ढोंगी बाबा की तांत्रिक कहानियां

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abpunjabi
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ढोंगी बाबा की तांत्रिक कहानियां

Post by abpunjabi »

दोस्तों यह ढोंगी बाबा "rentmefornite" की लिखी हुई हैं | इसे सिर्फ मनोरंजन के उदेश से पड़ें , घटनाये सब झूठी है | धन्यवाद् |
abpunjabi
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Re: ढोंगी बाबा की तांत्रिक कहानियां

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गुना मध्य प्रदेश की एक घटना | वर्ष 2010

संध्या का समय हो चुका था लगभग, सूर्य अपने अस्तांचल में प्रवेश करने की तैयारी करने ही वाले थे, पक्षी आदि अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ रहे थे, कुछ एकांकी और कुछ गुटों में! लोग-बाग़ कुछ पैदल और अपनी अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे आगे खाली खाने के डब्बे बांधे और कुछ भाजी-तरकारी लिए, सवारी गाड़ियों में जिसे यहाँ के निवासी आपे कहते हैं, भरे पड़े थे खचाखच! कुल मिलकर लग रहा था की दिवस का अवसान हो चुका है और और अब रात्रि के आगमन की बेला आरम्भ हो चुकी है! सड़क किनारे खड़े खोमचे अब प्रकाश से जगमगा उठे थे, सड़क किनारे एक सरकारी शराब के ठेके पर खड़े वाहन गवाही दे रहे थे कि मदिरा-समय हो चुका है! उधर ही आसपास कुछ ठेलियां भजी खड़ी थीं जिन पर ठेके से सम्बंधित वस्तुएं ही बेचीं जा रही थीं, गिलास, नमकीन, उबले चने इत्यादि! तभी हामरी गाड़ी चला रहे क़य्यूम भाई ने भी गाड़ी उधर ही पास में उसी ठेके के पास लगा दी, थोड़ी सी आगे-पीछे करने के बाद गाड़ी खड़ी करने की एक सही जगह मिल ही गयी, सो गाड़ी वहीँ लगा दी गयी, गाड़ी का इंजन बंद हुआ और हम दरवाजे खोल कर बाहर आये, ये गाड़ी जीप थी, क़य्यूम भाई ने नई ही खरीदी थी और शायद पहली बार ही वो शहर से इतनी दूर यहाँ आई थी!
हम बाहर उतरे तो अपनी अपनी कमर सीधी की, आसपास काफी रौनक थी, ये संभवतः किसी कस्बे का ही आरम्भ था, मदिरा-प्रेमी वहीँ भटक रहे थे, कुछ आनंद ले चुके थे और अब वापसी पर थे और कुछ अभी अभी आये थे जोशोखरोश के साथ!
"क्या चलेगा?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
मै कुछ नहीं बोला तो क़य्यूम भाई की निगाह शर्मा जी की निगाह से टकराई, तो शर्मा जी ने मुझसे पूछा, "क्या लेंगे गुरु जी?"
"कुछ भी ले लीजिये" मैंने कहा,
"बियर ले आऊं?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"नहीं, बियर नहीं, आप मदिरा ही ले आइये" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई मुड़े और चल दिए ठेके की तरफ!
"अन्दर बैठेंगे या फिर यहीं गाड़ी में?" शर्मा जी ने मुझ से पूछा,
"अन्दर तो भीड़-भाड़ होगी, यहीं गाड़ी में ही बैठ लेंगे" मैंने कहा,
थोड़ी देर बाद ही क़य्यूम भाई आये वहाँ, हाथ में मदिरा की दो बोतल लिए और साथ में ज़रूरी सामान भी, शर्मा जी ने गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोला और क़य्यूम भाई ने सारा सामान वहीँ रख दिया, फिर हमारी तरफ मुड़े,
"आ रहा है लड़का, मैंने मुर्गा कह दिया है, लाता ही होगा, आइये, आप शुरू कीजिये" क़य्यूम भाई ने कहा,
मै और शर्मा जी अन्दर बैठे, एक पन्नी में से कुछ कुटी हुई बरफ़ निकाली और शर्मा जी ने दो गिलास बना लिए, क़य्यूम भाई नहीं पीते थे, ये बात उन्होंने रास्ते में ही बता दी थी, वो बियर के शौक़ीन थे सो अपने लिए बियर ले आये थे, थोड़ी देर में ही दौर-ए-जाम शुरू हो गया, एक मंझोले कद का लड़का मुर्गा ले आया और एक बड़ी सी तश्तरी में डाल वहीँ रख दिया, आखिरी चीज़ भी पूरी हो गयी!
ये स्थान था ग्वालियर से गुना के बीच का एक, हमको ग्वालियर से लिया था क़य्यूम भाई ने, हम उन दिनों ललितपुर से आये थे ग्वालियर, ललितपुर में एक विवाह था, उसी कारण से आना हुआ था, और क़य्यूम भाई गुना के पास के ही रहने वाले थे, उनका अच्छा-ख़ासा कारोबार था, सेना आदि के मांस सप्लाई करने का काम है उनका, तीन भाई हैं, तीनों इसी काम में लगे हुए हैं, क़य्यूम भी पढ़े लिखे और रसूखदार हैं और बेहद सज्जन भी!
"और कुछ चाहिए तो बता दीजिये, अभी बहुत वक़्त है" क़य्यूम भाई ने कहा,
"अरे इतना ही बहुत है!" शर्मा जी ने कहा,
"इतने से क्या होगा, दिन से चले हैं, अब ट्रेन में क्या मिलता है खाने को! खा-पी लीजिये रज के!" क़य्यूम भाई ने कहा,
इतना कह, अपनी बियर का गिलास ख़तम कर फिर से चल दिए वहीँ उसी दूकान की तरफ!
बात तो सही थी, जहां हमको जाना था, वहाँ जाते जाते कम से कम हमको अभी ३ घंटे और लग सकते थे, अब वहाँ जाकर फिर किसी को खाने के लिए परेशान करना वो भी गाँव-देहात में, अच्छा नहीं था, सो निर्णय हो गया कि यहीं से खा के चलेंगे खाना!
गाड़ी के आसपास कुछ कुत्ते आ बैठे थे, कुछ बोटियाँ हमने उनको भी सौंप दीं, देनी पड़ीं, आखिर ये इलाका तो उन्ही का था! उनको उनका कर चुकाना तो बनता ही था! वे पूंछ हिला हिला कर अपना कर वसूल कर रहे थे! जब कोई बेजुबान आपका दिया हुआ खाना खाता है और उसको निगलता है तो बेहद सुकून मिलता है! और फिर ये कुत्ता तो प्रहरी है! मनुष्य समाज के बेहद करीब!
खैर,
क़य्यूम भाई आये और साथ में फिर से पन्नी में बरफ़ ले आये, बरफ़ कुटवा के ही लाये थे, ताकि उसके डेले बन जाएँ और आराम से गिलास में समां सकें! अन्दर आ कर बैठे और जेब से सिगरेट का एक पैकेट निकाल कर दे दिया शर्मा जी को, शर्मा जी ने एक सिगरेट निकाली और सुलगा ली, फिर दो गिलासों में मदिरा परोस तैयार कर दिए! थोड़ी ही देर में वो लड़का आया और फिर से खाने का वो सामान वहीँ रख गया! हम आराम आराम से थकावट मिटाते रहे!
मित्रगण, हम यहाँ एक विशेष कारण से आये थे, क़य्यूम भाई के एक मित्र हैं, हरि, हरि साहब ने गुना में कुछ भूमि खरीदी थी, भूमि कुछ तो खेती-बाड़ी आदि के लिए और कुछ बाग़ आदि लगाने के लिए ली गयी थी, दो वर्ष का समय हो चुका था, भूमि तैयार कर ली गयी थी, परन्तु उस भूमि पर काम कर रहे कुछ मजदूरों ने वहां कुछ संदेहास्पद घटनाएं देखीं थीं जिनका कोई स्पष्टीकरण नहीं हुआ था, स्वयं अब हरि ने भी ऐसा कुछ देखा था, जिसकी वजह से उसका ज़िक्र उन्होंने क़य्यूम भाई से और क़य्यूम भाई ने मेरे जानकार से किया, सुनकर ही ये तो भान हो गया था कि वहाँ उस स्थान पर कुछ तो विचित्र है, कुछ विचित्र, जिसके विषय में जानने की उत्सुकता ने अब सर उठा लिया था, कुछ चिंतन-मनन करने के बाद मैंने यहाँ आने का निर्णय लिया और अब हम उस स्थान से महज़ थोड़ी ही दूरी पर थे!
हमको गुना में नाना खेड़ी जाना था, हरि की रिहाइश वहीँ थी, गुना शहर का भी अपना ही एक अलग इतिहास है, इसका इतिहास काफी समृद्ध और रोमांचक है, पुराने अवंति साम्राज्य का ही एक हिस्सा रहा है गुना, बाद में कई और सत्ताधारी हुए और बाद में जा कर गुना मध्य प्रदेश में शामिल हुआ!
"और कुछ ले आऊं गुरु जी?" क़य्यूम भाई के सवाल ने मेरी तन्द्रा भंग की!
"अरे नहीं! यही बहुत है!" मैंने कहा,
"रुकिए, अभी आया" क़य्यूम भाई उठे और चल दिए फिर से ठेके की तरफ,
यहाँ मैंने एक और बड़ा सा पैग बनाया और खींच गया, फिर शर्मा जी से सुलगती हुई सिगरेट ले ली, कश मारा और सिगरेट वापिस उनको पकड़ा दी, उन्होंने भी एक जम कर कश मारा! धुंए को आज़ाद कर दिया उस सिगरेट से!
