वारदात complete novel

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007
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Re: वारदात

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"कौन-सी. गाडी पकड़नी हैं मेम साहब?" एक कुली ने सूटकेस सिर पर रखते हुए पूछा।

दूसरा कुली भी सूटकेस सिर पर रख रहा था ।

दो कुली पिछे हट गए थे।


" ट्रैन तो मुझें सुबह चार बजे वाली बॉंम्बेमेल पकड़नीं हे। " अंजना ने स्थिर लहजे में र्कहा-“तब तक इन सूटकेसों को क्लाॅक रुम मैं जमा करायें । ट्रेन आने के समय पर निकलवा लूगी !'


"बेहतर मेम साहव I"


एक एक सूटकेस सिर पर उठाए, एक-एक हाथ में पकड़े कुली आगे गढ गए I अंजना धड़कते दिल के साथ उनके बराबर चलने लगी I वह खुद क्रो वेहद व्यस्त दर्षा रही थी । परन्तु यह तो वह ही जानती थी किं उसकै दिल की क्या हालत थी उस समय I कांपती टांगों पर जाने कैसे उसने कंट्रोल कर रखा था I गला सूखा पड़ा था परंतु पानी पीने की हिम्मत नहीँ थी ।



कुलियों ने क्लाॅक रूम में सूटकेसों को जमा करवाया और रसीद करीब हीँ खडी अंजना को थमा दी । अंजना ने स्पष्ट महसूस किया कि रसीद थामते समय उसके हाथ काप से रहे हैं I परन्तु यह डर-भय से खुद ही महसूस हो रहा था ।



स्टेशन पर इतनी भीड़ थी कि किसी को किसी की तरफ की फुर्सत कहां थी ।



कुंलियों को पैसे टेकर उन्हें चलता किया और खुद चाय वाली स्टाल पर चाय पीने आगई । क्लाक रूम की रसीद उसने पर्स के भीतर गुप्त जेब मे छिपा दी थी । अब वह निश्चित थी । उसे तसल्ली थी बैंक से लूटी दौलत को वह स्टेशन कै सामान घर मेँ जमा करवा चुकी हे । अब दौलत को किसी प्रकार का खतरा नहीं । अगले चार-पांच दिन में निश्चितता के साथ प्रोग्राम बना सकती है । इस शहर को छोडकर कहीँ दूर जा सकती हे । वहां सेटल हो सकती है । क्योकि इस शहर रहना खतरे से खाली नहीँ था I राजीव कै दोस्त देर सवेर उसे तलाश कर ही लेंगे उससे दौलत भी वसूल करके रहेंगे । जबकि वह उन्हें फूटी कौडी भी नहीं देना चाहती थी क्योंकि उसे शक था कि राजीव की मौत मे उनका ही हाथ हे ।



राजीव का ध्यान आते ही उसका मन फिर भर आया । चाय पीने के बाद स्टेशन से वह निकली और पैदल ही करीब के बस स्टॉप की तरफ बढ गई । रात का समय था, टैक्सी से घर जाना नहीं था I उसने बस से ही घर जाने की सोची ।


आखिर घर जाने की जल्दी ही क्या थी उसे, भला कौन था जो उसका इन्तजार कर रहा होगा ।

वेंक-लूट कै पैसे में से उसने सौ-सौ कै नोटों की तीन पुरानी गड्रिडयां अपने खर्च पानी कॅ लिए निकालकर, अपने' हैंडबैग में रख ली थी ।



वह घर जाकर आराम से सोना चाहती थी और कल सुबह से ही सोचना चाहती थी कि भविष्य का प्रोग्राम किस प्रकार तय करे । अब उसे क्या करना चाहिए।



इस बारे में उसे जरा भी अहसास न हो सका था कि जब वह घर से नोटों से भरे सूटकेस टैक्सी पर लादकर स्टेशन की तरफ रवाना हुई थी तो दो ख़तरनाक-से नज़र आने वाले दादा . उस समय वहा पहुंचे थे । उसे टैक्सी पर जाते देखकर करीब ही एक आदमी से स्कूटर छीनकर टैक्सी के पीछे लग गए थे ।



