सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"क्या बात है?" पूछा उसने सुरभि से,
"क्या हुआ?" बोली सुरभि,
"बीमार है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोली सुरभि,
"आज रंगत कैसी है?" बोली कामना,
"नींद नहीं आई रात को ठीक से!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"पता नहीं" बोली वो,
की पढ़ाई,
दोपहर को, कैंटीन में चलीं तीनों,
किया भोजन तीनों ने,
चौखट पर खिड़की की,
फूल गिर रहे थे घूम घूम के,
एक उठाया सुरभि ने,
सूंघा, तो कोई महक नहीं!
रख दिया वहीँ!
और पढ़ाई के बाद, वापिस घर के लिए निकली,
पार किया चौराहा,
ली सवारी,
और चल पड़ी घर के लिए,
अपने आप में उलझी हुई! खोयी हुई!
एक जगह...............!!
और एक जगह, रास्ते में ही, उसकी नज़र पड़ी! लाल-बत्ती हुई थी, साथ वाले वाहन में, कुछ पौधे रखे थे, उनमे कुछ ऐसे ही फूल थे, जैसे उसने देखे थे उसी बाग़ में! आँखें खुलीं रह गयीं! मुंह खुला रह गया! उसने गौर से देखा, ठीक वैसे ही थे! लाल-बत्ती खत्म हो, हरी-बत्ती हुई, और उसकी सवारी आगे बढ़ी, उसने पीछे मुड़कर देखा, पौधे वाला वाहन, बाएं मुड़ गया था! वो देखती रही उसे! दिल की धड़कन बढ़ी! वो फूल नज़र आये फिर से आँखों में, सोच में! वो बाएं मुड़, बार बार उसी वाहन को खोजती रही, लेकिन वो तो अब ओझल हो चुका था! ओझल वो हुआ, और हावी हुआ सुरभि पर वो हाल! घर पहुंची वो, अपना बैग रखा, सामान रखा, गुसलखाने गयी, बाल्टी में निगाह डाली, कोई फूल नहीं था! हाथ-मुंह धोये, और वापिस होते समय, फिर से बाल्टी को देखा! कोई फूल नहीं! अपना चेहरा पोंछा, और अपने हाथ, जैसे ही हाथ पोंछे, वो जकड़न याद आई उसे! उस जकड़न की नकल की उसने! न कर सकी! हाथ पोंछ लिए, अपने बैग में से टिफ़िन निकाला, और चली बाहर, रसोई के सिंक में, रख दिया, गयी दूसरे कमरे में, फ्रिज में से पानी की बोतल निकाली, पानी गिलास में डाला, पिया, और बोतल रख दी वापिस, मुंह में आखिरी घूँट ले, चली अपने कमरे में, अब अपने वस्त्र बदले, दर्पण देखा, अपने केश संवारे, और जा लेटी बिस्तर में! छत को देख, अपना एक घुटना हिलाती रही, एक हाथ से, अपने बालों की एक लट को, अलबेटे देते रही! उस छत में, छेद ही जो न हो जाता! ऐसी नज़र से देख रही थी सुरभि उस छत को! तभी उसकी मम्मी की आवाज़ आई, उसको बुलाया था उन्होंने, वो उठी, पहनी चप्पल, और चली मम्मी के पास,
"हाँ मम्मी?" बोली सुरभि,
"इधर बैठ" बोली माँ,
वो बैठ गयी,
"नीरज का रिश्ता पक्का हो गया है!" बोली माँ,
"अरे वाह मम्मी! कहाँ से?" पूछा उसने,
"दिल्ली से, लड़की बहुत अच्छी है!" बोली माँ,
"अपने भोंदू भैया की क़िस्मत चमक गयी!" बोली सुरभि!
माँ भी हंस पड़ी!
नीरज से कुछ ज़्यादा ही खटपट रहती थी सुरभि की,
वो सबसे बड़ा था भाइयों में, लेकिन सुरभि उसे भी डाँट दिया करती थी!
भाई की हिम्मत नहीं, कि कुछ बोल सके!
"क्या नाम है मम्मी भाभी जी का?" पूछा उसने,
"विधि!" बोली माँ,
"अच्छा! चलो, भैय्या को अब कुछ विधि-विधान समझ आ जाएंगे!" बोली सुरभि!
माँ भी हंस पड़ी! उसकी इस बात पर!
तभी माँ न एक डिब्बा उठाया, मिठाई का डिब्बा सा लगता था,
"ये ले!" बोली माँ,
सुरभि ने लिया,
और खोला उसको,
जब खोला, तो जैसे एक झटका सा लगा उसे!
पिस्ते! मेवे! और सूखी हुई खुर्मानी!
देखती रही, उठा न सकी!
कहीं और जा पहुंची थी!
"ले, क्या देख रही है?" माँ ने कहा,
तन्द्रा टूटी! माँ ने खुर्मानी, पिस्ते और मेवे दे दिए हाथ में उसके!
वो उठी, और चली अपने कमरे की तरफ,
आई कमरे में, रखे वो मेवे-पिस्ते और खुर्मानी, एक किताब पर,
खींची कुर्सी, बैठी उस पर, जैसे बदन भारी हो चला हो उसका!
उठाया एक पिस्ता, उसका खोल छीलना था, फिर एक परत भी छीलनी थी,
उसने कोशिश की छीलने की, बहुत कड़ा था, उँगलियों पर, निशान पड़ गए!
