सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़ complete

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Jemsbond
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"बैठो!" बोली ह'ईज़ा!
बैठ गयी सुरभि!
और तब, एक और जानी-पहचानी आवाज़ आई!
"सुरभि!" एक औरत की आवाज़!
ये अशुफ़ा थी!
खड़ी हुई वो!
और अशुफ़ा ने माथा चूमा उसका!
पास में ही रखी सुराही से, गिलास में डाला शरबत,
और दिया उसको!
वो शरबत ख़ास ही हुआ करता है!
ऐसा इस जहां में मिलना, नामुमकिन ही है!
"संदेसा भेजा था न?" बोली मुस्कुराते हुए, अशुफ़ा!
हैरान रह गयी सुरभि!
"मिल गया!" बोली अशुफ़ा!
संदेसा मिल गया था उन्हें! चाँद ने दे दिया था संदेसा! मुस्कुरा गयी सुरभि!
शरबत पी लिया था, गिलास दे दिया था वापिस!
सुरभि ने, आसपास देखा,
हर जगह सजावट थी!
गुलदस्ते रखे थे, फूल सजे थे उनमे!
नीचे नीला और पीला, मोटा सा कालीन बिछा था!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा सुरभि ने,
"नबूश!" बोली ह'ईज़ा!
"नबूश!" बोली सुरभि!
"और ये इमारत?" बोली वो,
"ये क़ायज़ा है!" बोली वो,
"क़ायज़ा?" पूछा सुरभि ने, समझ नहीं पायी थी,
"बताती हूँ! ये एक बाग़ है! और बाग़ का पहरेदार यहां रहता है!" बोली ह'ईज़ा!
''अच्छा! और ये बाग़ किसका है?" पूछा सुरभि ने,
"फ़ैज़ान भाई का!" बोली वो,
फिर से नाम आया था! फ़ैज़ान!
दिल, फिर से धक्!
"क्या आ गए हैं वो?" पूछा सुरभि ने,
"अभी नहीं! कल तक आ जाएंगे!" बोली वो,
"और वो रेगिस्तान?" पूछा उसने,
"वो यहीं है, थोड़ा आगे!" बोली अशुफ़ा!
"लेट जाओ सुरभि! आओ!" बोली वो,
और सहारा दे, लिटा दिया उसने सुरभि को!
सुरभि के बाल ठीक करती रही अशुफ़ा!
ह'ईज़ा, उसके हाथ पकड़, बैठी रही!
"सोना है सुरभि?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"नहीं!" बोली सुरभि, मुस्कुराते हुए!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा!
"हाँ?" जवाब दिया उसने,
"जाओ, कुछ फल लाओ सुरभि के लिए!" बोली अशुफ़ा!
"अभी लायी!" बोली वो, और चल पड़ी अंदर,
"सुरभि! बहुत याद आई आपकी!" बोली अशुुफा!
मुस्कुरा गयी थी ये सुन!
"सच में, एक लम्हे में वीरान हो गया था जी!" बोली वो,
"मेरा भी!" बोली सुरभि,
"जानती हूँ! संदेसा मिल गया था!" बोली अशुफ़ा!
आ गयी ह'ईज़ा फल लेकर,
एक बड़ी सी तश्तरी में, आलू-बुखारे, अंगूर, खुर्मानी और लाल लाल बेर लायी थी!
"लो सुरभि!" बोली रखते हुए ह'ईज़ा!
बैठ गयी सुरभि,
गुलाब-जामुन के बराबर, एक एक अंगूर था!
सेब के बराबर एक एक खुर्मानी!
आलू-बुखारे, संतरे से भी बड़े!
और वे जो बेर थे लाल लाल, वो हम मनुष्यों के पास नहीं हैं!
उनको, शाज़ी कहा जाता है,
लाल रंग का होता है,
नीम्बू के बराबर, गुठली, ज़रा सी होती है,
जैसे नीम्बू का बीज, बस इतनी ही, काले रंग की, गोल-गोल!
अंदर का गूदा, पीले रंग का होता है,
मिठास में ऐसा कि इसके बाद आपको मीठे का पता ही नहीं चलेगा,
आप चाहें चीनी खाएं या शहद चाटें! मिठास नहीं आएगी!
ख़ुश्बू में, अनानास जैसा होता है!
मुंह में खाते वक़्त, जैसे बताशा चबाया जाता है, ऐसी आवाज़ आती है!
उनका आलू-बुखार, बेहद मीठा होता है,
छिलका नरम और गूदा, गाढ़े मैरून रंग का होता है,
खट्टापन नहीं होता ज़रा सा भी!
अंगूर ऐसा मीठा, कि मुंह में रस घुल जाए फोड़ते ही!
खुर्मानी ऐसी मीठी, ऐसी मुलायम, खोये जैसी!
फल खिला दिए थे उन दोनों ने सुरभि को!
पेट भर दिया था उसका फलों से ही!
उसके बाद, लेट गयी थी सुरभि!
हवा चल रही थी ठंडी ठंडी!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू बिखरी हुई थी!
आँख लग गयी उसकी!
और जैसे ही करवट बदली उसने,
आँख खुली!
वो अपने बिस्तर पर थी!
चौंक के खड़ी हो गयी वो!
बाहर झाँका,
जैसे चाँद इंतज़ार कर रहे थे उसके खड़े होने का!
वो चली खिड़की के पास, खोला उसे,
और निहारने लगी उसको!
मुंह में, अभी तक खुर्मानी का स्वाद था!
थूक भी मीठा हो चला था उस समय उसका!
हलक़ भी मीठा ही था!
वो बैठ गयी बिस्तर पर,
घड़ी देखी, तीन बजे थे उस समय रात के,
बाहर चौकीदार सीटी बजा, सड़क पर डंडा पटक रहा था!
श्वान भौंक रहे थे,
बाहर सड़क पर, बत्तियां जलतीं, और गाड़िया गुजर जातीं!
