हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली COMPLETE

Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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ताहिरा को लगा जैसे उसके खूबसूरत लिबास के नीचे एक गीला तौलिया उसे लपेट में लिए है जिसे जितना भी निचोड़ लो, उसकी गीलाहट नहीं जाती। तौलिया सूखे तब न जब उसे कहीं खुली हवा या धूप में फैलाया जाये लेकिन यह तौलिया तो धोने के बाद भी साफ नहीं होता था। बस हर रोज इस्तेमाल के बाद और गीला होकर चिपट ही जाता था।

हैडन सैंट्रल की उबड़ खाबड़ गोरों की गली के दोनों तरफ बिल्कुल एक जैसे एक दूसरे से सटे हुए गिरते ढहते से दिखाई देने वाले मकानों में रहनेवाले भी ढीले ढाले थे। ताहिरा जब कभी सौदा सुल्फ लेने अकेले गली में उतरती, तो उसे नुक्कड़ तक पहुँच कर ही साँस में साँस आती। "यू स्टिंकिंग पाकीज", कह कर एक बार किसी फटे हुए कोट और पजामानुमा पैंट वाले बुढ्ढ़े ने उस पर थूक दिया था। तभी से वह गली में अकेले आने से कतराती थी।

आज भी करन की कुहनी थामे गली से निकल जाने की उसे बहुत जल्दी थी। लेकिन चित्रा के घर पहुँचने में ताहिरा और करन को करीबन दो घंटे लग गये। हैडन सैंट्रल से कैसिंगहन स्ट्रीट का पूरा रास्ता अंडरग्राउंड़ में पैंतीस–चालीस मिनट का था। ताहिरा चारिंग क्रॉस पर ही उतर कर विंडोशापिंग में ऐसी लगी कि चलती कम और रुकती ज़्यादा। रीजंट स्ट्रीट, ब्रांड स्ट्रीट, आक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट की साफ सुथरी बंद दुकानों की सजी धजी विंडोज। न कीमत पूछने की जरूरत, न दाम चुकाने की कैफयत का एहसास। मन ही मन उसने बहुत सा सामान खरीदा और बड़े सलीके से एक खूबसूरत सा घर सजा लिया। एक ऐसा घर जिसमें वह जितनी देर चाहे नहा सकती थी। जहाँ कई खिड़कियाँ थीं, दरवाज़े थे और जिसके फर्श पर कोई फटी हुई दरी नहीं थी। बांड स्ट्रीट की एक शो विंडो में सजाये फर्नीचर को उसने एक इरानी कालीन के आस पास रखना शुरू ही किया था कि करन ने उसे एक हल्का सा धक्का देकर कहा,
"तुम्हारे चलनें की रफतार अगर यही रही तो दुनिया का पहला आदमी चाँद पर पहले उतरेगा और हम चित्रा के घर बाद में पहुँचेंगे।"
"आदमी को चाँद पर तो गई रात ढले उतरना है ना, अभी तो सात भी नहीं बजे।" ताहिरा ने एक बार फिर दामास्क के हलके तरबूजी रंग के गद्दों वाले सोफ़े को हसरत भरी नजरों से देखा।
"चित्रा बड़ी स्मार्ट लड़की है ताहिरा। हमें शादी की मुबारक देने के लिए उसने आज का ही दिन चुना, यह महज इत्तफ़ाक नहीं है। तुम देखना, इस एक बनाए गए इत्तफ़ाक से और कितने इत्तफ़ाक निकल आयेंगे।"
"जैसे?" ताहिरा की नजरें अब शो विंड़ो से टंगे एक भूरे बादामी लेडीज कोट पर थी।
"जैसे कि डेविड हमारी शादी की मुबारक का जाम उठाते हुए कहेगा, "अगर इन्सान चाँद पर उतर के वहाँ चहल कदमी कर सकता है, और एक काश्मीरी ब्राह्मण नौजवान एक पाकिस्तानी मुस्लिम लड़की से शादी कर सकता है, तो दुनिया में क्या नहीं हो सकता? अब तो हम यह उम्मीद भी कर सकते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब भारत और पाकिस्तान अपने आपसी भेद–भाव भुला कर तमाम दक्षिण एशिया की माली हालत सुधारने में साँझी जिम्मेदारी सँभाल लेंगे। "

ताहिरा ने शो विंडो से अपनी नजरें हटा ली। हल्की सी ताली बजाई और पूछा,
"यह तुम हमारे लिए दी जाने वाली दावत की बात कर रहे हो या फ़ेलोशिप खत्म होने पर किसी और ग्रांट के लिए अप्लाय करने का मजमून ढूँढ रहे हो।"
"मुझे डेविड की तरह किताबें लिखने पढ़ने का कोई शौक नहीं।"
"तो यहाँ क्यों आए थे?"
"इत्तफ़ाक से मौका मिला, आ गया वरना पापा जी के साथ काश्मीरी कालीन बेचता रहता।"
ताहिरा अब फिर रुक गई थी। औरतों के अंडरगार्मेंटस की एक बड़ी दुकान की शो विंडो के सामने। शीशे की बड़ी सी खिड़की में लेस और सिल्क की ब्रा और पैंटीज के बीच एक छोटे से कार्डबोर्ड के फट्टे पर काले रिबन से लिखा था "सेल्सगर्ल वान्टेड, फलेक्सिबल आवर्स।"
"देखो करन, लगता है मुझे भी इत्तफ़ाक से मौका मिल सकता है, मैं अप्लाय कर दूँ?"
"जी नहीं।"
"लेकिन क्यों?"
"इस बात पर जिरह करनें का यह कोई वक्त है क्या?" करन की आवाज में हल्की सी तल्ख़ी थी। "हमें पहले ही काफ़ी देर हो चुकी है।" फिर उसने जो ताहिरा का हाथ पकड़ कर चलना शुरू किया तो कैंसिगटन स्ट्रीट पहुँच कर ही रुका।

••••

चौड़े सलेटी पत्थरों की शानदार तिमंजली इमारत। हर मंजिल पर फर्श से उठ कर छत को छूती साफ सुथरे काँच की खिड़कियाँ, खिड़कियों के आगे चमकते हुए काले रेलिंग वाली बालकनियों में सजे बड़े बड़े गमलों से ऊँचे उठते हरे कचूच पौधे। पौधों से परे खिड़कियों के पार बादामी झालर वाले महीन परदों की अधखुली भीतों से झाँकते कंदील। पूरी इमारत में जाने के लिए एक मजबूत महागनी की चमचमाती लकड़ी का लंबा चौड़ा दरवाजा। दरवाज़े के दायीं तरफ दीवार पर औंधाए गमले जैसे शेड से ढँके दूधिया बल्ब की रोशनी में चमचम करती पीतल से लिखी रहनेवालों के नाम की फहरिस्त। ताहिरा ने फहरिस्त पढ़नी शुरू ही की थी कि करन ने सिर हिलाकर टोक दिया।

"हमें बेसमेंट में जाना है।"
बेसमेंट का दरवाजा डेविड ने खोला, अदब से ताहिरा की कोहनी थामी और एक हल्की सी सीटी बजाकर चुपचाप खड़ा हो गया। कमरे में जमी भीड़ से उठती आवाज़ें एकदम खामोश हो गई।
"लीजिए साहिबान, दुल्हन आ गयी। " डेविड ने कहा।

तालियों की बौछार हुई, और यकलख्त ताहिरा के जिस्म से लिपटा गीला तौलिया कहीं गायब हो गया। फर्श को छूते अपने मुकैश वाले दुपट्टे का पल्ला सँभालती वह करन के बाजू से घिरी दूधिया बल्बों की गुदगुदी रोशनी में नहा गई। एक के बाद एक नया अजनबी चेहरा, हर जुबान से नये अंदाज में मुबारकबादी, हर मिलने वाले हाथ में गरमजोशी, हर उठती हुई नजर में कहीं अनकही खुशामदीद।

"दुल्हनें तो सभी खूबसूरत होती हैं लेकिन इस दुल्हन की खूबसूरती? बिलकुल बेमिसाल है।" कहने वाले ने अपना नाम ह्यूम मोस्ले बताया। ताहिरा के साथ खड़े करन का चेहरा खिल उठा।
"आप आज यहाँ आने का वक्त निकाल पाये, सर, यह हमारे लिये बहुत बड़ी बात है। हम दोनों आपके बेहद मशकूर हैं।" करन बोला और फिर ताहिरा की तरफ देखकर कहा उसने जैसे कोई ताजा जीती ट्राफ़ी दिखा रहा हो।
"प्रोफ़ेसर मोस्ले इंस्टीट्यूट आफ कॉमनवेल्थ स्टडिज के डायरेक्टर हैं।"
ट्वीड का कोट ओर डार्क ग्रे पैंट के साथ हल्की स्लेटी कमीज और बरगंडी स्कार्फ पहने एक बरौब अजनबी अब ताहिरा से मिलने के लिए हाथ बढ़ाए खड़ा था।

