आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

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आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

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आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

1

यह अफ़गानिस्तान का गज़नी शहर था। उस दिन वर्ष 2008 के जुलाई महीने की 17 तारीख़ थी। दिन भर बेइंतहा गरमी पड़ती रही थी। दिन ढलने लगा तो गरमी की तपिश भी कम होने लगी। आखि़र लंबा दिन गुज़र गया और थाने की दीवारों के साये अहाते के दूसरे सिरे पर जा पहुँचे। सूरज छिपने ही वाला था जब थानेदार गनी खां शहर का चक्कर लगाने के लिए उठा। आज उसका सारा दिन बाहर ही गुज़र गया था। सुबह से ही वह अमेरिकन फ़ौज़ की उस टुकड़ी के साथ घूम रहा था जो कि गाँवों की तरफ़ चक्कर लगाने गई थी। आजकल इस इलाके में तालिबानों का ज़ोर था। अमेरिकी फ़ौज़, इलाके की पुलिस को संग लेकर गाँवों की छानबीन के काम में लगी हुई थी। अमेरिकी फ़ौज़ों ने इस इलाके को तालिबानों से मुक्त करवाने का बीड़ा उठा रखा था। वे अपने मिशन में सफल भी हो रहे थे। हर रोज़ सवेरे ही फ़ौज़ का काफ़िला चल पड़ता था। जिस इलाके में उन्हें जाना होता, वहाँ के थाने का अमला-फेला साथ जाता था। इसी तरह आज गनी खां के थाने के गाँवों की बारी थी। इसीलिए आज उसका पूरा दिन बाहर घूमते हुए ही गुज़र गया था। गनी खां की एक आदत थी कि वह कितना भी व्यस्त होता, पर शाम के वक़्त शहर का चक्कर अवश्य लगाता था। आज भी घर जाने से पहले उसने शहर का एक चक्कर लगाने का मन बनाया। उसके कहने पर हवलदार कुछ सिपाहियों को ले आया और ड्राइवर ने पिकअप ट्रक को थाने के गेट के आगे ला खड़ा किया। गनी खां आगे ड्राइवर के साथ बैठ गया और शेष अमला ट्रक के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ा घूमकर ड्राइवर ने ट्रक को बाज़ार की ओर मोड़ लिया। बाज़ार में से गुज़रते हुए ट्रक गली का मोड़ मुड़ने लगा तो गनी खां ने सामने बंद पड़ी एक दुकान के आगे बुर्के से ढकी एक औरत की ओर देखा। वह औरत नीचे ज़मीन पर बैठी थी और उसके साथ करीब बारह वर्ष का एक लड़का था। गनी खां ने मन ही मन सोचा कि शहर में मंगतों की गिनती बहुत बढ़ गई है। मोड़ मुड़ते ही पिकअप ट्रक जब करीब से गुज़रा तो उसने बड़े ध्यानपूर्वक उस औरत की तरफ़ झांका। औरत ने पास रखे काले रंग के बड़े-से बैग को कसकर हाथों में पकड़ रखा था। तभी गनी खां का पुलिसिया दिमाग हरकत में आ गया। यह इतना बड़ा बैग क्यों उठाये घूमती है - उसने सोचा। उसको शक हुआ तो उसने ट्रक रुकवा लिया और नीचे उतरकर औरत के पास चला गया। एक पैर चबूतरे पर रख और हाथ वाला डंडा औरत की तरफ करके उसने पूछा, “ऐ बीबी, कौन है तू ?“
“मैं तो एक गरीब औरत हूँ। अपने पति को खोजती फिरती हूँ जो लड़ाई में कहीं गुम हो गया है।“ इतना कहते हुए वह खड़ी हो गई। उसने पास में रखा बैग उठा लिया।
“तेरे साथ यह लड़का कौन है ?“
“यह तो कोई अनाथ है। भूचाल में इसके माँ-बाप मारे गए थे। मैं इसको संग ले आई थी।“ इतना कहकर वह उठी, बैग को कंधे से लटकाया और लड़के की उंगली पकड़कर चल पड़ी।
“ऐ रुक जा।“ गनी खां ने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया। औरत के हावभाव और बोलने के ढंग ने उसके सन्देह को और भी बढ़ा दिया था। उसको पिछले दिनों किसी मुखबिर से मिली ख़बर याद हो आई कि कोई औरत यहाँ गवर्नर पर आत्मघाती हमला करने की ताक में है। इतने में सिपाहियों ने औरत को चारों ओर से घेर लिया। एक ने आगे बढ़कर उससे बैग छीना और उसको खंगालने लगा। कुछ काग़ज़ बाहर निकाले। गनी खां ने काग़ज़ों को ध्यान से देखा तो वह बहुत हैरान हुआ। ये नक्शे वगैरह थे। उसके कहने पर पुलिस वालों ने उस औरत को बच्चे सहित ट्रक में बिठा लिया और थाने की तरफ़ चल पड़े। थाने पहुँचकर उसके बैग की अच्छी तरह से तलाशी ली गई। और भी हैरान करने वाली वस्तुएँ बैग में से मिलीं। दो बोतलों में कोई ख़तरनाक कैमिकल थे जो कि बम बनाने का मसाला प्रतीत होते थे। इसके अलावा दो किलो के करीब सोडियम सायनाइड