सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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खान वो चिलचिलाती धूप उस सहरा की,
और कहाँ ये अन्धकार!
देख न सकी!
आँखें बंद कर लीं!
और फिर धीरे से खोलीं!
हुई खड़ी,
जाने लगी नीचे,
दरवाज़ा बंद किया,
उतरी नीचे, और सीधा अपने कमरे में!
पूरे सवा घंटे थी वो ऊपर!
यूँ कहो कि,
उस सहरा में! पूरे सवा घंटे!
सवा घंटे का इंतज़ार!
बहुत बड़ा होता है!
जब एक एक लम्हा, ऐसा लम्बा खिंचे,
कि उसकी शाम ही न हो!
इंतिहा ही न आये!
एक एक सांस,
सीने में घुट घुट के आये!
तो ये सवा घंटा तो,
एक ज़िंदगी के बराबर था!
घुट घुट के, एक ज़िंदगी काट ली थी उसने!
सुरभि!
ये बेचैनी नहीं है, तो फिर क्या है?
कमरे में गयी,
अपने को दर्पण में देखा,
अपनी चुनरी उठायी,
सर पर ओढ़ी,
और किया वैसे ही उस चुनरी को,
जैसे उस तम्बू में,
वो अपने दांतों में दबाये बैठी थी!
वो देखती रही!
और तब,
एक मुस्कान सी उभरी होंठों पर उसके!
दर्पण के करीब हुई,
और फिर, आँख से आँख मिलायी!
एक हया सी उतरी आँखों में,
लरज गयी अपने आप से ही!
न देख सकी वो,
हट गयी, वहाँ से, और चुनरी समेत, जा बैठी बिस्तर पर!
ये बेचैनी का आलम था! और बेचैनी! उसकी क्या कहूँ!
सुरभि ने क़ुबूल ही नहीं किया अभी तक!

चुनरी हटा ली थी मुंह से, और रख दी थी सिरहाने!
तभी माँ की आवाज़ आई उसे,
चली बाहर, जवाब देते हुए,
पहुंची माँ के पास, पिता जी भी आ चुके थे,
बैत गयी पास में उनके, पिता जी ने पैसे दिए उसको,
रख लिए उसने, और माँ ने खाना लगवा दिया,
तीनों ने खाना खाया फिर, कुणाल अपने ताऊ के पास था,
उसका रोज का यह हाल था, ताऊ-ताई के यहीं खाना खाता था वो!
खान खा लिया सुरभि ने, और चली अपने कमरे तक,
आई अंदर, पंखा चलाया, तेज किया,
और फिर, अपना बैग उठाया, रखा बिस्तर पर,
खुद भी बैठी वो, और बैग में से कुछ ज़रूरी सामान निकाल लिया,
बैग रखा एक तरफ, और उठा ली अपनी किताबें!
करनी शुरू की अपनी पढ़ाई,
घंटा भर पढ़ी वो,
और तभी, उसकी नज़र खिड़की पर पड़ी!
पड़वा के चाँद निकल आया था!
आज, बहुत सुंदर लग रहा था!
जैसे किसी सुंदर सी कन्या की किसी आँख का बिम्ब!
उसने रख दी अपनी किताब, बीच में अपना पेन फंसा कर!
सरकाई कुर्सी, और खोली खिड़की!
दीदार किये उसने चाँद के!
और चाँद भी, जैसे उसकी भोली बातों में आ गए!
करोड़ों लोग, चाँद को देख रहे होंगे,
लेकिन उस रोज, वो चाँद, केवल सुरभि को ही देख रहे थे, ऐसा लगा!
सुरभि, चौखट पर अपने दोनों कोहनियां रख,
हाथों में अपना चेहरा रख,
खड़ी हो गयी थी!
और अपलक, चाँद को निहारे जा रही थी!
"मेरा संदेसा ले जाओगे?" बोली मन से,
चाँद से मुखातिब हो कर!
"आज भी?" बोली वो,
अपलक देखे!
मुंह में, अपने सीधे हाथ की कनिष्ठा,
अपने दांतों में दबा, चाँद से मन ही मन, बातें कर रही थी सुरभि!
"कर दो आज भी एक एहसान?" बोली वो,
चाँद, जैसे मुस्कुराये!
चाँद पर, सुरभि की नज़र, जैसे सूराख किये जा रही थी!
सुरभि और झुकी थोड़ा,
अब उसकी भौंहों के पास थे चाँद!
मोटी मोटी आँखें, और उनकी पुतलियाँ,
ऐसी सुंदर लगें, कि देखने वाला बस, देखते ही रह जाए!
ऊँगली निकल ली उसने,
अब होंठ बंद कर लिए थे अपने!
पाँव हिलाने लगी थी अपने!
"ले जाओ संदेसा! बोलना, मुझे बुलाएं वो! याद आ रही है उनकी!" बोली मन ही मन!
फिर, चाँद को देखते हुए,
कुर्सी पर बैठ गयी!
एक अंगड़ाई ली उसने, कस कर!
और खिसका ली कुर्सी आगे!
खिड़की की चौखट पर, दोनों हाथ बिछा लिए!
और टिका दिया चेहरा उन पर!
याद आया उसको वो सहरा!
वो चिलचिलाती धूप!
वो ऊंटों के गले में बंधी घंटियाँ!
वो तेज हवाएँ!
वो रेत का उड़ना!
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
उसका मन, ले चला था उसको उस सहरा में अब!
उसने देखा,
एक नागफनी है, बड़ी सी!
काफी बड़ी!
उसमे, कोटर बने हैं,
सफेद और चितकबरी सी चिड़िया हैं वहां,
मुंह में तिनका दबाये कोई,
कोई कृमि दबाये!
इस छोटी सी जान को, कितना ढूंढना पड़ता होगा!
छोटे से पंखों से, कितना आसमान पार करती होगी!
उस नागफनी में, फूल लगे थे, लाल और पीले रंग के!
हवा चलती, तो उनकी पंखुड़ियां, हिल कर,
अपने वजूद को उस हवा में जोड़ देती थीं!
और हवा, उनके वजूद को, दूर दूर तक ले जाती!
