मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

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Ankit
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मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

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मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजी राव (प्रथम) और नर्तकी मस्तानी
की प्रेमगाथा पर केन्द्रित एक ऐतिहासिक उपन्यास

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बुंदेलखंड मध्य भारत में कमल के फूलों से लबालब भरी और कोसों दूर तक फैली बेलाताल झील के किनारे स्थिति राजपूतों का रियासती गढ़ है, जैतपुर (वर्तमान समय में ज़िला लक्ष्शीसराय, बिहार) ऋषि जयंत के नाम पर बसे जैतपुर के ऐन बीच पहाड़ी पर बना शाही किला दूर से ही नज़र आ जाता है। यह किला बुंदेल राजपूतों की आन, आबरू, बहादुरी, शक्ति और बलिदान का गवाह है। इस ऐतिहासिक किले ने बहुत सारा इतिहास अपनी कोख में संभालकर रखा हुआ है।



जैतपुर के इस शाही किले पर खड़े वृद्ध राजपूत महाराजा छत्रसाल ने दूरबीन आँखों पर लगाकर सुदूर क्षितिज तक देखा।

दूर से हवा में उड़ती धूल, भारी गिनती में घुड़सवार और पल पल करीब आ रहे मछली की पूंछ के आकार वाले केसरी रंग के लहराते मराठा परचम को देखते ही प्रसन्नता से उसकी बांछें खिल उठीं।

खुशी में झूमते चम्पत राय और लाल कंवर के पुत्र यानि बुंदेलखंड नरेश, महाराजा छत्रसाल ने दायें हाथ में पकड़ी गज़भर लम्बी दूरबीन को बायें हाथ की हथेली पर मारकर इकट्ठा कर दिया, “अब आएगा मज़ा ! इलाहाबाद के सूबेदार नवाब गज़नफर जंग अली मुहम्मद खान बंगस और उसके प्यादे दलेल खान की अटल मौत को उनका खुदा भी नहीं रोक सकता।... 1714 ई. को मध्य दोआब में फर्रूखाबाद नगर (अब कानपुर के समीप पड़ता उŸार प्रदेश का ज़िला), दिल्ली के बादशाह फरुखसियार के नाम पर बसाकर चापलूस मुहम्मतद खान ने एक वर्ष बाद नवाबी हासिल की और मुगल सेना का ‘बावन हज़ारी’ (Commander of 52,000 Soldiers) सेनापति बना था। बंगश कबीले की खागयई शाखा के ये शिया मुसलमान खुद को कौम-ए-बंगश कहलवाते हैं और रौहीला पठानों से अपने आप को उŸाम गिनते हैं। खुर्रम घाटी के बाशिंदे इस्माइल बंकेश के वंशज, ये बंगश अफ़गानी पठान सोचते हैं कि दुनिया पर इन्हीं का राज चलेगा और बाकी सबका ये नामोनिशान मिटा देंगे।... बंगश का पश्तो में अर्थ होता है - जड़ खोदने वाला। ये हमारी जड़ खोदने को घूमते हैं। शायद यह नहीं जानते, हम बुंदेली तो इनका बीज नष्ट कर देंगे। और फिर, दिल्ली के शहनशाह नसीर-उद-दीन मुहम्मद शाह (रौशन अख्तर) को भी सबक मिल जाएगा और दुबारा वह बुंदेलखंड पर हमला करने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोचेगा।... हम बुंदेलों ने तो औरंगजे़ेब आलमगीर और बादशाह बहादुर शाह जफ़र की ईन नहीं मानी... हुँह...।“

सेनापति बख़्शी हंसराज ने महाराजा छत्रसाल को बीच में टोका, “ओ हो, महाराज। ऐसा कौन-सा चमत्कार आपने देख लिया है जो आप फूले नहीं समा रहे। अब तक तो युद्ध में हम हार रहे हैं और हरामी बंगश हमारी फौजों पर भारी पड़े हुए हैं। किसी समय भी वह हमारे किले पर कब्ज़ा कर सकते हैं...। शहजादा जगतराज को तो उन्होंने बंदी बना लिया है।“

महाराजा छत्रसाल ने दूरबीन सेनापति हंसराज की ओर बढ़ाते हुए कहा, “सेनापति जी, आप खुद ही अपनी आँखों से देख लो। पेशवा बाजी राव हमारी जंगी इमदाद के लिए अपने लश्कर के साथ तूफान मचाता आ रहा है।“

सेनापति हंसराज ने महाराजा छत्रसाल से दूरबीन लेकर खोली और अपनी बायीं आँख मूंदकर दायीं आँख से दूरबीन में से देखता हुआ बोला, “वह तो ठीक है राजन। पर आप यह दावे से कैसे कह सकते हैं कि पेशवा जी की मदद से हमारी हार जीत में बदल जाएगी।“
“हंसराज, विजय हमारे कदम ही चूमेगी। युद्ध का निर्णयाक फैसला अवश्य हमारे पक्ष में होगा। मराठा बाजी राव एक ऐसा योद्धा है जो आज तक एक भी जंग नहीं हारा। चाहे वह 1723 ई. में मालवा की जंग थी, चाहे 1724 ई. में धार पर कब्ज़ा या औरंगाबाद पर विजय प्राप्त करना। ये अभी हाल में हुए पालखेड़ के युद्ध में बाजी राव के वीरतापूर्वक गाड़े झंडों को कौन भूल सकता है ? पेशवा बालाजी विश्वनाथ का यह सुपुत्र जन्मा ही चितपवन ब्राह्मण घराने में है। लेकिन कर्म से वह क्षत्रिय है और अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा उसने युद्धक्षेत्र में ही व्यतीत किया है।“

महाराजा छत्रसाल अभी सेनापति को बाजी राव के विषय में बता ही रहा होता है कि पाँच रानियों में से उसकी पटरानी देव कंवर वहाँ किले की छत पर अपने पति महाराजा छत्रसाल से आ सम्बोधित होती है, “महाराज, योजनाएँ ही बनाते रहेगो या कुछ हाथ पैर भी मारोगे ? पता नहीं, क्या किया होगा उन्होंने हमारे पुत्र के साथ ? बहूसा पदमावती (छोटी रानी और शहजादा जगतराज की असली माँ) भी काफ़ी चिंतित है और रो रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया है। जैत कुंवर (शहजादा जगतराज की पत्नी) का मन भी अस्थिर है। राम जाने, जगतराज ज़िन्दा भी है या...।“

महाराजा छत्रसाल तिलमिला उठता है, “शुभ शुभ बोलो...राणीसा। आप क्या समझती हैं, मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा हूँ ? मुझे कोई चिंता नहीं है ? आखि़रकार मेरा खून है वह। मैंने उसकी खोज खबर के लिए सिपाही और गुप्तचर भेजे हुए हैं...। वे आते ही होंगे। हुँह... कहती हैं, जैत कुंवर का दिल डूबता जाता है। मुझे चिन्ता है, कुछ ऐसा वैसा न हो जाए। चलो, चलकर देखते हैं। राणीसा, आप भी उसको हौसला देना। बुलाकर लाओ जैत कुंवर को मेरे पास।“

महाराजा छत्रसाल, सेनापति हंसराज और पटरानी देव कंवर किले के बुर्ज़ पर से उतरकर दरबार की ओर चले जाते हैं। जैत कंवर दरबार में आ उपस्थिति होती है।

“सादर प्रणाम काका जू।“

“कुंवर ! जैसे मुगल अपनी रखैलों और रानियों के लिए महिल शब्द का प्रयोग किया करते हैं, उसी प्रकार हम राजपूत कंवर शब्द का प्रयोग राजकुमारों, राजकुमारियों और रानियों के लिए किया करते हैं। संस्कृत के इस शब्द का अर्थ शाही होता है और हम इसे कुंवर पुकारते हैं। कुंवर में आम इन्सानों से कोई भिन्नता तो होनी चाहिए कि नहीं ? ऊँठों वालों से दोस्ती करके दरवाज़े बन्द करके नहीं रखते।“

जैत कंवर घबरा जाती है, “जी, मैं कुछ समझी नहीं ?“

महाराजा छत्रसाल अपनी पुत्रवधु की ओर रौब से देखता है, “मेरे कहने का तात्पर्य है कि तुम शाही परिवार की बहू हो। बुंदेलों की स्त्रियों के दिल बहुत कड़े होते हैं। तुम जगतराज की व्यर्थ चिन्ता न कर। कुंवर को आम स्त्री की अपेक्षा बहादुर, बलवान और अधिक सहन-शक्ति की मालकिन होना चाहिए।“
“जी महाराज, मैं समझ गई। चाहे जितनी बड़ी समस्या आ जाए, आज के बाद आप मुझे कभी घबराई हुई और चिन्ताजनक स्थिति में नहीं देखेंगे।“

“हम तुम्हारे मुखारबिंद से यही सुनने के इच्छुक थे। जाओ, आयुष्मती भवः(लम्बी आयु हो)।“

दरबार में सब दरबारियों सहित महाराजा और रानियाँ गुप्तचरों के आने की प्रतीक्षा करने लग जाते हैं। सिवाय प्रतीक्षा के वे कुछ और कर भी नहीं सकते। पलक का झपकना एकबार एक क्षण बन जाता है। पंद्रह क्षणों का एक विस्सा। पंद्रह विस्सों का एक चासा और तीस चासों का एक पल।... साठ पलों की एक घड़ी।... इसी तरह आठ घड़ियों का एक एक पहर करके चार पहर यानि पूरा दिन बीत जाता है। प्रतीक्षा में बेज़ार होतीं सोचों के सागर में डुबकियाँ लगाने के बाद महाराजा छत्रसाल अपना मौन तोड़ता है, “हे मेरे ईश्वर ! ये भी दिन देखने थे। वह भी समय था जब 1671 ईसवी में मैं केवल बाइस वर्ष की युवावस्था में पाँच घुड़सवार और पच्चीस तलवारबाजों की छोटी-सी फौज लेकर मुगलों से लोहा लेता घूमता था। पर अब यह बुढ़ापा और शारीरिक दुर्बलता मेरा वश नहीं चलने देती। बीमारी के कारण मैं बेबस और लाचार-सा अनुभव करने लग जाता हूँ।“

“काका जू (बहुत सम्मानित बुजु़र्ग अथवा बाबा जी) यह समय आपकी जीवनी या आपकी बहादुरी के किस्से सुनने का नहीं है। तुरन्त कोई ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।“ सिसक रही छोटी रानी पदमावती कंवर हस्तक्षेप करती है।

“मेरी प्रिय ! क्या मैं अब बूढ़ा ठाड़ा अपनी जान दे दूँ ? बहुत सोच-समझकर मैं पहले ही योग्य कदम उठा चुका हूँ। इसीलिए तो मैंने पेशवा बाजी राव से सहायता की भीख मांगी है। बेशक पदमावती राणीसा, इसकी मुझे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।... चलो, जो ईश्वर को मंजूर है, हो जाएगा।“ महाराजा छत्रसाल की दूरअंदेशी बोलती है।

देव कंवर अपने कान खड़े करके माथे पर बल डालती है, “ऐसा क्या लिखा था आपने पेशवा को अपने पत्र में ?“

“दो सप्ताह पहले (1 मार्च 1730 ई.) सेनापति कविराज बख़्शी हंसराज से लिखवाकर भेजे अपने छंदबद्ध रुक्के में मैंने लिखा था कि ‘जो गत ग्राह गजेन्द्र की, सो गत भाई है आज। बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजा लाज।’ मैंने इसके बदले में भारी धन मराठा सरदारांे को देने का भी वायदा किया है।“

तभी एक गुप्तचर दरबार में आ उपस्थिति होता है, “महाराज छत्रसाल की जय हो !“

सभा में उपस्थिति सभी व्यक्ति उत्सुकता से एकदम उठकर खड़े हो जाते हैं। महाराजा छत्रसाल तो समाचार जानने के लिए उतावला ही हो जाता है, “हाँ, क्या समाचार लाए हो ?“