मिला। बाकी हाथ से लिखे हज़ारों काग़ज़ मिले जो कि अधिकतर अंग्रेजी में थे। बैग में काफ़ी संख्या में नक्शे थे जिनमें एक यहाँ के गवर्नर के घर का भी था। उस औरत ने अपना नाम सलीहा बताया। गनी खां को पूरा यकीन हो चुका था कि यह औरत किसी आतंकवादी संगठन की ख़तरनाक मेंबर है और हो सकता है कि यहाँ के गवर्नर को आत्मघाती हमले में मारने निकली हो। उसने तुरन्त गवर्नर दफ़्तर को ख़बर की। उन्होंने आगे अमेरिका के बैगराम एअरपोर्ट बेस को सूचना भेजी। इस बीच रात में औरत की पिटाई भी हुई, पर उसने मुँह नहीं खोला। उसके साथ पकड़े गए लड़के को अलग कर दिया गया था। अगले दिन सवेरे ही अमेरिकन फ़ौज़ का कैप्टन राबर्ट सिंडर अपनी टुकड़ी लेकर गज़नी थाने की ओर चल पड़ा। तब तक उस औरत को थाने में से निकालकर नज़दीक की एक इमारत के बड़े कमरे में बिठाया हुआ था। काबुल से अफ़गान सरकार के कुछ बड़े अधिकारी भी उससे बात करने के लिए पहुँचे हुए थे। जब कैप्टन सिंडर अपने अमले-फेले के साथ वहाँ पहुँचा तो इमारत को स्थानीय अफ़गानियों ने घेर रखा था। वे हथियारबंद थे क्योंकि वहाँ बात फैल चुकी थी कि थाने वाले किसी बेकसूर औरत को अमेरिकियों के हवाले करने जा रहे हैं। कैप्टन मन ही मन बोला, “जिस बात का डर था, वही हो गई।“ उसने देखा था कि यहाँ अफवाहों का बहुत ज़ोर रहता था। ज़रा-सी बात हुई नहीं कि अफवाह उड़ी नहीं। यही नहीं बल्कि अफगानी लोग हथियारबंद होकर पहुँच जाते थे। आज भी ऐसा ही हुआ था। लोगों के हुजूम ने हथियार उठाये हुए थे। आसपास नज़र घुमाते हुए उसने मन ही मन सोचा, “आज यहाँ ज़रूर कुछ न कुछ होकर रहेगा। एक तो औरत का मामला है और ऊपर से उसे कल रात से पकड़ा हुआ है। लोग भी धड़ाधड़ इकट्ठे हुए जा रहे हैं। पता नहीं हालात कैसे बन जाएँ।“ यही सब सोचकर उसने सबको पूरी मुस्तैदी के साथ रहने का हुक्म दिया और लोगों में से राह बनाता हुआ अपने खास दस्ते के साथ बड़ी इमारत के अन्दर चला गया। आगे करीब तीन सीढ़ियाँ चढ़कर वे इमारत के दरवाजे़ तक पहुँच गए। दो व्यक्ति बाहर पहरे पर खड़े हो गए। कैप्टन और वारंट अफ़सर अंदर चले गए। दुभाषिया भी उनके साथ था। कैप्टन ने अंदर बैठे अफगानी लोगों और अफ़सरों की ओर देखते हुए झुककर सलाम किया। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। पिछली ओर पर्दा तना हुआ था। वह समझ गया कि गिरफ्तार की गई औरत इस पर्दे की ओट में होगी। कैप्टन और वारंट अफ़सर अन्य सभी के साथ नीचे फर्श पर ही बैठ गए। उन्होंने अभी बातचीत आरंभ ही की थी कि वहाँ गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ सुनते ही वारंट अफ़सर ने अपना पिस्तौल निकालकर गोली चला दी जो कि पर्दे के पीछे बैठी औरत के पेट में लगी। जब पता चला कि औरत ज़ख़्मी हो चुकी है तो कैप्टन ने अपने लोगों को आवाज़ दी। सभी ने तुरंत औरत को स्ट्रेचर पर डाला और पिछले दरवाजे़ से अपने ट्रक तक पहुँचे। वहाँ से ज़ख़्मी औरत को संग लेकर वे बैगराम एअरफोर्स बेस की ओर चल दिए। वहाँ उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया। साथ ही उसकी असली पहचान मालूम करने के लिए उसके फिंगर-प्रिंट लिए गए। दो घंटों के बाद एफ.बी.आई के दफ़्तर से उसकी सही पहचान की रिपोर्ट आ गई। जब सभी विभागों को उसके असली नाम का पता चला तो हर तरफ़ तहलका मच गया। वह कोई साधारण औरत नहीं थी। वह अमेरिकी एफ.बी.आई. द्वारा घोषित की गई विश्व की सबसे ख़तरनाक आतंकवादी औरत थी और उसका नाम था - आफ़िया सद्दीकी।
(जारी…)
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इस्मत जेहान का जन्म 1939 में बुलंद शहर में हुआ। यहीं उसने बचपन बिताया। इस्मत ने स्कूल अभी पूरा भी नहीं किया था कि हिंदुस्तान का बंटवारा हो गया। वह परिवार के साथ पाकिस्तान चली आई। यहीं उसका विवाह मुहम्मद सुलेह सद्दीकी के साथ हुआ। सुलेह सद्दीकी पेशे से डॉक्टर था। विवाह के कुछ समय बाद वह इंग्लैंड चले गए। वहाँ वे कई वर्ष रहे। उनके परिवार में पहले बेटे का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने मुहम्मद अली रखा। फिर 1966 में पहली लड़की फौजिया का जन्म हुआ। इसके बाद वे वापस पाकिस्तान लौट आए। यहीं मार्च, 1972 में उनकी दूसरी बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम आफिया रखा गया। इसी साल जुलाई महीने में सुलेह के साले एस.एच. फारूकी का परिवार उनसे मिलने आया। फारूकी परिवार इस्लामाबाद में रहता था। नाश्ता-पानी से फुर्सत पाकर वे ड्राइंग रूम में बैठ गए। बातें चलीं तो शीघ्र ही वे मौजूदा मसले के बारे में बात करने लगे। बात शुरू करते हुए फारूकी बोला, “भाई साहब, भुट्टो ने मुल्क का बेड़ा डुबो कर रख दिया।”
