सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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उसके कमरे तक पहुंचे,
सुरभि को आवाज़ दी,
उसने दरवाज़ा खोला,
और पहली बार मैंने उस सुरभि को देखा,
बेहद सुंदर लड़की है वो,
उसका बदन ऐसा सजीला और यौवन से भर गया था कि,
जो एक बार देखे, सो देखता रह जाए,
आँखें ऐसी सुंदर, कि नज़र हटे ही नहीं उस से,
रूप-रंग बेहद गोरा था, हाथ लगाओ, मैली हो, ऐसी है सुरभि!
उसने हमें देखा,
और आने दिया अंदर,
उस ऐतबार था फ़ैज़ान पर,
अब तक कुछ न हुआ तो अब क्या होगा,
कनखियों से देखा, मुस्कुराई वो!
वो बिस्तर पर जा बैठी,
और हम, वहीँ कुर्सियों पर,
उसके पिता जी को मैंने, बाहर भेज दिया था!
वो बिस्तर पर बैठ, हमें देख रही थी!
और मैं उसके हाव-भाव को!
उसे कोई डर न था, कैसा भी,
"सुरभि नाम है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और उसका?" पूछा मैंने,
वो चौंकी!
आँखें चौडीं कीं,
"किसका?" पूछा मैंने,
"तुम्हारे उस आशिक़ जिन्न का!" का मैंने,
मैं जान गया था, ये जानकर, वो थोड़ा परेशान हुई!
नै बोली कुछ भी,
"बताओ?" कहा मैंने,
"चले जाओ यहां से?" बोली वो,
गुस्सा आ गया था उसे मेरे सवाल से!
"तुम बता दोगी तो ठीक है, नहीं तो मैं ही बुला लूँगा उसे!" कहा मैंने,
वो थोड़ा और परेशान हुई!
मैं यही चाहता था!
"बुलाओ?" कहा मैंने,
"जाओ यहां से?" अब ज़ोर से बोली वो,
"सुन लड़की! आराम से सुन! तू बुलाती है, या मैं ही बुलाऊँ?" कहा मैंने,
वो खड़ी हो गयी!
और मैं भी खड़ा हुआ,
चला उसकी तरफ! रुका पास जाकर!
"बुलाती है या?" धमकाया मैंने!
वो थोड़ा और परेशान हुई!
"ठीक है, मैं ही बुलाता हूँ!" कहा मैंने,
मैं जानता था, कि कोई भी जिन्न किसी भी पराये मर्द को हाथ नहीं लगाने देगा, किसी भी सूरत पर उसे! और यही तोड़ था मेरे पास!
मैंने एक ही झटके से उसके बाल पकड़ लिया,
उमेठ दिए, उसने हाथ-पाँव चलाये अपने,
लेकिन उसका सर, ऐसे मोड़ा था मैंने कि,
वो कुछ कर नहीं सकती थी! शर्मा जी खड़े हो गए थे!
और तभी हमारी कुर्सियां घिसट चलीं!
वो पलंग, हिलने लगा!
आया एक हवा का तेज झोंका अंदर!
खिड़की के पल्ले बज उठे तेज!
"छोड़ दो उसे!" गूंजी आवाज़ एक!
भारी, मर्दाना आवाज़!
और वहीँ उसी के पास, एक जिन्न हाज़िर हुआ!
मैंने छोड़ दिया उसे!
मक़सद पूरा हो चुका था मेरा!
झट से लपक कर, उसके सीने जा लगी सुरभि!
मैंने पहली बार उसे देखा था उस दिन!
बेहद ख़ूबसूरत है वो!
काले कुर्ते में था वो, नीली आँखें, सुनहरी बाल,
घुंघराले, चौड़ा सीना और मज़बूत जिस्म!
जिस्म के सभी बाल भी सुनहरे थे!
अपने सीधे हाथ में, एक अंगूठी पहने हुआ था वो,
नीला सा पत्थर जड़ा था उसमे!
हल्की सी दाढ़ी और मूंछें,
वो भी सुनहरी,
नीचे, सलवार, नीले रंग की,
पांवों में जूतियां, सुनहरी रंग की और उस पर सोने का काम हुआ, हुआ था!
सुरभि उसके कंधे से भी नीचे थी,
आधी छाती तक ही,
उसके दोनों कंधों को, एक ही बाजू से ढका था उसने,
सुरभि कोई, गुड़िया सी लग रही थी उसके सामने!
"चलें जाएँ आलिम साहब, गुज़ारिश है" बोला वो,
मैं तो सन्न रह गया!
उसकी महबूबा को, एक तरह से मैंने तंग ही किया था,
लेकिन वो, बजाय गुस्से के, गुज़ारिश कर रहा था!
जान गया था मेरे इल्मात के बारे में,
उसने इज़्ज़त बख़्शी थी मुझे और मेरे इल्मात को!
मैं इसीलिए सन्न रह गया था!
पहली नज़र में, मुझे वो, एक भला और नेक जिन्न लगा!
"क्या नाम है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"फ़ैज़ान आलिम साहब" बोला वो,
"कहाँ से हो?" पूछा मैंने,
"यमन के सहरा से, वहाँ से त'आलुक़्क़ात है हमारा" बोला वो,
"क्यों इस लड़की के पीछे पड़े हो?" पूछा मैंने,
"पीछे नहीं पड़े आलिम साहब, ऐसा कह, आप हमारी मुहब्बत को नाजायज़ न ठहराएं" बोला वो,
बेहद नज़ाक़त से बात कर रहा था वो!
एक एक अलफ़ाज़, जैसे छन के आता था उसके मुंह से!
"कैसी मुहब्बत फ़ैज़ान? ये मुहब्बत कहाँ है? सिर्फ इसके जिस्म से मुहब्बत है तुम्हे!" कहा मैंने,
उसने ये सुन, अपने आँखें बंद कीं!
और फिर खोलीं,
"जिस्म से हमने मुहब्बत नहीं की, आप अपने अलफ़ाज़ वापिस लें, हमने इनके बजूद से मुहब्बत की है!" बोला वो,
"कैसा वजूद फ़ैज़ान? हम आदमजात मिट्टी हैं, और तुम आतिश, अब भला क्या मेल? कैसे जायज़ हुई ये मुहब्बत?" पूछा मैंने,
"काश कि हम आदमजात होते, काश कि हमें कोई जिन्न की जगह न जानता, इसका हमें अफ़सोस है, हम, आप यक़ीन मानें आलिम साहब, मिट्टी बन कर ही इनसे मुहब्बत करते हैं" बोला वो,
वो आदमजात बनने को भी राजी था!
ये सच में मुहब्बत थी?
या फिर, महज़ जोश?
उसने मुझे मज़बूर किया सोचने पर!
"कौन से जिन्न हो तुम फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"हम ताहेला हैं" बोला वो,
ताहेला! अव्वल क़िस्म के जिन्न!
बेहद ताक़तवर! बेहद त'आलीमयाफ्ता जिन्न!
ख़लील के बराबर! यूँ कहें, उस से भी ज़रा ऊपर!
यमन, जौरडन आदि देशों में ये रहते हैं!
ये मददग़ार जिन्न हैं,
कई रेगिस्तानी क़बीले इनको बेहद मानते हैं!
"फ़ैज़ान?" कहा मैंने,
"जी, फ़रमायें?" बोला वो,
"ज़रा सा सोचो तुम?" बोला मैं,
"इशारा करें?" बोला वो,
"तुम ताहेला हो! तुम्हे एक से एक महबूबा मिलेगी! तुम्हारी ही क़िस्म में, कोई कमी नहीं,
और वो जायज़ भी है, ये एक आदमजात है, इसके क़ायदे-क़ानून अलग है तुमसे, इसे वहां कोई नहीं क़ुबूलेगा और तुम्हें, यहां कोई नहीं क़ुबूलेगा!" कहा मैंने,
"बजा फ़रमाया आपने आलिम साहब! हम आपकी बात, नहीं काट रहे, जो आपने कहा, ठीक कहा, लेकिन, हम एक-दूसरे को क़ुबूल हैं, और ये ही मुहब्बत है!" बोला वो,
"ये कोई मुहब्बत नहीं है!" कहा मैंने,
"तो आप बताएं, क्या है?" पूछा उसने,
"ये ज़बरदस्ती है, इस लड़की के साथ, ये असरात में है!" कहा मैंने,
"नहीं आलिम साहब! कोई असरात नहीं, कोई ज़बरदस्ती नहीं!" बोला वो,
"है फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"मान लो फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
वो चुप हुआ,
सर पर हाथ फेरा सुरभि के,
और चूम लिया सर उसका!
वो सच में, बेपनाह मुहब्बत करता है उस से!
"एक बात कहें? इजाज़त दें?" बोला वो,
"ज़रूर फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"वो मोहतरमा तन्वी साहिबा और वो जनाब ख़लील, उनका क्या?" पूछा उसने,
ताड़ गया था वो!
मैं जानता था,
वो ज़िक्र करेगा इसका, कर दिया!