डेवड ने परिचय कराया।
"डा॰रिचर्ड टेलर आर्ट हिस्टरी डिपार्टमेन्ट के हेड हैं। चित्रा इनके डिपार्टमेन्ट की स्नातक है।"
गरमजोशी से हाथ मिलाकर डा॰टेलर ने एक बाँह फैलायी और बिना छुऐ ताहिरा के कंधों को घेरे में ले लिया। फिर वैसे ही थामे पास की दीवार पर लगी एक ब्लैक अ‍ैंड व्हाइट तस्वीर दिखा कर बोले,
"मुझे पूरा यकीन है कि आज से पचास साल बाद भी आप और आपके पति साथ साथ इतने ही खुश होंगे जितने आप दोनों आज हैं।"
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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तस्वीर में एक जोड़े की पीठ थी। बाहें एक दूसरे की कमर में, सर एकदूसरे की तरफ झुकते हुए। गरम कोटों मे से झुके हुए काँधे, बालों की सफ़ेदी और हाथों की उभरी नसें सभी उनकी उम्र का अहसास दिला रही थीं। किसी पुल पर एक लैम्पपोस्ट के पास खड़े उनके न दिखने वाले चेहरे शाम के धुँधलके का नकाब ओढ़े थे।
"तुम इस जोड़ी को जानते हो क्या?" डॉ टेलर ने डेविड से पूछा,
"नहीं गर्मियों की छुट्टियों में चित्रा और मैं रोम गये थे, वहीं पर चित्रा ने इन दोनों को पुल पर ऐसा खड़ा देख कर यह तस्वीर ली थी, इनको बिना बताये। इनको एक कॉपी भेजने की इजाजत भी फ़ोटो लेने के बाद ही ली।"
"बहुत यादगार लम्हा कैमरे में उतारा है चित्रा ने। किसी आर्ट स्टूडेंट को कहना चाहिये कि वह फ़ोटोग्राफ़ी, एचिंग और आर्किटेक्चर के आपसी प्रभाव पर योरोपीय और एशियाई संदर्भ में कुछ और रिसर्च करे। तुम्हारा क्या ख्याल है डेविड? मुझे तो अब तक लगता है कि यूरोप और एशिया की परम्पराएँ उनके इतिहास से कम और भूगोल से ज्यादा प्रभावित है।"

खामोश खड़ी ताहिरा से अब एक और अजनबी हाथ मिला रहा था।
"मिसेस जुत्शी, मैं आज शाम की खास मेहमान से जल्दी जाने की इजाजत चाहूँगा। मुझे घर पहुँचने के लिये अभी मीलों का फ़ासला तय करना है। इन्सान को चांद पर पहला कदम रखते हुए देखने के लिए, मेरा परिवार मेरे साथ होगा।"
डेविड जाने वाले को दरवाजे तक छोड़ने गया, करन ने ताहिरा से कहा,
"वो डा॰टामसपेलिंग थे, स्कूल ऑफ ओरियंटल एैंड अफ़ीकन स्टडीज में साउथ ऐशिया प्रोग्राम के डाइरेक्टर है, डेविड के बॉस हैं।"
"तुम जानते हो अभी जाने से पहले टॉमस मुझे क्या कह कर गया है?" डेविड कह रहा था, "वह चाहता है कि किसी स्टूडेंट से कह कर कैम्पस जर्नल के आने वाले इश्यू में तुम दोनों को लेकर एक लेख छपाया जाये।"
करन को बड़े नाटकीय आवाज में अपनी टाई ठीक करते हुए देख कर डेविड मुस्करा दिया।
"अरे हाँ टॉमस यह भी कह रहा था कि तुम दोनों की जोड़ी इतनी खूबसूरत है कि कैमरा तो तुम्हें तलाश करेगा ही, देखने वाले भी एकबार देख लेंगे तो पूरा लेख पढ़ ही डालेंगे।"
करन और ताहिरा की शादी को लेकर रसल स्क्वेयर के हरे भरे अहाते में काफ़ी चर्चा थी।

इन्स्टीट्यूट आफ कामन वेल्थ स्टड़ीज और स्कूल आफ ओरियंटल ऐंड अफ़ीकन स्टड़ीज में अन्तर–जातीय, अन्तर–मजहबी या अन्तर–देशीय शादी होना कोई बड़ी बात नहीं थी। अन्तरदेशीय माहौल में रहकर ही तो इंसान मजहब, जाति और राष्ट्रीयता के संकुचित दायरों से उपर उठता है न इसीलिए तो कई कई परोपकारी दूर दूर से बिछड़े हुए देशों के स्नातकों को वज़ीफ़े देकर बाहर की दुनिया में पढ़ने–लिखने का मौका देते हैं। लेकिन करन तो ताहिरा से शादी करने के बाद ही लंदन आया था, और वह भी पहली बार। जम्मू कश्मीर युनिवर्सिटी से सेकन्ड डिवीजन में एम ए किया था उसने और ताहिरा लाहौर के किसी प्राइवेट कालिज में पढ़कर बी ए हुई थी।

स्कूल आफ ओरियंटल ऐंड अफ़ीकन स्टड़ीज में हिस्टरी आफ आर्ट की छात्रा चित्रा की एक सहपाठिन ने पूछा कि क्या वह ताहिरा और करन को जानती है।
"मेरे दादा ताहिरा के पिता थे।" चित्रा ने ऐसे सहज कहा जैसे कि "कुनबे के दरख्त" की किसी टहनी पर हाथ रख दिया हो।
बस फिर तो उत्सुक स्नातकों का ताँता सा लग गया चित्रा के आस पास।
"तुम्हारे दादा मुस्लिम थे क्या?"
"करन तो ऊँची जाती का हिंदू है ना? ब्राह्मण है?"
"एक भारतीय और एक पाकिस्तानी में शादी होना तो बड़ी सनसनी वाली वारदात रही होगी?"
"तुम्हारे यहाँ तो शादियाँ अरेंज होती है, इनका प्रेम विवाह हुआ होगा। मिले कहाँ होंगे यह दोनों? काश्मीर में मिले हो, ऐसा मुमकिन तो नहीं लगता।"
फतरतन कम बोलने वाली चित्रा ने डेविड को बताया,
"करन और ताहिरा के बारे में बातें करना मुझे अजीब सा लगता है। पता नहीं वह दोनों खुद पब्लिक में क्या कहना चाहते हैं?"
"तुम उन दोनो के लिये एक दावत दे सकती हो। कैम्पस वाले इस जोड़ी से एक बार खुद मिल लेंगे तो शायद एक दूसरे के आदी भी हो जायेंगे।" डेविड ने सलाह दी।

चित्रा ने करन से पूछा,
"तुम किस किसको न्योता देना चाहोगे?"
करन ने कुछ सीनियर फैकल्टी मेम्बरज के नाम गिना दिए जिन्हें वह एकाध बार मिल चुका था और जो शायद उसका नाम उसके चेहरे से जोड़ सकते थे। स्नातकों की फहरिस्त चित्रा और डेविड पर छोड़ दी।
रसल स्क्वेयर का अहाता लंदन के बीचो बीच पड़ता है। इंस्टीट्यूट ऑफ कामनवेल्थ स्टडीज और स्कूल आफ ओरियंटल ऐंड अफ़ीकन स्टडीज जैसी दो नामवर संस्थाएँ इसी अहाते में एक दूसरे से कुछ ही कदमों की दूरी पर हैं। वहां के सीनियर फैकल्टी मेम्बर्स इंग्लैंड में ही नहीं, दूसरे मुल्कों में भी आला तालीम, व्यापारी और सियासती मामलों में सलाह करते हैं, देते हैं। न जाने कौन, कब, किसकी नजर में पड़ जाये? कहाँ से कहाँ पहुँच जाये? वैसे भी करन यही मान कर चलता था कि अंग्रेज़ों ने ऐसा एम्पायर तो जरूर बनाया था जहाँ सूरज कभी डूबता नहीं, लेकिन जब वो टूट कर बिखरा तो काफ़ी मेस हो गई। उसे संभालने के लिए कुछ तो इमदाद चाहिए थी। वह तैयार था, बस बात उस पर किसी की नजर पड़ने की थी।
"नीली छतरीवाला अगर अंग्रेज है तो उपर से नीचे देखने वक्त मैं उसे एक बार बस दिखाई दे जाऊँ, बाकी मैं खुद सँभाल लूँगा।" उसने चित्रा से कहा, "फिर तुम्हारी पार्टी में तो ताहिरा भी मेरे साथ होगी। उसे देख कर नजर फेर लेना मुमकिन ही नहीं।"

