वारदात complete novel

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Re: वारदात

Post by 007 »

"तुम लोगों की हालत उस स्थिति में बहुत बुरी हो जाएगी । सीधे जेल जाओगे I पुलिस वाले दो चार इलजाम और भी तुम पर थोप देंगे । चंद दफा लगाकर अदालत में पेश किया जाएगा I उसके बाद जेल और अदालन कै चक्करों में ही सारो उम्र बीत जाएगी । यानी कि दौलत भी गई और जिन्दगी के मजे भी ।"



अजय और अंजना के होंठों से कोई आवाज ना निकली ।


“मैं तुम लोगों पर मेहरबानी करने आया हूँ। मेरे सिवाय तुम लोगों के बारे में आर काई नहीँ जानता I”


अजना के होंठों से कठिनता से निकला ।



"तुम्हें हमार बारे में कैसे पता चला?"



"दिवाकर, हेगडे, खेडा आर राजीव मल्होत्रा ने जव वेक-डकेती डाली तो में तब उन पर ही निगाह रख रहा था । उसके बाद भी उन पर मेरी बराबर निगाह रही I यानी कि बाद में जो भी हूआ, मेरी निगाहों कै सामने हुआ । शादी करन के बाद तुम लोग जब विशालगढ़ जाने बाती ट्रेन पर बेठे तव में कुछ दूर खडा तुम लोगों को देख रहा था । फिर उसी ट्रेन से मैं भी बिशालमढ पहुंचा I तुम लोगों के रहने का ठिकाना देखकर वापस दिल्ली चला गया । उसके ~ बाद दो दिन पहले ही विशालगढ़ लौटा हू। अब वक्त मिला तो आप लोगों के दर्शन करने आ गया ।"



“तुम-तुम हमारे पास क्यों आये हो? क्या चाहते हो हमसे?” अजय ने सूखे होंठों पर जीम फेरकर कहा ।


" तुम --तुम लोगों का भला करने आया हू।"


" कैसा भला ?"



"दिल्ली से भागकर गलत जगह आ गये हो ।‘"



“क्या मतलब?" अंजना कै होंठों से निकला ।


"दिबाकर हेगडे ओर खेड़ा यहीं विशालगढ़ में हैँ ।" अंजना बुरी तरह चौंकी I




“वया कह रहे हो?"



"ठीक कह रहा हूं। ओर यह केस जिस पुलिस इन्सपेवटर कै हाथ में था, उसका ट्रांसफर भी इसी शहर में हो गया हे । तुम दोनों कभी भी आसमानी मार में दब सकत्ते हो l जो खामखाह ही सिर पर आ गिरती है !"


देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था-" तुम दोनों के लिये अच्छा यहीँ होगा कि पैंतीस लाख के साथ, विशालगढ़ से कहीँ दूर निकल जाओ । फंस गये तो बाकी की जिन्दगी खामखाह ही जैल में बीत जायेगी । क्योकि बैंक-डकैती ... का पैसा तुम लोगों कै पास हे I”


कहने के साथ ही देवराज चौहान उठा और बाहर को निकलता चला गया ।



अजना और अजय हक्के-वक्के से रह गये। कुछ पलों बाद उन्हें होश आया तो एक-दूसरे क्रो देखा l


"मैँ नहीं जानती, देवराज 'चौहान ठीक कह रहा है या गलत । लेकिन हमें किसी तरह का खतरा नहीं लेना चाहिए । तैयारी करो अजय ._ हमें अभी विशालगढ से निकल जाना होगा I"


अजय फोरन उठ खडा हुआ ।

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नौकर, देवराज चौहान को वंगले कै ड्राइंगरूम मे छोड गया। वहा का माहौल-देखते हीँ देवराज चौहान के ज़वड़े सख्ती से भिंचते चले गये ।।


दिवाकर, हेगड़ और खेडा कै साथ महादेव बैठा हंस-हंस कर बातें कर रहा था ।


सामने ही टेबल पर अघपिए चाय के प्याले रखै थे । वह तीनों बेशक महादेव का साथ दे रहे हों परन्तु महादेव बेबाकी से बातें किए और हंसे जा रहा था ।



देवराज चौहान को देखते ही वह तीनों कुर्सियों से फौरन खडे हो गये ।


"लगता हे आपकै अजीज पहचान बाले हैं ।” महादेव भी उठता हुआ बोला---" अब मैं चलूँगा फिर आऊंगा, फुर्सत में । तब बातें कोंगे ! थोड्री मौज-मस्ती करेंगे । ओं०कै० ।” कहकर महादेव आगे बढा और रास्ते में खडे देवराज चौहान कै समीप ठिठका---"नमस्कार जी, मैँ साथ वाले बगले में रहता हू। नया-नया पडौसी आया सोचा जान-ण्डचान कर लूं । खेर, आपसे मिलकर वहुत खुशी हुई । चलता हूं ।" महादेव ने वेहद शराफत के साथ देवराज चौहान को कहा और बाहर निकलता चला गया ।


देवराज चौहान आगे बढा और तीनों कै करीब पहुचा ।



"कौन था यह?" देवराज चौहान की निगाहें दिवाकर के चेहरे पर टिकती चली गई ।



"पडौसी था ।"



"यहां क्या करने आया था?"


"मेल-मिलाप करने । यूं ही इधर-उधर की बातें हांकै जा रहा था ।" दिवाकर न अनमने मन से कहा ।



देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कश लेकर बोला… "अपने बाप से बात की?”


" हां , तुमसे वह बात करेगा ।" दिवाकर ने एक तरफ इशारा किया ।



देवराज चौहान की निगाह घूमी । कुछ दूर खिडकी पर कोई खडा था । उसकी पीठ उनकी तरफ थी । देवराज चौहान की निगाह पहले उस पर नहीं पडी थी। कई क्षण वह उसकी पीठ को देखता रहा ।



"कौन है वह?"