चाँद को देखा,
निहारा,
और मुस्कुरा पड़ी!
उस बाग़ में जा पहुंची!
उस क़ायज़ा में!
अब क्या संदेसा दूँ?
क्या लिखूं?
क्या कहूँ?
उस लम्हे, वो बेखुद हो चली थी!
याद आएं वे दोनों उसे!
वो बाग़, वो फल!
वो कक्ष!
सब याद आये!
जा लेटी बिस्तर पर,
टांगों के बीच, दोनों हाथ फंसा लिए,
दायें करवट लेटी थी वो!
आँखें बंद कीं उसने,
आई नींद,
और उधर,
उस क़ायज़ा में, नींद खुली उसकी!
उठ बैठी वो!
सहारा दिया अशुफ़ा ने उसे,
वे दोनों, वहीं बैठी रही थीं!
उसे सोते देखती रही थीं!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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अशुफ़ा मुस्कुराई!
"बहुत सुंदर हो सुरभि आप!" बोली अशुफ़ा!
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
"पानी चाहिए!" बोली सुरभि,
"अभी लायी!" बोली ह'ईज़ा,
और चली गयी अंदर!
एक बड़े से गिलास में,
ले आई थी पानी,
सुरभि को दिया पानी, उसने पिया!
अशुफ़ा ने, उसकी गरदन में पड़ी वो सोने की ज़ंजीर देखी!
"बहत सुंदर है!" बोली वो,
"मेरी माँ ने दी थी!" बोली सुरभि!
"अच्छा!" बोली वो,
पानी का गिलास, दे दिया वापिस,
रख दिया ह'ईज़ा ने उधर ही,
"आओ!" बोली अशुफ़ा!
खड़ी हुई सुरभि,
और चल पड़ीं तीनों बाहर, गुलाब बिछे हुए थे!
चलीं तीनों,
ले गयी एक जगह सुरभि को!
वहां पानी बह रहा था,
ताज़ा, साफ पानी!
फूलों की पंक्तियाँ चली गयीं थी दूर तलक!
एक जगह, पत्थर रखे थे,
यहां बैठने की जगह थी!
सो, जा बैठीं तीनों ही वहां!
"कल आएंगे फ़ैज़ान भाई!" बोली अशुफ़ा!
फिर से दिल धक्!
न जाने क्यों?
क्या उसे भी इंतज़ार था?
हो शायद?
या, कोई और बात?
सुरभि ही जाने!
"आप मिलोगे उनसे?" पूछा अशुफ़ा ने,
क्या बोले!
कैसे हाँ कहे!
वो तो जानती भी नहीं!
फिर भी,
गरदन हिला दी!
ये हया थी!
हयापोश हो चली थी सुरभि उसी लम्हे!
ज़िंदगी में, बस यही भाव नहीं आया था पहले कभी!
आज, अचानक?
"वो भी बहुत खुश होंगे!" बोली अशुफ़ा!
कुछ न बोली!
आँखें नीचे किये हुए, ज़मीन देखती रही!
फिर खड़ी हो गयीं वो तीनों!
सामने ऊंचे पहाड़ थे!
उनकी चोटियां बादलों में समायी हुई थीं!
हर तरफ, हरियाली ही हरियाली!
"आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
और ले चलीं उसे आगे!
ओहो!
यहां तो नीले फूलों का बिस्तर सा लगा था!
दूर तलक, जहां तक नज़र जाए!
वैसे ही नीले फूल!
याद आ गए उसे!
"ह'ईज़ा?" बोली सुरभि,
"जी?" बोली वो,
"क्या ये सपना है?" पूछा उसने,
हंसी वो!
अशुफ़ा भी मुस्कुराई!
"नहीं, नहीं सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
"तो ये सच है?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ सुरभि!" बोली ह'ईज़ा!
न यक़ीन आये!
दिमाग उलझे!
दिमाग में, सवाल बवाल काटें!
"ये असल में हो रहा है सुरभि!" बोली ह'ईज़ा!
देखे ह'ईज़ा को!
ह'ईज़ा, मुस्कुराये!
सुरभि का चेहरा थामा अशुफा ने अपने हाथों में!
और देखा उसकी आँखों में,
चूम लिया माथा उसका!
"ये सच है! सपना नहीं सुरभि!" बोली अशुफा!
और अगले ही पल............!!
और अगले ही पल! नींद खुल गयी सुरभि की! भोर हो चली थी! बाहर, पक्षी चहचहा रहे थे, घड़ी देखी तो छह बजने में दस मिनट थे, अलार्म भी बजने ही वाला था! वो उठी, खिड़की बंद की, चाँद अब जा चुके थे! हालांकि आकाश में ढूँढा उनको, पर अब जा चुके थे, अब तो सूर्यदेव अपने रथ पर सवार हो, पूर्वी क्षितिज से चढ़े चले आ रहे थे! कुछ ही देर में अलार्म बज उठा, उसने अलार्म बंद किया, और स्नानादि के लिए, चली गुसलखाने, बाल्टी में नज़र डाली, तो दो छोटे से नीले रंग के फूल, आज भी पड़े हुए थे! उसने नहीं हटाये वो फूल! पानी भरा, और फिर स्नान किया, वस्त्र पहने, और केश संवार, अपना सामान भी उठा लिया! चली मम्मी-पापा के पास! जैसे ही गयी, सामने कुणाल बैठा था! देर रात आया था वो! भाई दौड़ के चला अपनी बहन के पास! खुश हो गयी सुरभि! पता नहीं, कितने सवाल कर डाले एक ही वाक्य में! कुणाल ने भी, एक एक करके जवाब दिया उसको! भाई-बहन में बहुत प्यार था शुरू से ही! कुणाल तो जान छिड़कता था अपनी बहन पर! अभी बातें कर ही रहे थे, की सुरभि के ताऊ जी के लड़के भी आ गए! खबर मिल ही चुकी थी की कुणाल आ चुका है! सबसे पहले अपनी लाड़ली बहन से मिले! फिर अपने चाचा और चाची के पाँव छुए उन्होंने! और बैठ गए! चार भाइयों में अकेली बहन थी, तो लाड़ली कैसे न होती! चाय-नाश्ता लगवा दिया गया! अब तो सभी ने चाय-नाश्ता किया! जब सुरभि ने चाय-नाश्ता कर लिया, तो वो अपनी कक्षा के लिए चली! कुणाल से मिली, और अपने दूसरे भाईओं से भी! और चली आई बाहर! पकड़ी सवारी, और चली कक्षा!