उसने आसपास देखा,
बाएं एक तरफ,
हरा-भरा झुरमुट था पेड़ों का!
वो वहीँ चल पड़ी,
सर पर कपड़ा बंधा था,
उसने उस से अपना मुंह ढका, और चल पड़ी!
हवा चलती, तो ठेलती उसके बदन को!
वो चली जा रही थी आगे आगे!
हवा के संग संग! जैसे हवा ही बता रही हो उसको पता!
वो वहां पहुंची, ये एक छोटा सा नख़लिस्तान था!
कोई तालाब नहीं था यहां, लेकिन एक कुआँ था उधर,
चौड़ा सा, उसने झाँक कर देखा उसमे.
पानी था उसके अंदर!
और साथ में ही, एक मांद बनी थी, शायद ऊंटों को पानी पिलाने के लिए!
वो एक पेड़ के नीचे जा बैठी,
पेड़, कांटेदार था वो वाला,
लेकिन छाया कांटेदार नहीं होती!
वो वहीँ बैठ गयी थी, पीछे ही, छोटे और मोटे, खजूर के पेड़ लगे थे!
उनके तनों से, कपड़े बंधे थे, क़तरन जैसे!
तभी उसको, दूर से, दो औरतें आती दिखाई दीं!
सर पर, घड़ा रखा था और हाथ में पीले रंग का पीपा पकड़ा था!
वो खड़ी हो गयी!
इंतज़ार किया उनके आने का!
वे औरतें, आती गयीं करीब!
और करीब! और करीब!
और आ पहुंचीं वहाँ!
सुरभि को देखा,
मुस्कुराईं वो!
बुलाया अपने पास,
नज़र उतरी, चिबुक पर छू कर!
उसके सर का कपड़ा ठीक किया उन्होंने!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"पानी पियोगी बेटी?" पूछा एक ने,
"हाँ!" बोली वो,
"अभी लो बेटी!" बोली वो,
रस्सी डाली अंदर, रस्सी, पीपे में ही थी!
पानी भरा, और खींचा बाहर,
"लो बेटी!" बोली वो,
अब पानी पिया सुरभि ने!
पी लिया, तो उस औरत ने, अपने कपड़े से,
उसके हाथ-मुंह पोंछ दिए!
"यहां क्या कर रही हो?" पूछा दूसरी ने,
उसे खुद न पता था!
क्या जवाब देती!
"ह'ईज़ा और अशुफ़ा का इंतज़ार है?" बोली वो,
झटके से सर उठाया!
हैरान रह गयी!
उसके सर पर हाथ फिराया उस औरत ने!
"हाँ" बोली हल्की सी आवाज़ में,
वो औरत मुस्कुराई!
"वो! वहां दूर! उधर हैं वो!" बोली वो औरत!
क़दम बढ़ चले!
सुरभि के क़दम, बढ़ चले उधर के लिए!
उस रेत में, दौड़ चली!
सांसें तेज हो चलीं!
पाँव, धंसने लगे!
मुंह से, साँसें निकलने लगीं!
लेकिन न रुकी!
और तभी!
तभी आँख खुल गयी उसकी!
आसपास देखा, चौंक कर!
खड़ी हो गयी!
साँसें तेज थीं उसकी!
पांवों में, अभी भी तपिश थे!
गला, अभी भी सूखा था!
वस्त्र, गरम थे अभी भी!
जैसे उस सहरा की तपती धूप से बस,
अभी आई हो!
पसीने छलछला रहे थे चेहरे पर!
गले पर!
उसने चुनरी ली,
और पोंछे पसीने अपने!
भभक रहा था शरीर उसका!
घड़ी देखी तभी,
साढ़े बारह बजे थे!
कोहनियों पर,
उस चौखट के निशान उभर आये थे!
वो हटी वहाँ से,
पानी पिया,
और आ लेटी बिस्तर पर,
पंखा चल रहा था तेज,
लेकिन पसीना, न सूख रहा था!
पांवों में, खारिश होने लगी थी तपिश से,
पाँव छू कर देखे, तो भभक रहे थे!
उसको फिर से प्यास लगी! उठी, और पानी पिया,
पता नहीं, ये पानी प्यास क्यों नहीं बुझा रहा था?
उसने पी लिया पानी, और फिर से जा लेटी बिस्तर पर,
इस बार सिरहाने नहीं, पैंताने उसने तकिया रखा, और और लेट गयी!
अपने दोनों हाथ, मोड़कर, छाती पर रख लिए थे,
नींद अब आ नहीं रही थी,
कोशिश की उसने, लेकिन नहीं आई नींद,
फिर से करवटें बदलनी शुरू कीं उसने!
आँखें बंद कर लीं उसने, और सोच में जा डूबी!
कब आँख लगी, पता न चला!
आया सपना उसे!
सपने में, वो एक हरे-भरे बाग़ में थी!
रंग-बिरंगे पक्षी बैठे थे शाखों पर,
काले, नीले, पीले, संतरी और कुछ दुरंगे, तिरंगे!
कुछ पक्षियों की कलगी भी थी उनमे!
बेहद सुंदर थे वो! काले वाले तो बेहद ही सुंदर!
उनकी दुम ऐसी लम्बी, कि ज़मीन को छुए!
आवाज़ ऐसी मधुर, कि वहीँ बैठ, बस उनका स्वर सुना जाए!
वो आगे चली, फलदार पेड़ मिले उसे!
संतरे लगे थे, बड़े बड़े संतरे! ऐसे कि उसने कभी देखे न थे!
एक एक, खरबूजे बराबर! हाथ बढ़ाओ, और तोड़ लो!
वो आगे चली, तभी पाँव के नीचे एक पत्थर आया,
चुभा उसे, वो रुकी, बैठी वहां, और देखा पाँव को, दर्द हो गया था उसे!
उसने वो पत्थर, वहां से उठा, अलग फेंक दिया,
पाँव सहलाया तो कुछ आराम आया,
वो हुई खड़ी, आगे चली,
पानी ले जातीं, छोटी छोटी नहरें दिखीं!
उनके किनारे सफेद और नीले रंग के पत्थरों से बने थे!
