नींद का समय था!
हम सो गए!
सुबह उठे!
आठ बजे का वक़्त था!
"उठो?" मैंने शर्मा जी की चादर खींच कर कहा,
अलसाते हुए वे भी उठ गए!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
और फिर अगला दिन!
उस दिन सुबह सुबह चाय-नाश्ता करने के बाद हम बाबा डबरा के पास गए, बताने को कि हम दम्मो बाबा के पास जा रहे हैं सुलह करने, हो सकता है मान ही जाए, तकरार या झगड़ा न हो तो ही बढ़िया!
"अच्छा बाबा, हम चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, सावधान रहना" वे बोले,
आशीर्वाद दिया और हम चेल अब बाबा दम्मो और उस जवान औघड़ रिपुष के पास!
करीं दो घंटे में पहुंचे हम बाबा दम्मो के स्थान पर, पहाड़ी पर था, काले ध्वज लगे हुए थे, बीच में किनाठे पर एक मंदिर बना था, शक्ति मंदिर! सफ़ेद, शफ्फाफ़ मंदिर! हमने द्वारपाल से बाबा के बारे में पूछा, उसने एक दिशा के बारे में बता दिया, हम वही चल पड़े, बड़ा था ये डेरा, करीब पांच सौ स्त्री-पुरुष तो रहे होंगे! हम आगे बढे, ये रिहाइश का क्षेत्र था, हमने एक सहायक से पूछा, उसने एक कक्ष की तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े,
कक्ष के कपाट खुले थे, अंदर एक मस्त-मलंग सा औघड़ बैठा था, लुंगी और बनियान पहने, लम्बी जटाएँ और लम्बी दाढ़ी मूंछें! आयु कोई सत्तर बरस रही होगी! हम अंदर गए, वहाँ तीन लोग और थे, हाँ, रिपुष नहीं था वहाँ!
"नमस्कार" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
हमको बिठाया उसने, वे तीन अब चुप!
"कहिए?" उसने पूछा,
"आप ही दम्मो बाबा हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये?" वो बोला,
"आपसे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,
वो समझ गया, उसने उन तीनों को हटा दिया वहाँ से!
"बोलिये, कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
"ओह, हाँ, कहिये?" उसने कहा,
"रिपुष आपका ही शिष्य है?" मैंने पूछा,
"हाँ, तो?" उसने त्यौरियां चढ़ा के पूछा,
"रिपुष के पास एक रहन है हमारी" मैंने कहा,
"कैसी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगन" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"हाँ, तो?" उसने पलटा मारा!
"वही चाहिए" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"है कुछ बात" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"उसको मुक्त करना है" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
"तो?" उसने कहा,
"छोड़ दीजिये उसको" मैंने कहा,
"नहीं तो?" सीधे ही काम की बात पर आया,
"आप बुज़ुर्ग हैं सब समझते हैं" मैंने कहा,
और तभी रिपुष आ गया! बाइस वर्ष में क्या खूब शरीर निकाला था उसने हृष्ट-पुष्ट, काली दाढ़ी मूंछें! और अमाल-झमाल के तंत्राभूषण धारण किये हुए!
उसको बिठाया अपने पास दम्मो ने!
"अपनी रहन मांग रहे हैं ये साहब" उसने उपहास सा उड़ाते हुए कही ये बात!
"कौन सी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा" दम्मो ने कहा,
"क्यों?" उसने मुझ से पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
वो हंसा!
जी तो किया कि हरामज़ादे के हलक में हाथ डाल के आंतें बाहर खींच दूँ!
"अब काहे की बहा?" उसने मजाक उड़ाया,
'आप छोड़ेंगे या नहीं?" मैंने स्पष्ट सा प्रश्न किया,
"नहीं" उसने हंसी में कहा ऐसा!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सिक्का! सिक्का नहीं मालूम तुझे?" उसने अब अपमान करते हुए कहा,
"सिक्के की एक औघड़ को क्या ज़रुरत?" मैंने कहा,
"हूँ!" उसने थूकते हुए कहा वहीँ!