वहां पहुंची, और जैसे ही कक्षा में पहुंची, पूरा कमरा महक उठा! रोज की तरह, कामना और पारुल ने, फिर से फब्तियां कस दीं! और रोजाना की तरह ही, सुरभि ने उनको जवाब दिया! दोपहर में, फिर से कैंटीन में जा बैठीं, भोजन किया, और कुछ आराम, कुछ इधर-उधर की बातें हुईं! और फिर कक्षा के बाद, वापिस चली सुरभि, आई बाहर, पार किया चौराहा, और ले ली सवारी! और देखिये! जिस ऑटो में बैठी थी, उसमे ठीक सामने लिखा था फ़ैज़ान! जैसे ही पढ़ा, दिल में एक सिलवट सी पड़ी! याद आ गया सबकुछ! खो गयी उसी सपने में! और पूरा रास्ता उसी सपने के एक एक लम्हे में बिता दिया! पहुंची घर, कुणाल अपने भाइयों के साथ बाहर गया था, उसने धोये हाथ-मुंह, चाय पी, थोड़ा-बहुत खाया भी! और फिर, वस्त्र बदल, जा बैठी पलंग पर! अपना कुछ सामान ठीक से व्यवस्थित किया, कुछ अदला-बदली की, और तभी एक महक आई! तेज महक! जैसी उन नीले फूलों में से आया करती थी! आँखें बंद हो गयीं उसकी! जैसे, नशा सा चढ़ गया हो! बदन में ढीलापन आ गया! रोएँ से खड़े हो गए! वो काम छोड़, जा लेटी बिस्तर पर! ली करवट, अपने दोनों हाथ, फंसाये घुटनों में, और आँखें खोल, सोचने लगी कुछ! जब ऐसी हालत होती है मित्रगण, तब आँखें कुछ नहीं देखती! बस उनका आकार छोटा-बड़ा होता रहता है! देखती तो हैं मन की आँखें! तन की आँखें तो बस, जैसे शिथिल हो जाया करती हैं! वही हो रहा था उसके साथ! मन की आँखें जब ज़्यादा ही उलझीं, तो तन की आँखें भी बंद हो गयीं! करवट फिर से बदली उसने! और इस बार, नींद का झोंका आया, और सुरभि, बह चली उसमे!
सपनों की डोर भले ही कच्ची थी, लेकिन जकड़न बेहद मज़बूत थी उसकी! सुरभि, खिंची चली जाती थी उसमे! इस बार, वो जहां आई, वो फिर से एक रेगिस्तान था! शाम का वक़्त था! दूर दूर तक, कोई पेड़ नहीं था! सफेद रेगिस्तान! आकाश में कोई परिंदा नहीं! रेगिस्तान में, कोई लकड़ी का ठूंठ भी नहीं! बस वो, और उसकी परछाईं! परछाईं, जो अब लम्बी हो चली थी, पूरब की तरफ पड़ रही थी, धुंधली सी, उसने चारों तरफ देखा, कुछ नहीं था, एक टीला देखा रेत का, ऊंचा था, उस पर चढ़ कर, पता लगाया जा सकता था! वो चल पड़ी उधर! पाँव, रेत में धंसे जा रहे थे! चलना मुहाल हो रहा था, किसी तरह, एक एक क़दम बढ़ा, वो चल रही थी! पहुंची टीले पर, और ठीक बाएं, कुछ पेड़ दिखे उसको! दिमाग में कुछ याद आया! ये तो वही नख़लिस्तान है! बदन में जान आई उसके! और चल पड़ी उधर ही! जब पहुंची, तो ऊंटों की आवाज़ें आयीं उसको! कुछ औरतें दिखाई दीं! वे औरतें जैसे पहचान गयीं उसे! आयीं उसके पास, और ले चलीं अशुफ़ा के पास! ले आयीं, अशुफ़ा को आवाज़ दे, और अशुफ़ा अंदर से भागी चली आई बाहर! सीधा सुरभि के पास! हाथ चूमे उसके, माथा चूमा, और पांवों को साफ़ कर दिया उसने! ले चली अंदर उसे उस तम्बू के! बिठाया उसे!
"ह'ईज़ा कहाँ है?" पूछा सुरभि ने,
"आती होगी वो सुरभि!" बोली वो,
आई उसके पास, खोली एक डिबिया,
निकाली एक सिलाई, भरा सुरमा उसमे,
और लगा दिया सुरभि की आँखों में,
सुरमयी आँखें हो चलीं उसकी!
"पानी चाहिए!" बोली सुरभि!
"हाँ, अभी!" बोली वो,
और कोने में रखी सुराही से,
पानी डाला गिलास में, और दे दिया!
सुरभि ने पानी पिया, और गिलास वापिस दे दिया!
और भागी भागी चली आई ह'ईज़ा!
सुरभि मुस्कुरा गयी उसको देख कर!
ह'ईज़ा ने, माथा चूमा सुरभि का,
हाथ चूमे, कलाईयाँ चूमी!
ये रिवाज़ है वहाँ का!
तभी बाहर से, कुछ औरतों के गाने का स्वर गूंजा,
बाहर देखा सुरभि ने,
"ये हरातीन हैं!" बोली ह'ईज़ा!