“महाराज, बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि शहजादा जगतराज का कोई सुराग नहीं मिला है। पर अनुमान है कि उसको जैतपुर के बाहर घने जंगन में अन्य सैनिकों के साथ मुहम्मद शाह ने कैद कर रखा होगा।“

यह समाचार सुनते ही महाराजा छत्रसाल की टांगें उसके अपने ही शरीर का बोझ झेलने में असमर्थ हो जाती हैं और वह अपने सिंहासन पर गिर पड़ता है, “हे भगवान, मैं क्या उपाय करूँ इस अलगर्ज़, नादान और फुकरे लड़के का ? मैं इस जल्दबाज को कितनी बार समझा चुका था कि अपने भाइयों, पदम सिंह और हृदय शाह की तरह मन लगाकर युद्धविद्या सीख ले, काम आएगी। लेकिन इस नाफरामान और बदसाहसी लड़के ने कभी मेरी एक नहीं सुनी।... मुगल और निज़ाम तो हमारे दुश्मन थे ही। बल्कि हमारे अपने राजपूत बुंदेल भी शत्रु हैं और खार खाते हैं। कभी भी किसी समय भी कोई दुर्घटना घटित हो सकती थी। लो, आज वह घड़ी आ ही गई। जो कयास मैंने लगाया था, वह गलत नहीं था। कितनी बड़ी समस्या में डाल दिया है, इस मुँहज़ोर और बददिमाग लड़के ने ! क्या ज़रूरत थी आग में कूदने की ?... मैं तो बड़े हृदय से ही दुखी था। हृदय शाह है कि उसको दुनियावी कामों से मोह ही नहीं है। हृदय ने तो अपने लिए रीवा (मौजूदा मध्य प्रदेश में राजपूतों का एक शहर जिसका नाम नर्बदा नदी के नाम पर पड़ा है) से आया डोला भी अपने भाई को दे दिया था। शस्त्र विद्या हृदय शाह ने सीखी तो सही, पर उसको अमल में नहीं लाता है। कहता है, मैं हिंसा और युद्ध के सख्त़ खिलाफ़ हूँ। बना है बड़ा अहिंसावादी ! अब कौन छुड़ाकर लाएगा जगतराज को बंगशों की हिरासत से ?“

बख़्शी हंसराज तुरंत बोल पड़ता है, “महाराज, निश्चिंत रहो। मैं अभी कुछ सैनिक लेकर जाता हूँ और शहजादा की रिहाई का कोई यत्न करता हूँ।“

रानी देव कंवर आगे बढ़ती है, “नहीं सेनापति जी, आपका जाना ठीक नहीं। आपका यहाँ रहकर किले की रक्षा करना अत्यधिक आवश्यक है। मैं नारी सेना लेकर जाती हूँ और जगतराज की तलाश करती हूँ। महाराज क्या आज्ञा है ?“
महाराजा छत्रसाल अपनी झुर्राई वृद्ध आँखों को सिकोड़ता है, “मैं क्या कहूँ ? आप खुद समझदार हो। पर आपकी टुकड़ी में कौन कौन जाएँगी ?“

“मैं और जैत कुंवर अगुवाई करेंगी और चुनकर सभी श्रेष्ठ श्रेणी की जंगबाज सैनिकाओं को ही संग ले जाएँगी। आप चिन्ता न करें।“ देव कंवर रौब और आत्मविश्वास के साथ बोलती है।

“ठीक है, पर मेरी बेटी मस्तानी कुंवरसा को ले जाना न भूलना। मुझे अपने शिष्यों में से सबसे अधिक गर्व उसको युद्ध कला सिखाने पर है। मस्तानी जैसी भालेबाजी दूसरी कोई नहीं कर सकती। तीरअंदाजी तो वह आँखें बन्द करके भी कर सकती है। रास्ते खोजने में माहिर है और ग़ज़ब की स्मरण शक्ति है उसकी। एकबार जहाँ से रात के अँधेरे में से गुज़र जाए तो दिन में चाहे उसकी आँखों पर पट्टी बांध के उसको वहाँ से निकलवा दो, सारे रास्ते सही सही बता देगी। मस्तानी जब म्यान में से बिजली की भाँति चमचमाती तलवार खींचती है तो उसके दुश्मन का सिर उसके पैरों में बेरों की तरह लुढ़कता दिखाई देता है। घुड़सवारी में भी मस्तानी लाजवाब है।... जाओ मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। विजयी भवो ! (तुम्हारी जीत हो।)

“जो आज्ञा ! प्राणनाथ, मस्तानी को मैं कैसे भूल सकती हूँ ? वह तो अवश्य हमारे संग जाएगी।“ कहकर राणी देव कंवर नारीगृह की ओर जाती है और सब जंगजू स्त्रियों को एकत्र करके अपने मंसूबे और युद्ध नीति के बारे में रातभर में समझा देती है।
अगली सवेर होते ही किले का मुख्य द्वार खुलता है और चालीस-पचास घुड़सवार, नकाबपोश स्त्री सैनिक बाहर रणभूमि की ओर निकल जाते हैं। उनके जाने के बाद किले के द्वार पुनः बन्द कर दिए जाते हैं।

इन घुड़सवारों में सबसे आगे रानी देव कंवर है। उसके पीछे शहजादा जगतराज की सौतेली बहन, मस्तानी कंवर और उसकी पत्नी जैत कंवर है। शेष राजपूत और क्ष़त्रीय स्त्रियाँ हाथों में तलवारें, ढालें, धनुष, फरसा, गदा़, त्रिशूल, लोह-चक्र और भाले आदि शस्त्र उठाये उनके पीछे पीछे अपने अपने घोड़़े पूर्ण जोश के साथ दौड़ा रही हैं।

कई वर्षों से बुंदेलखंड की राजसी हालत ठीक न होने के कारण और सेना के अभाव को पूरा करने के लिए बुंदेल राजपूत स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ युद्ध में अपना योगदान दे रही हैं। रानी देव कंवर की सौतेली सास सारंधा भी अपने पति के साथ युद्धों में कंधे से कंधा भिड़ाकर लड़ती रही थी।

यह कोई नई या अलौलिक बात नहीं है। बहुत वर्षों से यह प्रथा चलती आई है। भगवान राम चन्द्र के समय त्रेता युग से ही महिलायें युद्धों में हिस्सा लेती आई हैं। राजा दशरथ की रानी कैकेयी सारी उम्र अपने पति के संग जाकर युद्ध लड़ती रही थी। समस्त बुंदेल महिलायें बचपन से ही युद्ध विद्या का अभ्यास करने लग जाती हैं। इन हिंदू राजपूतानियों के जत्थे में बहुत सारी क्षत्रीय स्त्रियों के अलावा अन्य निम्न वर्ग की स्त्रियाँ भी शामिल हैं। जंग में जातेे समय इन स्त्रियों के जंगजू टोलों ने काले रंग के कपड़े पहने होते हैं। चूड़ीदार पाजामी, घुटनों तक लम्बा चोला। सिर पर पीतल की टोपी लेकर घुमावदार काली पगड़ी बांधी होती है। पगड़ी का एक सिरा नाक पर से होता हुआ दूसरी तरफ के कान के ऊपर पगड़ी में टंगा होता है। केवल आँखें ही नंगी रखी जाती हैं। ये काले वस्त्र ही इनकी वेशभूषा है और इनके महिला होने की पहचान भी होते हैं।

किले से कुछ दूर बुंदेली स्त्रियों की मुठभेड़ दलेल खान की फौजों से होती है और वे पहले हल्ले में ही विरोधी निज़ाम मुहम्मद बंगश की सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर देती हैं। तभी पेशवा बाजी राव की फौज भी आकर पीछे से आक्रमण कर देती है। दो फौजी दलों के बीच में घिरा दलेल खान बुरी तरह बौखला जाता है। छोटे से युद्ध के बाद बाजी राव से शिकस्त खाकर मुख्य निज़ाम मुहम्मद खान भाग जाता है और उसकी बहुत सारी बंगशी सेना को मराठा सैनिकों द्वारा बंदी बना लिया जाता है। इस युद्ध में मुहम्मद बंगश का पुत्र कयूम खान मारा जाता है। (कयूम खान की कब्र महोबा में बनी हुई है)।

जैतपुर की यह जंग जीतने के बाद मस्तानी कुंवर और जैत कुंवर शहजादे जगतराज की तलाश में सारा जंगल छान मारती है और उन्हें एक तालाब के निकट घायलावस्था में जगतराज मिल जाता है। रानी देव कुंवर, मूर्छित पड़े जगतराज को लेकर अपने सारे टोले के साथ बुंदेलखंड के दिल में बने जैतपुर के किले में लौट जाती है।


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जंग जीतने के उपरांत पेशवा बाजी राव, महाराजा छत्रशाल की सेना के साथ जैतपुर के किले में प्रवेश करता है। महाराज छत्रसाल आरती उतारने के पश्चात बाजी राव का केसर, चंदन और चावलों के साथ विजय तिलक लगाकर स्वागत करता है, “पेशवा जी, विजय मुबारक हो।...मैं किस मुँह से आपका धन्यवाद करूँ। मेरे पास तो आपका आभार प्रकट करने के लिए भी शब्द नहीं हैं।... यदि आप सही समय पर न पहुँचते तो हम सब मारे जाते या कै़द कर लिए जाते। मैं आपका यह अहसान जीवन भर नहीं भूलूँगा।“


“क्यों लज्जित करते हो महाराज। अन्याय होता तो बाजी राव की आँखों से भी नहीं देखा जाता। यह तो हमारा कर्तव्य था। बाकी निज़ामों के साथ तो हमारा पुराना हिसाब-किताब था जो हमने आज बराबर किया है। हमारा तो मुगलों और निज़ामों के साथ शुरू से ही वैर और नित्य का लड़ाई-झगड़ा रहा है।“ पेशवा बाजी राव अपनी फ़राखदिली दिखलाता है।

महाराजा छत्रसाल, बाजी राव को किले के अंदर ले जाता है, “आओ, अतिथि देवो भवः। आपका जैतपुर के किले में स्वागत है। आप भी थक गए होंगे। यहाँ ठहरकर कुछ दिन आराम करें। आपकी सुख-सुविधा का हर प्रकार से ध्यान रखा जाएगा। जब तक हम शहीद हुए सिपाहियों का अन्तिम संस्कार कर लें और घायलों का इलाज भी होता रहेगा।“

“जैसी आपकी इच्छा।“ 12 मार्च 1730 ईसवी के शुभ दिन बाजी राव अपने दल के साथ किले में प्रवेश कर जाता है।

पेशवा बाजी राव और उसके चुने हुए सरदारों, पिलाजी यादव, नारो शंकर, तुकोजी पवार, आनन्द राव मकाजी, उदाजी रवार, मलहार राव, दावालजी सोमवंशी और राणोजी गायकवड़ आदि के ठहरने का प्रबंध किले के अतिथिगृह में कर दिया जाता है और शेष सेना किले के बाहर तम्बू गाड़कर पड़ाव डाल लेती है।

महाराजा छत्रसाल के साथ भोजनालय में बैठकर बातें करता बाजी राव पूछ लेता है, “महाराज अपनी रियासत के विषय में कुछ बतायें ? हमारे लिए यह नया इलाका है।“

महाराजा छत्रसाल गर्व से बताना प्रारंभ करता है, “हाँ-हाँ। क्यों नहीं। हम सब बताते हैं। मध्य भारत में बसे इस विशाल बुंदेलखंड (अब उतर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों के बीच विभाजित है) के प्रमुख नगर बांदा, चित्रकूट, दतिया, टीकमगढ, राठ, ललितपुर, इलाहाबाद, कौशांबी, सागर, धमोह, ओरी, पन्ना, हमीरपुर, माहोबा, नरसिंहपुर, सतना, रीवा, सिद्धी, सिंहरौली और छतरपुर (1707 ई. में छत्रसाल ने छतर पुर अपने नाम पर बसाया था) हैं। हमारी तो मंशा थी कि झांसी, जलौन, बीजावर, चरखड़ी, समंथर, सरीला आदि भिन्न भिन्न् रियासतों को बुंदेलखंड में मिलाकर अजैगढ़ (बाद 1765 ई. में इसको बुंदेलखंड की राजधानी बनाया गया था) या छतरपुर को राजधानी बनाने की थी। पर लगता है, अब यह केवल एक स्वप्न ही रह जाएगा और हमें पन्ना को ही अपनी राजधानी बनाना पड़ेगा।“

