सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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रास्ते में,
वही डायरी खोली उसने,
फ़ैज़ान लिखा था!
उसने छुआ उसे ऊँगली से,
पेन निकाला,
और उसको ढांपने के लिए,
जैसे ही पेन छुआया,
हाथ न चला!
उंगलियां, जैसे हरक़त ने करें,
हाथ जैसे, हरक़त से बाज आये!
उसने फिर से कोशिश की,
और फिर से वही!
बंद कर दिया पेन!
रख लिया वापिस,
और डायरी के सफ़े के उस हिस्से को,
फाड़ना चाहा,
बड़ी हिम्मत की!
और फाड़ लिया!
अब हाथ में था वो हिस्सा!
बाहर झाँका,
और फेंकने के लिए,
निकाला हाथ बाहर उसने,
कई बार कोशिश की,
और एक में, सफल हो गयी!
फेंक दिया वो हिस्सा!
वो हिस्सा,
किए पंख की तरह,
उड़ चला,
उसने पीछे मुड़के देखा!
सड़क के बाएं गिरा था!
"रुकना भैया?" बोली तेज उस सवारी वाले से!
चालक ने, आहिस्ता से, एक तरफ रोक दिया वाहन,
वो दौड़ी,
भागी तेज तेज!
वो हिस्सा,
वहीँ पड़ा था!
लोगबाग गुजरते थे पैदल वहां से,
पांवों के नीचे खुन्दता वो!
दिल में टीस सी उठ गयी थी उसके!
उठाया वो हिस्सा,
और कर लिया मुट्ठी में बंद!
चली वापिस!
और वाहन, चला फिर से आगे!
एक ना-वजूद काग़ज़!
महज़ एक काग़ज़!
फ़क़त एक काग़ज़ के मामूली हिस्से ने,
जिसका कोई वजन भी मायने नहीं रखता था,
उस सुरभि को ही रोक दिया था!
अब इसे मैं क्या कहूँ?
उसने हाथ खोला अपना!
वो हिस्सा,
वो ना-वजूद काग़ज़,
मुड़-तुड गया था!
अपनी उँगलियों से,
सीधा किया उसे,
और फिर, समतल!
फ़ैज़ान लिखा था!
उस हिस्से को,
रख लिया डायरी में उसने!
और इस तरह अपने घर आ पहुंची सुरभि!
घर आई,
तो अपना सामान रखा,
हाथ-मुंह धोये,
फ्रिज में से, पानी पिया,
अपने कमरे में आई,
उसके लिए, कामवाली ने चाय चढ़ा दी थी,
आई अपने कमरे में,
बैठी, वस्त्र बदले अपने,
सामान करीने से रखा,
चाय आ गयी, संग कुछ खाने को भी,
चाय पी, संग खाया भी,
और बर्तन वापिस कर आई वो,
आई अंदर कमरे में,
उठायी अपनी डायरी,
और निकाला वो, मुड़ा-तुड़ा हिस्सा!
ना-वजूद काग़ज़ का,
बेहद मामूली हिस्सा!
मामूली!
हाँ, बेहद मामूली!
लेकिन, आज दिल में उसके,
टीस उठा दी थी इस मामूली से हिस्से ने!
अब ग़ौर से देखा वो हिस्सा!
काग़ज़ के उस हिस्से पर, फ़ैज़ान ही लिखा था,
दिल में चल रही कशमकश, हाथ के ज़रिये,
काग़ज़ पर उतर आई थी!
और उसे कुछ मालूम भी न पड़ा!
ऐसा ही होता है कई बार,
कई बार जैसा सुरभि के साथ हुआ, हो जाता है,
या मुंह से कुछ अनचाहे अलफ़ाज़ ज़ुबान के रास्ते बाहर आ जाते हैं!
ये ज़हनी-कशमकश का नतीजा हुआ करता है!
जब एक गहरी सोच,
दो पाटों के बीच में, पिस रही होती है,
एक पाट दिमाग़ का और,
एक पाट दिल का!
और वो सोच, लगातार,
पिसती ही रहती है,
जब तक, एक पाट रुक नहीं जाता,
या तो दिमाग़ का पाट रुके,
या फिर दिल का!
यही कशमकश, उस वक़्त सुरभि के ज़हन से निकल,
दिल में उतरी,
और फिर हाथ के ज़रिये डायरी के उस सफ़े पर, दर्ज़ हो गयी!
ये हुआ क्या था उसे?
दिमाग़ कहाँ था और दिल कहाँ?
सोच कहाँ और आँखें कहाँ?
वो सोचती रही, और रख दिया वो हिस्सा,
वापिस उसी डायरी में, बीच में,
उठी वो, और जा लेटी बिस्तर पर,
खिड़की से बाहर झाँका,
नीला आसमान और सफेद बादल!
पल पल नयी नयी शक़्ल अख़्तियार करते थे वो!
उन्ही को देख रही थी वो,
करवट ली, नज़रें वहीँ टिकी रहीं,
आँखें बंद हुईं उसकी,
कुछ ही पलों में,
आँखें हुईं भारी, और गयी नींद के आग़ोश में!
सपना चला आया पीछे पीछे,
आज वो किसी सहरा के बीच लगने वाले हाट में थी!
लोगों ने, अपने बदन को, पूरा ढक रखा था,
क़िस्म क़िस्म की चीज़ें थीं वहाँ,
फल, मसाले, मिठाइयां, बर्तन, रस्सियाँ, देग़ आदि,
रोज़मर्रा की सारी चीज़ें वहां बिक रही थीं,
ये एक पखवाड़े में एक बार लगने वाली हाट थी!
वो अकेली खड़ी थी,
एक जगह, उसके बाएं एक औरत बैठी थी,
उसने एक कपड़ा बिछाया हुआ था, कपड़े पर,
कुछ कपड़े रखे हुए थे, छोटे से लकर, बड़ों तक के,
भाषा जो बोली जा रही थी, वो समझ न आई उसे!
उस औरत ने, उसको देखा, उठी वो,
उम्र में कोई पचास की रही होगी,
आई उसके पास,
"कहाँ से आई हो बेटी?" पूछा उस औरत ने,
"मैं?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ बेटी, अकेली हो न, इसीलिए पूछा!" बोली वो औरत,
"मैं, वो बे'दु'ईं क़बीले से आई हूँ, हु'मैद साहब वाले!" बोली वो,
"वो, फ़ैज़ान वाले?" पूछा उसने!
अब हैरान वो!
ये सब क्या?
कैसे मालूम?
"हाँ!" बोली वो,
"आओ, आओ मेरे साथ बेटी!" बोली वो,
और उसने, अपनी बेटी को आवाज़ दी,
उसकी बेटी आई, सुरभि को सलाम किया,
अपनी बेटी को बिठा दिया वहां, और ले चली सुरभि को संग अपने,
ले आई एक छोटे से तम्बू में,
"पानी पियोगी बेटी?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
उस औरत ने, सुराही से, पानी निकाला,
एक कटोरी साफ़ की, डाला पानी उसमे,
और दे दिया सुरभि को,
सुरभि ने, पानी पिया और वापिस किया गिलास!
वो जगह बेहद ही खूबसूरत लगी उसको!
लम्बे लम्बे खजूर के पेड़,
देहाती से, क़बीले के लोग!
सामान खरीदते हुए औरतें और लड़कियां!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा सुरभि ने,
"ये, मरीब है! यमन में हो आप बेटी!" बोली वो औरत!
मरीब! यमन!
प्रसिद्ध जगह है ये!
इतिहास में प्रसिद्ध रानी साहिब, शीबा, यहीं की थीं!
राजा सुलेमान से कई सवालात किये थे उसने!
और सुलेमान ने, सारे जवाब सही दिए थे!
यही है वो मरीब!
यहीं थी वो सुरभि उस जगह!
ऊँट गुजरे तभी वहीँ से,
गले में पड़ीं घंटियाँ बज उठीं!
उनके गले में टंगे, सामान के बड़े बड़े थैले,
अब उतारे जा रहे थे!
"ये लो!" बोली वो,
हाथ आगे किया सुरभि ने,
और उस औरत ने, एक मुट्ठी, अलक़श रख दिया उसके हाथ में!
अलक़श देखा, तो कुछ याद आया!
"वो अशुफ़ा कहाँ होंगी?" पूछा उसने!
''दूर है वो!" बोली वो औरत!
"कहाँ दूर?" पूछा उसने,
"यहाँ से दो रात दूर!" बोली वो औरत!
दो रात! अड़तालीस घंटे!