छील तो लिया, फिर नाख़ून से वो परत भी छील ली,
एक पिस्ते ने ही मेहनत करवा दी थी इतनी!
खुर्मानी ली, उसको देखा, बहुत छोटी लगी उसको वो!
खाती रही, और खोयी रही!
खा लिए सभी, बड़ी मेहनत करनी पड़ी उसे!
उठी, और पानी पीने चली,
पानी पिया, और वापिस हुई,
अब जा लेटी!
अब लेटी तो आँखें बंद हुईं!
आँखें बंद हुईं, तो आया एक सपना!
सपने में, रात थी वो!
सर्द हवा चल रही थी!
ठूंठ से पेड़, छोटे से पेड़ पड़े थे उधर!
ये सहारा था! आकाश में, तारे थे, ऐसे करीब दिखें कि,
हाथ बढ़ाओ, और पकड़ लो!
चाँद, ऐसे करीब, कि उछल के छू लो!
तारों का प्रकाश,
चाँद का प्रकाश,
जब रेत के कणों से टकराता था,
तो रेत ऐसे चमकती थी कि,
जैसे ज़मीन पर हीरे पड़े हों! छोटे छोटे!
उसने अपने दोनों हाथ बांधे हुए थे!
सर्दी के मारे, रोएँ खड़े थे!
आसपास देखा, तो पीछे,
अलाव जल रहा था एक बड़ा सा,
वो चल पड़ी उधर ही,
रेत बहुत ही ठंडी थी!
छू जाती थी, तो बर्फ का सा एहसास देती थी!
वो चलती रही, और अलाव करीब आता रहा,
वहां तम्बू लगे थे, लेकिन ये को नख़लिस्तान न था!
उसे फुरफुरी चढ़ी!
नाक-कान सब ठंडे हो गए!
तभी उसे अलाव पर से, एक महिला आती दिखाई दी,
उसके हाथ में, कंबल था!
वो महिला मिली, और उसने, उढ़ा दिया वो कंबल उसे,
कमर पर हाथ रख, ले चली संग अपने!
अलाव पर पहुंचे वो,
वहाँ, बुज़ुर्ग और वृद्धा लोग बैठे थे,
उस महिला ने, हम्दा दिया उसे!
एक लड़की आई, हाथ किया आगे,
और हाथ पकड़, सुरभि का, ले चली संग अपने!
अपने तम्बू में आई,
यहां सर्दी नहीं थी,
बिठाया उसे, मोटा सा कंबल दिया उसको!
"ह'ईज़ा और अशुफ़ा कहाँ हैं?" पूछा उसने,
उस लड़की ने, मना किया, कि वो नहीं जानती उन्हें!
"आप नहीं जानतीं?" पूछा सुरभि ने,
"नहीं, वो इस वक़्त पश्चिमी सहारा में होंगे! ये पूर्वी सहारा है!" बोली वो,
दिल में, कागज़ सा फटा सुरभि के!
"आप लोग कौन हैं?" पूछा सुरभि ने,
"हम, सहरावी हैं!" बोली वो,
"उनसे कैसे मिल सकती हूँ मैं?" पूछा सुरभि ने,
"जाना होगा आपको!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा सुरभि ने,
"जानते हुए भी अनजान हो?" बोली वो,
"कैसे अनजान?" पूछा सुरभि ने!
वो लड़की मुस्कुरा पड़ी!
आई उसके पास,
देखा उसको उसकी मोटी मोटी आँखों में,
आँखों में, बेचैनी पढ़ ली थी उसने!
"बेचैन हो सुरभि?" पूछा उस लड़की ने,
कुछ न बोली!
इंसान में यही तो सिम्त है!
जो होता है, वो क़ुबूल नहीं करता!
तो नहीं होता, उसके होने का दावा पेश करता है!
इसीलिए न बोली!
बस देखती रही, उस लड़की को!
वो लड़की, चली एक तरफ,
एक छोटी से देग़ रखी थी वहां,
चमचे से, एक गिलास में,
खिच्चा डाला उसने,
और ले आई सुरभि के पास,
दिया उसे, लिया सुरभि ने,
और बैठ गयी संग उसके!
"पियो सुरभि!" बोली वो,
सुरभि ने गिलास लगाया होंठों से,
और भरा एक घूँट!
"आपका नाम क्या है?" पूछा सुरभि ने,
"हाफ़िज़ा, सुरभि!" बोली वो,
"मुझे बताएं हाफ़िज़ा, कि कैसे मिलूं उनसे?" पूछा सुरभि ने,
"आप खुद जानती हैं सुरभि!" बोली वो,
उलझ गयी थी सुरभि!
क्या जानती है वो?
ऐसा क्या कि?
उस से अनजान है वो?
क्या है ऐसा?
बेचैन!
हाँ! बेचैन तो हूँ!
लेकिन कहूँ कैसे?
और फिर कहूँ भी किस से!
"हो न बेचैन?" पूछा हाफ़िज़ा ने!
न बोली कुछ,
खिच्चा पी लिया था, रख दिया था गिलास उसने,
"सुरभि?" बोली हाफ़िज़ा!
देखा सुरभि ने,
आँखों में, बेचैनी के साथ, एक तलब भी लगी थी साथ में!
वो अब तलबग़ार भी थी!
क्या क्या छिपाए सुरभि!
न छिपे!
आँखों के रास्ते, बाहर आते जाएँ वो छिपे हुए अंकुर!
