सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"सुरभि! ये नाचीज़ फ़ैज़ान! आपका ख़ैर-मक़्दम करता है!" बोला फ़ैज़ान, मुस्कुराते हुए!
सुरभि, उसकी आवाज़ सुन, जैसे एंड तक, लरज गयी थी!
ऐसी मीठी आवाज़ थी उसकी!
"आइये सुरभि! बैठिये!" बोला वो,
हाथ के इशारे से, बैठने के लिए कहा था उसने!
सुरभि, किसी सम्मोहन में जकड़ी सी, बैठ गयी!
"अशुफ़ा? लाइए इनके लिए कुछ?" बोला फ़ैज़ान!
"जी भाई जान!" बोली अशुफ़ा और चली गयी अंदर!
संग उसके, ह'ईज़ा भी चली गयी!
"सुरभि! बड़ा ही दिलक़श नाम है आपका!" बोला फ़ैज़ान!
औरभी कुछ न बोले!
बस, देखे जाए उसे,
उसकी नीली चमकदार आँखों को!
"आप बोलिए न कुछ?" बोला फ़ैज़ान!
इल्तज़ा सी थी उसके सवाल में!
न बोला गया कुछ भी!
अशुफ़ा, तश्तरी में, तरह तरह की मिठाइयां, फल, पिस्ते-मेवे रखे थे, ले आई!
रख दिया वहीँ,
फ़ैज़ान ने, एक पिस्ता उठाया,
उसको छीला, और बढ़ाया सुरभि की तरफ!
"लीजिये! सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने हाथ बढ़ाया,
और ले लिया हाथ में,
"ये रखने के लिए नहीं है, खाने के लिए है, खाइये! सुरभि!" बोला वो,
सुरभि के होंठों पर,
पहली मर्तबा मुस्कान आई, भले ही, छोटी सी!
सुरभि ने, उस पिस्ते को दो बार में खाया,
इतने में ही, एक और छील दिया था,
पकड़ा दिया सुरभि को,
वो इस्ते, हमारी तरह नहीं होते,
बड़े होते हैं बहुत! स्वाद में, बेहद लज़ीज़!
"ये लीजिये आप!" बोला वो, एक बर्फी उठाकर,
सुरभि तोड़ने लगी टुकड़ा उसका,
"नहीं नहीं! पूरा लीजिये, एक टुकड़ा नहीं! सुरभि!" बोला वो,
लेना पड़ा!
ले लिया, और खाने लगी!
खुद भी खाने लगा वो बर्फी!
"ह'ईज़ा?" बोला वो,
"जी?" बोली वो,
"आब्शी-शरबत लाइए?" बोला वो,
"अभी लायी!" बोली वो,
और चल दी अंदर!
ले आई तश्तरी एक,
उसमे दो गिलास!
शरबत का रंग, चटख गुलाबी था!
गाढ़ा गाढ़ा!
ऊपर उसमे, झाग से बने थे, गुलाबी झाग!
यही होता है, अब्शी-शरबत!
इसको पीने से, ताज़गी, चुस्ती-फुर्ती और थकान मिट जाती है!
कम से कम, मैं जानता हूँ इस शरबत के बारे में!
या वो आलिम लोग,
जो अक्सर मेहमान बना करते हैं इन जिन्नात के!
"लीजिये सुरभि!" बोला वो,
अपने हाथों से पकड़ाया शरबत!
सुरभि ने ले लिया,
इतने में ही,
एक मेवा और पकड़ा दिया उसको!
"खाइये! सुरभि!" बोला वो,
ले लिया सुरभि ने,
"सुरभि! आपने बहुत बड़ा एहसान किया हम पर!" बोला वो,
न बोली कुछ!
पूछना चाहती तो तो थी, पूछ न सकी कि कैसे!
"हम बता देते हैं आपको, सुरभि!" बोला वो,
भांप गया था उसके दिल की बात!
"सुरभि! आपकी शख़्सियत और सुंदरता, हमने कहीं नहीं देखी!" बोला वो,
सुरभि सिमट गयी!
दोनों घुटने मिल गए आपस में!
"आप हमारे मेहमान बने! ये बहुत बड़ा एहसान है हम पर!" बोला वो!
सुरभि अभी तक, गिलास पकड़े बैठी थी,
वहाँ, फ़ैज़ान ने, चार-पांच पिस्ते छील कर रख दिए थे!
"आप पीजिये न?" बोला वो,
सुरभि ने गिलास जकड़ लिया!
"आप शरबत नहीं पीते? कुछ और मंगवाएं? बताइये, क्या? सुरभि?" बोला वो,
"नहीं! मैं ये पी लूंगी!" बोली सुरभि!
अपनी गरदन पीछे लगा ली उसने!
पहली बार मुख़ातिब हुई थी वो उस से!
इस पर-सुक़ून में,
फ़ैज़ान खुल चला था अंदर तक!
आँखें बंद हो गयी थीं उसकी!
वो संभला!
और फिर आगे हुआ!
उठाये पिस्ते!
बढ़ाया हाथ आगे!
"लीजिये?" बोला वो,
"बस!" बोली सुरभि,
"खाना तो पड़ेगा!" बोला वो, मुस्कुरा कर,
और शरबत पी लिया उसने,
पिस्ता भी ले लिए एक, खा लिया उसको सुरभि ने!
"ह'ईज़ा? आबगीना लाएं आप?" बोला वो,
"जी" बोली वो, और चली!
ले आई आबगीना!
खुद पकड़ा उसने,
"लीजिये! धो लीजिये हाथ!" बोला वो,
सुरभि ने, हाथ धो लिए!
आबगीना रखा उसने एक तरफ,
और अपने कुर्ते से, उसके हाथ पोंछ दिए!
छुए नहीं! कपड़ा बीच में था!
