मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

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Jemsbond
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Re: मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

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गणेश सन्न रह गया . इतने में किवाड़ खोलती हुई मधुरानी दरवाज़ें पर खड़े गणेश को देखा और बोली " अरे आप आए रहे बाबूजी आइए आइए ... आज कई दिन बाद इधर का रास्ता भूल गए रहे"

मधुरानी गणेश को यूँ दरवाज़े पर खड़ा देख कर हड़बड़ा उठी थी या शायद वह गणेश को ऐसा महसूस करवा रही थी ? गणेश भी सकपका कर एक दो मिनट यह सोच कर चौखट पर खड़ा रहा कि अंदर जाए अथवा नहीं .

"का हुआ बाबू जी?" मधुरानी ने जानना चाहा .

" न... नहीं... एक बात कहनी थी त.. त.. तुमसे ... म ... मेरा मतलब आ.. आपसे " गणेश हकलाते हुए किसी तरह बोला उसे समज नहीं आ रहा था कि उसे कैसे संबोधित करे.

" बोलो बाबू जी का बात होई?" मधुरानीने उसकी आँखों में आँखें डाल कर पूछा.

"उ..उस.. द..दिन"

मधुरानी अब भी उसकी ओर ताक रही थी .

" उस दिन मैने आपका हाथ पकड़ा था.. उसकी माफी चाहता हूँ " गणेश थूक गटक कर एक सांस में बोल पड़ा .

मधुरानी जो इतने वक्त उसकी ओर टकटकी लगाए थी यह सुन कर उसने शर्म से अपनी गर्दन झुकाई "ई बात में माफी काहे माँगें हो बाबूजी , ई कौनो बात हुई? " मधुरानी ने धारधर आवाज़ में पूछा फिर मीठी आवाज़ में कहा "हमरा मतलब रहा ... कौनो बात नाही" .

पहली बार में गणेश को उसकी आवाज़ गुस्साई जान पड़ी और दूसरी बार में विनम्रता .

"भीतर आओ बाबू जी...बैठो ... आपको चाय पिल्वाती हूँ" मधुरानी ने कहा.

"हैं?? न.. नहीं म.. मेरा मतलब फ.. फिर कभी" गणेश हड़बड़ा कर बोला और मुड़ कर तेज कदमों से चलने लगा , उसने पीछे मुड़ कर दरवाज़े पर खड़ी मधुरानी की ओर देखा. वह लजा कर मुस्कुराई फिर भीतर भाग गयी . गणेश वापिस सोच में डूब गया .

अब इसका क्या मतलब लगाऊं ?....

शायद पिछली बार मैने उसका हाथ पकड़ने में ज़रा ज़्यादा ही जल्दबाज़ी की..

शायद इस सब के लिए थोड़ा रुकना बेहतर होता....

उसके दिल की धड़कन तेज हो रही थी.

" मैं तो यह सोच कर आया था कि आज किस्सा ही ख़त्म कर दूँगा , लेकिन शायद इसके कोई आसार नज़र नहीं आते " गणेश के होंठों पर मुस्कान बिखर गयी और प्रफुल्लित मन से उसने अपने कमरे की ओर कदम बढ़ाए.

गणेश और मधुरानी का मिलना जुलना दोबारा शुरू हो गया था , गणेश का उसकी दुकान पर जाना बराबर बना रहा . उसकी दुकान पर जाने का वह कोई मौका न छोड़ता था . वहाँ समान खरीद कर पैसे देते वक्त जब उसका हाथ मधुरानी के हाथों से छूता तो मानों उसके पूरे बदन में करेंट दौड़ जाता .. उसके हाथों की छुअन में मानों कोई जादू सा था , पल भर में सारी थकान दूर हो जाती, और फिर वह नये जोश में अपने काम में लग जाता . उसे याद आया उसने यह शायद किसी किताब में पढ़ा था.

"माशूका आशिक की बाहों में आने से पहले हज़ार नखरा करती है .... लेकिन आख़िरकार जब आती है तो इश्क की गर्मी में वह पिघल जाती है"

रोज़ाना की तरह इस रोज़ भी गणेश शिवालय गया लेकिन आज मंदिर सुनसान देख उसे हैरत हुई. हमेशा की तरह आज वहाँ जुआरियों की टोली नज़र न आई.

शायद आज गाँव में पुलिस आई होगी....

उसने सोचा . गाँव में जब भी पुलिस का आना होता तो जुआरी कहीं छुप जाते थे. भूले भटके यदि कोई पुलिस के हाथ लगता तो या तो उसको थाने ले जाते या घूस ले कर छोड़ते. नागपंचमी के दिन तो मानों पुलिसवालों के हाथों में सोने की बटेर लग जाती. इस दिन गाँववाले जुआ खेलते ही खेलते थे, लिहाज़ा पुलिस वालों की भी ख़ासी कमाई होती थी. गणेश को हमेशा अचरज होता था क़ि गाँव में इतनी ग़रीबी होने के बावजूद जुए में लगाने के लिए इन लोगों के पास पैसा आख़िर आता कहाँ से है. उसने सुन रखा था कि गाँव में मटके के अड्डे भी चला करते. हालाँकि गणेश इन जगहों पर कभी न जाता था.

आज मंदिर भी सूना था . दोपहर में मधुरानी की दुकान भी बंद रहा करती, क्योंकि मधुरानी उस वक्त घर के बाकी काम काज किया करती।

फिर कहाँ वक्त काटा जाए.....

इस सोच में गणेश डूबा था उसे याद आया, एक बार मधुरानी ने उसे बताया था , दुपहरी के वक्त गाँव की महिलाएँ नाले पर कपड़े धोने जाया करतीं . यों भी नाला शिवालय के इतने पास था कि बरसात के दिनों में बाढ़ आने पर पानी शिवालय तक पहुच जया करता .

नाले पर ही चला चलता हूँ ,....

लेकिन वहाँ तो औरते ही औरते होंगी ..

अगर कहीं उनको शक हो गया कि मैं मधुरानी से मिलने आया हूँ तो बेकार ही बात पूरे गाँव में फैला देंगी...

कुछ रास्ता निकलना चाहिए जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे....

उसने सोचा.

