हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली COMPLETE

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Jemsbond
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हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली COMPLETE

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हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

ताहिरा के हिन्दू बाप की एक ही हिन्दू बीवी थी। लेकिन तब वो ताहिरा का बाप नहीं था, सिर्फ एक मुरीद था। बीबी बदरुन्निसा की आवाज का। वो भी अकेला नहीं, अनेकों में एक।

हर शनिवार रात के नौ बजे रेडिओ लाहौर से वह आवाज सुनाई देती। एक गजल सुनाती और सुनने वाले अटकल लगाते। कौन होगी? कैसी होगी? जितनी अटकलें, उतने चेहरे। कई–कई अजनबियों के साथ अलग–अलग पहचान कायम करती बेशुमार चेहरों वाली एक ही आवाज।

"मुझे तो लगता है कि मेरे ही हाथ की बनी ताजा नानखटाई खा कर गाती है।"
"नहीं मियाँ, इतनी कुरमुरी नहीं कि मुँह में डालते ही घुल जाये। ये तो मटके में रख कर ठंडाया हुआ जलजीरा है। चुस्कारे लेकर पीयो और देर तक जायका बना रहे।"
"मेरी मानो तो ऐसा कि बन्नो रानी सतरंगी लहरिये वाली चुन्नी का पल्ला उछालती तीजों की पींग का हुलारा लेने जाती हो,"
"मन्नू ते बादशाओ सुन के सबज रंग दीया कच्च दीयाँ चूड़िया दिस्स जाँदीया नें। ऐंज लगदा है कि जींवे कोई हल्की जई वीणी खनका के अख्खाँ अग्गों ओजल हो जाये।"
"भई हमने लोगों को गजल कहते भी देखा है और गजल गाते भी सुना है, लेकिन फकत आवाज में रंग, खुशबू और जायके का माहौल। यह हुनर तो बस बदरूनिसा को ही हासिल है।"
"शायरी और मौसिकी का क्या रिश्ता जोड़ा है इस आवाज ने? लगता है कि जैसे शायर की इजाजत लेकर उसका कलाम उसीको पेश करती हो।"
"शर्तिया कुँवारी होगी। आवाज से मासूमियत के तकाजे उभरते हैं, हसरतों के साये नहीं।"
"यकीनन कमसिन होगी।"
"हर कुँवारी कमसिन होती है, यार मेरे।"
"क्यों मियाँ? देखने को तरस गये हो क्या?"
"नहीं भई, यहाँ तो अब कुँवारे जिस्म के तसव्वुर से ही बदन चटख जाता है। उसके बाद घर में जो है, उसी से गुजर हो जाती है।"
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गुजरात तहसील के रेडियो वाले घरों में शनिवार शाम को कुछ ज्यादा ही गहमा गहमी रहती। जिस मोहल्ले में जितने कम रेडियो, उतनी बड़ी रेडिओ मंडली। वकीलों, ठेकेदारों और सरकारी मुलाज़िमों के घरों में तो ज्यादातर घर के ही लोग होते, लेकिन रायसाहिब बदरीलाल के तिमंज़िले मकान की बैठक में जमा होने वाली रेडिओ मंडली पाँच–सात से शुरू होकर बीस–पचीस तक जा पहुँची थी। नीचे दूकान ऊपर मकान वाली ढक्की दरवाजा गली में शायद ही कोई घर ऐसा बचा हो जहाँ के मर्द शनिवार रात को बैठक न पहुँचते हों। मुनयारी, पसारी, लुहार, मोची, नाई, आढ़ती, दर्ज़ी, कसाई, सर्राफ सभी रहते थे उस गली में, सभी के पुश्तैनी मकान थे, तिमंज़िले तो सभी ने कर लिये थे। लेकिन किसी की मजाल न थी कि चौबारी छत भी अकेले कमरे से ढक ले।
"आस पास के मकानों को नंगा करना है क्या?" गली के बड्ढ़े बडेरे बरज देते।

पूरे शहर की गलियाँ तंग होने लगी थीं, जिस के पास चार पैसे आ जाते, वही अपना चबूतरा चौड़ा करवा लेता। लेकिन ढक्की दरवाजा गली उतनी ही चौड़ी थी जितनी किले वालों ने बनवाई थी। तीन–तीन घुड़सवार बतियाते हुए एक साथ गुजर सकते थे। गली की औरतों को बुरका सँभालते हुए नुक्कड़ तक जाकर ताँगों की चादर लगी पिछली सीट पर उचक नहीं चढ़ना पड़ता था। पूरा का पूरा ताँगा सीधे मकानों के आगे आन खड़ा होता था और बिना "बचो, बचो" कहे मुड़ जाता था। सपाट टीले पर सिपहसिलारों का किला था और ढलान के कदमों मे बिछी ढक्की दरवाजा गली थी। किले की बुर्जियों से पहरेदार गली में बसे अपने मुलाज़िमों पर नजर भी रख लेते थे और सौदा–सुलफ लेने उन्हें दूर भी नहीं जाना पड़ता था।

बुर्जियाँ गिर गईं। किला टूट बिखर कर खंडहर हो गया। सिपहसलारियाँ खत्म हुईं। लेकिन ढक्की दरवाजा गली में रहने वालों को खुद मुख्तयारी की आदत पड़ गई। जिसे जरूरत हो, उनके पास आये। उन्हें किसी की मोहताजी नहीं। जो कुछ कहीं और न मिले, उनके पास निकल ही आता। खरीद लो या उधार माँग लो। नकदी न हो तो किश्तों में चुका दो। लिखा पढ़ी न कर सको तो अँगूठा लगा दो।

ढक्की दरवाजा गली के रायसाहिब बदरीलाल की पास पड़ोस के कई मोहल्लों में अच्छी–खासी साख थी। हर शाम ढले और छुट्टी के दिन कोई न कोई सलाह–मशविरा करने आ ही जाता। बड़ी कचहरी के सरकारी वकील से रोज का मिलना–जुलना था। खुद वकालत नहीं पढ़ी थी लेकिन नामी–गरामी वकीलों को एकाध पोशीदा दाँव–पेंच सिखा ही सकते थे। जमीन–जायदाद और कर्ज़ा–कुड़की के मामलात में खास दखल था उनका। कानूनी कार्रवाहियों की मियाद घटाने–बढ़ाने के कई टोटके थे उनके पास। चाहते तो छोटी–मोटी हेरा–फेरियाँ करने में ही साहूकार हो जाते। लेकिन रायसाहिब को लालच नहीं था। बस जरा शौकीन तबीयत थे।

ढीली–ढाली चारखाना या धारीदार तहमदों के फेंटे खुले–आम कसते, मटमैली गंजी–बनयानों से पसीना पोंछते तुड़ी–मुड़ी नोकों वाली धूल से सनी गुरगाबियों की उतारते–पहनते मर्दों की गली में रायसाहिब की एक अलग सी लिबासी शख्सियत थी। घर के अन्दर जाकर मिलो तो झक–पक सफेद लठ्ठे की सलवार, सीपी के बटनों वाला पापलीन या बोस्की का बादामी कुरता और साफ–सुथरे नाखूनों वाले बिना गाँठों के पैरो में भठवारी चप्पलें। गली से गुजरें तो गर्मियों में भी सलवार कुरते के उपर चुस्त काली शेरवानी, चमचम करते पम्पशू, तिल्ले वाली टोपी पर कस के बँधा हुआ सफेद मलमल का तुर्रेदार साफा। लंबा कद, भखता हुआ खुला रंग, भूरी–नीली आँखें और तीखी नाक। पता नहीं क्या खाकर जना था कि पचास पार करने पर भी कद–काठी सरू के पेड़ जैसी तनी रहती थी। गली में रूक कर बात करते तो लगता कि जैसे कोई सरहदी पठान सैरी–तफरीह के लिए तराई में उतर आया हो।

पूरी ढक्की दरवाजा गली में बस रायसाहिब का ही एक ऐसा मकान था कि जिसकी निचली मंज़िल में दुकान नहीं थीं। ना ही उनके मकान के अगले चबूतरे पर टीन–कनस्तर, थैले–बोरे या भाँडे–कसोरे बिखरे रहते थे। निचली मंजिल के पिछले हिस्से में उन्होंने हमाम बनवा लिया था, अगले हिस्से में ऊदी–सलेटी चौकोर टाइलों का फर्श बिछवा कर उपर जाने वाली सीढ़ियों में संगमरमर लगवा दिया था। वैसे भी सिवाय उनके कोई भी तो उस गली में दो–दो घरों का मालिक नहीं था। पुश्तैनी घर था गली के बीचों–बीच। नुक्कड़ वाला मकान उन्होंने खरीद लिया था, नीचे की दोनों दुकानों समेत, वो भी अपने लिए नहीं। अपनी बेवा बहिन के लिए ताकि वह अपने बाल–बच्चों समेत उनकी नजरों के सामने और रिहाईश से कुछ हट कर रह सके। कुछ मौका ही ऐसा बना कि रायसाहिब के मन की हो गई।