"तारासिंह ।। पिताजी का खास आदमी । तुम्हें जो भी बात करनी हो, उइससे कर लो ।"



तभी खिडकी पर खडा तारासिह पलटा । उसकी निगाहें देवराज चौहान पर जा टिकीं ।


तारासिह पचास-पचपन की उम्र का-दरमाने कद का, सेहतमंद व्यक्ति था । वदन पर कीमती सूट पहन था ।

देखने में वह कोई धन्ना सेठ लगता था I परन्तु उसकी आंखें चुगली कर जाती थीं I उसकी आंखों से क्रूरता की ऐसी झलक मिलती थी, कि जेसे जन्मपत्री से किसी इन्सान के बारे में मालूम हो जाना I उनकी आंखों में झांकते ही देवराज चौहान सतर्क हो उठा ।



समझने में उसे एक पल की भी देर न लगी कि सामने खडा इन्सान खेला खाया और खतरनाक है ।।


चन्द्रप्रकाश दिवाकर का ऐसे ईन्सान को बात करने कै लिए भेजना उसकी समझ मेँ नहीं आया । दिवाकर मामला बढाना चाहता है या निपटाना?


तारासिह हौंले हौले चलता हुआ उसके पास आया और मुस्कराकर बोला… ~"मुझे तारासिंह कहते हैं । तुम शायद देवराज चौहान हो I"



“शायद नहीं, पक्का देवराज चौहान हूं।" देवराज चौहान ने सपाट लहजे में कहा I



"मुझे चन्द्रप्रकाश दिवाकर ने तुमसे बात करने के लिए भेजा हैं I” तारासिह ने कहा ।



"मेंरे पास इतना समय नहीं है कि तरह तरह कै लोगों से बात करता......!”



"मै तरह-तरह मेँ नहीं आता l" तारासिंह उसकी बात काटकर मुस्कराया-"दरअसल मैंने ही फैसला करना हैं कि तुम जो कह रहे हो, सही कह रहे हो I तुम्हें रकम दी जाये कि नहीं I”


"पुलिस को किया गया मेरा एक फोन मेरी बात की सच्चाई साबित कर देगा I दिल्ली में जिस इन्सपेक्टर ने इन तीनों को गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया था । वह आजकल विशालगढ़ में माल रोड के थाने में तैनात है । मैं इन्सपेक्टर सूरजभान कीं बात कर रहा हू । इत्तफाक से आज सुबह मेरी उससे मुलाकात हुई थी I” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा-“अपनी बात को साबित करने कै लिए मै फालतू के किसी बन्दे से बात नहीँ करना चाहता । कल तक रकम यहां पहुच जानी चाहिए; नहीं तो यह तीनों सदा के लिए जेल में होंगें I"



"तुम तो खत्मखाह ही क्रोध किये जा रहे हो। मैं तुमसे बात करना चाहता हूं l” तारासिहे सिर और हाथ हिलाकर कह उठा----"पैसा मे अपने साथ लाया हूं। लेकिन देने से पहले तसल्ली तो कर लू कि तुम जो भी कह रहे हो, सहीं कह रहे हो? यूं ही हमे बेवकूफ नहीँ वना रहे?"

"पैसा लाये हो?" देवराज चौहान की आंखें सिकुडी ।


“हा ।”


"कितना ।"


"एक मुश्त ।"


"पूरा करोड है?”


"हां ।” तारासिंह ने सिर हिलाया-"चंद्रप्रकाश दिवाकर अपने बेटे पर किसी भी प्रकार की आंच आते नहीं देखना चाहता । वेसे भी करोड रुपये की रकम अपने बेटे के आगे कोई अहमियत नहीं रखती I"



"पैसा कहाँ है?"


" ऊमर क्यो में'। आआं वहीं चलते हैं ! बाकी बात वहीँ करेंगे ! बच्चों के सामने मैं ज्यादा बात करना भी नहीं चाहता । वैसे तुम्हें इस बात का विश्यास दिलाना होगा कि पैसा लेने के बाद भी अपना मुंह बन्द रखोगे। आओ ।" कहने के साथ ही तारासिंह ने तीनों से कहा-"'हम ऊपर कमरे र्में हैँ, जब तक बुलाया ना जाये, कोई भी हमें डिस्टर्ब न करे ।"



इसके बाद तारासिह देवराज चौहान के साथ वहां से चला गया ।


देवराज चौहान ने चलने में कोई आनाकानी नहीं की । जो ऐसे मामलों में पैसे देगा वह अपनी तसल्ली तो करना ही चाहेगा l



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Re: वारदात

Post by 007 »

दोनों कमरे में जा बैठे I दरवाजा बन्द कर लिया । दोनों ने सिगरेट सुलगाई ।


"सबसे पहले तो यह बताओं कि जिस जानकारी की तुम कीमत मांग रहे हो, उसे तुम्हारे सिवाय और कौन-कौन जानता है? यानी कि कुल मिलाकर तुम कितने आदमी हो जो यह सब जानते हैं?" तारासिंह ने शांत भाव में पूछा l उसकी कटुताभरी निगाह देवराज चौहान कं चेहरे पर घूम रही थी ।



.बाकीं तो सब ठीक था परन्तु तारासिंह की आंखों में जो भाव थे वह देवराज चौहान को शुरू से ही ठीक नहीं लग रहे थे ।


कोई बात उसे चुभ रही थी । वह क्या बात थी, खुद उसकी समझ में नहीं आ रहा था।



"यहां मुझे तुम्हारा लाया पैसा नजर नहीँ आ रहा ।” देवराज चौहान बोला ।



“वहम में मत पडो ।" तारासिह गम्भीर स्वर में कह उठा "पैसा यहीं है, लेकिन जब तक मुझे मेरे प्रश्नों का सही ज़वाब नहीं मिल जाता, तब तक मैं न तो पैसा तुम्हें दिखाऊगां , न ही तुम्हारे हवाले करूंगा । मेरी तसल्ली होते ही करोड की पूरी दौलत तुम्हारे पास पडी होगी । यह कोई छोटी रकम नहीं है जो तुम्हारी जेबी में भर र्दू।"



देवराज चौहान समझ गया कि सामने बैठा इन्सान बहुत ही घिसा हुआ हे ।



"जवाब दो मेरी बात का । यह बात और कौन-कौन जानता है कि... ?"