अब विवाद गर्माया!
उस दिन सुबह सुबह चाय-नाश्ता करने के बाद हम बाबा डबरा के पास गए, बताने को कि हम दम्मो बाबा के पास जा रहे हैं सुलह करने, हो सकता है मान ही जाए, तकरार या झगड़ा न हो तो ही बढ़िया!
"अच्छा बाबा, हम चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, सावधान रहना" वे बोले,
आशीर्वाद दिया और हम चेल अब बाबा दम्मो और उस जवान औघड़ रिपुष के पास!
करीं दो घंटे में पहुंचे हम बाबा दम्मो के स्थान पर, पहाड़ी पर था, काले ध्वज लगे हुए थे, बीच में किनाठे पर एक मंदिर बना था, शक्ति मंदिर! सफ़ेद, शफ्फाफ़ मंदिर! हमने द्वारपाल से बाबा के बारे में पूछा, उसने एक दिशा के बारे में बता दिया, हम वही चल पड़े, बड़ा था ये डेरा, करीब पांच सौ स्त्री-पुरुष तो रहे होंगे! हम आगे बढे, ये रिहाइश का क्षेत्र था, हमने एक सहायक से पूछा, उसने एक कक्ष की तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े,
कक्ष के कपाट खुले थे, अंदर एक मस्त-मलंग सा औघड़ बैठा था, लुंगी और बनियान पहने, लम्बी जटाएँ और लम्बी दाढ़ी मूंछें! आयु कोई सत्तर बरस रही होगी! हम अंदर गए, वहाँ तीन लोग और थे, हाँ, रिपुष नहीं था वहाँ!
"नमस्कार" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
हमको बिठाया उसने, वे तीन अब चुप!
"कहिए?" उसने पूछा,
"आप ही दम्मो बाबा हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये?" वो बोला,
"आपसे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,
वो समझ गया, उसने उन तीनों को हटा दिया वहाँ से!
"बोलिये, कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
"ओह, हाँ, कहिये?" उसने कहा,
"रिपुष आपका ही शिष्य है?" मैंने पूछा,
"हाँ, तो?" उसने त्यौरियां चढ़ा के पूछा,
"रिपुष के पास एक रहन है हमारी" मैंने कहा,
"कैसी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगन" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"हाँ, तो?" उसने पलटा मारा!
"वही चाहिए" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"है कुछ बात" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"उसको मुक्त करना है" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
"तो?" उसने कहा,
"छोड़ दीजिये उसको" मैंने कहा,
"नहीं तो?" सीधे ही काम की बात पर आया,
"आप बुज़ुर्ग हैं सब समझते हैं" मैंने कहा,
और तभी रिपुष आ गया! बाइस वर्ष में क्या खूब शरीर निकाला था उसने हृष्ट-पुष्ट, काली दाढ़ी मूंछें! और अमाल-झमाल के तंत्राभूषण धारण किये हुए!
उसको बिठाया अपने पास दम्मो ने!
"अपनी रहन मांग रहे हैं ये साहब" उसने उपहास सा उड़ाते हुए कही ये बात!
"कौन सी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा" दम्मो ने कहा,
"क्यों?" उसने मुझ से पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
वो हंसा!
जी तो किया कि हरामज़ादे के हलक में हाथ डाल के आंतें बाहर खींच दूँ!
"अब काहे की बहा?" उसने मजाक उड़ाया,
'आप छोड़ेंगे या नहीं?" मैंने स्पष्ट सा प्रश्न किया,
"नहीं" उसने हंसी में कहा ऐसा!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सिक्का! सिक्का नहीं मालूम तुझे?" उसने अब अपमान करते हुए कहा,
"सिक्के की एक औघड़ को क्या ज़रुरत?" मैंने कहा,
"हूँ!" उसने थूकते हुए कहा वहीँ!