“क्या किया जा सकता है। मगर अकेला वही तो जिम्मेदारी नहीं है। सभी ने मिलकर ही पाकिस्तान के मुँह पर कालिख़ मली है।”
“गर असल में पूछते हो तो यह काम याह्या खां के ज़माने से शुरू हुआ।” फारूकी की बीवी ने बातचीत में हिस्सा लेते हुए अपना विचार रखा।
“फौज तो सारी ही इस बदनामी का कारण बनी है।”
“अगर पहले ही संभलकर चलते तो क्या फर्क़ पड़ता था। आज ये दिन तो न देखने पड़ते।”
“सच बात तो यह है कि इन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की भावनाओं की कद्र नहीं की। जब मुजीब-उल-रहमान पाटी की पार्टी जीत गई थी तो हुकूमत उसके हवाले कर देते। उसूल तो यही कहता है।”
“उसूल आम लोगों के लिए हैं। इन रजवाड़ों के लिए नहीं। इन्होंने तो उन लोगों को कभी बराबरी का दर्ज़ा भी नहीं दिया था। फिर यह सब तो होना ही था।”
“इंडिया ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की मदद करके हमारी छाती पर मूंग दली है। इंशा अल्ला कभी मौका मिला तो हमें भी हिसाब बराबर करना चाहिए।” इस बार इस्मत बोली।
“इंडिया ने जो भी किया है, वह अपने हिसाब से सही किया है। उसकी जगह कोई दूसरा देश होता तो वह भी यही करता। राजनीति यही कहती है।” सुलेह सद्दीकी ने अपना विचार प्रकट किया।
“जो भी हुआ, अच्छा या बुरा यह अलग बात है। पर इस कार्रवाई ने कायदे-आज़म, अल्ला उनकी रूह को जन्नत बख्शे, का दो कौमों का सिद्धांत गलत साबित कर दिया है। इस बात ने पाकिस्तान का अस्तित्व ख़तरे में डाल दिया है।”
“और नहीं तो क्या... कितनी हसरतों से इधर आए थे कि मुसलमानों का अपना मुल्क बन गया है। अल्ला की मार पड़े इन लीडरों को जिन्होंने लोगों की भावनाएँ कुचल कर रख दी हैं। यह बंगला देश नहीं बना, यह तो हमारी जम्हूरियत के मुँह पर थप्पड़ है।”
“कौन सा बंगला देश ? मैं नहीं मानती इसको। तुम पूर्वी पाकिस्तान कहो।” इस्मत नफ़रत में बोली।
“आपा, तुम्हारे कहने से क्या होता है। ज़रा गौर फरमाओ कि पिछले हफ़्ते ही तो हमारे वज़ीरे आलम भुट्टो साहिब शिमला समझौते पर दस्तख़त करके आए हैं। उस समझौते की मुख्य मद यही है कि पाकिस्तान बंगला देश के अस्तित्व को मानता है। उस पर दस्तख़त करने का मतलब है कि पाकिस्तान ने बंगला देश को मान्यता दे दी है।”
“यह समझौता भी तो भुट्टो ने अपनी छवि बचाने के लिए ही किया है। अगर उसको मुल्क की फिक्र होती तो वह उन एक लाख फौजियों की रिहाई की बात करनी न भूलता जो इंडिया ने जंगी-क़ैदी बनाए हैं।”
“अगर जनरल नियाज़ी ज़रा हिम्मत से काम लेता तो वह क़ैद ही नहीं होते और शायद बंगला देश भी न बनने देते।” यह विचार फारूकी की बेगम का था।
“बेगम क्या बात करती हो तुम। इसमें नियाज़ी साहब का रत्तीभर भी कसूर नहीं है। वह अपनी सरकार की मदद के बग़ैर कितनी देर लड़ सकता था।”
“अवाम कभी भी भुट्टो को मुआफ़ नहीं करेगी। न ही फौज करेगी। और तो और, उसने कश्मीर मसले को भी दूसरा ही रूप दे दिया। मकबूज़ा(अधिकृत) कश्मीर की हद को ‘लाइन-ऑफ कंट्रोल’ का रूप दे आया। कहता है कि भविष्य में इस मसले का हल बातचीत के जरिये ही निकाला जाएगा। कोई पूछ तो सही कि अगर भविष्य में कभी इंडिया, पाकिस्तान पर हमला कर दे तो उसका हल भी बातचीत से ही निकालना।”
“भाई साहब, यह सब तो होना ही था। और फिर जो हो चुका है, वह बदला नहीं जा सकता। हमें सच्चाई कुबूल करनी ही पड़ेगी।” सुलेह सद्दीकी ने यह बात कही तो सभी चुप हो गए। फारूकी ने बात का रुख बदलते हुए अन्य बात छेड़ दी, “भाई साहब, तुम्हारा अफ्रीका जाने का प्रोग्राम कैसे है ?”