अपने कुर्ते से ही हाथ पोंछ दिए थे फ़ैज़ान ने सुरभि के!
बहुत खुश लगा रहा था वो उस समय!
ऐसे करीने से हाथ पोंछे थे, कि एक क़तरा भी पानी न रहा!
हाथ पोंछते वक़्त, बस हाथों को ही देखे जा रहा था! मुस्कुराते हुए!
हाथ पोंछ दिए थे उसने! अपना कुरता भी ठीक कर लिया था!
"अशुफ़ा?" बोला वो,
"जी?" बोली वो,
"जाएँ, ले जाएँ, आराम करवाएं सुरभि को अब!" बोला वो,
"जी!" बोली अशुफ़ा!
और अब उठाया उन्होंने सुरभि को,
और ले चली अंदर!
फैजान, अपना सर, उस बड़ी सी कुर्सी की पुश्त से, लगा, बैठ गया!
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
फिर सर आगे किया,
अपने गीले कुर्ते को देखा,
उसका किनारा उठाया,
गीला था वो अभी,
किया अपने मुंह के पास, और चूम लिया उसने!
वो सच में, बेइंतहा मुहब्बत करता था सुरभि से!
लेकिन उसने अभी ज़ाहिर न किया था!
वो ज़ाहिर करता भी नहीं!
वो सच्ची मुहब्बत में मुब्तिला था सुरभि के संग!
हवस रखता, तो अब तक तो तार-तार हो चुकी होती सुरभि!
वो तो सामने भी नहीं आ रहा था!
उसको अपने दिलबर के मुंह से कहने का इंतज़ार था!
इक़रार का इंतज़ार!
उसका पूरा ख़याल रखा करता था,
पल पल! एक एक पल! चाहे दिन हो, चाहे रात!
गुसलखाने में, फूल छोड़ आता था, और खुद हट जाता था!
वो सुरभि के बदन से नहीं, उसकी रूह से प्यार कर बैठा था!
उसने कहा भी तो था!
कि उसको सुरभि की शख़्सियत बेहद पसंद आई थी!
उधर सुरभि,
अपने ही मन में उठे, एक तूफ़ान की आवाज़ सुन रही थी!
तूफ़ान, आगे बढ़े जा रहा था!
कुछ ही दूरी बची होगी बस!
तूफ़ान आता, और उड़ा ले जाता उसे!
नहला देता अपनी बारिश से, कर देता सराबोर!
फिर क़दम न टिक पाते उसके!
उसको उड़ना ही पड़ता!
जिस वक़्त, वो सुरभि के हाथ पोंछ रहा था,
उसके हाथों की पकड़ से, अंदर तक, चिंहुक गयी थी सुरभि!
अपने एक हाथ से ही, दोनों हाथ पकड़े थे उसने सुरभि के,
और एक हाथ से ही, करीने से पोंछ रहा था!
जब वो पोंछता, कपड़ा रगड़ता, तो,
अंदर ही अंदर, एक सैलाब सा हिलोरें मारने लगता था!
आँखें तो बंद थी सुरभि की, उस पलंग पर,
लेकिन मन की आँखें, ढूंढ रही थीं किसी को!
कोई भी आहट होती, तो देखने लगती थी उधर ही!
वे दोनों, वहीँ बैठी थीं, उसी के संग!
हाथ थाम लेती थीं सुरभि का कभी कभी!
सुरभि इस क़द्र अपने तूफ़ान में टकराने के इंतज़ार कर रही थी,
कि उसको पता भी न चला कि, उसक होंठ सूख गए हैं!
साँसें गरम हो चली हैं!
दिल, बेतहाशा दौड़े जा रहा है!
सर से पाँव तक, एक अजीब सा ख़ुमार चढ़ चला था!
उसने करवट बदली,
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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जैसे ही करवट बदली,
नींद खुली!
आसपास देखा,
ये तो उसी का घर था!
उसी का कमरा!
उसी का पलंग!
वो उठ बैठी!
होंठ छुए, तो सूखे थे,
ज़ुबान भी सूखी, और हलक़ भी सूखा!
वो खड़ी हुई, और जैसे ही खड़ी हुई, खिड़की से हवा अंदर आई!
हाथों से टकराई!
हाथ लगे ठंडे!
याद आया उसे!
अपने हाथ देखे!
एकदम साफ थे!
अभी जैसे, नाखूनों और उनके मांस के बीच में, नमी बची थी!
घड़ी देखी उसने!
पांच बजे थे!
पानी पिया, याद आया वो पानी, इस पानी में वो स्वाद नहीं था!
वो, जा बैठी कुर्सी पर,
आँखें बंद कर लीं अपनी!
न जाने क्यों, उचाट सा था मन!
कुर्सी पर, कमर लगा, पहुँच गयी ख्यालों में,
उसी जगह!
याद आया एक चेहरा!
वो नीली आँखें,
वो हाथों की पकड़!
वो इल्तज़ा भरी गुज़ारिश!
अपने आप ही, होंठों पर, मुस्कान तैर गयी!
अब दिमाग का घोड़ा दौड़ा!
बेलग़ाम! दौड़ता चला गया!
कहाँ जा रहा था, पता नहीं!
बैठे बैठे घंटा बीत गया!
अलार्म बजा,
खुली आँखें! छह बज चुके थे!
उठी, अपनी किताबें रखन अलमारी में,
और चली गुसलखाने!
बाल्टी में झाँका!
आज कोई फूल नहीं!
वो झुकी, अच्छे से देखा,
न! कोई फूल नहीं आज!
आसपास देखा, वहां भी कोई फूल नहीं!
कोई बात नहीं!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने अपने, हुई तैयार,
और चली बाहर, मम्मी-पापा के पास, कुणाल भी बैठा था वहीँ,
चाय-नाश्ता लग गया था, चाय-नाश्ता किया,
और फिर खाना भी रख लिया,
और चल दी बाहर, आई बाहर, ली सवारी,
और चल पड़ी कक्षा में लिए!