अब विवाद गर्माया!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012
"इतना अभिमान अच्छा नहीं" मैंने चेताया,
"कैसा भी मान? मैंने पकड़ा है तो मेरा हुआ" उसने कहा,
दम्मो ने उसकी पीठ पर हाथ मारते हुए समर्थन किया!
"तो आप नहीं छोड़ेंगे" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"सोच लो" मैंने कहा,
"अबे ओ! मेरे स्थान पर मुझे धमकाता है?" उसने गुस्से से कहा,
"मैंने कब धमकाया, मैंने तो समझाया" मैंने कहा,
"नहीं समझना, कहीं तुझे समझाऊं" उसने दम्भ से कहा,
मैं कुछ पल शांत रहा!
"मैं धन्ना शांडिल्य का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब कांपा थोडा सा दम्मो! रिपुष तो बालक था, उसे ज्ञात नहीं!
"कौन धन्ना?" रिपुष ने पूछा,
"मै बताता हूँ" बोला दम्मो!
"अलाहबाद का औघड़! कहते हैं, सुना है उसने शक्ति को साक्षात प्रकट किया था और उसने अपने हाथों से खाना बना कर परोसा था, धन्ना की रसोई में!" बोल पड़ा दम्मो!
"ओहो!" रिपुष बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं उसी धन्ना का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब सांप सूंघा उनको!
"देखो, मैं आपकी इस रहन को एक वर्ष के बाद छोड़ दूंगा" रिपुष ने कहा,
"नहीं, आज ही" मैंने कहा,
'सम्भव नहीं" उसने कहा,
"सब सम्भव है" मैंने कहा,
"हरगिज़ नहीं" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब चुप्पी!
"अब जा यहाँ से" चुटकी मारते हुए बोला रिपुष! मैंने दम्मो को देखा, चेहरे पर संतोष के भाव और होठों पर हंसी!
"जाता हूँ, लेकिन आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है" मैंने कहा,
"आगाह?" खड़ा हुआ वो, हम भी खड़े हुए!
"हाँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आज हुई अष्टमी, इस तेरस को द्वन्द होगा! तेरा और मेरा!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वो नाच के बोला!
"खुश मत हो!" मैंने कहा,
"अरे तेरे जैसे बहुत देखे मैंने, धुल चटा चुका हूँ मैं" उसने कहा,
"देखे होंगे अवश्य ही, लेकिन मैं अब आया हूँ" मैंने कहा,
"अबे जा धन्ना के पोते!" बोला रिपुष!
क्रोध के मारे लाल हो गया मैं!
"तमीज सीख ले, यदि दम्मो के पास शेष हो तो" मैंने गुस्से से कहा,
"अबे भाग, निकला यहाँ से स्साला!" उसने कहा,
मुझे हंसी आयी!
"तू बेकार हो गया रिपुष! सच कहता हूँ" उसने कहा,
'अबे भग यहाँ से अब?" उसने मेरी छाती पर हाथ मार कर कहा,
"जा रहा हूँ, अब दिन गिन ले, मारूंगा नहीं, लेकिन वो हाल करूँगा कि मौत को भी तरस आ जाएगा तुझ पर" मैंने कहा,
"निकल?" चिल्लाया वो!
"जा भाई जा" दम्मो उठते हुए बोला,
"जाता हूँ" मैंने कहा,
"तेरस" मैंने कहा,
"हाँ! मान ली" वो बोला,
"मेरी बात मान लेता तो चुदास भी आँखों से ही देखता!" मैंने कहा,
"चल ओये?" उसने कहा,
अब हम निकले वहाँ से!
"बड़ा ही बद्तमीज़ लड़का है कुत्ता" शर्मा जी बोले,
"कोई बात नहीं, हाड़ पक गए इसके अब!" मैंने कहा,
"दो साले को सबक" गुस्से से बोले वो,
"ज़रूर" मैंने कहा,
मैंने पीछे देखा, वे देख रहे थे हमको जाते हुए!