हरातीन, एक और क़बीला है सहारा का!
इसके मर्द और औरतें, बेहद मज़बूत कद-काठी के होते हैं!
पक्के रिगिस्तानी लोग हैं! लेकिन ईमानदार!
बे-ईमानी से कोसों दूर! कभी नही सीखी इन्होने!
वो अपनी स्थानीय भाषा में, गीत गा रही थीं!
सुरभि को, बहुत अच्छा लगा वो गीत!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"इसके क्या मायने हैं?" पूछा सुरभि ने,
"इसके मायने हैं सुरभि, कि शाम होने वाली है, सूरज भी डूबने को है, तो ये औरतें सूरज से प्रार्थना कर रही हैं, कि कुछ देर और ठहरो! रुक जाओ! मेरे दिल की धड़कन सुनो, कितनी तेज है, उसके खाविंद, बस पास में ही होंगे, अँधेरा न होने देना! उजाले उजाले में लौट आएं वो! घर में चूल्हा चढ़ चुका है, बस, कुछ देर और, कुछ देर और ठहरो!" बोली अशुफ़ा!
"बहुत प्यारे मायने हैं! बहुत प्यारे! दिल को छू गए हैं!" बोली सुरभि!
"हाँ सुरभि! बहुत कम ही ऐसा होता हा, जो आपके दिल को छू जाता है! आप तसव्वुर करते रहते हैं उसका!" बोली वो,
"हाँ! सही कहा!" बोली वो!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"जी?" जवाब दिया उसने,
"खिच्चा तो ला?" बोली वो,
"अभी लायी!" बोली ह'ईज़ा!
उठी, और चली गयी बाहर!
"सुरभि! आप न जाया करो!" बोली अशुफ़ा!
मुस्कुरा गयी सुरभि!
"हमारी याद आती है आपको?" पूछा उसने,
"हाँ, बहुत!" बोली सुरभि,
वो भी मुस्कुरा पड़ी!
तभी ह'ईज़ा अंदर आई,
ले आई थी खिच्चा, दिया सुरभि को,
और सुरभि ने लिया, पीने लगी!
"आप बहुत याद आती हैं हमें!" बोली ह'ईज़ा!
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
"सच में, आपके जाने के बाद, सब सूना हो जाता है!" बोली ह'ईज़ा,
"सच कहा ह'ईज़ा! हमारी सुरभि जैसा कोई नहीं!" बोली अशुफ़ा!
तभी बाहर से आवाज़ आई!
ये हुमैद साहब थे, कुछ लाये थे खाने के लिए,
ह'ईज़ा ने लिए उनसे,
और रख दिए सामने सुरभि के,
ये पिस्ते-मेवे, सूखी खुर्मानी थे!
रेगिस्तान में बस यही टिकता है!
नहीं तो गर्मी, सारी नमी सोख लिया करती है!
खिच्चा पी लिया था उसने,
और तभी उसकी आँखें बंद हुईं!
जैसे ही बंद हुईं,
वहां खुल गयीं!
वो हड़बड़ा के उठ बैठी!
खिच्चा का स्वाद, मुंह में बना हुआ था अभी भी!
बाहर, कुछ आवाज़ें आ रही थीं!
वो उठी, घड़ी देखी,
साढ़े छह बज चुके थे!
दरवाज़ा खोला, और चली बाहर!
दूसरे कमरे से आवाज़ें आ रही थीं!
वो चली उधर!
भाइयों ने जगह बनाई, माता जी की आँखों में आंसू थे!
उसको हुई घबराहट!
"क्या हुआ मम्मी?" पूछा उसने,
मम्मी तो कुछ बोल न सकीं, रोये ही जाएँ!
"कुणाल? क्या हुआ?" पूछा उसने,
"आज मरते मरते बचे हम!" बोली वो,
घबरा गयी!
"कैसे?" पूछा उसने,
"मैं और धीरज थे अपनी गाड़ी में, गाड़ी चले जा रही थी, कि अचानक, रास्ते में लगा एक नीम का पेड़, बड़ा पेड़, सड़क पर झुका, एक गाड़ी ने मारे ब्रेक! लेकिन जा टकराई उस से, फिर एक और, और फिर एक और! अब पीछे हम थे! हमने मारे ब्रेक! लगा आज तो हम गए! लेकिन हुआ क्या! कैसे किसी ने हमारी गाड़ी को, हाथों से उठा कर, बाएं रख दिया हो! हमारे पीछे की गाड़ी जा ठुकी! लेकिन कमाल ये, कि हमें एक खरोंच भी न आई! कमाल हो गया!" बोला कुणाल!
दिल धड़क उठा सुरभि का!
उठी, और लगा लिया गले कुणाल को!
धीरज को!
आँखों से आंसू ढुलक पड़े!
दोनों भाई,
भीगी बिल्ली की तरह से चुप!
सुरभि के सामने तो बोलने की हिम्मत ही नहीं थी!
दूसरे भाई भी चुप!
"सच में ही कमाल हो गया!" बोला नीरज!
"हाँ!" एक और भाई बोला,
"देखने वाले हैरान!" बोला नीरज!
"हाँ! गाड़ी जैसे खिलौने जैसे उठा दी गयी थी!" बोला दूसरा!
"चलो, बच गए!" बोला कुणाल!
"हाँ!" धीरज बोला,
अब तक पिताजी भी आ गये थे!
उन्होंने सबकुछ सुना, तो वो भी सन्न!
लेकिन शुक्र था!
कि एक खरोंच भी न आई थी!
न उन्हें!
और न ही गाड़ी को!
हाँ, वहाँ उस दुर्घटना में,
आठ लोग ज़ख्मी हुए थे!
चार गाड़ियां ठुक गयी थीं,
पेड़ के गुद्दे काट काट कर निकाला गया था लोगों को!
खैर!