अपनी एक ऊँगली,
सीधे कंधे के नीचे छुआई हाफ़िज़ा ने, सुरभि के!
"सुरभि!" बोली वो,
"हूँ?" हल्का सा बोली सुरभि!
"बेचैन हो न?" पूछा उसने,
कुछ न बोले! कंबल को, बस उमेठे जाए,
अपनी ऊँगली और अंगूठे से!
मुस्कुराई हाफ़िज़ा!
"रात गहरा गयी है! सो जाओ सुरभि!" बोली हाफ़िज़ा!
बाहर अलाव की लपटें उठ रही थीं,
और इधर दिल में सुरभि के अगन सुलगने में, देर न थी!
धुंआ उठने लगा था, बस, एक फूंक की ज़रूरत थी!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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उधर आँखें बंद हुईं सुरभि की, और इधर खुल गयीं!
उसके रोएँ खड़े हो गए थे!
हांफने लगी थी वो, अकारण ही!
ये सब दिमाग का खेल था! उसका दिल और दिमाग,
दोनों एक संग नहीं चल रहे थे,
दिल कहीं और भागना चाहता था,
और दिमाग, कहीं और!
वो उठी, घड़ी देखी, सात बज चुके थे,
दिल में, एक अजीब सी घुटन थी,
बेवजह की घुटन, जैसे अंदर ही अंदर, दम घुट रहा हो!
उसने खिड़की खोली, ठंडी हवा ने उसका बदन टटोला!
राहत मिली,
और एक शब्द कान में गूंजा उसके,
बेचैन! क्या वो सच में ही बेचैन है?
बेचैन है, या फिर कोई और दुविधा?
वो सहरावी हाफ़िज़ा, याद आ गयी उसे!
जाना होगा! यही कहा था उसने उस से!
लेकिन, वो जाए तो कहाँ जाए?
और कैसे जाये?
कोई घंटे भर, इन्ही सवालों में उलझी रही सुरभि!
कुर्सी पर बैठे बैठे, आँखें बंद कर लेती,
कभी बाहर झांकती, कभी कमरे में टहलती,
उसका फ़ोन तीन बार बजा, नहीं उठाया उसने,
मन न था किसी से बात करने का!
इसे बेचैनी न कहें, तो क्या कहें? क्या नाम दें दूसरा?
वो तब चली गुसलखाने, हाथ-मुंह धोये अपने,
फिर बाल्टी में झाँका, कोई फूल नहीं!
उसने आसपास भी देखा, कोई फूल न था!
बाल्टी में झाँका, आसपास देखना,
ये बेचैनी नहीं है, तो और क्या है?
खैर, वो चली बाहर, छत पर चली आई,
मन था किसी से भी बात करने का, छत पर,
बीच का मौसम था, कभी सर्दी सी हो जाती, और कभी गर्मी सी,
उस शाम मौसम ठंडा था,
वहां एक फोल्डिंग-पलंग पड़ा था,
उस पर ही बैठ गयी सुरभि,
पश्चिमी क्षितिज पर, सूर्यदेव जा चुके थे,
अब उनकी लालिमा ही शेष थी!
वो लेट गयी पलंग पर, पांव एक दूसरे में फंसा दिए,
आँखें बंद कर लीं, और गुनगुनाने लगी वही गीत!
बहुत अच्छा लगता था उसे वो गीत!
उसमे मधुरता थी, एक आनंद था, अलग ही!
वो हल्की सी मुस्कान ले आई अपने होंठों पर,
आँख खुल गयीं थीं उसकी! अब धुंधलका छाने लगा था!
ये धुंधलका तो रोज होता है, रोज ही,
लेकिन दिल में जो धुंधलका था, वो कभी नहीं हुआ था पहले,
बस, इस से ही वो उलझ गयी थी,
हाथ-पाँव मारे तो कहाँ मारे!
किसको पुकारे! और कौन आएगा!
आँखें बंद हुईं उसकी, गीत फिर से निकला मुंह से!
पांव, अपने आप थिरक उठे!
बदन, जैसे पलंग के आगोश में, चला गया पूरी तरह!
सुरभि, उस लम्हे, सुरभि न रही, एक बे'दु'ईं हो गयी!
जिस इन्तज़ार था अपने महबूब का! जो, गया हुआ था बाहर,
उसके लौटने के इंतज़ार, लम्हा-दर-लम्हा, लम्बा हुए जा रहा था!
वो खो गयी थी उस लम्हे!
तम्बू के उस मुहाने से, बाहर झांकती,
उसकी निगाह, दूर सहरा में, टटोल रही थी कुछ!
वो सहरा, धूप में, तप रहा था, मरीचिका बनी हुई थी!
जैसे उस सहरा की रेत पर, पानी जमा हो, जो अब बर्फ बना गया हो!
उसके ऊपर, ताप की वो भंवरिका नाच रही थी!
अपने सर से बंधे उस लाल कपड़े का एक सिरा अपने दांतों से पकड़े थी,
नज़रें, बस वहीँ लगी थीं!
वही गीत गुनगुनाये जा रही थी!
उस सहरा में, कोई हरकत न थी,
कोई हलचल नहीं!
दूर तलक बस निगाह जाती,
ठहरती, और लौट आती, मन मसोस के रह जाता उसका!
सन्नाटा पसरा था हर तरफ!
जब हवा चलती, तो रेत की लहरें बन जाती उस सहरा पर!
उसने तसव्वुर किया,
अपने को रेत की जगह रखा!
