सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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xyz
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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हम अपने स्थान पहुंचे, छगन रास्ते में ही उतर गया था किसी के पास जाने के लिए,
"क्या हुआ था?" शर्मा जी ने पूछा,
"जो कुछ हुआ, मुझे अभी तक विश्वास नहीं" मैंने कहा,
"मतलब?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"पद्मा जोगन ने जलसमाधि ली थी" मैंने कहा,
"कहाँ?'' उन्होंने पूछा,
"अंजन ताल में" मैंने कहा,
"वहाँ क्यों?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं" मैंने बताया,
"लेकिन समाधि क्यों?" उन्होंने पूछा,
"ये भी नहीं पता" मैंने कहा,
"ओह" वो बोले,
मैं चुप रहा,
"ये अंजन ताल कहाँ है?" उन्होंने पूछा,
"वहीँ, एक सामान्य सा ताल है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"इसका मतलब कोई अनहोनी नहीं हुई उसके साथ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब कुछ पल दोनों चुप,
"अब?" वे बोले,
"अब इन सवालों के उत्तर जानने हैं" मैंने कहा,
"कौन देगा उत्तर?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं पद्मा जोगन" मैंने कहा,
"ओह! उठाओगे उसे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?'' उन्होंने पूछा,
"आज रात" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन पद्मा जोगन की कोई वस्तु आवश्यक नहीं?" पूछा उन्होंने,
"हाई, हम चलते हैं अभी" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
और फिर हम निकल ही लिए पद्मा जोगन के स्थान के लिए, अब इस रहस्य से पर्दा उठना ज़रूरी था, मेरे अंदर उत्सुकता छलांग मारे जा रही थी!
करीब एक घंटे में हम पद्मा जोगन के स्थान पर पहुँच गए, संचालक से मिले, उसने हमारी मदद करने का ना केवल आश्वासन ही दिया बल्कि मदद भी की, उसने हमको पद्मा जोगन के कक्ष की चाबी दे दी, कक्ष अभी तक बंद था, हमने कक्ष खोला और मैं पिछली मुलाक़ात में पहुँच गया, सुन्दर औरत थी वो, सीधी-सादी, व्यवहार-कुशल, अपने में ही सिमटे रहने वाली थी वो जोगन! मुझे वो अच्छी लगती थी अपनी सादगी से, अपने मित्रवत व्यवहार से, भोज-कला से, खाना बहुत लज़ीज़ बनाती थी! बहुत अच्छी तरह से परोस कर खिलाती थी, मेरे ह्रदय में उसके प्रति सम्मान था, जैसे कि एक बड़ी बहन के प्रति होता है!
अंदर उसके वस्त्र टंगे थे, सफ़ेद और पीले वस्त्र! कुछ बैग से और कुछ कुर्सियां और मूढ़े! मैंने एक जगह से एक अंगोछा ले लिया, ये उसका ही था, अक्सर अपने पास रखती थी, गुलाबी रंग का अंगोछा, संचालक को कोई आपत्ति नहीं हुई! हमने धन्यवाद किया और वहाँ से वापिस हुए!
अपने स्थान पहुंचे,
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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अपने स्थान पहुँच कर मैंने रणनीति बनानी आरम्भ की, क्या किया जाए और कैसे किया जाए, किस प्रकार जांच को आगे बढ़ाया जाए आदि आदि, दरअसल मुझे पद्मा जोगन की रूह को खोजना था, वही बता सकती थी असल कहानी, एक एक कारण का खुलासा हो सकता था उस से, और मेरी उत्सुकता भी शांत हो सकती थी! मैंने उसी शाम अपने एक जानकार हनुमान सिंह से संपर्क किया और शमशान में एक स्थान माँगा, उसने घंटे भर के बाद बात करने को कहा, उम्मीद थी कि स्थान मिल जाएगा, तभी शर्मा जी ने कुछ सवाल पूछे,
"आज पता कर लेंगे आप?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, शत प्रतिशत" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"मुझे कारण जानना है" मैंने कहा,
"हाँ, सही कहा आपने" वे बोले,
घंटा बीता, हनुमान सिंह से बात हुई, उस रात्रि कोई स्थान नहीं उपलब्ध था, स्थान अगली रात को ही उपलब्ध हो सकता था, अब अन्य कोई चारा भी नहीं था, इंतज़ार करना ही पड़ता, तो हनुमान सिंह को अगली रात का प्रबंध करने के लिए कह दिया,
मन में कई चिंताएं उमड़-घुमड़ रही थीं, जैसे कोई अकेली मछली सागर का ओरछोर देखने की अभिलाषा में दिन रात, अनवरत तैरे जा रही हो, भूखी प्यासी!