वह दोनों बदमाश और कोई नहीं । शकर दादा के आदमी थे । जो राजीव की महबूबा को तलाश करते हुए वहां तक आ पहुचे थे । वह इत्तफाक ही था उन्होंने अंजना क्रो ढूंढ निकाला था ।







बसन्त ओर महबूब । शंकर दादा के खास आदमियों में से थे I कुछ देर पहले ही दिवाकर अरुण खेड़ा ओर हेगडे शकर दादा के पास से गए थे और शंकर दादा ने फौरन बसन्त को सबकुछ समझाकर तुरन्त काम पर लगा दिया ।



दोनों सीधे राजीव के फ्लेट पर पहुंचे। फ्लैट तो अब वन्द था परन्तु उनसे वहीं एक आदमी टकरा गया जो कि जेबकत्तरा था, वहीं ऱहता था ओऱ दीनों की पहचान वाला था । उंसने दोनों सै वहां आने का कारण पूछा तो महबूब बोला ।



"यहा राजीव नाम का युवक रहता था, जिसे आज दिल का दौरा पडने...... I"



"हां, बेचारा भरी जवानी मैँ ही चल गया I" रमेश नाम के उस आदमी ने कहा ।



" रमेश.......उसकी कोई महबूबा थी, जिससे वह शादी करने जा रहा था । हमें उसकी तलाश है !"



"कोई लफड़ा हे क्या?"

" नहीं लफ़डा कोई नहीं, कुछ पूछना हे. उससे" ।" वसन्त ने कहा ।


'" मुझे नहीं मालूम वह उसकी वही महबूबा थी, जिसे तुम दोनों पूछ रहे हो या फिर कोई और थी । हां क्रई वार उसे राजीव के फ्लैट पर आते जाते देखा या । अंजना नाम है . उसका । मेरे उस्ताद की बैटी थी I"



"उस्ताद ।"


" रामलाल मलिक । जेबकतरों का बादशाह । उसी की शागिर्दों में मैंने जेब तराशने का धंधा सीखा था । साल सवा साल पहले ही उनकी डैथ हुई । उसकी बेटी अंजना अक्सर राजीव के यहां आतीं रहती थी l"



“पता क्या हे उसका?"



रमेश ने पता बताया । दोनों जाने लगे तो रमेश बोला ।



"कोई लफडा तो नहीं है न?"



"नहीं I”



"ध्यान रखना वह मेरे उस्ताद की बैटी है !" बसन्त और महबूब ने वहां से टैक्सी पकड़ी और रमेश कै बताए पते पर रवाना हो गए ।



जब वहां पहुचे तो धर कै सामने टैक्सी को खडे पाया और वह जवान युवती टैक्सी ड्राइवर कै साथ, मिलकर बड़े-सूटकेंस टेक्सी पर तदवा रही थी ।



"महवूब !" बसन्त बोला -"यह वही 'होगी ।"
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Re: वारदात

Post by 007 »

" मुझे भी ऐसा ही लग रहा डै. । शंकर दादा ने बैक डकैती की दौलत का जिक्र किया था कि इसके पास हो सकती हैं, मेरा ख्याल हे इन सूटकेसों में दौलत ही भरी होगी ।"



"कहा जा रही हे यह?"



"इस समय तो इसे कुछ कहना ठीक नहीं । यह इसका अपना मौहल्ला हे । हो सकता हे सूटकेसों में कुछ ओर ही हो ।" महबूब ने सोच-विचारकर यह शब्द कहे ।




"फिर इसका पीछा करें?"



" हां , देखें तो सही यह जा कहां रही हैं ।" टैक्सी चली तो उन्होंने किसी का स्कूटर छीना और टेक्सी के पीछे लग गए ।

इस प्रकार उन्होंने जाना कि अंजना ने चारों सूटकेस स्टेशन कै क्लाॅक रुम में रखै हैं ।



" मुझे तो लगता हे बैंक की लूट की दौलत ही इसने सूटकेसों में भरकर क्लाकरूम में जमा करवाई हे ।"



" लगता क्या मुझे पूरा विश्वास है !" बसन्त ने दृढ़ता से कहा-"क्या समझते हो कि इतने बड़े-बड़े सूटकेसों में अपने कपड़े रख छोड़े हैं इसने !"