पानी ऐसा साफ़, कि कांच लगे!
वो और आगे चली, सामने खुला मैदान था,
पीले फूलों की चादर बिछी थी, ऐसा लगता था,
पीछे मुड़कर देखा, फूल लगे थे हर तरफ!
वो और आगे चली, जैसे ही चली,
पत्थर लगा हुआ रास्ता दिखा एक, वो उस रास्ते पर हुई खड़ी,
दायें देखा, फिर बाएं देखा, दायें मैदान था,
और बाएं पेड़ों के झुरमुट!
वो बाएं चलने लगी,
पेड़ों के नीचे पहुंची, पेड़ों के पत्तों से,
महीन महीन पानी की बूँदें गिर रही थीं!
बहुत शानदार नज़ारा रहा था वो उस वक़्त!
सुरभि, मुस्कुरा पड़ी!
वो रास्ता आगे जाकर, चढ़ाई ले लेता था,
तो चल पड़ी आगे, चढ़ी चढ़ाई,
और सामने वही इमारत दिखाई दी!
मुस्कान आ गयी होंठों पर!
जान सी पड़ गयी देह में!
क़दमों में, फुर्ती आ गयी!
और तेज क़दमों से, वो उतर पड़ी वो रास्ता!
उस इमारत की सरहद में घुसी वो!
चली आगे, रुकी सीढ़ियों पर,
आज कोई फूल न बिछा था वहाँ!
वो बड़े बड़े, सुर्ख़ सुल्तानी गुलाब, आज न थे वहाँ बिछे हुए!
वो चढ़ी सीढ़ियां!
और तेज क़दमों से, यूँ कहो कि भागते हुए,
उस चौखट में घुस गयी!
लेकिन वहां कोई नहीं!
बड़े बड़े पर्दे हिल रहे थे!
नक्काशीदार दीवारें, चमचमा रही थीं!
पर्दे हिलते, तो धूप अंदर आती, दरारों में से,
दीवार पर पड़तीं, तो दीवारें जैसे लपटों से घिर जाती थीं!
वो दौड़ के, दूसरे कक्ष में गयी!
वहां एक बड़ा सा पलंग पड़ा था!
छत पर दर्पण लगा था था बड़ा सा!
उसने झाड़-फानूस को देखा,
तो सैंकड़ों सुरभियां खड़ी हो गयीं थी वहां!
उन कांच के टुकड़ों पर पड़े उसके अक्स के कारण!
लेकिन वो, फिर भी अकेली थी!
वो दौड़ कर, तीसरे कक्ष में गयी!
पीला और काला कालीन बिछा था वहाँ!
दीवारों पर, नीले और लाल रंग की, मोज़ाइक नक्काशी हुई थी!
छत पर, लाल रंग की नक्काशी हुई, हुई थी!
अब और कोई कक्ष न था!
वो वापिस हुई,
दौड़ी,
बाहर आई!
आसपास देखा,
कोई नहीं था वहाँ!
अब घबराहट उठी मन में!
"ह'ईज़ा?" चिल्ला के बोली वो,
आवाज़ लौट आई वापिस!
"अशुफ़ा?" चिल्ला के बोली, ज़ोर से,
आवाज़ गूंजी, कई बार!
और लौट आई वापिस! हड़बड़ा गयी वो!
नीचे उतरी!
"ह'ईज़ा?" फिर से चिल्ला के बोली,
आवाज़ गूँज उठी, पक्षी उड़ चले!
और लौट आई आवाज़ वापिस!
आगे गयी वो,
रुकी, और देखा आसपास!
"अशुफ़ा?" फिर से चिल्ला के बोली!
आवाज़, खाली हाथ लौट आई!
आगे गयी, रुकी,
"ह'ईज़ा? अशुफा?" चिल्लाई फिर से!
आवाज़, बैरंग लौट आई वापिस!
अब घबराहट बढ़ी!
कई बार नाम पुकारा!
कोई नहीं आया!
"ह'ईज़ा?" फिर से बोली,
अबकी बार नहीं चिल्लाई थी! घबराहट से,
आवाज़ गले में फंस के रह गयी!
"अशुफ़ा?" बोली अब, रुआंसी सी!
किसी ने न सुना!
"फ़ै...........................!!!" टूट गया अलफ़ाज़ गले में!
और उसके मुंह से,
एक टूटा हुआ अलफ़ाज़, बाहर निकला,
"ज़ान...................."
आँख खुल गयी!
और बेसुधी में,
एक अल्फ़ाज़, खुली आँखों से,
मुंह से निकला, "फ़ैज़ान.........."
उठ बैठी वो!
बदन के रोएँ खड़े हो गए!
माहौल सर्द हो गया था! उसके लिए!
सिमट गयी अपने आप में!
बत्ती जलायी!
चार से थोड़ा पहले का ही वक़्त था!
उसने, अपनी चादर ले ली फौरन फिर,
ओढ़ ली,
पानी पिया, थोड़ा सा,
और आ बैठी कुर्सी पर,
माथे पर हाथ रखा अपना,
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अब बेचैनी बढ़ने वाली थी शायद,
या, बेचैनी, हट ही जाती! हमेशा के लिए!
सपनों की दुनिया!
सपनों के लोग!
वो सहरा!
वो क़बीले!
वो खिच्चा!
वो हम्दा!
वो सर्द रात!
वो अलाव!
वो ह'ईज़ा! वो, अशुफ़ा! वो हाफ़िज़ा!
और वो, फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान!
माथे से हाथ हटा लिया!
मुंह से निकला एक अलफ़ाज़!
"फ़ैज़ान!"
खड़ी हुई वो,
और जा बैठी बिस्तर पर,
अपने आप में, खो गयी!
उठी! खिड़की पर गयी!
चाँद, अपनी जगह बदल चुके थे तब तक,
ढूँढा उन्हें, नहीं मिले!
उनको, और भी संदेसे ले जाने थे!
इसीलिए डिगर चले थे!
जा लेटी बिस्तर में!
जो सपना अभी देखा था,
याद हो आया!
अकेली कितना घबरा गयी थी वो!