नुक्कड़ वाले मकान की बे–औलाद मालकिन ने अपना तीस साल का रंडापा बड़े आराम से काटा था। जब तक जिंदा रही, किसी मुफ्तखोरे रिश्तेदार को पास फटकने नहीं दिया। दुकानों का किराया तो आता ही था, किरायेदार दुःख–सुख भी पूछ लेते थे। जब वो मरी, तो उसके कई वारिस पैदा हो गए। गाली–गलौज से शुरू होकर बात मुकदमे कचहरी तक पहुँचने को हुई।

मदरसों में उर्दू–तालीम पाकर अर्ज़ी–नफीस बने लाला हुकम चंद के इंटर पास मुंसिफ बेटे बदरीलाल ने बेऔलाद बेवा के किरायेदारों और दावेदारों से अलग–अलग बात की। सितर–मितर दोनों का पास रखा।

"नये मकान मालिक या तो तुमसे दुकानें खाली करवा लेंगे या किराया बढ़ा देंगे।" बदरीलाल ने किरायेदारों को समझाया।

"बँट–बटा कर आठ दस वारिसों के हिस्सों का फैसला कौन करेगा?" उसने दावेदारों से पूछा।
"बात एक बार मुकद्दमें बाज़ी तक पहुँची तो बरसों लटक जाएगी।"
वाजिब दाम चुका कर, बदरीलाल ने ही वारिसों से लिखा–पढ़ी की और दुकानों समेत मकान अपने नाम करवा लिया। नकदी उठाने के लिए पहले किरायेदारों से पेशगी वसूल की और फिर किराया कुछ कम कर के सूद अदा कर दिया। फिर भी पैसे कम पड़े तो बीवी का सतलड़ा हार और गोखड़ू का जोड़ा बेच दिया। कोई खानदानी जेवर तो थे नहीं कि बेचते हुए हाथ काँपते। दहेज में मिले थे, वो भी नए बनवा कर।

वैसे भी बदरीलाल के ससुरालवालों को क्या कमी थी? गुजराँवाला के जानेमाने ठेकेदार थे। साल में एकबार बदरीलाल की बीवी अपने दो बेटे और एक बकसा लेकर मायके जाती और ताँगा भर कर असबाब लदवा कर लौटती। साथ में कोई भाई–भतीजा आता और फल–तरकारी की टोकरियाँ ताज़ी बनवा कर हाथ जोड़ते हुए बदरीलाल को दे जाता। फिर कई दिन तक बदरीलाल की बीवी घर भर को सजाती सँवारती। सात कोनों वाली हाथी दाँत से नक्काशी की हुई तिपाई, सिंगर की मशीन, मरफी का रेडिओ, फूलों के डिजाइन की फर्शी दरी, बिजली का जमीन पर खड़ा होता पंखा, यूँ ही तो नहीं सिमटते थे रखने–बचाने के लिए घर में बैठक के अलावा भी कई कोने थे। लेकिन मायके की दी सौगात आए–गए को दिखाई तो दे

दरअसल बदरीलाल की रायसाहिबी भी उसकी बीवी के मायके वालों की सौगात ही थी। तब उसकी शादी को करीब पंद्रह बरस गुजर गये थे। पहली जंग खत्म हुए अरसा हो गया था। बरतानिया हुकूमत के लिए बदरीलाल की रेडिओ मंडली का रवैया जंग के फौजी कारवाइयों से कहीं दूर और इंकलाबियों के हथकंडों के बहुत करीब आ पहुँचा था। रेडिओ की खबर चाहे जैसे भी हो, रेडियो मंडली की बातें अंग्रेजों की माँ–बहिन, बहू–बेटियों के साथ अज़ीबो गरीब रिश्ता कायम किए बिना खत्म न होती थी। ढक्की दरवाजा गली तो क्या, पूरे गुजरात तहसील में किसी ने चलती फिरती मेम नहीं देखी थी। लेकिन जब भी रेडिओ से किसी गार्डन पार्टी या हुकूमती इजलास की खबर आती, ढक्की के मर्दों की नजरें दूर–दूर तक मेमों की तलाश में निकल पड़ती।
"सुना है नंगी टाँगों पर खुदरंग जुराबे पहन कर घूमती हैं।"
"हाथ मिला कर बात करती हैं"
"नहीं तो क्या गले मिलेंगी?"
"उसका भी इंतजाम हो जाता है। मर्द औरतें एक दूसरे को बुक में लपेट कर नाचते जो हैं।"
"कहते हैं पान सुपारी कभी नहीं खातीं लेकिन बुल्लियाँ रंग लेती हैं।"
"लाहौर वालों ने देखी हैं। एक सर्राफे में गवर्नर साहिब की घरवाली जेवर लेने गई थी। पूरा एक हफ्ता बाद तक गली में से खुशबू आती रही।"

सन १९३० की उस शाम को भी बदरीलाल की रेडिओ मंडली खबरें सुनती और खयाली पुलाव छौंकती बैठक में यहाँ वहाँ बिखरी हुई थी। कोई जमीन पर उकडू बैठा था, किसी ने गली की तरफ खुलते छज्जे की रेलिंग पर पीठ टिका रखी थी, कोई मूँज के मोढ़े पर कुहनी टिकाये फर्शी दरी पर पालथी मारे था। बैठक में करीने से सजे कीमख्वाब के गद्दों वाली कुर्सियाँ और सोफा खाली पड़ा था। खुद बदरीलाल रेडिओ के पास वाली बेंत की आराम कुर्सी में बैठा रेडिओ की आवाज ऊँची नीची कर रहा था। किरोशिये की मेजपोश से ढकी सातकोनी तिपाई पर रखा मरफी रेडिओ रात के आठ बजे वाली खबरें सुना रहा था।
"बरतानवी हुकूमत ने अपनी हिन्दोस्तानी रियाया को दस नए रायबहादुरी के खिताबों से नवाज़िश करने का ऐलान कर दिया है। अब आप खिताब पाने वालों के नाम और उनके काबिले तारीफ कारनामों का ब्योरा सुनिए।"

रायसाहिबी के नए खिताबियों के मालिक केदारनाथ का नाम सुनते ही बदरीलाल की चालीस इंच छाती चौड़ी होकर यकलख्त अड़तालीस हो गई। बेंत की कुर्सी की पीठ से टिकी उसकी गर्दन खुद–ब–खुद तन कर सीधी हो गई।
रेडिओ से ऐलान जारी रहा।

"दरयागंज के इलाके का मुआईना करके दिल्ली के पुलिस कमिश्नर टामस रैड़िंग अपनी जीप में सवार होने ही वाले थे कि अचानक फैज बाजार मे घूमते हुए लोगों ने एक इंकलाबी जुलूस की शक्ल अख्त्रियार कर ली। चारों तरफ से पुलिस कमिश्नर की जीप पर पत्थर बरसने लगे। असिस्टैंट सुपरिटेन्डैन्ट मलिक केदारनाथ ने निहायत मुस्तैदी से पुलिस कमिश्नर के जख्मी सिर को अपने सीने से लगा कर उनका सारा वजूद अपने आड़े ले लिया और एक ही हाथ से आँसू गैस के गोले उछाल कर भीड़ को तितर बितर किया। घुड़सवार पुलिस के मौका–ए–वारदात पर पहुँचने तक कुछ इंकलाबी सड़क पर लेटे लेटे मुँदी आँखों से ईंट पत्थर और जलती हुई चित्थियाँ जीप पर फैंकते रहे।"