"देता हूँ जवाब!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"मैंने उसको असरात से जुदा रखने को कहा था, रखा गया! और ख़लील से मेरा क़ौल बंधा था, इसीलिए, मुझे हटना पड़ा!" कहा मैंने,
"यही तो हम कह रहे हैं आलिम साहब!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इन पर, कोई असरात नहीं हैं!" बोला वो,
"तुम नहीं जानते शायद! या जानबूझकर अनजान हो!" कहा मैंने,
"हम, बखूबी जानते हैं!" बोला वो,
"एक बात जानते हो?" बोला मैं,
"जी बताएं?" बोला वो,
"मैं चाहूँ, तो तुम, चाहकर भी, इस से नहीं मिल सकते!" कहा मैंने,
"जानते हैं हम!" बोला वो,
"फिर भी नहीं डर लगा रहा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
कमाल था!
मुझे दुबारा हैरत में डाला उसने!
"कैसे डर नहीं फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"एक वजह है!" बोला वो,
मुस्कुराते हुए!
"कैसी वजह?" पूछा मैंने,
"आप नेक-दिल इंसान हैं! इसीलिए नहीं डर लग रहा!" बोला वो,
ओह!
उसने तो मुझे हो नाप दिया था!
मुझे ही मेरे अंदर तुलवा दिया था!
उसका ऐसा यक़ीन मेरे ऊपर?
"नहीं फ़ैज़ान! मुझे इंसानी क़ायदे के लिए, ऐसा करना होगा!" कहा मैंने,
"आप नहीं कर पाएंगे!" बोला वो,
"ऐसा यक़ीन?" पूछा मैंने,
"ऐसा नहीं आलिम साहब, पक्का यक़ीन!" बोला वो,
उसने, तब, उस सुरभि को,
लिटा दिया बिस्तर पर, आराम से,
जैसे किसी गुड़िया को लिटाया हो बिस्तर पर,
और फिर देखा मुझे, मुस्कुराते हुए!
"हम चार बरस से, इनकी मुहब्बत दिल में पाले हुए हैं आलिम साहब!" बोला वो,
"बे-बुनियाद मुहब्बत!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया!
"आपके लिए, ये बे-बुनियाद ही सही आलिम साहब! हमारे लिए, हमारे वजूद के मायने हैं!" बोला वो,
आवाज़ में, दम था! बोलने में, दृढ़-संकल्प था! आत्म-विश्वास था!
उसकी मुहब्बत उसके लिए उसका वजूद थी!
मुझे ये बात बहुत अंदर तक, डरा गयी थी,
और फ़ैज़ान पर, कुछ विश्वास भी आया!
ज़िद्दी होना उनका स्वभाव होता है!
ये तो फ़ितरत है उनकी!
और, जिस पर रजू हुए, तो समझो ग़ुलाम हुए उसके,
कुछ भी कर गुजरेंगे वो उसके लिए!
और जिस पर गुस्सा हुए,
तो ऐसा खाना-खराब करेंगे कि, अच्छे से अच्छा आलिम भी,
चक्कर खा जाए! सुलझाये न सुलझे!
और यहां तो मुहब्बत थी!
अब इस से बड़ी चीज़ और क्या होगी एक जिन्न के लिए!
और तभी एक और ख़ुश्बू उठी वहाँ!
और हाज़िर हुई एक जिन्नी!
बला की ख़ूबसूरत!
नक़ाबनशीं चेहरा!
झीनी हरी नक़ाब!
बाल सुनहरे! जिस्म बला का ख़ूबसूरत!
सर पर, बैंगनी रंग का एक कपड़ा बाँधा हुआ था!
आँखें बड़ी बड़ी, और रंग दूध सा सफेद!
आँखें हरी, आग सी लगे देखने में उसकी आँखें!
उसका हुस्न ऐसा तेज-तर्रार, कि छूते ही उसे,
खुद ही लहूलुहान हो जाए कोई भी इंसान!
मैं तो देखता ही रह गया उसे!
उसने, आते ही, फ़ैज़ान की बाजू पकड़ ली! और देखने लगी मुझे,
"ये ह'ईज़ा है आलम साहब, हमारी छोटी बहन!" बोला वो,
उसने मुझे देखा और सर हिलाया अपना,
"और ह'ईज़ा, ये आलिम साहब हैं, नेकदिल इंसान हैं बेहद!" बोला वो,
ऐसा बोलता था वो,
तो मैं अंदर से दरकने लगता था!
मैं उन्हें अलग करने आया था, उनका मेल बढ़ाने नहीं!
"आप जाएँ ह'ईज़ा!" बोला मैं,
वो चौंक पड़ी!
"जाएँ, न इन्हें कोई ख़तरा, और न मुझे! इत्मीनान रखें!" कहा मैंने,
"जी! ह'ईज़ा, आप जाएँ, परेशान न हों!" बोला फ़ैज़ान, ह'ईज़ा को देखते हुए!
ह'ईज़ा मुस्कुराई, और हो गयी ग़ायब!
अब आगे आया वो, मेरे सामने,
मेरे से भी लम्बा था वो, बेहद गोरा,
जिन्नाती खूबसूरती का मालिक था वो!
"जनाब, एक दरख़्वास्त है!" बोला वो, शर्मा जी से,
"फ़रमायें फ़ैज़ान?" बोले शर्मा जी,
"हम ज़रा वक़्त लेंगे आलिम साहब का, ज़रा अकेले हो सकेंगे हम?" पूछा उसने,
अब शर्मा जी ने, मुझे देखा,
और मैंने इशारा किया, उन्हें, जाने का!
वे चले गए बाहर, और मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया,
"आप बैठ जाएँ इत्मीनान से!" बोला फ़ैज़ान,
मैंने शुक्रिया किया उसका, और बैठ गया!
अब संजीदा हुआ वो,
मुझे देखा, फिर, सुरभि को देखा, सर पर हाथ फिराया उसके,
"हम बखूबी जानते हैं आलिम साहब, कि आप किसलिए आये हैं! और आप ऐसा कर भी देंगे, हम मानते हैं, हमने अपनी परवाह नहीं, हम, पत्थर बन जाएंगे, गुमनामी में वक़्त काट लेंगे अपना, इनकी यादें बहुत हैं हमारे लिए, एक एक लम्हा, इधर क़ैद है मेरे!" बोला, सीने पर हाथ रखते हुए,
फिर, सुरभि के सर पर हाथ रखा उसने,
"हाँ, तो हम कह रहे थे, हमें अपनी परवाह नहीं, हम तो अपनी मुहब्बत का इज़हार ही न करते, बस, एक नज़र इनको अपनी नज़रों में रखते! हमारी बहनें ही न मानीं आलिम साहब, नहीं तो हम कभी न आते! और आलिम साहब, हम इतने भी कमज़र्फ नहीं, कि हम आपके संग इल्माती-जंग लड़ें! नहीं! और न ही इतने ओछे हैं कि आपको हम दौलत, औरत, शौहरत वग़ैरह की पेशक़श करें!" बोला वो,
कितना सुलझा हुआ था फ़ैज़ान!
एक एक अलफ़ाज़ में सच्चाई!
कोई लाग-लपेट नहीं!
साफ़गोई! उसकी साफ़गोई का जैसे मैं उसी लम्हे, क़ायल हो गया था!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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उसकी शख़्सियत अब भारी पड़ने लगी थी मेरे ऊपर!
"बात पूरी करें आप फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
मैंने आप कहा था उसे अब!
वही, उसकी भारी शख़्सियत!
"जी, ज़रूर, तो हमारा मतलब था, हम तो क़ुर्बान हैं ही, और भी कुबानी दे देंगे इनके लिए, लेकिन जो सबसे ज़्यादा हमें डराता है, वो है, कि इनको अगर दुःख हुआ, आंसू आये, तो सच में, हम पर लानत ठहरेगी! ये पुकारेंगी, हम न आएंगे, हम तो तड़प जज़्ब कर लेंगे, लेकिन ये नहीं, ये बेहद भोली हैं, दिल, साफ़ है इनका, कोरे सफ़े की मानिंद, ज़हनियत, पानी के मानिंद साफ़ है इनकी, शख़्सियत, आसमान की मानिंद, बड़ी है, अब आपसे इल्तज़ा है इस ना-वजूद फ़ैज़ान की, कि जो करें, जो भी करें आप, वो, इनकी सलामती के लिए करें, आपसे यही दिली-इल्तज़ा है!" बोला गया वो!
उसके इन अल्फ़ाज़ों ने, छान दिया था मुझे!
मेर रूह तक को झिंझोड़ दिया था!
मैं क्या कहता!
और क्या नहीं!
क्या बचा कहने के लिए,
और क्या नहीं!
मैंने आगे हाथ बढ़ाया,
उसने एक झटके से हाथ आगे किया,
मैंने उसका हाथ पकड़ा,
उसमे ही अंगूठी पहने था वो!
मैंने अंगूठी छुइ उसकी,
उसने फौरन ही, वो अंगूठी उतार दी!