ये रेत भी तो, हवा में उड़ने लगती है,
हवा रूकती है, तो फिर से सहरा का दामन चूमने लगती है रेत!
इसी सहरा की कैदी है वो रेत!
ठीक, जैसे अब सुरभि, अपनी बेचैनी की कैदी बन गयी!
फिर से हवा चली, तम्बू की कनातें अंदर की ओर झुकीं!
बाहर, तम्बू से बंधी डोरियाँ छटपटायीं खुलने के लिए,
उनको परछाइयाँ, ज़मीन पर रेंगते हुए साँपों जैसे लगतीं!
लेकिन निगाह, बरबस, दूर, उधर, आने वाले रास्ते पर टिक जातीं! बार बार!
सुरभि? ये बेचैनी नहीं है, तो और क्या है?
फिर से हवा का शोर उठा!
तम्बू से थोड़ा ही दूर, एक कपड़ा ज़मीन चूमता उड़ चला!
रुका, हवा चली, तो फिर घूमा!
उसे भी इंतज़ार था! कि कुछ सहारा मिले, तो ठहर जाए कहीं!
थक गया था उड़ते-उड़ते, घूमते-घूमते!
अचानक ही,
ऊंटों के गले में बंधी घंटियाँ बजीं!
उनके रेंकने की खर-खर की आवाज़ें आयीं!
दिल में धड़कन हुई तेज!
आँखें फ़ैल उठीं!
खड़ी हुई!
चली बाहर,
तपती रेत में, पाँव जलने लगे!
लेकिन, किसे चिंता!
वो भागी, तम्बू के पीछे!
कुछ लोग ये थे, कुछ ही लोग!
वो नहीं आया था, जिसका इंतज़ार था!
रेत जलाने लगी पाँव अब!
कपड़े, जैसे खौल उठे!
चेहरा पसीनों से तर-बतर हो उठा!
आँखों की पलकों से, पसीने टपक पड़े!
भौंहों के बीच से, पसीना, जगह बनाते हुए,
नाक से छूता हुआ, होंठों के किनारों से बह चला!
वापिस मुड़ी, रेत में पाँव धंसते उसके!
फिर से निगाह, बरबस, उसी रास्ते से जा लगी!
आँखों को, हाथ की छाँव दे, दूर तक देखा!
बियाबान! सुनसान! वो सहरा-ए-सहारा!
चली अंदर, मुहाने की दरार को बड़ा किया उसने,
और जैसे ही बैठी नीचे, कुछ चुभा, उसे ढूँढा उसने,
देखा तो एक खोल था, पिस्ते का!
अपने हाथ में क़ैद कर लिया उसने!
और हुई आँखें बंद उसकी!
और जब आँख खुली उसकी,
तो अँधेरा घिर चुका था!
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खान वो चिलचिलाती धूप उस सहरा की,
और कहाँ ये अन्धकार!
देख न सकी!
आँखें बंद कर लीं!
और फिर धीरे से खोलीं!
हुई खड़ी,
जाने लगी नीचे,
दरवाज़ा बंद किया,
उतरी नीचे, और सीधा अपने कमरे में!
पूरे सवा घंटे थी वो ऊपर!
यूँ कहो कि,
उस सहरा में! पूरे सवा घंटे!
सवा घंटे का इंतज़ार!
बहुत बड़ा होता है!
जब एक एक लम्हा, ऐसा लम्बा खिंचे,
कि उसकी शाम ही न हो!
इंतिहा ही न आये!
एक एक सांस,
सीने में घुट घुट के आये!
तो ये सवा घंटा तो,
एक ज़िंदगी के बराबर था!
घुट घुट के, एक ज़िंदगी काट ली थी उसने!
सुरभि!
ये बेचैनी नहीं है, तो फिर क्या है?
कमरे में गयी,
अपने को दर्पण में देखा,
अपनी चुनरी उठायी,
सर पर ओढ़ी,
और किया वैसे ही उस चुनरी को,
जैसे उस तम्बू में,
वो अपने दांतों में दबाये बैठी थी!
वो देखती रही!
और तब,
एक मुस्कान सी उभरी होंठों पर उसके!
दर्पण के करीब हुई,
और फिर, आँख से आँख मिलायी!
एक हया सी उतरी आँखों में,
लरज गयी अपने आप से ही!
न देख सकी वो,
हट गयी, वहाँ से, और चुनरी समेत, जा बैठी बिस्तर पर!
ये बेचैनी का आलम था! और बेचैनी! उसकी क्या कहूँ!
सुरभि ने क़ुबूल ही नहीं किया अभी तक!

चुनरी हटा ली थी मुंह से, और रख दी थी सिरहाने!
तभी माँ की आवाज़ आई उसे,
चली बाहर, जवाब देते हुए,
पहुंची माँ के पास, पिता जी भी आ चुके थे,
बैत गयी पास में उनके, पिता जी ने पैसे दिए उसको,
रख लिए उसने, और माँ ने खाना लगवा दिया,
तीनों ने खाना खाया फिर, कुणाल अपने ताऊ के पास था,
उसका रोज का यह हाल था, ताऊ-ताई के यहीं खाना खाता था वो!
खान खा लिया सुरभि ने, और चली अपने कमरे तक,
आई अंदर, पंखा चलाया, तेज किया,
और फिर, अपना बैग उठाया, रखा बिस्तर पर,
खुद भी बैठी वो, और बैग में से कुछ ज़रूरी सामान निकाल लिया,
बैग रखा एक तरफ, और उठा ली अपनी किताबें!