"गुरु जी, हरि ने जो भी बताया है वो है तो वैसे हौलनाक ही!" वे बोले,
"हाँ, अब तक तो हौलनाक ही है!" मैंने कहा,
"क्या लगता है आपको वहाँ?" उन्होंने पूछा,
"जाकर देखते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ! कारण अभी स्पष्ट नहीं है, कभी-कभार प्रेत भी ऐसी माया रच दिया करते हैं!" उन्होंने सुझाया!
"हाँ, ये बात सच है शर्मा जी!" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई आये, साथ में वही मंझोले कद का लड़का भी था, उसके हाथ में इस बार कुछ नया ही व्यंजन था, उसने वो हमको थमाया, हमने थामा और वहीँ उस तश्तरी में रख लिया! लड़का चला गया वहाँ से! क़य्यूम भी पानी और बरफ ले आये थे और!
"ज्यादा हो जाएगा ये सब क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"कैसे ज्यादा! आप लीजिये बस!" उन्होंने हंस के कहा!
हमने एक एक टुकड़ा उठाया और फिर शर्मा जी ने मदिरा परोसना आरम्भ किया!
अब क़य्यूम भाई आ बैठे अपनी सीट पर!
"क़य्यूम भाई?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी, पूछिए?" उन्होंने ध्यान देते हुए कहा,
"आपने हरि जी के बार में कुछ बातें बतायीं" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई अपनी बियर खोलने के लिए अपना अंगूठा चलाया और सफलता मिल गयी! झक्क की आवाज़ करते हुए बियर खुल गयी!
"हाँ, गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हरि साहब ने ये ज़मीन २ साल पहले ली थी?" मैंने पूछा,
''हाँ गुरु जी" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
"मैंने ही दिलवाई थी, दरअसल मेरे एक जानकार थे उन्ही से" उन्होंने बताया,
"अच्छा, तो उन्होंने क्यों बेचीं?" मैंने पूछा,
"ये तो पता नहीं, उन्होंने जिक्र किया था की वे अपनी ज़मीन बेचना चाहते हैं" वे बोले,
अब तक शर्मा जी ने एक गिलास और बना दिया था, सो मैंने आधा ख़तम किया और बात फिर से ज़ारी रखी,
"मेरा पूछने का आशय था कि क्या ऐसी घटनाएं उनके साथ भी हुई थीं?" मैंने पूछा,
"उन्होंने तो कभी नहीं बताया ऐसा कुछ?'' वे बोले,
"हम्म!" मैंने कहा और बाहर देखा, बाहर दम हिलाते हुए कुत्ते खड़े थे, अबकी बार दो और बढ़ गए थे, मैंने एक एक बोटी उनकी तरफ उछाल दी, बड़ी सहजता से अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सभी का मुंह चलने लगा!
एक बोतल ख़तम हो गयी थी, बड़े सम्मान के साथ मैंने वो बोतल पास में ही लगे एक पेड़ के नीचे फेंक दी!
दूसरी बोतल खोल ली गयी!

"क्या नाम है आपके जानकार का?" मैंने पूछा,
"जी अनिल" वे बोले,
"अच्छा, तो अनिल ने ही ये ज़मीन हरि को बेचीं!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"तो क्या अनिल जी से मिला जा सकता है अगर ज़रुरत पड़ी तो?" मैंने पूछा,
"हाँ हाँ! क्यों नहीं!" वे बोले,
अब तक एक गिलास और बना दिया शर्मा जी ने, एक ही बनाया था, शर्मा जी ने अब ना कर दी थी, उनका कोटा पूरा हो गया था! मै अभी डटा हुआ था! मुठभेड़ ज़ारी थी मेरी अभी मदिरा से! वो मुझे पस्त करना चाहती थी और मै उसको!
मैंने एक टुकड़ा उठाया, फाड़ा और चबाने लगा! साढ़े ८ का समय हो चला था तब तक! शर्मा जी उठे और गाड़ी से बाहर निकले, कमर सीधी की और एक सिगरेट और पजार ली! वो लघु-शंका से निवृत होने चले गए!
"क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"बस अब निकलते हैं यहाँ से" मैंने कहा,
"हाँ, निबट लीजिये, और कुछ चाहिए हो तो बताइये" वे बोले,
"नहीं, और नहीं, बस!" मैंने कहा,
फिर मैंने दो पैग और लिए, निबट गया मै और शर्मा जी भी आ बैठे और हम अब चल पड़े अपनी मंजिल की ओर! गाड़ी दौड़ पड़ी सरपट!
जिस समय हम वहाँ पहुंचे, रात के पौने दस का समय था, हरि साहब के भी फ़ोन आ गए थे, उनसे बात भी हो गयी थी, तो हम सीधे हरि साहब के पास ही गए, उनके घर पर ही, हरि साहब ने शालीनता से स्वागत किया हमारा, खूब बातचीत हुई और फिर रात्रि में निंद्रा हेतु हमने उनसे विदा ली, एक बड़े से कमरे में इंतजाम किया गया था हमारे सोने का! ये घर कोई पुरानी हवेली सा लगता था! खाना खा ही चुके थे, नशा सर पर हावी था ही, थकावट सो अलग, सो बिस्तर में गिरते ही निंद्रा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया!
जैसे लेटे थे उसी मुद्रा में सो गए!
सुबह जब आँख खुली तो सुबह के आठ बज चुके थे! हाँ, नींद खुल कर आई थी सो थकावट जा चुकी थी! दो चार ज़बरदस्त अंगडाइयां लेकर बदन के हिस्से आपस में जोड़े और खड़े हो गए!
फिर नित्य-कर्मों से फारिग होने के पश्चात नहाने के लिए मै सबसे पहले गया, स्नान किया, ताजगी आ गयी! फिर शर्मा जी गए और कुछ देर में वो भी वापिस आ गए नहा कर!
"यहाँ मौसम बढ़िया है" वे बोले,
"हाँ, इन दिनों में अक्सर ऐसा ही होता है यहाँ मौसम, दिन चढ़े गर्मी होती है और दिन ढले ठण्ड!" मैंने कहा,
"हाँ, रात को भी मौसम बढ़िया था, सफ़र आराम से कट गया इसीलिए!" वे बोले,
तभी कमरे में हरि साहब ने प्रवेश किया, उनके साथ एक छोटी सी लड़की भी थी, ये उनकी पोती थी शायद, नमस्कार हुई और हम तीनों ही वहाँ बैठ गए, लड़की भी नमस्ते करके बाहर के लिए दौड़ पड़ी! हँसते हुए!
"पोती है मेरी!" वे बोले,
"अच्छा!" शर्मा जी ने कहा,
तभी चाय आ गयी, ये उनका नौकर था शायद जो चाय लाया था, उसने ट्रे हमारी तरफ बढ़ाई, उसमे कुछ मीठा, नमकीन आदि रखा था, मैंने थोडा नमकीन उठाया और हमने अपने अपने कप उठा लिए और चाय पीनी शुरू की, नौकर चला गया तभी !
"और कोई परेशानी तो नहीं हुई आपको?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं नहीं! क़य्यूम भाई के साथ आराम से आये हम यहाँ!" मैंने कहा,
"कुछ बताया क़य्यूम भाई ने आपको?" उन्होंने चुस्की लेते हुए पूछा,
"हाँ बताया था" मैंने कहा,
"गुरु जी, बात उस से भी आगे है, मैंने क़य्यूम भाई को पूरी बात नहीं बतायी, मैंने सोचा की जब आप यहाँ आयेंगे तो आपको स्वयं ही बताऊंगा" वे बोले,
"बताइये?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
"गुरु जी, जिस दिन से मैंने वो ज़मीन खरीदी है, उसी दिन से आप लगा लीजिये कि दिन खराब हो चले हैं" वे अपना कप ट्रे में रखते हुए बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"जी मेरे तीन लड़के हैं और एक लड़की, दो लड़के ब्याह दिए हैं और लड़की भी, अब केवल सबसे छोटा लड़का ही रहता है, नाम है उसका नकुल, पढाई ख़त्म कर चुका है और अब वकालत की प्रैक्टिस कर रहा है ग्वालियर में, दोनों बेटे भी अपने अपने काम में मशगूल हैं, एक मुंबई रहता है अपने परिवार के साथ, दूसरा आगरे में है अपने परिवार के साथ, उसकी भी नौकरी है वहाँ, अध्यापक है, आजकल यहीं आया हुआ है अपने परिवार के साथ, लड़की जो मैंने ब्याही है वो अहमदाबाद में है, २ वर्ष हुए हैं ब्याह हुए" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
उन्होंने अपना चश्मा उतारा और रुमाल से साफ़ करते हुए बोले, " लड़की ससुराल में खुश नहीं है, बड़े लड़के का बड़ा लड़का, मेरा पोता बीमार हो कर ३ वर्ष का गुजर गया, अब कोई संतान नहीं है उसके, जो लड़का यहाँ आया हुआ है.." वे बोले,
मैंने तभी बात काटी और पूछा, "नाम क्या है जो आया हुआ है?"
"दिलीप" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मै कह रहा था कि जो लड़का यहाँ आया हुआ है, उसके २ लडकियां ही हैं, लड़का कोई नहीं, उसकी पत्नी के गर्भ में कोई बीमारी बताई है डॉक्टर्स ने और अब संतान के लिए एक तरह से मना ही कर दिया है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"एक बात और, मेरा अपना व्यवसाय है यहाँ, व्यवसाय लोहे का है, वो भी एक तरह से बंद ही पड़ा है दो साल से, कोई उछाल नहीं है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"अब वही बात मै कह रहा था, कि जब से मैंने यहाँ वो ज़मीन ली है तबसे सबकुछ जैसे गड्ढे में चला गया है" वे बोले,
"अच्छा, और उस से पहले?" मैंने पूछा,
"सब ठीक ठाक था! कभी मायूसी नहीं थी घर-परिवार में!" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"हाँ जी, इस ज़मीन में ऐसा कुछ न कुछ ज़रूर है जिसकी वजह से ऐसा हुआ है हमारे साथ" वे बोले,
"क़य्यूम भाई ने बताया था कि वहाँ कुछ गड़बड़ तो है, अनेक मजदूरों ने भी देखा है वहाँ ऐसा कुछ, मुझे बताएं कि क्या देखा है ऐसा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, देखा है, वहाँ ४ मजदूर अपने परिवारों के साथ रहते हैं, उन्होंने वहाँ देखा है और महसूस भी किया है" वे बोले,
"क्या देखा है उन्होंने?'' मैंने पूछा और मेरी भी उत्सुकता बढ़ी अब!