"लीजिये!" बोला वो,
सोने की थी,
मेरी तो दो उँगलियों में आती!
हीरा लगा था उसमे,
काले रंग का!
झिलमला रहा था रौशनी में!
"रख लीजिये आप!" बोला वो,
बेहद ही सीधा और सच्चा है वो फ़ैज़ान!
"नहीं फ़ैज़ान!" बोला मैं,
"ऐसा न सोचें, ये आपके लायक नहीं तो, अभी लीजिये!" बोला वो,
और तेज भभका उठा तभी!
किसी की आमद हुई थी यकायक!
और हाज़िर हुआ,
एक आतशी हुस्न!
लाल रंग के लिबास में लिपटा हुआ था वो हुस्न!
सफेद, शफ़्फ़ाफ़ रंग!
सुगठित देह,
लाल, झीनी नक़ाब!
उन सुर्ख लाल होंठों पर!
आँखें, ऐसी कि क़ज़ा डोले उनमे!
पलकें ऐसी, कि जैसे दूज का चाँद!
लाल रंग की ही,
सोने से खची चुस्त सलवार!
कोई देख ले उसे तो,
उसका जीना मुहाल हो जाए उसी लम्हे से!
उसने, एक पोटली दी फ़ैज़ान को,
फ़ैज़ान ने ली,
"आलिम साहब! ये मेरी छोटी बहन हैं, अशुफ़ा, ह'ईज़ा से बड़ी हैं!" बोला वो,
अशुफ़ा ने सर हिलाया अपना,
मुस्कुराई वो,
"और अशुफ़ा, ये आलिम साहब हैं! बेहद नेक-दिल इंसान हैं!" बोला वो,
मैं तो और गहरा धंसा!
ये क्या समझ रहा है फ़ैज़ान?
उसने डोरी ढीली कर दी पोटली की,
और देने के लिए हाथ बढ़ाया अपना आगे!
"ये लीजिये आलिम साहब!" बोला वो,
"नहीं फ़ैज़ान!" बोला मैं,
"आप रख लें! गुज़ारिश है!" बोला वो,
मैंने ली वो पोटली!
काले रंग की थी,
मैंने डोरी खींची उसकी,
पोटली खुली,
मैंने हाथ डाला उसमे!
अंगूठियां ही अंगूठियां!
बेहद सुंदर!
लाजवाब!
काले, नीले, सफेद, गुलाबी आदि हीरे, बड़े बड़े!
मुस्कुराया फ़ैज़ान!
"ऐसा क़तई न समझें आप, कि इसके बदले आपसे कुछ मांगेंगे हम!" बोला वो,
"आपका शुक्रिया!" कहा मैंने,
और वो अंगूठियां वापिस पोटली में डाल दीं,
मैंने बढ़ाया हाथ अपना!
"लीजिये फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
वो मायूस हुआ!
नहीं पकड़े उसे!
अशुफ़ा को देखे!
"आप ऐसा न समझें! ये मेरे किसी काम के नहीं!" मैंने कहा,
"आप, रख तो लें?" बोली अशुफ़ा!
"नहीं अशुफ़ा!" कहा मैंने,
"आपको पसंद नहीं?" बोली वो,
"ऐसा भी नहीं!" कहा मैंने,
"घर के लोगों को दे दें!" बोली अशुफ़ा!
"नहीं अशुफ़ा!" कहा मैंने,
ले ली पोटली!
दी अशुफ़ा को!
"हुक़्म करें आप!" बोला वो,
"कोई हुक़्म नहीं फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"आप तक़ल्लुफ़ न करें! बताएं!" बोला वो,
मैं चुप हुआ!
उसको देखा,
वो मुस्कुराया!
"अशुफ़ा?" बोला मैं,
"जी, हुक़्म!" बोली वो,
"आप जाएँ!" कहा मैंने,
"हाँ, आप जाएँ अशुफ़ा!" बोला फ़ैज़ान!
और वो,
मुस्कान बिखेर, हुई ग़ायब!
"एक बात बोलें हम?" बोला वो,
"बोलें फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"आप, ज़रा देर के लिए, मामूल हो जाएँ!" बोला वो,
मामूल!
साधारण!
मैं ज़रा देर के लिए,
आलिम न रहूँ!
"आप ऐतबार करें!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया!
"आपको अगर ऊँगली भी छुए मेरी, या बाल, कपड़ा भी हिले, तो आपको क़ौल दिया, क़ैद कर लें हमें आप!" बोला वो,
ऐसा यक़ीन उसका!
वे झूठ नहीं बोलते!
कभी सीखा ही नहीं!
फ़रेब नहीं करते!
सच्चे हुआ करते हैं!
"ठीक है फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"आपके भी हम एहसानमंद हुए आलिम साहब!" बोला वो,
और उठा तब!
वो उठा वो और सुरभि का माथा छुआ,
फिर मेरे पास आया, हाथ किया आगे,
मुझे देखा, मुस्कुराया,
"इजाज़त दें?" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
और उसने मेरे माथे से हाथ छुआया!
अन्धकार सा छाया, और मैं कुर्सी पे ही झूल गया!
जैसे सो रहा हूँ उस पर!
मैं मामूल था उस वक़्त, इसीलिए ऐसा हुआ था!
मैंने उस पर, यक़ीं कर लिया था, ये जिन्न झूठ नहीं बोलते,
इनकी फ़ितरत में झूठ नहीं,
ख़ासतौर पर, ऐसे जिन्न! जैसा ये फ़ैज़ान!
और फिर मेरी आँख खुलीं!
खुलीं तो अपने आपको मैंने, एक नख़लिस्तान के करीब पाया,
पेड़ लगे थे, जुन्नार और खजूर के,
उनके नीचे ही मैं बैठा था!
और कोई भी नहीं था वहां!
मैं अकेला ही था, मैंने हर तरफ देखा,
कोई नहीं था वहां, दूर दूर तक कोई नही!
मेरे सामने झाड़ियाँ लगी थीं,
और उन्ही झाड़ियों के पीछे से मुझे कुछ हंसी-ठिठोली की आवाज़ें आयीं!
मैं चला उधर, पार की झाड़ियाँ,
तो मुझे, सुरभि और फ़ैज़ान दिखाई दिए!
सुरभि, उस फ़ैज़ान को, रेत के टीले से, धक्का दे रही थी!
धक्का दिया और वो लुढ़कता चला गया नीचे!
किसी इंसान की तरह!
और सुरभि, ये देख खूब हँसे!
खूब हँसे, ऐसे हँसे, जिसे देख, मेरी भी हंसी छूट गयी!
वो नीचे गिर पड़ा था!
अपनी दोनों बाजुएं आगे कीं उसने,
और सुरभि भागी नीचे उसकी तरफ!
जा लेटी फ़ैज़ान के ऊपर!
और फ़ैज़ान ने, अपनी गिरफ़्त में लिया उसे!
उसका माथा चूमा!
और उठा लिया उसको ऊपर!
खुद भी उठ गया था साथ में!
उसको अपनी गोद में लिए, चला जा रहा था आगे आगे!
सुरभि उसकी गरदन में हाथ डाल,
बातें किये जा रही थी!
रुका वो, मुझे देखा एक बार, मुस्कुराया,
मैं समझ गया, मुझे उनके पीछे चलना था!
वो ले चला उसे,
एक बात कमाल थी!
सुरभि मुझे नहीं देख पा रही थी!
कुछ दिखाना चाहता था फ़ैज़ान मुझे!
आगे चलता गया वो, और मैं पीछे पीछे,
एक कुआँ पड़ा वहां,
उसने सुरभि को नीचे खड़ा किया,
और गया कुँए तक,
रस्सी खींची और फिर उसमे बंधी एक देग़, नीचे डाली,
निकाला पानी, लाया पानी सुरभि के पास,
एक हाथ से वो देग़ पकड़, और दूसरे हाथ से सुरभि के हाथ,
रगड़ रगड़ के साफ़ कर दिए उसने,
और फिर पानी पिलाया उसको,
पानी अपने हाथ में लिया,
और सुरभि का चेहरा भी धो दिया!
सुरभि हंस रही थी उस वक़्त!
उसकी खनकती हंसी, आ रही थी मेरे पास तक!
फिर उसने, अपनी जेब से कपड़ा निकाला,
हाथ और मुंह पोंछ दिए उसके,
और फिर खुद ने पानी पिया!
रख दी देग़ वहीँ कुँए की मुंडेर पर,
मुझे देखा उसने, मुस्कुराया!
वो चला उसका हाथ पकड़ कर,
बीच में रुक गया,
सुरभि के बालों में शायद को पत्ता आदि था,
वही निकाल रहा था वो,
इतने में, मैं कुँए तक पहुंचा,
और उस देग़ से, पानी पिया!
पानी का स्वाद, बेहद अलग था! सच में,
प्यास उसी से बुझती थी!
सारी थकावट चूर हो जाए, ऐसा पानी था!
वे दोनों फिर से चल पड़े आगे,
सुरभि उसकी कमर में, मुक्के मारते जा रही थी!