बारूद तैयार था! चिंगारी लगाना शेष था!
"चलिए" मैंने कहा,
हम टमटम में बैठे और चले अपने डेरे!
"कैसा भी मान? मैंने पकड़ा है तो मेरा हुआ" उसने कहा,
दम्मो ने उसकी पीठ पर हाथ मारते हुए समर्थन किया!
"तो आप नहीं छोड़ेंगे" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"सोच लो" मैंने कहा,
"अबे ओ! मेरे स्थान पर मुझे धमकाता है?" उसने गुस्से से कहा,
"मैंने कब धमकाया, मैंने तो समझाया" मैंने कहा,
"नहीं समझना, कहीं तुझे समझाऊं" उसने दम्भ से कहा,
मैं कुछ पल शांत रहा!
"मैं धन्ना शांडिल्य का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब कांपा थोडा सा दम्मो! रिपुष तो बालक था, उसे ज्ञात नहीं!
"कौन धन्ना?" रिपुष ने पूछा,
"मै बताता हूँ" बोला दम्मो!
"अलाहबाद का औघड़! कहते हैं, सुना है उसने शक्ति को साक्षात प्रकट किया था और उसने अपने हाथों से खाना बना कर परोसा था, धन्ना की रसोई में!" बोल पड़ा दम्मो!
"ओहो!" रिपुष बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं उसी धन्ना का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब सांप सूंघा उनको!
"देखो, मैं आपकी इस रहन को एक वर्ष के बाद छोड़ दूंगा" रिपुष ने कहा,
"नहीं, आज ही" मैंने कहा,
'सम्भव नहीं" उसने कहा,
"सब सम्भव है" मैंने कहा,
"हरगिज़ नहीं" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब चुप्पी!
"अब जा यहाँ से" चुटकी मारते हुए बोला रिपुष! मैंने दम्मो को देखा, चेहरे पर संतोष के भाव और होठों पर हंसी!
"जाता हूँ, लेकिन आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है" मैंने कहा,
"आगाह?" खड़ा हुआ वो, हम भी खड़े हुए!
"हाँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आज हुई अष्टमी, इस तेरस को द्वन्द होगा! तेरा और मेरा!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वो नाच के बोला!
"खुश मत हो!" मैंने कहा,
"अरे तेरे जैसे बहुत देखे मैंने, धुल चटा चुका हूँ मैं" उसने कहा,
"देखे होंगे अवश्य ही, लेकिन मैं अब आया हूँ" मैंने कहा,
"अबे जा धन्ना के पोते!" बोला रिपुष!
क्रोध के मारे लाल हो गया मैं!
"तमीज सीख ले, यदि दम्मो के पास शेष हो तो" मैंने गुस्से से कहा,
"अबे भाग, निकला यहाँ से स्साला!" उसने कहा,
मुझे हंसी आयी!
"तू बेकार हो गया रिपुष! सच कहता हूँ" उसने कहा,
'अबे भग यहाँ से अब?" उसने मेरी छाती पर हाथ मार कर कहा,
"जा रहा हूँ, अब दिन गिन ले, मारूंगा नहीं, लेकिन वो हाल करूँगा कि मौत को भी तरस आ जाएगा तुझ पर" मैंने कहा,
"निकल?" चिल्लाया वो!
"जा भाई जा" दम्मो उठते हुए बोला,
"जाता हूँ" मैंने कहा,
"तेरस" मैंने कहा,
"हाँ! मान ली" वो बोला,
"मेरी बात मान लेता तो चुदास भी आँखों से ही देखता!" मैंने कहा,
"चल ओये?" उसने कहा,
अब हम निकले वहाँ से!
"बड़ा ही बद्तमीज़ लड़का है कुत्ता" शर्मा जी बोले,
"कोई बात नहीं, हाड़ पक गए इसके अब!" मैंने कहा,
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"ज़रूर" मैंने कहा,
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"चलिए" मैंने कहा,
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