"मैं कैसे ढूँढूँ?" पूछा उसने,
"नहीं ढूंढ पाओगी अब!" बोली वो,
अब?
क्या मतलब?
हैरान सी हो गयी वो ये सुनकर!
"अब? मतलब?" बोली वो,
"फ़ैज़ान दूर चले गए हैं! महीना भर लगेगा बेटी!" बोली वो,
उसने सुना जैसे ही,
घुटने जैसे जवाब देने लगे!
नीचे झुकी और बैठ गयी!
और तभी,
आँख खुल गयी उसकी!
हड़बड़ा के उठी!
बत्ती जलायी,
घड़ी देखी,
सात बजे थे उस समय!
बाहर, खिड़की से देखा, तो शाम का रंग बिखरने लगा था!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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खिड़की खोल दी उसने,
कुर्सी खींची,
और बैठ गयी,
चौखट पर, हाथ टिका, सर रख लिया,
महीना भर?
कहाँ गए वो सब?
महीना भर,
नहीं मिल पाएगी वो?
ऐसा क्या हुआ?
मैंने तो, जहां तक याद है,
कुछ नहीं किया,
क्या कोई गलती हुई?
फिर,
ये महीना भर?
इसे ही कहते हैं सुरभि, अकेलापन!
सब साथ हैं,
घर में ही!
पहले की तरह!
फिर भी अकेली?
क्यों?
किसलिए?
क्या बात हुई?
कैसा अकेलापन?
उठाया सर,
और लगाई पीठ पीछे कुर्सी से!
एक महीना!
वो बाग़,
वो दोनों!
और वो, फ़ैज़ान,
उठ गयी कुर्सी से,
कमरे में, अकेलापन,
काटने को दौड़े!
चली बाहर,
और चली छत की तरफ,
पहुंची छत पर,
जा लेटी उस पलंग पर!
आकाश को देखा,
चाँद, थे तो सही, लेकिन धुंधले से,
आज बदली ने ढका था उन्हें,
जी किया, की हाथ से हटा दे वो बदली!
और वो ढीठ बदली,
वो भी जैसे, बातें कर रही थी उनसे!
हट ही नहीं रही थी!
और दूसरी वाली,
वो भी दौड़ी चली आ रही थी,
पहली वाली से मिलने!
वो देखती रही!
कभी-कभार, चाँद, नज़रें चुरा उस बदली से,
देख लिया करते थे सुरभि को!
उन्हें पता था कि,
कोई अहम संदेसा है सुरभि का,
जो ले जाना है उन्हें!
वो घूरती रही चाँद को!
और वो बदली, दूसरी वाली भी,
आ मिली पहले वाली से,
अब तो और धुंधले हो गए चाँद,
और इधर,
सुरभि के दिल में भी, बदली छाने लगीं!
वो बड़ी बड़ी बदलियाँ थीं,
नहीं हटीं साहब, करीब घंटे में भी!
चाँद जैसे घूंघट के पीछे जा बैठे थे!
जैसे चिलमन के पीछे बैठे हों,
बस, चिलमन ज़रा झीना था!
घंटे भर, वो देखती रही थी चाँद को!
एकटक! बेहद ज़रूरी भी था ये,
महज़ वही थे, जो अब उसके अकेलेपन के साथी थे!
हाँ, बोलते कुछ न थे, लेकिन मन ही मन, बतिया लेते थे सुरभि से!
लेकिन आज तो उनकी भी शामत आई हुई थी!
ये बदलियाँ उनको तो ऐसे घेर के बैठी थीं,
जैसे बरसों से बिछोह की मारी हों!
तभी माँ ऊपर आ गयीं!
"सुरभि?" बोली वो,
"हूँ?" बोली धीरे से,
"यहां क्यों बैठी है बेटा?" पूछा माँ ने,
"लेटी हूँ" बोली वो,
"हाँ, क्यों लेटी है?" पूछा माँ ने,
"ऐसे ही माँ" बोली वो,
और फिर से देखा चाँद को,
माँ ने भी उधर ही देखा, कुछ न मिला!
"चल, नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
और ले ली करवट, मुंह फेर लिया,
"कोई परेशानी है क्या बेटा?" पूछा मैंने,
उसकी कमर पर हाथ रखते हुए,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
"तो नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी" बोली वो,
"खाना तैयार है" बोली माँ,
"भूख नहीं है मम्मी" बोली वो,
"ऐसा क्या खा लिया?" पूछा माँ ने,
"कुछ नहीं, बस भूख नहीं है" बोली वो,
"थोड़ा-बहुत तो खा ले?" बोली माँ,
"खा लूंगी" बोली वो,
पलटी, और सीधा चाँद को देखा,
हाँ, अब बदली छंटने लगी थीं!
"दूध ले आऊं बेटा?" बोली माँ,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
अब माँ हुई परेशान!
ऐसा तो कभी नहीं किया सुरभि ने?
आज क्या बात हुई?
खाना तो कभी नहीं छोड़ा उसने?
आज क्या हुआ?
पलटी माँ, उसको देखा,
दाँतो में ऊँगली दबाये, चाँद को देख रही थी सुरभि!
"कब आएगी?" पूछा माँ ने,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
बिना माँ को देखते हुए!
परेशान सी माँ, चल पड़ी वापिस,
एक एक सीढ़ी उतर, एक बार में, चली गयीं वापिस!
अब, पेट के बल लेट गयी सुरभि,
हाथ उठा, उनपर, चेहरा रख लिया,
और भिड़ा दी नज़र, सीधा चाँद पर,
अब चाँद साफ़ नज़र आ रहे थे उसे!
बहुत देर तक, नज़र गड़ाए रही वो,
"आप उन्हें देख रहे हो न?" पूछा मन से एक सवाल!
जैसे चाँद का जवाब आया कि हाँ!
सिर्फ उसने ही सुना वो जवाब!
"उनसे पूछना, मेरी याद आई उन्हें?" बोली मन में!
जैसे, सर हिलाया हो चाँद ने, हामी भरी हो!
सिर्फ सुरभि ने ही देखा!
"पूछना, ज़रूर पूछा, कि मैं कैसे रहूंगी महीना भर?" बोली वो, मन में!
फिर, एकदम संजीदा हो गयी!
स्थिर हो गयी!
ये वो लम्हे होते हैं, जब खुद में खुद नहीं रहता!
बेखुद हो जाता है इंसान!
सुध में सुध नहीं रहती,
बेसुध हो जाया करता है!
ये वही चंद लम्हे थे!
और अगले ही लम्हे,
उसके हाथों पर,
पानी टपका!
गरम पानी!
सर्द दिल के रास्ते से गुजरता हुआ,
आँखों की तपन से गरम हुआ वो पानी,
उसके हाथो पर टपका!
कब टपका, पता ही न चला!
बेखुदी में खुद आया तो,
आँखों के पानी में, चाँद झिलमिला उठे!
तब उसने, अपनी उँगलियों से वो पानी साफ़ किया!
"उनको बताना कि मेरी आँखों से पानी टपका था आज, मेरे आंसू बहे थे, ये ज़रूर बताना!!" बोली वो!
उसने ये बोला ही था मन में,
कि तेज हवा का झोंका आया!
तेज, वही महक लिए!
वो चौंक पड़ी!
एक झटके से ही उठ गयी!
अपने आसपास देखा!
तेज महक ने घेर रखा था उसे!
वो चारों तरफ देखे!
हर तरफ!
फिर चाँद को देखे!
जैसे चाँद, अब खुश हों!
ऐसे चमक रहे थे!
तेज क़दमों से, नीचे दौड़ पड़ी,
और सीधा अपने कमरे में!
कमरे में तेज महक उठी हुई थी!
बहुत तेज महक!
उसने खिड़की खोल दी,
तभी,
बाह से माँ की आवाज़ आई!
उस हड़बड़ाई,
चली माँ के पास,
"ले, ये दूध ले ले!" बोली माँ,
उसने लिया दूध,
लेकिन माँ ने, आंसुओं के दाग़ देख लिए!
अब माँ से कहाँ छिपते हैं आंसुओं के दाग़?
"क्या बात है?" पूछा माँ ने घबराते हुए!
"कुछ नहीं मम्मी" बोली वो,
और दूध का गिलास,
रख दिया मेज़ पर,
"पी ले इसको" बोली माँ,
उठाया गिलास,
और एक बार में ही पी गयी!
आज कुछ ज़रूर, ऐसी कोई बात थी, कुछ न कुछ,
सुरभि, एक बार में नहीं पीती थी दूध,
वो उसको चार या पांच घूँट में पिया करती थी!