"वहां एक मजदूर है, शंकर, उसने बताया था मुझे एक बार कि उसने और उसकी पत्नी ने खेत में दो औरतों को देखा है घूमते हुए, हालांकि उन औरतों ने कभी कुछ कहा नहीं उनको" वे बोले,
"दो औरतें?'' मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"जहां पानी लगाया जाता है, उसके दो घंटे के बाद वो जगह सूख जाती है अपने आप! जैसे वहाँ कभी पानी लगाया ही नहीं गया हो!" वे बोले,
बड़ी अजीब सी बात बताई थी उन्होंने!
"ये एक ख़ास स्थान पर है या हर जगह?" मैंने पूछा,
"खेतों में ऐसे कई स्थान हैं गुरु जी, जहां ऐसा हो रहा है" वे बोले,
सचमुच में बात हैरत की थी!
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, शुरू शुरू में हमने एक पनिया-ओझा बुलवाया था, उसने पानी का पता तो बता दिया लेकिन ये भी कहा कि यहाँ बहुत कुछ गड़बड़ है और ये ज़मीन फलेगी नहीं हमको, उसका कहना सच हुआ, ऐसा ही हुआ है अभी तक, वहाँ से घाटे के आलावा कुछ नहीं मिला आज तक!" वे बोले,
"तो आपने किसी को बुलवाया नहीं?" मैंने पूछा, मेरे पूछने का मंतव्य वे समझ गए,
"बुलाया था, तीन लोग बुलाये थे, दो ने कहा कि उनके बस की बात नहीं है, हाँ एक ने यहाँ पर पोरे ग्यारह दिन पूजा की थी, लेकिन उसके बाद भी जस का तस! कोई फर्क नहीं पड़ा!" वे बोले,
स्थिति बड़ी ही गंभीर थी!
"आपने अनिल जी से इस बाबत पूछा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ, उन्होंने कहा कि ऐसा तो उनके यहाँ न जाने कब से हो रहा है, किसी को चोट नहीं पहुंची तो कभी ध्यान नहीं दिया" वे बोले,
"मतलब उन्होंने अपने घाटे से बचने के लिए और आपने कच्चे लालच में आ कर ये ज़मीन खरीद ली!" मैंने कहा,
"हाँ जी, इसमें कोई शक नहीं, कच्चा लालच ही था मुझमे!" वे हलके से हँसते हुए ये वाक्य कह गए!
"कोई बात नहीं, मई भी एक बार देख लूँ कि आखिर क्या चल रहा है वहाँ?" मैंने कहा,
"इसीलिए मैंने आपको यहाँ बुलवाया है गुरु जी, ललितपुर वाले हरेन्द्र जी से भी मैंने इसी पर बात की थी" वे बोले,
"अच्छा, हाँ, मुझे बताया था उन्होंने" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई अन्दर आये, नमस्कार आदि हुई और वो बैठ गए!
"कुछ पता चला गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"अभी तो मैंने वहाँ की कुछ बातें सुनी हैं, आज चलेंगे वहाँ और मै स्वयं देखूंगा कि वहाँ आखिर में चल क्या रहा है?" मैंने कहा,
"ये सही रहेगा गुरु जी!" क़य्यूम भाई ने कहा,
"वैसे क्या हो सकता है? कोई कह रहा था कि यहाँ कोई शाप वगैरह है!" वे बोले,
"शाप! देखते हैं!" मैंने कहा,
"आप खाना आदि खा लीजिये, फिर चलते हैं वहाँ" हरि साहब ने कहा,
"हाँ, ठीक है" मैंने कहा,
"और क़य्यूम भाई आपका घर कहाँ है यहाँ?" शर्मा जी ने पूछा,
"इनके साथ वाला ही है शर्मा जी! आइये गरीबखाने पर!" वे बोले,
"ज़रूर, आज शाम को आते हैं आपके पास!" वे बोले,
"ज़रूर!" क़य्यूम भाई ने मुस्कुरा के कहा!
तभी हरि साहब उठे और बाहर चले गए!
"मौसम बढ़िया है यहाँ क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"खुला इलाका है, पथरीला भी है सुबह शाम ठंडक बनी रहती है, हाँ दिन में पारा चढ़ने लगता है!" वे बोले,
"और सुनाइये क़य्यूम भाई, घर में और कौन कौन है?" शर्मा जी ने पूछा,
"दो लड़के हैं जी, और माता-पिता जी" वे बोले,
"अच्छा! और दूसरे भाई?" उन्होंने पूछा,
"जी एक ग्वालियर में है और एक टेकनपुर में" वे बोले,
'अच्छा!" वे बोले,
"और काम-धाम बढ़िया है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ जी, ठीक है, निकल जाती है दाल-रोटी!" हंस के बोले क़य्यूम भाई!
थोड़ी देर शान्ति छाई, इतने में ही हरि साहब अन्दर आ गए, बैठ गए!
"नाश्ता तैयार है, लगवा दूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, लगवा लीजिये" मैंने कहा,
वे उठ कर बाहर गए और थोड़ी देर बाद उनका नौकर नाश्ता लेकर आ गया, हम नाश्ता करने लगे!
"नाश्ते के बाद चलते हैं खेतों पर" मैंने कहा,
"जी, चलते हैं" हरि साहब बोले,
"मै आता हूँ फिर, गाड़ी ले आऊं" क़य्यूम भाई ने कहा,
"ठीक है, आ जाओ" हरि साहब बोले,
हम नाश्ता करते रहे, लज़ीज़ था नाश्ते का स्वाद! नाश्ता ख़तम किया और इतने में ही क़य्यूम भाई भी आ गए गाड़ी लेकर, तब हम चारों वहाँ से निकल पड़े खेतों की तरफ!
हम चारों खेत पहुंचे! बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वहाँ का! जंगली पीले रंग के फूलों ने ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया था, उनमे से कहीं कहीं नीले रंग के फूल भी झाँक रहे थे, जैसे प्रकृति ने मीनाकारी का काम किया हो! कुछ सफ़ेद फूल भी निकले थे वहाँ, वो अलग ही खूबसूरती ज़ाहिर कर रहे थे! पेड-पौधों ने माहौल को और खुशगवार बना दिया था! अमरुद, बेर और आंवले के पेड़ों के समरूप रूप ने जैसे प्रकृति का सलोनापन ओढ़ लिया था! बेलों ने क्या खूब यौवन धारण किया था, काबिल-ए-तारीफ़! उनके चटख हरे रंग ने मन मोह लिया था, पीले रंग के फूल जैसे स्वर्ग का सा रूप देने में लगे थे! सच में प्राकृतिक सौंदर्य वहाँ उमड़ के पड़ा था! शुष्क नाम की कोई जगह वहाँ नहीं दिखाई दे रही थी! हर तरफ हरियाली और हरियाली!
"आइये, इस तरफ" हरि साहब ने कहा और जैसे मै किसी सम्मोहन से जागा!
जी, चलिए" मैंने कहा,
ये एक संकरा सा रास्ता था! दोनों तरफ नागफनी ने विकराल रूप धारण कर रखा था, लेकिन उसके खिलते हुए लाल और पीले फूलों ने उसकी कर्कशता को भी हर लिया था! बहुत सुन्दर फूल थे, बड़े बड़े! अमरबेल आदि ने पेड़ों पर अपनी सत्ता कायम कर रखी थी! मकड़ियों ने भी अपने स्वर्ग को क्या खूब सजाया था अपने जालों से! ऊंचाई पर लगे बड़े बड़े जाले!
"यहाँ से आइये" हरि साहब ने कहा, और हम उनके पीछे पीछे हो लिए, हम अब एक बाग़ जैसी ज़मीन में प्रवेश कर गए, खेतों में लगे बैंगन और गोभी आदि बड़े लुभावने लग रहे थे!
तभी सामने तीन पक्के कमरे बने दिखाई दिए, उसके पीछे भी शायद कमरे बने थे, वहाँ मजदूरों की भैंस और बकरियां बंधी थीं, चारपाई भी पड़ी थीं, उनके बालक वहीँ खेल रहे थे, हमे देख ठिठक गए!
कय्यूम भाई ने एक चारपाई बिछायी और एक पेड़ के नीचे बिछा दी, हम बैठ गए उस पर, अपने लिए उन्होंने एक और चारपाई बिछा ली, वे भी बैठ गए, तभी हरि साहब ने आवाज़ दी और अपने मजदूर शंकर को बुलाया, पहले उसकी पत्नी बाहर आई और फिर वो समझ कर चली गयी शंकर को बुलाने, शंकर कहीं खेत में काम कर रहा था उस समय !
"ये है जी ज़मीन" हरि साहब बोले,
"देख ली है, अभी जांच करूँगा यहाँ की" मैंने कहा,
कय्यूम भाई उठे और अन्दर से घड़े में से पानी ले आये, मैंने पानी के दो गिलास पिए और शर्मा जी ने एक, पानी भी बढ़िया और ठंडा था! उसी पनिया-ओझा के बताये हुए स्थान पर खोदे हुए कुँए का ही था!