वहा ... शौच का बहाना कर वहाँ जाता हूँ किसी को कोई शक न होगा....

वह वापस आफ़िस आया, जो वहाँ से नज़दीक ही था. वहाँ पांडु चपरासी को उसने लोटा भर कर लाने को कहा. पांडु ने भरा लोटा उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा.

" बाबू जी शौच के लिए नाले पर जात हों उ हाँ लोटा की का ज़रूरत ?"

गणेश ने सोचा

अब इसका क्या जवाब दूं....

चुपचाप वह नाले की दिशा में तेज कदमों से चल पड़ा . पुल की ओर जाते हुए उसके रास्ते कीचड़ से सनी हुई एक भैंस आड़े आ गयी , उससे सुरक्षित अंतर रख कर वह वहाँ से गुज़रने लगा . उसे वह पुरानी मजेदार घटना याद आ गयी . एक बार सुबह उठने में उसे ज़रा देरी हो गयी थी . जल्दी जल्दी नहा धो कर कड़क इस्त्री किए हुए साफ सुथरे कपड़े पहनकर आफ़िस जाने के लिए निकला था. यों भी उसे आफ़िस जाने के लिए देरी हो रही थी, लिहाज़ा वह तेज कदमों से अपने रास्ते चला जा रहा था , रास्ते में कीचड़ सनी भैंसो का झुंड उसके आड़े आया , चरवाहे उन्हें गाँव के बाहर चराने ले जा रहे थे , लेकिन भैंसो की संख्या इतनी अधिक थी कि उन्होने पूरा रास्ता अड़ा रखा था . गणेश उस झुंड के बीच किसी प्रकार रास्ता निकालते हुए आगे बढ़ रहा था कि एक पास से गुजरती हुई भैंस ने मक्खियाँ उड़ाने के लिए अपनी कीचड़ से सनी पूंछ हिलाई, जो सटाक से पूरे हिन्दुस्तान का नक्शा उसकी शर्ट पर छप गया . उस कीचड़ के धब्बे को अपनी शर्ट पर देख वह मानों आग बबूला हो उठा . गुस्से से कभी वह अपनी शर्ट को देखता तो कभी उस भैंस को . चरवाहे और दूसरे राहगीर उसकी हालत देख हंस हंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे . गणेश यूँ ही वापस अपने कमरे की ओर चलता बना , नयी शर्ट पहनने के लिए.
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Jemsbond
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Re: मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

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गणेश चलते हुए पुल पर पहुँचा .. पुल की दाईं जगह काफ़ी चट्टानी थी और बीच में शायद गहरी खाई थी, इसलिए दाईं तरफ कपड़े धोतीं हुई महिलाएँ दिखाईं नहीं दे रहीं थी . दाईं ओर ही लड़कों का जत्था पानी में खेल रहा था . लड़के उँची चट्टान पर चढ़ कर पानी में छलाँग लगा रहे थे. लड़के अपने खेल में सुध बुध खो बैठे थे. पुल के बाईं तरफ नाला ज़रा उथला और सपाट था , उसी जगह कपड़े धोतीं हुईं महिलाओं का झुंड दिखाई पड़ा . उस उथले पानी में चट्टानों पर औरतें पटक पटक कर कपड़े धो रहीं थी . फट फटाक की आवाज़ पूरे वातावरण में गूँज रही थी , पास ही उन औरतों के बच्चे पानी में खेल रहे थे . कभी कोई बच्चा पानी में पत्थर फेंकता तो छपाक की आवाज़ से पास खड़े बाकी बच्चों का मनोरंजन होता और वो ताली बजा कर खिलखिला कर हंसते .

गणेश पुल से बाईं तरफ नीचे आ कर कर नाले के पानी में उतरा . उन औरतों के बीच उसकी नज़रें मधुरानी को खोज रहीं थी . उसे पीली साडी पहनी हुई मधुरानी दूसरे किनारे पर कपड़े धोती हुई दिखाई दी. उथले नाले में रास्ते बनाते हुई किसी प्रकार दोनों हाथों से अपनी पतलून और लोटा समहालते हुए वह दूसरे किनारे की ओर आगे बढ़ रहा था . पानी ज़रा गहरा होता जा रहा था, इसलिए बीच में एक जगह वह रुका , लोटा वहीं उसने एक सपाट पत्थर पर रखा और अपनी पतलून को उपर खोंस लिया ताकि वह पानी में भीगने से बची रहे . इसके बाद उसने सावधानी से पानी में कदम रखा . एक जगह नाले में यों ही गुज़रते हुए उसे छोटी छोटी मछलियों का झुंड नज़र आया जो उसके पानी में पैर रखते ही इधर उधर बिखर गया . पानी अब घुटनों तक पंहुच चुका था और उसकी लाख कोशिश के बावजूद उसकी पतलून के किनारे गीले हो गये थे . आख़िरकार वह दूसरे किनारे पर पंहुच ही गया . वहाँ पंहूचते ही उसने लोटा एक चट्टान पर रखा और अपनी खोंसी हुई पतलून ढीली छोड़ दी . उसने किनारे पर नज़रें घुमाई , पास ही मधुरानी कपड़े धोने में मग्न थी . गणेश लोटा ले कर उसकी ओर बढ़ने लगा . उसने वापस मधुरानी को देखा वह सुध बुध खो कर कपड़े धो रही थी. कपड़े धोते समय साड़ी न भीगे इसलिए उसने अपनी साड़ी घुटनों के उपर खोंस रखी थी जिससे उसकी गोरी गोरी टाँगों के दर्शन गणेश को हो रहे थे . गणेश को उसकी मांसल गोरी टाँगें लुभा रहीं थी . कपड़े घुमा कर चट्टान पर पटकते हुए उसके उरोजो की हलचल मानों गणेश को दीवाना बना रहीं थी वह उसको ताके जा रहा था . वह उसके एकदम करीब पंहुच गया था . उसकी पद्चाप सुनकर उसने पलट कर देखा , गणेश को देख कर वह लजा कर हंस पड़ी फिर सम्हल कर अपनी खोंसि हुई साड़ी को नीचे किया, फिर पल्लू संभाल कर बगल में रखी बाल्टी से कपड़े निकल कर उन्हें निचोड़ने लगी. बीच बीच में वह चोर आँखों से गणेश की ओर देख रही थी. गला साफ करते गणेश ने उससे कहा