"शर्मा जी, आज प्रबंध कीजिये मदिरा का, आप संचालक से कह के ले आइये, साथ में खाने के लिए भी कह दीजिये, मैं कक्ष में जा रहा हूँ" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले,
अब वो अपनी राह और मैं कक्ष की राह,
मन में बौछार बिखर रही थीं चिंताओं की, धुन्गार फैली थी पूरे मस्तिष्क में! काऱण क्या और कारण क्या, बस इस ने जैसे मेरी जान लेने की ठान राखी थी!
शर्मा जी ले आये सभी सामान, मैंने मदद की उनकी, सामान काफी था और ताज़ा बना हुआ था, मछली की ख़ुश्बू ज़बरदस्त थी! मैंने एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और खा लिया, वाक़ई लाजवाब थी!
"कुछ और लाऊं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"क्या?" मैंने पूछा,
"फलादि?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, रहने दो" मैंने कहा,
"जी" वे बोले.
"गुरु जी एक प्रश्न है दिमाग में" उन्होंने पहला पैग बनाते हुए कहा,
"कहिये" मैंने कहा,
"शाह साहब भिश्ती वाले नहीं बताएँगे ये?" उन्होंने पूछा,
"शाह साहब हाज़िर तो कर सकते हैं पद्मा को, लेकिन बुलवा नहीं सकते उसकी गैर-राजी के" मैंने कहा,
"ओह! मैं समझ गया!" वे चौंक गए!
गैर-राजी, यही बोला था मैंने!
"मैं स्व्यं उसको पकड़वाउंगा और पूछूंगा" मैंने कहा,
"ये ठीक है" वे बोले,
अब हमने मदिरा का सम्मान करते हुए, माथे से लगाते हुए, षोडशोपचार करते हुए अपने अपने गले में नीचे उतार लिया!
"अलख-निरंजन! दुःख हो भंजन" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर दूसरा पैग!
"अलख-निरंजन! खप्परवाली महा-खंजन!" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर तीसरा पैग!
"अलख निरंजन! नयन लगा मदिरा का अंजन!"दोनों ने एक साथ कहा,
तीन भोग सम्पूर्ण हुए!
"कल आप सफल हो जाओ, फिर देखते हैं क्या करना है" वे बोले,
"हाँ" मैंने गर्दन हिला कर कहा,
"पता चल जाए तो सुकून हो" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
फिर पैग बनाया गया, मैंने मछली साफ़ कर दी थी, वे उठे और बाहर गए, और ले आये!
हमने फिर से दौर आरम्भ किया!
"पद्मा जोगन के बारे में कोई और जानकारी?" उन्होंने पूछा,
"पद्मा जोगन की एक बहन थी, अब जीवित नहीं है, वो दुर्गापुर में बसी थी, पद्मा सारा सभी कुछ उसको भेज देती थी, मुझे उसका पता नहीं है कि कहाँ है" मैंने कहा,
"ओह! तो आपको कैसे पता कि वो जीवित नहीं?" उन्होंने पूछा,
"स्वयं पद्मा ने ही बताया था, वो बड़ी बहन थी उसकी" मैंने कहा,
"बड़े दुर्भाग्य की बात है"
"हाँ, भाई आदि और कोई नहीं" मैंने बताया
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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उस रात हम काफी देर तक बातचीत करते रहे, या यूँ कहें कि पेंच निकालते और डालते रहे, कई जगह रुके और फिर आगे चले, फिर वापिस मुडे और फिर आगे चले! यही करते रहे, जब मदिरा का मद हावी हुआ तो जस के तस पसर गए बिस्तर पर, हाँ मैं कुछ बड़बड़ाता रहा रात भर, शायद पद्मा जोगन से की हुई कुछ बातें थीं!