सीनियर फैकल्टी मेम्बर्स जब तक पार्टी में रुके, बाकी मेहमान उन्हीं को घेरे रहे, उनके जाते ही पूरी पार्टी का नक्शा बदल गया। छोटी छोटी टोलियाँ बनीं और यहाँ वहाँ बिखर गई। कैंट, मार्लबरो और रॉथमैन सिगरेटों से उठते धुएँ की अलग–अलग महक कई–कई आवाज़ों से उठता बे–अल्फ़ाज शोर। खाली गिलासों को भरने के लिए कोने में रखी ड्रिंक्स की ट्रे की तरफ बढ़ते और वहाँ से लौटते कदमों की चहल पहल। करीनेवार बेतरतीबी का जीता जागता मेला। मेले में करन ताहिरा से कब जुदा हुआ, उसे पता नहीं चला।

दीवार से सटी बुक शेल्फ के पास खड़ी ताहिरा का जी चाहा कि वह एक नहीं, छः सात हो जाये। हर टोली में एक साथ शामिल हो, हर उठते हुए ठहाके पर खिलखिला के हँसे, और फिर किसी जादुई पिटारी में ताजा धुएँ की महक, उठती आवाजों का शोर, चलते फिरते कदमों की आहट को कैद कर ले। पिटारी इतनी छोटी हो कि आज तो उसके पर्स में आसानी से पूरी आ जाए। लेकिन हैडन सैंट्रल पहुँचनेपर फैल कर वो सारा कमरा भर दे जहाँ वह करन के जाने और लौटने के बीच बिल्कुल अकेली होती है। उस कमरे में न टी वी था, न रेडिओ न टेपरिकार्डर। उस कमरे की घड़ी भी टिक टिक नहीं करती थी। सड़क की तरफ खुलती एक खिड़की थी, गुसलखाने की तरफ जाते हुए गलियारे में एक दरवाजा। पचासी साल की स्पिंस्टर बहिन के मरने पर अस्सी साल के बिली को हैंडन सेन्ट्रल का मकान इकलौते वारिस की हैसियत से मुफ़्त मिला था। पिछले दस सालों में दो बीवियों को दफ़्न कर चुका था। अब एक बयासी साल की बेवा के चक्कर लगा रहता था। दो कमरों वाले मकान का एक कमरा किराये पर चढ़ा दिया था करन को। पूरे लंदन में करन को वहीं क्यों रहना पसंद आया, यह उसने ताहिरा को नहीं बताया। बस इतना ही कह दिया बिना ताहिरा के पूछे,
"थोड़ी सी परेशानी बर्दाश्त कर लो भाई। हाथ खुलते ही निकल जायेंगे यहाँ से।"
ताहिरा के कंधे पर एक मुलायम हाथ आ कर टिक गया।
"क्यों ताहिरा? यह फैसला नहीं कर पा रही हो कि किस खुशनसीब टोली में जाकर शामिल होना है आज?" चित्रा पूछ रही थी। डेविड उसके पास खड़ा था।

खुलते हुए गेहुए रंग और जहीन चेहरे वाली कली सी नाजुक चित्रा। मँझले कद का दुबला पतला लंबे भूरे बालों वाल डेविड। चित्रा अपने पाँव के नीचे आता एक कुशन उठाने को झुकी तो डेविड ने उसके माथे पर गिरते बालों की लट पीछे सरका दी। चित्रा ने हाथ बढ़ा कर ड्रिंक ट्रे से एक गिलास उठाया तो डेविड ने बोतल पकड़ कर उँड़ेलना शुरू कर दिया। गिलास उसके हाथों से लेकर पहले उसी के ओठों तक ले गया और उसके घूँट भरते ही खुद भी उसी गिलास से सिप करने लगा। अब चित्रा डेविड की बाँह के घेरे में थी और वह अपने ओठ उसके माथे पर रख कर लंबी साँस ले रहा था।
"हम यहीं अपनी एक छोटी सी टोली क्यों ना बना ले? कम से कम थोड़ी देर के लिये, सिर्फ हम तीनों?" डेविड ने कहा।
उसके खुले बालों में अँगुलियाँ घुमाती चित्रा हँस दी।

"मुझे लगता है कि डेविड को अपने बालों की पोनी टेल बाँधनी चाहिये। मुझसे कहीं घने बाल हैं इसके। तुम्हारा क्या ख्याल है ताहिरा?"
ताहिरा का मन अचानक करन से बिल्कुल सट कर बैठने को हुआ। उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई।
"करन को देख रही हो न? वहाँ सोफ़े पर है।"
ताहिरा को अपनी तरफ आते देखकर करन के साथ सोफ़े पर बैठे दोनों अजनबी उठ खड़े हुए। करन ने दोनों को वापस बिठा दिया फिर अपनी जगह पर ताहिरा को बिठा, खुद उसके पास सोफ़े के बाजू पर बैठ गया।
"यह असलमबेग है, कराची से, और यह अयूमा ओवुली है नैरोबी से।" उसने परिचय कराया। "दोनों मेरी तरह इंस्टीट्यूट में फेलोज हैं।"

असलम नें ताहिरा को अपनी बातचीत में शामिल करते हुए कहा,
"हम लोग पीने वालों की जमातें बना रहे थे। एक वो जो बोतल देखकर कहते हैं : आज तू नहीं या मैं नहीं, दूसरे वो जो पीते कम और झूमते ज्यादा हैं।" वह रुका, भरपूर नजरों से पहले ताहिरा और फिर सामने से आती हुई चित्रा को देखा। फिर आह भर कर बोला,
"तीसरे वो जिन्हें अच्छी सूरत देखकर बिना पिये ही नशा हो जाता है।"
डेविड भी अब तक आ गया था और चित्रा के कंधे तक कटे बालों से छेड़खानी कर रहा था। चित्रा ने असलम की कही बात का तर्जुमा किया तो हँस कर बोला,
"अगर तुम चित्रा को निहारने से एक आध मिनट की फ़ुरसत ले सको असलम, तो मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम्हारे लिये क्या ला सकता हूँ? मेरा मतलब है कि तुम्हारे पीने के लिये।"
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असलम न मुस्कुराया, न कुछ बोला। जब डेविड ड्रिंक्स ट्रे की तरफ जाने को मुड़ा तो असलम ने उसे रोक लिया।
"एक बात बताओगे डेविड? ऐसा क्या है तुम गोरे आदमियों के पास कि हमारे यहाँ की आला उमदा लड़कियों को तुम फाँस लेते हो और हमारे हिस्से आती हैं तुम्हारी बेचारी तलछट। दफ्तरों में टाइप करने वालियाँ, डाकघरों के खतों को मोहरें लगाने वालियाँ, बसों और गाड़ियों के टिकट बेचने वालियाँ?"