“उम्मीद पर दुनिया कायम है। अभी भी सपने सच करने के लिए आपके पास बहुत समय है। महाराज, निराश क्यों हो रहे हो ?“ बाजी राव हाथ में पकड़ी बुरकी मुँह में डालता है।

महाराजा छत्रसाल भोजन चबाता हुआ बोलता है, “हाँ, समय पर ही सब कुछ निर्भर करता है। पर हमारी दूरअंदेशी बताती है कि ऐसा अब संभव नहीं हो सकेगा। कभी चंदेलों के समय खज़राहो, बुंदेलखंड की राजधानी हुआ करती थी। सोलहवीं सदी (1501 ई.) में बुंदेलों ने ओरशा को राजधानी बनाया। फिर हमारे पिता ने दातिया को राजधानी बना लिया। अब हम दातिया के राजपूतों के कलह-क्लेश में से निकलकर पन्ना को करीब दो सालों तक राजधानी बनाने की सोच रहे हैं।“

“आपने जो सोचा होगा, अवश्य अच्छा ही सोचा होगा। वैसे आपके बुंदेलखंड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है ? महाराज, कुछ उस पर भी प्रकाश डालें।“

बाजी राव का प्रश्न सुनकर महाराजा छत्रसाल कुछ पल मूक रहने के पश्चात कहना प्रारंभ करता है, “पुरातन ग्रंथों में जिस छेदी रियासत का उल्लेख आता है, वह यह बुंदेलखंड ही था। महाभारत के दुर्योधन और उनकी संतान यहाँ राज करती रही है। दसवीं शताब्दी के शुरू में (912-914) कालिंजर से शासन करते कन्नौज के प्रातीहरसां से चंदेलों ने इसी धरती पर आज़ादी ली थी। दसवीं सदी के मध्य (950) में चंदेल राजपूतों ने ग्वालियर के ऐतिहासिक किले को कब्जे़ में लिया। चंदेल राजा धंगा के पौत्र विद्याधारा ने 917-29 ई. तक चंदेलों की रियासत की सीमाओं को चंबल और नर्बदा नदी तक विस्तार देते हुए दूर तक बढ़ा लिया था। महमूद गज़नवी ने विद्याधारा के राज्यकाल के समय में आक्रमण किया था, पर वह सफल न हो सका। दसवीं से पंद्रहवीं सदी तक चंदेलों का बुंदेलखंड पर राज रहा। चंदेल राजा धंगाा ने 950-1008 ई. के दौरान अनेक बोध मठ, हिंदू और जैन मंदिर बनवाये। दसवीं सदी के मध्य से ग्यारहवीं के अध तक निर्मित हुए विलक्षण और प्रसिद्ध खजराहो के मंदिर भी चंदेलों ने ही बनवाये थे। बारहवीं सदी में अजमेर के शासक पृथ्वीराज चैहान ने भी चंदेलों के साथ टक्कर ली थी। तेरहवीं सदी में मुगलों की चढ़त से चंदेलों की रियासत सिकुड़ने लग पड़ी। पर जैसे तैसे वे सोलहवीं सदी तक अपने आप को कायम रखे रहे। फिर सोलहवीं सदी (1501 ई.) से बुंदेलों ने यह देश अपने अधीन कर लिया। बुंदेलों के आगमन से सोलहवीं सदी में बुंदेलखंड के पहले बुंदेल शासक रुद्र प्रताप जी ने राजधानी बनाने के लिए ओरशा की नींव रखी थी। सोलहवीं सदी (1545 ई.) मंे दिल्ली के सिंहासन पर बिराजमान शेरशाह सूरी की मौत कालिंजर को हड़पने के समय हुई। फिर दिल्ली के सुल्तान बुंदेलों पर हावी होते गए। सोलहवीं से अट्ठारहवीं सदी तक बुंदेलखंड, मुगलों के प्रबंध के अधीन रहा है और बुंदेल राजपूत बगावत करते हुए अपनी आज़ादी के लिए युद्ध लड़ते रहे हैं। अकबर ने विशेष मंत्री कल्पी से बुंदेलखंड का शासन चलाने के लिए नियुक्त किए थे। हमारे पिता ने अपना राज्य स्थापित किया। फिर हमने मुगलों की कै़द से आज़ाद होकर (1761 ई. में) विद्रोह का झंडा लहराकर यमुना नदी के दक्खिनी हिस्से को अपने अधीन कर लिया। उसके उपरांत (1761 ई. के बाद) हमने माऊ को अपने अधीन कर लिया। फिर अपने पिता की मृत्यु के लिए जिम्मेदार धंदरां से बदला लेने की ठानकर अनेक युद्ध किए। कार्य कठिन था, पर मैं भी हठी था। आखि़र, उन्हें भयभीत होकर साहरा के किले में छिपना पड़ गया। मैंने भी घेरा डाले रखा। जब उन्हें विश्वास हो गया कि छत्रसाल हार मानने वाला नहीं है तो उन्होंने मेरे समक्ष घुटने टेक दिए। फिर सुलहनामा करने के लिए मुझसे अपनी बेटी का रिश्ता भी किया।“

बाजी राव भोजन करता करता रुक जाता है, “बुंदेलों की बहादुरी के बहुत किस्से सुने हैं।“

“हाँ, कोई झूठ नहीं है पेशवा जी। बुंदेलखंड में सिंध, बेतवा (वरावती), शहिज़ाद, कैन, बागीहन, तोनस, पाउज, दशन और चंबल नदियाँ बहती हैं। काली सिंध मालवा से निकलकर बुंदेलखंड के पश्चिमी घाट को छूती है। इसके समानान्तर पूर्व की ओर बेतवा बहती है। कैन आगे चलकर बागीहन और तोनस का पीछा करती है। वैसे यमुना और कैन ही दो मातृ नदियाँ है जिनके जल को वर प्राप्त हैं, जिसे पीकर हमारे योद्धा निडर और बहादुर बनते और इतिहास लिखते हैं।“

“हाँ, बुंदेलखंड की नदियों के नीर को वरदान मिले होने की बात तो हम भी मानते हैं और इन नदियों के जल में स्नान करके बुंदेली स्त्रियाँ अपने हुस्न को सान पर लगाकर निखरती हैं। राजपूतों की बहादुरी का लोहा और राजपूतानियों के हुस्न की चकाचैंध को पूरा भारतवर्ष मानता है।“ बाजी राव बोलता बोलता अपने ही विचारों की दुनिया में गुम हो जाता है।

“आप कहते हैं तो सही ही कहते होंगे, श्रीमंत। हसीना को अपने हुस्न की तारीफ़ सुनना और बहादुर को अपनी बहादुरी बयान करना सदैव आनंदमयी लगा करता है। यदि मैं आपको बेज़ार न कर रहा होऊँ तो कुछ निजी जीवन के बारे में भी बताऊँ ?“ महाराजा छत्रसाल झिझकते हुए कह देता है।

बाजी राव डकार लेता है, “हमें तो बल्कि सुनकर खुशी होगी और आपके अनुभवों से कुछ सीखने को मिलेगा।“

“असल में जवान होते ही मैं सबसे पहले आपके क्षत्रपति शिवाजी भौंसले से मिला था। तब मैं मुगलों का दक्खिन में मनसबदार होता था। शिवाजी द्वारा मुगलों के विरुद्ध छेड़ी जंग के कारण मैं उनका प्रशंसक था। 1670 ई. (दिसम्बर माह) में दक्खिन आने पर मैं उनसे विशेष रूप में जाकर मिला। मैंने उनकी सेना में सेनापति के तौर पर भर्ती होने की विनती की ताकि मैं उनके साथ मिलकर औरंगजेब के विरुद्ध लड़ सकूँ। लेकिन आप तो जानते ही हैं कि छत्रपति थोड़े सनकी-से स्वभाव के थे। शिवाजी केवल दक्खिनी भारतीयों पर विश्वास करते थे। उतरी भारतीयों पर उन्हें इतना अवश्विास था कि कभी भी वह कोई पद या ओहदा उतारी हिंदुस्तानी को नहीं देते थे। शिवाजी मुझसे कहने लगे कि नहीं, आप अपने क्षेत्र में जा कर अपना राज्य स्थापित करो। आप अपने लोगों की सहायता से अपनी भूमि मुगलों से आज़ाद करवाओ। आवश्यकता पड़ने पर हम मुगलों के विरुद्ध आपके युद्ध में आपका साथ देंगे। मैं निराश होकर लौट आया। परंतु मैंने उनकी बात पर अमल किया। बुंदेलखंड में अपना राज्य स्थापित करके मैंने मालवा के सिरोजन इलाके की ओर रुख किया। वहाँ के फौजदार मुहम्मद हाशम और चैधरी आनंद राय बांका को मेरी शक्ति का अंदाज़ा होने के कारण उन्होंने पूरी तैयार कर रखी थी। मैं चढ़ाई करने चल पड़ा। रास्ते में केसरी सिंह धंदर भी मेरे साथ कुंदागिरी में आकर मिल गया। हमने अचानक हल्ला बोलकर शत्रुओं के पचास-साठ योद्धे मार गिराये। उन्हें विवश होकर सिरोजन के किले में शरण लेनी पड़ी। मैंने उन्हें घेरे में रखकर आसपास के इलाकों को अपने कब्ज़े में ले लिया। उसके बाद मैंने सिरोजन से उतर-पूर्व दिशा की ओर जाकर जैत पटेल राम के शाहूकार को अगवा करके उसका धन लूटा। वापसी में पिपरात को कुचलते हुए मेरी सेना ने धोरा सागर पहुँचकर डेरा डाला। वहाँ धमाजी राय और बहुत सारे गौंड आकर मेरे साथ मिल गए। हम बांदा से दक्षिण-पूर्व की ओर पड़ने वाले पवित्र शहर चित्रकूट थकान मिटाने और नए युद्ध के वसीले पैदा करने के लिए चले गए। धमोनी के फौजदार खलिक के साथ हमारी पत्थरी, सागर और सिद्धगौन में कई मुठभेड़ें हुईं। उसकी फौज अधिक थी और शक्तिशाली भी। इसलिए हमें माऊ की ओर लौटना पड़ा।“

बाजी राव बीच में टोक देता है, “पर मैंने तो सुना था कि आपने खलिक को हरा दिया था ?“

“सुनिये न, वही बता रहा हूँ। हमने मेवाड़ के इलाके बगेलां से जीते। उसके पश्चात खलिक के साथ हमारा दुबारा रानीगीर के मैदान में 1672 ई. में सामना हुआ। यहाँ खलिक की शिकस्त हुई और वह खुद तो भाग गया, पर उसकी सम्पत और हथियार हमने संभाल लिए। मैं काफ़ी ज़ख़्मी हो गया था इस युद्ध में और इलाज के लिए माऊ आकर ही ठहरा। धमोनी विजय करके अभी हटे ही थे कि बंसा के जागीरदार केशवरी डांगी ने हमारे संग पंगा ले लिया। मेरी सेना ने दो महीने बंसा में उसकी हालत खराब किए रखी। केशवरी हार गया और उसका बेटा विक्रम सिंह डांगी हमारी शरण में आ गया। हम जागीर और पचास हज़ारी की उपाधि के साथ उसको सम्मानित करके लौट आए।“

“आपकी बातें बहुत दिलचस्प हैं। सुनकर बहुत मज़ा आ रहा है। आपने भी मेरी तरह बहुत समय रणभूमि में ही बिताया है।... कोई और किस्सा सुनाओ।“ बाजी राव छत्रसाल को फूंक देता है।