जा बैठी अपनी सहेलियों में!
"कमाल है?" बोली कामना,
"क्या हुआ?" पूछा सुरभि ने,
"आज नहीं नहायी परफ्यूम में?" पूछा कामना ने,
"तुझे और कोई काम नहीं है?" बोली सुरभि!
"आज कमरा नहीं महका न! इसीलिए!" बोली वो,
सच में, आज नहीं महका था कमरा!
दोपहर में, वे चलीं कैंटीन!
किया भोजन, बातें करते करते!
तभी बाहर झाँका सुरभि ने,
बाहर, फूल गिर रहे थे हरसिंगार के,
लेकिंन आज, कोई फूल न आया था अंदर!
खिड़की की चौखट पर ही एक आद गिर जाता!
फिर से कक्षा और कोई साढ़े तीन बजे, चली वापिस,
पकड़ी सवारी, और पहुंची घर,
आज गर्मी काफी थी, उसने फ्रिज में से, शीतल-पेय निकाला,
और तभी उसको वो आब्शी-शरबत याद आ गया!
होंठों पर मुस्कान तैर गयी तभी के तभी!
आ गयी अपने कमरे में,
रखा गिलास मेज़ पर,
खिड़की खोल ली,
बैठी कुर्सी पर,
और उठाया गिलास,
धीरे धीरे, पीने लगी वो पेय!
फिर से, ख्याल आये उसे!
वो नीली आँखों वाला फ़ैज़ान!
अब उसने,
उसको पूरा निहारा,
वहीँ बैठे बैठे,
हलकी सुनहरी दाढ़ी!
चौड़ा, गोरा चेहरा!
सुनहरे बाल!
और जब हाथ पोंछे थे उसने,
तो उसके हाथों के और उँगलियों के वो सुनहरे बाल!
उसका चौड़ा माथा!
उसके चौड़े कंधे!
वो नीला, चमकदार कुरता!
और नीली ही, वो चुस्त पाजामी!
उसका वो शाही अंदाज़ बैठने का!
घुटने के ऊपर, घुटना रखा था उसने!
वो सुनहरी, जूतियां!
जिसमे, नीला, पीला और काला रंग था!
और वो मीठी सी आवाज़!
और इल्तज़ा भरी गुज़ारिशें!
वो पिस्ते छीलना और उसको देना!
वो बर्फी देना, और कहना कि खाने के लिए है!
सब याद आ गया! और होंठों पर, एक चौड़ी सी मुस्कान भी!
उसने कपड़े बदले फिर, और जा लेटी बिस्तर में,
सर स्थिर रखा, छत को देखा उसने, देखती रही,
उलटे हाथ से, अपने बालों की एक लट को, अलबेटे देती रही!
किसी का ख्याल दिमाग पर छाने लगा था!
किसी की आवाज़ अभी तक कानों में गूँज रही थी!
अपने हाथ देखे, किसी की पकड़, अभी तक याद थी!
हाथों को गौर से देखा उसने, एक हाथ से दूसरे को छुआ!
आँखें बंद कर लीं उसने,
लेटी रही आँखें बंद किये,
आज नहीं आई नींद!
कभी इस करवट, तो कभी उस करवट!
कभी पीठ के बल तो कभी पेट के बल!
नहीं आई नींद!
उठ गयी,
पानी पिया,
और बैठ गयी!
फिर से किसी के ख़याल आये,
फिर से एक बार, होंठों पर मुस्कान आई!
लेट गयी फिर से,
आँखें कीं बंद!
नहीं आई नींद!
अब तो खीझ उठी मन में!
पेट के बल लेटी!
सर धँसाया तकिया में,
और घुटनों से, अपनी टांगें ऊपर कर लीं!
अपने दोनों हाथों से,
तकिये को मोड़, अपने कान भी ढक लिए!
लेकिन नहीं आई नींद!
आज तो नींद छका रही थी उसको!
रोज तो आ जाया करती थी?
आज क्यों नहीं?
खीझ उठी!
हुई सीधी!
खोली आँखें, उठा ले एक किताब!
खोला एक पृष्ठ,
और पढ़ने लगी,
लेकिन मन न लगे उसका!
जल्दी जल्दी पृष्ठ पलटे उसके,
फिर किताब खोल, छाती पर रख ली!
अपने सीधे हाथ की, तर्जनी ऊँगली मोड़,
उसके बीच के पोर को,
अपने दांतों में दबा लिया!
बहुत देर, ऐसे ही रही!
ऊँगली निकाली, किताब बंद कर, रख दी एक तरफ,
चादर ली, खोली, घुटनों तक ओढ़ी,
और लेट गयी आँखें बंद कर,
लेकिन आज तो नींद जैसे कहीं और नींद ले रही थी!
डेढ़ घंटा बीत गया था उसे!
मछली की भांति, बिस्तर पर फुदक रही थी सुरभि!
कभी तकिया कहीं रखे,
और कभी कहीं!
कभी सिरहाने,
तो कभी पैंताने!
लेकिन हाय! नींद नहीं आये!
कैसी बैरन हुई आज तो निंदिया!
उठ गयी! खीझते हुए!
चादर को अंट-शंट लपेट, फेंक मारा पैंताने की तरफ!
नींद की खीझ, चादर पर जा निकली!
पहनी चप्पलें,
और पाँव पटकते हुए, चली बाहर,
फ्रिज तक आई, खोला,
पानी निकाला, पिया, बोतल रखी, रखी ज़रा तेज,
तेज रखी, तो ऊपर रखा नीम्बू ढुलक गया नीचे!
गेंद की तरह, ये जा और वो जा!
उसको ढूँढा, कहीं न दिखा!
"भाड़ में जा!" बोली खीझ कर!