और जब सुबह मेरी नींद खुली तो सर भन्ना रहा था! घड़ी देखी तो सुबह के छह बजे थे, सर पकड़ कर मैं चला स्नानालय और स्नान किया, थोड़ी राहत मिली, स्नान से फारिग हुआ तो कमरे में आया, शर्मा जी भी उठ गए थे, नमस्कार हुई, मौन नमस्कार, और वे फिर स्नान करने के लिए स्नानघर चले गए, वे भी स्नान कर आये और अब हम दोनों बैठ गए, तभी सहायक आ गया, चाय लेकर आया था, साथ में फैन थे , करारे फैन, दो शर्मा जी ने खाये और तीन मैंने, चाय का मजा आ गया!
"सर में दर्द है, आपके भी है क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, दर्द तो है" वे बोले,
"अभी चलते हैं बाहर, यहाँ बाहर अर्जुन के पेड़ हैं उसकी छाल चबाते हैं, दर्द ठीक हो जाएगा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम बाहर चले और एक छोटे अर्जुन की पेड़ की छाल निकाली और फिर चबा ली, अब आधे घंटे में दर्द ख़तम हो जाना था!
"आज हनुमान सिंह खुद बात करेगा या उसको फ़ोन करना पड़ेगा?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं बात करेगा वो" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी मैंने सामने देखा, एक बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही थी, उसकी निगाहें हम पर ही थीं, मैंने हाथ से शर्मा जी को रोका, कार्य-सिद्ध होने का ये शकुन था! अर्थात आज हमारी नैय्या पार लग जाने वाली थी! मांसाहारी पशु यदि दुग्धपान कर रहे हों तो कार्य सिद्ध होता है और यदि शाकाहारी पशु हों तो कार्य सिद्ध नहीं होता! ऐसा यहाँ लिखने से मेरा अभिप्रायः ये नहीं कि अंधविश्वास को मैं बढ़ावा दूँ, परन्तु मैं शकुन-शास्त्र से ही चलता हूँ और ये मेरे अनुभूत हैं, तभी मैंने यहाँ ऐसा लिखा है!
"चलिए वापिस" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और तभी हनुमान सिंह का फ़ोन आ गया, आज भूमि मिल जानी थी, अतः मैं आज सामग्री इत्यादि खरीद सकता था! ये भी अच्छा समाचार था!
"आज शाम को सामान खरीद लेते हैं" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब वापिस आ गए कक्ष में!
मैं आते ही लेट गया, वे भी लेट गए, सहायक आया और अपने साथ किसी को ले आया, ये स्वरूपानंद थे, यहाँ के एक पुजारी, मैं खड़ा हुआ, नमस्कार की, वे बुज़ुर्ग थे,
"जी?" मैंने कहा,
"दिल्ली से आये हैं आप?" उन्होंने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
"पद्मा जोगन के लिए आये हैं?" उन्होंने पूछा,
बात हैरान कर देने वाली थी!
"हाँ जी" मैंने कहा,
"मुझे छगन ने बताया" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैं उसका ताऊ हूँ" उसने कहा,
मेरे होश उड़े!
"पद्मा ने कभी नहीं बताया?" मैंने पूछा,
"वो मुझसे बात नहीं करती थी" वे बोले,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसके बाप की, यानि मेरे छोटे भाई की भूमि के लेन देन के कारण" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"बस, यहीं से फटाव हो गया, मेरे लड़के आवारा निकले, सब बेच दिया" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"आपको पता चला कुछ??" उन्होंने पूछा,
"कोई सटीक नहीं" मैंने कहा,
"आप पता कीजिये" वे बोले,
"कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"एक एहसान करेंगे?" उन्होंने पूछा,
मैं विस्मित!