मलिक केदारनाथ बदरीलाल की बीवी का छोटा भाई था। पिछली बार मायके से लौटने के बाद बदरीलाल की बीवी उसे लेकर काफी फिकरमंद थी। उसके मायके वालों को डर था कि कहीं उनके बारूतबा बेटे की नौकरी ही न छूट जाये। टामस रैड़िंग के जिस्म को उसने अपनी ओट में लेकर पत्थरों की मार से बचाया तो जरूर था। लेकिन आँसू गैस के कुछ गोले हाथ नीचा करके घुड़सवार पुलिस की तरफ भी फेंके थे ताकि इंकलाबियों को फैज बाजार की गलियों दुकानों में गुम हो जाने का थोड़ा सा वक्त मिल जाये।
बदरीलाल की रेडिओ मंडली को मलिक केदारनाथ की वतन–परस्ती का किस्सा तो किसी ने नहीं बताया उन्होंने खुद ही हस्ब–मामूल बहनोई की साले की रायसाहिबी में शामिल कर लिया।
"अब दिल्ली जाकर केदारनाथ को साला रायसाहिब कहना हमें कहाँ नसीब होगा? मगर किसी को रायसाहिब कह कर बुलाने से ही मुँह में मिश्री सी घुल जाती है।"
"भई कुछ भी कह लो। हमारे बदरीलाल के ठाठ–बाठ किसी से रायसाहिब से कम नहीं।"
"साडे वास्ते ते हुन तुसी रा–साब हो जी।"

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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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बदरीलाल कुछ दिनों तक तो अपने नाम के आगे राय–साहिब लगाने से हिचके। बस कभी कभार किसी पुराने अखबार के पन्ने पर रा॰स॰बी॰एल॰ लिख कर फाड़ते फेंकते रहे। लेकिन जब कोई गली वाला वैसे मुखातिब करता तो बेझिझक कबूल कर लेते। बातचीत लंबी हो जाती और उनकी आवाज में एक नरमी सी आ जाती। अचकन की उपर वाली जेब में उन्होंने एक चेन वाली घड़ी रख ली थी। शाम को घूमने निकलते तो हाथ में चाँदी की मूँठवाली छड़ी लेकर, घर का सरनाँवा भी बदल डाला। पहले मकान नम्बर चौदह, ढक्की दरवाजा गली हुआ करता था। बदला तो फोर्टीन, फोर्ट लेन ऑन ढक्की हो गया।

सन १९३० में बदरीलाल ने रायसहिबी के अंदाज अपनाने शुरू किये तो सारी गली में इकलौता मरफी रेडिओ उन्हीं की बैठक में था। दूसरी जंग शुरू होने तक कई घरों में रेडिओ बजने लगे थे। बदरीलाल को रायसाहिबी की लत लग गयी थी। खुद सलाम करते तो हाथ उठाकर भवों के नीचे ही रोक लेते। किसी का आदाब कुबूल करते तो गर्दन जरा सी झुकाकर बस जे.रे–लब मुस्करा देते। मौका माहौल देखकर रेडिओ से शाया होने वाली खबरों पर तस्करा करते। अदबी महफिलों में उठते बैठते। अपने आस पास ऐसा माहौल बना लिया था उन्होंने कि शौकीन लोग अक्सर उनकी बैठक में आना पसंद करते। और उन्हीं की गली से नहीं, आसपास के मुहल्लों से भी। शनिवार शाम की महफिल तो खास उन्हीं की बैठक में जमती। बीबी बदरुन्निसा की गजल सुनने के लिए। रेडिओ वाले घरों से भी बदरुन्निसा के मुरीद बदरीलाल की बैठकी मजलिस में शामिल होने आते।

दिसम्बर १९३९ की उस गुलाबी शाम को साढ़े आठ बजे से बदरीलाल की बैठक में गहमा गहमी थी। पिछले शनिवार को रेडिओ लाहौर वालों ने कहा था कि अगले हफ्ते बीवी बदरुन्निसा एक नये अंदाज में मिर्ज़ा गालिब का कलाम पेश करेंगी। नौ बजते बजते कई अटकले लगीं, और फिर एक जानी पहचानी आवाज रेडिओ से उभरते ही सुनने वाले बिल्कुल खामोश हो गए।
"इबन–ए–मरियम हुआ करे कोई,
मेरे दुःख की दवा करे कोई।"

गाना खत्म हो गया मगर खामोशी बनी रही। रेडिओ के पासवाली आरामकुर्सी पर बैठे बदरीलाल ने हर किता को आँखें मूँद कर सुना था, सिर हिला कर सराहा था। आँखें खोलीं तो पूरी मजलिस को सिर हिलाते देखा। हाथ बढ़ा कर उन्होंने हुक्के की नाल खींची और लंबी साँस लेकर गुड़गुड़ा दिया। चिलम की राख थोड़ी सी शोख होकर फिर दुबक गई। धुएँ का एक गुबार उठा और छितर कर यहाँ वहाँ बिखर गया। खामोशी फिर जहाँ की तहाँ।


तख्तपोश के सफेद मसनद से टिके हुए ठेकेदार निसार अहमद ने अपनी खिजाब से रंगी मूछों की सफेद जड़ों पर हल्की सी अँगुली फेरी, छोटा सा खंखार लिया और खामोशी तोड़ दी।

"रश्क होता है असदुल्लाह खान गालिब के नसीब से, जिए तो एक नेकबख्त बीवी की वफा और एक कामिल गजलसरा की बेपनाह मोहब्बत पाई। मरे तो बीबी बदरुन्निसा नें जिला दिया।"
"सच मानिए तो यह इब्ने मरियम वाला किस्सा मेरी समझ में नहीं आया ठेकेदार जी।" नुक्कड़ वाले मकान के नीचे की बेकरी वाली दुकान के मालिक मियाँ बख्तियार ने अपने पहलवानी कंधे उचका दिये।
"परवरदिगार हमें गुस्ताखी की माफी दें मियाँ शायर का कहना है कि कोई मसीहा हो या पैगम्बर, हमें क्या? जब तक कोई हमारे दुःख कम न करे तो हमारा कौन?" ठेकेदार निसार अहमद ने अपनी अदबी और मजहबी सूझबूझ का सिक्का उछाल दिया।

सर्राफ जमाली कामकाज के सिलसिले में हर किस्म के लोगों से मिलते थे। खरी बात कहने में माहिर थे।
"मुकदी गल्ल ते ऐ हैगी ऐ बादशाओ कि रब्ब नाल गिला शिकवा कर के बंदा जाए ते कित्थे जाए? साढ़ी शिकायत ते रेडिओ वालियाँ नाल ऐ। असी एत्थे आने आ ते बदरूनिस्सा दीया नसा खिच्च के नशा करन वालीयां गजला सुनने वास्ते। पीरां पैगम्बरा दीयां नसीहताँ सुननिया होंदिया ते होर किदरे जान्दे।"

बैठक की रेडिओ मंडली सर्राफ जमाली से बिल्कुल मुत्तफक हो गई। फैसला हुआ कि कोई लाहौर जाकर रेडिओ वालों से मिले। हो सके तो मामले की जड़ तक पहुँचे। इबादत करने, मुजरा सुनने और कलाम कहने के मुकाम मुख्.तलिफ होते हैं। आवाजें. भी अलग अलग। बदरुन्निसा की आवाज में तो उन्हें इश्को–रूमान की गजलें ही सुनने को हैं जिनमें खुशबू हो, रंग हो, जायका हो। रेडिओ वाले न माने तो खुद बदरुन्निसा तक ही बात पहुँचे।

रेडिओ लाहौर वालो से मिलकर पसंजर गाड़ी में गुजरात लौटते हुए बदरीलाल नें फिर एक बार अपनी शेरवानी की ऊपरी जेब से वो परचा निकाला जिस पर उसने बदरुन्निसा का पता लिखा था।
दीनू ललारी
रंगरेजा बस्ती
गुजरात सरकारी कचहरी के पीछे
सरकारी कचहरी की इकमंजिला इमारत के पीछे गर्दो गुबार उड़ाता एक सपाट मैदान था। दूर दूर तक कोई बस्ती नजर नहीं आती थी। जब देखो, कुछ अधनंगे, सिर मुँडाए लड़के यहाँ वहाँ मटरगश्ती करते दिखाई देते थे।
कचहरी के पिछले बरामदे की चिक उठाकर बदरीलाल नें एक लड़के को इशारे से पास बुलाया।
"मैदान के उस पार क्या है?"
"गंदा नाला है।"
"और नाले के पार?"
"बस्ती है।"
"तू बस्ती में रहता है?"