लेकिन आज तो ऐसे पिया,
जैसे उसको कोई ज़रूरी काम हो!
माँ के माथे पर,
कुछ रेखाएं उभर आयीं, उसी पल!
माँ देखती रही उसको,
भांप गयी थी सुरभि भी,
इसीलिए,
अपनी एक किताब उठा ली उसने,
खोली, और बैठ गयी कुर्सी पर,
माँ ने तब, गिलास उठाया,
और चलीं बाहर,
एक बार रुक कर,
ज़रूर देखा सुरभि को!
माँ गयी तो,
उठी वो,
रखी किताब वापिस मेज़ पर,
दरवाज़ा किया बंद, और अपनी आँखों पर,
हाथ रख लिए, खड़े खड़े ही!
कुछ देर ऐसे ही, खड़ी रही,
फिर चली गुसलखाने,
हाथ-मुंह धोये,
और बाल्टी में देखा,
कुछ पड़ा था उसमे,
वो बैठी, उठाया उसे,
ये, पिस्ते का एक छिलका था!
उसके होंठों पर,
मुस्कान तैर गयी उसी लम्हे!
जैसे ही मुस्कान तैरी होंठों पर,
वो महक,
अचानक से ही गायब हो गयी!
आंसू न देख सकता था वो,
अपना वजूद भी बेच सकता था उसकी मुस्कान के लिए वो!
वो मुस्कुराई,
तो लौट गया वो!
वो लौट गया,
लेकिन मुस्कान दे गया सुरभि को!
सुरभि के मन से बोझ हट गया था!
लेकिन फिर से,
दिल में काला धुंआ सा उठा,
दम सा घुटा,
सांस सी थमी,
वो बाहर आई गुसलखाने से,
हाथ-मुंह पोंछे,
आँखों में फिर से संजीदगी भरी,
एक महीना?
इसका क्या मतलब हुआ?
एक महीना?
आज तो, पहला ही दिन है?
जाना होगा उसे!
हाँ, फिर से, पूछने!
वो लपक के बिस्तर पर चढ़ी,
चादर खोली, ओढ़ी और कीं आँखें बंद!
उसने आँखें बंद कर ली थीं, आज तो वो खुद ही जाना चाहती थी,
एक सवाल था मन में उसके.
उसका ही जवाब आज ढूंढना था उसे!
कुछ ही पलों में,
आँखें भारी होने लगीं उसकी,
और उसके कुछ ही देर बाद,
वो नींद के आग़ोश में पहुंच गयी!
आ गयी थी नींद उसे!
नींद आई, तो सपना भी खड़ा हो,
उसके पीछे पीछे चल पड़ा!
मारी छलांग!
और पहुंची, उसी क़बीले में!
आज दोपहर थी,
लोगों की आमद-जामद बंद थी आज!
चिलचिलाती धूप थी!
लू चल रही थीं!
रेत, उड़ रहा था!
टीले बन रहे थे नए!
उन टीलों पर,
लहरदार लकीरें बन रही थीं!
ठूंठ से पौधे,
अपनी गरदन हिला रहे थे!
ज़मीन पर, कोई भी कीड़ा न था!
बस इक्का-दुक्का रेगिस्तानी छिपकलियां,
इधर-उधर भागे जा रही थीं!
उनके भागने का अंदाज़ बेहद ही शानदार था!
वे जैसे ठुमके मारती थीं!
और जब रूकती थीं,
तो वो अंदाज़ भी निराला था!
सीधा हाथ उठाती,
तो उल्टा पाँव,
सीधा पाँव उठाती,
तो उल्टा हाथ!
ये सब, उस जलती हुई रेत की तपिश से, बचने के लिए था!
क़ुदरत की समझ,
बहुत ऊंची होती है!
चुन चुन के उसने,
जीव, भूगोल बना, उनको व्यवस्थित किया है!
खैर,
हवा बहुत तेज थी!
सुरभि के कपड़े, फड़-फड़ करते थे!
वो चल पड़ी उस क़बीले की तरफ!
काले और पीले रंग का तम्बू था अशुफ़ा का!
दीख रहा था उसको,
वो चल पड़ी,और जा पहुंची,तम्बू का मुहाना बंद था,आवाज़ दी उसने दो बार,
और तब मुहाना खुला,ये अशुफ़ा ही थी,
लपक के आई बाहर, और अपन कपड़ा खोल,बाँध दिया सर उसका!
ले गयी अंदर उसे,हाथ का, खजूर से बना पंखा,झला उसने फौरन ही! बिठाया उसे, और उठी वो खुद,
चली सुराही से पानी लेने,डाला पानी उसने गिलास में,और लायी उसके लिए, दिया उसे,
पिलाया अपने हाथ से फिर,जब पी लिया, तो रख दिया गिलास एक तरफ,और लगा लिया गले सुरभि को!
"ह'ईज़ा कहाँ है?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई के साथ!" बोली अशुफ़ा!
"कहाँ हैं वे?" पूछा उसने,
"हैं कहीं दूर, एक महीना लगेगा!" बोली वो,
"एक महीना? किसलिए?" पूछा उसने,
"सब जान जाओगी सुरभि!" बोली वो,
"आप बताओ न?" पूछा उसने,
"अभी नहीं सुरभि!" बोली वो,
"नहीं, बताओ मुझे?" बोली सुरभि,
चुपचाप देखे अशुफा उसे,
आँखों में तड़प भी थी और सवाल भी!
किसका जवाब दे पहले?
तड़प?
या सवाल?
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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कुछ सोचा अशुफ़ा ने,
"सुरभि?" बोली वो फिर,
"हाँ?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई, खुद चले गए" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"आप जानती हो, अनजान न बनिए?" बोली अशुफ़ा,
"अभी दूँगी जवाब मैं सुरभि आपको!" बोली वो,
"अभी दीजिये?" बोली सुरभि,
ज़िद सी थी सवाल में,
"दीजिये?" बोली फिर से, अशुफ़ा की बाजू पकड़, हिलाते हुए!
मुस्कुरा पड़ी अशुफ़ा तब!
उस सुरभि की, ज़िद पर!
"सुरभि?" बोली वो,
"बोलिए?" बोली वो,
"फ़ैज़ान आपसे बेहद मुहब्बत करते हैं, जानती हैं आप?" बोली अशुफ़ा,
चेहरा लाल हुआ!
आँखों में, हया का पर्दा खिंचा!
दिल में धड़कन, तेज हुई!
होंठ, लरज पड़े,
और आँखें, नीचे हो गयीं उसकी!
"आप जानती हैं?" फिर से पूछा,
न बोली कुछ!
कैसे करे इक़रार!
ज़ुबान थी तो मुंह में ही,
लेकिन आवाज़ नहीं थी!
आवाज़ नहीं निकल रही थी!
"आप रह लेंगे एक महीना?" पूछा अशुफ़ा ने,
न बोली कुछ!
सर नीचे ही रखे!
अशुफ़ा ने, इस हया पर,
माथा चूम लिया सुरभि का!
"सुरभि!" बोली अशुफ़ा,
सर उठाया,
आँखें कीं ऊपर,
"फ़िज़ां आपसे अब से नहीं, पिछले चार साल से मुहब्बत करते हैं!" बोली वो,
चौंक पड़ी!
चार साल?
पिछले चार साल?
और उसे भनक भी नहीं?
"वे तड़पते थे आपके लिए!" बोली अशुफ़ा!
नज़रें नीची!
"एक एक लम्हा, आपको देखते हुए गुजरता था उनका!" बोली अशुफ़ा!
"अब न रहा गया उनसे!" बोली अशुफ़ा!
एक लम्हे को, देखा अशुफ़ा को उसने,
"आखिर, मुहब्बत के आगे हार गए वो, और जज़्ब नहीं कर पाये!" बोली वो,
अपने हाथों के, नाख़ून, खरोंचे, अपने ही हाथ के, दूसरे नाखूनों से!
"हमने चार साल पहले ही कहा था, कि वो इज़हार कर दें, लेकिन नहीं, उन्होंने मना कर दिया! आपको देखकर ही, सुक़ून ले आते थे, कहते थे, मेरी मुहब्बत एक तरफ़ा ही सही, वे आपसे वाबस्ता तो हैं! हर लम्हे, आपके सलोने रूप का बखान करते थे! बस इज़हार नहीं कर पाये वो! कहते थे, हिम्मत नहीं है, कहीं ठुकरा दिया, तो पत्थर बन, कहीं पड़े रहेंगे..........." बोली संजीदगी से अशुफ़ा,
एक एक अलफ़ाज़,
जैसे आज सैलाब बन कर टूटा था सुरभि पर!