तभी शंकर आ पहुंचा वहाँ, उसने नमस्ते की और अपने अंगोछे से अपना मुंह पोंछते हुए अपने हाथ धोये और फिर वहीँ एक खटोला बिछा कर बैठ गया!
हरि साहब ने दो चार बातें कीं उस से और फिर सीधे ही बिना वक़्त गँवाए काम की बात पर आ गए! अब शंकर मेरे सवालों का उत्तर देने को तैयार था!
"शंकर, जैसा मुझे हरि साहब ने बताया है वैसा कुछ देखा है आपने?" मैंने पूछा,
'हाँ जी, देखा है, मै क्या सभी ने देखा है यहाँ" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब तक शंकर की पत्नी भी वहाँ आ बैठी, घूंघट किये हुए,
"क्या देखा है शंकर आपने?" मैंने पूछा,
"यहाँ अक्सर दो औरतें दिखाई देती हैं घूमते हुए" वो बोला,
"तुमने देखी हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, तीन बार" वो बोला,
"क्या उम्र होगी उनकी?" मैंने पूछा,
"जी पक्का पता नहीं, होगी ३०-३५ बरस" वो बोला,
"क्या पहन रखा है उन्होंने?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" वो बोला,
"कुछ नहीं? मतलब नग्न?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
धमाका हुआ! मेरे दिमाग में हुआ धमाका! प्रेत यदि नग्न हो तो बलि कारण होता है उसका! और यहाँ बलि?
"पास में से देखी थीं?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, कोई पचास फीट की दूरी से देखा था" वो बोला,
"किस जगह?" मैंने पूछा,
"जी पीछे है वो जगह, वहाँ केले, पपीते के पेड़ हैं" वो बोला,
"अक्सर वहीँ दिखाई देती हैं?'' मैंने पूछा,
"जी दो बार वहीँ दिखाई दी थीं, और एक बार कुँए के पास, चक्कर लगा रही थीं कुँए के" वो बोला,
"अच्छा, बाल कैसे हैं उनके?" मैंने पूछा,
"काले" उसने कहा,
"नहीं, खुले हैं या बंधे हुए?" मैंने पूछा,
"खुले हुए, छाती तक" वो बोला,
खुले हुए! फिर से बलि का द्योतक!
"किसी को पुकारती हैं? कुछ कहती हैं?" मैंने पूछा
"नहीं जी, चुप ही रहती हैं" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और गुरु जी, मेरी पत्नी ने भी कुछ देखा है यहाँ" वो बोला,
"क्या?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
अब उसकी पत्नी की तरफ हमारी नज़रें गढ़ गयीं !
"क्या देखा आपने?" मैंने पूछा,
"जी मैंने यहाँ एक आदमी को देखा था, पेड़ के नीचे बैठे हुए" उसने बताया,
"आदमी? कैसा था वो?" मैंने कुरेदा!
"होगा कोई पचास-साठ बरस का, सर पर साफ़ सा बाँधा था उसने" वो बोली,
"और?" मैंने पूछा,
"वो बैठा हुआ था, जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो, बीच बीच में उठकर सामने कमर झुक कर देखता था, फिर बैठ जाता था" उसने बताया,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मैंने सोचा यहीं आसपास का होगा, मै वहाँ तक गयी और जैसे ही मेरी नज़र उस से मिली वो गायब हो गया, मै डर के मारे चाखते हुए वापिस आ गयी यहाँ और सभी को बताया!" वो बोली,
"अच्छा! ये कब की बात होगी?" मैंने पूछा,
"करीब छह महीने हो गए" वो बोली,
"फिर कभी नज़र आया वो?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने मुंह बंद रखते हुए ही कहा,
तभी वो उठी और चली गयी वहाँ से!
"कुछ और? कोई विशेष बात?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"क्या?" मैंने पूछा,
"यहाँ ऐसी चार पांच जगह हैं जहां पानी नहीं ठहरता, कितना ही पानी दे दो, लेकिन वहाँ दो घंटे के बाद ही पानी सूख जाता है, जैसे सारा पानी कोई सोख रहा है नीचे ही नीचे" उसने बताया,
"कहाँ है ऐसी जगह?" मैंने पूछा,
"आइये, दिखाता हूँ" वो कहते हुए उठा,
हम सभी उठ गए उसके साथ और उसके पीछे हो लिए, वो हमको थोड़ी दूर ले गया और हाथ के इशारे से बताया कि ये है वो जगह, उनमे से एक" उसने कहा,
उसका कहना सही था! वहाँ मिट्टी ऐसी थी जैसे कि रेत, एक दम सूखी रेत! बड़ी हैरत की बात थी! मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था! आज पहली बात देख रहा था! मेरे सामने ही उसने एक बाल्टी पानी वहाँ डाला, और कहा, "ये देखिये, यहाँ पानी नहीं रुकेगा, गीला भी नहीं होगा यहाँ कुछ देर के बाद"
मैंने आगे बढ़कर देखा, जहां पानी डाला गया था! जूते से खंगाला तो पानी मिट्टी पर था ही नहीं, हाँ गीलेपन के निशान ज़रूर थे वहाँ!
"और वो जगह कहाँ है जहां वो औरतें दिखाई दीं थीं?" मैंने पूछा,
"आइये, उस तरफ है" वो बोला, और हम उसके पीछे चले,
वो हमको एक जगह ले आया, यहाँ केले और पपीते के पेड़ लगे थे, जगह बहुत पावन सी लग रही थी! एक दम शांत! जैसे किसी मंदिर का प्रांगण!
"यहाँ! यहाँ देखा था जी" शंकर ने वहाँ खड़े हो कर कहा,
मैंने गौर से देखा, सबकुछ सामान्य था वहाँ, कुछ भी अजीब नहीं! पेड़ों पर पपीते लदे थे पीछे अमरुद के पेड़ों से खुशबू आ रही थी उसके फूलों की! बेहद सुकून वाली जगह थी वो!
"दोनों बार यहीं दिखाई दीं थीं वो दोनों?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" शंकर ने कहा,
तभी शंकर का लड़का आया वहाँ भाग भाग और शंकर से कुछ कहा, शंकर हमको लेकर फिर से अपनी कमरे पर आ गया, वहाँ दूध का प्रबन्ध कर दिया गया था, हमने दूध लिया, बहुत बढ़िया ताजा दूध था वो! हमने दो दो गिलास पी लिया, तबीयत प्रसन्न हो गयी!
फिर शंकर ने खाने की पूछी, तो खाने की हमने मना कर दी, पेट दूध पीकर भर गया था, रत्ती भर भी जगह शेष नहीं थी!
"आइये मै आपको वो पानी वाली जगह दिखा दूँ" शंकर ने कहा,
"चलिए" मैंने कहा,
हम चल पड़े उसके पीछे, वहाँ पहुंचे और सच में, सच में वहाँ पानी का कोई नामोनिशान नहीं था! मैंने नीचे बैठकर, छू कर देखा, मिट्टी सूखे रेत के समान थी! कमाल की बात थी ये! अद्भुत! न कभी देखा था ऐसा और न सुना था! आज देख भी रहा था और अचंभित भी था! पानी जैसे भाप बनकर उड़ गया था! जैसे ज़मीन ने एक एक बूँद पानी की लील ली हो! हैरत-अंगेज़!
"कमाल है!" मेरे मुंह से निकला!
"मैंने बताया था ना गुरु जी, ऐसी चार पांच जगह हैं यहाँ!" अब हरि साहब ने कहा!
"हाँ, कमाल की बात है!" मैंने फिर से कहा,
"यहाँ ना जाने क्या चल रहा है, हम बड़े दुखी हैं गुरु जी" हरि साहब बोले,
"मै समझ सकता हूँ हरि साहब!" मैंने कहा,
"अब आप जांच कीजिये कि यहाँ ऐसा क्या है?" वे बोले, याचना के स्वर में,
"मै आज रात जांच आरम्भ करूँगा हरि साहब!" मैंने कहा,
"जी बहुत अच्छा" हरि साहब ने कहा,
"शंकर?" मैंने कहा,
"जी?" उसने चौंक कर कहा,
"वो पेड़ कहाँ है जहां आपकी पत्नी ने वो आदमी देखा था?" मैंने पूछा,
"आइये जी, उस तरफ!" मैंने कहा,
हम उसके पीछे चल पड़े!
"ये है जी वो पेड़" शंकर ने इशारा करके बताया,
ये पेड़ अमलतास का था, काफी बड़ा पेड़ था वो!
मै वहीँ उसके नीचे खड़ा हो गया! कुछ महसूस करने की कोशिश की लेकिन सब सामान्य!
अब तो सिर्फ रात को ही जांच की जा सकती थी!
अतः, मै वहाँ से वापिस आ गया, हम वहाँ से वापिस चल दिए और हरि साहब के पास आ गए, उनके घर,
खाना लगा दिया गया, खाना खा लिया हमने और फिर कुछ देर आराम करने के लिए हम अपने कमरे में आ गए, लेट गए!
"क्या लगा आपको गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"अभी तक तो कुछ नहीं लगा अजीब, सब सामान्य ही है" मैंने कहा,
"तो अब रात को करेंगे जांच?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, आज रात को" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी" वे बोले,
और फिर हम दोनों ही सो गए, नींद की ख़ुमारी थी काफी, आँख लग गयी जल्दी ही!
४ बज चले थे, जब हमारी आँख खुली, शर्मा जी और मै एक साथ ही उठ गए थे, बदन में ताजगी आ गयी थी! और अब मुझे इंतज़ार था तो रात घिरने का, मै आज रात जांचना चाहता था कि वहाँ दरअसल चल क्या रहा है? कौन है वो दो औरतें? कौन है वो इंतज़ार करता आदमी और क्या रहस्य है वहाँ कुछ जगह पानी के न ठहरने का! एक तो उत्सुकता और दूसरी रहस्य की गहराई, जैसे मै बंधता जा रहा था उनमे, जैसे मेरे ऊपर पड़ा कोई फंदा धीरे धीरे कसता चला जा रहा हो!