लड़के ने हाथ उठाकर बदरीलाल से रुके रहने को कहा और भाग गया। लौटा तो उसके साथ एक और लड़का था।
"तू बस्ती में रहता है?"
नए लड़के ने ज़ोर ज़ोर से सिर हिला दिया
"अब्दुल्ला रहता है बस्ती में। मैं तो कुम्हारी टीले का हूँ।"
अब्दुल्ला काफी जानकार निकला।
"दीनू ललारी को मरे तो बरसों हो गए जी।"
तो बदरुन्निसा कुँवारी नहीं बेवा थी, बदरीलाल ने सोचा। रेडिओ मंडली की अटकलों में बेवा का तो कभी ज़िक्र ही नहीं हुआ था।
"और दीनू ललारी की बीवी?" उसने अब्दुल्ला से पूछा।
"वो भी मर गई जी, दोनों को उपर तल्ले हैजा हुआ था।"
यतीम बदरुन्निसा के लिए बदरीलाल को कुछ हमदर्दी तो हुई लेकिन गंदा नाला पार करने की बात मन में आते ही मन उचट गया।

अब्दुल्ला बोलता गया।
"दीनू लल्लारी की दोनों लड़कियाँ रहती हैं अपने मरे माँ–बाप के घर। कुम्हारी टीले पर उनके नानके हैं। वहाँ नहीं रहतीं, बस्ती में रहती हैं। कोई मरद नहीं है घर में, न कोई भाई न बड़ा। छोटी कुम्हारन है, बड़ी मरासन।"
गजलसरा बदरुन्निसा को मरासन बनाकर अब्दुल्ला तो चला गया। लेकिन बदरीलाल ने फैसला किया कि अपनी रेडिओ मंडली का भरम तोड़ना कोई जरूरी नहीं। लगने दो अटकलें, होनें दो चुहल।
अगले शनिवार रेडिओ लाहौर से बीबी बदरुन्निसा की आवाज ने सुनने वालों से मोमिन खाँ मोमिन का कलाम कहने की इजाजत चाही। फिर जो गाया तो सुनने वाले झूम झूम गए। हाथ उठा–उठा कर दाद दी। ग़ालिब और मोमिन के चुनींदा शेर दुहराए। एक दूसरे को मुखातिब करके ठेकेदार निसार अहमद, बेकरी वाला बख्तियार और सर्राफ जमाली एक ही शेर दुहरा कर मोमिन को सलाम करते रहे।
"रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह,
अटका कहीं जो आप का भी दिल मेरी तरह।"
हुक्का गुड़गुड़ाते बदरीलाल से रहा नहीं गया।
"चाहो तो गाने वाली को खुद मिल कर दाद दे सकते हो। इसी शहर में रहती है।"
बस फिर क्या था? कतार सी लग गई। पहले कौन जाए? जब बदरीलाल ने पता बताया तो सब चुप हो गए।

ठेकेदार निसार अहमद ने छेड़खानी की।
"क्या बात है यारो? सोहनी कुम्हारन को मिलने के लिए एक शहजादा गड़रिया हो गया। शायरे आलम मिर्ज़ा ग़ालिब को गजलसरा डोमनी के घर जाने में कोई हिचक न हुई। आपको रंगरेजा बस्ती पहुँचने के लिए रास्ते में गंदा नाला पार करना पड़ा तो क्या हुआ?"
"आप ही क्यों नहीं हो आते, ठेकेदार साहिब?" बदरीलाल नें हुक्के की नाल निसार अहमद की तरफ बढ़ा कर कहा।
ठेकेदार निसार अहमद ने इत्मीनान से एक लंबा सा कश गुड़गड़ा दिया। शरारती नजरों से धुएँ के बादल को सिमटते बिखरते देखते रहे। फिर हल्की सी आँख मारकर बदरीलाल के हाथ में हुक्के की नाल लौटाते हुए आह भरी।
"रायसाहिब, रंगरेजा बस्ती सरकारी कचहरी के पीछे पड़ती है। पी.डब्ल्यू.डी. के दफ्तर के पिछवाड़े लगती तो बंदा जरूर बदरुन्निसा को सलाम करने हाज़िर हो जाता।"
"अच्छी बात है।" बदरीलाल ने घर के अन्दर की तरफ खुलते हुए बैठक के दरवाजे की तरफ एक नजर डाली। वहाँ चिक के पीछे कोई नहीं था।
"अपनी अपनी फरमाइश बता दें। मैं बीबी बदरुन्निसा तक पहुँचा दूँगा।"

ठेकेदार निसार अहमद कुछ ज़्यादा ही मूड में थे। हुक्के की नाल माँगने के लिए बदरीलाल की तरफ हाथ बढ़ाते हुए उन्होंने फिर आँख मारी, "फलहाल तो आप अपनी ही फरमाइश लेकर जाइये रायसाहिब। अगर उन्होंने रूबरू कलाम कह दिया तो फिर हम भी पहुँच जायेंगे किसी दिन।"
रंगरेजा बस्ती में दीनू ललारी के घर की साँकल खटका कर बदरीलाल एक तरफ खड़ा हो गया। एक चौदह पंद्रह बरस की गोल मटोल लड़की नें दरवाजा खोला और फ़ौरन उड़का दिया। फिर उड़के दरवाज़े की ओट से एक गंदमी चेहरा बाहिर निकला और बड़ी–बड़ी घनी पलकों वाली एक जोड़ी बेहद स्याह आँखें सवाल बन कर बदरीलाल के चेहरे पर टिक गईं। लड़की बोली कुछ नहीं।
अगर यही लड़की बदरुन्निसा है तो शायद हरफ उठाये है और अपनी आवाज सुनने और चेहरा देखने का मौका एक ही वक्त किसी अजनबी को नहीं देगी। मगर इतनी कम उम्र में ऐसी आवाज?
"क्या बीबी बदरुन्निसा यहीं रहती हैं?" बदरीलाल ने निहायत नरम आवाज में पूछा।
दरवाजा फिर बंद हो गया।
गंदा नाला पार करने से रंगरेजा बस्ती पहुँचने तक बदरीलाल के पीछे–आगे छोटे बड़े लड़कों का एक अच्छा खासा जुलूस इकठ्ठा हो गया था। मुँह बाए, सर खुजाते, ढीले झग्गों की आस्तीनों को खींचते अब वो सब के सब दीनू ललारी के घर के सामने मुस्तैदी से तैनात हो गए थे। ज्यों ही दरवाजा फिर खुला, भागते दौड़ते नजर आए।
गंदमी चेहरे वाली लड़की अपनी धारीदार चुन्नटों वाली चुन्नी का पल्ला सँभालती दरवाजा उड़का कर दहलीज पर खड़ी हो गई।
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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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"आपा पूछती है यहाँ क्यों आए हो?"
"मैंने लाहौर जाकर रेडिओ वालों से यह पता हासिल किया है ताकि बीबी बदरुन्निसा को खुद बता सकूँ कि इसी शहर में कितने लोग उनकी गजलें शौक से सुनते हैं। अगर वह इजाजत देंगी तो फिर किसी दिन आ जाऊँगा।"
उढ़का दरवाजा किसी ने अन्दर से खोल दिया। नीचे दरवाज़े की ऊँची दहलीज पार करने में बदरीलाल को अपना साफ़ा बँधा सर काफ़ी झुका कर जाना पड़ा। एक बार अंदर गया तो काफ़ी देर बाद बाहर लौटा। जब लौटा तो बार–बार वापिस आने के लिए। कभी कचहरी के काम की जल्दी निबटा कर दिन ही दिन गया। कभी शाम की सैर को और लम्बा करके दिन ढलने पर गया। पहले कुछ महीने आगे पीछे नजर डालता, फिर एकदम बेबाक। बिना नागा हर इतवार, सिवाय उस इतवार के जब एकादशी हो।

एकादशी वाले दिन बदरीलाल की हिंदू बीवी तड़के ही नहा धोकर पति के हाथों से कुटी मूँग की दाल, चावल, घी और ताँबे के सिक्के मँसवा कर मिसरानी को दे देती। कुल पर आने वाली बलाएँ टालने के लिए हर महीने पहले चाँद की रात घर के मालिक के हाथों बिना अन्नजल ग्रहण किए दान कराने की रीत थी। बदरीलाल तो दान की थाली मँसवा कर खा लेता। लेकिन उसकी बीवी चाँद निकलने तक निर्जला व्रत रखती। चौबारे जाकर चाँद को अर्ध्य देकर उतरती तो रसोई में आकर बदरीलाल दो पत्तलों के दोने उसके हाथ में थमा देता। एक में ताजा मिठाई, दूसरे में ताज़े फूलों का गजरा। मिठाई मुँह में डालकर वह व्रत तोड़ती। गजरा कभी अपनी कलाई, कभी चोटी में लपेट लेती, और कभी किसी घड़े या सुराही की गर्दन को पहना देती।