आज जैसे, बहा ले जा रहा था सैलाब उसे!
"आपको हमने बुलाया था सुरभि! उनकी रजा नहीं थी, और सुरभि, ये सपना नहीं, हक़ीक़त है! मैं सच हूँ, ये सहरा, ये धूप, वो ह'ईज़ा, वो फ़ैज़ान सब सच हैं! एक बार इज़हार करना सुरभि, अपनी मुहब्बत का इज़हार! एक लम्हे में ही, आपके सामने चले आएंगे वो!" बोली वो,
और देखा तब सुरभि ने अशुफ़ा को!
मुस्कुरा रही थी!
आगे बढ़,
लगा लिया गले!
"ये सब सच है सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
और तभी आँखें खुल गयीं उसकी!
उठी वो,
जब पानी पिया था,
तो कपड़े पर, पानी गिरा था,
वो कपड़ा अभी भी गीला था!
सुरभि,
सिहर उठी!
कुछ समझ न आये!
ये सपना?
सच है?
ये सब सच है?
सच नहीं है, तो,
उसके आंसू क्यों निकले?
क्यों उसने,
संदेसा भेजा?
क्यों हर लम्हे,
उसे ये सब, घेरे रहता है?
और वो..............
वो फ़ैज़ान?
चार साल?
एक तरफ़ा मुहब्बत?
धम्म से गिरी पीछे,
दिमाग की नसें,
जैसे सूज गयीं उसकी!
सर पकड़ लिया उसने अपना!
उसे,
अशुफ़ा के अलफ़ाज़ सुनाई दें!
वो लू! वो लू छुए!
वो रेत, रेत उड़े!
टीले बनें, रेत की लहरें बनें!
उसके कपड़े, लू में,
फड़-फड़ करें!
एक झंझावात में फस गयी थी उस लम्हे सुरभि!
फिर.....उठी वो!
और!! फिर उठी वो, सीने में, सांस घुटने लगी थी उसकी,
खिड़की तक गयी,
ज़ोर से, खोल दिया उसे!
हवा के झोंके ने स्वागत किया उसका!
पसीने से टकराता हुआ वो हवा का झोंका,
एक सर्द छुअन दे रहा था!
बाहर, लोगों की आमद-जामद शुरू हो गयी थी,
लेकिन उस अलसुबह,
कुछ अलग ही लम्हात थे!
कुछ ख़ास!
कुछ टीसते हुए,
कुछ शिकायत भरे,
कुछ भारी,
और कुछ बेहद ही हल्के!
हल्के, ऐसे हल्के, कि दिखें ही नहीं,
लेकिन उनकी छुअन, ऐसी, कि छील जाएँ अंदर तक!
टीसता रहे बदन!
हवा चल रही थी बाहर,
पेड़ों की फुनगियाँ, हिल रही थीं,
बाहर, गुलमोहर के पेड़, जो लदे थे अपने,
अंगार जैसे फूलों से, हिल रहे थे!
ये उनके लिए आनंद का समय था!
सूर्यदेव अपने रथ पर बस विराजमान होने ही वाले थे,
अरुण, उनके सारथि, उन अश्वों को जांच रहे थे,
कब वो आ बैठते, पता नहीं!
आन, सूर्यदेव, अपना तेज लिए,
आ ही रहे थे!
उनकी सहचरियां, रश्मियाँ, पहले से ही दैदीप्यमान हो चली थीं,
पूर्वी क्षितिज पर, उनकी आमद स्पष्ट देखी जा सकती थी,
लालिमा बिखरी थी उधर!
उनके दरबारीगण, सबसे कनिष्ठ वो बुध-देव,
बस, किसी बिंदु के समान, उनके दक्षिणी सिरे पर जा पहुंचे थे,
प्रातःकाल वे, उनके पीछे चले जाते हैं,
इसी कारण से, नज़र नहीं आते, हम भू-वासियों को!
बुध-देव मात्र अठासी पृथ्वी-दिवस में,
सूर्यदेव की परिक्रमा करते हैं!
पृथ्वी से आंकलन करें, तो एक सौ सोलह पृथ्वी दिवस प्रतीत होते हैं!
और कुछ ही देर बाद, वे चले गए पीछे!
और सुरभि?
वो किसके पीछे जाए?
वो भी तो, परिक्रमा कर रही थी?
बार बार, घूम कर, ठीक वहीँ आ जाती थी,
जहां से परिक्रमा आरम्भ की थी!
उस झंझावत में, ऐसी जकड़ गयी थी कि,
न बाहर आये ही बने, न अंदर रहे ही बने!
करे, तो करे क्या?
सर भन्ना रहा था!
जिस्म, जैसे सुन्न पड़ा था!
सोच, जैसे दफन हो गयी थी गहरी, सवालों की ज़मीन में!
चिकित्सा-विज्ञान की वो छात्रा,
अब खुद ही मर्ज़ पाल बैठी थी!
मरीज़ा हो गयी थी!
तभी अलार्म बजा,
छह बज चुके थे,
वो चली पीछे,
बंद किया अलार्म,
घड़ी में, आज का दिन भी दीख रहा था,
आज इतवार था, छुट्टी थी,
तो आज का दिन, घर पर ही काटना था,
कोई ऐसी सहेली थी नहीं, जिसके पास जाया जाए,
और कहीं जाना, अच्छा नहीं लगता था उसे,
तो यूँ कहें, कि आज वो घर में ही क़ैद थी!
वो चली गुसलखाने,
बाल्टी में झाँका,
तो कोई फूल नहीं,
मग हटाया, तो देखा,
कोई फूल नहीं,
बाल्टी हटा के देखी,
तो कोई फूल नहीं!
दिन की शुरुआत अच्छी न हुई!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने,
केश संवारे और चली बाहर कमरे से,
पिता जी बैठे थे वहीँ, जा बैठी,
पिता जी ने, ग़ौर से देखा से,
माता जी ने अवश्य ही बात की होगी उनसे,
"तबीयत ठीक है बेटी?" पूछा पिता जी ने,
"जी पापा" बोली वो,
"कल खाना नहीं खाया?" पूछा उन्होंने,
"दूध पिया था" बोली वो,
"खाना नहीं खाया न?" फिर से पूछा,
"भूख नहीं थी" बोली वो, बिना नज़र मिलाये,
"क्यों बेटा?" पूछा उन्होंने,
"मन नहीं था" बोली वो,
"कोई परेशानी है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं पापा" बोली वो,
कन्नी काट गयी!
न बताया कुछ भी!
"खाना खाया करो बेटा! हैं?" बोले वो,
"जी पापा" बोली वो,
माँ आ गयी तभी, चाय-नाश्ता लायी थीं,
रखा वहीँ,
"ले बेटी" बोले पिता जी,
अनमने मन से, नाश्ता कर रही थी,
बीच बीच में, रुक जाती थी,
चाय, ठंडी हो चली थी,
माँ की बात सही थी, सुरभि का व्यवहार बदल रहा था,
कुछ न कुछ ऐसी बात ज़रूर थी,
जिसे वो छिपा रही थी, ज़रूर थी!
चाय-नाश्ता हो गया उसका, उठी,
और चली छत पर, पलंग को एक जगह लगाया,
और लेट गयी, आकाश को देखा,
नीला आकाश, सफेद से बादलों के गुच्छे!
शांत आकाश!
और तभी,
उसको वो सहरा याद आया!
वो, मरीब, यमन! वो हाट!
कितना सुंदर था वो सब!
कितना अद्भुत!
स्वर्ग से भी सुंदर था वो सब!
कितने भले लोग!
कितने सीधे और देहाती लोग!
अपने आप में मस्त!
बाहरी दुनिया से, कोई लेना देना नहीं उनका!
फिर याद आई वो,
वो अशुफ़ा!
उसका तम्बू से बाहर आते ही,
अपना कपड़ा उसके सर से बाँध देना!
अंदर ले जाना,
बिठाना, पानी पिलाना,
और वो, वो अलफ़ाज़!
अलफ़ाज़!
जैसे ही याद आये,
बदन में गुदगुदी सी उठी!
लेकिन इस गुदगुदी में,
टीस भरी थी!
बदन जैसे,
उमठने के लिए तलबग़ार था!
ठीक वैसे ही, जैसे,
किसी कपड़े को उमेठा जाता है, निचोड़ा जाता है!
उसने तभी, अपनी एक टांग, दूसरी टांग पर रखी,
और कस लिया बदन को अपने!