अकेलापन क्या होता है,
किस क़द्र डराता है,
किस क़द्र काटने को आता है,
आज आ गया था समझ में!
ये है अकेलापन!
लेकिन सुरभि? ये अकेलापन कैसे हुआ?
क्या इसे, बेचैनी नहीं कहा जाना चाहिए?
सुबह के पांच बज चुके थे! अपने अकेलेपन से जूझ रही थी सुरभि!
बैठ बैठे, आँखें बंद किये, उसी बाग़ में घूम रही थी!
आवाज़ें दे रही थी, बार बार!
और तभी खिड़की के रास्ते, एक ज़ोरदार हवा का झोंका आया, पर्दे तक हिला गया था!
और लाया था अपने साथ, एक जानी-पहचानी महक!
जैसे ही नथुनों में पहुंची वो महक,
आँखें खुल गयीं सुरभि कि!
मित्रगण!
और झटके से उतरी बिस्तर से!
चली खिड़की की तरफ! चली नहीं, दौड़ी!
दिमाग में कई खिड़कियाँ, दरवाज़े खुल गए!
इसे ही कहते हैं बेचैनी!
महक ही महक! उस बाग़ में फैली वही महक!
वो बाहर देखे, अपने कपड़े सूँघे, पर्दा, सूंघा!
सभी में वो महक जैसे आ बसी थी!
चेहरे पर, रौनक लौट आई उसके!
होंठों पर, मुस्कान तैर गयी! खुश हो गयी थी वो,
पूरा कमरा महक उठा था!
झूमने का मन कर रहा था सुरभि का!
ख़ुमारी चढ़ आई थी बदन में!
रोम रोम में नशा सा चढ़ गया था!
अंग-अंग खुल गया था जैसे, उस महक से!
नदी में रुका हुआ पानी जैसे,
पीछे से आये सैलाब से बह चला था आगे!
उफनता हुआ! इठलाता हुआ! हिलोरें मारता हुआ!
उसे बार बार लगता, जैसे कि हवा में आई वो महक,
उसके बदन से खेल रही हो!
वो अपने हाथ दबाती, अपने होंठ दबाती दांतों से,
अपने कंधे, अपनी कलाइयां! ऐसी ख़ुमारी चढ़ी थी उस लम्हे!
आँखे जैसे नशे की वजह से, अधखुली हो चलीं थीं!
पूरे बदन में, गुदगुदी मची हुई थी!
उस से रहा न गया!
बिस्तर पर, पेट के बल लेट गयी!
बदन, कस गया उसका!
ले करवट उसने!
अपने दोनों हाथ, अपनी जाँघों में फंसा लिए!
भींच लिए हाथ अपने उसने जांघों से!
ये ख़ुमारी, भरी रही बदन में, सुबह होने तक,
छह बजे, अलार्म बजा! वो हुई खड़ी!
चली गुसलखाने, और सबसे पहले, बाल्टी में झाँका,
बाल्टी में, आज, दो नीले फूल पड़े थे!
वो झुकी, बैठी एड़ियों पर, उठाये फूल! मुस्कुरा पड़ी!
रख दिए वापिस बाल्टी में,
भरा पानी, और किया स्नान! पूरा बदन महक गया उसका!
कर लिया स्नान, पहने वस्त्र, और केश संवारने, चली दर्पण तक!
दर्पण में देखा, बदन में, आज आकर्षण था! अंग, पुष्ट से लगने लगे थे!
चेहरे पर, लालिमा चढ़ गयी थी! आँखें, सुरमयी सी आभा देने लगी थीं!
हो गयी तैयार! और अब चली भर,
माँ ने ज़रा घूर के देखा उसे आज, पिता जी ने एक नज़र देखा, और हटा ली नज़रें,
चाय-नाश्ता किया उसने सभी के साथ,
खाना रख लिया था, उसके बाद, मम्मी-पापा से बातें कर, चल पड़ी बाहर,
पकड़ी सवारी, और जा पहुंची कक्षा में!
आज तो सभी देखें उसे!
सभी की नज़रें चिपक जाएँ उस से!
पूरा कमरा, उस भीनी-भीनी महक से भर उठा!
कमरे में आती हवा, जैसे वो महक ला रही थी अंदर!
"अरे? आज तो तू पूरी अप्सरा सी लग रही है!" बोली कामना!
"चुप!" बोली सुरभि!
"तेरे बदन को क्या हो गया रात रात में? कैसे?" पूछा कामना ने,
न बोली कुछ!
"और आज फिर से नहा आई परफ्यूम में?" बोली छेड़ते हुए कामना उस से!
सुरभि ने, अपना बंद पेन, उसकी जांघ में गाड़ दिया तभी!
चुप हो गयी कामना तभी के तभी!
दोपहर को, कैंटीन गयीं वो,
खाना खाया, और तभी, दो फूल, घूमते हुए, अंदर आये,
और सीधा जा गिरे सुरभि के हाथ पर!
"ले! ये भी आ गए तेरे पास!" बोली कामना,
उठा लिए फूल उसने, सूँघे, ख़ुश्बू से लबरेज़!
उसने उठाया बैग, और खोला तभी, जैसे ही खोला,
पहले वाले फूल भी दिख गए, हैरत ये, कि वो,
अभी तक ताज़ा थे जैसे!
साढ़े तीन बजे वो वापिस चली!
ली सवारी, और चली वापिस घर!
आ गयी घर वापिस!
सामान रखा, माँ ने चाय की पूछी, मना कर दिया,
एक शीतल-पेय लिया और उसके गिलास में डाल,
चली अपने कमरे में,
रखा वो गिलास मेज़ पर,
अपना सामान भी रखा,
कपड़े बदले, और खोल ली खिड़की!
शीतल-पेय पीती रही, जब खत्म हुआ, तो रख दिया मेज़ पर गिलास उसने,
जा लेटी बिस्तर में,
चादर ली, और ओढ़ ली,
आँखें बंद कीं,
कुछ ही पलों में, आँखें भारी हो गयीं!
आ गयी नींद!
और नींद आई,
तो सपना भी चला आया!
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वो फिर से एक बाग़ में थी!
नेले रंग के गुलाब लगे थे वहां!