ताहिरा ने असलम की तरफ देखा। वो न तो पी रहा था न ही उसकी आँखों में कोई हँसी मजाक की हल्की सी छाँव थी।
करन ने बात का रुख मोड़ा।
"यह सारा कुसूर मेरा है। न मैं ताहिरा को चित्रा समझता, न चित्रा डेविड से मिलती। मैं तो अपनी खूबसूरत बीवी को आज भी सेल्सगर्ल होते होते बचा लाया हूँ। क्या पता कौन खरीददार कभी दुकान की रसीद के साथ बेचनेवाली को भी बतौर तोहफ़ा पैक करवा लेनेकी ज़िद पकड़ ले।"
इस से पहले कि चित्रा करन की बात का तर्जुमा करे, असलम करन की तरफ देखकर बोला।
"तुम हिंदुओं की हीपोक्रसी का तो जवाब ही नहीं। यहाँ आते ही स्कर्ट पहनी हुई हर चीज के साथ लिपट जाने और जहाँ तहाँ जायका बदलने में तुम्हें कोई परहेज नहीं रहता। फिर वहाँ जा कर कुँवारी दुल्हनें ले आते हो जो तुम्हारे अलावा किसी को देख भी ले तो उनकी शामत।" न उसकी आवाज में कोई चुहल थी, न चेहरे पर कोई मुस्कराहट।
"अब बस भी करो असलम।" अभी तक खामोश बैठे अयुमा आवुलो ने ट्रूस की माँग करता हुआ हाथ उठा दिया। "तुम भी कैसा हरामीपना दिखाने पर उतर आये हो।"

अब असलम उठ कर खड़ा हो गया। अयूमा ओवुली के कंधों पर उसने दोनों हाथ रख दिये और मुस्करा कर कहा,
"तुम्हारी बात तो मैंने सुन ली, मेरे साँवले सलोने दोस्त, लेकिन अगर किसी गोरे हरामी ने मुझे माँ की गाली दी होती तो यकीनन उसी की माँ को ही खराब कर के उसकी बात रख लेता।"
ताहिरा ने डेविड को देखा। उसके चेहरे पर न गुस्सा था, न परेशानी। पास खड़ी चित्रा को देख उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े इत्मीनान से डेविड ने पूछा, "चल के देखें कि पॉट रोस्ट तैयार हो गया या नहीं? पक जाने की खुशबू तो आ रही है।"
जैसे किसी ने कुछ कहा ही नहीं, जैसे किसी ने कुछ सुना ही नहीं।

अपोलो ११ की चाँद के धरातल पर पहुँचती तस्वीर ज्योंही टी वी पर उभरी, डेविड ने एक एक करके कमरे के सारे लैंप बुझा दिये। उस घुप्प अँधेरे में पूरा कमरा भी आसमान हो गया। फिर जो बत्ती जलाई तो कमरे की छत पर छोटे छोटे टिमटिम करते नीले बल्बों का चंदोवा था, हल्के स्लेटी रंग की दीवारों पर टंगे छोटे बड़े कई पोस्टर धुँधले बादलों की टुकड़ियाँ थीं, वॉल टू वॉल फरशी दरी एक तिलस्मी कालीन थी, और उस पर जहाँ तहाँ बिखरी मेहमानों की टोलियाँ अपनी अँगुलियाँ क्रास किये टी वी पर नजरें एकटक गडाए थीं जैसे पलक झपकने पर तिलस्म टूटने का अंदेशा हो। स्पेस सूट पहने नील आर्मस्ट्रांग का पहला कदम जब चाँद के अछूते धरातल पर उतरने में सिर्फ जरा सा ठिठका तो ताहिरा ने पास बैठे करन का हाथ कस कर थाम लिया। दुनिया के हर इन्सान के लाखों मील दूर, अपोलो ११ में अपने दूसरे साथियों की पहुँच से बाहर, यह अकेला इंसान इस वक्त कितनी नजरों के दायरे में है? किसी एक अकेली जान को क्या कभी इतनी नजरों ने पहले भी एक साथ देखा है? देखेंगी?

तालियों की गड़गड़ाहट के साथ देखने वालों ने एक दूसरे को गले लगाया, शैम्पैन के ग्लास खनके। असलम अपना गिलास ताहिरा के गिलास से खनका कर करन से बोला,
"आज के बाद खूबसूरत चेहरों की तशबीह चाँद के देने वालों का क्या होगा यार, मगर आज के दिन मुझे जाम उठाने की इजाजत दे ही दो। एक ऐसी खूबसूरत औरत के नाम जिसकी मिसाल चाँद से हो ही नहीं सकती क्योंकि उसके सामने चाँद भी फीका लगता है... मैं अपना यह जाम तुम्हारी दुल्हन के नाम उठाता हूँ, करन।"

ताहिरा ने जाहिदा खाला को एक और खत लिखा,
खाला जान,
कल चित्रा ने हमारे लिए एक शानदार दावत दी। बहुत शहाना इलाके में रिहाइश है उसकी, लेकिन जमीन से ऊपर नहीं, जमीन के नीचे। यहाँ उसे बेसमेंट कहते हैं। दावत का सारा माहौल ही बिल्कुल तिलस्मी कर के रखा था उसने। मेहमान कह रहे थे कि मेरा काशनी मुकैश वाला दुपट्टा और चित्रा की बेसमेंट की नीची छत से टिमटिमाते छोटे छोटे नीले बल्बों की रोशनी में मुकाबला चल रहा है। किसके पास ज्यादा सितारे हैं?
चित्रा की तो मैं फूफी हूँ न खाला जान। उम्र में भी मुझसे कोई साल भर छोटी है वो लेकिन मेरा ऐसा दुलार करती है वो जैसे मेरी आपा हो। बड़ी ही प्यारी है और सँभली हुई भी।
मैंने उसे एक बार भी माथे पर तेवर डाले नहीं देखा है तो बड़ी कम–गो। पर हर बात इशारतन सँभाल लेती है। मुझे तो लगता है कि वो जो भी चाहे कर सकती है। चाँद पर भी उतरती तो वहाँ ऐसे घूमने निकल जाती जैसे कम्पनी बाग में सैर करने गई हो।
लाहौर से लंदन इतना दूर तो नहीं है न खाला जान जितना जमीन से चाँद आप यहाँ आतीं तो कितना अच्छा होता।
आपकी अपनी गुड़िया
ताहिरा

हाँ एक बात और। मुझे मेरा खत मिलते ही लंबा सा खत लिखियेगा। इतना लंबा कि उसे एक बार पढ़ने में ही मेरा पूरा दिन निकल जाये। रुक रुक पढ़ूँगी और पढ़ती पढ़ती आपसे बातें करूँगी। कितनी बातें बतानी है आपको।
ताहिरा

पूरा करने के बाद ताहिरा ने काफ़ी बार सोचा कि डेविड के बारे में कुछ लिखे। चित्रा उसी के साथ रहती है। दोनों कितने प्यारे लगते हैं। लेकिन लिखा कुछ नहीं।


डाक में ख़त छोड़ते ही ताहिरा जवाब का इंतज़ार करने लगी, एक हफ्ता पहुँचने में, एक हफ्ता जवाब में। ठीक पंद्रह दिन में जवाब आया। सिर्फ तीन जुमले, वो भी छोटे छोटे।

ताहिरा, मेरी जान
कैसी बड़ी बड़ी बातें करने लगी है तू? मैं तो हर वक्त तुझे ख़त लिखती रहती हूँ, मगर कलम से नहीं। अब भी आँखों में तेरी सूरत है और हाथ काँप रहा है।
फिर लिखूँगी, मेरी गुड़िया,
तुम्हारी ही ख़ाला

ख़त पढ़ते ही ताहिरा फिर लिखने बैठ गई।
"मेरी बहुत याद आती है न आपको खाला जान, लेकिन मुझसे ज़्यादा नहीं मैं भी आपकी उस गुड़िया को बहुत याद करती हूँ जिसे नींद से उठाने के लिए कोलोनी के मुर्गे की बाँग कभी सुनाई नहीं देती थी, जो सुबह की अँगीठी के धुएँ को दोनों हाथों में समेटकर उपर हवा में उछालती थी, जिसके दुपट्टे का पल्ला दूधवाले की साईकल में फँस कर फटते हुए कई बार बचा था। जिसके बालों में तेल लगा कर आप पहले धूप में बिठा देती थीं और फिर ख़ुद ही कहती थीं, "अब उठोगी भी या रंग मैला करने की कसम खा ली है। कितना लिखूँ ख़ाला जान कैसे कैसे कहकर लिखूँ? आप को तो बिना बताए मेरी बात समझने की आदत है न बस थोड़ा लिखा ज़्यादा जानें और मेहरबानी करके अगले ख़त से लिखें कि आप पिछला ख़त लिखने के बाद कितनी देर तक रोई थी?"