"इससे क्लाकरुम की रसीद छीनो बिना रसीद के यह सूटकेस नहीं निकाल सकेगी । शंकर दादा निकाल लेगा । हमें अपने मकसद में कामयाबी मिल जाएगी ।”



तब तक अंजना स्टेशन के करीब बस स्टॉप पर जाकर खडी हो गई । बसन्त और महबूब भी उससे चन्द काम दूरी . . पर आ ख़ड़े हुए । स्टॉप पर काफी भीड थ्री ।



स्टेशनवाला इलाका था । रसीद अंजना कै हैंडबैग में रखी थी, और इतनी भीड के बीच बैग छीनना खतरे से खाली नहीं था । कोई भी हीरो बनकर उन्हें पटक सकता था । अंजना पर निगाह रखै वह दोनों वहीं खड़े रहे ।


करीब आधे धन्टे के बाद आई अपने रूट की बस पर अंजना चढी तो वह भी उसमें सवार हो. गए । बस में कोई खास भीड नहीं थी ।


अंजना एक खाती सीट पर जा बैठी l ’


बसन्त और. महबूब उससे आगे की सीट छोड़कर खाली सीट पर जा बेठे । अब उन्हें इन्तजार या कि बस किसी वीरान जगह से गुजरे और वह अंजना कै हाथ से हैंडबैग छीनकर भागें ।


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रात के साढे दस वज रहे थे । चारों तरफ महरा अंधेरा छाया हुआ था । आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे l ठण्डी हवा चलने के बावजूद भी पसीना आता महसूस होरहा था । सड़कौं
पर अब इक्का-दुक्का वाहन ही आ-जा रहे थे।

पुलिस की वर्दी में अजय सिन्हा बस स्टाप् पर खडा था I

दोनों हाथ उसने जेब में डाल रखै थे । चेहरे पर से थकान स्पष्ट जाहिर हो रही थी । पिछले आधे धन्टे से वह बस की इन्तजार कर रहा था काफी देर से बस न आने की वजह से ही अब सोचने लगा था कि किसी से लिफ्ट लेकर ही घर पहुचा जाए । उसके सिवाय स्टॉप पर सिंर्फ एक बूढा था जिसने थैला थाम रखा था और चेहरे से वह घर. और बाहर दोनों जगहों से परेशान लगता महसूस हो रहा था ।



तभी अजय सिन्हा क्रो सामने बस की हेडलाइट दिखाई दी तो उसने मन ही मन चैन की सांस ली कि अगले आधे धन्टे में वह घर पहुंध जाएगा । बस…स्टाप पर आकर रुकी ।



एक सवारी उतरी । सिर्फ वह बस में चढा। बूढा स्टॉप पर ही खडा रहा था। . . ।



बस आगे बढ गई ।


, बस में कठिनता से पन्द्रह बीस सवारियाँ थीं । कंडक्टर से टिकट लेकर वह आगे बढ़ गया । बस में जल रही बल्वो की मध्यम रोशनी सवारियों के चेहरों पर पड रही थी l आगे बढकर वह खिडकी की तरफ़ वाली खाली सीट पर बैठ गया । ठण्डी हवा के तेज झोंकों ने उसकी आधी थकान दूर कर दी ।



तभी उसके आगे वाली सीट पर बैठे दो मजबूत जिस्म के व्यक्ति अपनी सीट से उठे और नीचे उतरने के लिए आगे जाने की अपेक्षा उसके पीछे वाली सीट पर बैठी अंजना के करीब पहुंचकर ठिठकै । अंजना की झलक अजय सिन्हा भी देख चुका था, उसे वह किसी अच्छे घर की खूबसूरत युवती लगी थी ।



देखते ही देखते उन दोनों व्यक्तियों ने अंजना पर झपट्टा मारा और उसका हैंडबैग छीनकर बस कै दरवाजे की तरफ भागे ।


"मेरा बैग... ।" गला फाड़कर चीखी-"पकडो मेरा बैग..... बदमाश मेरा बेग छीनकर भाग रहे हैं । चोर… चोर ।"