“हाँ, योद्धा का जन्म ही लड़ने के लिए होता है, पेशवा जी। हम एकबार पतरी, बाकी खान की जागीर की ओर पाँच-छह घुड़सवारों के साथ शिकार खेलने गए हुए थे। वहाँ के गुप्तचरों ने हमारी मुख़बरी करके सैयद बहादुर को बता दिया। सैयद बहादुर की फौजों ने हमें घेर लिया। संयोग से बाकी की हमारी सेना भी निकट ही थी। हमारा घमासान युद्ध हुआ और हम सागर उनसे जीतकर माऊ लौट आए। इस प्रकार बहुत से किस्से हैं। पन्ना को जीतना... रौहीला खान को हराना... और बहुत कुछ। हमारे बारे में तो कवियों ने कविता भी लिखे हुए हैं, ‘इत यमुना, उत नरबदा, इत चंबल, उत तोंस/छतारसाल सो लड़न की, रही ना काहू होंस।’ अर्थात यमुना से नर्बदा तक और चंबल से तोंस दरिया तक किसी की हिम्मत नहीं है जो छत्रसाल से पंगा ले। पर जवानी और सेहत से ही आदमी इतिहास लिख सकता है। खैर, रात खत्म हो जाएगी, पर बात खत्म नहीं होगी। फुर्सत में आपको सब सुनाएँगे। अब आप आराम करिये।“

“जी हाँ, अब तो नींद भी आ रही है। आपका भोजन बहुत स्वादिष्ट था।“ बुंदेल दास, बाजी राव के हाथ धुला देते हैं।


लम्बे सफ़र और जंग के कारण थका होने के कारण बाजी राव उस दिन भोजन करने के बाद बिस्तर पर लेटते ही गहरी नींद में सो जाता है।

अगले दिन देर से जब पेशवा बाजी राव की आँख खुलती है तो उसके कानों में बहुत ही सुरीले स्त्री स्वर में भजन गायन के शब्द पड़ते हैं। बाजी राव वो मिठासभरी, रसभीनी-सी आवाज़ सुनकर एकदम अपने पलंग पर से उठकर बैठ जाता है।

बाजी राव को मधुर भजन गायन सुनकर अजीब प्रकार की शांति का अनुभव होता है। वह खड़ा होकर खिड़की में से बाहर देखता है। उसके कमरे के सामने ही किले के अंदर बने मंदिर में कोई लड़की भगवे वस्त्र पहने तानपुरा बजाती हुई बंदगी कर रही होती है।

बाजी राव अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाता। वह मंदिर में बैठी लड़की की ओर खिंचा चला जाता है। बागीचे में से होता हुआ पेशवा मंदिर के समीप पहुँच, मंत्रमुग्ध होकर खड़े खड़े ही भजन सुनता रहता है। भजन की समाप्ति पर जैसे ही पेशवा मंदिर के अंदर प्रवेश करता है तो बाजी राव को देखकर ठिठकी हुई वह लड़की फुर्ती से तानपुरा नीचे रख देती है।

बाजी राव आगे बढ़कर उस लड़की को बुलाने का यत्न करता है। पर वह ‘खम्मागणी’(आदरसहित नमस्कार) पेशवा सरकार।“ कहकर अपने पल्लू से अपना मुँह ढक लेती है।

पेशवा उसको कुछ कहने के विषय में सोच ही रहा होता है कि वह कोई अन्य शब्द साझा किए बिना ही पंजों के बल हिरनी की भाँति उछलती-कूदती वहाँ से भाग खड़ी होती है।

बाजी राव उस गोरवर्ण नवयुवती की शक्ल तो अच्छी प्रकार से देख नहीं पाता, परंतु उसकी कशिश भरपूर बिल्लौरी आँखें बाजी राव के सीने में बरछे की भाँति धंस जाती हैं। ठीक ऐसी ही बिल्लौरी आँखों का दीदार बाजी राव ने एक दिन पहले युद्ध के मैदान में भी किया था। काले वस्त्रों में बुंदेलों की एक सैनिका की पगड़ी का एक सिरा तलवारबाजी करते हुए खुल गया था। उस वक्त बाजी राव बिल्कुल उस महिला सैनिक के सामने बंगशों के छक्के छुड़ा रहा था। जैसे ही, उस नारी की बिल्लौरी आँखों में आँखें डालकर बाजी राव ने देखा था तो एक पल के लिए तो उस स्त्री का हुस्न देखकर बाजी राव के होश उड़ गए थे और वह तलवार चलानी भूल गया था। बाजी राव ने इतनी हसीन सूरत कम से कम अपनी ज़िन्दगी में तो पहले कभी नहीं देखी थी।

बाजी राव को टकटकी लगाये देखते उस सैनिका ने फुर्ती से अपना चेहरा पगड़ी का सिरा खोंसकर फिर से छिपा लिया था। वहाँ से अपना घोड़ा भगाकर दूर जाती हुई वह बहुत देर तक बाजी राव की ओर पीछे मुड़ मुड़कर देखती रही थी। बाजी राव की नज़रें उसका तब तक पीछा करती रही थीं, जब तक वह युद्ध में लड़ते सिपाहियों के बीच गुम नहीं हो गई थी।

इस पहली नज़र के साथ ही वे बिल्लौरी आँखें, बाजी राव के साथ कोई अमर रिश्ता बना गई थीं। एक गहरा निमंत्रण छुपा हुआ था उन नज़रो में... मुहब्बत के लिए विशेष निमंत्रण पत्र दे रही थीं वे आँखें... और जन्म-जन्मांतरों का साथ निभाने की प्रतिज्ञा उस दृष्टि मंे से झलकती थी। बाजी राव बुरी तरह सम्मोहित हो गया था। बड़ी कठिनाई से बाजी राव ने अपने आप को संभाला था लड़ने के लिए। उसके बाद तमाम युद्ध के दौरान वही बिल्लौरी आँखें बाजी राव की नज़रों के आगे टिमटिमाते तारों की तरह मंडराती रही थीं। बिल्लौरी आँखों वाली यह भजन गायिका रणभूमि में दिखी वही सैनिका थी।




बाजी राव बागीचे में बहुत देर तक टहलता रहता है। बाजी राव की निगाहें नारी गृह की तरफ ही केन्द्रित हुई रहती हैं। वह उस बिल्लौरी आँखों की तलाश में बहाने, बेहाने से पूरे किले में भंवरे की भाँति भिनभिनाता हुआ मंडराता रहता है। परंतु उस बिल्लौरी आँखों वाली के बाजी राव को दुबारा दर्शन नहीं होते।
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Re: मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

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संध्या समय पेशवा बाजी राव और उसके सरदारों के लिए महाराजा छत्रसाल द्वारा भोजन की विशेष दावत दी जाती है। भोजन के पूर्व मनोरंजन के लिए नृत्य-गान होता है। शराब और अनेक प्रकार के शर्बत वितरित किए जाते हैं। दारू पीता हुआ बाजी राव काफ़ी मदहोश हो जाता है। महाराजा छत्रसाल बाजी राव की खूब खातिरदारी करता है। पेशवा बाजी राव के लिए विशेष रूप से विभिन्न प्रकार के पकवान बनवाये जाते हैं।


महाराजा छत्रसाल खुद यद्यपि शाकाहारी है, पर वह बाजी राव के लिए मांसाहारी आहार खास तौर पर बनवाता है। आवभगत करता हुआ स्वयं महाराजा छत्रसाल, बाजी राव के पास जाकर पूछता है, “श्रीमंत, कैसी है हमारी दावत ? आशा करता हूँ कि आपको आनन्द आ रहा होगा ? यदि किसी प्रकार की कोई कमी या किसी वस्तु की ज़रूरत हो तो निःसंकोच बता दें, यह दास उसे तुरंत पूरा करने का यत्न करेगा।“

“शेष तो सब बहुत उतम है।... दारू तो आपकी लाजवाब है। अति उतम ! और मंगा लो।... याद रखो, मराठा बाजी राव पेशवा पी रहा है...!“ पेशवा बाजी राव के अंदर से सुच्चे मोतियों की भस्म वाली इलायचीदार शराब बोलती है।

महाराजा छत्रसाल यह देखकर खुशी से फूला नहीं समाता है, “हम तो श्रीमंत इसका सेवन नहीं करते। हमारे प्राणामी धर्म में यह वर्जित है। बस आपके जैसे विशेष अतिथियों की सेवा के लिए यह आब-ए-जन्नत रखा हुआ है।“

“आब-ए-हयात तो सुना था, पर आब-ए-ज़न्नत ?“ बाजी राव जाम में पड़ी शराब में अपना चेहरा देखता है।

“हाँ, जनाब-ए-आली ! इसको पीते ही व्यक्ति खुद को जन्नत में पहुँचा हुआ अनुभव करने लगता है और उसको इंद्र के अखाड़े की अप्सराएँ नृत्य करती दिखाई देने लग जाती हैं।“ महाराजा छत्रसाल शेखी बघारता है।
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“इसमें कोई शक नहीं। हम स्वर्ग लोग का नज़ारा देख रहे हैं, आपका आब-ए-जन्नत पीकर... पर अप्सराओं और परियों का नृत्य हमें दिखलाई नहीं देता। शायद हमारी दृष्टि कमजोर है ! बुंदेल सम्राट, मुझे बेहद अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि संगीत का प्रबंध आपका बहुत अच्छा नहीं। यह ठंडी-सी ठुमरी... आपकी नृत्यांगनाओं को ठीक से ढाई मात्रे भी नहीं आते... मुर्दा से साज बजाने वाले और शोक-सा गीत-संगीत। शहनाइयों के मातमी राग सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैयत पर आए हुए हैं।... शायद हमारी नाट्यशाला ही सबसे उतम है कि हमें दूसरों किसी महफ़िल में कुछ अच्छा ही नहीं लगता।... आपके दरबारी कवि लाल और भूषण में भी कोई अधिक दम दिखाई नहीं देता।... क्या आपके पास कोई जबरदस्त मुजरे वाली नहीं है जो एक ऐड़ी मारकर सारी पृथ्वी हिलाकर रख दे ?... जिसके पैरों में बंधे घुंघरुओं की छनकार दशम द्वार खोल दे और ऐड़ी की धमक धरती धंसाते हुए सीधी कलेजे में बजे।... या कोई ऐसी गायिका नहीं है जिसका गीत सुनकर सागर की लहरें भी रुककर सुनने लगे ? ... कोई चंचल-सी कंचनी या गायिका जो बस समां बांधकर रख दें ?“ नशे में डूबा बाजी राव दरअसल अप्रत्यक्ष रूप से उस बिल्लौरी आँखों वाली के बारे में पड़ताल करना चाहता है।

महाराजा छत्रसाल कुछ पलों के लिए सोच में पड़ जाता है और फिर दाढ़ी खुजलाता हुआ बोलता है, “अच्छा ! यह बात है तो पेशवा जी अपने दिल पर हाथ धर लो। आपको दिखलाते हैं जलवा…।“

महाराजा छत्रसाल अपने दास को बुलाकर उसके कान में फुसफुसाकर कोई आदेश देता है।

अगले ही क्षण सभी साज़िंदे बदल जाते हैं। नृत्यमंच का पर्दा धीमे धीमे पीछे हटता है। नए साज़ छिड़ जाते हैं। लाल और सुनहरी रंग के लहंगे वाली एक लम्बा घूंघट किए बैठी नवयौवना ग़ज़ल गाना आरंभ करती है। उसकी पहली टेर पर ही बाजी राव आवाज़ पहचान लेता है और चुस्त होकर बैठ जाता है। ज्यूँ ही वह ग़ज़ल का मतला गाती हुई अपने गोरे दिलकश और नूरानी मुखड़े पर से घूंघट उठाती है तो बाजी राव की आँखों से उसकी चिंगारियाँ छोड़ती बिल्लौरी आँखों का सीधा सामना हो जाता है। बाजी राव को अपने दिल की धड़कन वहीं की वहीं रुक गई महसूस होती है। वह एकाग्रचित होकर बिल्लौरी आँखों वाली अट्ठारह उन्नीस वर्ष की नवयौवना नर्तकी का नृत्य बग़ैर पलके झपकाये देखता रहता है। सुनहरी और चाँदी के गोटे की कढ़ाई वाले हीरे मोती से जड़ा लहंगा, तंग चोली और जबरदस्त हार-शृंगार तथा कमर तक चमकते सुनहरी रंगत देते केश उस हुस्नपरी को और अधिक खूबसूरत बनाकर पेश कर रहे होते हैं।