“बस, सब इंतज़ाम मुकम्मल हैं। जैम्बिया की लोअस्का यूनिवर्सिटी की ओर से नौकरी का ख़त भी आ चुका है। अब तो शायद इसी महीने रवाना हो जाएँ।”
फिर वे दूसरी बातें करने लगे। शाम ढले फारूकी परिवार जाने के लिए उठा। उन्होंने सभी बच्चों के सिर पर हाथ रखा। चादर में लिपटी पड़ी छोटी-सी आफिया का मुँह चूमा। फिर कार में बैठकर चले गए। इसके कुछ हफ़्ते बाद ही सद्दीकी परिवार जैम्बिया चला गया।
यहाँ आकर सुलेह सद्दीकी, लोअस्का मेडिकल युनिवर्सिटी में प्रोफेसर की नौकरी करने लगा। इस्मत बच्चों को संभालती थी। वह सारा दिन घर में खाली रहती थी। उसने इस खाली समय को धर्म के कामों में लगाने के विषय में सोचा। धार्मिक कामों में वह प्रारंभ से ही बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। इस्लाम पर चर्चा करना उसको बहुत अच्छा लगता था। यहाँ वह पड़ोसी स्त्रियों को दिन के समय एकत्र कर लेती और उनके साथ धार्मिक मसलों पर बातें करती। अच्छा वक्ता होना उसका बड़ा गुण था। शीघ्र ही, उसके घर आने वाली स्त्रियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। फिर तो यह गिनती इतनी हो गई कि उसको कहीं बाहर जगह का प्रबंध करना पड़ा। उसने अपने संगठन का नाम भी रख लिया। यू.आई.ए. यानी युनाइटिड इस्लामिक ऑरगनाइजेशन। उसका प्रभाव यहाँ के मुस्लिम समाज में बढ़ने लगा। सारी एशियन कम्युनिटी में सद्दीकी परिवार मशहूर हो गया। इस्मत का नाम दिनों दिन हरेक की जु़बान पर आने लगा। अपने लोगों को धार्मिक शिक्षा देने के अलावा, इस्मत यह भी कोशिश करती थी कि करीबी क्रिश्चियन भाईचारे में से लोगों को अपने धर्म में लाया जाए। इस काम में वह सफल भी हो रही थी। आफिया हालाँकि तब बहुत छोटी थी, पर उसकी माँ उसको हर रोज़ ऐसे जन-समूहों में संग लेकर जाती। आफिया बड़े ध्यान से माँ की बातें सुनती। आफिया यद्यपि पूरी तरह इन बातों को नहीं समझ सकती थी, पर ये बातें उसके अवचेतन पर उतर रही थीं। इस्मत कहीं भी जाती छोटी-सी आफिया उसके साथ होती थी।
आख़िर सुलेह की नौकरी का समय पूरा हो गया। पूरा परिवार पाकिस्तान वापस लौट पड़ा। आफिया उस वक्त सात वर्ष की थी। यह 1980 का वो समय था जब पाकिस्तान के आस-पड़ोस में उथल-पुथल हो रही थी। ईरान में खुमैनी की रिवोलिशनरी इस्लामिक सरकार ने सत्ता संभाल ली थी। हर तरफ खुमैनी की चढ़त थी। पाकिस्तान में वो सबकुछ बदल गया था जो कि उनके अफ्रीका जाने के समय में था। वहाँ फौजी जनरल जियाउल हक़ की कमांड के नीचे डिक्टेटरशिप कायम हो चुकी थी। उससे पहले प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो जो कि बहुत अमीर व्यक्ति था, मुल्क को धार्मिक प्रभाव से ऊपर उठाकर एक शक्तिशाली जनतांत्रिक देश बनाना चाहता था। इससे धार्मिक लोग अर्थात मुल्ला वगैरह उससे बहुत नाराज़ थे। जियाउल हक़ ने मौके की नब्ज़ को पहचानते हुए राज पलट दिया। उसके आते ही मुल्लों की अच्छी सुनवाई होने लगी। जियाउल हक़ ने मुल्क को धार्मिक रंग में रंगना शुरू कर दिया था, क्योंकि वह जानता था कि यदि स्थायी रूप में राज स्थापित करना है तो लोगों को धार्मिक हथियार से काबू में करना पड़ेगा। इसके लिए उसने ज़रूरी काम प्रारंभ किए। उसने धार्मिक उसूलों को लागू करने के लिए कौंसिल आफ इस्लामिक आयडियोलॉजी कामय की। ऐसे धार्मिक संगठनों की मदद से जियाउल हक ने पाकिस्तान को धार्मिक स्टेट बनाने के लिए पूरे यत्न आरंभ कर दिए। उसका पहला कदम था - स्त्रियों को परदे और चारदीवारी में बंद करना। कितने ही नए धार्मिक रंग वाले कानून बनाकर जिया उल हक ने मुल्क के धार्मिक लीडरों का विश्वास जीत लिया। हर तरफ धार्मिक रंग उभर रहा था जो कि पश्चिम के