चोर के शब्दों कै साथ ही बस मे तीव्र हलचल मच गई l तब तक वह दोनों बदमाश चलती बस के अगले दरवाजे से नीचे कूद चुके थे ।

बस में शोर मच गया ।

तभी अंजना ने अजय सिन्हा का कन्धा जोर से हिलाया---- “तुम कैसे पुलिस वाले हो, वह बदमाश तुम्हारे सामने मेरा बैग छीन ले गए और तुम बेठे हो अभी तक । जल्दी करो उन्हें पकडो । बैग में मेरा कीमती सामान हे ।"



"मैं...... मैँ.....?" अजय सिन्हा हढ़बड़ाया ।



"अरे भाई !" एक बुजुर्गवार ने ऊँचे स्वर में कहा----" बातें बाद में कर लेना पहले उन्हें पकड़ तो लो । अगर वह निकल गए तो फिर हाथ नहीं आयेंगे ।"



दो चार लोगों 'मने उसे `ऐसे ही' शब्द कहे ।
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Re: वारदात

Post by 007 »

ड्राइवर कड का बस रोक चुका था । अजय सिन्हा हड़बढ़ाकर अपनी सीट से उठा और पीछे खडी अंजनां पर निगाह मारी ।


. “ठीक है, मैं जाता हूं उनके पीछे I" क़हने कै साथ अजय सिन्हा तेजी से आगे बढा और कमर पर मौजूद होस्टलर को टटोलता हुआ बस से नीचे आया । सामने ही उसे वह . बदमाश दोड़ते नजर आए तो वह तेजी से उनके पीछे दौड पडा ।


"रुक जाओ, मैँ पुलिस वाला हू अगर तुमने भागने की कोशिश की तो में गोली चला दूंगा ।"


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काफी दूर गली में जाकरं अजय सिन्हा ने दोनों बदमाशी को पकडा । बसन्त ने फौरन जेब से लम्बे फल वाला चाकू निकाल लिया । दोनों बेहद खतरनाक लग रहे थे और किसी भी हालत में उनका इरादा युवती का बैग वापस करने का नहीं था ।


"आगे मत बढना इन्सपेक्टर ।" बसन्त खतरनाकं स्वर मे गुर्राया ।


अधेरे में वह लोग एक-दूसरे के चेहरों के भाव नहीं देख पा रहे थे , फिर भी चेहरों के हिसाब से तो वह एक-दूसरे पहचान ही चुके थे ।



"नादानी मत करो ।" अजय ने सख्त स्वर में कंहा ---- " मेरे होस्टलर में रिवॉल्वर पडी है जो कि मैँने अभी तक निकाली नहीं। तुम्हारा चाकू तो बाद में चलेगा बेवकूफों मेरी रिबांल्वर उससे पहले ही तुम दोनों पर बरस चुकी होगी । लाओ बैग मेरे हवाले करदो।"




दोनों ने एक दूसरे को अंधेरे में देखा ।


"इन्सपेक्टर ।" बैग थामे महबूब ने कहा-“हमें पकड कर तुम्हे कुछ मिलने वाला तो नहीं । हमसे हाथ मिलाकर कुछ कमा लो । बेग में पड़े नोट तुम ले लो । कहोगे तो जो नोट हमारी जेबों में हैं वह भी दे देंगे । बस बैग हमसे मत लो I”



महबूब की बात सुनकर अजय सिम्हा बहुत हैरान हुआ । इसके साथ ही उसने होस्टलर से रिवॉल्वर निकालकर हाथ मै ले ली।



"मैँ तुम लोगों कौ छोड़ रहा हूं यही बहुत बडी बात हे । बैग मेरे हवाले करो और चलते -फिरते नजर आओ वरना हवालात में बन्द कर दूंगा । जल्दी करी I" अजय सिम्हा की
आवाज में गुर्राहट थी ।



आवाज पें पुलिसिया अन्दाज भर आया था ।



महबूब और बसन्त ने एक दूसरे को देखा I


“यह तुम अच्छा नहीं कर रह हो इन्सपेक्टर ।"



अजय सिन्हा ने हाथ बढाकर उसके हाथ से बैग छीन लिया ।



"दफा हो जाओ ।"