ख़त डाक में छोड़ कर जब ताहिरा अपनी गली में मुड़ी तो किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया। मटमैले पैंट कोट वाला एक खुरदरा सा बुजुर्ग गोरा था। ताहिरा को अपनी तरफ देखते पाया तो उसकी गिजगिजी आँखों में लार उतर आई। खीसें निपोर कर बोला,
"तो तुम्हीं हो वो ख़ूबसूरत बला जो उस सुअर बिली की गंदगी के ढेर में रहती है?"
उसके मुँह खोलते ही मछली, बीयर और टमाटर सॉस से मिली तले हुए आलुओं की एक बासी भभक उठी। ताहिरा ने अपने दुपट्टे का पल्ला मुँह पर रखने के लिए हाथ उठाया तो भभकी ने एक हाथ से उसके हाथ को कस कर पकड़ा और अपनी छाती पर दबा दिया। अपना दूसरा हाथ उसने ताहिरा की कमर पर रखा और कूल्हों से चिपटी उसकी रेशमी सलवार को सहलाने लगा।

थर थर काँपती ताहिरा ने चारों तरफ नज़र दौड़ाई। भरी दुपहरी में कई लोग गली में आ जा रहे थे। कुछ ही हाथ की दूरी पर दो थुलथुली गोरी औरतें मलबे में फेंकने वाले काले रंग के थैले पकड़े बतिया रही थीं।
ताहिरा ने भभकी की गिरफ्त से छूटने की कोशिश करते हुए ज़ोर से चिल्ला दिया,
"छोड़ो मुझे, प्लीज़ जाने दो।" वह कहती गई और बड़ी आजिज़ी से थुलथुली औरतों को देखती गई। उनमें से एक ने अपने हाथ में पकड़ा काला थैला नीचे रखा, सुर्ख लिपस्टिक से सने ओठों को कानों तक खींच कर हँसी और पूछा,
"कोई मदद चाहिए हनी?"

ताहिरा की जान में जान आई और हलक में अटक कर रह गई। लिपस्टिकी औरत ताहिरा से नहीं, भभकी से बात कर रही थी। भभकी ने ताहिरा के कूल्हों पर फिरते अपने हाथ को ज़ोर से दबाया और बड़ी सी चुटकी भर के कहा,
"ऐसी कोई बात नहीं, मॅगी। मैं तो इस हूर परी से पूछ रहा हूँ कि क्या ये मुझे कहीं भी ज़रा सा छू कर देखना चाहती है कि मैं कितना ऊपर उठ सकता हूँ।"

अब वो ताहिरा के हाथ को अपनी कमीज़ के अंदर घुसेड़ता हुआ नीचे की तरफ ढकेल रहा था। पूरे ज़ोर से उसे धक्का देकर ताहिरा भागी। घर के दरवाज़े पर ही बिली दिखाई दिया। ताहिरा की हिम्मत न हुई कि उससे कुछ कहे या पूछे। क्या उसने वह देखा था जो ताहिरा के साथ हुआ? या वो बिली के लिए कोई देखने वाली वारदात ही न थी। वह करन को फोन करना चाहती थी, लेकिन उसके लिए बिली की इजाज़त लेनी पड़ती। फोन बिली के कमरे में ही था, ताहिरा कतरा गई।

अपने कमरे में पहुँच कर उसने दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। उसका जी चाह रहा था कि किसी रोशन जगह पर एक महफूज़ कोने में बैठ जाए और दहाड़ें मार कर रोए। लेकिन धूप से चौंधियाई उसकी आँखों को सारा कमरा घुप्प अँधेरे में खोया लगा। वैसे भी कमरे की छोटी सी खिड़की के आगे लगे भारी भरकम पुराने परदों की ओट से रोशनी अंदर आते हुए सहम जाती थी। ताहिरा ने खिड़की के पास जाकर एक परदा हटा दिया और उसी के साथ टंगी डोरी से बाँधना चाहा। तभी बाहर से फेंकी एक ईंट खिड़की के शीशे पर लगी और काँच के कई टुकड़ों समेत कमरे की दरी पर आकर टिक गई। हटाया हुआ परदा ताहिरा के हाथ से छूट कर फैल गया।

बुत सी बनी ताहिरा कुछ देर चुपचाप खिड़की के पास खड़ी रही। फिर हल्के अँधेरे को टटोलती हुई बिजली का स्विच जला कर वह कमरे के दरवाज़े के साथ पीठ टिका अपने आस पास देखने लगी। इस चौकोर कमरे का कौन सा कोना ऐसा महफूज़ है जहाँ वह अपने घुटनों पर सिर रख कर आँखें बंद कर ले?
अचानक ताहिरा के सारे बदन में एक ज़ोर से कँपकँपी उठी जैसे उसने कोई बिजली का नंगा तार छू लिया हो।
"हाँ," उसने लंबी सांस ली, "अब मुझे पता लग गया कि मैं करन के घर से जाने के बाद खिड़की के पास ही क्यों बैठ जाती हूँ," वह अब अपने आप से बात कर रही थी।
"मुझे खौफ लगा रहता है कि मेरे अकेले होते ही इस कमरे की कोई न कोई चीज़ अपना हुलिया बदल डालेगी। किसी न किसी बहाने मुझसे वह करवा देगी जो मुझे नहीं करना चाहिए।"

वह बोलती जा रही थी।
"नहीं कुछ करवाएगी नहीं, टोकेगी हाँ टोकेगी वह करने से जो मैं करती रहती हूँ।"
अब वो आँखें फाड़ फाड़ कर सारे कमरे को देखने लगी जैसे हर छिपे हुए जिन्न का सुराग ढूँढती हो।
छोटे से कमरे में ठूँस कर रखा हुआ तमाम फर्नीचर या तो बहुत बड़ा था या सालों के इस्तेमाल का मारा। भरकम फोर पोस्टर बेड के ऊपर उबड़ खाबड़ लिहाफों और पैबंद लगे सीले से कम्बलों का एक ढेर था जिसे तेज़ धूप और ताज़ी हवा की सख्त ज़रूरत थी।

छिलते हुए बदरंग गद्दों से ढकी, छुओ तो कराहती एक ही कुरसी थी जिसमें एक अकेला बैठे तो पीठ का सहारा देने में लुड़क जाए और दो जन बैठें तो साँस न ले सकें। कमरे के बीचो बीच टेड़ी मेड़ी टाँगों वाली एक गोल तिपाई के आस पास दो भारी लोहे के फ्रेम की कुर्सियाँ थीं जिन्हें खाना खाते वक्त ज़रा भी खींचना धकेलना पड़े तो नीचे बिछी बेरंग दरी का छेक और फैल जाए।

बुझी राख से भरी ठंडी फायरप्लेस को भुतहा बनाने के लिए अगर कोई कमी थी तो सिर्फ एकाध मकड़ी के जाले की, वरना उसके सामने पड़े पुराने ताँबे और लोहे के काले देगचे तो पहले ही आग फूँकने और बुझाने के हथियारों से लैस थे।
जो कभी फर्शी दरी रही होगी, अब वह एक बड़ा सा चिथड़ा था जिसे खींच तान कर उसके पैबंदों को फर्नीचर के नीचे छिपा दिया गया हो।
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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फोर पोस्टर बेड कई बार ताहिरा को अकेले पा कर फुसफुसा चुका था।
"मत सोया करो इसके साथ। यह तुम्हारे ऊपर सवार होकर तुम्हें कचोटेगा और तुम्हारा दम घोट कर खुद आराम से ख़र्राटे लेगा?"
शाम को करन के आने से पहले जब वह खाने वाली मेज़ पर प्लेटे सजाती तो कई बार मेज़ की टेड़ी मेड़ी टाँगें ताहिरा के टखनों या घुटनों से टकरा कर टोकतीं,
"क्यों रोज़ रोज़ उसके लिए ऐसा लज़ीज़ खाना पकाती हो वो तो तुम्हें रोज़ाना पिल्स ही खाने को कहता है न ताकि उसका मज़ा बना रहे और तुम अभी माँ न बन सको। तुम्हें क्या जल्दी है माँ बनने की अभी तो तुम्हें तेईसवाँ साल ही लगा है न मत फटकने दो उसे अपने पास पिल्स खाकर जो सारा दिन तुम्हारा मन भारी रहता है उसे पल दो पल के शौक से क्या बहलाना?"