आज तो रक्षा हुई!
आज प्रसाद बांटना बनता था!
तो वे भाई, सारे, चले अब मंदिर,
आज प्रसाद बांटना था!
चाय आई,
तो चाय पी सभी ने,
माता जी को समझाया गया!
तब जाकर, आंसू थमे!
सुरभि का फ़ोन बजा,
कामना का था,
उठी, और चली अपने कमरे में,
हुई खड़ी, खिड़की के पास! की बातें उस से!

कामना से बातें हुईं उसकी, कुछ शिक्षण से ही संबंधित कार्य था, उसके बाद फ़ोन काटा उसने, और मम्मी के पास चली, खाना बन चुका था, तो सभी ने खाना खाया तब! कुणाल से बातें होती रहीं, कुणाल ने फिर से आज वाली दुर्घटना से बचने वाली बात शुरू कर दी थी! उसी विषय पर बातें होती रही, फिर करीब ग्यारह बजे, पढ़ने के लिए चली गयी सुरभि, किताब निकाली और एक पृष्ठ खोला, जैसे ही खुला वो पृष्ठ, हरसिंगार का एक फूल रखा मिला उसे! उसने उठाया उसे, सूंघा, कमाल था, अभी तक महक बाकी थी उसमे! एक भीनी भीनी सुगंध! रख दिया एक तरफ वो फूल उसने, और लग गयी पढ़ाई में, पढ़ती जाती और लिखती जाती! इस तरह उसको डेढ़ बज गया था! उसकी नज़र खिड़की से बाहर पड़ी, चाँद आ गए थे, अंदर ही झाँक रहे थे! वो उठी, खिड़की खोली, और निहारने लगी चाँद को! आज तो जैसे तेज चमक रहे थे चाँद! आज पूरे जलाल पर जा पहुंचे थे! उसने खिड़की खुली छोड़ दी! और जा लेटी अपने बिस्तर पर, चाँद को देखे जाए और निहारे जाए! और ऐसे ही निहारते हुए उसकी आँख लग गयी! सो गयी वो! अब जब सोयी, तो फिर से सपना आया, सपना वहीँ से आया, उस इमारत से, उस बाग़ से!
वो उन पत्थरों के पास अकेली बैठी थी!
शीतल, मनमोहक बयार उसके बदन को सहला रही थी!
फूलों की ख़ुश्बू जैसे उसके चारों ओर सिमट गयी थी!
उसको घेर लिया था जैसे उस ख़ुश्बू ने!
वो फलदार वृक्ष झूम रहे थे हवा में!
धूल तो नाम को भी न थी वहां!
ऐसी साफ़-सफाई थी उधर!
और तभी ह'ईज़ा दौड़ी दौड़ी आई उसके पास!
और उसके पीछे पीछे वो अशुफ़ा!
दोनों ही बड़ी खुश थीं!
खड़ी हो गयी सुरभि! मुस्कुराने लगी उनको देख कर!
"क्या बात है?" पूछा सुरभि ने!
"फ़ैज़ान आ गए हैं!" बोली अशुफ़ा!
दिल की रेत पर, एक सर्द सी लहर आ रुकी!
रेत ने जज़्ब किया उस लहर को!
"आओ!" बोली अशुफ़ा!
क़दम न उठ सके!
पांव जैसे चिपक गए ज़मीन से!
दिल की गहराईओं में, जैसे अनुकरण होने लगा था कुछ अलग ही भावों का!
''आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
अब चली वो, नज़रें नीची किये!
वो दोनों, उसको सहारा दिए, आगे बढ़ती रहीं!
ले आयीं उसी इमारत तक!
फूल बिछे थे! वही बड़े बड़े गुलाब!
वो चल पड़ी उस तरफ,
आई चौखट तक!
तो पुश्त किये, कोई खड़ा था!
नीले रंग के कुर्ते में,
नीले रंग की चुस्त पाजामी में,
दोनों हाथ बांधे,
जूतियां पहने हुआ था, सुनहरी!
और बाल भी भूरे, सुनहरी ही थे उसके!
नीचे, कंधों तक, घुंघराले से!
लम्बा-चौड़ा था वो, सेहतमंद!
"भाई जान?" बोली अशुफ़ा!
और तब वो मुड़ा!
गोरा-चिट्टा रंग!
हल्की सी सुनहरी दाढ़ी थी उसकी,
और आँखें, नीली!
चेहरे पर मुस्कराहट!
"सुरभि?" बोली अशुफा!
और सुरभि ने सर उठाया,
नज़रें जैसे ही मिलीं, चिपक गयीं फ़ैज़ान से!
चौड़ा चेहरा, भरा शरीर, मर्दाना सुंदरता से भरपूर!
ऐसा पुरुष तो देखा ही नहीं था सुरभि ने कहीं!
पलकें मारना ही भूल गयी!
और फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान, संजीदा हो, सुरभि को देखे!
मुस्कान नहीं थी चेहरे पर अब!
आगे आया फैजान!
कंधे से भी नीचे आये सुरभि उसके!
आँखें उलझ गयी थीं दोनों की!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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"सुरभि! ये नाचीज़ फ़ैज़ान! आपका ख़ैर-मक़्दम करता है!" बोला फ़ैज़ान, मुस्कुराते हुए!
सुरभि, उसकी आवाज़ सुन, जैसे एंड तक, लरज गयी थी!
ऐसी मीठी आवाज़ थी उसकी!
"आइये सुरभि! बैठिये!" बोला वो,
हाथ के इशारे से, बैठने के लिए कहा था उसने!
सुरभि, किसी सम्मोहन में जकड़ी सी, बैठ गयी!
"अशुफ़ा? लाइए इनके लिए कुछ?" बोला फ़ैज़ान!
"जी भाई जान!" बोली अशुफ़ा और चली गयी अंदर!
संग उसके, ह'ईज़ा भी चली गयी!