" कौन ने थाने में हो तुम?" वसन्त ने ढीढता से पूछा ।



"मेरे साथ चलो खुद ब-खुद मालूम हौं जाएगा ।" अजय सिन्हा ने दांत भीचकर कहा ।



उसके बाद महबूब और बसन्त अन्मेरी गली में गुम हो गए । अजय सिन्हा रिवॉल्वर होस्टलर में डालकर वापस उस जगह आया जहा ड्राइवर ने बम रोकी थी ।



परन्तु वहां न तो अब बस थी ओर न ही कोई सवारी । ना ही वह युवती । अजय सिन्हा गहरी सांस लेकर रह गया । वह समझ गया कि ड्राईवर ने ज्यादा देर बस नहीं रोकी होगी । रात का समय था सवारियों क्रो भी अपने ठिकाने पर पहुंचने की जल्दी होगी ।।




और इस अंधेरे में उस युवती का अकेले यहां खडे होकर उसका इन्तजार कस्ना भी ठीक नहीं या । वह दो पल यहीं खडा सोचता रहा फिर पैदल ही आगे बढ गया । युवती कै बैग को उसने अपने कपडों में छिपा लिया था।

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रात के साढे बारह बज रहे थे, जव उसने गन्दी सी वस्ती में अपने पर कै दरवाजे को थपथपाया । दूसरी बार थपथपाने पर उसकी मां पार्वती देवी ने दरवाजा खोला । उस पर निगाह पडते ही मां के चेहरे पर उखड़ेपन के भाव आ गए ।।




"आ गया आवारागर्द । आज तो पुलिस की वर्दी पहनकर आया है ।" मां पार्वती देवी की आवाज में व्यंग्य था-"अरे कुछ कर ले । काम-काज का कुछ । सारी उग्र स्टेज पर ड्रामे ही करता रहेगा । आखिर खाली पेट कब तक ड्रामे करेगा । तू इतना भी नहीं कमा पाता कि अपना ओर मेरा पेट भर सकै । मै.......।"



“मां......!" अजय सिन्हा भारी स्वर में कह उठा…"तुप हर रोज यहीँ शब्द कहती हो। कभी तो चुप रहा करो । वहुत थका हुआ हू कम से कम बैठने तो दो ।"


"बैठने क्या दूं तूने तो मेरा बुढापा खराव कर रखा है ।" पार्वती देवी ने क्रोध भरे स्वर मे कहा-"उप्र देखौ हे मेरी । सिर कै बाल दूघ की तरह सफेद हैँ। इतना सफेद तो दूध भी नहीं हौता होगा । चेहरे की झुर्रियां देखी हैँ मेरी । झुकी जा रही कमर को नहीं देख रहा। क्यस्थ्यरोसा आज दूंकत नहीं। अरे मरने से पहले कम से कम मुझे मेरी बहु का मुंह तो दिखा दे। कहीं ऐसा ना हो कि सीने में ही यह अरमान लेकर ऊपर चली जाऊ।"

"मां.......तुम' ।"


"माँ-मां छोड़, कोई ढंग का काम कर । पैसा कमा , ताकि कहीं तेरी शादी कर सकू। मेरे मरने के बाद कमाया तो मुझे क्या फायदा। बहु का मुंह तो नहीं देख सकी ना मैं।"


अजय सिन्हा का मन और भी भारी हो गया । वह आगे बढा और दूसरे कमरे में प्रवेश कर गया l माँ चहचहाती हुई उसकै लिए खाना परोसने कै लिए किचन में गई ।



यह तीन कमरों का मकान था जो कि कभी उसके पिता ने बनवाया था । अब यहीँ उनका सब-कुछ था । अजय सिन्हा पढा लिखा समझदार युवक था, परन्तु कहीँ मी ढंग की नौकरी ना मिली । नाटक-ड्रामों की तरफ तो उसका शुरू से ही रुझान था, खाली बैठने से अच्छा उसने ड्रामों-नाटकों में काम करना. ही ठीक समझा ।
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Re: वारदात

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अब इससे इतना कमा लेता था कि महीने में सत्रह दिन घर की रोटी चल जाती थी और बाकी कै चौदह दिन फाकों में ही गुजारने पडते थे । इस समय तो वह बुरा वक्त काटने पर लगा था ।