"कोई नहीं जानता ।" देवराज चौहान ने सपाट लहजे में जवाब दिया ।



"अकेले हो?" तारासिंदृ की आंखों में अजीब से भाव उभर आये ।



“हां । पैं अकेले ही काम करता हूं।” देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका ।



"फिर तो बहुत बहादुर हो I" तारासिंह एकाएक खुलकर हंसा------"ऐसे काम अकेले करते हुए तम्हें डर नहीं लगता कि काई तुम्हारा गला काट देगा । खास तौर पर तब जब तुम किसी से वसूली करने जाओ । जैसे कि अब यहां पर आये हुए हो । अकेले l बाहर तुम्हारा कोई साथी भी नहीं मौजूद ।।"



"मेरा साथी बाहर नहीं भीतर है ।"



“क्या मतलब ?" तारासिंह कै माथे पर बल उभर आए ।।



अगले ही पल देवराज चौहान कें हाथ में रिवॉल्वर चमकी लगी । देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो चुका था । आंखों में जहान भर की सख्ती सिमट आई थी, होंठ भिंच चुके थे ।

तारासिंह फौरन सतर्क हो गया l



"यह क्या कर रहे हो ? रिवॉल्वर जेब में रखो ।" तारासिंह ने हाथ हिलाकर कहा ।



“अब कुछ मैं कहू?” देवराज चौहान कै होंठों से गुर्राहट निकली l


"कहो ।" रिवॉल्वर देखकर तारासिंह कुछ खास चतित नहीं हुआ था I
"अब तक जो बातें तमने की हैं ,उससे स्पष्ट झलकता हैं कि तुम जो भी कह रहे हो, वकबास कर रहे हो, तम दिल्ली से
से अपने साथ कोई पैसा नहीं लाये I" देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर बोला !



"तुम्हारा ख्याल गलत भी हो सकता हैं ।" तारासिंह कीं आंखें सिकुड गयीं ।



"मेरा ख्याल सही हे । इससे वडी और क्या बात कहूंकि अगर तुम मुझे पैसे झलक दिखा दो तो सारी दौलत तुम्हारे हवाले करके चला जाऊंगा । दोबारा कभी पीछे मुडकर भी नहीं देखूंगा ।"


त्तारासिंह ने होंठ भोंच लिये I


"मेरा नाम देवराज चौहान है । मेरा गला काटना इतना आसान नहीं जितना कि तुमने सोच लिया था…बल्कि यह काम तो मुझे करना अच्छा लगता हे ।" देवराज चौहान ने उसकी आखों में झांका+--“मेरे हाथ में नजर आ रहीँ रिवॉल्वर का ख्याल हर दम अपने दिमाग में रखना l कोई गलत हरकत मत कर बैठना । साथ ही मुझें इस बात का जबाव दो कि तुम अब मेरे साथ क्या करने वाले थे?”

“कुछ खास करने का इरादा नहीं था मेरा ।" तारासिंह ने हाथ हिलाया ।



"ओर वह बे--खास इरादा क्या था?"


“बाह! !" एकाएक तारासिंह हंसा-“तुम तो मेरे ऊपर हावी होने की चेष्टा कर रहे हो l”



"जो मैंने पूछा है, मुझे सिर्फ उसका जवाब दो ।" देवराज चौहान गुर्राया ।



उसी पल देवराज चौहान को अपनी गर्दन पर ठण्डे लोहे का आभास मिला । उसके जिस्म को तीव्र झटका लगा, वह सीधा होकर बैठ गया । होंठ र्भिच गये । आंखों में वहशीपन आगया । उसने एक बार भी पीछे मुडकर देखने की चेष्टा नहीं की । वह समझ चुका था कि गर्दन पर रिवॉल्वर लग चुकी हे ।


तारासिह कै होंठों के बीच क्रुरताभरी मुस्कान नाच रही थी I


"तुम पूछ रहे थे कि मैंने तुम्हरि साथ क्या करना था ।" तारार्सिंह हंसा ।


देवराज चौहान उसी मुद्रा में बैठा उसे देखता रहा I



“तुम्हारे सबाल का जबाब अभी तुम्हें खुद- ब -खुद ही मिल जायेगा l" पूर्ववत: लहजे में कहते हूए त्तारामिह अपना जगह से उठा और आगे बढकर देवराज चौहान कै हाथ से रिवॉल्वर ले ली ।


" तुम ।" देवराज चौहान ने सर्द लहजे मैं कहा-"वहुत महंगा सौदा कर रहे हो तारासिंह ।”



… “यह तो अच्छी बात है । क्योंकि सस्ते सौदे का तो मुझे कभी शौक भी नहीं रहा ।" कहकर वह इंसा । देवराज चौहान ने सिर धुमाका पीछे देखा तो चेहरा मौत कै भार्वो-से भरता चला गया ।


पीछे तीन आदमी खड़े थे । एक की रिवॉल्वर उसकी गर्दन से सटी थी । अन्य दो, रिवाॅल्बरों को थामे वेहद सावधानी से उसे निशाना बनाए खड़े थे । तीनों के चेहरों पर खतरनाक भाव छाए हुए थे ।


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राजीव मल्होत्रा पोर्च में खडी कार 'में बैठा तो ड्राइवर दरबाजा वन्द करके ड्राइविंग सीट पर बैठने कै पश्चात् कार स्टार्ट करते हुए बोला ।


"कहा चलना हे मालिक ।"



"शंकर रोड । साईमन के कैफे ।" ड्राइवर ने कार बंगले से बाहर निकाली और सडक पर ले आया । "



राजीव मल्होत्रा पिछली सीट पर बैठा खिडकी से बाहर कै नजारे देख रहा था और सोचने लगा कि वह कहां से कहाँ आ पहुंचा ।



सीथा-सादा शरीफ इन्सान एक गलत काम क्या किया की दलदल मे धंसत्ता ही चला गया । बाहर निकलने का जरा मौका नहीं मिला उसे



आज रंजीत श्रीवास्तव के रुप में उसका पहला दिन था । अभी छ: महीने और उसे इसी रूप में बिताने थे ।



इस दरम्यान जाने कितने मोड, कितने खतरे बीच में आने थे । एकाएक उसका ध्यान नकाबपोश की तरफ अटक गया कि कौन है वह?