और वो, उन मुक्कों से कुम्हला जाता था!
वे आगे चले और मैं उनके पीछे!
ठीक सामने, तम्बू लगे थे!
ऊँट बंधे थे उधर!
वे आ गए थे तम्बू तक,
फ़ैज़ान ने मुझे देखा, मुस्कुराया,
और उसके साथ, अंदर चला गया!
मेरा किसी ने हाथ छुआ, माँ पलटा,
ये ह'ईज़ा थी, खींच ले चिली मुझे,
ले आई एक तम्बू में,
बिठाया उसने मुझे,
पानी दिया,
हम्दा भी दिया, और खिच्चा भी!
मैं वो हम्दा खाता रहा,
ह'ईज़ा, मुझे ही देखती रही!
मेरी नज़र उस से मिलती,
तो वो मुस्कुरा देती!
आँखों में, एक डर सा वाबस्ता था उसके!
"इजाज़त दें, तो हम कुछ बोलें?" बोली वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"सुरभि और फ़ैज़ान भी, बेहद मुहब्बत करते हैं एक-दूसरे से!" बोली वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"आप उनको अलग कर देंगे?" पूछा उसने,
"ऐसा सोच तो रहा हूँ!" कहा मैंने,
उसने लम्बी सी सांस भरी!
और अपनी छाती पर हाथ रख लिया!
आँखें फ़ैल गयीं!
डर अब, खुल के सामने आ गया!
"ऐसा न करें आप?" बोली, इल्तज़ा भरे लहजे से!
"आप समझिए!" कहा मैंने,
"समझाइये?" बोली वो,
"आप आतिश हैं, और हम मिट्टी! फ़ना होने वाले!" कहा मैंने,
"तो" बोली वो,
"तो? ऐसा मुमकिन कैसे होगा?" कहा मैंने,
"कैसे नहीं है?" बोली वो,
"कैसे है?" पूछा मैंने,
"आप सब जानते हैं, हमसे भी ज़्यादा!" बोली वो,
मैं मुस्कुराया!
"ज़रा पानी दीजिये?" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
उठी, और ले आई पानी!
दिया मुझे,
मैंने लिया, और पिया, किया गिलास वापिस उसे!
"ये लीजिये?" बोली वो,
हम्दा आगे करते हुए,
"शुक्रिया" कहा मैंने,
"खुशामदीद!" बोली वो,
फिर से घूरा उसने मुझे,
और अपने कान से,
नक़ाब खोल ली,
उसके होंठ देख,
मैं तो झनझना गया!
शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर,
कान्धारी अनार के से रंग के होंठ!
दहकते होंठ!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

जिन्नाती खूबसूरती!
बला की खूबसूरती!
नज़र ही न हटे!
उसने अपना हाथ,
मेरे कंधे पर रख दिया!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"ह'ईज़ा?" कहा मैंने,
और उसका हाथ हटा दिया कंधे से,
"माना मैं आदमजात हूँ! माना मैं कच्चा भी हूँ!" कहा मैंने,
उसने फिर से हाथ रखने के लिए उठाया,
मैंने बीच में ही पकड़ लिया!
उसने भींच दिया मेरा हाथ!
"लेकिन, मैं यहां बहुत पक्का हूँ!" कहा मैंने,
और छुड़ा लिया हाथ अपना!
और बाहर से, खनकती हुई हंसी गूंजी!
मैंने बाहर देखा,
फ़ैज़ान के साथ,
सुरभि जा रही थी!
अब तो वो,
जिन्नी सी लग रही थी!
वैसी ही चाल-ढाल,
वैसी ही पोशाक़,
और वैसी ही नक़ाब!
वे, एक दूसरे तम्बू में चले गए थे!
इतने में ही,
वो ह'ईज़ा,
उठी, और चली बाहर,
मैं उस तम्बू को देखे जा रहा था,
और तभी अशुफ़ा आई,
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
और चली गयी उसी तम्बू में,
फिर ह'ईज़ा लौट आई!
"आप और हाज़िरा!" बोली वो,
शरारत से बोली थी,
होंठों पर,
बेहयाई का जामा पहन लिया था उसने तब!
"क्या कहना चाहती हैं आप?" पूछा मैंने,
"वो जायज़ है न?" बोली वो,
"हाँ! क्यों?" पूछा मैंने,
"वो आतिश, आप आदमजात!" बोली वो,
आँखों में, क़ज़ा खेल उठी!
"हाँ ह'ईज़ा! सच है ये!" कहा मैंने,
"तो, जायज़ है न?" पूछा उसने!
"मैंने निक़ाह नहीं किया उस से!" बोला मैं,
"बाकी सबकुछ?" बोली वो,
अब फंसा मैं!
क्या बोलूं?
मेरी तो दुखती रग पकड़ ली थी उसने!
"हाँ, बाकी सब!" कहा मैंने,
"जायज़ है न?" बोली वो,
बेहद ही कड़वा सवाल था उसका ये!
मुंह कसैला हो गया था मेरा तो!
और जवाब भी क्या देता मैं!
ये तो वही हालत थी, कि हाथ सने थे घी में,
और मुंह भी सना था और तुर्रा ये दूँ,
कि संभाल के रख रहा था मैं तो!
सवाल ही ऐसा था,
जवाब दूँ, तो दूँ क्या!
"है न जायज़?" दोहराया सवाल उसने फिर से!
"जवाब नहीं है इसका मेरे पास!" कहा मैंने,
"हमारे पास है!" बोली वो,
मैं आया सकते में!
इसके पास कैसे इसका जवाब?
फंसा तो हुआ ही था, थोड़ा और धंसका नीचे!
कुछ न बोला मैं तो!
"हम दें जवाब?" बोली वो,
"दो?" कहा मैंने,
"रजामंदी! आप दोनों की!" बोली वो,
हाँ! जवाब तो यही था!
दिमाग़ में कैसे नहीं आया?
बेहद तेज-तर्रार है ये तो!
मान गया मैं उस ह'ईज़ा को!
"कुछ और कहें?" बोली वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"सुरभि और फ़ैज़ान भी में, ऐसी कोई रजामंदी नहीं!" बोली वो,
क्या?
ये क्या सुना मैंने?
ऐसा कैसे मुमकिन है?
"मैं समझा नहीं?" बोला मैंने,
"न आज तलक, न कभी भी, उनमे 'ऐसी' कोई रजामंदी न हुई, न होगी! फ़ैज़ान भाई ऐसा कभी नहीं करेंगे! वो तो, सुरभि को रूहानी मुहब्बत करते हैं, जिस्मानी नहीं!" बोली वो!
ओह फ़ैज़ान!
सलाम तेरी इस मुहब्बत को!
मुझे तो मुरीद बना लिया उसने अपना!
"हाँ आलिम साहब! न आज तक हुआ, और न होगा!" आया वो अंदर, ये कहते हुए!
पिस्ते-मेवे ले आया था संग में,
ह'ईज़ा उठ गयी थी, और बाहर चली गयी!
"लीजिये! खाइये!" बोला वो,
वो तश्तरी, आगे सरकाते हुए!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी फ़रमायें!" बोला वो,
"और अगर सुरभि ने कहा तो?" पूछा मैंने,
"तो हम मना कर देंगे!" बोला वो,
"झगड़ा किया तो?" पूछा मैंने,
"झगड़ा उठा लेंगे हम!" बोला वो,
"कभी बात न की तो?" पूछा मैंने,
"उनका दीदार ही काफ़ी है हमारे लिए!" बोला वो,
"और अगर! अगर! वो रोने लगी तो?" पूछा मैंने,
"हम नहीं रोने देंगे!" बोला वो,
"तो ये तो असरात हुए न?" कहा मैंने,
"नहीं! मुहब्बत!" बोला वो,
मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास!
सच कहता हूँ मित्रगण!
मैंने ऐसा जिन्न कभी नहीं देखा!
इतना सुलझा हुआ,
समझदार, गुस्सा तो नाम को नहीं,
अक़्लमंद, नेक और वफ़ादार!
उसने पिस्ते उठाये,
छीले,
और दिए मुझे, मैंने खाए वो!
"ये जगह कौन सी है?" पूछा मैंने,
"श्खरीज़! हमारा बचपन यहीं बीता था!" बोला वो,
"इसीलिए आप जुड़े हुए हो यहाँ से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और छीले हुए, और पिस्ते दे दिए उसने!
"और कौन कौन हैं घर में?" पूछा मैंने,
"जी, अम्मी हैं, अब्बू भी हैं, एक बड़े भाई हैं, सब गाँव में रहते हैं! और दो ये बहनें!" बोला वो,
मेरे घुटने से, एक छिलका उठाते हुए,
"एक बात पूछूँ फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"आलिम साहब! ऐसा ज़ुल्म न करें आप! आप हमसे इजाज़त मांगें तो लानत है हमारी जात पर, आप हुक़्म करें!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
कितना सलीक़ेमन्द है फ़ैज़ान!
कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं देता!