" अच्छा तो रोजाना कपड़े धोने तुम इस तरफ आती हो"

" का करे बाबूजी इधर गाँव में आपके सहर के जैसे नल ना है , इसलिए हमका ई हाँ नाले में कपड़े धोने आना पड़ता है" उसने जवाब दिया ,

गणेश अब भी उसे निहार रहा था , अचानक उसे अहसास हुआ यहाँ और भी लोग हैं और वह उसकी ओर देख रहे हैं , वह किसी को बातें बनाने का मौका देना नहीं चाहता था, इसलिए लोटा उठा कर वह आगे बढ़ा. पीछे मुड़ कर उसने देखा , मधुरानी ने कपड़े वहीं सूखने के चट्टान पर बिछाए थे, फिर भी वह अपनी चोर निगाहों से उसी को देखे जा रही थी. गणेश ने सोचा:

किस्मत भी न जाने क्या गुल खिलाती है , मधुरानी जैसी बला की खूबसूरत और हिम्मती औरत यहाँ इस पिछड़े गाँव में पैदा होती है , अगर कहीं यह शहर में होती तो शायद फर्श से अर्श पर जा बैठती....

चलते चलते वह दूर आ गया था उसने वापस मुड़ कर देखा , मधुरानी ने अपनी साडी वापस घुटनों के उपर खोंस ली थी और वह चट्टानों पर पटक कर कपड़े धो रही थी , अब माधुरानी उतनी साफ नज़र नहीं आ रही थी , वह भी उसकी नज़रों से दूर आ चुका था.

यूँ ही नाले के किनारे चलते - चलते गणेश बहुत दूर निकल आया था . उसने यों ही पीछे मुड़ कर देखा किनारे से मधुरानी और अन्य महिलाएँ ओझल हो चुकीं थी . मोड़ पर किनारे बड़े बड़े वृक्ष थे . गणेश ने एक जगह लोटे से पानी उडेल दिया.

मैं भी कितना बेवकूफ हूँ बिना वजह यह बोझ ले कर चल रहा था …

उसने सोचा , नाले के कल कल बहते पानी के संगीत का आनंद लेते हुए, लहलहाते खेतों को देखते हुए गणेश अपनी राह आगे बढ़ा जा रहा था.

बस अब बहुत हुआ .. चलते चलते काफ़ी आगे निकल आया .. अब वापिस चलना चाहिए ... यूँ भी काफ़ी समय बीत गया सो वैसे भी किसी को शक नहीं होगा …

गणेश लौटनेकी सोच ही रहा था कि उसे थोड़ी दूर नाले के बहते उथले पानी में दो लोग कुछ करते हुए दिखाई दिए.

क्या कर रहे हैं यह लोग ? चल कर देखता हूँ .. यूँ भी आज लौट कर आफ़िस में करने लायक कुछ खास काम नही है …

वह लौटने का विचार छोड़ कर उन लोगों की दिशा में आगे बढ़ने लगा . थोड़ा करीब जा कर उसने उन लोगों में से एक को पहचान लिया -

यह तो महदू है...रोज क्रिकेट खेलने आम के बगीचे में आता है , इस दूसरे लड़के की शक्ल भी जानी पहचानी लग रही है... मधुरानी की दुकान के आस पास यह घूमता रहता है …

नीचे झुक कर वह लड़के रेत में कुछ कर रहे थे.

आख़िर क्या कर रहे हैं यह लड़के? …

गणेश की जिज्ञासा जाग उठी , गणेश उनके करीब जाने लगा . गणेश को पास आते देख महदु ने पूछा,

" बाबू जी रास्ता भूल गये रहे का?"

फिर गणेश के हाथ में लोटा देख कर वह बोला

" शौच के लिए ..? हैं? इतना दूर ?"

गणेश ने उसके सवाल को नज़रअंदाज़ कर उनके साथ नीचे बालू में बैठते हुए पूछा,

" तुम दोनो लड़के क्या कर रहे हो?"

"मछली पकड़े हैं साहब जी और का करेंगे?" उसने जवाब दिया .

"मछलियाँ? वह कैसे?"

गणेश ने देखा बालू में पानी के बहाव को एक तरफ मोड़ा गया था.

" ई देखो साहब जी ... ईहाँ हमने ई गड्ढे मा पानी का बहाव मोड़ा रहा .. ए नाली के ज़रिए गड्ढे में पानी आवत है.... उ पानी जब ई गड्ढे मा बह कर आवे है तो उ बहाव के संग मछली भी ई गड्ढे में आवे है ... जब कोई बड़ा मछली का झुंड आवे रहा तो हम ए नाली का मुहाना बंद कर देवे हैं और ई गड्ढे में मछली फँस जात है"

गणेश ने देखा वाकई उस नाली के बहाव के साथ साथ कई मछलियाँ बह कर गड्ढे में आ गयीं थी और वहीं फँस गयीं थी.

"समझा" गणेश बोला "लेकिन तुम इन मछलियों को पकडोगे कैसे ?"

" बाबू जी उ नाली का मुँह जब बंद किए रहे तो ई गड्ढे का पानी , ई बालू सोख लेगी और बिन पानी के मछलियाँ तड़प तड़प कर मार जावेगी"

" क्या बात है... बढ़िया तरकीब निकाली है" गणेश चहक कर बोला .

गणेश वहीं एक चट्टान पर बैठ कर उनको मछलियाँ पकड़ते हुए देखने लगा. कुछ देर बाद उसकी नज़र दूसरे किनारे पर खड़े दो लोगों पर गयी जो पानी में उतार कुछ निकाल रहे थे .

"वह लोग क्या कर रहे हैं? " गणेश ने पूछा

" उ लोग बाबू जी ? उ लोग पटुआ निकाले रहे" महदू ने बहाव रोकते हुए कहा.

फिर गणेश के साथ आ कर खड़ा हो गया , उधर दूसरा लड़का वहीं गड्ढे के पास खड़ा हो गया.

"पटुआ??" गणेश ने पूछा "पटुआ ऐसे निकालते हैं?"