मोगरे के फूलों का गूँथा हुआ गजरा वह चाहे कहीं भी लपेटे, उसकी महक कई दिनों तक बदरीलाल की बीवी के बदन से उठती रहती। एकादशी के कम से कम हफ्ता बाद तक वह इतराई सी फिरती। पंजों के भार खड़ी होकर कभी अपनी उचकी एड़ियों पर लगी मेहँदी को देखती। इधर उधर नजर डालकर कभी गर्दन के नीचे सिर झुकाती और अपनी कमीज के उभारों को सहारा देती। अधपके बालों की किसी लट को बल देकर माथे पर गिरा देती और किसी को सँवार कर कान के पीछे सरका देती। वक्त बेवक्त कुछ गुनगुनाती। फल तरकारी की टोकरी बनवा कर नुक्कड़ वाले मकान में बदरीलाल की बेवा बहन के पास भिजवाती। फिर थोड़ी देर बाद खुद बुरका पहन कर हम उमर ननद का दुःख सुख पूछने पहुँच जाती।
•••
बदरीलाल के ब्याह से हफ्ता पहले उसके घरवालों ने अपनी इकलौती बेटी की कुढमाई कर दी थी। बाद में करते तो गली मोहल्ला यही कहता कि दान–दहेज और शगुन में जो बेटे को मिला, वही बेटी को दे दिया। पाँच छः महीने बाद बेटी के ब्याह में वही सब काम तो आना ही था। लेकिन पहले से ही क्यों शरीकों को अँगुली उठाने का मौका देना? रिश्तेदारों से भरा शादी का घर था। औरतें भाई के लिए घोड़ियाँ और बहिन के लिए सुहाग गाती फिरती थीं। सत्रह बरस की गोरी चिट्टी, छरहरी लाजो के न पाँव थमते थे न गला रूकता था। रेशम की मुलायम कमीज उसके ठसे बदन से लिपट कर तन तन जाती। हवाई ननून की बाँकड़ी लगी चुन्नी उसके ठुमकते कंधों से सरक–सरक पड़ती। किंगरी लगे पौंचों वाली घेरेदार सलवार की उठती गिरती सलवटे थिरक–थिरक लहरातीं।

ताइयों, चाचियों, फूफियों, मासियों को हाथ पकड़–पकड़ नचाती लाजो तिमंज़िले घर के दोनों तल्लों पर कूद फाँद करती और चौबारी छत पर खड़ी होकर पड़ोसनों से गप्प मारती.। एक ही साँस में घर के बेटे और जमाई को नाप तोल देती और फिर अपने पे नाज करती।
"किक्कली कलीर दी, पग्ग मेरे वीर दी
दुपट्टा मेरे भाई दा, ते फिट्टे मुँह जवाई दा?
गई साँ मैं गंगा, चढ़ा ल्याई वंगा
असमानी मेरा घघरा।
मैं ऐस किल्ली टंगां
नी मैं ओस किल्ली टंगां।"
जब अपनी शादी के दिन पास आए तो रोज नया जोड़ा पहन कर घंटों आइना देखती और अपनी आँखों का काजल अपने ही कान के पीछे टिप्पी बनाकर लगाती। घर की औरतों ने बदरीलाल की नई ब्याहता को हँस कर समझाया।

"अपनी चुलबुली ज़ुबान नूँ सँभाल के रख्खीं वौटिये नईं ते फेरेयाँ बैठी नच्चन वास्ते उठ्ठ खलोवेगी।"
फेरों पर तो लाजो दुबकी सी गुड़िया बनी रही। ससुराल जाकर जब अपने गभरू जवान हवालदार लाड़े के साथ लौटी तो हँसते–हँसते दुहरी हो रही थी। कोने में ले जाकर घंटों बदरीलाल की बीवी से खुसरपुसर करती रही।
"मैं की कहाँ भरजाई? जिदे लड़ लग्गियाँ औ ते बत्ती बुझए बिना नेड़े नई आंदा। पर दो दो मुश्टंडे दयोर सारा दिन वेढ़े विच्च डंड बैठका कडदे रहंदे ने।"
लाजो के शांत तबीयत दूल्हा को न सिगरेट शराब का ऐब था, न जुए की लत, न शाम को अड्डेबाज़ी की आदत। नौकरी से निबट कर सीधा घर आता, खाना खाता और फिर चौबारे जा अकेले कमरे की बत्ती बुझाकर बदन कसमसाता। जब तक लाजो रसोई सँभाल कर ऊपर पहुँचती, उसके मरद की हर नस ऐसी तनी मिलती जैसे किसी तेज रफ्तार घोड़ी को काबू में लाने वाली चाबुक। महीने भर में ही छरहरी लाजो गदरा गई। चेहरा ऐसा चमका जैसे पालिशी हो, भूरी नीली आँखों में खुमारी का काजल जैसे कई रातों की अनींद्री हों। मायके लौटी तो ठुमकती कम, अलसाती ज्यादा।
बदरीलाल की बीवी ने छेड़ा तो भरपूर अँगड़ाई लेकर बोली,
"अद्दी रात मार पई,
कुट्ट सुट्टियाँ मलूक जहियाँ,
नाले सोहना मोती चुगदा
ते नाले पुच्छदा,
कित्थे, कित्थे लग्गियाँ।"

पाँच बरसों में तीन बार लाजो मायके जच्चगी के लिए आई। भरा पूरा बदन लिए आती और गोल गोल मटोल बच्चा गोद में लेकर लौट जाती। गदराऐ बदन के उतार चढ़ाव फिर वैसे के वैसे।
"क्यों नी लाजो? औरतें तो एक बच्चे के बाद ही चौड़ी हो जाती है। तू क्या सारी उमर ऐसी ही छमकछल्लो बनी रहेगी।"
"आहो भरजाई, कमर दा कमरा बन गया तो हवालदार जी को उपर नीचे चढ़ने उतरने में टंटा होगा। मैंने तो अपनी सास को कपड़े धोने से भी छुट्टी दे दी है। आप बैठ के रगड़ा सोटा मारती हूँ और खड़ी होकर एक एक कपड़ा बालटी से निचोड़ कर निकालती हूँ। कपड़े साफ, सास खुश और मेरी कमर वैसी की वैसी।"

हवलदारनी से थानेदारनी बनते ही लाजो की जुबान भी बदलने लगी थी। पुलिस महकमे के कारनामों के किस्से सुनाती। फरमाबरदारी और हरामजदगी जैसे अलफ़ाज इस्तेमाल करती। घर से बाहर निकलते थानेदार साहेब की पगड़ी और फीती की नजर उतारती। रात को दूध का गिलास देती तो बादाम डाल कर।

एक रात थानेदार ने दूध पीने से इंकार कर दिया। गले में दर्द था, सुबह तक हलक के उपर गिलटी फूल आई। ऐसी चारपाई पकड़ी कि दस दिन में बिना एक भी बात बोले सदा के लिए सो गया। उसकी स्यापा करती माँ ने अपनी छाती हाथों से पीटी और लाजो का माथा हथौड़े से तोड़ा।
"नचोड़ लया नी तूँ मेरे शेर जये पुत्तर नूँ। खसमखानिऐ हर वेले ओनू चमुट्टी रहंदी सैं। अपनी उमर खा के जांदा ते अपने पुत्तरा दी कमाई वी खांदा ते सानू वी अपनी पेंशन ख्वांदा। दफ़ा हो जा, साड़िया नजरा तो। तैनू वेख के तेरे हट्टे कट्टे जिसम विच मैनू अपने पुत्तर दा निच्चुड़या खून दिसदा ऐ।"

तीनों बेटों को लेकर लाजो मायके लौटी तो अपना जिस्म हर वक्त कस कर लपेटे रखती। बार बार नहाती जैसे कोई अनछूटा दाग धोती हो। छुआछूत करती। गदरया बदन पहला ढलका, फिर सलवटों से भरकर रूखा बबूल हो गया। न कोई उसे छुए, न करीब आये।
••
गंदे नाले के पार रंगरेजा बस्ती में बदरीलाल के बार–बार जाने की बात उड़ते–उड़ते सबसे पहले लाजो ने सुनी। बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली से।

"रब्ब झूठ न बुलावाये बाजी।" जून की तपती दुपहरी में खस की पक्खी की हवा अपने चेहरे पर झुलाते हुए सिर हिला–हिला कर कहा उसने, "सुना है बात हँसी मखौल से शुरू हो कर बड़ी दूर चली गई है। अब तो दो साल ऊपर ही होने को आए। बिना नागा हर इतवार आपका भाई खुले आम गंदा नाला पार करके पहुँच जाता है वहाँ।"
लाजो को लगा कि उसका भाई कोई इंसान नहीं बल्कि किसी बड़े से पेड़ की कटी हुई टहनी है जिसे बख्तियार की घरवाली ढक्की दरवाजा गली से घसीट कर गंदे नाले के पार फेंक आई है। वह हड़बड़ा कर उठी और मुड़े तुड़े कपड़ों के ऊपर चादर से मुँह सिर लपेट कर शिखर दुपहरी में गली पकड़ ली। नुक्कड़ वाले मकान से बदरीलाल के घर हाँफती हुई पहुँची और सीधे बैठक मे जा घुसी। उसे देखते ही बैठक में उकडू बैठे दो तीन मिलनेवाले उठ खड़े हुए। लाजो उनके ज़ीना उतरने तक चुप रही।
फिर उसने अपनी चादर उतारकर तख्तपोश पर फेंकी और आरामकुर्सी से टिके बदरीलाल के सामने खड़ी होकर खुरदरी आवाज में पूछा।
"ये गंदे नाले पार वाली मरासन तेरी क्या लगती है भापा?"