खिलाफ़ था। पश्चिम के खिलाफ़ ज़ोर-शोर से प्रचार हो रहा था। इन्हीं दिनों ईरान में अमेरिकी एम्बेसी के स्टाफ को क़ैद कर लिया गया। सऊदी अरब में उग्र इस्लामिस्टों ने मक्के की पवित्र बड़ी मस्जिद काबा पर कब्ज़ा कर लिया। पाकिस्तान में उग्रवादियों ने अमेरिका की अमेरिका की इस्लामाबाद स्थित एम्बेसी को आग लगाकर जला दिया। पश्चिम के विरुद्ध हर जगह गुस्सा भड़क रहा था। तभी दिसम्बर 1979 में सोवियत यूनियन की फौजें अफ़गानिस्तान में दाखि़ल हो गईं। इस घटना ने सब कुछ बदलकर रख दिया।
अमेरिका जो अब तक जिया उल हक की कार्रवाइयों के कारण बहुत गुस्से में था, उसको अब जिया उल हक की ज़रूरत महसूस हुई। सोवियत यूनियन को टक्कर देने के लिए वह जिस करीबी शक्ति को ढूँढ़ रहा था, जिया उल हक उसके बिल्कुल मुफ़ीद आता था। सऊदी अरब और अमेरिका ने मिलकर अफ़गानिस्तान में सोवियन यूनियन के खिलाफ़ लड़ने की योजना बनाई जिसमें उन्होंने जिया उल हक को आगे लगा लिया। जिया ने पाकिस्तान की खूफ़िया एजेंसी, आई.एस.आई. को इसकी कमांड सौंप दी। उन्हीं दिनों में अफ्रीका से लौटकर डॉक्टर मुहम्मद सुलेह सद्दीकी ने कराची की एक हाई सोसायटी ‘गुलशने इकबाल’ में बंगला खरीद लिया जहाँ कि बड़े-बड़े अफ़सर और अन्य प्रभावशाली लोग रहते थे। जिया उल हक के चीफ़ ऑफ स्टाफ मिर्ज़ा असलम बेग का परिवार, सद्दीकी का पड़ोसी था। इस प्रकार यह परिवार पाकिस्तान पर राज करने वाले ग्रुप के बहुत करीब आ गया।
इस समय आफिया अपने बचपन का आनंद ले रही थी जबकि उसकी माँ अपने धार्मिक संगठन यू.आई.ओ. के लिए अधिक से अधिक काम कर रही थी। इस्मत सद्दीकी दिनों दिन प्रसिद्ध हो रही थी। यहाँ तक कि जिया उल हक की बेगम शैफ़ीक भी उसके प्रभाव के अधीन थी और उसकी धार्मिक कक्षाओं में उपस्थित हो रही थी। उस वक़्त तक इस्मत ऊँची सोसायटी में एक बहुत ही सम्मानजनक मुकाम हासिल कर चुकी थी। जिया उल हक खुद उससे प्रभावित था। जिया, इस्मत से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसको उस बोर्ड का मेंबर बना दिया जो कि कुरान के अनुसार ज़कात अर्थात चैरिटी एकत्र करने और उसको खर्च करने का प्रबंध करता था। इस बोर्ड में आते ही इस्मत का अन्य बहुत बडे बड़े संगठनों से सम्पर्क हुआ जो कि किसी न किसी ढंग से अफ़गानिस्तान में चल रहे जिहाद के जुड़ी हुई थीं। अफ़गानिस्तान के लिए जाने वाला प्रथम लड़ाकू जिहादी दल, सद्दीकी परिवार के घर से कुछ ही दूर स्थिति बिनूरी कस्बे की मस्जिद से रवाना होने लगा तो लोगों ने उन्हें बहुत ही मान-सम्मान से विदा किया। इसके साथ ही लोगों की नज़रों में सद्दीकी परिवार विशेष तौर पर इस्मत के प्रति इज्ज़त और बढ़ गई। उस दिन आफिया भी दीवार से लगी खड़ी जाते हुए जिहादियों को देखती रही। इस प्रकार छोटी उम्र में ही आफिया जिहाद के बारे में सुनने लगी थी। इतना ही नहीं, बल्कि उसका जिहाद के प्रति लगाव बढ़ने लगा। आफिया तब ‘गुलशने इकबाल’ में लोकल इंग्लिश की छात्रा थी। वह स्कूल में इंग्लिश, मैथ, साइंस, कुरान और सुन्ना पढ़ रही थी। आफिया उस वक़्त बहुत ही मासूम थी। उसकी रुचियाँ भी मासूमों वाली थीं। वह घर में पंछियों को हर रोज़ दाना डालती। इसके अलावा उसने घर में कुत्ते, बिल्ली, बत्तख, मछलियाँ और तोते वगैरह पालतू जानवर रखे हुए थे। फुर्सत का समय वह इनके साथ खेलते हुए बिताती।