"फिर.. आपको का लगा?" महदू ने पूछा.

गणेश चलकर उन लोगों के करीब पहुँचा उसने देखा वह लोग नाले के एक जगह शांत पानी से कुछ टहनियाँ निकाल रहे थे.

"कौन सी टहनियाँ है यह और यह इन्होने पानी में क्यों डुबो कर रखी है?"

"साहब जी ई पटुए की टहनियाँ है आपके यहाँ इसको सायद पटसन बोले होंगे"

उन्होने देखा वह लोग पानी में भीगी टहनियों को निकाल कर उस की छालों को अलग कर रहे थे . उन्हीं छालों से पटुआ बनता था.

"इन टहनियों की छालें तो बड़ी आसानी से वह लोग निकाल रहे हैं"

" उ लोग ई टहनियों को हफ़्ता भर पानी में डुबाए रहे "

" अच्छा तो यह लोग इन टहनियों को मुलायम करने के लिए पानी में रखते हैं"

"पटुआ निकालने का ए ही तरीका है बाबू जी" महदू ने जवाब दिया .

उन्होने देखा उन छालों को पानी से साफ करने के बाद कुछ रेशे निकाले गये थे. उनको उन्होने वहीं धूप में सूखने डाला था. गणेश बड़े गौर से उनको पटुआ निकालते हुए देख रहा था. उसे याद आया बचपन में उसने स्कूली किताब में पढ़ा था कि बंगाल और बिहार में पटुए की खेती अधिक होती है , लेकिन उसे मालूम न था कि पटुए की खेती इस प्रकार होती है . गणेश अपने विचारों में इतना खो गया था कि उसे अहसास ही न हुआ कि वह किसलिए आया है , फिर अचानक उसे होश आया:

अरे बाप रे.. बड़ी देर हो गयी मुझे ...पता ही नहीं चला वक्त कैसे गुजर गया ...शायद मधुरानी अब तक वहीं हो …

वह लंबे लंबे डग भरता वापस चल पड़ा . चलते चलते वह उस जगह के करीब आ पंहुचा जहाँ मधुरानी को उसने कपड़े धोते देखा था किंतु मधुरानी अब वहाँ न थी.

धत्त तेरे की ... शायद मुझे आने में ज़रा ज़्यादा ही देर हो गयी माधुरानी तो कब की लौट गयी …

उसने सोचा … खैर...अभी नहीं तो थोड़े समय बाद दुकान पर आएगी

.. लेकिन इस रूप में नहीं …

वह चलते हुए उस चट्टान के पास आया जहाँ मधुरानी कपड़े धो रही थी. उसने देखा उस चट्टान के आस पास बालू में मधुरानी के पदचिन्ह उभर आए थे उसने गौर किया बालू में किसी ने कोई चित्र बना रखा था.

शायद यह चित्र मधुरानी ने ही बनाया होगा …
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Re: मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

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उसने देखा चित्र में एक स्त्री गालों पर हाथ रख दूर किसी की बाट जोह रही थी . उसने मन ही मन कहा …

ओह ... तो मधुरानी यहाँ मेरी राह देख रही थी …

गणेश सुबह जब मधुरानी की दुकान पर आया तो उसे मधुरानी कहीं दिखाई न दी . गल्ले पर पड़ोस का लड़का विलास बैठा दिखाई दिया . मधुरानी अपने दुकान का हिसाब-किताब उसी से कराती. गणेश ने सोचा उसी से पूछ लिया जाए की आख़िर माधुरानी कहाँ गयी. लेकिन वह चाह कर भी कुछ पूछ न सका.

पता नहीं वह क्या सोचे .. इतनी सुबह सुबह उससे पूछना ठीक न रहेगा .. वह शायद यहीं आस पास होगी आ जाएगी …

उसने सोचा और वहाँ से निकल गया. दोपहर में दुकान बंद होने से पहले वह वहाँ दोबारा गया. तो उसने देखा मधुरानी दुकान पर अब भी मौजूद न थी. और वहाँ विलास ही बैठा हुआ था . गणेश ने उसको कभी इतनी देर दुकान में यूँ बैठे न देखा था .. यूँ तो गणेश दुकान को अपने कमरे की खिड़की से भी देख सकता था लेकिन बिना वहाँ जाए उसको चैन कहाँ?

वह कहीं गाँव तो नहीं चली गयी? लेकिन यूँ इस तरह बिना बताए ? …

गणेश ने दोबारा सोचा की वह विलास से उसके बारे में पूछे. लेकिन उसने अपनी इच्छा को दबा दिया . बाद में जब वह शाम को लौटा तो वहाँ मधुरानी को न देख उससे रहा न गया-

" क्यों भाई आज तुम दुकान पर कैसे बैठे हो?" उसने विलास से पूछा ,

लेकिन वह सीधे थोड़े ही न बताने वाला था

"का काम है बाबूजी?"

" नहीं भाई यूँ ही पूछ लिया " चेहरे पर कोई शिकन न लाते हुए उसने कहा लेकिन वह भी बड़ा चालाक
था.

" सुबह से देखूं हूँ साहब जी ...आप दुकान के चक्कर लगवे जा रहे है" उसने गणेश की ओर घूरते हुए पूछा.

अब गणेश ने सीधे सीधे पूछ ही लिया " हां भाई थोड़ा काम ही था .... कहाँ गयी वह?"

हार कर उसे भी सीधा जवाब देना ही पड़ा " वह खेत गयी है"

"खेत में ...? खेत में क्या फसल काटने गयी है?" गणेश ने जान बूझ कर मजाकिया लहज़े में कहा और हंस पड़ा.

" ना ना साहबज़ी उसकी फसल का गाहना है आज के रोज... उसी काम के लिए गयी रही है वह "

" गाहना? ... पर वह सब काम तो संभाजी देखते हैं.."

" अब हमको ई बात की खबर कैसे होई ? हम अपना काम देखे या ई फालतू चीज़ें देखे?" लड़के ने तड से कह दिया और दुकान पर आए ग्राहक से बात करने लगा .