"जी, पूछें!" बोला वो,
"सच बताना?" कहा मैंने,
"हम झूठ नही बोलते आलिम साहब!" बोला वो,
"सुरभि को, पहली मर्तबा, कब देखा था आपने?" पूछा मैंने,
"आज से चार साल, पांच महीने और नौ दिन पहले!" बोला वो,
एक एक दिन गिनता आ रहा था वो तो!
मैं तो हैरान रह गया ये सुनकर!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"एक दैर से आते वक़्त!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके हाथ में एक थाल ता, कुछ कटोरियाँ, और एक चिराग़ रौशन था, ज़ुल्फ़ें, खुली थीं, गीली, शायद ग़ुस्ल के बाद, सीधे वहीँ आ रही थीं!" बोला वो,
एक एक लम्हा याद था उसे!
उसने वो जगह भी बताई, उसका नाम भी!
ये जगह दिल्ली में है, एक बड़ा सा मंदिर है वहां!
उन दिनों नवरात्र चल रहे थे,
तभी देखा था उसने उसे, पहली मर्तबा!
उसने ये भी बताया कि,
सुरभि ने सफेद कपड़े पहने थे,
उसके साथ उसकी अम्मी जान और, कुछ लोग भी थे!
"आप कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"हम, अपने एक वाक़िफ़ के साथ थे, हारुन नाम है उनका, वो वहीँ रहते हैं! हम उन्हें देख, नीचे आये, सामने रास्ता रोकने की हिम्मत न थी, एक तरफ खड़े रहे, और हमने उनके दीदार किये!" बोला वो,
खो गया था!
उन्हीं चंद लम्हों में,
खो गया था!
दीदार-ए-महबूब ऐसा ही होता है!
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"उसके बाद, रोज दीदार करते हम उनका!" बोला वो,
"एक दिन भी, बिना नागा नहीं गया!" बोला वो,
मेरा तो दिल ही धक् कर बैठा!
चार साल!
रोज दीदार!
लेकिन,
एक मर्तबा भी कोशिश नहीं की!
चाहता तो इंसान बन, मिल लेता!
लेकिन नहीं!
उसने कहा था कि,
वो फ़रेब नहीं करता!
मित्रगण!
मैंने जो भी इस घटना का इतिहास लिखा,
ये सब मुझे, फ़ैज़ान ने ही बताया!
कई मित्रों ने लिखा कि,
ये घटना सूक्ष्म पलों को भी लिए हुए है,
कारण यही है!
ये फ़ैज़ान के बताये हुए लम्हे हैं!
जिन्हें, यहाँ उकेरना का मैंने प्रयास किया!
मात्र प्रयास!
फ़ैज़ान को,
एक एक लम्हा ऐसे याद है,
जैसे अभी किसी,
बस,
भी ही गुजरे लम्हे की बात हो!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"गुसलखाने में रखे फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"और वो, बैग में रखा बड़ा गुलाब का फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"वो हरसिंगार के फूल?" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो पानी?(वाटर-कूलर)" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो गाड़ी में धुआं?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"उस लड़के की पिटाई?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"और वो जो, घर में आये लोग, पिट के गए?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
सब बता दिया उसने!
एक एक लम्हा!
सारे वजूहात!
सारे, क़िरदार!
मैंने सर हिलाया अपना!
"और आप कब गए?" पूछा मैंने,
"चाँद का संदेसा!!" बोला मुस्कुरा कर,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"छत पर, वो महक!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस गाड़ी को उठा के रखा!" बोला वो,
वो पेड़ जो गिरा था!
"सुरभि के पिता जी के पैसे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"और दीदार कहाँ करते थे?" पूछा मैंने,
"रास्ते में!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"जितना देखा करते थे, उतनी तड़प उठती!" बोला वो,
सच ही कहा उसने!
"हम दीदार कर, लौट आते!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
वो उठा,
और कोने की तरफ गया,
गिलास साफ़ किया,
पानी डाला,
और ले आया मेरे लिए,
"लीजिये!" बोला वो,
मैंने पानी लिया,
पिया, और गिलास वापिस किया!
उसने गिलास, वहीँ जाकर,
रख दिया!
फिर आ बैठा संग मेरे!
मुस्कुरा रहा था वो!
बाहर देख रहा था!
उसकी नीली आँखें, झिलमिला रही थीं!
तपती रेत से उठती रौशनी,
उसके रंग को और निखार रही थीं!
आँखों से जैसे, नीली रौशनी झलक रही थी!
धूप जो लौटती थी रेत से टकरा कर, तो उसमे रौशनी खुद-ब-खुद पैदा हो जाती थी!
वही रौशनी, उसकी आँखों से टकरा रही थी, आँखों से जैसे,
नीले रंग की रौशनी जैसे निकल रही थी!
फिर उसने मुझे देखा,
मुस्कुराया, आँखों में, चमक बनी हुई थी!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"बोलिए!" कहा मैंने,
"मैं सब जानता हूँ! आपके पशोपेश का सबब!" बोला वो,
अब मैं मुस्कुराया!
"आप आलिम हैं, वही करेंगे, तो इंसानी क़ायदा-ओ-क़ानून कहता है! और करना भी चाहिए, जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है, वो न तो इंसान है, न कोई ग़ैबी, हमारी तरह!" बोला वो!
ये फ़ैज़ान!
ओह! सच में!
कितनी गहरी बात करता है!
कितनी गहरी सोच है!
कितनी सटीक और ज़हनी बात कही उसने!
जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है,
वो न इंसान है और न कोई ग़ैबी!
"आलिम साहब!" बोला वो फिर से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आपको एक वाक़या सुनाएँ हम? इजाज़त दें!" बोला वो,
"सुनाएँ! और इजाज़त न मांगें बार बार!" बोला मैं,
"नहीं आलिम साहब! अपने इख़लाक़ कभी नहीं छोड़ने चाहियें! मु'आफ़ी चाहेंगे!" बोला वो,
मैं फिर से मुस्कुराया!
"सुनाएँ!" कहा मैंने,
"हमारे रिश्तेदार हैं, आसिफ़, उन्हें क़ैद किया गया!" बोला वो,
"क़ैद? किसने?" पूछा मैंने,
"एक आलिम ने!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
उसने मुझे जगह बताई,
ये हरियाणा में है जगह,
वो इलाक़ा ऐसा ही है, घर घर आलिम हैं!
ज़िरका बड़ी फ़हद भी वहीँ है!
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमारी बात हुई उस से, आलिम से!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने एक शर्त रखी!" बोला वो,
"कैसी शर्त?" पूछा मैंने,
"कि साल भर, हम उसकी नौकरी करेंगे!" बोला वो,
"ओह.....फिर?" पूछा मैंने,
"हम चाहते तो, कब का मुंह बंद कर देते, लेकिन हमने इल्म की क़द्र रखी! आसिफ़ को छोड़ दिया गया, और साल भर तक, हमने नौकरी की!" बोला वो,
मुझे उस आलिम पर, बेहद गुस्सा आया!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

मैंने नाम पूछा, पता पूछा, नहीं बताया!
"फिर?" पूछा मैंने,
"साल बीत गया, लेकिन हमें आज़ाद नहीं किया गया, हम बेहद शिद्दत से, उसका काम करते थे, सिर्फ नेकी का, दूसरे बदी के काम नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"अब जब नहीं आज़ाद किया, तो हमने अपने दम पर ही, उस आलिम से सब खींच लिया, और हम आज़ाद हो गए, जते जाते, उसको हम कुछ दौलत दे आये थे, उसके घर में, और भी लोग थे, ताकि उनका पेट भर सके!" बोला वो,
मैं तो हैरान रह गया!
अपने ईमान का इतना पक्का?
चाहता तो, क़ैद से छुड़ा भी लेता,
और उस आलिम को भी क़ैद कर आता!
इल्म की इज़्ज़त रखी उसने,
नौकरी की उस आलिम की,
नेकी के सभी काम किये!
वाह फ़ैज़ान वाह!
मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया!
वो बेहद खुश हुआ!
उसका ये वाक़या सुनाने का भी एक मक़सद था!
यही, कि जैसे उसने मान रखा उस इल्म का,
ऐसे ही, मैं अपने फ़र्ज़ को आगे रखूं!
दिल को छू गयी उसकी ये बात मेरे!
"आलिम साहब!" बोला वो,
और भी अशुफ़ा आई अंदर,
खाने-पीने का सामान ले आई थी,
ढेर सारा सामान!
फल, शरबत, अलक़श, मिठाइयां आदि आदि!
"लीजिये!" बोला वो,
और कर दिया सामान मेरे आगे!
मैंने फल खाए,
अलक़श खाया,
मिठाई भी खायी,
और वो, दिलक़श आब्शी-शरबत भी पिया!
बेहतरीन था सबकुछ!
उसके बाद, अशुफ़ा आबगीना ले आई,
मैंने हाथ धोये, तो उसने मझे कपड़ा दिया पोंछने के लिए!
पेट भर गया था मेरा! डकार आ गयी थी!