"सुरभि! बड़ा ही दिलक़श नाम है आपका!" बोला फ़ैज़ान!
औरभी कुछ न बोले!
बस, देखे जाए उसे,
उसकी नीली चमकदार आँखों को!
"आप बोलिए न कुछ?" बोला फ़ैज़ान!
इल्तज़ा सी थी उसके सवाल में!
न बोला गया कुछ भी!
अशुफ़ा, तश्तरी में, तरह तरह की मिठाइयां, फल, पिस्ते-मेवे रखे थे, ले आई!
रख दिया वहीँ,
फ़ैज़ान ने, एक पिस्ता उठाया,
उसको छीला, और बढ़ाया सुरभि की तरफ!
"लीजिये! सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने हाथ बढ़ाया,
और ले लिया हाथ में,
"ये रखने के लिए नहीं है, खाने के लिए है, खाइये! सुरभि!" बोला वो,
सुरभि के होंठों पर,
पहली मर्तबा मुस्कान आई, भले ही, छोटी सी!
सुरभि ने, उस पिस्ते को दो बार में खाया,
इतने में ही, एक और छील दिया था,
पकड़ा दिया सुरभि को,
वो इस्ते, हमारी तरह नहीं होते,
बड़े होते हैं बहुत! स्वाद में, बेहद लज़ीज़!
"ये लीजिये आप!" बोला वो, एक बर्फी उठाकर,
सुरभि तोड़ने लगी टुकड़ा उसका,
"नहीं नहीं! पूरा लीजिये, एक टुकड़ा नहीं! सुरभि!" बोला वो,
लेना पड़ा!
ले लिया, और खाने लगी!
खुद भी खाने लगा वो बर्फी!
"ह'ईज़ा?" बोला वो,
"जी?" बोली वो,
"आब्शी-शरबत लाइए?" बोला वो,
"अभी लायी!" बोली वो,
और चल दी अंदर!
ले आई तश्तरी एक,
उसमे दो गिलास!
शरबत का रंग, चटख गुलाबी था!
गाढ़ा गाढ़ा!
ऊपर उसमे, झाग से बने थे, गुलाबी झाग!
यही होता है, अब्शी-शरबत!
इसको पीने से, ताज़गी, चुस्ती-फुर्ती और थकान मिट जाती है!
कम से कम, मैं जानता हूँ इस शरबत के बारे में!
या वो आलिम लोग,
जो अक्सर मेहमान बना करते हैं इन जिन्नात के!
"लीजिये सुरभि!" बोला वो,
अपने हाथों से पकड़ाया शरबत!
सुरभि ने ले लिया,
इतने में ही,
एक मेवा और पकड़ा दिया उसको!
"खाइये! सुरभि!" बोला वो,
ले लिया सुरभि ने,
"सुरभि! आपने बहुत बड़ा एहसान किया हम पर!" बोला वो,
न बोली कुछ!
पूछना चाहती तो तो थी, पूछ न सकी कि कैसे!
"हम बता देते हैं आपको, सुरभि!" बोला वो,
भांप गया था उसके दिल की बात!
"सुरभि! आपकी शख़्सियत और सुंदरता, हमने कहीं नहीं देखी!" बोला वो,
सुरभि सिमट गयी!
दोनों घुटने मिल गए आपस में!
"आप हमारे मेहमान बने! ये बहुत बड़ा एहसान है हम पर!" बोला वो!
सुरभि अभी तक, गिलास पकड़े बैठी थी,
वहाँ, फ़ैज़ान ने, चार-पांच पिस्ते छील कर रख दिए थे!
"आप पीजिये न?" बोला वो,
सुरभि ने गिलास जकड़ लिया!
"आप शरबत नहीं पीते? कुछ और मंगवाएं? बताइये, क्या? सुरभि?" बोला वो,
"नहीं! मैं ये पी लूंगी!" बोली सुरभि!
अपनी गरदन पीछे लगा ली उसने!
पहली बार मुख़ातिब हुई थी वो उस से!
इस पर-सुक़ून में,
फ़ैज़ान खुल चला था अंदर तक!
आँखें बंद हो गयी थीं उसकी!
वो संभला!
और फिर आगे हुआ!
उठाये पिस्ते!
बढ़ाया हाथ आगे!
"लीजिये?" बोला वो,
"बस!" बोली सुरभि,
"खाना तो पड़ेगा!" बोला वो, मुस्कुरा कर,
और शरबत पी लिया उसने,
पिस्ता भी ले लिए एक, खा लिया उसको सुरभि ने!
"ह'ईज़ा? आबगीना लाएं आप?" बोला वो,
"जी" बोली वो, और चली!
ले आई आबगीना!
खुद पकड़ा उसने,
"लीजिये! धो लीजिये हाथ!" बोला वो,
सुरभि ने, हाथ धो लिए!
आबगीना रखा उसने एक तरफ,
और अपने कुर्ते से, उसके हाथ पोंछ दिए!
छुए नहीं! कपड़ा बीच में था!
अपने कुर्ते से ही हाथ पोंछ दिए थे फ़ैज़ान ने सुरभि के!
बहुत खुश लगा रहा था वो उस समय!
ऐसे करीने से हाथ पोंछे थे, कि एक क़तरा भी पानी न रहा!
हाथ पोंछते वक़्त, बस हाथों को ही देखे जा रहा था! मुस्कुराते हुए!
हाथ पोंछ दिए थे उसने! अपना कुरता भी ठीक कर लिया था!
"अशुफ़ा?" बोला वो,
"जी?" बोली वो,
"जाएँ, ले जाएँ, आराम करवाएं सुरभि को अब!" बोला वो,
"जी!" बोली अशुफ़ा!
और अब उठाया उन्होंने सुरभि को,
और ले चली अंदर!
फैजान, अपना सर, उस बड़ी सी कुर्सी की पुश्त से, लगा, बैठ गया!