बेहद प्यारे!
कोई कोई तो, ओंस से भीगा था!
उसने, एक को छू के भी देखा,
ठंडा, शीतल और स्निग्ध!
आगे चली वो,
तो सामने, एक रास्ता दिखा,
उस रास्ते के दोनों और,
पेड़ लगे थे, करौंच के से पेड़,
एकदम हरे, पीले रंग के, गोल-गोल, बूटों से लदे हुए!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू थी वहाँ!
वो वहीँ चली!
शीतल हवा चल रही थी!
वो उस रास्ते पर आई,
और चलने लगी!
रास्ता पार किया,
फिर से नीले गुलाब दिखाई दिए!
ऐसे नीले, नील से!
जैसे ज़मीन पर, नीला एक बड़ा सा कालीन बिछा दिया गया हो!
वो चलती रही,
एक जगह, एक बुर्जी सी दिखी,
उसमे जगह जगह छेद हुए पड़े थे,
उनमे से, पानी फव्वारों की तरह आगे पड़ रहा था!
जहां पड़ रहा था, वो एक बड़ा सा चौकोर, कुण्ड सा था,
यहां से, चारों दिशाओं में, पानी जा रहा था!
जिन नालियों में पानी जा रहा था,
वो सभी सफेद पत्थर से बनी थीं!
पानी की, कल-कल आवाज़ उसे, बहुत मधुर लगी!
और फिर आगे चली वो,
आगे भी पीले और लाल फूल लगे थे!
उसका मन मोह लिया उस बाग़ ने,
वो पौधों को छूते हुए, आगे बढ़ चली!
ठीक सामने,
एक लाल सी इमारत दिखी!
वो वहीँ के लिए चल पड़ी,
और जैसे ही चली,
"सुरभि!" आवाज़ आई!
एक जानी-पहचानी!
ये अशुफ़ा थी!
संग उसके, वो ह'ईज़ा!
दोनों भाग चलीं उसकी तरफ, और अशुफ़ा ने पहले गले से लगाया उसे!
और फिर ह'ईज़ा ने!
सुरभि की आँखों में, पानी छलक आया उसी लम्हे!
अब घबराईं वो दोनों!
हड़बड़ा गयीं सुरभि को देख!
जिन्नात के पास आंसू नहीं!
इसीलिए, वो इस नमकीन पानी वाले,
आदमजात से मुहब्बत कर बैठता है!
इसी पानी का ग़ुलाम हो जाता है!
घबरा जाता है!
ख़ुशी के आंसू थे ये सुरभि के,
और उन दोनों के होश फ़ाख़्ता हो चले थे!
ग़म के आंसुओं में,
और ख़ुशी के आंसुओं में,
फ़र्क़ नहीं कर पाते जिन्नात!
वे इसे इतना ही समझते हैं,
कि उनके होते हुए, अगर आदमजात के आंसू बहे, तो लानत है!
इसीलिए वे भी घबरा गयीं!
अपनी उँगलियों से,
दोनों ने ही आंसू पोंछे उसके!
"क्या बात ही सुरभि?" बोली ह'ईज़ा!
"मैंने कल कितनी आवाज़ें दी आपको, कोई नहीं आया!" बोली रुआंसी सी,
गले से लगा लिया उसी लम्हे ह'ईज़ा ने!
"हम नहीं थे वहाँ कल!" बोली ह'ईज़ा!
"मैं डर गयी थी बहुत!" बोली वो,
"डरना कैसा सुरभि? हमारे होते हुए?" पूछा अशुफ़ा ने!
और तभी, पीछे से कुछ आहट हुई,
सुरभि जैसे ही घूमी पीछे कि........................

सुरभि ने पीछे मुड़के देखा, चिंतित सा, संजीदा, फ़ैज़ान, सफ़ेद, शफ़्फ़ाफ़ वस्त्रों में, आ पहुंचा था वहां, चमक इतनी ज़्यादा थी, कि सुरभि को अपनी आँखें मींचनी पड़ीं! वो आया, नज़रें मिलीं सुरभि से, आया ठीक उसके सामने, और देखा उसका चेहरा, सुरभि की आँखों के नीचे, उन आंसुओं के दाग़ बाकी रह गए थे, वही देख रहा था वो! वो संजीदा था, नीली चमकदार आँखों में, संजीदगी इस क़दर भरी हुई थी, कि जैसे, उसकी जान पर बनी हो!
"अशुफ़ा?" बोला, एक घबराई हुई आवाज़े,
"जी?" बोली वो,
"ये...........ये" बोला वो,
ऊँगली से, सुरभि के गालों पर पड़े, उन निशानों को देखते हुए,
"हाँ भाई जान, मैंने समझा दिया है!" बोली वो,
"नहीं......क्यों..............क्यों..........वजह..?" बोला वो,
आवाज़ लरज रही थी फ़ैज़ान की, सुरभि को दाग़ लगे, ऐसा कैसे मंज़ूर होता उसे? और आंसू? उसके होते हुए? इसीलिए, परेशान था वो, चेहरा लाल हो गया था, आँखें देख, पता चलता था कि, उसके दिल में, जैसे बहुत गहरी खरोंच पहुंची हो!
"सुरभि? आप..........आप..........क्यों.....रोये? वजह..........?" पूछा फ़ैज़ान ने, घबराया हुआ हो जैसे!
उस लम्हे, सुरभि भांप गयी थी, कि उसके आंसुओं से, सभी आहत हुए थे, इतना प्रेम देख, वो, मुस्कुरा पड़ी!
और जैसे ही मुस्कुराई, सभी में जैसे जान पड़ी!
फ़ैज़ान की आँखें चमक पड़ीं! चेहरा खिल उठा! मुस्कराहट आ गयी चेहरे पर!
"अशुफ़ा? जाएँ, आप अंदर ले जाएँ सुरभि को!" बोला फ़ैज़ान!
"जी!" बोली अशुफ़ा!
और सुरभि का हाथ पकड़, ले चली अंदर उसे,
फूल बिछ गए थे, वही बड़े बड़े, गुलाब के फूल!