बदरीलाल ने हुक्के की नाल अपने मुँह की तरफ खींची तो लाजो ने हुक्का अपने पैर से दूर सरका दिया। एक बार बकना शुरू हो गई तो बस नारियल की सूखी मूँज से जैसे गरम राख को जूठे पतीलों के काले तलों पर रगड़ती ही गई। बदरीलाल ने अपना चेहरा एक दिन पुराने अखबार की सुर्खियों में छुपा लिया। सन १९४२ के "हिन्दोस्तान छोड़ो" इन्कलाब का सनसनीखेज ब्योरा और हिटलर जैसों से बरतानिया सरकार की टक्कर लेने का हौसला अखबार के पहले ही सफ़े पर नुमाया था। अखबार कुछ कह रहा था, लाजो कुछ पढ़ रही थी। बोलते बोलते जब वह हाँफने लगी तो कोई भी लफ्ज़ उसका पूरा नहीं हुआ। बदरीलाल ने अखबार एक तरफ रख दिया। गीले कपड़े से लिपटी सुराही के पास ही रखे ताँबे के गिलास में पानी उँड़ेला और बहिन को पकड़ा दिया।

गटागट गिलास खाली कर लाजो बदरीलाल की आरामकुरसी से सिर टिका कर बैठ गई। भाई के बाजू पर हाथ रख कर जरा नरम आवाज में बोली, "गल्ली–मोहल्ला, पुरखे–शरीक तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, पर क्या तुझे भरजाई का भी कोई लिहाज नहीं? कुछ तो बोल भापा?"
बदरीलाल नें अपना एक हाथ लाजो के सिर पर रखकर बस एक बार उसके रूखे बालों को सहलाया और लंबी साँस लेकर बोला, "उसी का तो लिहाज है। वरना मैं बदरुन्निसा को मिलने उसके घर नहीं जाता। यहाँ इसी घर में ला कर रखता।"
लाजो तमक कर उठी और दोनो हाथों से अपना माथा पीट लिया। बीच बैठक में खड़ी होकर ज़ोर ज़ोर से स्यापा करने लगी- "तू सहक सहक के मरेगा भापा। ऐसी मौत मरेगा कि कोई पानी देने वाला न होगा। अपने हिस्से का तेरा स्यापा मैं आज ही कर लेती हूँ।"

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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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बदरीलाल बैठक से निकल कर नीचे जाने वाली सीढ़ियों से उतर गया। उसके जाने के बाद भी लाजो अपने आप को पीटती ही रही। जब बदरीलाल की बीवी ने आकर उसका हाथ पकड़ा तो उसे अपने से लिपटा कर फफक उठी।
"मैं तो उजड़ी ही थी भरजाई क्योंकि थानेदार को उपर से बुलावा आ गया। पर तू मेरी बदनसीब शहजादी, तू तो आदमी के रहते उजड़ गई।"
बदरीलाल की बीवी गले से लिपटी ननद को बाहों के घेरे में लिए खामोशी से देर तक सुबकती रही। पीठ पर हाथ रख अपने से अलग किया तो तख्तपोश तक बाँह पकड़ कर ले गई। पास बैठा कर उसी की मैली कुचैली चुन्नी से पहले उसके आँसू पोंछे, फिर अपने।
"तूने सुना न लाजो, जो तेरे भापे ने कहा। जब तक मैं इस घर में हूँ, उसको मेरा लिहाज है। पुरखों के इस घर को अगर दूसरी से बचाना है तो मुझे यहाँ रहना ही पड़ेगा। इस घर की राक्खी करूँगी। यहाँ से निकलूँगी ही नहीं। तेरे घर भी नहीं आऊँगी, तू ही आती जाती रहना।"
"तू मुझ रब्ब की मारी का आसरा है भरजाई। पर मैं करमसड़ी तुझे क्या हौसला दूँगी। सर के बल चल कर आऊँगी। पर तू तो फिर भी इकल्ली की इकल्ली। तेरे आँखों के सामने घूमे फिरेगा भापा और तू उसके पास न फटकेगी। रब्ब की दी बदाँ सहले, पर अपनी मर्ज़ी की मार तुझे बिल्कुल इकल्ला कर देगी।"
"तू ही तो कहती है न लाजो, बेटों की माँएँ कभी अकेली नहीं होतीं।"
"बेटों को बाप की करतूत का पता है क्या?"

बदरीलाल की बीवी ने लंबी उसाँस ली।
"गोपाल तो मस्त मौला है। हन्ने बन्ने दोनों रख लेता है। इकबाल का कुछ पता नहीं। कब क्या कर बैठे?
साल भर पहले बी॰ ए॰ पास करके जब इकबाल बिजली पानी के महकमे में सरकारी मुलाजम हो गया तो बदरीलाल नें सारी गली में खालिस घी के केसरी लड्डू बाँटे थे। रात को जब कभी बाप बेटे इकठ्ठे रसोई में खाने आते तो अपनी थाली में ताजा फुलाया फुलका रखती हुई बीवी का हाथ रोक कर बदरीलाल कहता,
"पहले इकबाल को दे भलीमानस। सारा दिन काम करता है। गुपाल की तरह चटखोरा नहीं कि बाहर खा पीकर घर आ जाए।"

कई महीनों से इकबाल बाप के सामने पड़ने से कतरा रहा था। अगर कमी बाप–बेटा इकठ्ठे रसोई में खाने बैठ भी जाते तो दो फुलके खाकर ही इकबाल पीढ़ी सरका कर उठ खड़ा होता।
एक दिन बिना कुछ कहे सुने बिस्तर बोरिया बाँधते हुए माँ से बोला,
"भाबो मेरा तबादला जेहलम हो गया है। परसों चला जाऊँगा।"
"अपने भाईया जी से कह कर तबादला रूकवा ले पुत्तर। मेरी आँखों के सामने रह।" बदरीलाल की बीवी ने कहा।
"भाइये का नाम न ले भाबो। तू भी चल मेरे साथ। परसों नहीं चलती तो एक हफ्ता बाद आकर ले जाऊँगा। रहनें का इंतजाम करते ही आऊँगा। तू तैयार रहना।"
बदरीलाल की बीवी ने बेटे के कपड़े सँभालने में हाथ बँटाया और बोली,
"जरूर आऊँगी पुत्तर। जब तेरा ब्याह हो जाएगा। फिर तू कमाने जाना और हम सास–बहू रज्ज रज्ज के तेरी कमाई की बरकतें देखेंगी।"
"इस घर में कोई भलामानस तो अब अपनी बेटी देने से रहा।" इकबाल ने 'थूँ' कह कर कहा, "पर तेरे लिहाज से कोई राज़ी होता हो तो जल्दी ही बहू ले आ।"
"जरूर ले आऊँगी। पर तू कब आएगा? परसों का गया क्या अपनी लाड़ी लेने ही आएगा?
"बड़ी जल्दी आऊँगा भाबो, आता रहूँगा लेकिन इस घर में नहीं। मुझे इस घर में अब भाइया के कपड़ों से गंदे नाले की मुश्क आती है।"
•••
बदरीलाल ने जब पहली बार गंदा नाला पार किया तो उसे नाक पर रूमाल रखना पड़ा था। नाले के उस पार भी एक सपाट मैदान था जिसे हाजतमंद बेरोक टोक खुले आम इस्तेमाल करते थे। कुछ ही कदम चल कर बदरीलाल शशोपंज मे आ गया। अपने कदमों पर नजर रखने के लिए गरदन झुकाकर चलता तो खाया पीया मुँह को आता। बिना नीचे देखे कदम उठाता तो किसी सूखी या लिजलिजी ढेरी पर पाँव पड़ने का अंदेशा। ठिठक गया वो। आगे पीछे दोनो तरफ नजर डाली। मैदान के अगले छोर तक पहुँचने का रास्ता कम और लौटने का ज्यादा लगा। नाक मुँह ढक कर वह आगे बढ़ा। मैदान पार किया तो एक पगडंडी के मुहाने पर खड़ा था।