करनी शुरू की अपनी पढ़ाई,
घंटा भर पढ़ी वो,
और तभी, उसकी नज़र खिड़की पर पड़ी!
पड़वा के चाँद निकल आया था!
आज, बहुत सुंदर लग रहा था!
जैसे किसी सुंदर सी कन्या की किसी आँख का बिम्ब!
उसने रख दी अपनी किताब, बीच में अपना पेन फंसा कर!
सरकाई कुर्सी, और खोली खिड़की!
दीदार किये उसने चाँद के!
और चाँद भी, जैसे उसकी भोली बातों में आ गए!
करोड़ों लोग, चाँद को देख रहे होंगे,
लेकिन उस रोज, वो चाँद, केवल सुरभि को ही देख रहे थे, ऐसा लगा!
सुरभि, चौखट पर अपने दोनों कोहनियां रख,
हाथों में अपना चेहरा रख,
खड़ी हो गयी थी!
और अपलक, चाँद को निहारे जा रही थी!
"मेरा संदेसा ले जाओगे?" बोली मन से,
चाँद से मुखातिब हो कर!
"आज भी?" बोली वो,
अपलक देखे!
मुंह में, अपने सीधे हाथ की कनिष्ठा,
अपने दांतों में दबा, चाँद से मन ही मन, बातें कर रही थी सुरभि!
"कर दो आज भी एक एहसान?" बोली वो,
चाँद, जैसे मुस्कुराये!
चाँद पर, सुरभि की नज़र, जैसे सूराख किये जा रही थी!
सुरभि और झुकी थोड़ा,
अब उसकी भौंहों के पास थे चाँद!
मोटी मोटी आँखें, और उनकी पुतलियाँ,
ऐसी सुंदर लगें, कि देखने वाला बस, देखते ही रह जाए!
ऊँगली निकल ली उसने,
अब होंठ बंद कर लिए थे अपने!
पाँव हिलाने लगी थी अपने!
"ले जाओ संदेसा! बोलना, मुझे बुलाएं वो! याद आ रही है उनकी!" बोली मन ही मन!
फिर, चाँद को देखते हुए,
कुर्सी पर बैठ गयी!
एक अंगड़ाई ली उसने, कस कर!
और खिसका ली कुर्सी आगे!
खिड़की की चौखट पर, दोनों हाथ बिछा लिए!
और टिका दिया चेहरा उन पर!
याद आया उसको वो सहरा!
वो चिलचिलाती धूप!
वो ऊंटों के गले में बंधी घंटियाँ!
वो तेज हवाएँ!
वो रेत का उड़ना!
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
उसका मन, ले चला था उसको उस सहरा में अब!
उसने देखा,
एक नागफनी है, बड़ी सी!
काफी बड़ी!
उसमे, कोटर बने हैं,
सफेद और चितकबरी सी चिड़िया हैं वहां,
मुंह में तिनका दबाये कोई,
कोई कृमि दबाये!
इस छोटी सी जान को, कितना ढूंढना पड़ता होगा!
छोटे से पंखों से, कितना आसमान पार करती होगी!
उस नागफनी में, फूल लगे थे, लाल और पीले रंग के!
हवा चलती, तो उनकी पंखुड़ियां, हिल कर,
अपने वजूद को उस हवा में जोड़ देती थीं!
और हवा, उनके वजूद को, दूर दूर तक ले जाती!
उसने आसपास देखा,
बाएं एक तरफ,
हरा-भरा झुरमुट था पेड़ों का!
वो वहीँ चल पड़ी,
सर पर कपड़ा बंधा था,
उसने उस से अपना मुंह ढका, और चल पड़ी!
हवा चलती, तो ठेलती उसके बदन को!
वो चली जा रही थी आगे आगे!
हवा के संग संग! जैसे हवा ही बता रही हो उसको पता!
वो वहां पहुंची, ये एक छोटा सा नख़लिस्तान था!
कोई तालाब नहीं था यहां, लेकिन एक कुआँ था उधर,
चौड़ा सा, उसने झाँक कर देखा उसमे.
पानी था उसके अंदर!
और साथ में ही, एक मांद बनी थी, शायद ऊंटों को पानी पिलाने के लिए!
वो एक पेड़ के नीचे जा बैठी,
पेड़, कांटेदार था वो वाला,
लेकिन छाया कांटेदार नहीं होती!
वो वहीँ बैठ गयी थी, पीछे ही, छोटे और मोटे, खजूर के पेड़ लगे थे!
उनके तनों से, कपड़े बंधे थे, क़तरन जैसे!
तभी उसको, दूर से, दो औरतें आती दिखाई दीं!
सर पर, घड़ा रखा था और हाथ में पीले रंग का पीपा पकड़ा था!
वो खड़ी हो गयी!
इंतज़ार किया उनके आने का!
वे औरतें, आती गयीं करीब!
और करीब! और करीब!
और आ पहुंचीं वहाँ!
सुरभि को देखा,
मुस्कुराईं वो!
बुलाया अपने पास,
नज़र उतरी, चिबुक पर छू कर!
उसके सर का कपड़ा ठीक किया उन्होंने!
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तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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"पानी पियोगी बेटी?" पूछा एक ने,
"हाँ!" बोली वो,
"अभी लो बेटी!" बोली वो,
रस्सी डाली अंदर, रस्सी, पीपे में ही थी!