अब नींद की खीझ, शिकार नंबर दो, नीम्बू पर निकली!
पाँव पटकते हुए,
चली अपने कमरे में,
दरवाज़ा बंद किया ज़रा तेजी से,
लगाई चिटकनी!
और जैसे ही बिस्तर पर जाने लगी,
दर्पण में अपना अक्स दिखा,
आई दर्पण के पास,
खुद को देखा,
अपने कपड़े ठीक किये,
अपने बाल ठीक किये,
हेयर-बैंड खोला, मुंह में, दांत से पकड़ा,
बाल फटकारे, बांधे, और हेयर-बैंड से, बाँध लिए,
फिर से देखा अपने आप को!
और चली बिस्तर पर,
चादर उठायी,
खोली चादर,
और लेट गयी,
घुटनों तक, चादर कर ली!
आँखें कीं बंद!
नींद न आये!
मुट्ठी भिंच गयीं दोनों ही!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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दांत भी भींच लिए थे!
आँखें, ज़िर से मींचीं उसने!
फिर खोली!
आज न आये नींद!
करवट बदल ली!
दीवार की तरफ मुंह कर लिया,
दीवार को देखे!
देखे, तो वो नक्काशी वाली दीवार याद आयी!
अपनी दीवार को छुआ!
तसव्वुर ये कि,
जैसे उसी नक्काशी वाली दीवार को छू रही हों!
हाथ फेरे!
पूरा हाथ खोल,
छाप छोड़े दीवार पर!
हाथ किया पीछे,
फिर से करवट बदली!
किताब रखी थी,
और उसका बैग,
बैग खींचा आगे होते हुए,
बैठ गयी, बैग खोला,
एक छोटी से जेब से बैग की,
वो फूल निकालने की सोची,
पूरा बैग खंगाल लिया!
फूल न निकले वो हरसिंगार के!
अपनी किताब देखी,
नहीं थे उसमे!
उसको झाड़ा!
न निकले!
उठ गयी!
दूसरी किताबें देख लीं!
न निकले!
मायूस सी हो,
जा बैठी बिस्तर पर!
फिर खड़ी हो गयी!
कुर्सी खींची,
और खिड़की के पास ले गयी,
खिड़की खोली,
और बैठ गयी!
अब शाम की चहलपहल होने लगी थी,
आज नींद नहीं आई थी!
बड़ा बुरा सा वक़्त गुजरा था!
पता नहीं क्यों नहीं आई थी!
कोई चिंता भी नहीं थी!
तो क्यों नहीं आई?
बाहर देखे,
पेड़ खे,
और वही पेड़ याद आये!
वही बेल-बूटे!
वही बेर और फल!
वो ह'ईज़ा!
वो अशुफ़ा!
और वो, फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान को निहार रही थी,
बाहर देखते हुए!
सुरभि बेचारी कहाँ फंसी!
अपने मन के जाल में,
जा फंसी थी!
नींद आई नहीं थी आज,
ये खीझ!
फूल न मिले थे,
वो खीझ!
उठी,
खिड़की से टेक लगाई!
बाहर झाँका,
सब्जी वाले, फेरी लगाने वाले, आ-जा रहे थे!
तो इस तरह से, वक़्त आगे बढ़ा! बजे सात, कोई नींद नहीं!
बजे आठ, कोई नींद नहीं! अब तो बस, खाना खाकर, सोना ही था!
उठी सुरभि, टी.वी. का रिमोट लिया, चालू किया,
और बदलने लगी चैनल, जो वो देखा करती थी, वहीँ रुकी,
कुछ देर देखा, और फिर बदल दिया, आज समझ ही नहीं आ रहा वो,
और चैनल बदले, कहीं नहीं रुकी, और कर दिया बंद! आज कुछ नहीं आ रहा था टी.वी. में!
उठी वो, और अपने एक बैग से निकाल लिया लैपटॉप,
लगा दिया उसमे डोंगल, इंटरनेट के लिए, अपना काम किया करती थी उसमे वो,
किया चालू, हुआ चालू, और खोला अपना काम, कुछ मिनट ही किया,
फिर बंद कर दिया! आज वो भी नहीं हो रहा था!
और तब, उसने इंटरनेट शुरू किया,
सबसे पहले तो बे'दु'ईं क़बीले के बारे में विस्तार से पढ़ा!
इसमें लग गया था मन! कमर सीधी कर, पढ़ने लग गयी!
आधा घंटा पढ़ा, फिर तु'आरेग क़बीले के बारे में पढ़ा, तस्वीरें देखीं!
ठीक वैसी ही, जैसी उसने देखी थीं सपने में!
मुस्कुराहट आ गयी होंठों पर!
और फिर पढ़ा, हरातीन क़बीले के बारे में,
इनकी पोशाक़ ठीक वैसी ही थी, जैसी उसने सपने में देखी थी!
पूरा पढ़ लिया, तीन-चार तस्वीरें भी सुरक्षित रख लें!
डेढ़ घंटा उसने ये सब पढ़ने में लगाया!
और फिर किया बंद वो, रख दिया बैग में,
कुर्सी से कमर लगा, बैठ गयी! हाथ फैला कर!
कोई दस मिनट के बाद, वो उठी,
और चली मम्मी के पास, बैठ गयी,
मम्मी ने कुछ बातें कीं उस से, उसने हाँ-हूँ में जवाब ही दिया बस!
पिता जी आज देर से आने वाले थे, इत्तिला कर दी थी उन्होंने,
कुणाल अपने भाइयों के संग था, घर पर उनके,
अब खाना आया, तो दो ही रोटियां खायी गयीं उस से उस दिन!
पानी पिया और चल दी वापिस अपने कमरे में,
जा लेटी, अपने मोबाइल में, ईयर-फ़ोन लगा, गाने सुनने का मन था!