उसने हाथ उठाया अपना,
पढ़ा कुछ, मुस्कुराया,
"इजाज़त दें आलिम साहब?" बोला वो,
मैंने सर आगे कर दिया,
उसने माथा छुआ मेरा,
और अगले ही पल, मेरी आँखें बंद हो गयीं!
और जब खुलीं,
तो नज़ारा ही अलग था!
ये एक हाट थी!
ऊँट खड़े थे वहाँ!
लाल रंग का रेगिस्तान था वो!
चमकदार, लाल रंग!
उस वक़्त हवा नहीं थी,
रेत नहीं उड़ रही थी,
मेरे सर से एक, मुसल्ले की तरह का कपड़ा बंधा था,
मैं भी, क़बीले वाला सा लग रहा था!
लोग आ-जा रहे थे,
बकरियां, मैं-मैं कर रही थीं,
दुम्बे बंधे थे,
उस हाट में,
तरह तरह का सामान था!
बर्तन!
कपड़े!
अन्न! मक्का!
आदि आदि!
तभी मेरी नज़र सामने पड़ी!
क़बीले वाली बनी सुरभि,
फ़ैज़ान का हाथ पकड़े,
एक फल वाले के पास खड़ी थी,
मैं चल पड़ा उस तरफ!
सुरभि ने एक कीनू सा पकड़ा था हाथ में,
हाथ में नहीं,
दोनों हाथों में!
वो इतना बड़ा था कि जैसे छोटा तरबूज लगता था!
लेकिन था वो कीनू ही,
हमारे माल्टा से तीन गुना बड़ा!
उसकी सुगंध आ रही थी, खटास भरी!
दो ले लिए गए थे,
पैसे भी दे दिए गए थे!
फ़ैज़ान ने ही दिए थे!
अब फैजान ने, वो दोनों ही कीनू,
पकड़े, हाथ पकड़ा फ़ैज़ान का सुरभि ने,
और फ़ैज़ान ले चला आगे उसे,
पीछे देखा,
मुझे देखा,
मुस्कुराया,
और मैं उनके पीछे चल पड़ा!
फ़ैज़ान एक जगह रुका,
यहां तम्बू तो नहीं,
हाँ, तीन कनातें लगी थीं,
छत पर भी, कनात लगी थी,
दरी बिछी थी,
उसने अपना कपड़ा बिछाया नीचे,
और बिठा दिया सुरभि को उस पर,
खुद, ऐसे ही बैठ गया!
वो छीलने लगा था कीनू,
अंगूठे और उँगलियों से,
और तभी,
मुझे आवाज़ दी किसी ने,
मैं पीछे घूमा,
ये ह'ईज़ा थी,
एक तश्तरी में, वही कीनू कटे हुए थे,
उसकी फांकों के टुकड़े!
"लीजिये!" बोली वो,
मैंने ले लिया!
"आप भी लीजिये?" कहा मैंने,
"आप लीजिये, आपने लिया, हमने लिया!" बोली वो,
मुस्कुरा कर, मैं भी मुस्कुरा गया!
मैंने एक टुकड़ा उठाया,
खाया,
और जैसे ही मुंह में रखा!
ऐसा स्वाद!
ऐसा स्वाद कि लिख नहीं सकता!
खटास बस, उसकी सुगंध में थी,
ऐसा मीठा,
ऐसा मीठा!
कि उंगलियां चिपक जाएँ!
मेरा तो मुंह भर गया उसके रस से!
और ह'ईज़ा!
खुल के हंसी!
मैं मुंह बंद किये हंसा!
किसी तरह से खाया!
पहला टुकड़ा!
"इसे क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"ज़ारूज़!" बोला मैं,
"जैसा नाम, वैसा काम!" कहा मैंने,
वो फिर से हंस पड़ी!
मेरे छोटे से मुंह में,
जैसे रसभरा, कोई गुब्बारा फूट जाता था!
मैं मुंह बंद करता,
कि कहीं मुंह से, पिचकारी न छूट जाए बाहर!
मैं ऐसा करता, मुंह बंद करता,
तो ह'ईज़ा खिलखिलाकर हंस पड़ती!
वो फिर से हंसी!
और मैंने तब,
उसके सर पर एक थपक दे दी!
वो और तेज हंसी!
ठीक सामने, वो फ़ैज़ान, उस ज़ारूज़ की फांकों को,
तोड़ तोड़ कर, खिला रहा था सुरभि को अपने हाथों से,
मुंह से रस टपकता,
तो अपने हाथों से पोंछ लेता, और खुद चाट लेता!
बीच बीच में, मुझे देखता, मुस्कुरा कर!
मैं भी मुस्कुरा जाता, उसे देखकर!
तभी पीछे से!!
तभी पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा गया! मेरे मुंह में, वो रस भरा था, मैंने पीछे मुड़कर, देखा, ये ह'ईज़ा ही थी! संजीदगी से, मुझे देख रही थी, चेहरे पर, अलग ही भाव उभरे थे उसके! मैंने सबसे पहले वो रसदार टुकड़ा, हलक़ के नीचे किया, और फिर उसको देखा, और सवाल किया!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
कुछ न बोली,
बस, मुझे नज़रों से दाग़े!
"क्या हुआ?" पूछा फिर से मैंने,
न बोले कुछ,
सिर्फ़, देखे ही देखे! देखे जाए!
पलकें भी न मारे वो तो!
मैंने उसके चेहरे को छुआ,
जैसे जगाया हो उसको, नींद से!
"बताओ ह'ईज़ा?" पूछा मैंने,
"वो देखो सामने!" बोली वो,
मैंने सामने देखा!
सुरभि, फ़ैज़ान की जांघ पर, सर रख, लेट गयी थी,
और फ़ैज़ान, उसको उन फांकों के टुकड़े,
उनके रेशे हटा, खिला रहा था सुरभि को!
सुरभि, जब भी वो टुकड़ा खाती,
फ़ैज़ान के गाल पर चिकोटी भर लेती थी!
खिलखिला कर, हंसने लगती थी!
रस अगर बहता, तो अपने हाथ से साफ़ कर देता वो इसके होंठ और ठुड्डी,
और खुस, चाट लेता था वो रस!
"क्या आपको, ज़रा सा भी एहसास है?" बोली वो,
अब लहजा कड़क हो गया था उसका!
"हाँ! है!" बोला मैं,
"अभी भी, इनको अलहैदा करेंगे?" पूछा उसने,
मैंने ह'ईज़ा की आँखों में देखा!
आँखें फैली हुई थीं!
उसको, सच में, उस लम्हे, गुस्सा आया हुआ था!
"अभी सोच रहा हूँ!" कहा मैंने,
"क्या सोच रहे हैं?" बोली वो,
"कि अलहैदा करूँ, या नहीं?" बोला मैं,
और एक टुकड़ा, फिर से मुंह में सरका लिया अंदर!
फिर से मुंह बंद हुआ मेरा!
गाल फूल गए मेरे!
"क्या करेंगे?" पूछा उसने,
"चल जाएगा पता!" कहा मैंने,
"अभी बताइये?" बोली वो,
"अभी, जांच रहा हूँ!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
एक बहन का अपने भाई के लिए प्यार!
वो जायज़ गुस्सा!
और एक आलिम के सामने, मज़बूरी!
तीनों का सामना कर रही थी ह'ईज़ा!
मैंने आखिरी टुकड़ा भी सरका लिया मुंह में!
मुंह भरा, और ह'ईज़ा में, गुस्सा भरा!
कोई और होता, तो ख़ाक़ हो गया होता!
"सलाम साहब!" आई एक मर्दाना आवाज़!
मैं घूमा पीछे!
अशुफ़ा के संग एक मर्द था!
बेहद सजीला,
काली, करीने से रखी दाढ़ी,
सुनहरे बाल, और हरी आँखें!
लम्बा सा सफ़ेद, ज़रीदार कुर्ता और पायजामा!
लम्बा-चौड़ा जिस्म,
गोरा-चिट्टा और मुस्कुराता हुआ चेहरा!
"सलाम जनाब!" कहा मैंने,
और तब तक, ह'ईज़ा, मेरे हाथ धोने लगी थी!
हाथ धुलवा दिए, और पोंछ भी दिए!
"हम हु'मैद हैं!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया उसको देखकर!
"ख़ुशी हुई हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
''साहब न कहें आलिम साहब! हम तो क़तरा भी नहीं!" बोला वो,
''आएं, ज़रा उधर आएं!" बोला वो,
उधर, बैठे की जगह थी,
"चलिए!" कहा मैंने,
हम सब चले वहाँ, और आ गए,
"आएं, बैठें आप!" बोला हु'मैद,
मैं बैठ गया उधर, फिर वे सब भी बैठ गए,
सामने, अब दूसरा कीनू, छील रहा था फ़ैज़ान!
बीच बीच में, मुझे देख लेता था!
"आलिम साहब! एक इल्तज़ा है!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"मुहब्बत के फूल को कुचलें नहीं आप, खिलता हुआ ही अच्छा लगता है!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया!