गणेश ने उसके और मुँह लगना ठीक न समझा और सोचने लगा … अब ये फसल गाहने क्यों गयी होगी ? अब तक उसे आ जाना चाहिए …

चाहे जो हो उस की वजह से तो इस उबाऊ गाँव की नीरस नौकरी में टिका हुआ हूँ वरना कभी का चला जाता...

देर रात उसके बारे में सोचते हुए जाने कब वह गहरी नींद में डूब गया उसे मालूम ही न चला . अचानक वह बिस्तर पर उठ बैठा , मधुरानी का ख्याल उसके मन में आया:

क्या वह लौटी होगी ? चल कर देखता हूँ …

गणेश बिस्तर से उठ कर खिड़की के पास आया, वहाँ से झाँकते हुए उसने देखा माधुरानी के घर के बगल में एक कमरे के सामने सड़क पर बैलगाड़ी खड़ी थी . माधुरानी उस बगल के कमरे का उपयोग बतौर गोदाम करती थी , शायद उसके खेत से माल आ गया था और वह बोरियाँ गोदाम में रखवा रही थी.

यूँ भी अब नींद आने से रही .. चल कर मधुरानी से बतिया लेता हूँ... तब ही चैन आएगा … यह सोच कर वह उठा और बदन पर शर्ट पॅंट पहन लिया. गर्मी के दिन थे लिहाज़ा गणेश बनियान और कच्छा पहन कर सोता था . तैयार हो कर वह कमरे से बाहर आया और दरवाज़े पर सांकल चढ़ा कर वह माधुरानी के गोदाम की ओर चल पड़ा.

मधुरानी के गोदाम की तरफ जाते हुए उसने बैलगाड़ी की ओर एक नज़र देखा . बैल पास ही एक खूँटे से बँधे बैठ कर थके - हारे चारा चर रहे थे. गणेश को बैलगाड़ी में कुछ अनाज फैला हुआ दिखाई दिया. उसने पास जा कर देखा तो बैल गाड़ी खाली थी .

शायद बोरियाँ अभी अभी ही गोदाम में रखी गयीं थी.... शायद बोरियाँ रखवाते समय हुई आवाज़ की वजह से ही मेरी नींद टूटी ....

गणेश गोदाम के दरवाज़े की ओर बढ़ चला. दरवाज़े के पास जाते ही वह ठिठका भीतर संभाजी और मधुरानी बातें कर रहे थे . बाहर अंधेरे के कारण उनको दरवाज़े पर खड़ा गणेश दिखाई न दिया . गणेश ने और करीब जा कर उनकी बातें सुनने की कोशिश की. उसने देखा मधुरानी ने संभाजी के दोनो हाथ हाथों में लिए थे और बोली,

"संभा जी एक आप ही हैं जो खुशी खुशी हमारे वास्ते इतना काम करे हैं ...वरना हम पर तो अपनी खेती गिरवीं रखने और भूखे प्यासे जीने की नौबत आ जाती"

यहाँ गणेश के मानों पाँवो तले ज़मीन खिसक गयी थी , उसका दिमाग़ मानों फट रहा था. ऐसा लग रहा था मानों कोई अपनी बंदूक से तमाम गोलियाँ उसके सिर में बेरहमी दागे जा रहा था . मौके का लाभ उठा कर संभाजी ने उसको बाँहों में भरने की कोशिश की .

"अरे हमने ताला जाने कहाँ रख दिया रहा ?" कहते हुए बड़ी सफाई से उसने खुद को उसकी बाँहों की पकड़ से छुड़ाया .

"कहीं ईहाँ बोरियों के बीच तो ताला चाभी दब न गयी?"

उसने कहा और कमरे में इधर - उधर घूम कर ताला ढूँढने लगी , इतने में उसके पैरों के पास से एक चूहा भागा उसने झपट कर उस चूहे को बड़ी बेदर्दी से अपने पाँवों तले कुचल कर मार डाला.

कैसी पत्थर दिल औरत है यह... गणेश ने यह देख कर सोचा … न कोई जजबात न कोई रहम …

उसे ऐसे लगा मानों वह खुद वही बदनसीब चूहा हो. गणेश सोच रहा था:

मैं भी कैसा बेवकूफ़ हूँ जो इसके प्रेमजाल में फँस गया... अगर मैं खुद आ कर यह सब न देखता तो इसको चूहा मारते देख इसकी बहादुरी का कायल हो जाता.…

"अरे हम बड़े भुलक्कड़ हो गये हैं , ताला चाभी तो ई हाँ रखी रही" ऐसा कहते हुए उसने एक खाने से ताला चाभी
उठाते हुए कहा " संभाजी ...का टेम हुआ रहा?" उसने संभाजी से समय पूछा.

"ग्यारह...बारह बजे होएंगे" संभाजी ने जवाब दिया.

" बड़ी देर होई गयी रही" कहते हुए वह दरवाज़े के करीब आने लगी.

उसको करीब आता देख गणेश वहाँ से फ़ौरन हट कर आड़ में खड़ा हो गया. वह सोचने लगा:

तो इस औरत का चाल-चलन ठीक नहीं है... यह तो हर किसी पर डोरे डालती है , यूँ तो कई पंछी इसने अपने जाल में फँसाए होंगे...

गणेश लंबे लंबे डग भरता हुआ अपने कमरे की तरफ गया , दरवाज़े पर चढ़ि सांकल खोल कर वह भीतर गया और अंधेरे में खिड़की के सामने खड़े हो बाहर झाँकने लगा . मधुरानी ताला ले कर गोदाम के बाहर दरवाज़े के पास खड़ी हुई थी , धीरे धीरे संभाजी उसके पीछे पीछे चलता हुआ गोदाम से बाहर आया, .मधुरानी ने उसको ताला पकड़ाया और ताला पकड़ाते वक्त उसने जान बूझ कर अपने हाथों से उसके हाथों को छुआ. शायद उसने उसकी हथेलियाँ भी दबाई हों. गणेश की आँखों पर पड़ा मधुरानी के प्यार का पर्दा परत दर परत दूर हो रहा था. कभी उसे खुद पर गुस्सा आता तो कभी मधुरानी पर. फिर संभाजी ने गोदाम के दरवाज़े पर ताला लगाया और चाभी मधुरानी को पकडाई . चाभी देते समय उसने भी जान बूझ कर उसके हाथों को छुआ . मधुरानी चाभी लेकर अपने घर की ओर गयी और दरवाज़े पर खड़ी हो कर मुडी और उसने संभाजी की ओर देख एक मीठी मुस्कान दी. फिर घर के भीतर गयी और संभाजी की ओर देखते हुए धीरे धीरे किवाड़ बंद किए . इधर संभाजी खोए खोए से उन बंद किवाडो की तरफ ताक रहा था. गणेश के दिमाग़ की नसें मानों फट सी रहीं थी. उसे मधुरानी के साथ बिताया एक एक लम्हा याद आ रहा था..
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Re: मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