जाहिर है देवराज चौहान का साथी होगा । परन्तु एक बात उसे चुभ रही थी कि जब तक नकाबपोश उसके पास रहा l देवराज चौहान वहां नहीँ आया । अब देवराज चौहान आया तो नकाबपोश का आना बन्द हो गया ।


जाने क्यों उसे लग रहा या कि नकाबपोश और देवराज चौहान एक ही शख्स हे ।



अगर दो होते तो आज रंजीत श्रीवास्तव को इस वक्त देवराज चौहान अकेला बांधकर नहीं आता-बल्कि वहां पर पहरेदारी के तौर पर नकाबपोश मौजूद हाता ।



आप समझ गये होंगे नाकाबपोश कौन । मै जान गई ।

राजीव मल्होत्रा का दिमाग इन्हीं तानो-बानों में लगा हुआ था । तभी कार लाल बत्ती पर रुकी । व्यस्ततम चौराहा था । राजीव की बिचारतन्द्रा टूटी ।



उसी पल कार का दरवाजा खुला और डॉक्टर बैनर्जी ने कार में प्रवेश किया । उसकी दाढी बढी हुई थी ।



परन्तु वह नहाया धोया अच्छे कपडे पहने था । भीतर प्रवेश करते ही जेब से रिवॉल्वर निकलकर के हाथ में आयी और राजीव मल्होत्रा के वदन से जा सटी ।


साथ हीं वह गुर्राया । "हिलना मत कुत्ते की औलाद ।'" राजीव मल्होत्रा ठगा सा रह गया । कई पलो तक वह कुछ भी ना समझा I



“कार ते नीचे उतरो! बैनर्जी पुन: गुर्राया-“सीधी तरह शराफत के साथ । किसी वहम में मत रहना । आर तुमने किसी प्रकार की कोई चालाकी करने की कोशिश की तो सारी गोलियां तेरे शरीर में उतार दूगा।"



"क कौन हो तुम?" राजीव मल्होत्रा कै होंठों से हक्का ~ बक्का-सा स्वर निकला ।



"साले-हरामी ! मेरा परिचय पूछता हे । उतर नीचे ।" बैनर्जी ने रिवॉल्वर की नाल उसकी कमर मे घूसेड़ दी-“याद रख, कार से बाहर निकलते ही रिवॉल्वर मैँ जेब में अवश्य डाल लूगा, परन्तु जरूरत पड़ने पर आधे सेकण्ड में ही बाहर निकाल लूंगा l बहुत दिनों से में इस मौके की तलाश में था कि तू मुझे कहीँ अकेला मिले I आज का सुनहरी मौका में किसी कीमत पर नहीं गंवाऊंगा । जो मैँ कहता हूं खामोशी से वही करता जा, वरना तेरी लाश यहीँ इस कार मे अभी छोडकर जाऊंगा ।" कहने के साथ हीँ बैनर्जी ने भयभीत बैठे ड्राइवर से कहा-"कार को लाल बत्ती पार करके साईड में रोक लेना । तेरा मालिक सिर्फ पांच मिनट में वापस आ जाएगा अगर यह मेरी बात मानता रहा ।" डॉक्टर बैनर्जी कै दृढ निश्चय से भरे खतरनाक भावों को देखकर राजीव मल्होत्रा कुछ भी पूछने का हौंसला ना कर सका । वह डॉक्टर बैनर्जी कै साथ कार से नीचे उतरा । उसी समय हरी बत्ती हो गई । वाहन आगे बढने लगे । बैनर्जी उसके साथ फुटपाथ पर आया I राजीव के प्रति वह बेहद सावधान था । उसे लेकर वह पास ही में खडी कार तक पहुचा ।

कार के भीतर असली रंजीत श्रीवास्तव अपने असली चेहरे कै साथ मौजूद था ।



“तुम जाओ । चौराहे कै पार वह कार खडी है । निश्चित रहना । अब कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड सकेगा I मुझे हर समय अपने करीब समझना ।" कहने के साथ ही बैनर्जी कार
का अगला दरवाजा खोला और राजीव को भीतर धकेलकर खुद भी भीतर बैठ गया ।

रंजीत श्रीवास्तव ड्राईविंग सीट पर मौजूद था ।उसने अपने हमशक्ल को देखा उधर राजीव मल्होत्रा ने अपने हमशक्ल को ।



"अशोक ।।" रंजीत श्रीवास्तव ने भारी स्वर में कहा-"मुझे तुमसे इतने ज्यादा कमीनेपन की उम्मीद नहीं थी । मैं तुम्हें आधी जायदाद देने को तैयार था, लेकिन तुमने मेरी बात नहीं मानी l लालच तुम्हारे सिर पर चढकर बोल रहा था । अब देखा लालच का नतीजा ।'" राजीव मल्होत्रा ने गहरी सांस ली और गम्भीर स्वर में बोला l
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Re: वारदात

Post by 007 »

"मैं नहीं जानता, तुम अशोक किसे कह रहे हो । बहरहाल मैं अशोक नहीं हूं । मेरा नाम राजीव है । राजीव मल्होत्रा । अगर मुझे 'मालूम होता कि देवराज चौहान तुम्हें सम्भाल नहीं पाएगा तो मै कभी भी इस काम को हाथ में नहीं लेता । तुम्हारी जगह कभी ना लेता l'


“देवराज चौहान?" रंजीत श्रीवास्तव के माथे पर वल पड़ गए-"यह कौन है? तुम क्या कह रहे हो?"



"देवराज चौहान वही है, जिसकी कैद से तुम निकल भागे आ रहे हो ।"



"मैं-मै तो किसी की कैद में नहीं था I” रंजीत श्रीबास्त के होंठों से निकला ।



राजीव मल्होत्रा के कहने से पहले ही डॉक्टर बैनर्जी गुर्राकर कह उठा ।



"तुम जाओ रंजीत I चौराहे कै पार खडी अपनीं कार में जाओ । जैसा मैँने समझाया है, वैसा ही करना । सब ठीक हो जायेगा । यह अब कभी भी तुम्हें तंग नहीं कर सकेगा I इसका तो में वह हाल करूंगा । कि यह ना जिंदो में रहेगा ना मरों मे I इससे तो अभी मुझें वहुत हिसाब चुकता करने हैं ।"



रंजीत श्रीवास्तव बिना कुछ कहे नीचे उतरा और पैदल ही आगे वढ़ गया ।

" 'चलो ।" डॉक्टर बैनर्जी राजीव मल्होत्रा पर गुर्राया-“ड्राइविंग सीट संभालो ।"