दिन के गुमसुम हल्के उजाले में जब वह बेनागा फायरप्लेस के उपर वाली मैन्टलपीस की धूल झाड़ती, तो राख की ठंडी ढेरी नीचे से बुदबुदा कर इल्तजा करती।
"मेरी बात सुनो ताहिरा, कहीं से थोड़ी सी सूखी लकड़ी लाकर बस एक बार मुझे जलती आग की गरमी दे दो। फिर देखना, मैं किस होशियारी से इस सारे कमरे को फूँक कर अपने जैसा बना दूँगी।"
कमरे में इधर उधर जाते जब कभी किसी पैबंद पर उसका पाँव पड़ता तो पूरी की पूरी फर्शी दरी सिहर उठती।
"मेरी भी मजबूरी है, ऐ खूबसूरत शहज़ादी ऐसी जगह–जगह से छिदी हुई न होती तो तेरा तिलस्मी कालीन बन जाती। रोज़ दिन में उड़ाकर तुम्हें ज़ाहिदा ख़ाला के पास छोड़ती और शाम को लौटा लाती, करन के घर वापिस आने से पहले। मज़ाल थी किसी की जो गलत–सलत कह–छू कर तुम्हें परेशान करता?"
•••

ज़ाहिदा के लिए ताहिरा उस कुँवारी माँ की इकलौती औलाद थी जिसकी गोद तो भरी थी, मगर कोख नहीं।
एक हुनरमंद कहारन के पुश्तैनी ओसारे से तप कर निकला बेशकीमती तोहफा थी ताहिरा। गुँधती माटी में सर का एक छोटा सा बाल भी रह गया होता तो तोहफे में खोट रह जाता। किसी खानदानी ललारी के सधे हुए हाथों से रंगा सतलहरिया दुपट्टा थी ताहिरा। महीन चुन्नटों मे बँधा कोई रंग ज़रा सा भी फैल जाता तो दुपट्टे की लहरियाँ सैलाब बन जातीं। गुजरात से लाहौर जाती पैसंजर गाड़ी के हिचकोले खाती बीस–बाइस साल की ज़ाहिदा की गोद में पड़ी, मरी माँ के पेट से निकली, सतमासी पैदाइश का जिंदा करिश्मा ताहिरा। लाहौर की रिफ्यूजी कालोनी में एक कमरे वाले घर में रहने की दरख़ास्त लिखती ज़ाहिदा के कंधे से लगी फूल सी हल्की ताहिरा।

रिफ्यूजी कॉलोनी के शोरोगुल भरे अहाते में ज़मीन पर आगे पाँव पसारे बैठी हुई ज़ाहिदा के घुटनों और टख़नों के बीच मुँह के बल लिटाई, बादाम के तेल की मालिश करवाती, पटोले सी ढीली ढाली ताहिरा। आस पास के घरों की अँगीठियों पर मिट्टी का लेप करती उकडू बैठी ज़ाहिदा की पीठ से चिपटती, अपने पाँव पर खड़ा होना सीखती ताहिरा। रस्सी पर कढ़ाई किए पलंगपोश को लटकाती, हाथ उठाए खड़ी ज़ाहिदा की कमर को अपने सिर से छू कर खिल खिल करती गुड़िया सी गोल मटोल ताहिरा।

गोरी चिट्टी, भूरी नीली आँखों वाली ताहिरा।
घनी पलकों और घुँघराले बालों वाली ताहिरा।
नाजुक अंगुलियों और नर्म हाथ पैरों वाली ताहिरा।
स्कूल का बैग उठाए कॉलनी के नुक्कड़ से सड़क को मुड़ते हुए लौट लौट कर ख़ाला को हाथ हिलाकर देखती ताहिरा।
और फिर एक दिन अपने चेहरे को दोनों हाथों से थामे ज़ाहिदा के काँधों से कहीं उपर सिर निकालती, ज़रा सा झिझक कर पूछती ताहिरा।
"ख़ाला जान, मैं किस के जैसी दिखती हूँ? अम्मी जैसी?"
"आपा जैसे तो बस घने बाल और लंबी गर्दन है तेरी। कद–काठी, चेहरा–मोहरा, नैन–नक्श सब रायसाहिब के छोटे बेटे गोपाल जैसे हैं। बड़ा खूबरू था वो जब मैंने देखा था," ज़ाहिदा ने कहा और एक ठंडी साँस भरी।
बदरूनिसा से मिलने ज़ाहिदा कभी कभार ढक्की दरवाज़ा गली चली जाती थी। छुट्टी वाले दिन जाती तो कहीं न कहीं गोपाल दिखाई दे जाता। कभी घर में, कभी गली में। सीढ़ियाँ उतरते–चढ़ते एकाध बार ज़ाहिदा का दुपट्टा गोपाल की कमीज़ की कुहनी छू लेता।
"चाची, मैं पूछ रहा था," कहता हुआ गोपाल रसोई में गपशप करती बहनों को अपने आने से आगाह करता और फिर चाय या पानी की फरमाईश करते कुछ देर के लिए दहलीज़ पर टिका रहता।
पता नहीं किस रिश्ते से उसने बदरूनिसा को चाची कहना शुरू किया था। एक बार 'इविनिंग इन पेरिस' के अत्तर की दो छोटी छोटी नीली शीशियाँ ले आया और चाची की दे दीं।
"यह दो किस लिए?" बदरूनिसा ने पूछा,"एक तो आपके लिए है चाची। दूसरी आप ज़ाहिदा को दे दें न" कह कर वह दहलीज़ पर टिके बिना मुड़ गया। ज़ाहिदा ने शीशी लेने को हाथ बढ़ाया तो बदरूनिसा ने छोटी बहिन का हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया।
"मत कुबूल कर ये तोहफा, मेरी लाड़ो। जिस गली में रहना नहीं उसका पता पूछ कर क्या करेगी?"

बँटवारे के बाद गोपाल ने बदरूनिसा को एक ख़त लिखा जिसे अमृतसर से लाहौर पहुँचने में करीबन बीस बरस लग गए। दंगे फसादों के ख़ून–ख़राबे में कुछ डाक के थैले भी ज़ख्मी हुए थे। मारो काटो से लहू–लुहान एक मुसाफिर ने रात के अँधेरे में डाक गाड़ी के थैलों में पनाह ली थी और वहीं पर हमेशा के लिए सो गया था। उसके ज़ख्मों के निशान कुछ थैलों की उपरी परत से चिपटे ख़तों ने अपने उपर ले लिए थे। गोपाल के लिखे ख़त पर "बीवी बदरूनिसा, मकान नम्बर चौदह, ढ़लकी दरवाज़ा गली" बच गया, "गुजरात" धब्बा बन गया। ख़त शहरों शहरों भटका। "यहाँ नहीं है" के ठप्पे खा खाकर तुड़ा मुड़ा। जब गुजरात के एक पुराने डाकिये के हाथ पड़ा, तो अपने दोनों हाथ उपर उठा कर कहा,
"वाह री चिठ्ठी, इतने बरसों बाद तुझे अपना सिरनांवा मिला है तो ज़रूर ख़ुदा बिछड़ों को मिलाने की अपनी तज़वीज़ में मुझे शामिल करना चाहता है।"

चौदह नम्बर मकान के नए मालिक को वहाँ रहते दस बरस गुज़र चुके थे। डाकिए ने ख़त उसे नहीं, बेकरी वाले बख्तियार को दे दिया। बदरीलाल के नुक्कड़ वाले मकान में अब वही रहता था। जब तक उसकी घरवाली जीती थी, ज़ाहिदा के साथ ख़तो–ख़ताबत करती रही। एकाध बार लाहौर जाकर मिल भी आई थी।
गोपाल का ख़त ज़ाहिदा को मिल गया। उसने बार बार पढ़ा। ताहिरा को पढ़ाया।
अमृतसर
१ अक्तूबर १९४७
चाची,
भाइया जी को हम उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ अपने साथ लाए थे। वो अमृतसर नहीं पहुँचे। बॉर्डर पार करने से पहले ही खून ख़राबे में दम तोड़ दिया और अपनी ज़िद रख ली।
इकबाल भापा पुलिस में भरती हो गया है। मैं एल.एल.बी. में दाख़ला ले रहा हूँ।
आप लोगों की सलामती की दुआ करता हूँ। अपनी ख़ैरियत का ख़त अमृतसर पुलिस स्टेशन के मार्फत लिखेंगी तो हमें मिल जाएगा।
गोपाल

"जिन लोगों की सलामती माँगी है इस ख़त ने, उसमें तो तू और मैं भी आते हैं न?" ज़ाहिदा ने ताहिरा से पूछा। और ख़त का जवाब लिखवा भेजा। इकबाल की मार्फत गोपाल को।

लाहौर
५ जनवरी १९६८
गोपाल भाई जान को ताहिरा का सलाम।
अम्मी के नाम लिखा आप का ख़त मिल गया। वो भी अपनी मर्ज़ी के खिलाफ ही गुजरात से लाहौर जाने वाली गाड़ी में चढ़ी थी। मगर उतरी कभी नहीं।
ज़ाहिदा ख़ाला और मैं ख़ैरियत से हैं। मैंने इसी साल बी॰ए॰ किया है।
ख़ाला जान आप सबकी सलामती की दुआ के साथ अपना सलाम कहती है।