गाने शुरू हुए, लेकिन, उसके दिल में तो वो रेगिस्तानी गीत चल रहा था!
सुन गाना रही थी, और गुनगुना वो गीत रही थी!
कैसी अजीब सी बात थी!
आखिर, बंद किया उसने गाना, और रख दिया ईयर-फ़ोन और मोबाइल, एक तरफ!
आज पढ़ने का भी मन नहीं कर रहा था!
सो, किताबें उठा, अलमारी में रख दीं!
कभी उठे, कभी बैठे,
कभी लेट जाए,
कभी खिड़की से टेक लगा,
खड़ी हो जाए!
कभी बाहर झांके, और कभी आकाश में देखे!
आज तो चाँद भी नहीं आये थे!
तारे ही थे बस!
कई बार देखा उसने!
नहीं थे!
न जाने क्या सूझा,
चप्पल पहनीं, और पाँव पटक, चली बाहर,
छत पर जाने के लिए,
सीढ़ियां चढ़ने लगी खटाखट!
ऊपर का दरवाज़ा खोला,
और पूरा आकाश देख लिया!
ढूंढ मारा चाँद को!
लेकिन आज चाँद नहीं आये थे!
हुआ एक अलग सा एहसास!
अकेलेपन का एहसास!
आज चाँद नहीं ये?
कहाँ रह गए?
कहीं अमावस तो नहीं आज?
देखना पड़ेगा!
उतरी सीढ़ियां दरवाज़ा बंद कर,
मम्मी के कमरे में, एक हिंदी कैलेंडर था!
उसको देखा, आज की अंग्रेजी तारीख देखी!
हाँ, आज अमावस ही थी!
आज नहीं आने वाले थे चाँद!
ओहो!
दिल में, हल्की सी जलती मोमबत्ती, बुझ गयी!
चली अपने कमरे में,
खिड़की बंद कर दी,
देह से जैसे जान निकल गयी थी!
हाथ भी नहीं उठाये जा रहे थे!
आज अकेली रह गयी थी!
नहीं तो संदेसा भेज देती वो!
अब कैसे कटेंगे ये चौबीस घंटे?
चाँद आते थे, तो मन की बात कह लेती थी!
आज तो वो भी छुट्टी पर चले गए थे!
इसी पशोपेश में साढ़े ग्यारह हो गए!
नींद न आई!
बैठी रही,
न पढ़ने का मन,
न कुछ सुनने का!
आज अजीब सा था मन!
साढ़े बारह बज गए,
नींद का एक झोंका भी नहीं!
एक बजा, और फिर डेढ़, कोई झोंका नहीं!
दो बजे, और उसको, आई एक जम्हाई!
बिस्तर पर जा लेटी!
चादर ली, और ओढ़ ली,
आँखें कीं बंद!
और इस तरह आखिर, नींद की पालकी में जा लेटी सुरभि!
सो गयी थी सुरभि!
आँख खुली!
अलार्म बजा था!
झट से उठी!
ये क्या?
सुबह हो गयी?
अलार्म उठाया,
देखा, जांचा, समय देखा,
छह बजे थे!
वो सपना?
आज नहीं आया?
क्यों?
अपने आप से सवाल शुरू!
खड़ी हुई,
खिड़की के पास गयी,
बाहर झाँका,
सुबह हो चुकी थी!
धम्म से बैठ गयी बिस्तर पर!
सोच-विचार शुरू!
क्यों नहीं आया सपना?
क्या वजह हुई?
चेहरा बुझ गया उसका!
ख़ैर,
उठी,
चली गुसलखाने,
बाल्टी में झाँका,
कोई फूल नहीं!
बाल्टी उठायी,
पीछे, नीचे देखा,
कुछ भी नहीं!
आसपास देखा, कुछ भी नहीं!
चलो जी, स्नान किया,
वस्त्र पहने, सामान लगाया,
मम्मी-पापा के पास चली,
बातें हुईं उनसे!
चाय-नाश्ता किया, आज कम खाया गया उस से!
हालांकि मम्मी ने टोका,
लेकिन मना कर दिया उसने!
खाना रखा बैग में,
और चल दी बाहर, ली सवारी,
और जा पहुंची अपनी कक्षा के लिए,
जा बैठी संग अपनी सखाओं के,
कामना देखे उसे, बार बार,
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"क्या बात है?" पूछा उसने सुरभि से,
"क्या हुआ?" बोली सुरभि,
"बीमार है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोली सुरभि,
"आज रंगत कैसी है?" बोली कामना,
"नींद नहीं आई रात को ठीक से!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"पता नहीं" बोली वो,
की पढ़ाई,
दोपहर को, कैंटीन में चलीं तीनों,
किया भोजन तीनों ने,
चौखट पर खिड़की की,
फूल गिर रहे थे घूम घूम के,
एक उठाया सुरभि ने,
सूंघा, तो कोई महक नहीं!
रख दिया वहीँ!
और पढ़ाई के बाद, वापिस घर के लिए निकली,
पार किया चौराहा,
ली सवारी,
और चल पड़ी घर के लिए,
अपने आप में उलझी हुई! खोयी हुई!
एक जगह...............!!