राजीव ने खामोशी से ड्राइविंग सीट सम्भाल ली ।


"कार स्टार्ट करके आगे बढाओ ।"’ कहने कै साथ ही डॉक्टर बैनर्जी ने रिवॉल्वर कमर से लगा दी…“एक दिन तुम मेरे कन्धे पर बन्दूक रखकर ही बाजीं जीते थे अशोक और आज तुम्हें हराने के लिए भी मेरा कंधा आया हे । कार आगे बढा ~ मेरा मुंह मत देख । बातें करने के लिए हमारे पास अब वक्त ही वक्त होगा । बहुत बाते करेंगें हम ।” बैनर्जी कढ़वे स्वर में कुह उठा।



राजीव मल्होत्रा ने कार आगे बढा दी । उसके दिमाग में उथल-पुथल मच चुकी थी । वह रंजीत श्रीवास्तव और डाँक्टर बैनर्जी की बातें और व्यवहार को समझने की चेष्टा कर रहा था
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रंजीत श्रीवास्तव ने कार का दरवाजा खोला और भीतर बैउठते ही बोला । "चलो l ” ड्राइवर ने अपने मालिक को सही सलेमत देखकर चैन की सांस ली । उसने कार आगे बढा दी । अगले ही पल उसके होंठों से निकला ।




“मालिक ।। आपके कपडे? आपने तो. दूसरे कपडे पहने हुए थे?"



ड्राइवर को बात सुनकर रंजीत श्रीवास्तव मुस्कराकर बोला ।



“जो मुझे ले गया था उसने मेरे कपड़े उत्तार लिए और यह पहनाकर वापस भेज दिया ।"



"हैरानी है मालिक । वह पागल तो नहीं था?" ड्राइवर वास्तव में `हैरान हो उठा था ।


"शायद । मुझे तो वह पागल ही लगा था ।" रंजीत बोला---" कहा जा रहे थे ?"



"शकर रोड पर आपने साईमन के कैफे चलने को कहा था ।" ड्राइवर बोला ।


“वापस बंगले पर चलो । अब मेस कही भी जाने का मन नहीं है ।” रंजीत ने कहा ।


“जो हुक्म मालिक ।" ड्राइवर ने फौरन सिर हिलाकर क्रहा ।


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देवराज चौहान ने क्रुरता भरी निगाहों से तारासिंह को देखा । देवराज चौहान कै हाथ पीछे की तरफ बंधे हुए थे । पिछले तीन घण्टों से वह इसी मुद्रा में पड़ा था । शाम हो रहीँ थी ।


वह चल फिर सकता था परन्तु कमरे से बाहर नहीं निकल सक्ता था, क्योंकि वह तीनों खतरनाक आदमी कमरे में ही डटे रहे थे l इन तीन घण्टों कै दरम्यान न तो वह तीनों कुछ बोले थे और ना ही देवराज चौहान ने कहा था । अलबत्ता खा जाने वाली निगाहों से एक-दूसरे को देखते रहे थे I



फिर शाम होने पर तारासिंह वहां पहुचा ।


देवराज चौहान क्रो बेबस देखंकर वह हंसा ।



"माफ करना । खाना खाने के बाद जरा आंख लग गई थी । अब खुली तो सीधा चला आया ।"



"तुम्हारी आंख तो मैं ऐसी बन्द करूंगा कि फिर कभी नहीं खुलेगी I" देवराज चौहान गुर्राया ।



"सपने देखना छोडो। तुम नहीं जानते अब तुम्हारा क्या हाल होने जा रहा है I" '



"तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड सकते I”



"बहुत हौंसला हे तुममें I" तारासिंइ ने उसकी आंखों में झाका ।



"बहुत ही ज्यादा । तुम जैसे ना जाने कितने आये और कितने चले गए I”



"उन आने वालों में तारासिंह नहीं होगा बेटे ।" त्तारासिह कटुता से कह उठा ।



“कई तारासिंह थे उनमें I" देवराज चौहान ने होंठ भीचकर कहा ।



तारासिंह हंसा फिर आदत के मुताबिक हाथ को हवा में हिलाकर कह उठा ।



‘ "छोडो इन बातों को । बाद में करेगे I मैं फिर तुमसे वही पूछता हू जो दिन में पूछा था । जिस बिनाह पर तुम दौलत ही डिमान्ड कर रहे ये, उस बात को सिर्फ तुम ही जानते हो I और कोई नहीं जानता?"



"तुम क्या समझते हो अपनी जान बचाने की खातिर में अपनी बात से पीछे हट जाऊंगा?"

"इसका मतलब इस बात के राजदार तुम अकेले ही हो !!" तारासिह ने सिर हिलाया ।



"हा I "



“तुम्हारा कोई साथी नहीं?"



“नहीं । मेरा ऐसा कोई साथी नहीं, जो बाहर खडा हो और मेरे बाहर आने का इन्तजार कर रहा हो I”



" गुड !" त्तारासिंह ने सिर हिलाया-"अगर तुम मर जाओ तो?"



" तो यह बात हमेशा के लिए यहीँ पर ही खत्म हो जायेगी ।" एकाएक देवराज चौहान हंसा कड़वी हंसी ।।



तारासिंह ने देवराज चौहान की आखो में झाका फिर हाथ हिलाकर बोला ।



"मुझे हेरानी है कि तुम अपनी मौत से भी नहीं डर रहे ।”



"मेरी मौत आईं ही कहां हे जो मैँ डरू । वेसे भी देवराज चौहान ने कभी डरना नहीं सीखा ।"



तारासिंह ने वहां मौजूद तीनों आदमियों को देखा ।



“सुना , तुम लोगों ने । अच्छी तरह सुन लिया होगा कि यह कहता इसको मौत नहीं आई और यह कभी डरता भी नहीं हे । ऐसे बहादुर लोगों को तो इस धरती पर रहना ही नहीँ चाहिए, जो डरते ना हों I”



" हुक्म मालिक !" एक ने खतरनाक लहजे में कहा ।



"आज रात इसे डरा दो ।" तारासिंह ने सर्द लहजे में कहा ।



"'जो हुक्म। "



"इसे बता दो क्रि मौत क्या होती है और लोग उससे क्यों डरते हैं ।" तारासिंह गुरांया ।



“ठीक है मालिक !"