अपनी माँ के प्रभाव तले वह भी बहुत धार्मिक होती जा रही थी। माँ को देखकर उसने भी स्कूल में छोटे छोटे बच्चों को लेक्चर देने प्रारंभ कर दिए थे। सद्दीकी परिवार में हर वक़्त अफ़गानिस्तान के अंदर चल रहे जिहाद की बातें चलती रहती थीं। यद्यपि सुलेहे सद्दीकी की इन बातों में अधिक दिलचस्पी नहीं होती थी, पर उसकी पत्नी दिलोजान से जिहादियों की मदद करती थी। उसके लिए उस वक़्त इससे बड़ा कोई दूसरा काम नहीं था कि इस्लाम की धरती से कम्युनिस्टों का सफाया किया जाए और वहाँ सच्चा इस्लामिक राज्य कायम हो। आफिया माँ की इन कार्रवाइयों को बहुत ही ध्यान से देखती थी। उसका मन करता कि वह इन जिहादियों की दिलोजान से सेवा करे जो कि अपने धर्म के लिए शहीद हो रहे थे। वह जिहादियों के बहादुरी भरे कारनामे सुनती तो उसको लगता कि यही धर्म के असली हीरो हैं। थोड़े-से लड़ाकुओं की मदद से शुरू किया गया जिहाद आखि़र उनके हक में होने लगा। बड़ा कारण अमेरिका था जो कि परदे के पीछे रहता, जिया उल हक को आगे रख कर सारी लड़ाई आप लड़ रहा था। आखि़र जिहादियों का पलड़ा भारी पड़ने लगा। आहिस्ता आहिस्ता उन्होंने सोवियत यूनियन को अफ़गानिस्तान में से खदेड़ दिया। फिर समझौता हुआ जिस के अनुसार सोवियत यूनियन वहाँ से अपनी फौजें निकालने के लिए राजी हो गया। जब सोवियत यूनियन की फौजें अफ़गानिस्तान में से गर्दन झुकाकर निकलनी प्रारंभ हुई तो आफिया ने भी अन्य लोगों की तरह जश्न के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उस वक़्त हर तरफ खुशी का आलम था। ख़ास तौर पर सद्दीकी परिवार के घर में। उनके अनुसार अल्ला की पार्टी की जीत हो चुकी थी। उनका विचार था कि यह जिहाद ही था जिसने अफ़गानिस्तान को कम्युनिस्टों से आज़ाद करवाया। इस विजय को हर एक ने अपने नुक्ते से देखा। अमेरिका को लगा कि उसने काफी अरसे से चल रहे शीतयुद्ध में रशिया का सिर कुचल दिया है। अफ़गानिस्तान के लोगों को लगा कि उन्होंने जिहाद की राह पर चलकर अपना मुल्क आज़ाद करवा लिया है। पर जनरल जिया उल हक और उसकी सरकार ने सोवियत यूनियन की हार को किसी दूसरे रूप में देखा। जिया ने यह भ्रम पाल लिया कि यह सब कुछ पाकिस्तान की वजह से हुआ है। उसका विचार था कि इस वक़्त पाकिस्तान कुछ भी कर सकता है। उसके अनुसार आहिस्ता आहिस्ता पाकिस्तान, पूरे मध्य एशिया में अपना दबदबा कायम कर लेगा। उसने अफ़गानिस्तान से फुर्सत पाकर दूसरे हिस्सों की तरफ देखना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसने अपना मुख्य एजेंडा चालू करने की विचार बनाया। वह था- इंडिया की ओर कश्मीर की आज़ादी (पाकिस्तानी इसको मकबूज़ा अर्थात पाक-अधिकृत कश्मीर कहते हैं जब कि पाकिस्तान की ओर के कश्मीर को आज़ाद कश्मीर कहा जाता है)। जिया ने अपने लोगों को कश्मीर आज़ाद करवाने का नारा दिया। इसके लिए उसने वही तरीका चुना जो कभी अमेरिका ने अफ़गानिस्तान के लिए चुना था। अर्थात पाकिस्तान परदे के पीछे रहकर सारी लड़ाई लड़ेगा जब कि कश्मीर में तैयार किए गए जिहादी असली लड़ाई लड़ेंगे। इसके लिए उसने एक्शन शुरू किया तो शांत पड़े जम्मू-कश्मीर में भूचाल आ गया। जगह-जगह जिहादी पैदा हो गए। इस खेल में जिया उल हक दो मोर्चे मारना चाहता था। एक तो था इंडिया से कश्मीर छीनना और दूसरा था, बंगला देश वाला हिसाब चुकता करना। वह यहाँ तक आत्मविश्वास से भर गया कि उसने सोचा कि कश्मीर के आज़ाद होने के पश्चात वह इस प्रॉक्सी वार को भारत के अन्य हिस्सों में फैला देगा और देश के टुकड़े-टुकड़े कर देगा। कश्मीर के साथ ही उसने पंजाब पर भी आँख रख ली। अपना अलग देश बनाने के लिए वह सिक्खों को भड़काने लगा। उसका कहना था कि असली लड़ाई तुम लड़ोगे और सारी मदद वह करेगा। जिया उल हक उस वक़्त बहुत ऊँची उड़ानें भर रहा था। परंतु कुदरत अपना खेल स्वयं खेलती है। एक दिन सद्दीकी परिवार के घर फारूकी का फोन आया। फोन इस्मत ने उठाया तो उधर से वह बोला, “आपा गज़ब हो गया।”
“क्यों क्या हुआ ?”