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
फिर सर आगे किया,
अपने गीले कुर्ते को देखा,
उसका किनारा उठाया,
गीला था वो अभी,
किया अपने मुंह के पास, और चूम लिया उसने!
वो सच में, बेइंतहा मुहब्बत करता था सुरभि से!
लेकिन उसने अभी ज़ाहिर न किया था!
वो ज़ाहिर करता भी नहीं!
वो सच्ची मुहब्बत में मुब्तिला था सुरभि के संग!
हवस रखता, तो अब तक तो तार-तार हो चुकी होती सुरभि!
वो तो सामने भी नहीं आ रहा था!
उसको अपने दिलबर के मुंह से कहने का इंतज़ार था!
इक़रार का इंतज़ार!
उसका पूरा ख़याल रखा करता था,
पल पल! एक एक पल! चाहे दिन हो, चाहे रात!
गुसलखाने में, फूल छोड़ आता था, और खुद हट जाता था!
वो सुरभि के बदन से नहीं, उसकी रूह से प्यार कर बैठा था!
उसने कहा भी तो था!
कि उसको सुरभि की शख़्सियत बेहद पसंद आई थी!
उधर सुरभि,
अपने ही मन में उठे, एक तूफ़ान की आवाज़ सुन रही थी!
तूफ़ान, आगे बढ़े जा रहा था!
कुछ ही दूरी बची होगी बस!
तूफ़ान आता, और उड़ा ले जाता उसे!
नहला देता अपनी बारिश से, कर देता सराबोर!
फिर क़दम न टिक पाते उसके!
उसको उड़ना ही पड़ता!
जिस वक़्त, वो सुरभि के हाथ पोंछ रहा था,
उसके हाथों की पकड़ से, अंदर तक, चिंहुक गयी थी सुरभि!
अपने एक हाथ से ही, दोनों हाथ पकड़े थे उसने सुरभि के,
और एक हाथ से ही, करीने से पोंछ रहा था!
जब वो पोंछता, कपड़ा रगड़ता, तो,
अंदर ही अंदर, एक सैलाब सा हिलोरें मारने लगता था!
आँखें तो बंद थी सुरभि की, उस पलंग पर,
लेकिन मन की आँखें, ढूंढ रही थीं किसी को!
कोई भी आहट होती, तो देखने लगती थी उधर ही!
वे दोनों, वहीँ बैठी थीं, उसी के संग!
हाथ थाम लेती थीं सुरभि का कभी कभी!
सुरभि इस क़द्र अपने तूफ़ान में टकराने के इंतज़ार कर रही थी,
कि उसको पता भी न चला कि, उसक होंठ सूख गए हैं!
साँसें गरम हो चली हैं!
दिल, बेतहाशा दौड़े जा रहा है!
सर से पाँव तक, एक अजीब सा ख़ुमार चढ़ चला था!
उसने करवट बदली,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Post by Jemsbond »

जैसे ही करवट बदली,
नींद खुली!
आसपास देखा,
ये तो उसी का घर था!
उसी का कमरा!
उसी का पलंग!
वो उठ बैठी!
होंठ छुए, तो सूखे थे,
ज़ुबान भी सूखी, और हलक़ भी सूखा!
वो खड़ी हुई, और जैसे ही खड़ी हुई, खिड़की से हवा अंदर आई!
हाथों से टकराई!
हाथ लगे ठंडे!
याद आया उसे!
अपने हाथ देखे!
एकदम साफ थे!
अभी जैसे, नाखूनों और उनके मांस के बीच में, नमी बची थी!
घड़ी देखी उसने!
पांच बजे थे!
पानी पिया, याद आया वो पानी, इस पानी में वो स्वाद नहीं था!
वो, जा बैठी कुर्सी पर,
आँखें बंद कर लीं अपनी!
न जाने क्यों, उचाट सा था मन!
कुर्सी पर, कमर लगा, पहुँच गयी ख्यालों में,
उसी जगह!
याद आया एक चेहरा!
वो नीली आँखें,
वो हाथों की पकड़!
वो इल्तज़ा भरी गुज़ारिश!
अपने आप ही, होंठों पर, मुस्कान तैर गयी!
अब दिमाग का घोड़ा दौड़ा!
बेलग़ाम! दौड़ता चला गया!
कहाँ जा रहा था, पता नहीं!
बैठे बैठे घंटा बीत गया!
अलार्म बजा,
खुली आँखें! छह बज चुके थे!
उठी, अपनी किताबें रखन अलमारी में,
और चली गुसलखाने!
बाल्टी में झाँका!
आज कोई फूल नहीं!
वो झुकी, अच्छे से देखा,
न! कोई फूल नहीं आज!
आसपास देखा, वहां भी कोई फूल नहीं!
कोई बात नहीं!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने अपने, हुई तैयार,
और चली बाहर, मम्मी-पापा के पास, कुणाल भी बैठा था वहीँ,
चाय-नाश्ता लग गया था, चाय-नाश्ता किया,
और फिर खाना भी रख लिया,
और चल दी बाहर, आई बाहर, ली सवारी,
और चल पड़ी कक्षा में लिए!
जा बैठी अपनी सहेलियों में!
"कमाल है?" बोली कामना,
"क्या हुआ?" पूछा सुरभि ने,
"आज नहीं नहायी परफ्यूम में?" पूछा कामना ने,
"तुझे और कोई काम नहीं है?" बोली सुरभि!
"आज कमरा नहीं महका न! इसीलिए!" बोली वो,
सच में, आज नहीं महका था कमरा!
दोपहर में, वे चलीं कैंटीन!
किया भोजन, बातें करते करते!
तभी बाहर झाँका सुरभि ने,
बाहर, फूल गिर रहे थे हरसिंगार के,
लेकिंन आज, कोई फूल न आया था अंदर!
खिड़की की चौखट पर ही एक आद गिर जाता!