“दिन का उजाला निकलने से पहले ही इसकी लाश शहर कै किसी चौराहे पर फेंक देना और एक कागज पर यह लिखकर इसकी छाती से चिपका देना कि यह मौत से नहीं डरता था, . लेकिन जव मौत आई तो यह रोया-त्तड़पा, हाथ जोडकर गिड़गिड़ाया परन्तु मौत ने इसे फिर भी नहीं बख्शा ।"



“रोने -गिड़गिड़ाने वाली बात तुम कैसे कह सकते हो तारासिंह I" देवराज चौहान ने व्यग्यभरे स्वर में कहा ।



“इसलिए कि ऐसा होगा: जब तुम मरोगे तो तडपोगे भी . अवश्य ।"


"तुम्हें वंहम हे । मैं नहीं मरने वाला !"



तारासिंह हसा । ठहाका मारकर हंस पड़ा ।


पहली बार इतनी जोर से हसा था वह ।

"बेटे !" तारासिंह ने अपनी हंसी रोककर, देवराज चौहान को देखा…"मैं तुम्हें इस बात का बिश्वास दिलाकर कि तुम मरने जा रहे हो तभी मारूगा । जब तुमं खुद कहोगे कि मुझे मत मारो । तुमने बहुत बडी गलती यह कर दी किं खतरनाक खेल अकेले खेलते हो ।अगर तुम्हारे दो-चार साथी होते उन्हें भी इस मामले . की सारी जानकारी होती वह बंगले कै बाहर खड्रे तुम्हारी वापसी की राह देख रहे होते तो शायद मैं कुछ सोचता । तुमसे सौदेबाजी करके रकम कम करवाता । लेकिन तुम तो हो ही अकेले । इसीलिए तुम्हारा पत्ता तो मैं ही साफ कर दूंगा ।" '


देवराज चौहान मुस्कराता हुआ तारासिंह को देखता रहां । बोला कुछ भी नहीं ।


तारासिंह ने अपने आदमियों को… देखा ।।



"रात को इसको भरपेट खाना खिलाना i भूखे पेट मैं इसकी जान लेकर, इसकी आत्मा को भटकाना नहीं चाहता-ओर खाना खिलाते समय इसके हाथ मत खोलना अपने हाथों से इसे खाना खिलाना । "



"ऐसा ही होगा मालिक ।"




"रात को हमारी आखिरी मुलाकात होगी देवराज चौहान तब तक के लिए बिदा ।" त्तारासिंह ने अपना हाथ हवा मे लहराया और पलटकर कमरे से बाहर निकल गया ।



देवराज चौहान ने तारासिंह कै जाने के बादं तीनों पर तसल्ली भरी निगाह मारी फिर आगे बढकर कुर्सी पर जा बैठा और बोला



"सिगरेट तो पिला दो !"



एक ने सिगरेट सुलगाकर देवराज चौहान के होंठों में र्फसा दी ।



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Re: वारदात

Post by 007 »

महादेव क्रो पूरी आशा थी कि देवराज चौहान उससे मिलने वगले में आयेगा । अपने बंगले में पहुंचकर वह देवराज चौहान का इन्तजार करने लगा । तव दिन के दो बजे थे-ओर दो कै छ: बज गये, देवराज चौहान बगले से बाहर नहीं निकला था ।

टैक्सी से आया होता तो जुदा बात थी परन्तु वह कार से आया था और उसकी कार बंगले के बाहर बैसी की बैसी ही खडी थी ।




इतनी देर देवराज चौहान को भीतर नहीं लगनी चाहिए l महादेव के मस्तिष्क में बार-बार यहीँ बात आ रही थी । साथ ही उस आदमी का चेहरा घूम रहा था, जो उन तीनों के सिवाय वहां पर मौजूद था । वह आदमी उसे सिरे से ही ठीक नहीं लगा था । महादेव के मन से आवाज आने लगी, हो ना हो देवराज चौहान के साथ भीतर अवश्य कुछ गड़बड़ हुईं है ।




बहुत सोचने के पश्चात् महादेव बंगले से बाहर निकला और दिवाकर बांले बंगले के बाहर खडी देवराज चौहान की कार के करीब पहुचा ।


पिछली सीट पर सूटकेस मौजूद था i कार के दरवाजे उसने खोलने चाहे तो वह लॉक थे ।


महादेव ने जेब से पतली-सी तार निकालकर कार का दरवाजा खोला और भीतर बैठकर कार स्टार्ट करके आगे बढाई और अपने वाले बंगले के सामने रोककर इन्तजार करने लगा । कार को अपनी जगह से हिलाने के पश्चात् भी बंगले से कोई भी बाहर नहीं निकला था । अब महादेव को विश्वास हो गया कि भीतर देवराज चौहान सही नहीं हे । उसके साथ कुछ हुआ है…ओर वह ठीक नहीं हुआ । इस पर भी महादेव का विश्वास डोल जाता कि हो सकता हे, वह गलत सोच रहा हो । देवराज चौहान बंगले के भीतर दोस्तों में वेठा व्हिस्की उडा रहा हो ।



तभी उसे पिछली सीट पर पड़े सूटकेस का ध्यान आया । उसने सूटकेस चेक किया । वह लॉक था । तार के दम पर उसने लाक हटाया और सूटकेस खोलकर देखा । अगले ही पल उसकी आंखें फ़ट गई । वह नोटों की गड्डियों से ठसाठस भरा पडा था ।



उसने फौरन सूटकेस बन्द किया और सूटकेस सहित कार से उतरकर अपने बंगले में प्रवेश कर गया । अपने कमरे में पहुंचा और सूटकेस एक तरफ़ रखकंर सिगरेट सुलगाकर क्रश लेने लगा । रह-रह कर उसकी निगाह नोटों से भरे सूटकेस पर जा टिकती ।



वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे ?