वे चलीं अंदर, और फ़ैज़ान, सुरभि को जाते देखता रहा!
ग़ौर से, अपनी नज़र के डोरे, सुरभि से बांधे हुए!
वे अंदर चलीं, तो चला वो भी अंदर के लिए!
सुरभि को, बिठाया गया पलंग पर,
पानी दिया गया, पानी पिया सुरभि ने,
आया अंदर फ़ैज़ान, गिलास रखते देखा था उसने सुरभि को,
उठाया गिला उसने, वही वाला, डाला पानी और पी गया!
सुरभि के मन में, तार झनझना उठे उसी पल!
नज़र मिली फ़ैज़ान से,
फ़ैज़ान की उस से, मुस्कुरा पड़ा फ़ैज़ान!
और मुस्कुरा गयी सुरभि भी!
आ बैठा वो भी, अपनी बहनों के संग!
"ह'ईज़ा? खाने के इंतज़ामात किये जाएँ सुरभि के लिए!" बोला फ़ैज़ान!
"ज़रूर!" बोली वो, और चली!
"सुरभि, एक इल्तज़ा है, मानेंगे आप?" बोला फ़ैज़ान, संजीदा होकर,
सुरभि ने कहा कुछ नहीं, बस हाँ में सर हिलाया अपना!
"आप क़ौल दें हमें, आज के बाद, इन आँखों में, ये आंसू नहीं लाएंगे, आपके आंसू नहीं बर्दाश्त किये जाते हम से, हम, टूट के रह जाते हैं, मज़बूर हो जाया करते हैं, आंसू कभी न लाइए, हुक़्म कीजिये आप, अपना वजूद बेच कर भी हम, आपकी हर खवाहिश, पूरा करेंगे!" बोला फ़ैज़ान, हाथ बांधते हुए अपना,
एक बूँद आंसू!
और उसका सारा वजूद!
क्या कहूँ इसे?
ये कैसी इंतिहा-ए-इल्तज़ा?
ये कैसा इश्क़?
ये कैसी चाहत?
ऐसे अलफ़ाज़, कभी न सुने थे सुरभि ने!
वो फ़ैज़ान, जो बेहद सुंदर, और बेहद सुलझा हुआ सा जान पड़ा था, कैसा क़ौल मांग रहा था उस सुरभि से!
"क़ौल दें हमें, सुरभि? अब न कभी आंसू लाएंगे आप?'' बोला फ़ैज़ान,
एक संजीदगी भरे लहजे में!
सर हिलाया अपना हाँ में,
और फ़ैज़ान, जैसे मनमाफ़िक मुराद मिली उसे!
ह'ईज़ा ले आई थी सामान,
एक बड़ी सी तश्तरी में, मेवे-पिस्ते, मिठाइयां, फल सब के सब!
पकड़ा फ़ैज़ान ने, खड़े होकर, और रखा सुरभि के पास,
"लीजिये सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने वो सामान देखा,
फ़ैज़ान खड़ा था, साथ ही,
"हम, बैठ जाएँ सुरभि, यहां?" पूछा उसने,
संग बैठने के लिए उसके,
"बैठ जाइये!" बोली सुरभि!
मुस्कुरा पड़ा फ़ैज़ान, और एक मुक़र्रर दूरी बना, बैठ गया,
अपन कुरता, अपने घुटनों में दबा लिया था,
ताकि, छू न जाए, सुरभि से,
अमानत में ख़यानत न हो जाए,
उठाये पिस्ते, छीले उसने, करीब चार,
"लें आप, ये, सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने हाथ बढ़ाया,
और एक मुक़र्रर दूरी से, रख दिए मेवे हाथ में,
"लीजिये!" बोला वो,
सुरभि, खाने लगी,
और फ़ैज़ान, छीलने लगा, छीलता और रख देता तश्तरी में!
"ये लीजिये आप, ताज़ा हैं, अभी मंगवाए हैं!" बोला वो,
वो शहतूत थे, शाही-शहतूत!
ख़ुश्बू आ रही थी उनमे से!
सोने के जैसे, वर्क़ में, रखे थे,
एक एक शहतूत, करीब, आठ-आठ इंच का, ऐसा बड़ा शहतूत!
उठाया एक, काला और बैंगनी था वो रंग में,
"ये लें आप सुरभि!" बोला वो,
और रख दिया हाथ पर सुरभि के,
एक नाख़ून, छू गया उसकी कलाई से, सुरभि का,
उसने, तभी देखी अपनी कलाई,
उस गोरे, लाल हाथ पर, निशान ही छप गया था!
मुस्कुरा पड़ा वो,
और, फिर से एक शहतूत उठा लिया उसने,
इंतज़ार किया, खाने का पहले वाले, शहतूत का,
जब खा लिया, तो आगे बढ़ाया हाथ अपना,
"ये भी लें सुरभि!" बोला वो,
ले लिया सुरभि ने, शहद भी क्या मायने रखता उनकी मिठास का!
ऐसी मिठास थी उनमे!
''अब ये लें आप!" बोला वो,
वो हम्दा था, केसर और खसखस में डूबा हुआ!
"इस से आपके बदन को, थकावट न होगी! आप सेहतमंद रहेंगे!" बोला वो,
उठाते हुए, उस हम्दा को, एक छोटी तश्तरी से,
जब वो ऐसा कर रहा था, बोल रहा था,
तो सुरभि की एक चोर-नज़र, उसका मु'आयना कर रही थी!
कैसे, अपने सगों जैसा लहजा था उसका,
उसका, अपना ही कोई!
"ये लीजिये!" बोला वो,
और मिलीं नज़रें सुरभि से उसकी,
सुरभि ने हटाईं नज़रें,
फ़ैज़ान ने चुराईं नज़रें!
बढ़ा दिया हाथ अपना आगे, सुरभि ने,
और रख दिया हम्दे का एक टुकड़ा उसके हाथ पर!
"अब आप ये लें सुरभि!" बोला वो,
वो अलक़श था!
दूध को औटा कर, जैसे खोया बनता है,
वैसे ही, ये अलक़श होता है,
इसमें, मेवों का चूरा मिलाया जाता है,
फिर, केसर के संग, भूना जाता है,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

स्वाद में, इसका कोई सानी नहीं,
आपने ये खाया हो, तो बर्फ भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ेगी!