"शर्मा जी?'' मैंने कहा,
"जी हाँ?" वे बोले,
"आप बैग में से वही सामान निकाल लीजिये, जांच वाला" मैंने कहा,
"जी, अभी निकालता हूँ" वे बोले,
उन्होंने पास में रखा बैग खिसकाया और उसको खोला, फिर कुछ सामान निकाल लिया, इसमें कुछ तंत्राभूषण और विभिन्न प्रकार की सामग्रियां रखी थीं, मैंने शर्मा जी से मुख्य मुख्य सामग्री निकलवा ली और फिर बाकी का सामान बैग के अन्दर ही रखवा दिया,
"आज रात को हम जांच करेंगे वहाँ, हरि साहब से एक नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ज़रूर ले लेना, आवश्यकता पड़ेगी इसकी" मैंने कहा,
"जी मै कह के ले लूँगा उनसे" वे बोले,
"ठीक है शर्मा जी, देखते हैं कि क्या रहस्य है यहाँ" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी, आज पता चल जाएगा" वे बोले,
"हाँ, पता चल जाए तो इस समस्या का भी निवारण हो जाए, हरि साहब बेहद उदास हैं, कुंठाग्रस्त हो चले हैं अब इस ज़मीन की वजह से" मैंने कहा,
"सही कहा आपने, बेचारे पस्त हो गए हैं" वे बोले,

तभी हरि साहब आ गए अन्दर!
"उठ गए गुरु जी?" उन्होंने कुर्सी पर रखे अखबार को हटाते हुए और बैठते हुए कहा,
"हाँ हरि साहब" शर्मा जी ने जवाब दे दिया,
"चाय मंगवा लूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, मंगवा लीजिये" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले, उठे और दरवाज़े पर जाकर आवाज़ दे दी अपने रसोईघर की तरफ, और फिर अन्दर आ बैठे, कुर्सी पर,
अब शर्मा जी ने उनसे सामान के बारे में कह दिया, उन्होंने सामान के लिए तुरंत ही हाँ कर दी, अब हमारा काम एक तरह से फ़ारिग हो चला था, अब केवल जांच शेष थी, और उसके लिए हम तैयार थे, बस रात घिरने का इंतज़ार ही था!
थोड़ी देर में चाय आ गयी, हम चाय पीने लगे, हरि साहब गुना शहर के बारे में बातें करने लगे, कुछ इतिहास और कुछ राजनीति की बातें आदि, चाय समाप्त हुई तो मैंने और शर्मा जी ने बाहर घूमने की बात कही, उन्होंने भी साथ चलना ठीक समझा, आखिर ये निर्णय हुआ कि वापसी में हम क़य्यूम भाई के घर से होते हुए वापिस आ जायेंगे, हम बाहर निकल आये!
पुराने मकान, बड़े बड़े! इतिहास समेटे हुए! इतिहास के मूक गवाह! शहर जैसे अभी भी डेढ़ सौ वर्ष पीछे चल रहा था! पुराने खरंजे, ऐसे जैसे किसी विशेष प्रयोजन हेतु बिछाए गए हों! उनसे टकराते हुए जूते और जूतों की आवाज़, ऐसी कि जैसे घोडा बिदक गया हो कोई! पाँव पटक रहा हो अपने! एक पान की दुकान पर रुके हम और मैंने एक पान लिया, सादी पत्ती और गीली सुपारी का! ऊपर से थोडा सा और तम्बाकू डलवा लिया, पान खाया तो ज़र्दे की खुशबू उड़ चली! जैसे क़ैद से आज़ाद हो गयी हो! पान बेहद बढ़िया था! बनारसी पत्ता तो मिला नहीं, देसी पत्ते में ही बनवाया था! मजा ही मजा!
खैर, बाज़ार से गुजरे, वही पुराना देहाती बाज़ार! वही दिल्ली के किनारी बाज़ार और आगरा के बाज़ार जैसा! शानदार!
हम चलते गए, चलते गए क्या घूमते गए, और फिर वापसी की राह पकड़ी! वापसी में क़य्यूम भाई के घर पहुंचे हम! क़य्यूम भाई घर पर ही मिले, हमे देख बड़े खुश हुए और बेहद सम्मान के साथ हमे अन्दर ले गए घर में! घर में चाय बनवाई गयी, हालांकि दूध के लिए पूछा था लेकिन दूध संभालने की जगह नहीं थी पेट में! मिठाई आदि खायी हमने! कुल मिलकर क़य्यूम भाई ने मजे से बाँध दिए! क़य्यूम भाई को भी रात के विषय में बता दिया हमने कि जांच करने जायेंगे और दस बजे का वक़्त सही रहेगा, उनको तैयार रहने को कहा तो उन्होंने हामी भर दी, अब रात में हम चारों फिर से उन्ही खेतों पर जाने वाले थे, जांच करने!
रात घिरी, दौर-ए-जाम शुरू हुआ, साथ में क़य्यूम भाई के घर से आया हुआ भोजन भी किया! लज़ीज़ भोजन था, देसी मुर्गा और पूरा देसी घी में बना हुआ! ज़ायका ऐसा कि इंसान अपनी ऊँगली ही चबा जाए! और फिर बजे दस!
'चलिए क़य्यूम भाई" मैंने कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
वो उठे और गाड़ी लेने चले गए, यहाँ हरि साहब ने नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ले ली! मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये और शर्मा जी को भी धारण करवाए! कुछ एक मंत्र जागृत किये और फिर हम चल पड़े, गाड़ी आ गयी थी बाहर, हम गाड़ी में बैठे और चल दिए उसी ज़मीन के लिए जहां कुछ राज दफ़न थे! कुछ अनजाने राज!

सवा दस बजे हम उसी ज़मीन के पास खड़े थे, वातावरण में भयावह शान्ति पसरी थी! कोने कोने में सन्नाटे के गुबार छाये थे! दूर कहीं कहीं सरकारी खम्भों पर लटके बल्ब जल रहे थे, अपने पूरे सामर्थ्य के पास, लेकिन कीट-पतंगों की मित्रतावश अपनी रौशनी खोने लगे थे, कोई तेज और कोई बिलकुल ही धूमिल!
टोर्च जलाई हरि साहब ने, सहसा एक जंगली बिल्ली हमारे सामने गुर्रा के चली गयी! शायद दो थीं या किसी शिकार के पीछे लगी थी वो! हम आगे बढ़ चले, रास्ता बनाते हुए हम उस ज़मीन के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे, कोई लोहे की कंटीली तारों वाली या ईंट की पक्की चारदीवारी नहीं थी वहाँ, बस जंगली पेड़-पौधों और नागफनी से ही एक दीवार सी बना दी गयी थी, यही थी वो चारदीवारी! ये बहुत दूर तलक चली गयी थी! हम अन्दर चले टोर्च की रौशनी के सहारे और फिर अन्दर आ गए, अन्दर अभी चूल्हा जल रहा था, शायद दूध उबल रहा था, हरि साहब ने शंकर को आवाज़ लगाई, शंकर अन्दर से आया भागा भागा, उसने आते ही चारपाई बिछाई और हम उस पर बैठ गए, मैंने तीन जगह निश्चित कर के रखी थीं, जहां मुझे जांच करनी थी, एक अमलतास के पेड़ के पास, एक केले-पपीते के पेड़ों के बीच और एक कुँए के पास, यहीं से कुछ सुराग मिलना था किसी दफ़न राज का!
"शर्मा जी, वो नमक की थैली ले लीजिये, और टोर्च भी" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च और वो नमक की थैली ले ली अपने हाथों में और हम वहाँ से हरि साहब और क़य्यूम भाई को बिठाकर चल दिए उन स्थानों के लिए!
सबसे पहले मै उस अमलतास के पेड़ के पास पहुंचा, वहाँ उसका एक चक्कर लगाया और महा-भान मंत्र चलाया और कुछ चुटकी नमक वहाँ बिखेर दिया फिर पेड़ के इर्द गिर्द एक घेरा बना दिया, यहाँ का काम समाप्त होते ही मै कुँए की तरफ निकल पड़ा, कुँए के पास भी यही क्रिया दोहराई और फिर वहाँ से निकल कर केले-पपीते के पेड़ों के बीच आ गया, तभी कुछ चमगादड़ जैसे आपस में भिड़े और नीचे गिर गए, शर्मा जी ने उन पर प्रकाश डाला तो वे नीचे ही पड़े थे और अब रेंग कर एक दूसरे से विपरीत दिशा में जा रहे थे!
मैंने यहाँ भी वही क्रिया दोहराई और फिर महा-भान मंत्र चलाया! महा-भान मंत्र चलाते ही एक धुल का गुबार मेरे चेहरे से टकराया, जैसे किसी ने ज़मीन में लेटे हुए मेरी आँखों में धूल फेंक दी हो! शर्मा जी चौंक गए! उन्होंने मुझे फ़ौरन ही रुमाल दिया, मैंने रुमाल से अपना चेहरा और आँखें साफ़ कीं, लेकिन मिट्टी मेरी आँखों में पद चुकी थी और अब जलन हो रही थी, छोटे छोटे कंकड़ आँखों में किरकिरी बन चुभ रहे थे! मै हटा वहाँ से और फिर किसी तरह शंकर के पास आया, पानी मंगवाया और आँखें साफ़ कीं, साफ़ होते ही राहत हुई! नथुनों में भी मिट्टी भर गयी थी, वो भी साफ़ की!
मिट्टी किसने फेंकी?