पगडंडी के एक तरफ दूर दूर तक काली सलेटी, गेरूआ, गाचनी माटी के बरतन खिलौने धूप सेक रहे थे। जमीन पर मुँह औंधाए छोटे बड़े मटके। गर्दन ऊँची उठाये एकमुठी, दोमुठी नक्काशी सुराहियाँ। मैदान की धूल से जरा सा सिर निकाल कर झाँकते हुए चपटे कसोटे। आजू बाजू तैनात लंबे चौड़े गमले। चौमुखे दीये और खील फुलियो की हट्टियाँ। हौदे वाले हाथी। सवार समेत घोड़े। और इस भरपूर बेजान सी दुनिया के उपर उमस भरी दुपहरी में भूले भटके हवा के झोंके को तरसती गुँधी गुँधाई माटी की महक।

कहीं से जरा भी आवारा बयार की लय फूँक उठती तो चिलमों और मटकी की महकती साँसें पगड़ंडी के दूसरे किनारे ठुमक कर पहुँच जातीं। वहाँ लंबे बाँसों से तान कर बँधी हुई रस्सियों में घिरा रंगों का डेरा था। कड़क कलफ और अकडू अबरक से तने हुए ऊदे, नीले, नसवारी, केसरी और गुलाबी साफ़े थे। फरोज़ी, बदली, फलसई, अंगूरी, जहरमोरे और चंपई दुपट्टे हल्की सी माँड ओढ़े, तने हुए साफ़ों से अपनी दूरी बनाए थे। साफ़ों और दुपट्टों की निगरानी में चुन्नटों से सिमटी सतरंगी लहरियों वाली चुन्नियाँ थीं।

एक ही पगडंड़ी के इस तरफ महक का गुबार और उस तरफ रंगों की शोखी।
रंगरेजा बस्ती पगडंडी का आखरी पड़ाव थी।
उसके बाद कुम्हारी टीले तक जाने के लिए कोई एक रास्ता नहीं था। जहाँ कदम मुड़े वहीं रहगुजर निकल आती। लिपेपुते बेतरतीब बिखरे घरों के जमघट में न कोई आगा था न पीछा। किसी के आगे तंदूर लगा सहन तो किसी का आगा मवेशियों का तबेला। किसी के बाज़ू में चारा काटने की रहट तो किसी के साथ जुड़ी दाने भुनाने की भट्टी। कुम्हारी टीले वाले पानी लेने रंगरेजा बस्ती के कुएँ पर आते। बस्ती वालों को अपने भाँडे–टींडे कलई करवाने टीले पर जाना होता। इतनी शादियाँ हुई थीं बस्ती टीले में कि कोई भी किसी की कुड़मों का पिंड कह देता।
पगडंड़ी पार कर के रंगरेजा बस्ती में जाते बदरीलाल के कदम रूक गए। एक खटका सा उठा। न जाने कौन छींटा कसी कर दे? कहाँ से आकर कोई कीचड़ उछाल दे? बचे खुचे रंगों के घोल की कोई कमी तो थी बस्तीवालों को।
गुंधी कीचड़ में सनी उँगली छिटक देने में क्या वक्त लग सकता था टीले वालों को?

लेकिन बस्ती टीले वालों की अपनी ही तहज़ीब थी। वह कीचड़ रौंधते थे तो ओसारे के चाक पर चढ़ा कर सँवारने के लिए। माटी का दोष तब न जब ओसारे से निकले बरतन खिलौने में तरेड़ मिले? वहा रंग घोले जाते थे अलग थलग रख कर पक्के करने के लिए। रंगों में खोट तब जब ललारी के हाथ से यूँ ही छिटक कर एक बूँद किसी दूसरे रंग के कपड़े पर जा गिरे? झक्ख सफ़ेदी पर दाग लगा दे।
•••
कुम्हारन माँ और रंगरेजा बाप की बेटी थी बदरुन्निसा। ओसारे में चाक पर चढ़ी माटी को उसने भी रौंधा था। माँड़ पकाते कढ़ाहों के नीचे सरकंडों की आग ऊँची करने के लिए धुएँ में उसने भी फूँकें मारी थीं। लेकिन उसका सा रूँधा और भर्राया गला और किसी का न हुआ। मुलठ्ठी और शहद की घुट्टी चाटी। बनफशे का काढ़ा पीया। गले में तरावट आई। लेकिन आवाज का धुँधलका न छूटा। बोल निकले तो गाढ़े। बातें बनी तो साज और सुर साधे तो तरन्नुम। पके मटकों पर मेहँदी लगे हाथों से थाप देकर गाती बिलकीस बस्ती टीले के हर मौके का बेज़ोड़ गहना बन गई।

टीले वालों के एक ब्याह में लाहौर से आए बदरू मामा बिलकीस को दो दिन के लिए अपने साथ ले गए। लौटे तो बदरुन्निसा को साथ लेकर। रेडिओ वालों ने बदरू मामा के नाम से जुड़ता नया नाम दे दिया बिलकीस को। साथ ही हर शनिवार उस की गायी एक गजल रेडिओ से सुनाने की दावत। गजलों की पसंद रेडिओ वालों की, आवाज बदरुन्निसा की। वह महीने में एक या दो बार लाहौर जाकर गजलें रिकार्ड करवा आती। बुरका उसका। आने जाने का रिक्शा और पसंजर गाड़ी का किराया, खर्चे पानी का बंदोबस्त, सब रेडिओ वालों का। बस आवाज बदरुन्निसा की।
••
"आपको मेरी आवाज यहाँ खींच लाई थी न मैं गाना बंद कर दूँ तो?" बदरुन्निसा ने पूछा।
अपने होठों से बदरुन्निसा के कुरते के बटन खोलता बदरीलाल कुछ नहीं बोला। उस लमहा सारी काईनात में उसके अहसास का एक ही मरकज था। वहाँ पहुँचने से पहले अगर वह साँस भी खींच कर ले लेता तो पूरी काईनात बिखर जाती। बस उसकी रंगों का पुरज़ोर उफान हर बाज़ू में आठ आठ हाथ बनकर बदरुन्निसा के गठीले बदन का हर उतार चढ़ाव सहलाता रहा, कचोटता रहा।
"यहाँ भी," बदरुन्निसा ने सिमट कर कहा।
"वहाँ भी," उसने बिखर कर खैरात माँगी।
"हाय अल्लाह, मैं मरी। मैं गई।" वह सिहर सिहर उठी।
"रूक जाइए न," उसने बदरीलाल की ढ़ीली पड़ती गिरफ्त को अपनी बाहों के घेरे में कसना चाहा।
"बस अब नहीं, कपड़े गीले हो जाते हैं।"
"घर में नहीं होते क्या?"
"वहाँ बदलने का इंतजाम है।"
"यहाँ भी हो सकता है"
"यह मेरा घर नहीं है।"

बदरुन्निसा नें उठ कर कोठरी के अंदर से लगी साँकल खोल दी। बदरीलाल को तख्तपोश पर बैठने के लिए गाव तकिया दिया। और मुंज के कानो का एक मोढ़ा खींच कर उससे कुछ दूर जा बैठी।
"आपकी घरवाली का नाम क्या है?"
"चाँद रानी।"
"बहुत खूबसूरत है?"
"हाँ।"
"आप से क्या क्या बातें करती है?"
"भाजी तरकारी की। नाते–रिश्तेदारों की।"
"और आप?"
"मैं सुन लेता हूँ।" बदरीलाल ने अब जूते पहनने शुरू कर दिये थे।
"मैं आप से बात करूँ?"
उठते उठते बदरीलाल बैठ गया। सिर से हुंकारा कर भर कर बोला,
"करो।"
"आपको पता है कि कचनार के फूल की कली उबाल कर डालने से घुले हुए रंग गाढ़े हो जाते हैं। लेकिन कचनार की डंडी की एक बूँद भी रंगे कपड़ों पर पड़ जाए तो दाग लग जाता है, कभी नहीं छूटता। कनेर के फूलों से . . ."
बदरीलाल अब सहन के दरवाज़े की ओर मुँह करके खड़ा था। बदरुन्निसा नें बढ़ कर बाहर के दरवाज़े की साँकल खोल दी। दहलीज के पार खड़ी होकर अपनी किंगरी वाली फरोज़ी चुन्नी का पल्ला मरोड़ती हुई बोली,
"अल्लाह मियाँ अगर हफ्ते में दो इतवार बना देता तो।"
••••
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Re: हिन्दी उपन्यास - कोठेवाली