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उसकी वह चंचल शोख अदाएं …

उसकी वह घायल कर देने वाली नशीली नज़र …

उसकी नाज़ुक मदहोश करने वाली मीठी छुअन …

याने की मधुरानी ने उसे भी अपने जाल में फाँस रखा था... संभाजी को फँसा कर वह उससे अपनी खेती - बाड़ी के काम करवाती थी..लेकिन मुझे फँसा कर उसे आख़िर क्या हासिल हुआ? …

फिर उसे अहसास हुआ कि मधुरानी की दुकान का सारा हिसाब-किताब वही किया करता और तालुके से दुकान के लिए माल भी वही लाया करता . वह यह काम इतने अपनेपन से करता कि उसे इसका कभी अहसास ही न हुआ कि मधुरानी उससे अपना काम निकलवा रही है. हालाँकि उसने अपनी खुशी से यह ज़िम्मेदारी ली थी. क्योंकि इसके पीछे उसका छुपा मकसद यह था की उसे मधुरानी के आस पास रहने का मौका मिले . मधुरानी ने खुद हो कर उसे कभी कोई काम करने के लिए नहीं कहा था … लेकिन हाँ उसने वैसा माहौल बनाया था.

कैसी धूर्त और चालाक औरत है यह...

कोई भी चीज़ मधुरानी की शख्सियत को बयान नहीं कर सकती थी … अब कहीं जा कर वह मधुरानी के चरित्र को समझ पा रहा था

वह एक रानी थी , जैसे मधु मक्खियों में रानी मक्खी होती है वैसी …

और मैं उसके झुंड की एक मामूली सी कार्यकर्ता मक्खी, मैं बेवकूफ़ था जो उसके आस पास मंडराने के लिए उसके छोटे मोटे काम किया करता था … उसने सोचा

लेकिन मधु मक्खियों के इस झुंड में नर मक्खी कौन है? … उसे यह सवाल अब सताने लगा …

... पाटिल साहब , सरपंच जी ? संभाजी ?? या उसकी दुकान में काम करने वाला वह लड़का? या फिर कोई और???.. कोई भी …

हो सकता है . अब तक मैं इस ग़लतफहमी में जी रहा था की वह सिर्फ़ मेरी है ...

उसकी इन हरकतों ने मेरे दिल को तोड़ दिया और टूटे शीशे के टुकड़ों की तरह मेरा दिल हज़ार टुकड़ों में टूट कर बिखर गया...

मैं बेवकूफ़ था जो उसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गया …

गणेश से यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था की उसे मधुरानी ने बेवकूफ़ बनाया

रात भर मधुरानी के बारे में सोच सोच कर वह बैचैन रहा. उसे ऐसा लग रहा था मानों अभी के अभी वह उठ कर जाए और उसका गला घोंट कर उसे जान से मार डाले और उसका कच्चा चिट्ठा गाँव वालों के सामने खोल दे . उसने सोचा -

कितने लोग ऐसे होंगे जिन्हें मधुरानी ने यूँ बेवकूफ़ बना कर अपने जाल में फँसाया होगा ?…

लोगों की छोड़ो क्या मुझमे यह कहने की हिम्मत है कि मधुरानी ने मेरे जज्बादों के साथ खेल खेला ?…

और यूँ भी कह कर क्या हासिल होगा ?....

उल्टे जग हंसाई होगी सो अलग ...

शायद चुप रहना ही बेहतर है ..

क्या इसके अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं?....

क्या मुझे उसके पास जा कर उसे समझाना चाहिए कि लोगों के जज्बादों के साथ यूँ खेल खेलना बंद करो ?…

क्या वह मेरी बात वाकई सुनेगी ?....

मुझे नहीं लगता कि वह बदजात औरत कुछ समझेगी .....

जो औरत अपने पति के हत्यारे से हाथ मिला सकती है वह किसी भी हद तक गिर सकती है ..

उसे समझने में मुझसे बड़ी भूल हो गयी.....

रह रह कर गणेश के मन में यह ख्याल आते . अब उसका सिर दर्द से मानों फट रहा था लेकिन ख्याल तो फिर ख्याल थे जो आते थे, फिर जाने का नाम न लेते थे. वह बैचेनी में मानों पागल हो उठा. .दो दिन हो गये गणेश का कहीं मन नहीं लग रहा था. दो दिन से उसने खुद को कमरे में क़ैद कर रखा था . दो दिन से न उसने नहाया था , न दाढ़ी बनाई थी , वह पूरी तरह निराश हो गया था. उसका भ्रम जो टूट गया था, अब उसे समझ आया की इश्क़ में पागल होना क्या होता है. उसने कापी पेन लिया, क्योकि उसके दिमाग़ में शायरी पनप रही थी. उसने दो लाइन लिखीं और अपने दिल के ज़ज्बात काग़ज़ पर उतार दिए:

वाह .. क्या शायरी है मानों किसी फिल्मी गाने के बोल हों..

हाँ यह तो किसी पुरानी फिल्म का गीत है..

वह दुबारा कुछ लिखने लगा. दो तीन लाइन लिख कर उसने काग़ज़ फाड़ कर फेंक दिया. उसकी शायरी के बोल किसी फिल्म के गीत से मेल खा रहे थे.