और एक जगह, रास्ते में ही, उसकी नज़र पड़ी! लाल-बत्ती हुई थी, साथ वाले वाहन में, कुछ पौधे रखे थे, उनमे कुछ ऐसे ही फूल थे, जैसे उसने देखे थे उसी बाग़ में! आँखें खुलीं रह गयीं! मुंह खुला रह गया! उसने गौर से देखा, ठीक वैसे ही थे! लाल-बत्ती खत्म हो, हरी-बत्ती हुई, और उसकी सवारी आगे बढ़ी, उसने पीछे मुड़कर देखा, पौधे वाला वाहन, बाएं मुड़ गया था! वो देखती रही उसे! दिल की धड़कन बढ़ी! वो फूल नज़र आये फिर से आँखों में, सोच में! वो बाएं मुड़, बार बार उसी वाहन को खोजती रही, लेकिन वो तो अब ओझल हो चुका था! ओझल वो हुआ, और हावी हुआ सुरभि पर वो हाल! घर पहुंची वो, अपना बैग रखा, सामान रखा, गुसलखाने गयी, बाल्टी में निगाह डाली, कोई फूल नहीं था! हाथ-मुंह धोये, और वापिस होते समय, फिर से बाल्टी को देखा! कोई फूल नहीं! अपना चेहरा पोंछा, और अपने हाथ, जैसे ही हाथ पोंछे, वो जकड़न याद आई उसे! उस जकड़न की नकल की उसने! न कर सकी! हाथ पोंछ लिए, अपने बैग में से टिफ़िन निकाला, और चली बाहर, रसोई के सिंक में, रख दिया, गयी दूसरे कमरे में, फ्रिज में से पानी की बोतल निकाली, पानी गिलास में डाला, पिया, और बोतल रख दी वापिस, मुंह में आखिरी घूँट ले, चली अपने कमरे में, अब अपने वस्त्र बदले, दर्पण देखा, अपने केश संवारे, और जा लेटी बिस्तर में! छत को देख, अपना एक घुटना हिलाती रही, एक हाथ से, अपने बालों की एक लट को, अलबेटे देते रही! उस छत में, छेद ही जो न हो जाता! ऐसी नज़र से देख रही थी सुरभि उस छत को! तभी उसकी मम्मी की आवाज़ आई, उसको बुलाया था उन्होंने, वो उठी, पहनी चप्पल, और चली मम्मी के पास,
"हाँ मम्मी?" बोली सुरभि,
"इधर बैठ" बोली माँ,
वो बैठ गयी,
"नीरज का रिश्ता पक्का हो गया है!" बोली माँ,
"अरे वाह मम्मी! कहाँ से?" पूछा उसने,
"दिल्ली से, लड़की बहुत अच्छी है!" बोली माँ,
"अपने भोंदू भैया की क़िस्मत चमक गयी!" बोली सुरभि!
माँ भी हंस पड़ी!
नीरज से कुछ ज़्यादा ही खटपट रहती थी सुरभि की,
वो सबसे बड़ा था भाइयों में, लेकिन सुरभि उसे भी डाँट दिया करती थी!
भाई की हिम्मत नहीं, कि कुछ बोल सके!
"क्या नाम है मम्मी भाभी जी का?" पूछा उसने,
"विधि!" बोली माँ,
"अच्छा! चलो, भैय्या को अब कुछ विधि-विधान समझ आ जाएंगे!" बोली सुरभि!
माँ भी हंस पड़ी! उसकी इस बात पर!
तभी माँ न एक डिब्बा उठाया, मिठाई का डिब्बा सा लगता था,
"ये ले!" बोली माँ,
सुरभि ने लिया,
और खोला उसको,
जब खोला, तो जैसे एक झटका सा लगा उसे!
पिस्ते! मेवे! और सूखी हुई खुर्मानी!
देखती रही, उठा न सकी!
कहीं और जा पहुंची थी!
"ले, क्या देख रही है?" माँ ने कहा,
तन्द्रा टूटी! माँ ने खुर्मानी, पिस्ते और मेवे दे दिए हाथ में उसके!
वो उठी, और चली अपने कमरे की तरफ,
आई कमरे में, रखे वो मेवे-पिस्ते और खुर्मानी, एक किताब पर,
खींची कुर्सी, बैठी उस पर, जैसे बदन भारी हो चला हो उसका!
उठाया एक पिस्ता, उसका खोल छीलना था, फिर एक परत भी छीलनी थी,
उसने कोशिश की छीलने की, बहुत कड़ा था, उँगलियों पर, निशान पड़ गए!
छील तो लिया, फिर नाख़ून से वो परत भी छील ली,
एक पिस्ते ने ही मेहनत करवा दी थी इतनी!
खुर्मानी ली, उसको देखा, बहुत छोटी लगी उसको वो!
खाती रही, और खोयी रही!
खा लिए सभी, बड़ी मेहनत करनी पड़ी उसे!
उठी, और पानी पीने चली,
पानी पिया, और वापिस हुई,
अब जा लेटी!
अब लेटी तो आँखें बंद हुईं!
आँखें बंद हुईं, तो आया एक सपना!
सपने में, रात थी वो!
सर्द हवा चल रही थी!
ठूंठ से पेड़, छोटे से पेड़ पड़े थे उधर!
ये सहारा था! आकाश में, तारे थे, ऐसे करीब दिखें कि,
हाथ बढ़ाओ, और पकड़ लो!
चाँद, ऐसे करीब, कि उछल के छू लो!
तारों का प्रकाश,
चाँद का प्रकाश,
जब रेत के कणों से टकराता था,
तो रेत ऐसे चमकती थी कि,
जैसे ज़मीन पर हीरे पड़े हों! छोटे छोटे!
उसने अपने दोनों हाथ बांधे हुए थे!
सर्दी के मारे, रोएँ खड़े थे!
आसपास देखा, तो पीछे,
अलाव जल रहा था एक बड़ा सा,
वो चल पड़ी उधर ही,
रेत बहुत ही ठंडी थी!
छू जाती थी, तो बर्फ का सा एहसास देती थी!
वो चलती रही, और अलाव करीब आता रहा,
वहां तम्बू लगे थे, लेकिन ये को नख़लिस्तान न था!
उसे फुरफुरी चढ़ी!
नाक-कान सब ठंडे हो गए!
तभी उसे अलाव पर से, एक महिला आती दिखाई दी,
उसके हाथ में, कंबल था!
वो महिला मिली, और उसने, उढ़ा दिया वो कंबल उसे,
कमर पर हाथ रख, ले चली संग अपने!