"कैसा एहसान?" मैंने पूछा,
"मुझे बता दीजियेगा जब आप जान जाएँ" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
सहायक इस बीच चाय ले आया और हम चाय पीने लगे!
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Re: सियालदाह की एक घटना -वर्ष 2012

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चाय समाप्त की और स्वरूपानंद को विदा किया और अब कुछ देर लेटे हम! आराम करने के लिए, सर का दर्द समाप्त हो चुका था, जैसे था ही नहीं!
"गुरु जी?" शर्मा जी बोले,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"खबर करेंगे क्या इनको?" उन्होंने पूछा,
"कर देंगे" मैंने आँखें बंद करते हुए कहा,
"केवल उत्सुकता है इनको" वे बोले,
"हाँ, लेकिन खून, खून के लिए भागता है" मैंने कहा,
"ये तो है" वे बोले,
कुछ और इधर-उधर की बातें और फिर झपकी!
आँख खुली तो एक बजा था!
"उठिए" मैंने सोते हुए शर्मा जी को उठाया
"क्या बजा?" उन्होंने अचकचाते हुए पूछा,
"एक बज गया" मैंने कहा,
"बड़ी जल्दी?" वे उठे हुए बोले,
"हाँ!" मैंने हँसते हुए कहा,
वे उठ गए! आँखें मलते हुए!
"चलिए, भोजन किया जाए" मैंने कहा,
"अभी कहता हूँ" वे उठे और बाहर चले गए, फिर थोड़ी देर में आ गए,
"कह दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
और तभी सहायक आ गया, आलू की सब्जी और गरम गरम पूरियां! साथ में सलाद और दही! मजा आ गया! पेट में भूख बेलगाम हो गयी!
खूब मजे से खाया, और भी मंगवाया! और हुए फारिग! लम्बी लम्बी डकारों ने' स्थान रिक्त नहीं' की मुनादी कर दी!
"आइये" मैंने कहा,
"कहाँ" उन्होंने पूछा,
"स्वरूपानंद के पास" मैंने कहा,
"किसलिए?" उन्होंने उठते हुए पूछा,
"देख तो लें?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम बाहर आये, स्वरूपानंद का कक्ष पूछा और चल दिए वहाँ, वो नहीं मिले वहाँ, ढूँढा भी लेकिन नहीं थे, पता चला कहीं गए हैं!
फिर समय गुजरा, दिन ने कर्त्तव्य पूर्ण किया और संध्या ने स्थान लिया, अब हम बाहर चले, सामग्री लेने, बाज़ार पहुंचे, मदिर, सामग्री आदि ले और सवारो गाड़ी पकड़ कर चल दिए हनुमान सिंह के पास!
वहाँ पहुंचे, हनुमान सिंह से बात हुई, गले लग के मिला हमसे, अक्सर दिल्ली आता रहता है, सो मेरे पास ही आता है!
"हो गया प्रबंध?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
"क्या ज़रुरत!: उसने हंस के कहा,
हम बाहर चल पड़े, अच्छा ख़ासा बड़ा शमशान था, कई चिताएं जल रही थीं वहाँ! दहक रही थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"सामान है?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक" उसने कहा और सामान लिया, मैं एक बोतल उसके लिए भी ले आया था!
"ठीक है, आप स्नान कीजिये" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"आप, शर्मा जी, वहाँ कक्ष में रहना" मैंने कक्ष दिखाया,
"जी" वे बोले,
अब मैं स्नान करने चला गया!
वापिस आया तो सारा सामान उठाया, हनुमान सिंह ने मुझे एक चिता दिखायी, ये एक जवान चिता थी, जवाब देह की चिता!