इतने माल को सड़क पर छोडकर देवराज चौहान दिन-भर बंगले में तो बैठा रह नहीं सकता था । जाहिर हे कि बंगले के भीतर उसके साथ कुछ ऐसा हुआ है कि वह बाहर नहीं आ सका

और बंगले वालों को बाहर खडी उसकी कार का ध्यान नहीं रहा होगा, वरना कार तो वह कब की हटा देते ।



इस बीच महादेव ने कई बार सूटकैस को खोलकर उसमे पडी दौलत को निहारा ।




दौलत का लालच भी उसकै दिमाग पर हावी था l इतनी दौलत एक साथ अपने कब्जे में उसने पहले कभी नहीं देखी थी l मन तो कर रहा था कि सूटकेस लेकर फौरन फूट ले । दूसरी तरफ़ देवराज चौहान कं बारे मेँ जानने की जिज्ञासा भी मन में थी कि वह बंगले से बाहर क्यों नहीँ निकला? वह किस फेर मेँ था और उसके साथ क्या हुआ है?



काफी सोच-दिचार कै पश्चात् उसने सूटकेस को उठाकर बार्डरोब मेँ बन्द किया और चाबी जेब में डाल ली । घडी में समय देखा I आठ बज चुके थे ।



महादेव इस बात का फैसला कर चुका था कि देवराज चौहान पर गुजरे हादसे के बारे में जानने के पश्चात् वह यहां से दौलत के साथ फूट लेगा । कुछ ओर रात्त होने पर वह दिवाकर वाले बंगले में घुसकर देवराज चौहान के बारे में जानने का फैसला कर चुका था ।


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राजीव मल्होत्रा कै होंठों से कराह निकली और उसने आंखें खोल दी । परन्तु सिर मेँ हो रही पीड़ा कै कारण वह ठीक से आंखें ना खोल पाया । कई पलों की चेष्टा के पश्चात् वह पूरी तरह आंखें खोलने में कामयाब हुआ । खुद को उसने कुर्सी पर वंघे पाया ।



सामने ही डॉक्टर बैनर्जी कमर पर हाथ रखै कहरभरी निगाहों से उसे देख रहा था ।



डॉक्टर वैनर्जी रिवॉल्वर कै दम पर उससे कार ड्राइव करवाकर साधारण-से मकान में ले आया था और मकान में प्रवेश करते ही बैनर्जी ने रिवॉल्वर कै दस्ते की तगडी चोटें उसकै सिर पर कीं तो वह बेहोश हो गया था । अब जब होश आया तो खुद को इस स्थिति में पाया ।



“यह है तुम्हारी असली जगह l” डॉवटर बैनर्जी ने खतरनाक लहजे में कहा-“तुम यहीँ समझते रहे कि ऊंट कभी पहाड के नीचे नहीं आ सकता । आज़ आये हो ना पहाड के नीचे I"



"आप पहाड हो सकते हो लेकिन मै ऊंट नही ।"



“ बहुत खूब ।। अब तुम मुझे आप कह रहै हो --- जब मै तुम्हारी कैद मे था -- तब ....?"
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Re: वारदात

Post by 007 »

“कैद में-भला आप मेरी कैद में कव थे? मैंने तो आपको आज पहली बार देखा हे ।"

"हरामजादा । कुत्ता । " डॉक्टर बैनर्जी ने दांत पीसकर कहा… "बातें तो ऐसे कर रहा है , जेसे इससे शरीफ़ कोई दूसरा हो ही नहीं । जैसे मैं तेरा बुजुर्ग होऊ । दो साल तूने मुझे कैद में रखा था कमीने । उन सालों का हिसाब लूंगा, एकएक पल का हिसाब लूंगा। तू तो यही समझता रहा कि बाजीं हमेशा तेरे ही हाथ में रहेगी कभी पलटेगी ही नहीं । अब देख ले । तेरे हाथ की रेखाआं को मैंने पलट कर रख दिया है ।"



राजीव मल्होत्रा की समझ में कुछ न आया ।


"अब तुझे मे तब तक कैद में रखूंगा जब तक कि तुझे रख सकूंगा और जवं तक तू शराफत से रहना पसन्द करेगा । फिर बाद में तुझे गोली से उडा दूंगा, तेरे जेसे नाग को सम्भालना मुझे अच्छी तरह आता हे । मैँ रंजीत श्रीवास्तव नहीँ जो ~ डरकर-दुबककर बैठ जाऊंगा-मैँ तो..... ।"




' "साहब! " आखिर राजीव मल्होत्रा कह ही उठा-"आप जो कुछ भी कह रहे हैं, मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा ! परन्तु इतना स्पष्ट जाहिर हे कि आप किसी भारी गलतफहमी , कै शिकार हैं । अगर मेरा क्रोई कसूर हे भी तो वह इतना नहीं कि आप मुझे इतनी बडी बडी बातें सुनाने लगें ।"



“तेरा कोई कसूर नहीं?"



"खास नहीँ ।"


“उल्लू कै पट्टे! मुझसे अपना चेहरा बदलवाकर तूने रंजीत का हक छींना । मुझे कैद में डाल दिया । तु तो रंजीत को ही खत्म कर देना चाहता था, लेकिन मेरे बन्द मुँह ने उसे बचा लिया । अशोक श्रीवास्तव साहब, पैं चाहता तो पुलिस को ख़बर करके तेरे को कई सालों के लिए जेल में ठुंसवा सकता था । परन्तु मैंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि तुझे पै अपने हाथों से सजा देना चाहता था और आज वह वक्त आ पहुचा है ।”



राजीव मल्होत्रा की आंखें सिकुड गई ।



“मैंने आपसे अपना चेहरा बदलवाया?"



"हा । मुझे धोखे में रखकर रजीत की शक्ल की प्लास्टिक सर्जरी करवा ली थी तुमने । काश मुझें उस वक्त मालूम होता कि तुम्हारे मन में क्या है,तो में तुम्हारी बात कभी भी नहीं मानेता ।"

"मैंने आपको दो साल कैद में डाला?"



" कुता !" बैनर्जी ने नफरतभरी निगाहों से उसे देखा ।


“मेरा नाम अशोक श्रीवास्तव है?"


“तो क्या अब तुम्हारा नाम भी मुझे बताना पड़ेगा या रंजीत कें रूप में रहते-रहते अपना नाम भी भूल गए हो ।"


"इसका मतलब मैं रंजीत श्रीवास्तब का कोई रिश्तेदार हूं। क्योंकि मैँ भी श्रीवास्तव हूं।" .