“जिया साहब नहीं रहे।”
“क्या कहा ?” इस्मत को अपने कानों पर विश्वास न हुआ।
“अभी अभी पता चला है कि जनरल जिया उल हक हवाई हादसे में मारे गए।”
“हाय अल्ला...।”
इस्मत का शरीर सुन्न हो गया। वह कुर्सी के डंडे को पकड़कर वहीं गिर पड़ी। उधर से दो चार बार आवाज़ आई तो वह अपने आप को संभालती हुई बोली, “भाई जान, यह तो बहुत बड़ा क़हर हो गया। हम तो जीते जी ही मर गए। अपने लिए तो वही सब कुछ थे। अल्लाह ख़ैर करे, पता नहीं इनके बग़ैर मुल्क का क्या होगा। पर यह सब हुआ कैसे ?”
“वो कहीं दौरे पर गए थे। साथ ही, बड़े फौजी अफ़सरों के अलावा अमेरिकी राजदूत भी था। लौटते हुए बहावलपुर से हवाई जहाज से रावलपिंडी आ रहे थे। शायद किसी ने जहाज में बम रखवा दिया। जहाज उड़ने से कुछ समय बाद ही तबाह हो गया। कोई भी सवार नहीं बचा।”
“भाई जान, कौन उनकी जान का दुश्मन बन गया होगा ?”
“आपा, क्या कह सकते हैं। पर लगता है कि या तो अमेरिका ने यह सब करवाया है या फिर रशिया ने।”
“अमेरिका भला ऐसा क्यों करवाएगा ? उसकी तो जिया साहिब ने इतनी मदद की है। रशिया की यहाँ तक पहुँच नहीं हो सकती।”
“और फिर किसने करवाया होगा यह काम ?”
“अल्लाह दोजख की भट्ठी में झोके उसको, यह सब हिंदुस्तानियों का किया करवाया है। इस वक़्त सबसे ज्यादा हिंदुस्तान ही जिया साहब से डरता था।”
“आपा आपने दुरस्त फरमाया है। ख़ैर, धीरे-धीरे पता लग जाएगा। पर हुआ बहुत बुरा।”
“बुरे से भी बुरा। अपना तो सब कुछ ही बर्बाद हो गया। अल्लाह जन्नत बख्शे उनको। हमें तो जिया साहब ने बड़ा आदर-सम्मान दिया था। अब पता नहीं आगे क्या होगा।”
“आपा, एक बार तो सारा मुल्क दहशतज़फा हो गया है। इस्लामाबाद शहर तो इस तरह लगता है मानो वहाँ कोई बसता ही न हो। लोग बहुत ज्यादा उदास है। अल्लाह ख़ैर करे, देखो आगे क्या होता है।” इतना कहते हुए फारूकी ने फोन काट दिया।
इस्मत को इस ख़बर ने तोड़कर रख दिया था। छोटी-सी आफिया माँ को दहाड़ें मारकर रोते देखती रही।
जहाँ जिया के समर्थक लोग इस हादसे से टूटकर बिखर गए थे, वहीं विरोधी इसको अपने लिए एक अच्छा वक़्त मान रहे थे। उनके अनुसार एक ज़ालिम हाकिम से पीछा छुड़वाने में अल्लाह ने उनकी मदद की थी। इन लोगों में सबसे ऊपर बेनज़ीर भुट्टो थी। कुछ वर्ष पहले ही तत्कालीन प्रधान मंत्री और बेनज़ीर के पिता जुल्फकार अली भुट्टो को जिया उल हक ने न सिर्फ़ गद्दी से नीचे उतारा था, बल्कि बाद में फांसी पर भी लटका दिया था। पिता की मौत के बाद अपनी पार्टी को आगे बढ़ाते हुए बेनज़ीर ने बड़ी यातनाएँ सही थीं। जिया उल हक की सरकार ने उसको ख़त्म करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर फिर भी उसने लड़ाई जारी रखी। पिछले कुछ समय से वह पाकिस्तान में रहते हुए, लोगों को लामबंद कर रही थी। यह अवसर उसको बिल्कुल मुफ़ीद बैठ गया। उसने ज़ोर-शोर से लोगों का जम्हूरियत के लिए जागरूक करना शुरू कर दिया। उसकी मेहनत का नतीजा ही था कि कुछ देर बाद हुए चुनाव में उसकी पार्टी बहुमत ले गई और बेनज़ीर भुट्टो किसी इस्लामिक देश की पहले महिला प्रधान मंत्री बन गई। जिया के समय से जो लोग धार्मिक प्रभाव के नीचे दबकर रह गए थे, उन्हें बेनज़ीर के आने से नई उम्मीदें मिल गईं। मुल्लो की जकड़ में आया मुल्क, एकदम घुटन से बाहर आ गया। एकदम सभी हालात बदल गए। इस परिवर्तन को इस्मत ने नए नज़रिये से देखा। उसने सोचा कि यदि बेनज़ीर भुट्टो राजनीति में आगे बढ़ रही है तो आफिया क्यों नही राजनीति कर सकती। उसका विचार था कि आफिया किसी बात में भी बेनज़ीर से कम नहीं है। वह सत्रह वर्ष की हो चुकी थी। उसने प्रारंभिक पढ़ाई पूरी कर ली थी। पढ़ाई भी उसने पाकिस्तान के मशहूर सेंट जॉसिफ कालेज से की थी, जहाँ पर बड़े बड़े लोगों के बच्चे पढ़ते थे। उसने हर विषय में ‘ए’ग्रेड लेते हुए क्लास में टॉप किया था। देखने में भी वह बहुत खूबसूरत थी। कद हालांकि उसका छोटा यानी