उसकी सुंदरता देखकर बाजी राव के होशोहवास गुम हो जाते हैं और उसको खाने या पीने की कोई होश नहीं रहती। दीवानगी के आलम में मदहोश हुआ बाजी राव किसी अन्य ही दुनिया में विचरने लग जाता है। उसको सब कुछ स्वप्न जैसा प्रतीत होता है। नर्तकी के नाज-नख़रों और ज़ालिम अदाओं पर बाजी राव बुरी फिदा हो जाता है। नृत्य की ताल और ठेके, बाजी राव के दिमाग में गूंजने और हलचल मचाने लग जाते हैं।


“धा धिन धिन धा, धा धिन धिन धा, धा तिन तिन ता, ता धिन धिन धिन। (तीन ताल सोलह मात्रा। विभाग चार, तीन ताली, एक खाली)। धा धी ना, शा ती ना(दादरा, छह मात्रा, दो विभाग, एक ताली, एक खाली)।... धिना धिधा तिरकिट धिना धिधा तिरकिट धाधा तिरकिट धाधा तिरकिट धिना धिधा तिरकिट तूना किड़नग तागे ता तिरकिट (ताल लक्ष्मी, अट्ठारह मात्रा, विभाग पंद्रह, पंद्रह ताली, कोई न खाली)... ता... था... थइया...थइया...थम्म !!!“ नर्तकी नाच नाचकर आँधी ला देती है।

बाजी राव को उस कंचनी पर नृत्यदेव नटराज की कृपा और कंठ में सरस्वती का वास प्रत्यक्ष दिखलाई देता है। बाजी राव प्रसन्न होकर वाह-वाह कर उठता है।

नृत्य समाप्त होने पर बाजी राव शराब वितरित कर रहे एक बुंदेल दास से पूछता है, “यह कौन है जिसके जादुमयी हुस्न और दिलकश आवाज़ ने सारे आलम को मस्ताना बना दिया है ?“

“पेशवा सरकार, यह मस्तानी है !“ कहकर दास आगे बढ़ जाता है।

“मस्...ता...नी ! वाह ! मस्तानी ! कितना उपयुक्त नाम है इस सुंदर बाला का। जितनी हसीन खुद है, उतना ही दिलचस्प और खूबसूरत इसका नाम है। मस्...ता...नी...। हाय, मैं मर जाऊँ मस्तानी...मस्तानी...मस्तानी...।“ बाजी राव खुद अपने आप से स्वकथन करता हुआ मस्तानी के ख़यालों में गुम रहता है। उसके बाद वह महफिल में उपस्थित होता हुआ भी अनुपस्थित हो जाता है।

रात मंे बिस्तर पर लेटकर बाजी राव अपने सिरहाने को मस्तानी की कल्पना कर कस कसकर बांहों में भरता रहता है। उसकी सारी शराब उतर चुकी होती है। बल्कि यह कह लो कि मस्तानी का नृत्य देखते हुए उसको शराब तो चढ़ी ही नहीं थी। यदि कोई नशा बाजी राव के दिल-दिमाग पर हावी होता है तो वह मस्तानी की तिलस्मी सुंदरता की मदहोशी होती है।

रातभर मस्तानी को याद करते हुए बाजी राव करवटें बदल बदलकर रात बिताता है। कभी युद्ध में देखी बिल्लौरी आँखें बाजी राव को दिखाई देने लग जाती है जो क्रोध की चिंगारियाँ छोड़ती बाजी राव को देखकर एकदम शांत और निर्मल हो गई थीं।... कभी मंदिर में देखीं भक्ति में लीन-विलीन निश्छल और मासूम बिल्लौरी लोचनों का दृश्य उसके सामने आ जाता है।... और कभी नृत्य के समय सन्मुख हुए कामोतŸोजक बिल्लौरी नयन उसके आगे विद्यमान हो जाते हैं जो प्रेम और भक्ति की अमृत धारा बरसा रहे होते हैं।... कभी उसको मुजरा करती नर्तकी के नशीले बिल्लौरी नेत्र के साथ हुई मुठभेड़ सामने आ जाती है जो सौ सांपों के डंकों से भी अधिक असरदार और लूट लेने की सामथ्र्य रखती है।

रात के अँधेरे में बाजी राव अतिथिगृह की छत को निहारता उन बिन काजल कजलाये मशालों की तरह दिपदिपाते नयनों की कल्पना करता रहता है। खुली आँखों से ख्वाब देख रहे बाजी राव को मस्तानी कभी चंडी, कभी मीरा और कभी मेनका बनकर दिखाई देने लग जाती है। जंगजू, भक्तिनी और अप्सरा वाले मस्तानी के तीनों रूपों के साथ बाजी राव को इश्क हो जाता है। मस्तानी के विषय में सोचते ही बाजी राव का दिल धड़कने की बजाय फड़कने लग जाता है। बाजी राव, सारी रात मस्तानी की याद में नीर बिन हाँफती मीन की भाँति तड़पकर बिना सोये ही बिताता है। नींद उसकी आँखों से बगावत करके रूहपोश हो जाती है।
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Re: मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

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बारिश हो, आँधी हो, बाजी राव सदैव शुरू से ही तड़के जल्दी उठकर बिना नागा कसरत और युद्ध अभ्यास करने का अभ्यस्त रहा है। लेकिन मुजरे से अगली सवेर उसका कुछ भी करने को मन नहीं करता। न उसको भूख लगती है और न ही प्यास। स्नान करने के बाद तैयार होते हुए उससे तो अपने गले में मराठों के प्रतीक चिह्न वाली मोतियों की मालायें भी ठीक से सब की सब पहनी नहीं जातीं। यहाँ तक कि बाजी राव को पूरे वस्त्र पहनने की भी होश नहीं रहती। वह केवल कमर पर लांगड़वाली लुंगी बांधकर मुँह फाड़े एकटक देखता हुआ मस्तानी के बारे में सोचता गुमसुम, चुप्पा बनकर स्थिर बैठा रहता है। मस्तानी के ख़यालों में खोये हुए को न अपने आसपास की होश होती है और न ही वह किसी के साथ कोई बातचीत करता है।
पेशवा बाजी राव की झल्लों जैसी स्थिति देखकर उसका एक सिपहसालार तुकोजी पवार, बाजी राव का ध्यान भंग करता है, “श्रीमंत सरकार, गुस्ताखी माफ़ हो तो कुछ अर्ज़ करूँ ?“

बाजी राव बिना देखे हुंकारा भरता है, “हूँ !“

“पेशवा जी ?“

“हूँ…?“

“पेशवा सरकार !“

“हूँ ? बक... क्या बकवास करनी है मूर्ख ?“

“श्रीमंत...। सर...का...र.. हैं कि ना...।“

“हूँ... हाँ।“

“हाँ... क्या जी ?“

“वही जो तू कहता है।“

“पर मैंने तो अभी कुछ कहा ही नहीं जी।“

बाजी राव सिर झटककर तुकोजी पवार की ओर देखता है, “इतनी देर से यूँ ही मगज़ खाये जा रहा है ? शीघ्र भौंक जो भौंकना है ? मेरा मस्तानी में ध्यान लगा हुआ है।“

“पेशवा जी, कल रात से देख रहा हूँ। आपने जब से मस्तानी का नृत्य देखा है, कुछ मुरझाये से लग रहे हो। कुशल तो है ?“

“कुशल ही तो नहीं है तुकोजी पवार जी। आप मुरझाये होने की बात छोड़ो। मैं तो बिल्कुल ही जड़ से उखड़ा पड़ा हूँ तब से। धर्म से कलेजा खींचकर निकाल लिया है जादूगरनी ने। किसी घायल परिन्दे जैसी अवस्था है मेरी। न ठीक से सांस आता है और न ही जान निकलती है। असीम सौंदर्य दिया है ईश्वर ने उसको। इंद्र के अखाड़े की रंभा, मेनका और उर्वसी जैसी अप्सराओं को मात देती थी रात को नृत्य करते हुए। मेरे तो कानों में अभी भी उसके घागरे के घुमाव और उसके घुंघरूओं की छनकार गूंज रही है। रात में जब वह गोल गोल फूल-से बनाती हुई नाच रही थी, मुझे तो यूँ प्रतीत होता था जैसे मैं शिवजी होऊँ और वह पार्वती बनकर मुझे प्रसन्न करने के लिए ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही हो। आफ़रीन गायकी और मधुर आवाज़...लाजवाब नृत्य और कमाल की भावों की अभिव्यक्ति... गजब की सुंदरता और गोरा गठा हुआ शरीर... क्या खाकर जन्मा होगा इसकी माँ ने इस लम्बी छरहरी सी आग जैसी को ! जा कंजर, मालूम कर कि यह मस्तानी कौन है ? मेरा तो उसके मखमली बदन पर लेटने को दिल कर रहा है। मन करता है, उठाकर ले जाऊँ। क्यों न इसे पुणे में सारी जि़न्दगी अपने दरबार में रखें। कमबख्त, मैं तो मर जाऊँगा मस्तानी के बग़ैर...।“ बाजी राव तड़के ही खाली पेट हाथ में पकड़ा जाम मुँह को लगा लेता है।

तुकोजी पवार भी रालें टपकाने लग जाता है, “हाँ श्रीमंत, यह औरत सुंदर तो मुझे भी बहुत लगी थी। मैं तो रात से अपने आप ही अपने अंगों को दबा दबाकर तसल्ली दिए जाता हूँ। इस शराब की सुराही जैसी को उठाने के लिए मैं भी मुजरा देखने के समय से हाथों पर थूकता फिरता हूँ, सरकार।“

“क्या कहा ? मस्तानी सिर्फ़ मेरी है। समझे ? यूँ न लांगड़ उठाये घूम। साला बैडि़यों का न हो तो... गांव बसा नहीं, मंगते पहले ही आ गए। बड़ा आया उठाने वाला... साले, पृथ्वी राज चैहान है तू ? ख़बरदार दुबारा मस्तानी के बारे में भूलकर भी ऐसा नहीं सोचना।“ बाजी राव आँखें निकालकर गुस्से में देखता है।

तुकोजी पवार काँप उठता है, “हुजूर, मेरे कहने का तात्पर्य था कि सुंदर तो खूब है। यदि यह नर्तकी अपने पूना दरबार की शोभा बन जाए तो अपनी नाट्यशाला को चार चाँद लग जाएँगे। मैं तो खुद रात से ही सोचे जा रहा हूँ कि ब्रह्मा ने पहले कागज पर नक्शा बनाकर पूरी तरह नापतौल कर बनाई होगी। इसको बनाते हुए कई बार गिराया होगा और फिर जाकर यह सर्वश्रेष्ठ देह तैयार हुई होगी। पहली बार में तैयार होने वाली कलाकृति तो नहीं लगती है जी। बिल्कुल ही चलता-फिरता ताज है हुजूर। धर्म से अग्निबाण जैसी आँखें हैं मस्तानी की पेशवा जी।“