बेहद, दिलक़श लगा उसे,
मन किया, ऐसे ही निचुड़ जाए वो,
उमेठ दिया जाए उसका सारा बदन!
मुट्ठियाँ भिंच गयीं!
पांवों की उंगलियां,
अपनी हद तक, मुड़ गयीं!
पलंग भी, आवाज़ कर उठा!
साँसें, गरम हो उठीं,
हलक़ और ज़ुबान, सूख चले,
छाती, ज़ोर ज़ोर से, ऊपर-नीचे हो,
नथुने, गरम सांसें छोड़ें!
बदन से, गरमी फूटे!
बदन में, आतिश महसूस हो!
बदन, जैसे उमठने को आमादा हो!
शरीर में, अंगड़ाईयाँ उठने लगीं!
कभी दायें और कभी बाएं!
जांघें, मिलकर, भिंच जाएँ!
कंधे, गरदन से मिलने को तड़प उठें!
कमर पर, जैसे कोई रेंगे!
बदन, अकड़ने सा लगा उसका,
वो टीस ऐसी, कि गुदगुदाए भी, और तड़पाये भी!
बदन ऐसे दहके कि जैसे सुलगता हुआ कोयला!
बारिश में भीगने का सा मन करे!
बदन में जुम्बिश बढ़ती जा रही थी!
अब तो, पाँव भी पटकने लगी थी वो!
अब इसे आप, असरात नहीं कह सकते!
असरात तो जी पर क़ाबिज़ हुआ करते हैं,
बदन पर नहीं!
और जब बदन, बेक़ाबू हो जाया करता है,
तो यही सब होता है,
खुलने का मन करता है!
अगन जैसे, अंदर ही अंदर, सुलगाये रखती है!
हर अंग, उसका एक एक कोना, दहक उठता है!
आँखें बंद हो चली थीं उसकी!
एक पाँव को, दूसरे पाँव से दबाती थी वो,
कस कर! दोनों बाजू, एक दूसरे में गूंथ, भिंच जाया करती थी!
साँसें, कभी टूट जातीं तो कभी लम्बी खिंच जातीं!
अपनी गरदन कभी इस कंधे टिकाती,
तो कभी उस कंधे!
बदन में जैसे, ज्वार उठा था!
बस ख़लिश ये कि,
भिगो नहीं रहा था!
भीगने का मन था बेहद!
उस पलंग की पट्टियां प्लास्टिक की थीं,
तो चिकनी थीं, एड़ियां रूकती नहीं थीं उस पर!
इसलिए, कमर उठ जाया करती थी उसकी बार बार!
उसने करवट बदली तभी,
बात न बनी!
अगन न बुझी,
तो वो, पेट के बल लेट गयी!
पलंग के किनारों को,
दोनों हाथों से, कस कर पकड़ लिया!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

खींचा उन्हें! तो कमर, अंदर धंसी,
पलंग, चरमराया जैसे!
इसे कहते हैं तड़प!
तड़प, कोई नहीं देता,
ये तड़प, अंदर से ही पैदा हुआ करती है!
पाँव ने पाँव फंसा कर, वो अपने आप में ही सिमट रही थी!
पलंग के किनारे छोड़े,
हाथ अपने कमर पर रखे!
हाथों में, जैसे आग पकड़ी थी उसने,
हटा लिए, सामने वाला पलंग का किनारा पकड़ लिया,
ठंडा लगा, अच्छा लगा, कस कर पकड़ लिया!
और कुछ ही देर में, वो किनारा भी गरम हो गया!
उसकी आह निकल गयी मुंह से!
छोड़ा किनारा,
उठ बैठी,
आँखों से, सबकुछ धुंधला दिखाई दे,
ये ख़ुमारी थी!
उसने क़ाबू किया बदन को अपने!
उठी, और चली ग्रिल की तरफ, बाहर देखा,
गमलों में, फूल खिले थे, रंग-बिरंगे!
वो मुस्कुरा पड़ी!
मुस्कुराहट भी ऐसी, कि उसमे भी हया का रंग चढ़ा था!
वो हटी वहाँ से, और अब नीचे की ओर चली,
नीचे आई, पानी पिया,
पिता जी बस निकल ही रहे थे,
वो कमरे से बाहर आई,
और चली अपने कमरे में,
दरवाज़ा किया बंद,
चुनरी एक तरफ रख दी,
और लेट गयी बिस्तर पर,
ख़ुमारी बनी हुई थी अभी तक बदन में!
बदन में, फिर से ज्वार सा उठने लगा था!
आँखें बंद कीं उसने,
और कुछ ही देर में, पलकें हुईं भारी,
आँखें, डबराने लगीं,
और आई नींद!
नींद आई, तो सपना भी उसके संग चला!
वो पहुंची, एक तालाब के पास,
तालाब बेहद सुंदर था!
चारों ओर, पेड़ लगे थे बड़े बड़े!
रंग-बिरंगे फूल हर जगह!
तालाब के किनारे, पत्थर पड़े थे, सफेद रंग के,
हरी-हरी घास थी, बेहद मुलायम,
कालीन जैसी!
मदमाती बयार बह रही थी,
बदन से छूती, तो नशा सा चढ़ा जाती!
आसमान में, सफेद बादल थे, शफ़्फ़ाफ़ सफेद!
ऐसे सफेद, कि आँखें चुंधिया जाएँ!
वो आगे चली,
एक चढ़ाई सी पड़ी,
उसको पार किया,
जैसे ही पार किया,
सामने कोई खड़ा था, ग़ौर से देखा,
ये तो, फ़ैज़ान था!
अकेले खड़ा था, हल्के नीले रंग के, चमकदार कुर्ते में,
चुस्त पजामी में, सर पर, टोपी पहने, सुनहरी सी,
पांवों में, सुनहरी जूतियां पहने!
और उठी, वही महक!
उसने अपने सर का कपड़ा ठीक किया,
क़दम ठिठक गए थे उसके,
फ़ैज़ान, सामने देख रहा था, चुपचाप खड़े हुए,
अपने दोनों ही हाथ, बांधे हुए,
दिल की धड़कन हुई बग़ावती!
ज्वार, फिर से उठने लगा,
धूप, जैसे अंगार बिखेरने लगी!
बदन में, जैसे, अगन सुलगने लगी!
आँखें हुईं नीचे,
और क़दम, बढ़े आगे!
चलती रही!
चलती रही,
नज़र उठा, फिर से देखा,
ये क्या?
वो तो वहीँ की वहीँ है?
रास्ता छोटा ही नहीं हुआ?
फ़ैज़ान, अभी भी सामने है, थोड़ा दूर!
क़दम रुके,
पीछे देखा,
वो आगे तो आई थी? फिर?
इतना लम्बा रास्ता, बाकी कैसे?
आँखें फिर से नीचे हुईं!
क़दम, नपे-तुले,
फिर से आगे बढ़े,
पास में ही, अराज़ के फूल लगे थे,
तो पौधे थे, उनके कॉफ़ी रंग के फूल, खिले हुए थे!
बीच में, केंद्र पीले रंग का था! बेहद सुंदर फूल!
फिर से आगे बढ़ी,
पौधे, पीछे छूटे,
आई आगे तक,
और सर उठा,
फिर से सामने देखा!
ये क्या? दुबारा?
रास्ता, वहीं का वहीँ?
पीछे देखा,
अराज़ के फूल तो बहुत पीछे थे!
तो क्या,
फ़ैज़ान आगे हो जाता है?
ये हो क्या रहा है?
आसपास देखा,
सब तो ठीक था!
अब उसने फ़ैज़ान को नज़र में ही रखा!
बढ़ी आगे!
बढ़े क़दम!
काफी आगे आ गयी!
लेकिन?
फ़ैज़ान,
अभी भी दूर?
कैसे?
अब चली तेज!
हिम्मत बढ़ गयी थी उसकी!
जाकर,
बात करेगी वो फ़ैज़ान से!
कि ऐसा क्यों?
पूछेगी वो!
ज़रूर पूछेगी!
चल पड़ी, सर उठा, फ़ैज़ान को नज़र में रख, और तेज क़दम बढ़ा!
वो चली तेज! क़दम तेज हो चले थे उसके!
फ़ैज़ान, नज़र में ही बना हुआ था उसके!
लेकिन, जितना भी वो आगे बढ़ती, लगता उसे कि,
उतना ही पीछे खिसक गयी है वो!
वो दौड़ पड़ी!
तेज, बहुत तेज!
लेकिन नहीं!
वो दूरी कम न हुई!
फ़ैज़ान, पूरब की ओर मुंह कर,
हाथ बांधे, जैसे घूरे जा रहा था कहीं!