पानी भरा, और खींचा बाहर,
"लो बेटी!" बोली वो,
अब पानी पिया सुरभि ने!
पी लिया, तो उस औरत ने, अपने कपड़े से,
उसके हाथ-मुंह पोंछ दिए!
"यहां क्या कर रही हो?" पूछा दूसरी ने,
उसे खुद न पता था!
क्या जवाब देती!
"ह'ईज़ा और अशुफ़ा का इंतज़ार है?" बोली वो,
झटके से सर उठाया!
हैरान रह गयी!
उसके सर पर हाथ फिराया उस औरत ने!
"हाँ" बोली हल्की सी आवाज़ में,
वो औरत मुस्कुराई!
"वो! वहां दूर! उधर हैं वो!" बोली वो औरत!
क़दम बढ़ चले!
सुरभि के क़दम, बढ़ चले उधर के लिए!
उस रेत में, दौड़ चली!
सांसें तेज हो चलीं!
पाँव, धंसने लगे!
मुंह से, साँसें निकलने लगीं!
लेकिन न रुकी!
और तभी!
तभी आँख खुल गयी उसकी!
आसपास देखा, चौंक कर!
खड़ी हो गयी!
साँसें तेज थीं उसकी!
पांवों में, अभी भी तपिश थे!
गला, अभी भी सूखा था!
वस्त्र, गरम थे अभी भी!
जैसे उस सहरा की तपती धूप से बस,
अभी आई हो!
पसीने छलछला रहे थे चेहरे पर!
गले पर!
उसने चुनरी ली,
और पोंछे पसीने अपने!
भभक रहा था शरीर उसका!
घड़ी देखी तभी,
साढ़े बारह बजे थे!
कोहनियों पर,
उस चौखट के निशान उभर आये थे!
वो हटी वहाँ से,
पानी पिया,
और आ लेटी बिस्तर पर,
पंखा चल रहा था तेज,
लेकिन पसीना, न सूख रहा था!
पांवों में, खारिश होने लगी थी तपिश से,
पाँव छू कर देखे, तो भभक रहे थे!
उसको फिर से प्यास लगी! उठी, और पानी पिया,
पता नहीं, ये पानी प्यास क्यों नहीं बुझा रहा था?
उसने पी लिया पानी, और फिर से जा लेटी बिस्तर पर,
इस बार सिरहाने नहीं, पैंताने उसने तकिया रखा, और और लेट गयी!
अपने दोनों हाथ, मोड़कर, छाती पर रख लिए थे,
नींद अब आ नहीं रही थी,
कोशिश की उसने, लेकिन नहीं आई नींद,
फिर से करवटें बदलनी शुरू कीं उसने!
आँखें बंद कर लीं उसने, और सोच में जा डूबी!
कब आँख लगी, पता न चला!
आया सपना उसे!
सपने में, वो एक हरे-भरे बाग़ में थी!
रंग-बिरंगे पक्षी बैठे थे शाखों पर,
काले, नीले, पीले, संतरी और कुछ दुरंगे, तिरंगे!
कुछ पक्षियों की कलगी भी थी उनमे!
बेहद सुंदर थे वो! काले वाले तो बेहद ही सुंदर!
उनकी दुम ऐसी लम्बी, कि ज़मीन को छुए!
आवाज़ ऐसी मधुर, कि वहीँ बैठ, बस उनका स्वर सुना जाए!
वो आगे चली, फलदार पेड़ मिले उसे!
संतरे लगे थे, बड़े बड़े संतरे! ऐसे कि उसने कभी देखे न थे!
एक एक, खरबूजे बराबर! हाथ बढ़ाओ, और तोड़ लो!
वो आगे चली, तभी पाँव के नीचे एक पत्थर आया,
चुभा उसे, वो रुकी, बैठी वहां, और देखा पाँव को, दर्द हो गया था उसे!
उसने वो पत्थर, वहां से उठा, अलग फेंक दिया,
पाँव सहलाया तो कुछ आराम आया,
वो हुई खड़ी, आगे चली,
पानी ले जातीं, छोटी छोटी नहरें दिखीं!
उनके किनारे सफेद और नीले रंग के पत्थरों से बने थे!
पानी ऐसा साफ़, कि कांच लगे!
वो और आगे चली, सामने खुला मैदान था,
पीले फूलों की चादर बिछी थी, ऐसा लगता था,
पीछे मुड़कर देखा, फूल लगे थे हर तरफ!
वो और आगे चली, जैसे ही चली,
पत्थर लगा हुआ रास्ता दिखा एक, वो उस रास्ते पर हुई खड़ी,
दायें देखा, फिर बाएं देखा, दायें मैदान था,
और बाएं पेड़ों के झुरमुट!
वो बाएं चलने लगी,
पेड़ों के नीचे पहुंची, पेड़ों के पत्तों से,
महीन महीन पानी की बूँदें गिर रही थीं!
बहुत शानदार नज़ारा रहा था वो उस वक़्त!
सुरभि, मुस्कुरा पड़ी!
वो रास्ता आगे जाकर, चढ़ाई ले लेता था,
तो चल पड़ी आगे, चढ़ी चढ़ाई,
और सामने वही इमारत दिखाई दी!
मुस्कान आ गयी होंठों पर!
जान सी पड़ गयी देह में!
क़दमों में, फुर्ती आ गयी!
और तेज क़दमों से, वो उतर पड़ी वो रास्ता!
उस इमारत की सरहद में घुसी वो!