बाजी राव खीझ पड़ता है, “अरे मूर्ख, आँखों की याद न दिला। मेरा तो रात से बुरा हाल हुआ पड़ा है। बातें ही बनाये जाएगा या इसके बारे में कुछ जानकारी भी लाएगा ? मैं बताऊँ, मुझसे तो सब्र नहीं होता...। आज रात को... अव्वल तो अभी उसको मेरी सेज का शृंगार बनाने का प्रबंध करो। नहीं तो मैं बुंदेलखंड की ईंट से ईंट बजा दूँगा। मराठा हूँ मैं, मराठा। अपना तो गुज़ारा नहीं होता मस्तानी के बग़ैर।“

बाजी राव का चहेता सरदार पिलाजी यादव कमरे के अंदर प्रवेश करता हुआ कहता है, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी, श्रीमंत। मैंने सब खोज कर ली है। यह मस्तानी कुंवर महाराज छत्रसाल की एक मुस्लिम रानी (वास्तव में रखैल, रानी नहीं) की बेटी है।“

“अच्छा ? मैं भी सोचता था कि यह हिंदू तो हो नहीं सकती। ऐसा नायाब हीरा अपने ब्राह्मण नहीं तराश सकते। यह करिश्मा तो राजपूत और एक मुगलानी के मिलन से ही हो सकता है भाऊ (मराठी में ‘भाऊ’ बड़े भाई को कहते हैं)। हुस्न से झोलियाँ तो ईश्वर मुस्लिम स्त्रियों की ही भरता है। ये मुसलमान तो अपने हिंदुओं की मिन्नते करते हैं कि ज़रा इस्लाम कुबूल करो, जन्नत में तुम्हें हूरें देंगे। खूबसूरत स्त्रियों को हरमों में रखने के शौक ने इन साले मुगलों की नसल सुधार दी है। सुंदर स्त्रियों की कोख से आगे और अधिक सुंदर लड़कियाँ पैदा होती जाती हैं। इसलिए मुगलानियाँ बेहद हसीन और आकर्षक हुआ करती है। हाय ! गऊ माता की सौगंध ! बेशक आधी मुसलमानी है, पर फिर भी मुझे इस मुसलमानी के साथ इश्क करने की सोचकर ही दुगना नशा चढ़े जाता है, पिलाजी।“ बाजी राव अपने समीप पड़ी सुराही में से और शराब डालकर पीने लग जाता है।

पिलाजी यादव अपने चतुर दिमाग को खुरचता है, “और क्या श्रीमंत, इश्क करना और आदमी को सेज सुख देना तो ये मुस्लिम स्त्रियाँ ही जानती हैं जी। अपनी ब्राह्मण स्त्रियाँ तो चुम्मी देते हुए भी राम राम जपे जाती हैं। दूर मत जाइये। आपको मैं अपनी पंडिताइन की बात सुनाता हूँ जी... एक बार खासी रात हो गई। वो तो मेरे पास आने का नाम ही न ले। मैंने तो प्रतीक्षा में करवटें बदल बदलकर बिस्तर का कचूमर निकाल दिया। इस तरह बल डाल दिए जैसे चादर घड़े में से निकाली हो। खीझकर मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई - भागवान मेरा पेटा (मराठा पगड़ी) ला जल्दी से। वह रसोई में से ही बोली - मैं कहूँ, आधी रात को पेटा बांधकर कहाँ जाना है ? मैंने कहा, मुझे चैथ पर दक्खिन की सरदेशमुखी लेने जाना है। औरत के टखनों में अक्ल होती है। वह फिर भी कुछ न समझी। बना संवारकर बोली - दिन तो चढ़ जाए। तड़के चले जाना। मैंने तो जी खीझकर रसोई में जाकर पकड़ ली। मैंने कहा, तू क्या समझती है, अगर हमें सरदेशमुखी घर में न मिलेगी तो कहीं बाहर भी नहीं मिलेगी। नाट्यशाला वाली तो नित्य हांकें लगाती हैं... तब कहीं जाकर वो समझी जी। फिर आकर मेरे संग लेट गई। लाश सी बनकर साड़ी उतारते हुए भी ‘हरे कृष्ण...हरे कृष्ण’ करती रही। मैंने ज़ोर से एक थप्पड़ उसके मुँह पर दे मारा। मै बोला - साली, बड़ी द्रौपदी न बन। तेरा खसम हूँ, दुर्योधन नहीं कि तेरा चीर हरण करने लगा हूँ और तू भगवान कृष्ण को इज्ज़त की रक्षा के लिए बुला रही है।“

बाजी राव खिलखिलाकर हँसने लग जाता है, “यादव, अजीब है तुम्हारा परिवार भी... कंजर के, मुझे कब मस्तानी के सुंदर शरीर की सरदेशमुखी मिलेगी ? मुझे प्रेम हो गया है मस्तानी से, प्रेम रे ! मर जाऊँगा अगर मस्तानी न मिली तो।“

पिलाजी यादव मचलकर कहता है, “पेशवा जी, महाराजा छत्रसाल हमारा कर्जाई है। हमने उसकी जान, माल और रियासत की रक्षा की है। इसके एवज में मिलने वाली ‘चैथ’ (रक्षा करने के बदले मेहताने के रूप में रियासत की आमदनी का चैथा हिस्सा जो टैक्स के रूप में मराठों द्वारा वसूला जाता था।) के साथ यदि आप कंचनी मस्तानी को भी मांग लो तो मजाल है कि वह इन्कार कर जाएँ।“

“एक बात समझ में नहीं आती, महाराज छत्रसाल ने अपनी बेटी को कंचनी बनाकर हमारे सामने मुजरा क्यों करवाया है ?“ वहमी राणो गायकवाड़ भी बातचीत में सम्मिलित होते हुए कहता है।

“आप नहीं जानते गायकवाड़ जी। महाराज छत्रसाल की उन्नीस रानियाँ और अनेक दासियाँ हैं। राजा-महाराजा असल संतान और अपने उŸाराधिकारी तो पटरानियों और कुछ चुनी हुई रानियों से पैदा हुई औलाद को ही मानते हैं। बाकी को तो अपनी गलतियाँ समझकर नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। हो सकता है, यह मस्तानी भी किसी दासी की ही पैदाइश हो ?“ बाजी राव अपना अनुमान प्रकट करता हुआ मस्तानी को प्राप्त करने की तरकीबें बुनने लग जाता है।

आनन्द राव मकाजी कमरे में पसरती जा रही खामोशी को तोड़ने का यत्न करता है। वह अपनी बात एक गाली से शुरू करते हुए कहता है, “उन्नीस रानियाँ और पैंतीस चालीस दासियाँ, रखैलें हैं छत्रसाल के हरम में ? धन्य है भाई। मैं तो सोचता हूँ, इतनी औरतों को महाराजा छत्रसाल खिलाता क्या होगा ?“

“यह न पूछो उन्हें क्या खिलाता होगा, यह पूछो इतनों के लिए महाराजा खुद क्या खाता होगा ?“ ख़यालों के चक्रवातों में से निकलकर बाजी राव तुरंत जवाब देता है।

कमरे के वातावरण में सभी का ठहाका गूंज उठता है।

राणो गायकवाड़ से भी कहे बिना नहीं रहा जाता, “यह राजे-महाराजे भी औरतों के साथ भोजन वाला व्यवहार करते हैं। जब छ्त्तीस प्रकार के पकवान सामने परोसे गए हों तो व्यक्ति सब कुछ नहीं खा सकता। बस, बुरकी बुरकी सभी व्यंजनों में से लगाकर ये रजवाड़े पेट भर लेते हैं।“

आनन्द राव मकाजी दिलचस्पी दिखाता हुआ आनन्द लेता है, “और बाकी बचा भोजन ?“

“बाकी बचा दासों के पेट भरने के काम आता है, भाऊ। संभव है, मस्तानी भी महाराजा की छोड़ी जूठ में से किसी दास के छके हुए भोजन का नतीजा हो ?“ सदैव गंभीर रहने वाला मल्हार राव मुँह खोलता है।

बाजी राव सभी को झिड़कता है, “चुप रहो ! हरामियो। तुम भी दूसरे की गोद में बैठकर दाढ़ी बनाने लग जाते हो। याद रखो, हम इस समय महाराजा छत्रसाल के अतिथि हैं। चलो, काम करो अपना और मुझे एकांत बख़्शो।“



सभी वहाँ से अपने अपने ठिकानों की ओर चले जाते हैं। बाजी राव अपने कक्ष में दारू पीता हुआ फिर से मस्तानी के कामुक सपनों और विलासी सोचों में डूब जाता है। जैसे जैसे वह मस्तानी के विषय में सोचता जाता है, वैसे वैसे उसके हृदय के अंदर मस्तानी के प्रति मुहब्बत बढ़ती जाती है। वह मन ही मन मस्तानी को इश्क करने लग जाता है। दूसरी ओर हवस भी उसके अंदर हिलोरे लेने लगती है। बाजी राव के जे़हन में पैदा हुई कामेच्छा भी दुगनी होकर बढ़ने लगती है और वह अधीर होकर बिस्तर पर लेटते ही तड़पने लग जाता है।
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Re: मस्तानी -एक ऐतिहासिक उपन्यास

Post by Ankit »



तीसरे दिन दोपहर को महाराजा छत्रसाल से बाजी राव के लिए बुलावा आ जाता है। संयोगवश उस दिन गणेश चतुर्थी होती है। महराजा छत्रसाल ने अपने दरबार में एक विशेष समारोह का आयोजन कर रखा होता है। पेशवा बाजी राव के खादिम, उसके सिर पर शाही कलगी जड़ा सुनहरी और सफ़ेद फेटा (मराठों की पेशवाई पगड़ी) सजा देते हैं। हीरे-मातियों की मालायें और बहुमूल्य रेशमी वस्त्र पहनकर बाजी राव अपने सरदारों और अहलकारों के साथ महाराजा छत्रसाल के दरबार में चला जाता है।


दरबार में महाराजा छत्रसाल के मंत्रिमंडल, अमले और अहलकारों के अलावा छत्रसाल की उन्नीस रानियाँ, चैंतीस रखैलें और अनेक पुत्र, पुत्रियाँ (लगभग पचास-साठ) भी उपस्थिति होती हैं। साधारणतया, महिलायें परंपरा के अनुसार पर्दे के पीछे रहकर ही दरबार की कार्रवाई में भागीदारी निभाती हैं। लेकिन बाजी राव को देखकर हैरानी होती हैं कि महाराजा छत्रसाल के दरबार में महिलायें पर्दा किए बग़ैर मर्दों के बराबर स्थान ग्रहण करती हैं। पेशवा बाजी राव, मस्तानी कुंवर को टकटकी लगाकर बिना पलकें झपकाये देखता रहता है और पलभर के लिए भी उसके चेहरे से नज़रें दूर नहीं हटाता।

मस्तानी कुंवर को उसकी युद्ध में दिखाई बहादुरी के लिए सम्मानित किया जाने की रस्म शुरू होती है तो मस्तानी शहजादा जगतराज की पत्नी जैत कंवर को बांह से पकड़कर कर सामने कर देती है, “काकाजू, मान-सम्मान प्राप्त करने का तो भाबीसा का असल हक है। इन्होंने ही भाईसा को जंगल में से खोज था।“

महाराजा छत्रसाल मुस्कराता हुआ अपने सिंहासन से उठता है और एक अनमोल हार अपनी बहू जैत कंवर के गले में डालकर घोषणा करता है, “बेटी जैत कुंवर, समूचा बुंदेलखंड सदैव तेरा ऋणी रहेगा और आज से छह लाख की जलालपुर (Jalalpur is a city and a municipal board in Ambedkar Nagar district in the Indian State of Uttar Pradesh) और दरसोधा की जागीर तुझे इनाम के तौर पर प्रदान की जाती है।“

समूचे दरबार में उल्लास की एक लहर दौड़ जाती है। बहूसा पदमावती कुंवर (छोटी रानी और जैत कुंवर की सगी सास) की आँखें खुशी से नम हो जाती हैं। मस्तानी को भी एक बेहतरीन शमशीर और गहनों से सम्मानित किया जाता है।