यही प्रश्न अब मेरे दिमाग में कौंध रहा था! जैसे कोई पका हुआ फोड़ा फूटने को लालायित हो पूरी जलन के साथ!
शर्मा जी ने ये बात वहाँ सब को बता दी, वे भी चौंक पड़े! दिल धड़क उठे दोगुनी रफ़्तार से सभी के! कुछ न कुछ तो है वहाँ! पेड़ों के बीच!
अब मैंने कलुष-मंत्र का ध्यान किया, और फिर संधान कर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! और अब हम दोनों चल पड़े उन्ही पेड़ों के पास! हम वहाँ पहुंचे, अन्दर आये और उस स्थान को देखा! वहाँ एक गड्ढा हुआ पड़ा था, कोई चार फीट की परिमाप का! मै और शर्मा जी वहाँ बैठ गए उस गड्ढे के पास! उसमे रौशनी डाली, वहाँ केश पड़े थे! स्त्रियों के केश! मैंने शर्मा जी को और शर्मा जी ने मुझको देखा! ये कलुष मंत्र के प्रभाव से हुआ था, लेकिन कोई भान नहीं हो सका! कुछ समझ नहीं आ सका कि ये गड्ढा किसलिए और ये केश? क्या रहस्य?
तभी पीछे से आवाज़ आई! कर्कश आवाज़, किसी वृद्ध स्त्री की! जैसे कराह रही हो! हमने पलट के देखा! रौशनी मारी तो पीछे एक पेड़ के सहारे कोई छिपा हुआ दिखाई दिया! करीब दस बारह फीट दूर!
"कौन है वहाँ?" मैंने पुकारा,
कोई उत्तर नहीं!
"कौन है? सामने आओ?" मैंने फिर से कहा,
वो जस की तस!
मै उठा और उसकी तरफ चला, कोई चार फीट तक ही गया होऊंगा कि फिर से कराहने की आवाज़ आई, ये आवाज़ वहाँ से नहीं आई थी, ये मेरी बायीं तरफ से आई थी, मैंने रौशनी मारी, वहाँ कोई नहीं था!
मै फिर आगे बढ़ चला! शर्मा जी मेरे साथ ही थे!
मै आगे बढ़ा, उस पेड़ से करीब दो फीट दूर रुक गया, वहाँ जो कोई भी था उसका कद मुझसे ऊंचा था! मै उसके कंधे तक ही आ पा रहा था!
"कौन है?" मैंने कहा,
"कोई उत्तर नहीं!
मै भाग के उसके पास गया और उसका हाथ जैसे ही पकड़ा उसने मुझे उसी हाथ से धक्का दिया और मै पीछे गिर पड़ा! मेरी कमर पपीते के एक पेड़ से टकराई, शर्मा जी फ़ौरन मेरे पास आये और मुझे खड़ा किया, मै संयत हुआ और फिर सामने देखा, सामने कोई नहीं था! वहाँ जो कोई भी था वो जा चुका था!
ये क्या था? कोई चेतावनी? कोई बड़ा संकट? फिर क्या? अब दिमाग में बुलबुले फूटने लगे! प्रश्नों की रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी पतंगें उड़ने लगी मेरे मस्तिष्क के पटल में! मस्तिष्क के आकाश में!
ये सब क्या है???
मै फिर से उसी पेड़ की तरफ बढ़ चला, उसके पीछे गया, लेकिन वहां कोई नहीं था! मैंने चारों ओर देखा, कोई भी नहीं! मैंने अब एक मुट्ठी नमक लिया और वहीँ ज़मीन पर एक मंत्र पढ़ते हुए फेंका! जैसे ज़मीन हिली! जूते में कसे मेरे पाँव और अधिक पकड़ के साथ स्थिर हो गए! वहाँ जो कुछ भी था, बेहद ताक़तवर और पुराना था!
"कौन है यहाँ?" मै चिल्लाया,
कोई हरक़त नहीं हुई!
"कौन है?" मैंने फिर से आवाज़ मारी!
लेकिन कोई उत्तर नहीं!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"क्या चाहते हो?" मैंने जोर से कहा,
और तभी एक कपडे की बनी काली गुड़िया आकाश में से ज़मीन पर गिरी, मेरे सम्मुख! मैंने गुड़िया उठाई, उसका पेट फूला था, अर्थात, उसका पेट उसके शरीर के अनुमाप में अत्यंत दीर्घ था, मैंने दोनों हाथों से उसका पेट दबाया, तभी मुझे लगा की मेरे हाथों में कुछ द्रव्य आ गया है, हाथ गीले हो गए थे, मैंने टोर्च की रौशनी में अपने हाथ दखे, ये रक्त था! मानव रक्त!
खेल अब खूनी हो चला था!
"सामने आओ मेरे?" मैंने कहा,
कुछ पल गहन शान्ति! केवल झींगुरों की ही आवाज़, मंझीरे जैसे डर गए थे!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"तो ऐसे नहीं मानोगे तुम?" मैंने अब क्रोध से कहा,
तभी गुड़िया में आग लग उठी! मैंने उसे नीचे फेंक दिया! वो धू धू कर जल उठी! और धीरे धीरे राख हो गयी!
अब बताता हूँ मित्रगण! ये पल मेरे लिए अत्यंत भयानक था! जो अशरीरी आग पर नियंत्रण कर लेता है उसको हराना इतना आसान नहीं! और यही हुआ था यहाँ, यही देखा था मैंने!
यहाँ न भूत था और न कोई प्रेत अथवा चुडैल! यहाँ कोई और था! उसने अपनी सत्ता दिखा दी थी मुझे!
"मेरे समक्ष आओ" मैंने चिल्ला के कहा,
कोई नहीं आया!
अब मै वहीँ बैठ गया, आसन लगाया, और अपना एक नथुना कनिष्ठा ऊँगली से बंद कर मैंने महापाश-मंत्र पढ़ा! अभी आधा ही पढ़ा था कि मुझे सामने दो औरतें दिखाई दीं! वो वहीँ दूर खड़ी थीं करीब पंद्रह फीट दूर! नग्न, चेहरे पर क्रोध का भाव्लिये, हाथों में कटार लिए, केश उनके घुटनों तक थे, साक्षात मृत्युदेवी जैसी थीं वो! मैंने एक बात और गौर की, उनकी ग्रीवा से रक्त बह रहा था, वो रक्त उनके स्तनों से बहता हुआ भूमि पर गिरता जा रहा था और भूमि पर कोई निशान नहीं थे! भूमि पर गिरते ही लोप हो जाता था! मेरा महापाश-मंत्र पूर्ण हुआ, मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
कोई कुछ नहीं बोला उनमे से!
मैंने इशारे से शर्मा जी को अपने पास बुला लिया! वे दौड़ कर मेरे पास आ गए! उनको वहाँ देख उन औरतों ने अपनी कटार ऊपर उठा लीं!
"शर्मा जी, हिलना नहीं!" मैंने कहा,
वे समझ गए!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
और तब एक औरत ने कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहा उसने, बस एक दो शब्द ही सुनाई दिए, 'त्वच' और 'कंठ', दोनों ही शब्द निरर्थक थे! कोई सामंजस्य नहीं था उनमे!
"कौन हो तुम?" मैंने अब धीरे से कहा,
कोई उत्तर नहीं!
बड़ी अजीब सी स्थिति थी!
मैंने कुछ निर्णय लिया और उनकी ओर बढ़ा, जैसे ही मै उनके सामने आया कोई दो फीट दूर, तो मैंने देखा कि, उनका सर और धड़ अलग अलग थे! धड़ गोरा और सर एकदम भक्क काला! दुर्गन्ध फूट रही थी उनमे से! बहते हुए रक्त की दुर्गन्ध ने मेरा मुंह कड़वा कर दिया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और तभी दोनों एक दूसरे को देखती हुई हंसीं और झप्प से लोप हो गयीं! मै अवाक सा खड़ा वहाँ रह गया! जैसे मेरे कांटे में फंसी मछली मेरे पास तक आते आते आज़ाद हो गयी हो!
दुर्गन्ध भी समाप्त हो गयी! परन्तु एक बात निश्चित हो गयी! यहाँ जो भी कुछ था वो इतना सामान्य नहीं था जिसका मैंने अंदाज़ा लगाया था! यहाँ तो खौफनाक शक्तियां थीं! लेकिन कौन था जो इनको नियंत्रित कर रहा था? यही दो? नहीं ये नहीं हो सकतीं! ये तो बलि-प्रयोग की महिलायें हैं! फिर एक और बात, शंकर ने इनको कैसे देखा था? मैंने तो रक्त-रंजित देखा! ये पूछना था मुझे शंकर से ही!
मै शर्मा जी को समझाते हुए, वापिस चल पड़ा शंकर की तरफ!
हम सीधा शंकर के पास आये, वे सभी बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे, चेहरे पर हवाइयां उडी हुईं थीं उनके!
"सब खैरियत तो है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ सब खैरियत से है" मैंने कहा,
अब उन्हें चैन पड़ा!
"शंकर?" शर्मा जी ने कहा,
"जी?" वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,
"तुमने जो दो औरतें देखीं थीं, वो रक्त-रंजित थीं क्या?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं जी, बिलकुल नहीं" उसने कहा,
अब मुझे जैसे झटके से लगने लगे!
"एक दम साफ़ थीं वो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हाँ उन्होंने पेट पर शायद कोई भस्म या चन्दन सा मला हुआ था, पक्का नहीं कह सकता" शंकर ने कहा,
"कोई हथियार था उनके हाथ में?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल खाली हाथ थीं वो" उसने कहा,
यहाँ हरि साहब और क़य्यूम भी की साँसें रुक रुक कर आगे बढ़ रही थीं! आँखें ऐसे फटी थीं जैसे दम निकलने वाला ही हो! एक एक सवाल पर आँखें और चौड़ी हो जाती थीं उनकी!