वो फिर से भागी!
कभी ज़मीन को देखती,
और कभी फ़ैज़ान को!
हांफने लगी थी वो!
लेकिन रुकी नहीं! भागती रही!
भागती रही! और थक गयी!
रुकना पड़ा! क्या करती!
दिल, दिल तो पहले से ही रफ़्तार पकड़े था,
अब तो जैसे बेलग़ाम हो गया!
अपनी धड़कन,
कानों में सुनाई पड़े उसे!
हलक़ सूख चला,
थूक निगलना भारी पड़ने लगा!
मुंह से, हांफने की आवाज़ें आने लगीं!
नथुने, फड़कने लगे थे!
अब घबराई वो! घबरा गयी थी!
कि फ़ैज़ान तक, वो क्यों नहीं पहुँच रही?
और फ़ैज़ान?
जैसे पत्थर की मूर्ती बन गया था!
माशा भर भी, नहीं हिल रहा था!
क्या करती?
फिर से भागी!
तेज, और तेज!
हाँफते हुए!
दौड़ते हुए!
बदन का संतुलन गड़बड़ाया!
और धम्म से गिरी घास पर!
कमाल था!
तब भी न देखा फ़ैज़ान ने?
वो उठी, कोशिश की,
टांगें, कांपने लगी थीं!
अब बसकी न था दौड़ पाना, नहीं तो फिर गिर जाती!
आँखों में, नमी सी आई!
सांसें, बेकाबू तो थीं ही पहले,
अब साथ छोड़ने लगीं!
और तब!
"फ़ैज़ान!!" चिल्ला के बोली वो,
बैठे बैठे ही!
"फ़ैज़ान?" फिर से चिल्लाई!
लेकिन फ़ैज़ान?
न सुने!
न देखे!
कोई असर ही न पड़े!
जो आवाज़, पहले ज़ोर से लगाई थी,
उसमे ज़ोर था!
और धीरे धीरे वो ज़ोर, अब, कमज़ोर पड़ने लगा था!
और एक वक़्त ऐसा भी आया,
कि मुंह से, 'फ़ैज़ान' निकला ही नहीं!
बस दिल ही दिल में, उसका नाम ले, चीखती रही!
आंसू, निकल आये उसके!
झिलमिला गया सारा नज़रा वहां का!
सिसकियाँ फूट पड़ीं!
अलफ़ाज़, 'फ़ैज़ान' टूट-टूट कर निकलने लगा मुंह से!
रोती जाये, और दिल ही दिल में,
चीखती जाए उसका नाम!
"फ़ैज़ान? हमें मुहब्बत है आपसे! आप देखें हमें! हम पुकार रहे हैं आपको! हमसे नहीं रहा जाता अब! हमें देखो! देखो हमें! हम, यहां रो रहे हैं! आपने क़ौल लिया था हमें न रुलाने का! देखो हमें, इतना तो हम, कभी न रोये! फ़ैज़ान, देखो हमें! देखो! फ़ैज़ान! देखो हमने!" बोली दिल में,
और रुलाई फूटी!
और फ़ैज़ान, जस का तस, वहीँ खड़ा रहा!
रोते रोते, सर नीचे जा लगा!
और तभी, किसी के पाँव दिखे उसे,
उसने सर उठाया अपना,
ह'ईज़ा और अशुफ़ा थीं वो,
झुकी एक साथ, आंसू पोंछे उसके,
गल से लगाया उसे,
खुद में नहीं थी आज सुरभि!
उनसे लग, रो पड़ी, रहा सहा भी न शेष बचा आँखों का पानी!
"वो, फ़ैज़ान, नहीं सुन रहे हमें, नहीं देख रहे!" बोली वो सिसकियाँ लेते लेते!
एक शिक़ायत भरा लहजा!
एक इल्तज़ा से भरा लहजा!
"सुरभि?" बोली ह'ईज़ा!
देखा ह'ईज़ा को उसने, बेखुदी में,
"जाओ! जाओ अपने फ़ैज़ान के पास! जाओ!" बोली ह'ईज़ा!
अपना फ़ैज़ान!
दौड़ पड़ी वो!
और तब, दूरी कम होने लगी!
फ़ैज़ान घूमा!
सुरभि को देखा आते हुए,
लपक कर आगे बढ़ा,
बाजू खुल गए उसके,
और तब! तब अपनी मज़बूत बाजुओं में, जकड़ लिया सुरभि को!
सुरभि फिर से रोये!
फ़ैज़ान के बदन से, बेल की तरह चिपके!
फ़ैज़ान के कंधे से भी नीची थी वो,
फ़ैज़ान, उसको बांधे खड़ा था!
आँखें बंद किया!
चार बरस पहले का कच्चा फल, आज पका था!
ह'ईज़ा और अशुफ़ा, चली गयीं थीं!
"अब न रोओ सुरभि, हमारी जान जाती है...." बोला वो,
न माने सुरभि!
उसकी जान लेने पर आमादा हो!
वो बार बार समझाये, बुझाए!
न माने, रोये वो!
चिपके, कस दे उसे!
और नज़ारा बदला!
ये एक खूबसूरत पहाड़ी थी!
झरने बह रहे थे!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू फैली थी!
तितलियाँ उड़ रही थीं!
और तब,
तब हट सुरभि उसके सीने से!
मुस्कुराया फ़ैज़ान!
"सुरभि!" बोला वो,
आँखों में झाँका, गहराई तक!
"हमारी सुरभि!" बोला वो,
और न रोक पाया अपने आपको!
लगा लिया गले उसे!
और जब हटाया,
तो फिर से देखा उसे!
"हम एहसानमंद हुए आपके सुरभि!" बोला वो,
सुरभि सुने सब!
कहे कुछ नहीं!
"आपकी मुहब्बत के हम, एहसानमंद हो गए आज!" बोला वो,
और सुरभि का हाथ पकड़ा,
हाथ चूम लिया सुरभि का!
सुरभि के बदन में अंगार फूट पड़े!
आँखें बंद हुईं,
खुलीं तब,
जब फ़ैज़ान ने,
उसका माथा चूमा!
"सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने देखा उसे!
"हमने इंतज़ार किया आपका!" बोला वो,
सुरभि ज़रा सा मुस्कुराई!
इतना ही बहुत था फ़ैज़ान के लिए!
"आइये सुरभि!" बोला वो,
और उसको साथ ले,
जैसे ही पलटा,
सामने, एक खूबसूरत इमारत थी!
बेहतरीन और चमकीले नीले रंग से,
त'आमीर हुई थी!
धूप पड़ थी उस पर,
और आसपास,
सारा और सबकुछ, नीले रंग से झिलमिला रहा था!
"आइये!" बोला वो,
और ले चला उसको संग अपने,
उसी चाल से, जिस चाल से सुरभि चल रही थी!
वो ले चला सुरभि का हाथ पकड़े अंदर!
पीछे पीछे, ह'ईज़ा और अशुफ़ा भी चली आई थीं!
वे एक कक्ष में में आये,
सुरभि ने उस कक्ष को देखा!
ऐसा कक्ष तो उसने, कभी देखा ही नहीं था,
देखना छोड़िये, सुना भी नहीं था!
ऐसा आलीशान था वो कक्ष!
काले रंग का एक मोटा सा कालीन बिछा था उसमे!
उसमे पीले रंग के धागों से, फूल, सुराही और बेल-बूटे बने थे!
दो पलंग पड़े थे वहाँ,
सुनहरी पलंग थे, सुनहरी बड़ी बड़ी चादरें पड़ी थीं उन पर,
दीवारों पर, सोने का जैसे मुलम्मा चढ़ा था!
उस मुलम्मे पर, पच्चीकारी की गयी थी!
चित्र से उकेरे गए थे बाग़, नदी और पहाड़ों के!
बड़ी बड़ी कुर्सियां पड़ी थीं वहां, सोने की हों जैसे,
लाल रंग की गद्दियाँ पड़ी थीं उन पर!
मेज़ रखी थीं, हर कोने में एक एक,
कुल चार थीं वो, उस कक्ष से दो रास्ते और जाते थे आगे,
छत पर, झाड़-फानूस टंगे थे!
उनमे भी सोना लगा था, रत्न जड़े गए थे!
बड़े बड़े सुनहरी पर्दे लगे थे! उन पर, काले रंग की लकीरें थीं!
एक पलंग के पास लाया फ़ैज़ान सुरभि को,
वो पलंग ऊँचा था, सुरभि बैठ न सकती थी उस पर!