सोचा था जी लेंगे तेरे प्यार के सहारे
लेकिन अब हम प्यार में हारे
तो जी लेंगे नफ़रत के ही सहारे
मरेंगे नहीं जी लेंगे.
छोड़ेंगे सब लेकिन जीना न छोड़ेंगे

वह बड़ा जज्बाती हो कर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था. लेकिन लफ़्ज़ों के बजाए उसने अपने ज़ज्बात काग़ज़ पर उतार दिए थे . उसके दिलो दिमाग़ पर छाया बोझ कुछ हल्का हुआ . उसे इस बात की खुशी हुई की वह शायरी भी कर सकता है.... शायद इंसान यूँ ही दर्द में खुशी ढूँढना पसंद करता है.

दो दिन शनिवार और इतवार थे. शायद इसलिए किसी को गणेश का ख्याल न रहा . लोगों को लगा कि दो दिन वह अपने घर गया होगा. लेकिन आज सोमवार को भी जब गणेश आफ़िस न आया तो सरपंच जी खुद उसका हाल जानने उसके घर पधारे.

"क्यों गणेश बाबू .... जी ठीक ना है का ? आज ऑफिस में दिखे नहीं "

" हाँ ज़रा लेटा हुआ था .. कुछ तबीयत ठीक नही है"

"का ज्वर चढ़ आया है ?" कहते हुए सरपंच जी ने उस पर हाथ रखा और कहा.

"ज्वर तो न है..... कई दिन होई गये हैं अपनों को साथ न पा कर शायद आप उदास हैं" सरपंच जी मुस्कुराते बोले

" हुम्म...." गणेश ने कहा.

"यह सरपंच जी ने अच्छा सुझाव दिया घर जाने का ...

थोड़ी आबो हवा बदलेगी..

यूँ कितने दिन अकेले रहूँगा मैं?....

गणेश ने सोचा. फिर उस दिन कई लोग उससे आ कर मिले. लेकिन मधुरानी न आई. गणेश को अब भी उम्मीद थी की मधुरानी उससे मिलने ज़रूर आएगी. उसे याद आई.… वह शरारती नज़र , .... उसके हाथों की वह नर्म नर्म छुअन.

नहीं अब यह सब नहीं होगा.... उसने अपने मन में आए ख्याल को झटक दिया.
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Re: मधुरानी –कम्प्लीट हिन्दी नॉवल

Post by Jemsbond »

गणेश ने फ़ैसला कर लिया की वह अब मधुरानी से कोई रिश्ता नहीं रखेगा. वह उठा और अपने घर जाने के लिए बॅग भरने लगा. लेकिन उसे अहसास हुआ की घर जाने की बात को लेकर वह उतना उत्साहित न था. वह समझ न पा रहा था की ऐसा क्यों था. आख़िर इतने दिनों बाद वह बीवी से मिलने जा रहा था फिर भी उससे मिलने को लेकर वह उत्साहित न था. शायद इस मधुरानी के चक्कर में वह इतना उलझ चुका था की उसे बीवी बच्चों का ख्याल न रहा .

लेकिन अब ऐसा कभी नहीं होगा अब इस मधुरानी का किस्सा ख़त्म .... बिल्कुल ही ख़त्म.... गणेश ने मन ही मन दोहराया.

पिछली दो रातों से गणेश की आँख न लग पाई थी सोमवार रात भी उसने उसी बेचैनी में काटी .

अच्छा हुआ जो समय रहते मुझे माधुरानी का सच पता चल गया...

लेकिन मैं अब भी न जाने क्यों बैचें हूँ? … गणेश परेशन हो उठा .

सुबह उठ कर गणेश नहाया धोया , दाढ़ी बनाई . बैग में से धुले हुए इस्त्री किए हुए कपड़े निकाल कर पहने और बैग बंद करी. सारजा बाई को उसने कल ही इत्तला कर दी थी . बैग ले कर वह घर से बाहर निकला और दरवाज़ा बंद कर ताला लगाया . ताला लगाते समय उसने यह सोच लिया की वह दुकान की ओर न देख कर सीधे बस स्टाप जाएगा.

ताला चढ़ा कर वह मुड़ा और बोझिल कदमों से चलने लगा लेकिन उसके कदम बरबस ही उसे माधुरानी की दुकान की ओर ले जाने लगे .

"कैसे हो गणेश बाबू.. दो रोज हो गये आपको देखे बगैर" मधुरानी उसे दुकान की ओर आते देख बोल उठी " कुछ जी ठीक ना था का?"

" हाँ ज़रा तबीयत ठीक न थी..."

"और ए बॅग उठाए तालुका जा रहे हो का?"

गणेश को अब अहसास हुआ की इसने मज़ाक में ही सही उसकी बीवी के बारे में अब तक कभी कोई पूछताछ न की थी.

" हाँ वहीं जा रहा था"

" ए अच्छा हुआ .... हमरी दुकान का भी काफ़ी समान ख़त्म हुई गवा है और आप तालुका जा रहे हो"

गणेश मौन खड़ा रहा.

" ए लीस्ट लीजियो हमने विलास से बनवाई रही ..."

उसने लिस्ट उसे थमाते हुए कहा , उसने लिस्ट अपनी जेब में रखी और चलने के लिए मुडा.

" ओ गणेश बाबू रुकिये तो ज़रा समान कैसे लावेंगे ? ए बड़ी थैली रखिए "

गणेश ने वह थैली लेने के लिए हाथ बढ़ाया . हाथों में थैली लेते हुए मधुरानी के नर्म मुलायम हाथों का स्पर्श पा कर वह रोमांचित हो उठा.

यही वो नर्म अहसास ... यही वह नाज़ुक सी छुअन....

उसकी सारी उदासी मानों गायब से हो गयी थी एक नया जोश उसकी रगों में दौड़ रहा था. उसने दूसरा हाथ थैली पकड़ने के लिए आगे बढ़ाया और मौका पा कर उसे छू लिया , उसने मधुरानी की आँखों में आँखें डाल कर देखा:

वही शोख नज़र...

वही मीठी मुस्कान ...

उसकी सारी उदासी दूर हो गयी. वह बड़े जोश में थैली उठाए बस स्टाप की ओर बढ़ा . गली में मुड़ते वक्त उसने मधुरानी की ओर देखा. वह अब भी उसकी ओर देख कर मुस्कुरा रही थी. वो गली में मूड गया और तेज कदमों से बस स्टाप को ओर चल पड़ा. उसे अब पूरी तरह अहसास हो गया था की वह भी अब मधुरानी की कार्यकर्ता मक्खियों के झुण्ड में में शामिल हो गया था.