ख़त का जवाब आने में मुश्किल से एक महीना भी नहीं लगा।
दिल्ली
१० फरवरी १९६८
ताहिरा बीबी,
अपने भाई जान को लिखा तुम्हारा ख़त पढ़ कर हमें कितनी खुशी हुई है, इसका शायद ही तुम अंदाज़ लगा सको।
हमारी बेटी चित्रा, तुम्हारे भाई जान और मैं जल्द से जल्द तुम्हें और ज़ाहिदा को मिलना चाहते हैं। चित्रा इसी साल आर्ट हिस्टरी में एम॰ए॰ करने लंदन चली जाएगी। कितना ही अच्छा हो अगर उसके जाने से पहले आप दोनों कुछ दिन हम सब के साथ हमारे पास रहो।

चित्रा के जाने में अभी दो तीन महीने हैं। वो तुम्हें मिलने को बहुत उतावली हो रही है। तुम्हारा ख़त आते ही तुम्हारे यहाँ आने का इंतज़ाम तुम्हारे भाई जान कर देंगे। ज़ाहिदा को ज़रूर साथ लाना। और हम सब का सलाम कहना।
तुम्हारे भाई जान यहाँ मैजिस्ट्रेट हैं। मैं मोतीलाल नेहरू कालेज में हिस्टरी पढ़ाती हूँ।
तुम्हारे ख़त के इंतज़ार में बड़े प्यार से,
तुम्हारी भाभी
मालती

•••

मोतीलाल नेहरू कालेज में मालती के कलीग और इंग्लिश विभाग के हैड डाक्टर शिवनाथ जुत्शी अपने भतीजे करन को चित्रा से मिलवाना चाहते थे। जम्मू कश्मीर युनिवर्सिटी से पोलिटिकल साईंस में एम॰ए॰ करने के बाद वो एक साल के लिए कॉमनवेल्थ फेलोशिप लेकर लंदन जाने वाला था।

मोतीबाग में गोपाल मलिक के ग्राउंडफ़्लोअर वाले फ़्लैट में उस दिन सुबह से ही आना–जाना लगा था। छुट्टी का दिन था। मिलने वाले चित्रा को लंदन जाने की बधाई देने आते, और ताहिरा को मिल कर जाते। शाम को करन जब अपने चाचा के साथ पहुँचा तब भी चार पाँच लोग गोपाल और ताहिरा को घेरे बैठे थे। नए आने वालों का स्वागत करने के लिए गोपाल को उठते देख, करन ने दोनों हाथ जोड़ कर अपना माथा छुआ और फिर एक सरसरी नज़र आस पास दौड़ा कर कहा,
"मुझे खुद ही आप दोनों को पहचान लेने का मौका दीजिए, सर। आप मैजिस्ट्रेट गोपाल मलिक हैं, और जो आप के बायें हाथ बैठी हैं, वह आपकी बेटी चित्रा है।"

गोपाल उस से हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़े ही थे कि करन ने उन्हें बड़े ही नाटकीय तरीके से फौजी सलाम ठोका।
"मैं पूरी इमानदारी से कसम खा कर कहता हूँ, सर मैंने बाप–बेटी की ऐसी खूबसूरत हमशकल जुड़वाँ जोड़ी नहीं देखी।"
गोपाल मुस्करा दिए। करन के कंधे पर अपना हाथ रख कर पूछा, "तुम करन हो न तुम्हें तो अपने चारों तरफ खूबसूरती देखने की आदत होनी चाहिए भई। कश्मीर की वादी तो खूबसूरती की जन्नत है।"
"कश्मीर की वादी न सर मगर मैं तो दिल्ली की बात कर रहा हूँ। पिछले एक महीने में कनाट प्लेस के कई चक्कर लगा चुका हूँ। लगता है अच्छी सूरतें मोतीबाग से बाहर नहीं निकलतीं आजकल।"
गोपाल अब हँस दिए। ताहिरा के सिर पर अपना हाथ रखा और कहा,
"यह ताहिरा है। मेरी छोटी बहिन।"
"ताहिरा?" करन ने दुहराया।
"हाँ, परसों ही लाहौर से आई है।" गोपाल कुछ रूक कर बोले, "बँटवारे में गुम गई थी। अब मिली है।"
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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करन ने ताहिरा को उपर से नीचे तक बड़े गौर से देखा। थोड़ी देर चुप रहा और फिर बड़े ही तपाक से बोला।
"यह गुम कैसे हो सकती है सर? इन्हें देखकर तो देखने वालों के होश–हवास गुम हो सकते हैं। एक बार दिखाई दे जाएँ तो दुबारा देखने की उम्मीद में भूख–प्यास गुम हो सकती है।"
कमरे में बैठे हुए सभी लोग अपनी बातचीत छोड़ कर करन और गोपाल को ही देख रहे थे। एक पुरज़ोर ठहाके की आवाज़ हुई, जिसमें डाक्टर शिवनाथ जुत्शी भी शामिल थे। अब कहीं जाकर उन्हें गोपाल से हाथ मिलाने का मौका मिला।
"बड़ा हाज़िरजवाब और खुश मिज़ाज है आपका भतीजा, जुत्शी साहिब।" गोपाल ने कहा, "फ़े.लोशिप का टॉपिक जो भी हो, इसके हाथ लग कर दिलचस्प हो जाएगा।"
"कहता तो है कि पार्लियामेंट्री प्रणालियों और परंपराओं की जानकारी हासिल कर के किसी पोलीटिकल पार्टी में शामिल हो जाऊँगा।" डॉ॰जुत्शी बोले।
"यहाँ या वहाँ?" गोपाल ने करन को ज़रा छेड़ कर कहा।
"इस का फैसला तो मौका–माहौल देखकर ही
होगा न सर। इस वक्त तो बस यही तय किया है कि लंदन में रह कर अंग्रेज़ी बोलना सीखूँगा।"
"क्यों बर्खुरदार? अंग्रेज़ी तो तुम अब भी अच्छी ख़ासी बोलते हो। उसके लिए लंदन जाना? बात कुछ बनी नहीं।" गोपाल को करन से चुहल सी करने में लुत्फ आ रहा था।
"बात ही तो बनती है सर। कोई मामूली सी बात भी अगर ब्रिटिश एक्सेंट में अंग्रेज़ी बोल कर कहें, तो उसमें काफी वज़न आ जाता है।" करन ने कहा और फिर निहायत संजीदगी से बी बी सी वाले एक्सेंट की बखूबी नकल करते हुए बोला,
"आई कैन नौट से इट विद एब्सोल्यूट सरटेनिटी फ्रॉम दिस डिस्टेंस बट इट अपियर्स दैट विजय हज़ारे इज़ गोइंग टु बी डिक्लेयर्ड एल बी डब्ल्यू।"

कमरे में फिर एक खुला हुआ ठहाका उठा। गोपाल ने हँसते हुए करन की पीठ ठोकीं और बोले,
"बहुत खूब" फिर ड्राइंगरूम के अंदर की तरफ खुलते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ते हुए कहा,
"मैं चित्रा को बुलाकर लाता हूँ। तुम उससे मिलना चाहते थे न?"
करन ने गोपाल का रास्ता रोक लिया।
"एक मिनट रूक जाइए सर, मुझे आपसे कुछ पूछना है।"
गोपाल ने सिर हिलाकर हामी भर दी। करन अब ताहिरा की तरफ बढ़ा, फिर जिस कुरसी पर वो बैठी थी, उसके पास खड़ा हो गया।
"मैं पूछना चाहता हूँ सर कि आपकी बहिन बोल तो लेती है न?"
गोपाल दरवाज़े की तरफ जाते जाते मुड़ आए।
"ताहिरा, अगर तुम कहो तो इस बातूनी के लिए तुम्हारी तरफ से मैं कुछ कह दूँ?"
"कहिए न भाई जान।" ताहिरा बड़े अदब से बोली और कुर्सी से उठ कर गोपाल के पास खड़ी हो गई।
"तुम्हारी अम्मी कभी कभी एक गज़ल गुनगुनाया करती थी। उसी का एक शेर याद आ रहा है," गोपाल ने ताहिरा की पीठ पर अपना हाथ रख कर कहा और करन की तरफ देखा।