अलाव पर पहुंचे वो,
वहाँ, बुज़ुर्ग और वृद्धा लोग बैठे थे,
उस महिला ने, हम्दा दिया उसे!
एक लड़की आई, हाथ किया आगे,
और हाथ पकड़, सुरभि का, ले चली संग अपने!
अपने तम्बू में आई,
यहां सर्दी नहीं थी,
बिठाया उसे, मोटा सा कंबल दिया उसको!
"ह'ईज़ा और अशुफ़ा कहाँ हैं?" पूछा उसने,
उस लड़की ने, मना किया, कि वो नहीं जानती उन्हें!
"आप नहीं जानतीं?" पूछा सुरभि ने,
"नहीं, वो इस वक़्त पश्चिमी सहारा में होंगे! ये पूर्वी सहारा है!" बोली वो,
दिल में, कागज़ सा फटा सुरभि के!
"आप लोग कौन हैं?" पूछा सुरभि ने,
"हम, सहरावी हैं!" बोली वो,
"उनसे कैसे मिल सकती हूँ मैं?" पूछा सुरभि ने,
"जाना होगा आपको!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा सुरभि ने,
"जानते हुए भी अनजान हो?" बोली वो,
"कैसे अनजान?" पूछा सुरभि ने!
वो लड़की मुस्कुरा पड़ी!
आई उसके पास,
देखा उसको उसकी मोटी मोटी आँखों में,
आँखों में, बेचैनी पढ़ ली थी उसने!
"बेचैन हो सुरभि?" पूछा उस लड़की ने,
कुछ न बोली!
इंसान में यही तो सिम्त है!
जो होता है, वो क़ुबूल नहीं करता!
तो नहीं होता, उसके होने का दावा पेश करता है!
इसीलिए न बोली!
बस देखती रही, उस लड़की को!
वो लड़की, चली एक तरफ,
एक छोटी से देग़ रखी थी वहां,
चमचे से, एक गिलास में,
खिच्चा डाला उसने,
और ले आई सुरभि के पास,
दिया उसे, लिया सुरभि ने,
और बैठ गयी संग उसके!
"पियो सुरभि!" बोली वो,
सुरभि ने गिलास लगाया होंठों से,
और भरा एक घूँट!
"आपका नाम क्या है?" पूछा सुरभि ने,
"हाफ़िज़ा, सुरभि!" बोली वो,
"मुझे बताएं हाफ़िज़ा, कि कैसे मिलूं उनसे?" पूछा सुरभि ने,
"आप खुद जानती हैं सुरभि!" बोली वो,
उलझ गयी थी सुरभि!
क्या जानती है वो?
ऐसा क्या कि?
उस से अनजान है वो?
क्या है ऐसा?
बेचैन!
हाँ! बेचैन तो हूँ!
लेकिन कहूँ कैसे?
और फिर कहूँ भी किस से!
"हो न बेचैन?" पूछा हाफ़िज़ा ने!
न बोली कुछ,
खिच्चा पी लिया था, रख दिया था गिलास उसने,
"सुरभि?" बोली हाफ़िज़ा!
देखा सुरभि ने,
आँखों में, बेचैनी के साथ, एक तलब भी लगी थी साथ में!
वो अब तलबग़ार भी थी!
क्या क्या छिपाए सुरभि!
न छिपे!
आँखों के रास्ते, बाहर आते जाएँ वो छिपे हुए अंकुर!
अपनी एक ऊँगली,
सीधे कंधे के नीचे छुआई हाफ़िज़ा ने, सुरभि के!
"सुरभि!" बोली वो,
"हूँ?" हल्का सा बोली सुरभि!
"बेचैन हो न?" पूछा उसने,
कुछ न बोले! कंबल को, बस उमेठे जाए,
अपनी ऊँगली और अंगूठे से!
मुस्कुराई हाफ़िज़ा!
"रात गहरा गयी है! सो जाओ सुरभि!" बोली हाफ़िज़ा!
बाहर अलाव की लपटें उठ रही थीं,
और इधर दिल में सुरभि के अगन सुलगने में, देर न थी!
धुंआ उठने लगा था, बस, एक फूंक की ज़रूरत थी!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

उधर आँखें बंद हुईं सुरभि की, और इधर खुल गयीं!
उसके रोएँ खड़े हो गए थे!
हांफने लगी थी वो, अकारण ही!
ये सब दिमाग का खेल था! उसका दिल और दिमाग,
दोनों एक संग नहीं चल रहे थे,
दिल कहीं और भागना चाहता था,
और दिमाग, कहीं और!
वो उठी, घड़ी देखी, सात बज चुके थे,
दिल में, एक अजीब सी घुटन थी,
बेवजह की घुटन, जैसे अंदर ही अंदर, दम घुट रहा हो!
उसने खिड़की खोली, ठंडी हवा ने उसका बदन टटोला!
राहत मिली,
और एक शब्द कान में गूंजा उसके,
बेचैन! क्या वो सच में ही बेचैन है?
बेचैन है, या फिर कोई और दुविधा?
वो सहरावी हाफ़िज़ा, याद आ गयी उसे!
जाना होगा! यही कहा था उसने उस से!
लेकिन, वो जाए तो कहाँ जाए?
और कैसे जाये?
कोई घंटे भर, इन्ही सवालों में उलझी रही सुरभि!
कुर्सी पर बैठे बैठे, आँखें बंद कर लेती,
कभी बाहर झांकती, कभी कमरे में टहलती,
उसका फ़ोन तीन बार बजा, नहीं उठाया उसने,
मन न था किसी से बात करने का!
इसे बेचैनी न कहें, तो क्या कहें? क्या नाम दें दूसरा?
वो तब चली गुसलखाने, हाथ-मुंह धोये अपने,
फिर बाल्टी में झाँका, कोई फूल नहीं!