चली आगे, रुकी सीढ़ियों पर,
आज कोई फूल न बिछा था वहाँ!
वो बड़े बड़े, सुर्ख़ सुल्तानी गुलाब, आज न थे वहाँ बिछे हुए!
वो चढ़ी सीढ़ियां!
और तेज क़दमों से, यूँ कहो कि भागते हुए,
उस चौखट में घुस गयी!
लेकिन वहां कोई नहीं!
बड़े बड़े पर्दे हिल रहे थे!
नक्काशीदार दीवारें, चमचमा रही थीं!
पर्दे हिलते, तो धूप अंदर आती, दरारों में से,
दीवार पर पड़तीं, तो दीवारें जैसे लपटों से घिर जाती थीं!
वो दौड़ के, दूसरे कक्ष में गयी!
वहां एक बड़ा सा पलंग पड़ा था!
छत पर दर्पण लगा था था बड़ा सा!
उसने झाड़-फानूस को देखा,
तो सैंकड़ों सुरभियां खड़ी हो गयीं थी वहां!
उन कांच के टुकड़ों पर पड़े उसके अक्स के कारण!
लेकिन वो, फिर भी अकेली थी!
वो दौड़ कर, तीसरे कक्ष में गयी!
पीला और काला कालीन बिछा था वहाँ!
दीवारों पर, नीले और लाल रंग की, मोज़ाइक नक्काशी हुई थी!
छत पर, लाल रंग की नक्काशी हुई, हुई थी!
अब और कोई कक्ष न था!
वो वापिस हुई,
दौड़ी,
बाहर आई!
आसपास देखा,
कोई नहीं था वहाँ!
अब घबराहट उठी मन में!
"ह'ईज़ा?" चिल्ला के बोली वो,
आवाज़ लौट आई वापिस!
"अशुफ़ा?" चिल्ला के बोली, ज़ोर से,
आवाज़ गूंजी, कई बार!
और लौट आई वापिस! हड़बड़ा गयी वो!
नीचे उतरी!
"ह'ईज़ा?" फिर से चिल्ला के बोली,
आवाज़ गूँज उठी, पक्षी उड़ चले!
और लौट आई आवाज़ वापिस!
आगे गयी वो,
रुकी, और देखा आसपास!
"अशुफ़ा?" फिर से चिल्ला के बोली!
आवाज़, खाली हाथ लौट आई!
आगे गयी, रुकी,
"ह'ईज़ा? अशुफा?" चिल्लाई फिर से!
आवाज़, बैरंग लौट आई वापिस!
अब घबराहट बढ़ी!
कई बार नाम पुकारा!
कोई नहीं आया!
"ह'ईज़ा?" फिर से बोली,
अबकी बार नहीं चिल्लाई थी! घबराहट से,
आवाज़ गले में फंस के रह गयी!
"अशुफ़ा?" बोली अब, रुआंसी सी!
किसी ने न सुना!
"फ़ै...........................!!!" टूट गया अलफ़ाज़ गले में!
और उसके मुंह से,
एक टूटा हुआ अलफ़ाज़, बाहर निकला,
"ज़ान...................."
आँख खुल गयी!
और बेसुधी में,
एक अल्फ़ाज़, खुली आँखों से,
मुंह से निकला, "फ़ैज़ान.........."
उठ बैठी वो!
बदन के रोएँ खड़े हो गए!
माहौल सर्द हो गया था! उसके लिए!
सिमट गयी अपने आप में!
बत्ती जलायी!
चार से थोड़ा पहले का ही वक़्त था!
उसने, अपनी चादर ले ली फौरन फिर,
ओढ़ ली,
पानी पिया, थोड़ा सा,
और आ बैठी कुर्सी पर,
माथे पर हाथ रखा अपना,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

अब बेचैनी बढ़ने वाली थी शायद,
या, बेचैनी, हट ही जाती! हमेशा के लिए!
सपनों की दुनिया!
सपनों के लोग!
वो सहरा!
वो क़बीले!
वो खिच्चा!
वो हम्दा!
वो सर्द रात!
वो अलाव!
वो ह'ईज़ा! वो, अशुफ़ा! वो हाफ़िज़ा!
और वो, फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान!
माथे से हाथ हटा लिया!
मुंह से निकला एक अलफ़ाज़!
"फ़ैज़ान!"
खड़ी हुई वो,
और जा बैठी बिस्तर पर,
अपने आप में, खो गयी!
उठी! खिड़की पर गयी!
चाँद, अपनी जगह बदल चुके थे तब तक,
ढूँढा उन्हें, नहीं मिले!
उनको, और भी संदेसे ले जाने थे!
इसीलिए डिगर चले थे!
जा लेटी बिस्तर में!
जो सपना अभी देखा था,
याद हो आया!
अकेली कितना घबरा गयी थी वो!
अकेलापन क्या होता है,
किस क़द्र डराता है,
किस क़द्र काटने को आता है,
आज आ गया था समझ में!
ये है अकेलापन!
लेकिन सुरभि? ये अकेलापन कैसे हुआ?
क्या इसे, बेचैनी नहीं कहा जाना चाहिए?
सुबह के पांच बज चुके थे! अपने अकेलेपन से जूझ रही थी सुरभि!
बैठ बैठे, आँखें बंद किये, उसी बाग़ में घूम रही थी!
आवाज़ें दे रही थी, बार बार!
और तभी खिड़की के रास्ते, एक ज़ोरदार हवा का झोंका आया, पर्दे तक हिला गया था!