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हर इतवार बिना नागा आनेवाला बदरीलाल उपर तल्ले दो इतवार नहीं आया। तीसरे इतवार तो पहले चाँद की रात थी, उसे आना भी नहीं था। लेकिन तड़के ही दीनू ललारी के बाहर वाले दरवाजे. की साँकल ऐसी बजी जैसे खटकाने वाला बहुत ही जल्दी में हों। बदरुन्निसा ने दौड़ कर दरवाजा खोला। ढीला ढीला कुरता और मटमैली तहमद पहने एक लंबा चौड़ा पहलवान सा काला धुत्त आदमी चौखट से लगा खड़ा था। बदरुन्निसा पर नजर पड़ते ही जहर आलूदा आवाज में बोला,
"बदरीलाल हर इतवार तेरे पास ही आता है?"
बदरुन्निसा को लगा कि अगर उसने सिर भी हिला दिया तो उसकी खैर नहीं। पता नहीं आने वाला किस इरादे से आया हो। उसने हाथ बढ़ाकर दरवाजा बंद करना चाहा। पहलवानिया आदमी ने धूल सनी गुरगाबी में से फूल कर उठता हुआ अपना एक गठीला पैर दहलीज पर टिका दिया,
"जाती कहाँ है बेहया? तू ही है न वो मरासन जो रेडिओ पर गाती है?"
"मैं बदरुन्निसा हूँ।" वह सहम कर बोली।

बेकरी वाले बख्तियार को अपनी आँखों पर यकीन न हुआ। रेडिओ मंडली में लगी एक भी अटकल उस औरत पे पूरी नहीं उतरती थी जो उसके सामने थी। मंझला कद, दुहरा बदन, कढ़ी हुई कम दूध वाली चाय जैसा रंग। जुड़ी हुई भवों वाला माथा। उमर कोई पचीस के उपर। और गर्दन ऐसी लंबी तनी जैसे कोई मगरूर परीजादी हो।
ढ़क्की दरवाजा गली की बाकी औरतों की तरह बदरीलाल की बीवी भी बाहर निकलते वक्त बुरका पहनती थी, बैठक से घर की तरफ खुलने वाले दरवाज़े की चिक के पीछे कभी कभार उसकी लंबी परछाई में छरहरी काठी ही बेकरी वाले बख्तियार ने देखी थी।
"हाथ लगाए मैली होती है जी।" बख्तियार की घरवाली ने बताया था, "माँ बाप ने सोच कर ही नाम चाँदरानी रखा है। दो जवान बेटों की माँ हो गई पर मजाल है कि जिस्म की मलाई उतरी हो। हाथ पैर कबूतर के परों जैसे कूले है। जब कभी जाओ, हँस कर मिलती है।"
"यहाँ क्यों आए हो?" बदरुन्निसा बड़ी बेरूखी से पूछ रही थी। उसकी जुड़ी भवों के उपर की शिकन और भी गहरी हो आई थी।
"तुझे यह बताने कि तेरी बद्दुआओं से बदरीलाल की नेक बख्त बीवी के पेट में रसौली फूटी है। घरवाले उसे पिंडी के बड़े अस्पताल ले गए हैं। तेरा यार जाती बार मुझे कह गया था कि तुझे बता दूँ।"
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चिता में लगाई आग को सन्न चेहरे से देखता बदरीलाल सकते में आ गया। बदरीलाल की बीवी के लाल जोड़े से सजे जिस्म के फूले हुए पेट से पानी की एक तेज धार फूटी और जलती हुई लपटों से ऊँची उठ गई। देखने वालों के हाथ खुद–ब–खु.द तौबा के लिए उठे और रहम की दुआ माँगने लगे।
"गम का गोला अंदर ही अंदर दबाये जीती थी। आज सब गमों से छूट गई।"
"अधमरी को मारने ले गया था अस्पताल में। उन्होंने चीरा देकर पेट खोला और जालिम कैंसर देख कर वहीं दुबारा सी दिया।"
"कैंसर से जालिम तो यह खुद निकला जी। घरवाली सहकती रही और यह मौजें करता रहा।"
"आँख की शरम होगी इसे तो अब उस मरासन के पास भी न फटकेगा।"
"कौन जाने उसी को खुदा का ख़ौफ आ जाए।"
"उसे कोई शरम–लिहाज होता तो यह चिता क्यों जलती?"
बदरुन्निसा रंगरेजा बस्ती छोड़कर ढक्की दरवाजा गली आ गई। बदरीलाल के साथ उसी के घर में रहने लगी। न निकाह न कोई कागज़ी कार्रवाही। बस रहने लगी। उसके आते ही रेडिओ मंडली पहले कुछ दिन सहमी रही। फिर इक्का दुक्का करके सभी लौटने लगे। न वो लाहौर जा कर गाती, न ही अब उसे लेकर कोई अटकल लगाता। बैठक की गहमा गहमी वैसी की वैसी।

बदरुन्निसा मिलने जुलने वालों के सामने बैठक में कभी न आती। चिक के उस पार गोपाल उससे कभी कभार बतिया लेता। बी॰ ए॰पास होने का नतीजा निकला तो गोपाल ने तफरीह के लिए काशमीर जाना चाहा। बदरुन्निसा ने अपना सोने का गुलूबंद तुड़वा कर पैसों का इंतजाम कर दिया तो गया वरना गोपाल के बाप ने तो मना ही कर दिया था।
"जवान जहान बेटा है। उसकी छोटी सी ख्वाहिश को क्यों मारते हो।" उसने गोपाल के बाप को समझाया।
गोपाल कश्मीर से लौटा तो बदरुन्निसा के लिए शाल लाया। सुर्ख रंग का शाल, उपर तिल्ले की आरी वाली कढ़ाई। बदरुन्निसा ने सँभाल कर रख दिया।

"तेरी दुल्हन को दूँगी।" उसने कहा।
लेकिन दुल्हन आई कहाँ? उससे पहिले तो बँटवारा आया। अपने बाप और छोटे भाई को इकबाल लिवाने आया और अपने साथ उधर ले गया। और बदरुन्निसा, वो ताहिरा की माँ बनने का इधर ही इंतजार करती रही।
बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली ने सलाह दी।
"काफर की औलाद को इस मुसलमानों की गली में पैदा करोगी तो हम सब की खैर नहीं। दीवारें, छतें सभी जुड़ी हैं इस गली के घरों की। तुम्हारे घर में लगाई आग हम सब को जला देगी। लाहौर चली जाओ, बाद में कभी लौट आना।"
बदरुन्निसा ने छोटी बहिन जाहिदा को लेकर लाहौर जाने वाली खचाखच गाड़ी तो पकड़ी मगर उससे उतरी नहीं।

२२ जुलाई १९६९ की शाम चित्रा ने ताहिरा और करन के लिए एक दावत रखी थी। रसल स्क्वेयर के इंस्टीट्यूट आफ कामनवेल्थ स्टडीज से हैडन सैंट्रल वापिस आने में करन को कुछ देर हो गई थी। घर पहुँचा तो ताहिरा खिड़की से झाँकती मिली। पूरा दिन उसने कई जोड़े उतारे पहने थे। उसका जी चाहता था कि वह ऊदे रंग का शरारा–कुरती पहने ताकि जाहिदा खाला के हाथ का बना महीन कढ़ाई वाला भारी दुपट्टा ओढ़ सके। लेकिन करन कह गया था कि अंडरग्राउंड में जाना है, इसलिए गरारा या शरारा पहन कर सीढ़ियाँ उतरना चढ़ना मुश्किल होगा।

काशनी चूड़ीदार कुरते के साथ मुकैश लगा दुपट्टा पहन जब ताहिरा करन के साथ घर की सीढ़ियों से उतरी तो बुढ़ऊ मकान मालिक दरवाज़े के साथ ही जुड़ कर खड़ा था।
"खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत।" उसने अपनी दो सूखी सी उँगलियों से अपने होंठ चूम कर कहा, "लेकिन नहाते वक्त इतनी देर तक गरम पानी मत चलाया करो, मेरा खर्चा बढ़ जाता है।"
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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