"जानता हूँ हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
"वो, सुरभि, हम सबकी जान है, टुकड़ा है हमारा!" बोला वो,
अब देखिये!
एक मिट्टी के खिलौने से कितना प्यार!
ये है जिन्नाती फ़ितरत!
जिस से प्यार किया,
उसी के हो गए!
भूल गए अपना वजूद!
अब ऐसे जियें, कि जैसे ग़ुलाम हो गए उसके!
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मेरी बेटी बराबर है वो! जब हमसे लड़ती है, तो एक अलफ़ाज़ मुंह से नहीं निकलता हमारे! हमें तो डाँट दिया करती है! बेहद अच्छा लगता है!" बोला वो,
"जानता हूँ हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
सुरभि!
अब इन्ही जिन्नात की हो कर रह गयी थी!
उसे अब, इंसान कहना था तो बस, जिस्म से,
नहीं तो ज़हनी तौर पर, अब वो, फ़क़त जिन्नी ही थी!
मैंने देखा सुरभि को!
अब वो टुकड़े खिला रही थी फ़ैज़ान को!
रस, पोंछती थी वो,
ठीक वैसे ही, जैसे फ़ैज़ान!
"हु'मैद साहब! होगा वही, सो सही रहेगा! इत्मीनान रखें!" कहा मैंने,
और हम सब, उठे खड़े हुए,
उधर, फ़ैज़ान ने मुझे देखा,
वो भी खड़े हो गए थे,
और जा रहे थे अब,
मैं भी चला उनके पीछे,
और ह'ईज़ा, चली संग मेरे!
कनखियों से देखे मुझे,
कि कहीं मना न कर दूँ संग आने को!
वे चल दिए आगे आगे,
हाट से दूर,
पेड़ों का झुरमुट था वहां,
कोई नख़लिस्तान था वो!
सुरभि, रेत में, दौड़ रही थी!
फ़ैज़ान से आगे निकल जाती,
और हाथों के इशारे से, उसको बुलाती!
जब फ़ैज़ान आता, तो फिर से आगे दौड़ जाती!
फ़ैज़ान ने, पीछे मुड़कर देखा,
और आगे चलता रहा!
सुरभि ने, तब हाथ थाम लिया था फ़ैज़ान का,
उसके कंधों से भी नीचे थी वो!
सर ऊंचा कर देखती थी उसे!
तब फ़ैज़ान, झुक जाता था!
और सुरभि, उसके सीने पर, चूम लेती थी,
उसका माथा, गाल, हाथ, हर जगह चूमती थी उसको!
बेहद प्यार करती थी उसे!
और तभी, फ़ैज़ान ने,
उसको उठा लिया,
भर लिया गोद में!
चिपका लिया अपने से, और सुरभि!
उसके गले में बाजू डाल, लिपट गयी उस से!
वो प्यार में डूबे थे!
मन करता, बस, अभी लौट जाऊं,
जो हो रहा है, होने दूँ! मैं क्यों उस गुनाह में हाथ रंगू?
फिर इंसानी तक़ाज़े और क़ायदे सामने आ खड़े होते थे!
क्या करता मैं?
मैं तो खुद ही लड़ने लगा था अपने आप से,
लड़ रहा था!
दो-फाड़ हो गए थे मेरे!
एक ने मेरी गरदन पकड़ी थी,
और एक ने, मेरा सर!
कुछ समझ न अाये!
क्या करूँ?
क्या फैंसला लूँ?
वे आगे चलते गए!
उतर गयी थी सुरभि उसकी गोद से तब,
और क्या देखा मैंने!
जो देखा, उस से तो मुझ में, एक और कील ठुक गयी उनकी मुहब्बत की!
वहाँ, ढेर पड़ा था!
ढेर, सोने, चांदी और हीरे-जवाहरातों का!
सुरभि के पांवों के नीचे,
अकूत दौलत बिछी थी!
और सुरभि, बिना नज़र डाले उन पर,
चले जा रही थी फ़ैज़ान से संग!
पांवों के नीचे,
वो दौलत,
मिट्टी के जैसे बिछी थी!
लेकिन, सुरभि ने, एक नज़र न डाली!
उसको दौलत नहीं,
फ़ैज़ान की मुहब्बत से वास्ता था!
मेरे मुंह से 'वाह!' निकल गया!
वे आगे चलते रहे,
और मैं अब उस दौलत पर खड़ा था!
ये दौलत,
क्या नहीं दे सकती थी!
क्या नहीं!
सबकुछ!
एक इंसान की सारी ज़रूरतें पूरी कर देती!
लेकिन,
जैसे, पेट भर कर खाओ,
और फिर भूख लग आती है बाद में,
उस हवस, लालच की भूख को तो,
ये दौलत भी नहीं पूरा कर सकती थी!
मेरे पांवों के नीचे,
वो दौलत,
कचर-कचर कर रही थी!
सुरभि और फ़ैज़ान अब, जा बैठे थे एक जगह,
फ़ैज़ान ने, कपड़ा बिछा दिया था उसको बिठाने के लिए,
और सुरभि के पाँव साफ़ कर रहा था!
उसको पांवों में, गुदगुदी होती, तो पकड़ लेती फ़ैज़ान को कस कर!
फ़ैज़ान के घुटनों पर,
सर रख लिया था उसने,
और फ़ैज़ान,
उसके माथे पर हाथ फेर रहा था!
चूम लेता था उसका माथा वो!
और उसके बाल,
सुलझाने लगता था!
कैसा अनूठा प्यार था!
कैसा सच्चा!
बे-खोट!
बे-दाग़!
बे-हवस!
मैं न सिर्फ़ हैरान था,
बल्कि, मन में एक अजीब सी ख़ुशी थी!
हाँ!
उस ख़ुशी में,
कभी-कभार मुझे छेद नज़र आते थे!
छेद,
इंसानी क़ायदों के!
सुरभि के माँ-बाप के आंसूओं के!
अपने फ़र्ज़ के,
एक आलिम के फ़र्ज़ के,
एक इम्तिहान के!
मेरे हाथ में था फैंसला!
लेकिन,
मैं डरता था!
जैसे ठंडी बर्फ़,
कभी इस हाथ,
तो कभी उस हाथ,
बदली जाती है,
ठीक वैसे ही, मेरी सोच,
मेरा फ़र्ज़, कभी इधर, तो कभी उधर!
मेरी बाजू थामी ह'ईज़ा ने,
मैंने देखा तभी उसे!
उसकी आँखों में बसे सवाल,
और ख़्वाहिशें,
सब आँखों में नुमायां थीं!
और तब,
मैंने भी उसकी बाजू पकड़ी!
किया पास उसे, ग़ौर से देखा,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

वो, बिना पलकें मारे, मेरी आँखों में, देख, मुझ से, कुछ, कह रही थी!
मैंने वो ज़ुबान पढ़ ली थी, और उसका जवाब तलाश कर, लिखना चाह रहा था,
उसी, ज़ुबान में........
फिर वे दोनों उठे, और सुरभि फ़ैज़ान का हाथ थामे आगे चल दी,
मैं भी चलने को हुआ, तो मेरा हाथ पकड़ लिया ह'ईज़ा ने!
"आप, यहां आएंं!" बोली वो,
और मेरा हाथ पकड़, ले चली एक तरफ,
जहां ले जा रही थी, वहाँ तम्बू लगे थे,
ये लाल और सफेद रंग के थे,
उस रोज़ और लम्हे हवा तो नहीं थी,
लेकिन गरमी का ये आलम था कि,
चमड़ी ही छिल जाए जिस्म की,
मैं बर्दाश्त किये जा रहा था,
और फिर वो मुझे एक तम्बू में ले आई,
तम्बू में आया, तो राहत मिली,
वो सुराही तक गयी,
पानी डाला गिलास में, और ले आई मेरे पास,
मैंने, पानी का गिलास पकड़ा, और पिया पानी!
वापिस किया गिलास,
और तभी बाहर क़दमों की आहट हुई,
रेत को पीछे धकेलते हुए कुछ क़दम बढ़े चले आ रहे थे!
मुहाना उठा, ये फ़ैज़ान था, हाथ में कुछ फल थे उसके,
देखा तो ये अंगूर के दो गुच्छे थे,
वो अंदर आया, तो ह'ईज़ा बाहर चली गयी!
बैठ गया फ़ैज़ान वहीँ मेरे पास,
"लीजिये, आपके लिए लाये हैं!" बोला वो,
मैंने अंगूर लिए,
एक गुच्छा,
हाथ में लिया, तो ये करीब आधा किलो होगा!
एक एक दाना, ऐसा मोटा, कि जैसे, जैसी बड़ी लीची!
मैंने तोड़ा एक दाना, और रखा मुंह में,
रस निकला उसमे से, मुंह भरा मेरा और मिठास?
मिठास ऐसी कि जैसे किलो भर गुड उसमे भर दिया गया हो!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"हम जानते हैं, फैंसला लेना, आपके लिए भी बेहद मुश्क़िल है!" बोला वो,
मेरे भाव, मेरा झंझावत, सब जान गया था वो!