अपने कमरे में पहुंचकर अजय ने कपडे बदले । युवती का पर्स उसने दीवार पर लगी अपने पिता की तस्वीर कै पीछे छिपा दिया । वह नहीं चाहता था कि पर्स मां देखै और तरह त्तरह के सवाल पूछे । वह हाथ-मुंह धोकर हटा था कि पार्वती देवी खाना लेकर आ पहुंची । थाल टेबल पर रखते हुए वह बोली ।



"मेरी उम्र आराम करने की है । आधी-आधी रात को उठकर दरवाजा खोलने और खाना देने की नहीं । जल्दी से बहू ले आ, यह काम अब मैं ज्यादा देर नहीं करूंगी । वहुत फर्ज पूरा कर दिया है मैंने अपना ।"



जवाब में अजय ने कुछ नहीं कहा । पार्वती देबी वड़बड़ाती हुई वहा से चली गई । अजय ने गहरी सांस ली और खाने का ' थाल उठाकर बैड पर बैठा और खाना खाने पें व्यस्त हो गया
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अजय सिन्हा अगले दिन सोकर उठा तो सुबह कै नौ बज रहे थे l उसी समय पार्वती देवी चाय का प्याला लिए भीतर आई और उसे देखते ही बोली ।



"उठ गया तू । ले चाय, मैं जरा राजू की मां कै यहाँ जा रही हूं । शाम को उसके यहां कीर्त्तन है। नाश्ता कर लेना। किचन में बना रखा है।"


"अच्छा मां।"अजय ने हाथ से चाय का प्याला ले लिया। “


पार्वती देवी बाहऱ निकल गई।


अजय ने चाय कै दो घूंट भरे हीं थे एकाएक वह ठिठक गया । उसे बस वाली युवती के हैंडबैग काध्यान आया जोकि रातंको उसने अपने पिता की तस्वीर कै पीछे रख दिया था । चाय का प्याला करीब ही पडी छोटी-सी टेबल पर -रखकर वह उठा ओर दीवार पर मोजूद तस्वीर कै पीछे से' हैंडबैग निकालकर उसे खोला ।


खोलते ही वह ठिठस्का स्टैचू वन गया । आंखें पथरा सी गई I हैंडबैग में सौ सौ कै नोटों की तीन गड्रिडयां चमक रही' थीं। तीस हजार रुपये। इतने रुपये तो उसने अपनै पूरी जिन्दगी कभी नहीं देखे थे ।



तभी उसके दिमाग में बदमाश कै शब्द टकराए कि इस बैग में मौजूद सारे पैसे तुम ले लो। जो हमारी जेबों में हैँ वह भी लेलो बैग हमें दे दो ।

"अखिर इस बेग में है क्या?" अजय वड़वड़ाया और बैग को चारपाई पर आकर उल्टा कर दिया ।



नोटों की तीन गड्रिडर्यों कै साथ देर सारा सामान बाहर जा गिरा। वह एक-एक वस्तु को ध्यान से देखने लगा। लिपस्टिक, नेल पॉलिश औरतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेड और उसकै साथ लगा शीशा ।

और तो कुछ भी नहीं था।


फिर वह बदमाश पर्स क्यों मांग रहे थे ? जाहिर है कि कुछ तो वजह रहीँ होगी । उसने सारा सामान पर्स में डाला और नोटों के बारे में सोचने लगा कि क्या करे। छोटी रकम होती तो शायद परवाह भी न करता, परंतु तीस हजार रूपये बैग में थे । मालिक को ढूंढना जरुरी था। इन रुपयों कै विना उसकी क्या हालत हो रही होगी।


बह जल्दी से उठा और नहा धोकर कपड़े प्रहने, नाश्ता किया , फिर ठिठक गया ।


उसकी अपनी जेबें खाली थी । क्या करे हिचकते-हिचकते उसने पर्स खोला और भीतर तीन गड्रिडयों में से एक नोट जुदा करके अपनी जेब सें डाला और पर्स बापस तस्वीर कै पीछे रखकर घर से बाहर निकल गया । सबसे पहले अजय सिन्हा ने उसे इलाके के पुलिस स्टेशन से मालूम किया, जिस जगह बस में से युवती का पर्स छीना गया था कि किसी युवती ने अपना पर्स छीने जाने की रिपोर्ट तो नहीं कराई?