"आइये सुरभि!" बोला वो,
और उसको, उठाकर, बिठा दिया उसने!
और खुद, साथ वाली बड़ी कुर्सी पर बैठ गया!
"ह'ईज़ा, खाने का इंतज़ाम कीजिये!" बोला वो,
"जी!" दोनों ही बोलीं,
और दोनों ही चलीं!
जब चली गयीं, तो फ़ैज़ान ने अपने कुर्ते की जेब से,
कुछ निकाला, बढ़ाया आगे हाथ अपना,
"सुरभि? हाथ दीजिये?" बोला वो,
सुरभि ने, आगे हाथ कर दिया अपना,
उसने अपना हाथ रखा उसके हाथ में,
और रख दिया कुछ,
देखा सुरभि ने, ये एक सोने की ज़ंजीर थी!
बीच में, एक बड़ा सा हीरा जड़ा था, गुलाबी रंग का!
"पहन लीजिये! आपके लिए ही रखा था हमने संभाल कर!" बोला मुस्कुराते हुए!
अपने हाथ में ही रखे रही उसे!
न पहना!
"पहन लीजिये? हम देखना चाहते हैं!" बोला वो,
इल्तज़ा थी उसे सवाल में,
और एक, ख़्वाहिश भी!
दबी हुई, उस सवाल में!
नहीं पहना सुरभि ने!
उठा फ़ैज़ान,
लिया हाथ से उसके,
और खुद,
अपने हाथों से पहना दिया!
जैसे ही पहनाया, वो देखता रह गया उसे!
और सुरभि!
सुरभि उस पल,
हया के चिलमन में जा छिपी!
"सुरभि! बेहद सुंदर हो आप! बेहद सुंदर!" बोला वो,
सुरभि, कुछ न बोली!
बस अपनी ऊँगली से,
उस हीरे को छुए!
"सुरभि, हमें फ़रेब पसंद नहीं! हम फ़रेब नहीं करते, आपसे कुछ न छिपाएंगे, आपने अपनी मुहब्बत से नवाजा है हमें, हम आपके एहसानमंद हैं, छिपाना मुमकिन ही नहीं! हम बताते हैं आपको सब, फिर आपकी मर्ज़ी सुरभि, जैसा चाहो, जो चाहो, आपकी मर्ज़ी! हम आपसे कभी ऊँची ज़ुबान में भी बात नहीं कर सकते, आपके साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है सुरभि! हम बताते हैं!" बोला वो,
हुआ खड़ा,
आया पलंग तक,
देखा सुरभि को,
आँखों में, एक डर सा,
साफ़ झलक रहा था उसकी!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

"हम यहां बैठ जाएँ? आपकी इजाज़त हो तो?" बोला वो,
इस सवाल से, मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
उसने हमी तो भर ही ली थी मुस्कुरा कर,
लेकिन वो फ़ैज़ान, ये न समझ सका!
आँखों में डर लिए,
सहमा सा वो फ़ैज़ान,
खड़ा ही रहा,
कुछ देर हुई, तो पीछे जैसे ही लौटा,
सुरभि ने, कुरता पकड़ लिया,
"बैठिये!" बोली सुरभि!
एक दूरी बना कर, एक हाथ भर की,
वो बैठ गया उस पलंग पर,
वो समझ नहीं सका था पहले,
शायद सुरभि ने इजाज़त नहीं दी,
तो लौटने वाला था कुर्सी पर ही!
तभी कुरता थाम लिया था सुरभि ने,
इस बात से, फ़ैज़ान और गहरा उतर गया सुरभि के दिल में!
और तब,
तब फ़ैज़ान ने उसे, डरते, सहमते, लरजते,
सब बता दिया अपने बारे में,
अशुफ़ा के बारे में, ह'ईज़ा के बारे में,
सुरभि, सच में, कुछ न समझी!
उसे ऐतबार न हुआ!
"हम आपके लिए जैसे आज हैं, वैसे ही रहेंगे सुरभि!" बोला वो,
कांपती हुई आवाज़ में!
सुरभि उसे, ग़ौर से देखे,
और फ़ैज़ान डरे!
"हम खुद कभी नहीं आएंगे आपके पास, चाहे हम तड़प उठें, जब तक आप नहीं बुलाएंगे, हम नहीं आएंगे आपके पास, ये क़ौल भी देते हाँ आपको!" बोला वो,
सहम रहा था, डर रहा था!
कि न जाने, कब मना कर दे सुरभि!
"जब आप हुक़्म करेंगे कि हम अपनी शक़्ल न दिखाएँ कभी, तो हम कभी नहीं आएंगे, ये क़ौल भी दिया आपको!" बोला वो,
चुपचाप सुन रही थी सुरभि!
जो भी वो कहे जा रहा था, वो सब!
"और एक क़ौल हम आपसे भी लेना चाहते हैं, सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने आँखों से ही पूछा उस से कि क्या?
लेकिन, वो नहीं समझा!
मुस्कुराई वो, बस!
"क्या?" बोली वो,
"आप, कभी हमें हमेशा के लिए रुख़सत किये बग़ैर, किसी और का हाथ..." रख दिया हाथ सुरभि ने उसके मुंह पर! और हंस पड़ी अबकी बार तो!
वो हंसी, और सब्र पड़ा उसे,
अब मुस्कुराया वो!
हुआ खुश बहुत!
और तभी वे दोनों, ले आयीं सामान खाने का!
अशुफ़ा ने, जब सुरभि के गले में पड़ा, वो हीरा देखा,
और मुस्कुरा पड़ी! सुरभि का हाथ पकड़ा, और अपने गालों पर,
दोनों तरफ छुआ दिया!
और चूम लिया उसका हाथ!
ऐसा ही फिर ह'ईज़ा ने किया!
मित्रगण!
अब यहां से होता है असली मामला शुरू!
अशुफ़ा और ह'ईज़ा ने, बेहद ख़िदमत की उसकी!
हाथ पोंछे फिर, फ़ैज़ान ने उसके!
खिला दिया खाना उसे!
और तब, आराम करवाने के लिए,
वे दोनों ले गयीं संग अपने,
उधर, जब आँख लगी सुरभि की,
तो इधर खुल गयी!
चौंक के उठी ज़रूर!
लेकिन अब, मुहब्बत पल रही थी दिल में उसके,
वो उठी,
दर्पण तक गयी!
उस रूप, बदल चुका था!
बदन से जैसे, जलाल टपकने लगा था!
आँखें सुरमयी हो गयी थीं!
एक एक अंग, अपने चरम पर जा पहुंचा था!
और पड़ी नज़र उसकी,
उस हीरे पर!
उसने उतारा उसे,
उसको हाथ में पकड़,
बैठ गयी!
और चूम लिया!
आँखें बंद हुईं उसकी!
फ़ैज़ान के क़ौल याद आये,
उसका वापिस लौटना,
अपनी कुर्सी पर,
और इंतज़ार करना, उसका, 'क्या?' कहने का,
सब याद आ गया उसे!
आँखों में फ़ैज़ान का अक्स,
दिल में मुहब्बत,
बदन में रवानगी, ख़ुमारी दौड़ गयी!
सुरभि, अब महबूबा थी, एक जिन्न, फ़ैज़ान की!
तो मित्रगण! अब उनका इश्क़, फलने-फूलने लगा! अब सुरभि का व्यवहार, बदल गया था, वो अब सबसे कट के रहने लगी थी! हाँ, पढ़ाई में वो अव्वल ही थी, समझा जा सकता है कि कैसे! घर में, अब बात ही न करती किसी से, कभी करती भी, तो हां-हूँ में ही करती! भाई से कोई बात नहीं, कुणाल से, और अपने त'ऐरे भाइयों से भी बात न होती उसकी!
ऐसा ही होता है, जब इंसान, इन जिन्नाती मंज़रात, खान-पीन और उनके संग रहने लगता है, तो ये इंसानी दुनिया, उसके लिए बेमायनी हो जाती है! सुरभि के साथ भी कुछ ऐसा ही था! सुरभि जब भी बुलाती, उन तीनों को, तो आ जाते! फ़ैज़ान तो उसे, पता नहीं कहाँ कहाँ घुमाता! सुरभि भी, उनके संग ही खुश रहती क्या सुबह और क्या शाम! अब हुई माता-पिता को चिंता! क्या किया जाए? हुई सलाह-मशविरा! रिश्तेदारी में भी बात जा पहुंची, कोई मानसिक-रोग कहे, और कोई, ऊपरी-चक्कर!
अब जब, इंसान परेशान होता है तो वो, इमारत और झोंपड़ी,
दोनों में ही जाता है, उसका इलाज ढूंढने!