..................गणेश बाबू जब अपने खयालोंसे होश मे आए ....
उन्होने इर्द गिर्द देखा , हॉल लगभग खाली हो गया था. यानी कई लोग सरकार से मिल कर लौट चुके थे . गणेश बाबू का बेटा वीनू भी कहीं दिखाई न पड़ा. गणेश बाबू ने हॉल से बाहर आ कर देखा वीनू वहाँ भी न था

शायद उकता कर घर चला गया होगा..

आजकल लड़कों में कोई सब्र नहीं ..

नौकरी पाने के लिए न जाने कैसे- कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं , द्वारे द्वारे घूमना पड़ता है तब कहीं जा कर नौकरी मिलती है...

उन्होने सोचा इतने में किसी ने पुकारा

"गणेश बाबू गावंडे"

गणेश बाबू का चेहरा खुशी से चमक उठा. खुशी में अपने सामान की थैली लेने के लिए गणेश बाबू अपनी कुर्सी की ओर जाने लगे.

"गणेश बाबू गावंडे.. कौन हैं?" उनका नाम दोबारा पुकारा गया.

"मैं.. मैं.... गणेश बाबू गावंडे .." गणेश बाबू ने अपनी थैली संभालते हुए जल्दबाज़ी में दरवाज़े की ओर आते हुए कहा.

" अरे तो जवाब देने का क्या लेंगे जनाब..यहाँ आपका शुभ नाम चिल्ला चिल्ला कर मेरा हलक सूखा जा रहा है.." वह आदमी गणेश बाबू पर बरस उठा .

गणेश बाबू उसकी ओर देख कर एक खिसियानी हँसी हँसे.

" जाने कैसे कैसे नमूने मुँह उठा कर चले आते हैं यहाँ ... अब इन्ही को देखिए .. मुँह में दही जमा हुआ है इनके .. जवाब देना ज़रूरी नही समझते .. इन्हें लगता है मानों इन्हे सब पहचानते हैं ... खुद को न जाने क्या फिल्मी हीरो समझते हैं.." वह आदमी भुनभुनाते हुए दूसरे आदमी से कहने लगा.

गणेश बाबू ने डरते डरते अंदर जाने के लिए दरवाज़ा धकेला. उन्होने भीतर झाँक कर देखा . सामने ही एक मुलायम सोफे पर बैठी मधुरानी उन्हें दिखाई दी. जिसे लोग अदब से सरकार कहते थे वह मधुरानी ही थी . गाँव की एक मामूली दुकानदार से ... ग्राम पंचायत का चुनाव जीत कर सरपंच बनी ... फिर पंचायत समिति का चुनाव जीतते हुए ....आख़िरकार वह विधायक के पद तक आ पंहुची थी. उसके बगल में ही पाटिल बैठे थे .

उसकी इस उड़ान में यक़ीनन इन पाटिल साहब का ही हाथ होगा ... गणेश बाबू ने सोचा .

गणेश बाबु दरवाजे पर खड़े थे. लेकिन मधुरानी का ध्यान दरवाज़े की ओर न था. वह पाटिल जी से किसी मसले पर बातें कर रही थी . गणेश बाबू ने दरवाज़े को ज़रा और खोला और भीतर आ गये. लेकिन वह अंदर आए इसका ख्याल भी किसी को न था . वह दोनो अभी भी अपनी चर्चा में मग्न थे. गणेश बाबू पास ही एक कुर्सी के सामने जा कर उहापोह की स्थिति में खड़े रहे.

खुद से कैसे बैठूं किसी ने बैठने के लिए कहना चाहिए...

यूँ भी अबतक जो बेइज़्ज़ती हुई है वह कोई कम थोड़े ही है ?...

अंदर चिट्ठी भिजवाने के बावजूद भी मधुरानी ने इतनी देर इंतेजार करवाया...

गणेश बाबू ने सोचा.

मधुरानी ने हालत के मुताबिक खुद को ढाला था , इसका सबसे बड़ा सुबूत यानी उसकी भाषा जो शहर में रह कर साफ़ हो गयी थी. वहीं उनकी अपनी भाषा सुदूर गाँवों में काम कर गँवई हो गयी थी . उनका रहन सहन भी बदल गया था पॅंट शर्ट पहनना छोड़ अब वह शर्ट और पायजामा पहनने लगे थे.

इंसान को हमेशा तरक्की की राह चलना चाहिए .. जैसे मधुरानी चली ...मेरी तरह उल्टी दिशा में नहीं... उन्होने सोचा

उसके हाव भाव में यूँ तो कोई ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आया. यूँ भी उसकी अदाएँ किसी रानी से कम न थी.
धीरे - धीरे पाटिल साहब और मधुरानी की चर्चा गर्म होते- होते फिर बहस में बदल गयी. मधुरानी अपनी बात ज़ोर दे कर मनवाना चाहती थी. लेकिन पाटिल जी थे की समझने को तैयार ही न थे , बहस गर्म होती जा रही थी. गणेश बाबू को महसूस हुआ की कहीं वे ग़लत समय पर तो न आ गये ? शायद थोड़ी देर और राह देख सकते थे. गणेश बाबू बाहर जाने को जैसे ही मुड़े तभी मधुरानी का ध्यान उनकी ओर गया.

"आइए गणेश बाबू विराजिये" मधुरानी ने थोड़ी देर अपनी चर्चासे बहार आते हुए कहा.

गणेश बाबू को मानो उसके साथ बिताए हुए पुराने दिन याद आने लगे - उसकी वही चंचल शोख आँखें , वही शरारती मुस्कुराहट. उन्होने उसकी ओर देखा. यही चीज़ें आज भी कायम थी केवल समय के साथ चेहरे पर थोड़ी गंभीरता आ गयी थी. उसने एक पल भी एहसास होने न दिया की कुछ देर पहले वह ताव ताव में बहस कर रही थी, यूँ तो अपने चेहरे के हाव भाव एक पल में बदलने की उसे महारत हासिल थी और गणेश बाबू इस बात से खूब वाकिफ़ थे.
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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