"बस!" बोली सुरभि!
"आप, खा कर तो देखें?" बोला फ़ैज़ान,
"बस, अब और नहीं!" बोली वो,
"अच्छा, मान लिया, ज़रा सा! हम गुज़ारिश करते हैं!" बोला फ़ैज़ान,
होंठों पर, एक मुस्कान सी तैरी!
ले लिया, ज़रा सा वो अलक़श,
और रख लिया मुंह में अपने,
सुरभि को, देखता रहा फ़ैज़ान!
एकटक, खाते हुए!
"ह'ईज़ा? शरबत लाएं आप, सुरभि के लिए!" बोला वो,
"नहीं नहीं! अब नहीं!" बोली वो,
"कोई बात नहीं! आप की राजी हमारे लिए हुक़्म!" बोला वो,
"आबगीना ले आएं, ह'ईज़ा?" बोला वो,
"अभी!" बोली वो, और चली,
ले आई वो आबगीना, पकड़ लिया हाथों में,
"लीजिये, हाथ धो लीजिये, सुरभि!" बोला वो,
हाथ धोये सुरभि ने,
आबगीना दिया वापिस ह'ईज़ा को,
और फिर से, अपने कुर्ते से, उसके हाथ पोंछ दिए!
"अशुफ़ा, ले जाएँ सुरभि को, आराम करवाएं इन्हें!" बोला वो,
"जी!" बोली अशुफ़ा,
और उन दोनों ने, उठाया उसको, ले चलीं साथ अपने!
और फ़ैज़ान, बैठ गया वहीँ!
आँखें बंद किये अपनी,
आँखों में, सुरभि का अक्स छिपाए!
उधर, सुरभि को, लिटा दिया उन्होंने!
अशुफ़ा, आ गयी थी वापिस,
और ह'ईज़ा, संग रह गयी थी सुरभि के!
"ह'ईज़ा?" बोली सुरभि,
"जी, सुरभि?" बोली वो,
"आप वापिस क़बीले में नहीं गयीं?" बोली सुरभि,
"बस, अब वहीँ जाना है!" बोली वो,
"आपके भाई नहीं आते वहां?" पूछा उसने,
वो मुस्कुरा दी!
हाथ पकड़ा सुरभि का!
"आप के मारे!" बोली ह'ईज़ा!
आप के मारे?
मतलब?
उसने तो नहीं रोका?
फिर क्यों?
बैठ गयी सुरभि तभी!
"मैं नहीं समझी?" बोली सुरभि,
"आपको, परेशानी न हो, इसलिए!" बोली वो,
"कैसी परेशानी?" पूछा सुरभि ने,
"वो जगह तंग है, एक कमरा ही मानो, आपकी हया को मायने देते हैं भाई जान! इसीलिए!" बोली ह'ईज़ा!
अब सुरभि,
सोचने पर मज़बूर!
बात, देखा जाए, तो सही थी,
वो जगह तंग थी, सच में,
वो तम्बू, आठ गुणा दस फ़ीट का ही होगा,
फ़ैज़ान वहाँ आता, तो हया के मारे,
गड़ ही जाती ज़मीन में तो सुरभि!
लेकिन,
दिल ने कहीं शरारत खेली!
अब होता है ऐसा!
सभी के साथ!
"ऐसा नहीं है ह'ईज़ा!" बोली वो,
"कैसा, सुरभि?" बोली वो,
"वो, वहाँ हों, तो कैसा लगे?" बोली सुरभि,
"सच में सुरभि?" बोली वो,
"हाँ, अच्छे हैं आपके भाई!" बोली सुरभि!
अब पास सरक आई ह'ईज़ा उसके!
हाथ पकड़ ही रखा था उसका,
हाथ छोड़ा,
उसका चेहरा, दोनों हाथों में, ले लिया,
और चूम लिया माथे को!
"एक बात कहूँ?" बोली ह'ईज़ा!
"क्या?" बोली सुरभि,
"बुरा तो न मानोगी?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली सुरभि,
"डाँटोगी तो नहीं?" पूछा फिर से,
मुस्कुरा गयी सुरभि!
"नहीं!" बोली वो,
"हमारी क़सम?" बोली ह'ईज़ा, सुरभि का हाथ,
अपने सर पर रखते हुए,
"आप कहें तो सही?" बोली सुरभि,
"हमारी क़सम?" बोली वो,
"हाँ!" बोली वो,
चुप हुई ह'ईज़ा!
आँखों में,
संजीदगी आई!
आँखों के दीदे,
दोनों के ही,
आपस में, एक दूसरे से लड़े,
"कह दें?" बोली वो,
"कहें?" बोली सुरभि,
"कहते हैं!" बोली वो,
और अपनी आँखें, बंद कर लीं ह'ईज़ा ने!
सुरभि एकटक,
उसी को देखे!
इंतज़ार किये जा रही थी!
"बोलिए?" बोली सुरभि!
"हमारे भाई जान, फ़ैज़ान, आपसे, इंतिहाई मुहब्बत करते हैं सुरभि!" बोली ह'ईज़ा.
और आँखें खोलीं अपनी!
और तभी!
तभी आँख खुली सुरभि की!
झटके से हुई खड़ी!
साँसें, बेक़ाबू!!

हांफने लगी थी वो! दिल, ऐसा धड़के, जैसे अभी, पसलियां फाड़, बाहर आ जायेगा!
अपने कानों से भी धड़कन सुनाई पड़ रही थी उसे!
पसीने से तर-बतर हो चली थी उस वक़्त वो!
पेशानी पर पसीना छलछला गया था!
गरदन से बहता पसीन, राह ढूंढ रहा था!
ठुड्डी पर पसीना, टप-टप टपके जा रहा था!
उसने तभी साँसों को क़ाबू करने के लिए,
लम्बी लम्बी साँसें भरीं! कुछ धड़कन अब क़ाबू आयीं!
पसीना , चादर से पोंछ लिया था! वो बैठ गयी!