परन्तु यह जानकर उसे हैरानी हुईं कि ऐसी कोई रिपोर्ट पिछले चौबीस घंटों मेँ दर्ज नहीं हुई । पर्स में तीस हजार रुपया था, इतनी बडी रकम छीने ,जाने के बाद भी रिपोर्ट दर्ज नही करवाई गई, हैरानी की बात तो हे ही ।


आखिरकार उसने सोचा कि रात को उसी समय आने वाली वही बस चैक करेगा । शायद उसमें वह युवती मिल जाए, जिसका पर्स था ।



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कड़कती धूप थी । पसीना बदन के साथ लिपटकर पानी की तरह बह रहा था । गीले कपडों से पसीने की महक आ रही थी । मध्यम दर्जे का बार था वह । चूंकि आज अजय कै हाथ बहुत मुद्दत के बाद सो का नोट लगा था इसलिए एक दो पैग पीने की नीयत से वह बार में जा पहुचा था । इस समय वह लार्ज पैग बनवाकर कुर्सी पर बैठा धीरे धीरे घूंट भर रहा' था । दो पैग लेने कै बाद उसका इरादा करीब के ही होटल. में खाना खाने का था ।



ऐन तभी एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया-----" व्हिस्की का बड़ा पेग ला जल्दी से । देर की तो हाथ-पांव तोड़कर अलगा कर दूंगा ।"



उसके शब्द सुनकर वहां मोजूद हर कोई उसे देखने लगा ।
वह तगडे शरीर का हट्टा-कट्टा व्यक्ति था । कपडे दादाओं की तरह पहन रखै थे । तंग पतलून और छापेदार बनियान'।

चेहरा भी सख्त था । चंद ही पलों में वेटर जल्दी से पैग टेबल पर रख गया, जो कि उसने एक ही सांस में समाप्त कर दिया । तभी काउंटर के पीछे नजर आ रहे कमरे का दरवाजा खुला और शंकर दादा ने बाहर की तरफ काम रखा ।


बारमैन ने उंगली से उस व्यक्ति की तरफ इशारा किया, जो अभी-अभी बदमाशी-भरे ढंग से बोला था ।



शकर दादा सीधा उसकी टेबल पर पहुंचा I बैठे हुए बदमाश ने सिर उठाकर उसे देखा फिर अजीब-से अन्दाज में मुस्कराया ।



"मेरा नाम शंकर दादा हे । यह मेरा बार हे l समझा क्या?"
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Re: वारदात

Post by 007 »

"समझा ।" उसने शांत स्वर में कहा ।



"इधर कू कोई भी ऊंचा नहीं बोलता । समझा क्या?"



"समझा ।"



"तू एक बार तो बोला, अब नहीं बोलना । जो भी हो धीरे बोलना l"




बैठे हुए व्यक्ति ने सिर उठाकर शंकर की आंखों में देखा ।



"मुझें जिन्दल कहते हें । सुना हे कभी नाम?"



"नहीं I"



"अच्छा है जो नहीं सुना ।"



"क्या मतलब?” शंकर दादा कै चेहरे पर भयानक भाव नाच उठे ।



"कुछ नहीं । खास मतलब नहीं था मेरा।" जिन्दल ने कहा और उठ खडा हुआ-"मैँ तो यहां यूं ही दो पैग मारने आ गया था ।" खडे होते ही उसने जेब से कुछ नोट निकालकर टेबल पर रखे और जाने के लिए पलटा ।



"कौन हो तुम?" शंकर दादा की आंखे सिकुड चुकी थीं l



"जिन्दल I" वह ठिठका और मुस्कराकर बोला-"जिन्दल कहते हैं मुझे । पूरा परिचय तुझे बहुत जल्दी मिलेगा । जल्दी ही हमारी मुलाकात होगी, बार के… मालिक शंकर दादा । ओर मुलाकात कै वाद तू मुझे हमेशा याद रखेगा ।" कहने के साथ ही वह मद्भमस्त हाथी की तरह चलता हुआ बाहर निकलता चला गया ।