उसने आसपास भी देखा, कोई फूल न था!
बाल्टी में झाँका, आसपास देखना,
ये बेचैनी नहीं है, तो और क्या है?
खैर, वो चली बाहर, छत पर चली आई,
मन था किसी से भी बात करने का, छत पर,
बीच का मौसम था, कभी सर्दी सी हो जाती, और कभी गर्मी सी,
उस शाम मौसम ठंडा था,
वहां एक फोल्डिंग-पलंग पड़ा था,
उस पर ही बैठ गयी सुरभि,
पश्चिमी क्षितिज पर, सूर्यदेव जा चुके थे,
अब उनकी लालिमा ही शेष थी!
वो लेट गयी पलंग पर, पांव एक दूसरे में फंसा दिए,
आँखें बंद कर लीं, और गुनगुनाने लगी वही गीत!
बहुत अच्छा लगता था उसे वो गीत!
उसमे मधुरता थी, एक आनंद था, अलग ही!
वो हल्की सी मुस्कान ले आई अपने होंठों पर,
आँख खुल गयीं थीं उसकी! अब धुंधलका छाने लगा था!
ये धुंधलका तो रोज होता है, रोज ही,
लेकिन दिल में जो धुंधलका था, वो कभी नहीं हुआ था पहले,
बस, इस से ही वो उलझ गयी थी,
हाथ-पाँव मारे तो कहाँ मारे!
किसको पुकारे! और कौन आएगा!
आँखें बंद हुईं उसकी, गीत फिर से निकला मुंह से!
पांव, अपने आप थिरक उठे!
बदन, जैसे पलंग के आगोश में, चला गया पूरी तरह!
सुरभि, उस लम्हे, सुरभि न रही, एक बे'दु'ईं हो गयी!
जिस इन्तज़ार था अपने महबूब का! जो, गया हुआ था बाहर,
उसके लौटने के इंतज़ार, लम्हा-दर-लम्हा, लम्बा हुए जा रहा था!
वो खो गयी थी उस लम्हे!
तम्बू के उस मुहाने से, बाहर झांकती,
उसकी निगाह, दूर सहरा में, टटोल रही थी कुछ!
वो सहरा, धूप में, तप रहा था, मरीचिका बनी हुई थी!
जैसे उस सहरा की रेत पर, पानी जमा हो, जो अब बर्फ बना गया हो!
उसके ऊपर, ताप की वो भंवरिका नाच रही थी!
अपने सर से बंधे उस लाल कपड़े का एक सिरा अपने दांतों से पकड़े थी,
नज़रें, बस वहीँ लगी थीं!
वही गीत गुनगुनाये जा रही थी!
उस सहरा में, कोई हरकत न थी,
कोई हलचल नहीं!
दूर तलक बस निगाह जाती,
ठहरती, और लौट आती, मन मसोस के रह जाता उसका!
सन्नाटा पसरा था हर तरफ!
जब हवा चलती, तो रेत की लहरें बन जाती उस सहरा पर!
उसने तसव्वुर किया,
अपने को रेत की जगह रखा!
ये रेत भी तो, हवा में उड़ने लगती है,
हवा रूकती है, तो फिर से सहरा का दामन चूमने लगती है रेत!
इसी सहरा की कैदी है वो रेत!
ठीक, जैसे अब सुरभि, अपनी बेचैनी की कैदी बन गयी!
फिर से हवा चली, तम्बू की कनातें अंदर की ओर झुकीं!
बाहर, तम्बू से बंधी डोरियाँ छटपटायीं खुलने के लिए,
उनको परछाइयाँ, ज़मीन पर रेंगते हुए साँपों जैसे लगतीं!
लेकिन निगाह, बरबस, दूर, उधर, आने वाले रास्ते पर टिक जातीं! बार बार!
सुरभि? ये बेचैनी नहीं है, तो और क्या है?
फिर से हवा का शोर उठा!
तम्बू से थोड़ा ही दूर, एक कपड़ा ज़मीन चूमता उड़ चला!
रुका, हवा चली, तो फिर घूमा!
उसे भी इंतज़ार था! कि कुछ सहारा मिले, तो ठहर जाए कहीं!
थक गया था उड़ते-उड़ते, घूमते-घूमते!
अचानक ही,
ऊंटों के गले में बंधी घंटियाँ बजीं!
उनके रेंकने की खर-खर की आवाज़ें आयीं!
दिल में धड़कन हुई तेज!
आँखें फ़ैल उठीं!
खड़ी हुई!
चली बाहर,
तपती रेत में, पाँव जलने लगे!
लेकिन, किसे चिंता!
वो भागी, तम्बू के पीछे!
कुछ लोग ये थे, कुछ ही लोग!
वो नहीं आया था, जिसका इंतज़ार था!
रेत जलाने लगी पाँव अब!
कपड़े, जैसे खौल उठे!
चेहरा पसीनों से तर-बतर हो उठा!
आँखों की पलकों से, पसीने टपक पड़े!
भौंहों के बीच से, पसीना, जगह बनाते हुए,
नाक से छूता हुआ, होंठों के किनारों से बह चला!
वापिस मुड़ी, रेत में पाँव धंसते उसके!
फिर से निगाह, बरबस, उसी रास्ते से जा लगी!
आँखों को, हाथ की छाँव दे, दूर तक देखा!
बियाबान! सुनसान! वो सहरा-ए-सहारा!
चली अंदर, मुहाने की दरार को बड़ा किया उसने,
और जैसे ही बैठी नीचे, कुछ चुभा, उसे ढूँढा उसने,
देखा तो एक खोल था, पिस्ते का!
अपने हाथ में क़ैद कर लिया उसने!
और हुई आँखें बंद उसकी!
और जब आँख खुली उसकी,
तो अँधेरा घिर चुका था!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
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