"क्या हुआ गुरु जी?" हरि साहब ने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने उलझे हुए भी सुलझा सा उत्तर दिया!
"आपको दिखाई दीं वो?" अब क़य्यूम ने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
अब तो जैसे दोनों को भय का भाला घुस गया छाती के आरपार!
"क्क्क्क्क.......क्य�� � ?" हरि साहब के मुंह से निकला!
"हाँ, उनका बसेरा यहीं है!" मैंने कहा,
"मैंने कहा था न गुरु जी? यहाँ बहुत बड़ी गड़बड़ है, आप बचाइये हमे" अब ये कहते ही घबराए वो, हाथ कांपने लगे उनके!
"आप न घबराइये हरि साहब, मै इसीलिए तो आया हूँ यहाँ" मैंने कहा,
"हम तो मर गए गुरु जी" वे गर्दन हिला के बोले,
"आप चिंता न कीजिये हरि साहब" मैंने कहा,
"गुरु जी, वहाँ उस पेड़ को देखें?" शर्मा जी ने याद दिलाया मुझे,
"हाँ! हाँ! अवश्य!" मैंने कहा,
हम भागे वहाँ से, उस अमलतास पेड़ की तरफ! वहाँ पहुंचे, टोर्च की रौशनी डाली वहाँ, कोई नहीं था वहाँ! हम आगे गए! मैंने रुका, शर्मा जी को रोका, कुछ पल ठहरा और फिर मै अकेला ही आगे बढ़ा, पेड़ के नीचे कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं! मैंने आसपास गौर से देखा, और देखने पर अचानक ही मुझे पेड़ से दूर, चारदीवारी के पास एक आदमी खड़ा दिखा, साफ़ा बांधे! मै वहीँ चल पड़ा! वो अचानक से नीचे बैठ गया, जैसे कोई कुत्ता छलांग मारने के लिए बैठता है, मै रुक गया तभी कि तभी, जस का तस! वो नीचे ही बैठा रहा, मै अब धीरे धीरे आगे बढ़ा! और फिर रुक गया!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
अब मै आगे बढ़ा तो वो उठकर खड़ा हो गया! लम्बा! कद्दावर और बेहद मजबूत! पहलवानी जिस्म! उसने बाजूओं पर गंडे-ताबीज़ बाँध रखे थे! गले में माल धारण कर राखी थी, कौन सी? ये नहीं पता चल रहा था! कद उसका सात या सवा सात फीट रहा होगा! उम्र कोई चालीस के आसपास!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
मै आगे बढ़ा!
"जहां है, वहीँ ठहर जा!" वो गर्रा के बोला!
भयानक स्वर उसका और लहजा कड़वा! रुक्ष! धमकाने वाला!
मै ठहर गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"क्या करेगा जानकार?" उसने जैसे ऐसा कह कर चुटकी सी ली!
"मै जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
अब इसका उत्तर मेरे पास नहीं था!
"यहाँ प्रेतों का वास है" मैंने कहा,
वो हंसा! बहुत तेज! सच में बहुत तेज!
"मै चाहता हूँ कि तुम सब यहाँ से चले जाओ, अज ही!" मैंने कहा,
"अब वो गुस्सा हो गया! कूद के मेरे सामने आ खड़ा हुआ! मरे सर पर अपना भारी भरकम हाथ रखा! और मुझे हैरत! मेरे तंत्राभूषण भी नहीं रोक पाए उसे मुझे छूने से! ये कैसा भ्रम??
"ये भूमि हमारी है! पार्वती नदी तक, सारी भूमि हमारी है!" उसने मुझे दूर इशारा करके बताया!
"कैसी भूमि?" मैंने उसका हाथ अपने सर से नीचे किया और पूछा,
"ये भूमि" उसने अपने पैर से भूमि पर थाप मारते हुए कहा!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"मेरा नाम खेचर है! ये मेरा ही स्थान है!" उसने कहा,
स्थान? यही सुना न मैंने??
''स्थान? कैसा स्थान?" मैंने पूछा,
"ये स्थान!" उसने फिर से इशारा करके मुझे वही भूमि दिखा दी!
मै हतप्रभ था!
हतप्रभ इसलिए कि मेरे सभी मंत्र और तंत्राभूषण, सभी शिथिल हो गए थे! खेचर के सामने शिथिल! दो ही कारण थे इसके, या तो खेचर स्वयंभू एवं स्वयं सिद्ध है अथवा उसको किसी महासिद्ध का सरंक्षण प्राप्त है! ये स्थान या तो परम सात्विक है या फिर प्रबल तामसिक! जो भी तत्व है यहाँ, वो अपने शीर्ष पर है! एक बार को तो मुझे भी आखेट होने का भय मार गया था, उसी खेचर के सामने जिसके सामने मै खड़ा था!
"सुना तूने?" अचानक से खेचर ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ये मेरा स्थान है, अब तुम यहाँ से चले जाओ" उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!
"मै नहीं जाऊँगा खेचर!" मैंने भी डटकर कहा!
"मारा जाएगा! हा हा हा हा!" उसने ठहाका मार कर कहा!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
उसका ठहाका बंद हुआ उसी क्षण!
वो चुप!
मै चुप!
और फिर से मैंने अपना प्रश्न दोहराया!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
वो चुप!
और फिर मेरे देखते ही देखते वो झप्प से लोप हो गया!
मेरा प्रश्न अब बेमायनी हो गया था!
"खेचर?" मैंने पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
"खेचर?" मैंने फिर से पुकारा!
अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!
वो चला गया था!
ब मै पलटा वहां से और शर्मा जी के पास आया, वे भी हतप्रभ खड़े थे! बड़ी ही अजीब स्थिति थी! अभी तक कोई ओर-छोर नहीं मिला था! धूल में लाठी भांज रहे थे हम!
"चला गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर मैंने उसी पेड़ को देखा जहां कुछ देर पहले खेचर आया था! वहाँ का माहौल इस वर्तमान में भूतकाल की गिरफ्त से आज़ाद हो चुका था! उसके पत्ते बयार से खड़खडाने लगे थे! वर्तमान-संधि हो चुकी थी!
"चलो, अब कुँए पर चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम कुँए पर पहुंचे! कुँए में से भयानक शोर आ रहा था! जैसे बालक-बालिकाओं की पिटाई हो रही हो! उनका क्रंदन कानफोड़ू था! मैंने और शर्मा जी ने कुँए में झाँक कर देखा! वहाँ जो देखा उसको देखकर आँखें चौड़ी हो गयीं! साँसें बेलगाम हो गयीं! अन्दर लबालब सर कटे पड़े थे, बालक-बालिकाओं के! और सभी अपनी जिव्हा निकाल तड़प के स्वर में चिल्ला रहे थे! रक्त की धाराएं एक दूसरे पर टकरा रही थीं! हमसे कोई छह फीट दूर! अत्यन्त भयावह दृश्य था! मैंने गौर किया, कुछ सर दो टुकड़े थे बस हलके से एक झिल्ली से चिपके थे, वो चिल्ला तो नहीं रहे थे, हाँ, सर्प की भांति फुफकार रहे थे, अपने नथुनों से!
मैंने तभी ताम-मंत्र का संधान किया, और नीचे से मिट्टी उठाकर वो मिट्टी अभिमंत्रित की और कुँए में डाल दी, विस्फोट सा हुआ! और वहाँ की माया का नाश हुआ! अब कोई सर नहीं बचा था वहाँ, पानी में नीचे हलचल थी, मैंने टोर्च की रौशनी मारी पानी के ऊपर तो वहाँ पानी के ऊपर कुछ तैरता हुआ दिखाई दिया! मैंने ध्यान से देखा, ये वही दो औरतें थीं! कमर तक पानी में डूबी हुईं और अपना अपना सर अपने हाथों में लिए! एक बार को तो मै पीछे हट गया! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था! उनके कटे सर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे थे! अजीब सी भाषा में! न डामरी, न कोई अन्य भाषा, ऐसे जैसे कोई अटके हुए से शब्द, कुछ कराह के शब्द जिसका केवल स्वर होता है और कोई व्यंजन नहीं!
"चलो यहाँ से" मैंने कहा,
शर्मा जी पीछे हट गए!
हम वापिस चल पड़े, शंकर के कमरे की तरफ, और तभी पीछे से मुझे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर! मै चौंक पड़ा! ठहर गया! पीछे देखा, वो खेचर था!
खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!
"मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"बोलो खेचर!" मैंने कहा!
"चला जा यहाँ से!" मैंने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"मै नहीं जाऊँगा फिर भी!" मैंने कहा,
"सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?" उसने मुझे कहा,
"मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!" मैंने कहा,
"तुझे काट डालेगा!" वो गंभीर हो कर बोला,
"कौन?" मैंने पूछा,
"भेरू" उसने कहा,
"कौन भेरू?" मैंने कहा,
"मेरा बड़ा भाई" उसने कहा,
"अच्छा! कहाँ है भेरू?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" उसने कहा,
'कहाँ है उसका वास?" मैंने पूछा,
"वहाँ, नदी से पहले" उसने इशारा करके कहा,
मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!
"खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"पूछ" उसने कहा,
"वो औरत कौन है?" मैंने पूछा,
मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!
वो बताना नहीं चाहता था, या उसका 'समय' हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!
अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!
खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा और हटा वहाँ से,
'जी, चलिए" वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!
हम चल पड़े वापिस!
वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,
"हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!" मैंने हाथ धोते हुए कहा,
हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,
"मामला क्या है?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"ओह...." उनके मुंह से निकला,
"आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?" हरि साहब ने पूछा,
'ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा" मैंने कहा,
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी" बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!
"वैसे है क्या यहाँ?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!" मैंने बताया,
मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!