और लाया था अपने साथ, एक जानी-पहचानी महक!
जैसे ही नथुनों में पहुंची वो महक,
आँखें खुल गयीं सुरभि कि!
मित्रगण!
और झटके से उतरी बिस्तर से!
चली खिड़की की तरफ! चली नहीं, दौड़ी!
दिमाग में कई खिड़कियाँ, दरवाज़े खुल गए!
इसे ही कहते हैं बेचैनी!
महक ही महक! उस बाग़ में फैली वही महक!
वो बाहर देखे, अपने कपड़े सूँघे, पर्दा, सूंघा!
सभी में वो महक जैसे आ बसी थी!
चेहरे पर, रौनक लौट आई उसके!
होंठों पर, मुस्कान तैर गयी! खुश हो गयी थी वो,
पूरा कमरा महक उठा था!
झूमने का मन कर रहा था सुरभि का!
ख़ुमारी चढ़ आई थी बदन में!
रोम रोम में नशा सा चढ़ गया था!
अंग-अंग खुल गया था जैसे, उस महक से!
नदी में रुका हुआ पानी जैसे,
पीछे से आये सैलाब से बह चला था आगे!
उफनता हुआ! इठलाता हुआ! हिलोरें मारता हुआ!
उसे बार बार लगता, जैसे कि हवा में आई वो महक,
उसके बदन से खेल रही हो!
वो अपने हाथ दबाती, अपने होंठ दबाती दांतों से,
अपने कंधे, अपनी कलाइयां! ऐसी ख़ुमारी चढ़ी थी उस लम्हे!
आँखे जैसे नशे की वजह से, अधखुली हो चलीं थीं!
पूरे बदन में, गुदगुदी मची हुई थी!
उस से रहा न गया!
बिस्तर पर, पेट के बल लेट गयी!
बदन, कस गया उसका!
ले करवट उसने!
अपने दोनों हाथ, अपनी जाँघों में फंसा लिए!
भींच लिए हाथ अपने उसने जांघों से!
ये ख़ुमारी, भरी रही बदन में, सुबह होने तक,
छह बजे, अलार्म बजा! वो हुई खड़ी!
चली गुसलखाने, और सबसे पहले, बाल्टी में झाँका,
बाल्टी में, आज, दो नीले फूल पड़े थे!
वो झुकी, बैठी एड़ियों पर, उठाये फूल! मुस्कुरा पड़ी!
रख दिए वापिस बाल्टी में,
भरा पानी, और किया स्नान! पूरा बदन महक गया उसका!
कर लिया स्नान, पहने वस्त्र, और केश संवारने, चली दर्पण तक!
दर्पण में देखा, बदन में, आज आकर्षण था! अंग, पुष्ट से लगने लगे थे!
चेहरे पर, लालिमा चढ़ गयी थी! आँखें, सुरमयी सी आभा देने लगी थीं!
हो गयी तैयार! और अब चली भर,
माँ ने ज़रा घूर के देखा उसे आज, पिता जी ने एक नज़र देखा, और हटा ली नज़रें,
चाय-नाश्ता किया उसने सभी के साथ,
खाना रख लिया था, उसके बाद, मम्मी-पापा से बातें कर, चल पड़ी बाहर,
पकड़ी सवारी, और जा पहुंची कक्षा में!
आज तो सभी देखें उसे!
सभी की नज़रें चिपक जाएँ उस से!
पूरा कमरा, उस भीनी-भीनी महक से भर उठा!
कमरे में आती हवा, जैसे वो महक ला रही थी अंदर!
"अरे? आज तो तू पूरी अप्सरा सी लग रही है!" बोली कामना!
"चुप!" बोली सुरभि!
"तेरे बदन को क्या हो गया रात रात में? कैसे?" पूछा कामना ने,
न बोली कुछ!
"और आज फिर से नहा आई परफ्यूम में?" बोली छेड़ते हुए कामना उस से!
सुरभि ने, अपना बंद पेन, उसकी जांघ में गाड़ दिया तभी!
चुप हो गयी कामना तभी के तभी!
दोपहर को, कैंटीन गयीं वो,
खाना खाया, और तभी, दो फूल, घूमते हुए, अंदर आये,
और सीधा जा गिरे सुरभि के हाथ पर!
"ले! ये भी आ गए तेरे पास!" बोली कामना,
उठा लिए फूल उसने, सूँघे, ख़ुश्बू से लबरेज़!
उसने उठाया बैग, और खोला तभी, जैसे ही खोला,
पहले वाले फूल भी दिख गए, हैरत ये, कि वो,
अभी तक ताज़ा थे जैसे!
साढ़े तीन बजे वो वापिस चली!
ली सवारी, और चली वापिस घर!
आ गयी घर वापिस!
सामान रखा, माँ ने चाय की पूछी, मना कर दिया,
एक शीतल-पेय लिया और उसके गिलास में डाल,
चली अपने कमरे में,
रखा वो गिलास मेज़ पर,
अपना सामान भी रखा,
कपड़े बदले, और खोल ली खिड़की!
शीतल-पेय पीती रही, जब खत्म हुआ, तो रख दिया मेज़ पर गिलास उसने,
जा लेटी बिस्तर में,
चादर ली, और ओढ़ ली,
आँखें बंद कीं,
कुछ ही पलों में, आँखें भारी हो गयीं!
आ गयी नींद!
और नींद आई,
तो सपना भी चला आया!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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