दीवार से कमर सटा ली,
घुटने ऊपर मोड़ लिए! और हाथ रख उन पर,
अपना सर टिका लिया!
ह'ईज़ा के वो अलफ़ाज़, वो आतशी अलफ़ाज़ उसके कानों में,
अभी तक गूँज रहे थे!
मुहब्बत!
मुहब्बत करते हैं फ़ैज़ान सुरभि से!
इंतिहाई मुहब्बत!
इस से पहले, इस लफ्ज़ से साबक़ा, न पड़ा था उसका!
सुना था, कुछ कहानियां पढ़ीं थीं, कुछ फ़िल्में देखी थीं, बस,
लेकिन हक़ीक़त की ज़िंदगी में, इस लफ्ज़ से कभी पेश आना न हुआ था उसका!
दिल की धड़कन, फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी!
वो आतशी अलफ़ाज़, फिर से गूंजे!
ये क्या कह दिया ह'ईज़ा ने?
कहाँ फ़ैज़ान, और कहाँ वो?
फ़ैज़ान की हैसियत के आगे,
भला वो है क्या?
वो बाग़, वो ज़ायदाद, वो इमारतें!
और वो खुद फ़ैज़ान! कौन होगी वो जो,
दामन न थामेगी उसका? एक से बढ़कर एक!
इंसान थी, इंसानी तक़ाज़े आड़े आ ही जाने थे, तो आ गए!
घड़ी का अलार्म बजा,
छह बज गए थे!
अलार्म बजे ही जा रहा था!
काफी देर हुई, वो उठी,
बंद किया अलार्म,
खिड़की तक गयी, बाहर देखा,
सुबह की आमद से, ज़मीनी लोग, अपने अपने कामों में लग गए थे!
परिंदे, सुबह का गा-गा कर, ख़ैर-मक़्दम कर रहे थे!
सुहानी सुबह थी वो!
बंद कर दी खिड़की उसने,
ढक दिया पर्दा उसने,
और चली गुसलखाने,
धीरे से, बाल्टी में झाँका,
कोई फूल नहीं था, वो झुकी,
बैठी, उठाया मग उसमे से,
फिर देखा, कोई फूल नहीं!
आसपास देखा, बाल्टी के नीचे देखा,
कोई फूल नहीं था!
आज फ़ैज़ान, नहीं आया था! वो रुक गया था!
उसमे सब्र था, और सब्र के इम्तिहान से ही गुजरवा रहा था,
अपनी आदमजात महबूबा को!
क़ाबिल होते हुए भी रुकना, थम जाना,
यक़ीनन सब्र ही था उस जिन्न फ़ैज़ान के लिए!
नहीं तो, इस लम्हे में क्या और उस लम्हे में क्या!
तो कोई फूल नहीं मिला था उसे,
आज ज़रा, संजीदा थी वो,
संजीदा, जानो कि कैसे!
अपने आपको ही टटोल रही थी,
नाप-तोल चल रही थी,
तोला-माशा जांचा जा रहा था!
रत्ती भर इधर, या उधर खिसके,
तो सब खत्म!
तो कसौटी-जांच थी ये!
इसी को मैंने, संजीदा लिखा!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने, और केश संवार, हुई तैयार,
उठाया अपना ज़रूरी सामान! उठाया बैग,
और चल पड़ी बाहर,
मम्मी-पापा से मिली, कुणाल से मिली,
"सुरभि?" बोली माँ,
"हाँ मम्मी?" बोली वो,
"नीरज का रिश्ता पक्का हुआ था न? अब इस सोलह की सगाई है!" बोली माँ,
"अच्छा!" बोली वो,
बस इतना ही कहा,
ये न कहा, कि ये चाहिए और वो चाहिए,
जैसा कि अक्सर ही, कहा करती थी वो!
संजीदा!
इसीलिए लिखा मैंने!
चाय-नाश्ता किया उसने, चुपचाप,
खाना रखा बैग में, और उनको बता, घर से निकल पड़ी,
ली सवारी, और जा पहुंची कक्षा,
रास्ते भर, वही अलफ़ाज़, गूंजते रहे कानों में,
पीछा ही न छोड़ा उसका!
यातायात का शोर, चिल्ल-पों, कुछ सुनाई नहीं दिया!
कक्षा में जा पहुंची,
बैठी, अपनी सखाओं के संग,
आज सिर्फ देखा उन्हें,
बात न की,
कोई भी, कैसी भी,
कामना और पारुल समझ गयीं कि आज मामला संजीदा है कुछ!
शायद, मम्मी या पापा से कोई बात हुई है!
वे भी चुप्पी साधे रहीं!
दोपहर में,
किया भोजन कैंटीन में,
"क्या बात है सुरभि?" पूछा कामना ने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"हमें नहीं बताएगी?" बोली कामना,
"कुछ नहीं है" बोली वो,
"कुछ तो है ही!" बोली पारुल,
खिड़की से बाहर झाँका उसने,
आज कोई फूल नहीं!
कुछ न बोली किसी से भी,
हाथ में पेन, और खुली डायरी!
बाहर देखे जाए,
वे अलफ़ाज़, कानों में गूंजे जाएँ,
वो आँखें बंद करे,
फिर खोले,
और वे दोनों, उसे देखे ही जाएँ!
"ये क्या लिखा तूने?" बोली पारुल,
अब झटके से देखा सुरभि ने!
डायरी पर, पेन से, अंग्रेजी में, फ़ैज़ान लिख दिया था!
इस से पहले कि वो देखतीं,
एक झटके से, डीरय बंद कर दी उसने!
पारुल और कामना, खूब चिल्लाती रही,
गुस्सा करती रहीं!
गिड़गिड़ाती रहीं!
लेकिन, न दिखाया उसने!
करीब साढ़े तीन बजे,
वो वापिस हुई,
चौराहा पार किया,
और ले ली सवारी,
चल पड़ी घर वापिस,
आज पहला दिन था उसकी ज़िंदगी का,
जब उसके होंठ, संजीदगी ने सील डाले थे!
नहीं तो,
हंसना, मुस्कुराना, आम बात थी सुरभि के लिए!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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