"उसर्के चचेरे भाई हो तुम?" 'डॉक्टर बैनर्जी कै स्वर में असमंजसता का भाव उभर आया ।



"आपकी बातों से मैंने जो निष्कर्ष निकाला वह इस प्रकार है कि मैँ अशोक श्रीवास्तव हूं । रंजीत श्रीवास्तव का चचेरा भाई! मैंने आपसे अपने चेहरे पर प्लास्टिक सर्जरी करवाकर अपना चेहरा रंजीत जेसा बनवाया और रंजीत बन बैठा । इस ब्रीच में रंजीत को जान से मार देना चाहता था जोकि आपको पता था कि वह कहां है । आपने मुझे रंजीत कं बारे'में नहीं बताया । दो साल आप मेरौ कैद में रहे । अब किसी प्रकार कैद से आजाद हो गए । फिर आपने मुझे अशोक श्रीवास्तव समझकर आज मुझ पर काबू पाया और असली रंजीत श्रीवास्तव को वापस उसकी जगह भेज दिया हे । यही हे ना-सारी बात?"



"इस बात को तुम नहीं जानोगें तो और कौन जानेगा ।।" बैनर्जी ने कड़े स्वर में कहा-"दो साल तुम्हारी कठोर कैद में रहने के पश्चात् मैं शरीफांना ढंग भूल चुका हू। कैद मेँ जितनी तकलीफें तुमने मुझें दीं, उससे कहीं ज्यादा मै अब तुम्हारा बुरा डाल करूंगा कुत्ते! तुझे तो… ।"


"आपका शुभ नाम क्या है?"



" ओह ।।" बैनर्जी की आवाज में जहरीलापन भर आया-"तेरा कोई नाटक-कोई ड्रामा मेरे सामने नहीं चलने वाला । डॉक्टर बैनर्जी अब पहले जैसा भीतर-बाला इंसान नहीं रहा कि तुम्हारी बातों में आ जायेगा ।"



"डॉक्टर बैनर्जी ।" राजीव मल्होत्रा बडबडा उठा ।



डॉक्टर बैनर्जी ने उसे घूरते हुए सिगरेट सुलगाई ।


राजीव मल्होत्रा जैसी बातें कर रहा था वैसी बातों ने उसे चक्कर में डाल दिया था ।


वह तो इस तरह से बातें कर रहा था. जैसे कुछ जानता ही ना हो और जेसे हर बात उसने अब जानी हो ।

" डॉक्टर बैनर्जी. . आप इसे समय बहुत बडे धोखे कै शिकार . हैं I" राजीव मल्होत्रा बोता ।

"बकबास मत कर, कुते मैं.....!"



"मेरी पूरी बात तो सुन लीजिए । उसके बाद आपने जो कहना-करना हो कर लीजिएगा, दरअसल आप जो मुझे समझ . रहे हैं, में बो नहीं । मैं अशोक श्रीवास्तव नहीं हू।" .



डाक्टर बैनर्जी के चेहरे पर जहरीले भाव फैलते चले गए I



“तुम अशोक श्रीवास्तव नहीं?"



"नहीँ । "


"तो फिर रंजीत श्रीवास्तव हो?"


"वह भी नहीं ।"



"ज़रा पैं भी तो सुनूं कि तुम हो कौन?"


"मेरा नाम राजीव मल्होत्रा हे i"


डाक्टर बैनर्जी कडवी हंसी हंस पड़ा ।


“तू क्या समझता हे मेरा दिमाग चल गया है जो पैं तेरी बातों में आ जाऊगा । दो साल मैं त्तेरी कैद में रहा हू तुझे तो में कभी भी नहीं भूल सकता । अब-अब तू भी हरदम मुझे याद रखेगा ।"


"मैँ साबित कर सकता हू कि मैं राजीव मल्होत्रा हू !"


डाँक्टर बैनर्जी की आंखें राजीव पर जा टिकीं ।

"क्या साबित कर सकता हे तू ?"


" यहीँ कि मै रंजीत या अशोक श्रीवास्तव नहीं हू।"



"साबित कर ।” डॉक्टर बैनर्जी के होंठ सख्ती से र्भिच गए--- " दरअसल मुझे कोई जल्दी नहीँ । मेरे पास बहुत वक्त है l फुर्सत है । मेरे पास सिर्फ एक ही काम है, तुझे ज्यादा से ज्यादा तकलीफ देनी और इस काम के लिए मेरे पास बहुत वक्त हे । बोल…सुना अपनी कहानी I” डॉक्टर बैनर्जी ने विषेले स्वर में कहा और आगे बढकर कुर्सी पर जा बैठा-"कितना मजा आ रहा है मुझे कि तुम अब मेरे रहमो-करम पर रहोगे ।"



"थोडी देर का मजा हे । ले लो । कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे मजे खराब होने वाले हैं ।" राजीव मल्होत्रा ने कहा फिर बोला सिर्फ एक बात का जवाब दे दो ।"



" बोलो । कुछ भी बोलो ।"


"अगर मैं रंजीत, अशोक श्रीवास्तव ना हुआ तो मेरा क्या करोगे?" .

"फालतू बात मत करो । जो भी बकना चाहते हो फौरन बकौ I" बैनर्जी गुर्राया ।



राजीव मल्होत्रा ने सिर हिलाया फिर कहा ।


“तुमने मेरे चेहरे पर प्लास्टिक सर्जरी की थी?"


"हां I ”



"प्लास्टिक सर्जरी को हटा सकत्ते हो । मेरा चेहरा साफ कर सकते हो?"



, . “क्यों नहीं । वह तो मैँ अभी करने ही वाला हू।"



"ठीक है । पहले मेरा चेहरा साफ करो । बाकी बातें हम फिर करेंगे डॉक्टर बेनर्जी !"



डॉक्टर बैनर्जी कईं पलो तक राजीव मल्होत्रा को देखता रहा। फिर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ !"

“सिर्फ आधे घण्टे में मैं तुम्हारे प्लास्टिक सर्जरी साफ करके तुम्हें तुम्हारे असली में ला दूंगा । तुम्हारा असली और कमीनगी से भरा चेहरा देखने का तो कब से मेरा मन कर रहा हे I"



राजीव मल्होत्रा के होंठों से गहरी सांस निकल गई ।


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