शंकर दादा कई पलों तक वहीं खडा बाहर जाने वाले दरवाजे को घूरता रहा । जिन्दल कै शब्द कइयों सुने थे और . . कइयों ने नहीं । इंससे पहले कि वह अपनी जगह से हिलता, , . प्रवेश द्धासं से बसन्त और महबूब ने भीतर प्रवेशं किया । शंकर दादा को सामने ही खड़ा पाकर वह तेज कदमों से उसी कै पास आ पहुचे ।



, उन दोनों को देखते ही एक तरफ बैठा अजय सिन्हा चौंका । वह दोनों वहीँ बदमाश थे जिन्होने युवती से पर्स छीना था और बाद में उसने उन दोनों-बदमाशों से ।


उन्हें देखते ही अजय ने अपना चेहरा छिपा-सा लिया था ।।



"तुम दोनों तो रात से ही मे , पास नहीं आये ।" शंकर दादा उन्हें देखते ही गुर्राया ।



"दादा बहुत बडी गढ़बढ़ हो गई । फोन पर हमने आपको सबकुछ बताया था।” महबूब बोला…“हमहे उसका पर्स हथिया लिया था । लेकिन एक पुलिस वाले ने हमसे पर्स छीन लिया ।”



"'पुलिस बाला ।" शकर दादा शब्दों को चबाकर बोला… !


"कौन था वह हरामजादा ?"



"सुबह से उसी कॅ बारे मे पता करते फिर रहे हैं। जाने कितने पुलिस स्टेशनों की खाक छान मारी है, परन्तु चह पुलिस वाला हमें नहीं मिला। और तो और उसका हुलिया भी पुलिस बालों को बताया, त्तब भी कुछ मालूम नहीं हुआ।”



"कमीनों, उस पर्स को पाना बहुत जरूरी है मेरे लिए ।।‘"




"दादा इसमें हमारी कोई र्गलती नहीं। वही पुलिस वाला......““



"उसकी छाती पर लगी पट्टी में उसका नाम पढा होगा?"
"नहीं दादा । पहली बात तो यह है कि उसकी छाती पर शायद नाम की पट्टी नहीं थी । अगर थी तो घुप्प अंधेरे के कारण हमेँ नजर नहीं आई I"




"सालो कुत्तों!! तुम दोनों मेरे साथ आओ । शंकर दादा भयानक स्वर में कह उठा-"इस लापरवाही की सजा तो तुम दोनों को मिलनी ही चाहिए I”


"दादा......!*



"मेरे सायं आओ I" कहने के साथ ही शंकर दादा र्भिचे होठों से पलटा और तेज़ तेज कदमों से वापस काउंटर कै पीछे बने कमरे की तरफ़ बढ़ गया ।



बसन्त और महबूब सहमे से उसके पीछे चल पड़े ।


अजय सिन्हा चेहरे पर हांथ रखै उन्हें जाते हुए देखता रहा । उनकी बातें तो ठीक प्रकार से नहीं सुन पाया था, परन्तु शंकार दादा के मुह से निकला पर्स शब्द उसने अवश्य सुना था । उनके जाते ही अजय ने पैग का बिल चुकता किया और जल्दी से बाहर निकल आया I वह नहीं चाहता था कि वह दोनों बदमाश उसे-देखें और पहचानें I बाहर आकर -वह सड़क पार खड़ा हो गया । इन दोनों बदमाशों से उसे युवती का पता मालूम हो सकता था I परन्तु उन खतरनाक लोगों से पूछने की हिम्मत कौन करे । फिर भी वह उनके बाहर निकलने की वेट करने लगा और सोचने लगा कि अब क्या करे I


यह तो उसे अब पता चला था कि छीनने जैसा मामूली-सा मांमला शंकर दादा जैसे बडे और खतरनाक दादा से ताल्लुक रखता था । अगर शंकर दादा को पर्स चाहिए और उसे मालूम हो जाए कि पर्स उसके पास हे तो फिर उसकी खेर नहीं I
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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