"खेचर!" मैंने कहा,
"क..क्या?" कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!
"खेचर मिला मुझे यहाँ" मैंने कहा,
"हे ईश्वर!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!" हरि साहब ने बताया!
कहानी में एक पेंच और घुस गया!
"सपना?" मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,
"जी गुरु जी" हरि साहब बोले,
"तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब" मैंने कहा,
"अवश्य" वे बोले,
मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!
खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!
मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, "कहाँ खो गए गुरु जी?"
"कहीं नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!
"शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?"
"हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी" वे बोले,
"और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!" मैंने कहा,
"हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!" वे बोले,
"हाँ, ये सही कहा आपने" मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,
"खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?" मैंने कहा,
"हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!" वे बोले,
"अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे" मैंने कहा,
"हाँ, कल पूछते हैं उन से" वे बोले,
"हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है" मैंने कहा,
"हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ" वे बोले,
तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!
सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
"हरि साहब?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी?" वे चौंके!
''आपकी पत्नी कहाँ है?" मैंने पूछा,
"मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी" वे बोले,
'अच्छा, आने दीजिये फिर" मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
"वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा" मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
"आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,
"खेचर ने" वे बोलीं,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!" उन्होंने बताया,
"किसी ने कुछ कहा आपसे?" मैंने पूछा,
"हाँ एक औरत ने कहा था कुछ" वे बोलीं,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!" ये बताया उन्होंने
"अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था" वे बोलीं,
"ओह...भामा!" मैंने कहा,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"बाकी वही जो मैंने आपको बताया है" वे बोलीं,
"ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!


बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, "हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?"
"हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर" उन्होंने बताया,
"क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?" मैंने पूछा,
"कहाँ तक?" उन्होंने पूछा,
"जहां वो बरसाती नदी है" मैंने कहा,
"हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे" वे बोले,
"पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली" मैंने कहा,
"कब चलना है?" उन्होंने पूछा,
"जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए" मैंने कहा,
"ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ" वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, "चलिए गुरु जी"
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
"ये है जी वो नदी" हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
"कोई पुराना मंदिर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको" हरि साहब ने कहा,
"कुछ जानते हैं इसके बारे में?" मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने" वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
"ज़हरीला सांप है जी ये?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!" वे बोले,
"ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!" मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
"ये नहीं काटता!" मैंने कहा,
"कमाल है गुरु जी!" वे बोले,
मै उठ गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
इसका अर्थ था कि ये था स्थान भेरू का! खेचर इसीलिए आया था यहाँ! उसने तो मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया था! अब सोचने वाली बात ये कि वो क्यों चाहता था कि मै यहाँ आऊं? भेरू के स्थान पर? जबकि वो चाहता तो मुझे अपने रास्ते से कब का हटा चुका होता! खेचर इसी मंदिर में समा गया था, यही स्थान था, हाँ यही स्थान!
"शर्मा जी?" मी कहा,
"जी?" वो आगे आते हुए बोले,
"आपने देखा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"यही स्थान है उस भेरू का?" मैंने ये भी पूछा,
"हाँ जी, यही लगता है" वे बोले,
"तो वो क्या चाहता है?" मैंने कहा,
"नहीं पता गुरु जी" वे बोले,
"सही कहा!" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया!
"शर्मा जी, एक बात तो है, ये खेचर कुछ कहना चाहता है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"नदी का पता, ये मंदिर! है या नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, ये तो है" वे बोले,
"अब हमारा काम पूर्ण हुआ यहाँ, चलो अब वापिस चलें, अब मै दिखाता हूँ इनको अपना माया-जाल!" मैंने कहा,
"माया-जाल?" वे विस्मित से होकर पूछ गए!
"हाँ! अब हमारी मुलाक़ात शीघ्र ही भेरू से होगी" मैंने कहा,
'अच्छा!" वे बोले,
"आप एक काम करो, हरि साहब से पूछो, यहाँ कोई शमशान है?" मैंने कहा,
"अभी पूछ लेता हूँ जी" वे बोले और वो चले गए, हरि साहब की ओर!
मै कुछ देर बाद पहुंचा वहाँ, उनकी बातें चल रही थीं!
"गुरु जी, ये कहते हैं कि दो शमशान हैं यहाँ पर, एक शहर के पास और एक इसी नदी के किनारे, आपको कौन सा चाहिए?" शर्मा जी ने पूछा,
"इसी नदी के किनारे वाला" मैंने कहा,
हरि साहब ने बता दिया, ये शमशान कोई चार किलोमीटर था वहाँ से!
'चलिए, एक नज़र मार लेते हैं" मैंने कहा,
और हम अब चल पड़े वहाँ से उसी शमशान की ओर!
वहाँ पहुंचे और मै वहाँ गाड़ी से उतरा! आसपास नज़र दौड़ाई, ये शमशान नहीं लगता था, कोई प्रबंध नहीं था वहाँ, हाँ वहाँ दो चिताएं अवश्य ही जल रही थीं!
मै उन चिताओं तक गया, ठंडी हो चुकीं राख को मैंने हाथ जोड़कर उठाया और एक पन्नी में भर लिया, पन्नी वहाँ बिखरी पड़ी थीं!
"चलिए, अब सीधे खेतों की तरफ चलें!" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब बोले,
और हम चल दिए अब खेतों की तरफ!
मै सीधे ही खेतों पर पहुंचा, वहाँ अलग अलग स्थान पर पांच जगह मैंने वो भस्म ज़मीन में गाड़ दी, ये स्थान-कीलन था! जो अब ज़रूरी भी था!
"शर्मा जी, आप इस बाल्टी पानी मंगवाइये" मैंने कहा,
"अभी लीजिये" उन्होंने कहा,
उन्होंने हरि साहब को, हरि साहब ने शंकर से कहा और शंकर वो बाल्टी ले आया! मैंने उसी स्थान पर, जहां पानी नहीं रुकता था, एक बाल्टी पानी डाला, और कमाल हुआ, स्थान-कीलन चक्रिका ने वहाँ का भेदन-चक्र पूर्ण किया और मिट्टी गीली हो गयी! पानी ठहर गया! ये देख सभी की आँखें चौड़ी हो गयीं!
"अब चलो यहाँ से" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब ने कहा,
तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी, वहाँ दोनों औरतें खड़ी थीं! अपना सर हाथों में लिए!
मै उनकी ओर चल पड़ा, शर्मा जी चलने लगे तो मैंने उनको रोक दिया, मै अकेला ही जाना चाहता था वहां, मैंने हाथ के इशारे से उनको रोक दिया और फिर वापिस शंकर के यहाँ भेज दिया, मै अब उन औरतों की तरफ बढ़ने लगा, वे दोनों औरतें मुड़ीं और आगे चलने लगीं, जैसे मुझे ही लेने आई हों! वो आगे चलती रहीं और मै उनके पीछे! मुझे जैसे सम्मोहन पाश में जकड़ लिया था उन्होंने, सच कह रहा हूँ, उस समय मै सारी सुध-बुध खो बैठा था! बस उनके पीछे पीछे पागल सा चले जा रहा था, और फिर वो कुआँ आया, कुँए में से जैसे पानी बाहर आ रहा था, बहता पानी मेरे जूतों से टकरा रहा था, मै जैसे किसी और की लोक में विचरण करने लगा था, प्रेतलोक में जैसे! कुआँ भी पार कर लिया और फॉर मैंने ज़मीन पर तड़पती हुई मछलियाँ देखीं! जैसे उनको पानी से निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया हो! वो मुड-मुड कर उछल रही थीं, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ! सभी बड़ी बड़ी! मै एकटक उनको देखता रहा! धप्प-धप्प की आवाज़ आ रही थी उन मछलियों की, जब वो नीचे गिरती थीं! बड़ा ही अजीब सा दृश्य था!
वे औरतें और आगे चलीं, ये उन खेतों का निर्जन स्थान था, वहाँ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, तभी वे एक बड़े से पत्थर के पीछे जाकर गायब हो गयीं, मै वहाँ उस पत्थर के सामने गया, और क्या देखा!! जो देखा अत्यंत भयानक था! वहाँ ७ सर पड़े थे, कटे हुए, धड भी थे उनके, पेट फटे हुए थे और सर उन आतों में उलझे हुए थे! मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनकी भिनभिनाहट बहुत तीव्र और भयानक थीं, कुछ अन्य कीड़े भी लगे थे वहाँ! एक दूसरे पर चढ़े हुए! चार सर औरतों के थे और तीन सर पुरुषों के! सभी जीवित! एक एक करके सभी मेरा नाम पुकारे जा रहे थे! मै जैसे जड़ता से बाहर निकला! तभी एक औरत का धड़ खड़ा हुआ, जैसे नींद से जागा हो! सभी कटे सर चुप हो गए, केवल एक के अलावा, वो सर उसी धड़ का था!
"कौन है तू?" उस सर ने कहा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
मै चुप रहा!
''जल्दी बता!" उसने धमका के पूछा,
मैंने कारण बता दिया!
तभी सभी कटे सर अट्टहास कर उठे! और एक एक करके खड़े हो गए! चौकड़ी मार के बैठ गए, अपने हाथों से आंते हटायीं उन्होंने अपने अपने सर पर उलझी हुई! मेड की पिचकारियाँ छूट पड़ीं आँतों से, कुछ मेरे जूते से भी टकराई, मक्खियों का झुण्ड भाग उठा एक पल को!
"चल! भाग जा यहाँ से!' एक पुरुष के सर ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"नहीं मानेगा?" उसने धमकाया मुझे!
"नहीं!" मैंने कहा,
"सोच ले, दुबारा नहीं कहूँगा!" उसने चुटकी मार के कहा,
नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"ठीक है, तो अब देख!" उसने कहा,



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