वही हुआ जी! वे उसको मानसिक-चिकित्स्क के पास ले जाते,
तो सुरभि उसको ही ये एहसास करवा देती कि उसकी पढ़ाई कम है!
कई चिकित्सक दांतों तले उंगलियां दबा गए!
अब क्या करें?
झाड़-फूंक करवाएं?
ये भी आजमाएं?
तो साहब, एक भगत के बारे में पता चला,
ये, मथुरा से थोड़ा पहले ही रहता था,
उस से बात की,
उसने कई बातें बतायीं,
कि पक्का है कि उसके ऊपर कोई प्रेत है!
साया है उसका, और वो, हटा देगा उसको!
पकड़ के ले आएगा, बाँध के ले जाएगा, चाकरी करवाएगा!
उसके तो पाँव पकड़ लिए सुरभि के पिता जी ने!
और एक दिन निर्धारित हो गया,
सामान के लिए, रकम भी ले ली,
तो इस तरह,
उस निश्चित दिन,
अपने एक चेले के साथ आ पहुंचा घर,
घर की झाड़-फूंक की उसने,
घर में, काले चुटीले बाँध दिए!
"कहाँ है लड़की?" पूछा उसने,
"अपने कमरे में है" बोले पिता जी,
"दिखाओ?" बोला वो,
और ले चले उसे संग अपने,
दरवाज़ा खुलवाया,
अंदर, कुर्सी पर बैठी थी सुरभि!
"ए लड़की?" बोला वो,
सुरभि हुई खड़ी!
आया गुस्सा! लेकिन पिता जी थे,
इसीलिए चुप रही वो!
"इधर आ?" बोला वो,
वो नहीं आई!
"नहीं आती? मैं आता हूँ!" बोला वो,
और जैसे ही चला उसके पास!
वो उठा हवा में!
और जा लगा छत से!
चीख निकल गयी उसकी तो!
झोला गिर पड़ा नीचे!
और जब वो गिरा, तो फिर से घसीटा गया!
और फेंक दिया बाहर, दीवार पर मारकर!
सर फूट गया था उसका!
चेला तो, बाहर भाग गया था!
वो भी उठा, और लंगड़ाते हुए, बाहर भागा!
उस भगत की तो भगताई छूट गयी होगी उस दिन से!
लेकिन जो पिता जी ने देखा था,
उस से भय खा गए थे वो!
अब तो, सुरभि से बात करते भी डरें सब!
तलाश हुई किसी बढ़िया आदमी की!
एक आदमी के बारे में पता चला,
वो ग़ाज़ियाबाद में रहता था, भीड़ लगी थी वहाँ,
वो भी पहुंचे, माता जी और पिता जी,
आया उनका भी नंबर,
बताई समस्या उसे,
उसने तभी देख लड़ाई,
अब लड़ाई तो ज़रूर!
लेकिन उसकी देख, वापिस न लौटी!
उसका प्रेत, पकड़ लिया गया था, और पता नहीं कहाँ फेंक दिया गया था!
वो तो हड़बड़ा गया!
घबरा गया! साफ़ मना कर दिया!
हाथ कर दिए खड़े उसने!
मायूस हो, वे दोनों वहाँ से वापिस हुए,
और वक़्त गुजरा,
सुरभि से अब कोई बात न करे, वो अब सुनती ही नहीं थी किसी की!
सभी परेशान थे उसको लेकर,
आदमी की तलाश ज़ारी थी,
और मिल गया एक आदमी, उसने पैसे लिए मोटे,
और चल पड़ा उनके साथ, उनके घर,
उसकी सेवा की गयी, खिलाया-पिलाया गया!
और तब, उसने लड़की को देखने के लिए कहा,
ले गए उसको,
कमरा खुलवा दिया,
उस आदमी ने, कुछ सामान जो लाया था वो,
रखा उधर, जैसे ही रखा, आग लग गयी उसमे!
बड़ी मुश्किल से बुझाई!
उस आदमी ने, अब लड़ाए मंत्र!
और जैसे ही सुरभि का माथा छूने चला,
वैसे ही एक लात पड़ी या घूँसा पड़ा उसके मुंह पर!
जबड़ा टूट गया उसका!
दांत निकल पड़े बाहर!
न चिल्लाते बने,
न बोलते बने,
ले जाया गया उसको अस्पताल!
उसका जबड़ा चार जगह से टूटा था, शुक्र था, कि दिमाग तक चोट नहीं पहुंची थी,
नहीं तो मर ही जाता!
उसमे मंत्र, सब धरे रह गए!
अब क्या किया जाए?
घर में शादी आने वाली थी नीरज की,
अब करें तो करें क्या?
रात को उसके कमरे से आवाज़ें आतीं,
रौशनी दीखती दरवाज़े से,
रौशनदान से,
जब दरवाज़ा खुलवाते, तो कुछ नहीं!
और बीता समय!
ब्याह भी हो गया नीरज का,
सुरभि न गयी, भाइयों ने बहुत इंतज़ार किया, नहीं गयी!
इस तरह,
दो और आये ऐसे आदमी,
सभी फूट-फाट के चले गए!
अब घर का माहौल बिगड़ने लगा,
वे अब न बुलाते किसी भी परिजन को,
मानसिक दुःख होता सभी को,
और सुरभि,
अपने आप में मस्त!
कभी खाया, कभी नहीं!
अपनी मर्ज़ी से बात करती,
अपनी मर्ज़ी से बात न करती!
सुबह से शाम तक,
शाम से सुबह तक,
अपने कमरे में बंद रहती!
वो सहरा घूमती,
पहाड़ों पर घूमती,
हाटों में जाती,
जहां कहती, वहां ले जाया जाता!
जो खाना होता, झट से हाज़िर!
लेकिन एक बात,
समय काफी हो चला था,
सुरभि,
अप्सरा समान सुंदर दीखती थी,
रूप-यौवन, सर चढ़ के बोलता था!
लेकिन अपने आप में मस्त!
इसी तरह, तलाश चलती रही,
और तब, नीरज के ससुर साहब ने,
इसी विषय में, शर्मा जी से बात की,
उन्होंने मुझे बताया,
मैंने मिलने के लिए हाँ कह दी,
उनसे मुलाक़ात हुई,
सुरभि के माता-पिता जी आये थे,
मैंने सारी बात सुनी,
वे रोने लगे थे दोनों ही, बहुत दुखी थे,
देखा नहीं जाता जब कोई माँ-बाप ऐसे रोते हैं तो,
मैंने, जल्दी ही चलने को कह दिया उनको!
सारी बात सुन ली थी, कुछ सवाल जवाब भी किये,
एक एक बात पर ग़ौर किया,
देख न लड़ाई,
हो सकता था, किसी ने कुछ किया-करवाया हो,
लेकिन उसके लिए,
सबसे पहले, मुझे सुरभि से मिलना था!
उस से मिले बग़ैर कोई भी क़दम उठाना सही नहीं था!
वो इतवार का दिन था,
और सुबह के ग्यारह बजे थे, हमे लेने,
सुरभि के पिता जी आ गए थे,
हम बैठे गाड़ी में, और चल पड़े सुरभि के घर!
हम जा पहुंचे सुरभि के घर,
जैसे ही मैंने क़दम रखा घर में,
मुझे, इबार(जिन्नाती ख़ुश्बू) की महक आई,
मैं रुका और.........................!!
इबार की वो ख़ुश्बू, भीनी भीनी सी, वहाँ मौजूद थी, अब मैं समझ गया था, कि ये ज़रूर एक जिन्नाती मामला था! और ये भी, कि मुझ से पहले वो आदमी आये थे यहां वो क्यों मार खा के गए थे! अब देखना ये था, कि वो जिन्न किस तबक़े से त'आलुक़्क़ात रखता है! जिसके फेर में ये लड़की, सुरभि पड़ गयी है! हम अंदर आ चुके थे, बैठे, पूरे घर में इबार की ख़ुश्बू फैली थी! मैंने वहां, तब ही, कलुष-मंत्र जागृत किया, और नेत्र किये पोषित, अपने भी और शर्मा जी के भी, छोटा बैग अपने साथ में ही रखा, ये ज़रूरी भी था, अभी तक सभी यहां से, मार खा के गए थे, इसीलिए, सुरभि के माता-पिता जी, अभी भी संशय में ही थे, मैंने उनको ढांढस बंधाया, चिंता न करने की सलाह दी!
"ले चलिए सुरभि के पास!" कहा मैंने,
"आइये" बोले वो,
और हम चल पड़े,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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