"प्लीज़ सर इनकी तरफ से कहिए तो कुछ भी कह दीजिए," करन बोला। "मैं ही नहीं, यहाँ बैठे सभी लोग सुनना चाहेंगे।"
"अच्छी बात है। सुनिए, शेर ग़ालिब का है। ताहिरा की अम्मी उनकी ग़ज़लें अक्सर अपने रेडिओ प्रोग्राम में गाती थीं।" वह बोलते बोलते रूक गए जैसे कुछ और याद आ गया हो।
"हमारे साथ रहना शुरू किया तो गाना छोड़ दिया पर गुनगुना देती थी कभी कभी।"
कमरे में एकदम ख़ामोशी छा गई। गोपाल ने शेर कहा,
"है कुछ ऐसी ही बात कि चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती।"

ताहिरा ने बाहर से फेंकी जाने वाली ईंट की बात करन को बताई तो वह तमक उठा। सवालों की बौछार कर दी।
"ईंट तुम्हें कहीं लगी?"
"नहीं।"
"तुमने खिड़की से बाहर किसी को खड़े या भागते देखा?"
"नहीं।"
"और वह काँच? उसका कोई टुकड़ा तुम पर गिरा?"
"नहीं।"
ताहिरा को इंतज़ार था कि करन अब उसे बाहों में लेकर कहेगा कि शुक्र है तुम ठीक हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
"वो ईंट कहाँ है?" करन ने पूछा जैसे उसे शक हो कहीं ताहिरा ने खुद ही खिड़की का शीशा तोड़ा है।
ताहिरा ने सारा दिन दम साधे करन के लौटने की राह देखी थी। चाहा था कि उसकी बाज़ुओं में सिमट कर पहले जी भर के रो ले और फिर जब वो अपने ओठों से ताहिरा के आँसू पोछे तो सिसक–सिसक कर कहे,
"हमें यहाँ नहीं रहना, करन।"

लेकिन करन था कि उसी की जवाबतलबी पर लगा था। ऐसे सुबूत इकठ्ठे कर रहा था जैसे कोई पेशावर वकील किसी मुवक्किल के नए मुकदमे की पैरवी करने की तैयारी में हो।
"वो ईंट कहाँ है ताहिरा?" करन ने फिर पूछा।
ताहिरा ने खिड़की के नीचे वाली दीवार की तरफ इशारा कर दिया। करन ने जेब से रूमाल निकाला। उसे ईंट पर रखा और फिर ईंट को ऐसे सँभाल कर कमरे के बीच वाली मेज़ पर रखा जैसे कोई ताज़े फूलों का गुलदस्ता सजा रहा हो।
ताहिरा के लिए अपनी उमड़ती रूलाई रोकना मुश्किल हो रहा था।
करन अब खिड़की के पास खड़ा परदा उठाकर पूछ रहा था,
"यह काँच तो बुरी तरह से चूर चूर हुआ है।"
ताहिरा हुमक कर फ़ायरप्लेस की तरफ बढ़ी, दीवार से टिका कर रखा एक दुहरा ब्राउन बैग उठाया और करन की तरफ बढ़ा दिया। बैग भारी था, उसे दोनों हाथो में लेने के लिए ताहिरा ने ज्योंही अपना दूसरा हाथ बैग के मुहाने पर रखा, करन ने उसके हाथों से बैग थामना चाहा। और इसी पकड़ धकड़ में बैग में से झाँकता एक नुकीला बड़ा सा काँच ताहिरा की हथेली में चुभ गया।

खून की एक बड़ी सी बूँद निकली और धार बन कर ताहिरा की हथेली से उसकी कलाई तक फैल गई। सन्न सी खड़ी ताहिरा ने अपनी ज़ख्मी हथेली को दूसरे हाथ में पकड़ा और बहते खून पर अपना अँगूठा दबा दिया।
करन काच वाले बैग को ईंट के पास मेज़. पर रख के चुपचाप ताहिरा को देख रहा था। उसको अपने अँगूठे से हथेली दबाते देखा तो बड़ी रूखाई से बोला, "इतनी ज़ोर से मत दबाओ, यहाँ आओ में देखता हूँ।"
ताहिरा अपनी जगह से नहीं हिली तो करन ने पास आकर उसका अँगूठा उसकी हथेली से हटा दिया। कलाई पकड़ कर उसकी हथेली का रुख फर्श की तरफ किया। पहले तेज़ तेज़ कदमों से चला कर ताहिरा को खिड़की के पास ले गया। फिर वैसे ही चला कर कमरे के दरवाज़े तक कई बार ताहिरा की हथेली से छूटे खून के कतरे अब तक कमरे की मटमैली फ़र्शी दरी पर यहाँ वहाँ गिर चुके थे। वह समझ नहीं पा रही थी कि करन क्या करना चाहता है। इससे पहले कि वह पूछे, करन ने उसे अपनी बाहों में थाम लिया।
"चलो ताहिरा, वहाँ कुर्सी पर बैठो। मैं तुम्हारा हाथ धोकर बैंडेज कर देता हूँ।" उसकी आवाज़ में अब नरमी थी और आँखों में फ़िक्र। कुरसी पर बैठते ही ताहिरा फफक कर रो दी।

अगले दिन करन ताहिरा को अपने साथ रसल स्क्वेयर ले गया। जहाँ कहीं कोई जान पहचान वाला दिखाई दिया, वहीं करन ने रुक कर बात की। खुद बड़ी गरमजोशी से हाथ मिलाया और ताहिरा की तरफ़ देख कर कहा।
"माफ़ी चाहता हूँ। ताहिरा आज आप से हाथ नहीं मिला पाएगी। कल शाम हमारे साथ एक अजीब हादसा हो गया था।"
कुछ करन की नक्शेबाज़ी, कुछ लिखने वाले की कलम की करामात, कुछ कश्मीर से जुड़ी हर नई खबर में इंस्टीट्यूट ऑफ़ कॉमनवेल्थ स्टडीज़ और स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल अ‍ॅण्ड आफ्रिकन स्टडीज़् की गहरी दिलचस्पी। कैम्पस जरनल में करन और ताहिरा के बारे में लिखा लेख छपते ही रसल स्क्वेयर ही नहीं, आस पास के कई इलाकों में सनसनी बन गया।

दो सफ़े के लेख में चार रंगीन तस्वीरें थी। पहले सफ़े के बीचों-बीच चित्रा की दी गई पार्टी में लिया बड़ा सा फ़ोटो। काशनी मुकैश वाले दुपट्टे में फ़िल्म स्टार जैसी खूबसूरत ताहिरा के साथ सट कर मुस्कुराता हुआ नेहरू जैकेट वाले सूट में राजकुमारों जैसी शख्सियत वाला करन। दूसरे सफ़े पर एक तस्वीर में टूटे हुए काँच के आगे से खिड़की का परदा हटाता हुआ घबराया सा करन, दूसरी तस्वीर में परेशान सी, सहमी सी ताहिरा की पट्टी बँधी हथेली को फूँक से सहलाता फ़िक्रमंद करन। और पूरे दूसरे सफ़े के ठीक उपर एक कोने से दूसरे कोने तक चढ़ते सूरज की सुर्ख सुनहरी धूप में झिलमिलाती डल लेक में फूलों से लदे शिकारों की तस्वीर।

"खूबसूरती की पैदाइश पर बदनुमा हमला" उनवान था लेख का पहले जुमले में ही ऐसा समाँ बाँधा गया था कि पढ़ने वाला पूरे दो सफ़े पढ़े बिना छोड़ न पाए।
"शहज़ादे जैसा कश्मीरी ब्राह्मण करन हाथ में ताज़ा गुलाबों का गुलदस्ता लिए हेंडन सेन्ट्रल पहुँचने की जल्दी में था। पाकिस्तानी ताहिरा के साथ उसकी शादी को उस दिन छह महीने हो गए थे। वह वक्त से पहले पहुँच कर अपनी नई नवेली दुल्हन को चौंका देगा, ऐसा सोचकर जब उसने घर के अन्दर कदम रखा तो क्या देखा? बेपनाह हुस्न की मालकिन ताहिरा के नाज़ुक हाथ खून से रँगे हैं। और वह ज़र्द चेहरा लिए दरवाज़े और खिड़की के बीच चक्कर लगा रही है।"
उसे कश्मीर के एक जाने माने सेक्युलर हिन्दू परिवार की लाखों की जायदाद और कालीनों के व्यापार का लाड़ला वारिस करार करते हुए, लिखने वाले ने करन के कई किताबी जुमले बखूबी दुहराए थे।
"खूबसूरती का कोई मज़हब नहीं होता।" करन कहता है
"मुल्कों की सरहदें इन्सानी रिश्तों के बीच दीवारें नहीं उठा सकतीं।" यह करन की उम्मीद नहीं, बल्कि उसका अपना तजुर्बा है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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