आवश्यक कार्रवाइयों को समाप्त करने के पश्चात महाराजा छत्रसाल बाजी राव से सम्बोधित होता है, “पेशवा जी, आओ अब हम बुंदेल-मराठा संधि के अहदनामे का मामला भी निपटा लें।“

बाजी राव, महाराजा छत्रसाल के साथ बात करते हुए मस्तानी कुंवर की ओर देखकर मुस्कराता है, “बहुत अच्छे, हम तैयार हैं।“

महाराजा छत्रसाल सारी सभा की ओर देखते हुए बोलना प्रारंभ करता है, “पेशवा जी, मराठा हुक्मरान छत्रपति शिवाजी द्वारा पराई रियासतों को सैनिक सेवाएँ प्रदान करने तथा उनकी रक्षा करने के लिए कर के रूप में आमदनी का चैथा हिस्सा अर्थात चैथ लेने की प्रथा से हम परिचित हैं। 1665 ई. में बीजापुर (वर्तमान में कर्नाटक का जि़ला) और गोलकुंडा (हैदराबाद के समीप एक शहर) के दक्षिणी (DECCAN) सुल्तान छत्रपति शिवाजी महाराज को एक लाख चैथ देते रहे थे। 1719 ई. में मुगल बादशह ने छत्रपति शाहूजी को चैथ के साथ पंद्रह हज़ार नगद राशि अर्थात सैनिकों की सेवा के लिए छह दक्खिनी रियासतों की सुरदेशमुखी (आमदनी का दसवां हिस्सा, जो रियासतें चैथ की रकम के साथ छत्रपति को दिया करती थीं।) दिए जाने की भी हमें जानकारी है। हमें अपनी रियासतों को दातिया और ओरशा के राजपूतों से सुरक्षित रखने के लिए आपके सहयोग की निरंतर आवश्यकता पडे़गी। हम मराठा बहादुरों को उनकी वफ़ादारी के लिए चैथ देने के लिए तैयार हैं। पर मैंने सुना है कि चैथ का चैथा हिस्सा जिसको आप ‘बाबती’ कहते हैं, सीधा छत्रपति शाहूजी को चला जाता है। कुछ हिस्सा नादगौंडा (आवश्यक खर्च) और पांचसचिव(दान) में निकल जाता है। जंगी सामान, सैनिकों का मेहनताना और कार्यकारी अधिकारियों के खर्च ‘साहोतरा’ को निकालकर पीछे, दो चैथाई हिस्सा अर्थात ‘मोक्षा’ ही मराठा सरदारों के लिए बचता है।... पेशवा सरकार, आपने हमारी एक पुकार पर पैरों में जूती भी नहीं पहनी, और हमारी रक्षा के लिए आप तत्पर हुए। आज हम इस सिंहासन पर बिराजमान हैं तो सिर्फ़ आपके कारण हैं। आपने हमें उम्रभर के लिए अपना गुलाम बना लिया है। मांगो क्या चाहिए ?“

बाजी राव मंद मंद हँसता है, “महाराज, एकबार एक राजा जंग लड़ने जाता है और एक फकीर से विजय प्राप्ति का आशीर्वाद मांगता है। फकीर ‘तथास्तु’ और ‘विजयी भवो’ कहकर आशीर्वाद दे देता है। राजा जंग जीत जाता है। फिर वह राजा शुक्राना करने के लिए उसी फकीर की दहलीज पर आता है और फकीर से कहता है, मांगो, मैं आपको क्या दान-दक्षिणा दूँ ? फकीर कुछ नहीं बोलता, बस सिर्फ़ राजा की दयनीय हालत पर हँस देता है। जिसने जीत भी फकीर से मांगकर ली होती है, वह फकीर को क्या दे सकता है ?“

महाराज छत्रसाल, बाजी राव की रम्ज़ समझ जाता है, “आप मेरी बात का गलत आशय ले गए। पेशवा जी, मेरे कहने अर्थ था कि आपके हम पर अहसान हैं। हम सदैव आपके ऋणी रहेंगे। आपने हमारी सहायता करके हम पर उपकार किया है। अगर कभी आप हमारी जान भी मांगेंगे तो हम बिना सोचे हँसते-हँसते आपको दे देंगे।“

“यह बात है तो समझो हमने आपकी जान मांग ली है।“ बाजी राव बिना देर करे तुरंत बोल पड़ता है।

महाराजा छत्रसाल अचंभित हो जाता है, “मैं कुछ समझा नहीं। कृपा करके साफ़ और स्पष्ट बताएँ।“

“कुछ क्या, आप तो कुछ भी नहीं समझे। आपने ठीक फरमाया है कि चैथ तो छत्रपति श्री शाहूजी को चली जाएगी। पीछे बाजी राव के पल्ले तो नाममात्र सी रकम ही बचेगी। हमें भी तो कुछ मिलना चाहिए।“

“हाँ-हाँ, हुक्म करें, आपको हीरों की खानों वाली अपनी नई राजधानी पन्ना रियासत (मध्य प्रदेश) की जागीर दे देते हैं।“

बाजी राव की आँखें हँसती है, “चाहिए तो हमें हीरों की खान वाली जागीर ही है। लेकिन पन्ना नाम की धरती का टुकड़ा हमें क्या करना है ? हमारे पास जागीरों का कौन का घाटा है ! हमें तो आपके खजाने का सबसे कीमती हीरा... हमारी मुराद है, हमें स्वय कों मस्तानी चाहिए।“

बाजी राव के मुख से यह सुनकर महाराजा छत्रसाल को एक झटका-सा लगता है और वह अवाक् होकर कभी धरती की ओर देखने लग जाता है और कभी पेशवा बाजी राव की ओर। जब महाराजा छत्रसाल कुछ देर तक कोई उत्तर नहीं देता तो बाजी राव स्वयं उसको छेड़ता है, “किस हिसाब किताब में उलझ गए, बुंदेलपति ?“

“नहीं...नहीं... कुछ नहीं। पेशवा जी, शायद आप नहीं जानते कि मस्तानी कुंवरसा हमारी बेटी है और हमने उसको बेटों से अधिक लाड़ में पाला है। हमारे जिगर का टुकड़ा है वो। यह संभव नहीं है।“ महाराजा अपनी विवशता प्रकट करता है।

बाजी राव, महाराजा छत्रसाल के पीछे हाथ धोकर पड़ जाता है, “पर बेटियाँ भी कभी किसी ने घर में रखी हैं ? आपके राजपूतों में तो विजयी राजा के साथ दोस्ताना संबंध स्थापित करने और रिश्तेदारी बनाने के लिए ‘डोला’ लेने और देने की प्रथा है। अनेक राजपूतों ने अकबर और अन्य हुक्मरानों को अपनी बेटियों के डोले दिए हैं। क्या नहीं ?“

महाराजा छत्रसाल, बाजी राव को गचका देने का प्रयास करता है, “वह तो ठीक है, पर हर राजपूत महाराजा छत्रसाल नहीं होता और डोले में जाने वाली हर लड़की मस्तानी नहीं होती। मेरी जान है वो। मस्तानी की जगह हम आपको मन बहलाने के लिए अन्य दस लड़कियाँ दे देते हैं। आप जिस पर भी उंगली रखेंगे, हम हँसकर उसको आपके सुपुर्द कर देंगे।“

“दस नहीं, बस, हमको केवल मस्तानी ही चाहिए। आप चिंतित न हों, हम भी मस्तानी को पलकों पर बिठाकर रखेंगे। गरम हवा नहीं लगने देंगे। काँच के सामान की भाँति संभाल संभालकर रखेंगे। जान से प्यारी बनाकर।“ बाजी राव गुस्से में आकर अपने हाथों में पकड़ी अपनी तलवार की मूठ को और ज्यादा कसकर पकड़ लेता है।

“यदि यह बात है तो मैं डोला तो नहीं दे सकता। हाँ, अगर आपकी इच्छा है तो मैं मस्तानी के साथ आपका विवाह अवश्य कर सकता हूँ। पर मैंने तो सुना था कि आप पहले ही विवाहित है।...“ बात करते करते महाराजा छत्रसाल चुप हो जाता है।

“इससे क्या अंतर पड़ता है ? आपकी भी तो अनेक शादियाँ हुई हैं और मेरे पिता जी पेशवा बाला जी विश्वनाथ जी ने भी दो विवाह करवाये और अनेक रखैलें रखी थीं। छत्रपति शिवाजी के आठ विवाह थे। शिवाजी के पोते और संभा जी के पुत्र हमारे छत्रपति महाराज शाहू संभाजी राजा भौंसले जी की चार बेगमें हैं। बड़े लोग बहु-विवाह करवाया ही करते हैं। महाराज, आपने अपनी तमाम जि़न्दगी में रोहीला खान, खालिक, मुनवर खान, सदर-सुद्दीन, शेख अनवर, सैयद लतीफ़, बहिलोल खान और अब्दुस अहमद जैसे जरनैलों को हराया है और 1680 ई. में महोबा पर बहादुरी के साथ कब्ज़ा किया। आपने अपने राज्य की सीमा को पूर्व में चित्रकूट और पन्ना, पश्चिम में ग्वालियर तक, उŸार दिशा में सागर से लेकर कल्पी तक और गराह कोटा तक, उधर धामोह दक्खिन तक फैलाया है। और फिर आप तो जानते ही हो कि आपके राज को संभालने के लिए आपका कोई पुत्र भी सुयोग्य नहीं है। आपकी रियासत को सुरक्षित रखने के लिए हमेशा आपको हमारी कृपा चाहिए होगी। मैं आपका दामाद नहीं, बेटा बनना चाहता हूँ। मैं मस्तानी को उपस्त्री (रखैल) नहीं, बल्कि अपनी पत्नी का दर्जा दूँगा।“ भावुकता और वेग में आया बाजी राव अपनी नीयत और नीती को स्पष्ट उजागर करता है।

कुछ रुककर सोचता हुआ महाराज छत्रसाल अपनी संदेह समाशोधन के लिए पूछता है, “पर बुरा न माने तो बताने की कृपा करेंगे कि इस में आपका क्या लाभ होगा ?“

“सच बात तो यह है महाराज, हमारा मस्तानी पर दिल आ गया है। इश्क हो गया है मुझे आपकी बेटी मस्तानी से। इस रिश्तेदारी के हम दोनों पक्षों को एक-सा ही लाभ होगा। खानाजंगी कर रहे बुंदेलों के दल ओरशा और दातिया के अलावा मुगल आपके शत्रु हैं। हमें राजपूतों और निजामों के साथ नित्य टक्कर लेनी पडती है। यदि हम एकजुट हो जाएँ तो दुश्मन के आसानी से दाँत खट्टे कर सकते हैं। कोई हमारी ओर आँख उठाने का साहस नहीं कर सकेगा। मैं वचन देता हूँ कि मराठे आपके पुत्रों और रियासत की हवा की ओर किसी को झांकने भी नहीं देंगे। सबसे बड़ी बात मैं छत्रपति शिवाजी के इच्छित स्वराज को स्थापित करने का संकल्प पूरा करना चाहता हूँ। हमारा लक्ष्य दिल्ली के किले पर केसरी मराठा ध्वज लहराना है। आपकी रियासत हमारे दिल्ली की ओर जाने वाले रास्ते के मध्य में पड़ती है। आपके सहयोग से दिल्ली को जीतने से हमें कोई नहीं रोक सकता।“ बाजी राव राजनैतिक पेंच डालता है।

महाराजा छत्रसाल को यह प्रस्ताव लाभकारी प्रतीत होने लगता है और वह थोड़ी हिचकिचाहट के बाद स्वीकार कर लेता है, “ठीक है, हमें यह रिश्ता स्वीकार है। मैं श्रीमंत पेशवा बाजी राव के साथ मस्तानी कुंवर के रिश्ते की घोषणा करता हूँ। मैं श्रीमंत को अपना दामाद नहीं, पुत्र मानते हुए अपने उतराधिकारी हृदेय शाह और जगतराज के बराबर अपनी सम्पति में से तीसरा हिस्सा देने की वसीयत भी करता हूँ।“