"ठीक है" मैंने कहा,
अब मैंने अपना बैग खोला और आवश्यक सामान निकाला, और भस्म आदि सामने रख ली!
अब!
अब मैंने भस्म स्नान किया!
तंत्राभूषण धारण किये!
लंगोट खोल दी!
आसान बिछाया!
और तत्पर हुआ!
क्रिया हेतु!
भस्म-स्नान किया सबसे पहले!
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केश बांधे!
रक्त से टीका लगाया माथे पर!
माथे पर अंगूठे से, काजल ले, टीका लगाया!
अपना त्रिशूल निकाला और बाएं गाड़ा आसान के!
चिमटा लिया और दायें रखा!
गुरु-वंदना की!
अघोर-पुरुष से सफलता व उद्देश्य पॄति केतु कामना की!
शक्ति को नमन किया!
दिक्पालों की वंदना की!
प्रथम आसान भूमि को चूमा!
पिता रुपी आकाश को नमन किया!
आठों कोणों को बाँधा!
और!
फिर, उस चिता के पाँव पर जाकर नमन किया!
उसके सर पर शीश नवाया!
तीन परिक्रमा की!
और, अपने आसान पर विराजमान हो गया! चिमटा खड़का कर समस्त भूत-प्रेतों को अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी! फिर दो थाल निकाले, उनमे मांस सजाया, कुछ फूल आदि भी, काली छिद्रित कौड़ियां सजायीं! कपाल निकाला, उसकी खोपड़ी पर एक दिया जलाया! और कपाल-कटोरा निकाला! उसमे मदिरा परोसी और अघोर-पुरुष को समर्पित कर कंठ से नीचे उतार लिया!
महानाद किया!
सर्वदिशा अटटहास किया!
और फिर मैंने पद्मा का आह्वान किया! उसके आत्मा का आह्वान! मंत्र पढ़े, मंत्र तीक्ष्ण हुए, और तीक्ष्ण, महातीक्ष्ण, रज शक्ति के अमोघ मंत्र!
परन्तु?
एक पत्ता भी न खड़का!
ऐसा क्यों?
क्यों ऐसा?"
उफ्फ्फ्फ़! नहीं! ये नहीं हो सकता! कदापि नहीं हो सकता! नहीं औघड़! ये तू क्या सोच रहा है? अनाप शनाप? नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं सोचना! नहीं तो तेरा त्रिशूल तेरे हलक से होत्ता हुआ गुद्दी से बाहर!
लेकिन!
सोचूं कैसे ना ओ औंधी खोपड़ी???
कहाँ है पद्मा??
पद्मा की आत्मा??
है तो ला?
ला मेरे सामने?
खींच के क्यों नहीं लाता?"
मुक्त तो नहीं हुई होगी!
हा! हा! हा! हा!
मुक्त कैसे??' भला कैसे ओ औंधी खोपड़ी??
कैसे??
जवाब दे??
तू?? तू जवाब तो दे ना!
कहाँ है?? कहाँ है????
मुझे बताने चला था!
हाँ!
मदिरा! मदिरा! प्यास! प्यास!
कंठ जल रहा है!
मदिरा!
मदिरा!
फिर से कपाल-कटोरा भरा और कंठ से नीचे!
हाँ!
अब ठंडा हुआ कंठ!
सुन ओ औंधी खोपड़ी?
कहाँ है पद्मा की रूह??
ला उसको सामने??
हा! हा! हा! हा! हा! हा!
मैंने सही था! ये औघड़ सही था!
वो हो गयी क़ैद!
किसी ने कर लिया उसको क़ैद!
सुन बे औंधी खोपड़ी!
क़ैद हो गयी वो!
जाने कहाँ!
जाने किसने?
है ना??
लेकिन!
पता चल जाएगा!
चल जाएगा पता!
अभी! अभी!
मैंने त्रिशूल लिया और लहराया!
ये भाषा है शमशान की मित्रगण! मसान से वार्तालाप!
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