फिर से कक्षा और कोई साढ़े तीन बजे, चली वापिस,
पकड़ी सवारी, और पहुंची घर,
आज गर्मी काफी थी, उसने फ्रिज में से, शीतल-पेय निकाला,
और तभी उसको वो आब्शी-शरबत याद आ गया!
होंठों पर मुस्कान तैर गयी तभी के तभी!
आ गयी अपने कमरे में,
रखा गिलास मेज़ पर,
खिड़की खोल ली,
बैठी कुर्सी पर,
और उठाया गिलास,
धीरे धीरे, पीने लगी वो पेय!
फिर से, ख्याल आये उसे!
वो नीली आँखों वाला फ़ैज़ान!
अब उसने,
उसको पूरा निहारा,
वहीँ बैठे बैठे,
हलकी सुनहरी दाढ़ी!
चौड़ा, गोरा चेहरा!
सुनहरे बाल!
और जब हाथ पोंछे थे उसने,
तो उसके हाथों के और उँगलियों के वो सुनहरे बाल!
उसका चौड़ा माथा!
उसके चौड़े कंधे!
वो नीला, चमकदार कुरता!
और नीली ही, वो चुस्त पाजामी!
उसका वो शाही अंदाज़ बैठने का!
घुटने के ऊपर, घुटना रखा था उसने!
वो सुनहरी, जूतियां!
जिसमे, नीला, पीला और काला रंग था!
और वो मीठी सी आवाज़!
और इल्तज़ा भरी गुज़ारिशें!
वो पिस्ते छीलना और उसको देना!
वो बर्फी देना, और कहना कि खाने के लिए है!
सब याद आ गया! और होंठों पर, एक चौड़ी सी मुस्कान भी!
उसने कपड़े बदले फिर, और जा लेटी बिस्तर में,
सर स्थिर रखा, छत को देखा उसने, देखती रही,
उलटे हाथ से, अपने बालों की एक लट को, अलबेटे देती रही!
किसी का ख्याल दिमाग पर छाने लगा था!
किसी की आवाज़ अभी तक कानों में गूँज रही थी!
अपने हाथ देखे, किसी की पकड़, अभी तक याद थी!
हाथों को गौर से देखा उसने, एक हाथ से दूसरे को छुआ!
आँखें बंद कर लीं उसने,
लेटी रही आँखें बंद किये,
आज नहीं आई नींद!
कभी इस करवट, तो कभी उस करवट!
कभी पीठ के बल तो कभी पेट के बल!
नहीं आई नींद!
उठ गयी,
पानी पिया,
और बैठ गयी!
फिर से किसी के ख़याल आये,
फिर से एक बार, होंठों पर मुस्कान आई!
लेट गयी फिर से,
आँखें कीं बंद!
नहीं आई नींद!
अब तो खीझ उठी मन में!
पेट के बल लेटी!
सर धँसाया तकिया में,
और घुटनों से, अपनी टांगें ऊपर कर लीं!
अपने दोनों हाथों से,
तकिये को मोड़, अपने कान भी ढक लिए!
लेकिन नहीं आई नींद!
आज तो नींद छका रही थी उसको!
रोज तो आ जाया करती थी?
आज क्यों नहीं?
खीझ उठी!
हुई सीधी!
खोली आँखें, उठा ले एक किताब!
खोला एक पृष्ठ,
और पढ़ने लगी,
लेकिन मन न लगे उसका!
जल्दी जल्दी पृष्ठ पलटे उसके,
फिर किताब खोल, छाती पर रख ली!
अपने सीधे हाथ की, तर्जनी ऊँगली मोड़,
उसके बीच के पोर को,
अपने दांतों में दबा लिया!
बहुत देर, ऐसे ही रही!
ऊँगली निकाली, किताब बंद कर, रख दी एक तरफ,
चादर ली, खोली, घुटनों तक ओढ़ी,
और लेट गयी आँखें बंद कर,
लेकिन आज तो नींद जैसे कहीं और नींद ले रही थी!
डेढ़ घंटा बीत गया था उसे!
मछली की भांति, बिस्तर पर फुदक रही थी सुरभि!
कभी तकिया कहीं रखे,
और कभी कहीं!
कभी सिरहाने,
तो कभी पैंताने!
लेकिन हाय! नींद नहीं आये!
कैसी बैरन हुई आज तो निंदिया!
उठ गयी! खीझते हुए!
चादर को अंट-शंट लपेट, फेंक मारा पैंताने की तरफ!
नींद की खीझ, चादर पर जा निकली!
पहनी चप्पलें,
और पाँव पटकते हुए, चली बाहर,
फ्रिज तक आई, खोला,
पानी निकाला, पिया, बोतल रखी, रखी ज़रा तेज,
तेज रखी, तो ऊपर रखा नीम्बू ढुलक गया नीचे!
गेंद की तरह, ये जा और वो जा!
उसको ढूँढा, कहीं न दिखा!
"भाड़ में जा!" बोली खीझ कर!
अब नींद की खीझ, शिकार नंबर दो, नीम्बू पर निकली!
पाँव पटकते हुए,
चली अपने कमरे में,
दरवाज़ा बंद किया ज़रा तेजी से,
लगाई चिटकनी!
और जैसे ही बिस्तर पर जाने लगी,
दर्पण में अपना अक्स दिखा,
आई दर्पण के पास,
खुद को देखा,
अपने कपड़े ठीक किये,
अपने बाल ठीक किये,
हेयर-बैंड खोला, मुंह में, दांत से पकड़ा,
बाल फटकारे, बांधे, और हेयर-बैंड से, बाँध लिए,
फिर से देखा अपने आप को!
और चली बिस्तर पर,
चादर उठायी,
खोली चादर,
और लेट गयी,
घुटनों तक, चादर कर ली!
आँखें कीं बंद!
नींद न आये!
मुट्ठी भिंच गयीं दोनों ही!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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