“मुबारक हो !... बधाई हो !“ सभा में उपस्थित व्यक्तियों की आवाज़ें आने लगती हैं।

महाराजा छत्रसाल उठकर बाजी राव को अपने गले से लगा लेता है। शहजादा जगतराज और शहजादा पदम सिंह भी आगे बढ़कर बाजी राव के साथ आलिंगनबद्ध होते हैं। लेकिन पवार वंश की रानी हीरा कुंवर के पेट से जन्मा बड़ा शहजादा हृदेय शाह अपने संकोची स्वभाव के कारण दूर खड़ा रहता है। बाजी राव खुद उसके समीप चला जाता है, “क्यों राजकुंवर जी, आपको इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है न ?“

“आपत्ति ? नहीं, कतई नहीं श्रीमंत। यह आपने कैसी बात कर दी ? मस्तानी कुंवरसा के लिए आपसे अधिक योग्य वर और कौन हो सकता है ?“ हृदेय शाह भी बाजी राव को आलिंगन में ले लेता है।

“मैं आपका मेहुणा(बहनोई) नहीं, बल्कि भाई बनकर रहूँगा। मुझे आप आजी (जीजा) श्रीमंत नहीं, बल्कि थोरले (बड़ा) बाजी राव पुकारना।“ बाजी राव हृदेय शाह के साथ अपनी पगड़ी बाँट लेता है।

महाराजा छत्रसाल प्रसन्न होकर घोषणा करता है, “आज ही शादी का प्रबंध कर देते हैं।“

“क्षमा करें महाराज। हमारी मराठांे की भी कुछ परम्पराएँ हैं, जिनकी मान-मर्यादा रखना हमारा कर्तव्य है। आप मस्मानी कुंवर को हमारे साथ विदा कर दें और हम विवाह की रस्म पूना में जाकर ही सम्पन्न करेंगे। और फिर छत्रपति महाराज स्वामी शाहू जी के आशीर्वाद के बिना हम ऐसा अहम कदम कैसे उठा सकते हैं ?“

बाजी राव की योजना सुनकर महाराजा छत्रसाल दुविधा में पड़ जाता है, “बिना शादी किए हम मस्तानी कुंवर को कैसे भेज सकते हैं ? हमारे बुंदेलों के भी कुछ रस्मोरिवाज हैं जिनकी पालना करना हमारा धर्म है। (थोड़ा सोचकर) पर इस संकटमयी स्थिति में से निकलने का कोई तो हल होगा ? आप ही बताओ, हम क्या करें ?“

चतुर आनंद राव मकाजी मामला लपक लेता है, “महाराज, मराठों की शमशीर ही हमारी आन, प्रतिष्ठा और वचनबद्धता की प्रतीक है। सारा जग जानता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज 1659 ई. में कुंदाल से तीन सौ होन की खरीदी इंगलिस्तान(Europe) की बनी अपनी तलवार भवानी को हर समय अपने साथ रखते थे। आप मस्तानी की शादी पेशवा जी की तलवार के साथ करवा दो। इससे आपकी इज्ज़त भी रह जाएगी और हमारा सम्मान भी कायम रहेगा।“

“हाँ, यह ठीक रहेगा।“ महाराजा छत्रसाल आनंद राव मकाजी की बात सुनकर खिल उठता है।

दरबार को समाप्त करने के उपरांत महाराजा छत्रसाल अपनी बेटी मस्तानी के पास उसको मनाने और उसकी इच्छा जानने के लिए जाता है, “देखो मस्तानी, तुम तो जानती ही हो कि मैंने अपनी सल्तनत को कैसे अपने लहू से सींचा है। तुम्हारे भाई तो निकम्मे हैं। मुझे अपनी रियासत की रक्षा के लिए मराठों से सहायता मांगनी पड़ी है। मेरी पुत्री, उसके एवज़ में पेशवा बाजी राव ने मुझसे तुम्हारा हाथ मांगा है। बाजी राव बहुत अच्छा इन्सान और निपुण योद्धा है। मुझे उम्मीद है कि वह सारी जि़न्दगी तुम्हें खुश रखेगा। मैं आशा करता हूँ कि तुम मेरे इस निर्णय पर बगै़र कोई विरोध किए, उसे स्वीकार करोगी।“

“काकाजू, आपका आदेश सिर माथे। पहले कभी आपकी बात का विरोध किया है जो इस बार करूँगी।“ मस्तानी खिले माथे सहमति प्रकट कर देती है।

मस्तानी की सहमति सुनकर महाराजा छत्रसाल उसका सिर सहलाता है, “जीती रह मेरी बच्ची। मुझे तुमसे यही आशा थी। लेकिन मेरी एक बात अपने पल्ले के साथ कसकर गांठ बांध ले। अब तक तो तुम हमारे पास थी। हम सब तुम्हारा अच्छा-बुरा सोचते थे। तुम्हारा दुख-दर्द सुनते थे। लेकिन अपने ससुराल वाले घर में तुम्हें हमसे दूर अकेली ही अपना भला-बुरा विचारना होगा। तुम अपने ससुराल की पसन्द को मुख्य रखकर पहनना-खाना। जो उन्हें अच्छा न लगे, ऐसा कोई काम न करना। हमने तुम्हें अच्छे संस्कार दिए हैं और अपनी ओर से उत्तम शिक्षा और व्यवहार से तुझे नवाजा है। बुंदेलों की अपेक्षा मराठों का रहन-सहन और जीवन जीने का ढंग बिल्कुल भिन्न है। ससुराल वालों के परिवार में शीघ्र रचने-बसने का प्रयास करना। मुझे तुम्हारी बहुत चिंता रहेगी।“

“काकाजू, आप चिंतित न हों। मैं अपना पूरा ध्यान रखूँगी और आपको कोई उलाहना नहीं आने दूँगी। यदि मंै किसी संकट में हुई तो आपको तुरंत सूचित कर दूँगी।“ मस्तानी सिर झुका लेती है।

महाराजा छत्रसाल मस्तानी के मुँह पर हाथ रख देता है, “नहीं !... ऐसा कतई न करना। मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। सुन... एक राजा का पुत्र बहुत नालायक होता है। उसको यही भ्रम होता है कि वह राजकुमार तो हैं पर उसे कुछ करने की कोई ज़रूरत नहीं। उसके बाप का राजपाट उसको मिल जाएगा। वह आलसी, अय्यास और निकम्मा बन जाता है। राजा को बहुत चिंता होती है पुत्र की। राजा सोचता है कि जब वह आँखें मूंद लेगा तो उसके निकम्मे पुत्र का क्या होगा ? राजा को पुत्र के भविष्य की चिंता में ग्रस्त देखकर उसका वज़ीर एक सलाह देता है। राजा वज़ीर की सलाह पर अमल करके अपने राजकुमार पुत्र के सम्मुख एक शर्त रख देता है कि वह रियासत से दूर टापू पर जाकर मेहनत करके अपना गुज़ारा करे और सिद्ध करे कि वह शासन करने के योग्य है। नहीं तो वह सारी रियासत और धन दौलत दान कर देगा। राजकुमार नाव में बैठकर चला जाता है और कुछ दिन बाद खाली हाथ लौट आता है। राजा उसको दुबारा भेजता है। राजकुमार भूख न सहते हुए फिर वापस आ जाता है। राजा उन्हीं पैरों राजकुमार को लौटा देता है। राजकुमार टापू पर कुछ दिन भटककर लौट आता है। राजकुमार को महलों वाला सुख-आराम टापू पर कहाँ मिलता है ? काफी देर तक यही सिलसिला चलता रहा। राजा भेजता रहा और राजकुमार काम से जी चुराता हुआ और समय नष्ट करके वापस लौटता रहा। राजा ने वज़ीर की फिर सलाह ली। वज़ीर समझदार था। वह राजा से बोला, “इस बार मैं साथ जाऊँगा।“ राजा ने वज़ीर को राजकुमार के साथ एक अन्य किश्ती देकर रवाना कर दिया। वज़ीर ने टापू पर पहुँचकर राजकुमार की किश्ती को आग लगा दी और अपनी किश्ती में वापस लौट आया। राजकुमार कई वर्ष न लौटा और फिर जब लौटा तो वह उस टापू का राजा बनकर लौटा था। राजा ने वज़ीर से पूछा कि यह चमत्कार कैसे हो गया? इस पर वज़ीर ने कहा, “राजन, आप किश्ती नहीं फूंकते थे इसलिए राजकुमार को पीछे लौट आने की इच्छा बनी रहती थी। मैंने किश्ती फूंकी तो उसको इधर का खयाल नहीं रहा और वह मेहनत करने के लिए उत्साहित हुआ। राजकुमार को पता लग गया कि जीवन को बेहतर बनाने के लिए उसको वहाँ टिककर काम करना होगा।... इस कथा को सुनाने का मेरा तात्पर्य यह है कि तेरे विदा हो जाने के बाद हम तेरी किश्ती जला देंगे। तू इधर के बारे में न सोचना और जितना शीघ्र संभव हो सका, अपने आप को वहाँ की जीवनशैली में ढाल लेना। जो स्त्री अपने पीहर से नहीं टूटती, वह ससुराल के साथ नहीं जुड़ सकती। माँ-बाप की ओर देखने वाली लड़की ससुराल में नहीं बसा करती।“

मैं सब समझ गई काकाजू। मैं आपको वहाँ बसकर ही नहीं, राज करके भी दिखाऊँगी।“ मस्तानी अपने पिता के गले लग जाती है।

“हाँ, एक महत्वपूर्ण बात तो मैं बताना ही भूल गया कि पेशवा का खानदान चितपवन ब्राह्मण है। ब्राह्मण अपने आप को दूसरी जातियों से श्रेष्ठ समझते हैं। स्कंद पुराण के सागीन्द्री कांड में उल्लेख आता है कि गोरे खूबसूरत नीली आँखों वाले यात्रियों का बेड़ा समुद्री तूफान में कोकण के तट से टकरा जाता है और उसमें सवार चैदह यात्री मर जाते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा उसका संस्कार करने की तैयारी की जा रही होती है, पर परशुराम उनमें जान फंूककर उनकी चिताओं को पावन कर देता है और वे चितापवन कहलाते हैं। उन्हीं चैदह मन-चिता पावन पवित्र आत्माओं यानि चितपवनों से ब्राह्मणों के चैदह गौत्र चलते हैं। जैसे अत्री, भावबरव्या, भारद्वाज, गर्ग, जमादागनी, कपी, कश्यप, कुनदीनाया, कौशिक, नित्युंदन, शांडिल्य, वशिष्ठ, वत्स और विष्णुवरुध। इन चैदह की आगे चलकर अन्य शाखायें बन गईं जिन्हें गण-गौत्र कहते हैं। पेशवा बाजी राव का गोत्र भट्ट भी इन्हीं में से एक गण-गौत्र है। परशुराम द्वारा समुद्र में तीर मारकर पैदा की गई धरती चितापोलना या चिपलन (वर्तमान गोआ) चितपवनों का देश है। चितपवन ब्राह्मण तन और मन के पवित्र माने जाते हैं। ब्राह्मण परिवारों में काफी राजनीतियाँ चला करती हैं। तुम्हें अनेक राजनीतिक चालों का सामना करना पड़ेगा और पग पग पर षड्यंत्रों से जूझना पड़ सकता है। हर कदम फूंक फंूक कर रखना। यदि कभी बुंदेलखंड को मराठों से खतरा हो तो सही समय पर हमें चैकन्ना कर देना।“

मस्तानी मशालों की मानिंद अपनी आँखें मूंदकर हामी भर देती है।

अगले दिन ड्यौढ़ी महल के मंडल में मस्तानी, बाजी राव की तलवार से अग्नि के ईदगिर्द फेरे लेकर विवाह की रस्में पूरी कर लेती है। पेशवा बाजी राव मस्तानी की डोली लेकर अपनी फौजों के साथ जैतपुर से पूणे की ओर रवाना हो जाता है।
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