"लेकिन हम, आपकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे, कि आपने हम पर एतबार किया! इसी ऐतबार के खातिर, हम वो भी करेंगे, जो आप कह नहीं पा रहे!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा,
सच में,
मैं कुछ कह नहीं पा रहा था,
कुछ बन ही न पा रहा था,
"हम जानते हैं, आपका पहला सवाल यही है कि हम सुरभि को सभी असरात से आज़ाद कर दें, तो आलिम साहब, एक बात बता दें आपको, सुरभि पर कि भी असरात नहीं हैं!" बोला वो,
ये तो मैं भी जानता था,
उस पर असरात नहीं थे!
उस पर असरात से भी अधिक मौजूद था!
उसका खुद का वो यक़ीन, और वो मुहब्बत!
उसी मुहब्बत की रवानगी की रौ में बहे जा रही थी!
"और आलिम साहब, अब आप दूसरा सवाल सवाल यहीं करेंगे कि, कितने दिन वो अलहैदा रहे हमसे, यही न?" बोला वो,
सच में मेरा दूसरा सवाल यही होता!
जैसे मेरा दिमाग़ पढ़ रहा था वो, हर लम्हे!
"हाँ! यही सवाल था मेरा दूसरा!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया,
"अब आप बताएं!" बोला वो,
"आप एक महीना दें मुझे फ़ैज़ान साहब!" बोला मैं,
"साहब न बोले, आलिम साहब! आपने एक महीना कहा, ठीक, हम दो महीने रुक जाएंगे! लेकिन हमें भी आपसे एक क़ौल की गुज़ारिश है!" बोला वो,
मैं तो मुस्कुरा पड़ा,
एक महीना नहीं, दो महीने!
इतना यक़ीन था अपनी मुहब्बत पर उसे!
इसे कहते हैं, मुहब्बत!
महबूब पर यक़ीन!
"और वो क़ौल?" कहा मैंने,
"जी, क़ौल ये, कि, एक छोटी से ख़्वाहिश है आपसे, वो ये, कि उनकी आँखों में, कोई आंसू न आये, सच में, हमने क़ौल दिया है उन्हें!" बोला वो,
हाँ! उसने क़ौल दिया था!
वो नहीं रोने देगा उसे!
चाहे कुछ भी हो!
चाहे कुछ भी करना पड़े!
"फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"जब उस से हर चीज़ हटा ली जाएगी, तो उसको, अपनी तड़प में, रोना तो आएगा ही, तब कैसे होगी?" बोला मैं,
"उनके, जिनसे ख़ून के रिश्ते हैं, वो इस क़ौल में शामिल नहीं हैं, आखिर, उनका हक़ है पूरा, माँ-बाप का पूरा हक़ है, भाई का, भाइयों का, सभी का, बुज़ुर्गों की इज़्ज़त ज़रूर करनी चाहिए, आप यक़ीन मानें, हमनें यही समझाया है उन्हें, कई बार!" बोला वो,
मैं तो बार बार हैरान होता था!
कितने शानदार इख़लाक़ हैं उसके!
फ़ैज़ान जैसा इंसान, आज तो मिलना ही मुश्क़िल है!
इंसान! हाँ, इंसान कहा मैंने!
ऐसी इख़लाक़ होना आज के ज़माने में,
मिला बेहद मुश्क़िल है! ना-मुमकिन सा!
"हमारा क़ौल बाहर वालों से है! उनको, ना-हक़ परेशान किया गया, तो हमसे बर्दाश्त नहीं होगा!" बोला वो,
"समझता हूँ!" कहा मैंने,
"तो आलिम साहब!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"वो वक़्त अभी से शुरू होता है!" बोला वो,
और रखा मेरे सर पर हाथ,
मुझसे पूछकर ही!
और छाया अँधेरा!
खुली आँखें मेरी!
मैं कुर्सी पर बैठा था!
बिस्तर पर सुरभि लेटी थी!
शांत, बेसुध सी!
मैंने घड़ी देखी तभी!
चार घंटे बीत चुके थे!
मैं खड़ा हुआ, और चला बाहर!
जैसे ही दूसरे कमरे में आया, सभी खड़े हो गए थे!
मैं बैठा तब, पानी मंगवाया, पिया,
और तब, मैंने उन सभी को,
सारी बातें बतलाना शुरू किया!
मैं बताता गया और वो जैसे झुकते से चले गए,
आंसू निकलने लगे,
सुरभि की माता जी, तो लेट ही गयीं थीं,
पिता जी, फफ़क-फफ़क कर रोने लगे थे!
साथ बैठे भी, आंसू बहा रहे थे!
और मैं, एक पत्थर की तरह से बैठा था!
बस, मेरा मुंह ही चल रहा था!
मैंने उन्हें,
शुरू से लेकर, आखिर तक का,
सारा क़िस्सा-ओ-हाल सुना दिया!
उनके लिए, ये पहाड़ टूटने से कम न था!
ये मैं भी समझता था,
फ़ैज़ान की सारी अच्छाइयां, सोच और इख़लाक़ सब,
बता दिए थे उन्हें, लेकिन वो फ़ैज़ान उनके लिए,
इस दुनिया से बाहर का था!
शर्मा जी ने, संयत किया उन्हें,
समझाया, बहलाया, और उंच-नीच भी बताई,
"अब आपकी रजा है, चाहें तो किसी और को भी ला सकते हैं!" बोला मैं,
किसी और, मायने कोई दूसरा आलिम!
वे अब कुछ समझने के स्थिति में न थे!
बस, मुझसे ही आस बांधे रहे वे सब!
अब मैंने उनको समझाया कि,
दो महीने हैं उनके पास,
वे कोशिश करें, अपने लिहाज से, कि मन बदल सकें,
फ़ैज़ान से न डरें! वो ऐसा नहीं है!
तभी सुरभि चली आई वहां!
मुझे घूर के देखा,
आँखों में गुस्सा भर आया उसके,
और एक झटके से ही, उसने मेरा गिरेबान पकड़ लिया!
जैसे ही हाथ छोड़ने को हुई,
उसको पकड़ लिया उन लोगों ने,
वो मुझे गालियां देती रही!
मुझे एक दो बार, बेहद बुरा भी कहा,
मेरे घुटने में, दो बार लात भी मारी,
मैं जानता था उसकी हालत, अब वाक़िफ़ हो चुकी थी वो,
इसीलिए, मैंने कोई विरोध नहीं किया उसका!
और फिर, बुक्का फाड़, रोने लगी!
चिल्लाने लगी, 'फ़ैज़ान! फ़ैज़ान!'
उसने वो शाम,
ऐसे ही बिता दी!
रोते हुए!
बार बार, कुछ न कुछ उठकर फेंक देती थी मुझ पर!
उसने एक शीतल-पेय की बोतल फेंक मारी मेरे ऊपर!
मेरे हाथ में लगी वो,
और मेरा नाख़ून, आधा उखड़ गया तभी!
अब उसकी यही हालत होनी थी!
मैं जानता था!
उस शाम, हम लौट आये अपने स्थान पर वापिस,
रास्ते में से, चिकित्सक को दिखा दिया था,
आधा, छिला नाख़ून काट दिया गया था,
और पट्टी बाँध दी गयी थी,
दवा दे दी थी,
शर्मा जी, उस रात वहीँ ठहरे!
अगले दिन हम दोनों वापिस हुए,
दोपहर में वे चले गए,
और मैं अपने कक्ष में लेटा था!
मुझे एक तेज महक आई!
जानता था कि,
ये आमद है किसी की!
मैंने दरवाज़ा, खिड़की बंद कर दिए!
और उसके बाद,
एक हवा के से झोंके के साथ,
ह'ईज़ा हाज़िर हुई!
लाचार सी,
परेशान सी,
"आओ ह'ईज़ा!" कहा मैंने,
वो न बोले कुछ!
बस देखे जाए!
"मैंने कोई गुनाह नहीं किया!" कह मैंने,
चुप!
मुझे देखे!
"फ़ैज़ान कैसे हैं?" पूछा मैंने,
न बोले कुछ!
मैं आगे बढ़ा उसके पास,
उसको देखा, तो आँखों में, सवाल ही सवाल तैर रहे थे!
"हाँ ह'ईज़ा?" बोला मैं,
"फ़ैज़ान भाई के हालत नहीं देखी जाती हमसे........." बोली वो,
आवाज़ में, हल्कापन था, आवाज़ में, दुःख था, मज़बूरी सी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अकेले हैं बेहद, न किसी से बात, न किसी से मिलना, न किसी से बात, सुरभि के क़दमों के तले की रेत, हाथों से छानते रहते हैं........." बोली वो,
समझ सकता था मैं,
फ़ैज़ान ने तो साढ़े चार साल बेपनाह मुहब्बत की थी सुरभि से!
अब देखिये मज़बूरी!
अब पास सुरभि नहीं!
और खुद सुरभि के पास नहीं!
दो महीने तो अब अकेला ही रहना था!
फ़ैज़ान की हालत, जानी जा सकती थी!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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