पाँच फुट दो इंच ही था, पर उसका व्यक्तित्व देखने में बहुत प्रभावशाली था। परंतु इसमें एक अड़चन वह स्पष्ट देख रही थी। वह यह थी कि पाकिस्तान में रहते हुए आफिया की शीघ्र ही शादी हो जानी थी। यहाँ के रिवाज़ के अनुसार उसकी शादी की उम्र हो चुकी थी। उसकी माँ ने सोच-विचार करके यह तय किया कि यदि इसको पढ़ने के लिए विदेश भेज दिया जाए तो यह बहुत आगे बढ़ सकती है और इस प्रकार उसके विवाह वाला मसला भी पीछे रह जाएगा। आफिया का भाई मुहम्मद अली, पहले ही पढ़ाई करने के लिए अमेरिका गया हुआ था। उसने वहाँ पढ़ाई पूरी करने के बाद आर्चीटेक्ट का काम शुरू कर रखा था। आखि़र, इस्मत ने अली के साथ सलाह-मशवरा किया। उसका भी यही कहना था कि आफिया अभी छोटी है और साथ ही पढ़ाई में बहुत होशियार भी है। इसलिए इसको अमेरिका भेज दिया जाए। आफिया के माँ-बाप ने विचार-विमर्श करके आखि़र आफिया को अमेरिका भेजने की तैयारी आरंभ कर दी। ईद के हफ़्ताभर बाद ही वह अमेरिका जाने वो जहाज़ में बैठी हुई थी।
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Re: आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

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डेल्टा एअरलाइन्ज़ का जहाज़ नीचे होने लगा तो आफिया ने नीचे धरती की ओर गौर से देखा। उसको कुछ भी नज़र न आया। नीचे धुंध की चादर-सी बिछी हुई थी। जहाज़ नीचे होता गया, पर नीचे अभी कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। आफिया ने महसूस किया जहाज़ काफ़ी नीचे पहुँच गया है। फिर उसको मद्धम-सी रोशनियाँ दिखाई देने लगी और तभी जहाज़ लैंड कर गया। एक झटका-सा लगा और जहाज़ रन-वे पर दौड़ने लगा। जहाज़ की गति धीमी हुई तो आफिया ने बाहर की तरफ देखा। बाहर रात का अँधेरा पसरा हुआ था और हर तरफ गहरी धुंध छाई हुई थी। तभी, जहाज़ टर्मिनल पर जा लगा। वह कस्टम वगैरह में से निकलकर बाहर आई तो सामने उसका भाई मुहम्मद अली उसका इंतज़ार कर रहा था। उसके साथ उसका कोई दोस्त प्रतीत होता एक गोरा लड़का था। आफिया भाई के संग घर चली गई। उसके भाई का हूस्टन यूनिवर्सिटी के करीब ही अपना अपार्टमेंट था। वह वहीं रहकर पढ़ा था और अब आर्चीटेक्ट का काम कर रहा था। सभी उसको मुहम्मद कहकर बुलाते थे। अगले पाँच सात-दिन तो आफिया की थकान ही नहीं उतरी। उसका मन पीछे अपने माँ-बाप के लिए बहुत उदास था। वह दिन भर अपार्टमेंट में ही पड़ी रहती थी। टी.वी. वगैरह की उसको पूरी समझ नहीं थी और न ही उसको टी.वी. देखना पसंद था। फिर मुहम्मद उसको यूनिवर्सिटी ले गया और उसकी पढ़ाई के बारे में मालूम किया। सारी जानकारी लेकर आफिया ने कक्षाओं में जाना प्रारंभ कर दिया। परंतु अभी भी उसका मन यहाँ पूरी तरह नहीं लग पा रहा था। वह घर के अंदर ही घुसी रहती। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसका मन बहलने लगा। इसका बड़ा कारण था कि यहाँ मुस्लमान विद्यार्थियों बहुत बड़ी संख्या में थे। वह कइयों के करीब होने लगी। अपने स्वाभाव के अनुसार आफिया हरेक के साथ धर्म के विषय में चर्चा अवश्य करती। इसी बीच उसने देखा कि उसके भाई के अपार्टमेंट में बहुत सारे विद्यार्थी आते थे। वहाँ मुस्लमान विद्यार्थियों की समस्याओं के बारे में चर्चा चलती रहती थी। उसका भाई मुस्लिम कम्युनिटी का उभरता लीडर था। ऐसे समय वह पिछले कमरे में चली जाती। वह सबके बीच नहीं बैठती थी। इसी दौरान उसने देखा कि उसके भाई का वह दोस्त लड़का जो कि उसके अमेरिका आने वाले दिन उसके भाई के संग एअरपोर्ट पर आया था, वह भी अपार्टमेंट में बहुत आता-जाता था। उसका नाम जॉर्ज था। जॉर्ज जब भी आता तो आफिया उससे एकतरफ हो जाती। जबकि जॉर्ज हमेशा उसके साथ कोई बात करना चाहता। वह उसके साथ पहली बार तब बोली जब एक दिन मुहम्मद ने जॉर्ज के आने पर उसको कमरे में बुलाया। उसने बताया कि जॉर्ज उसका बहुत ही गहरा दोस्त है और वह उसके साथ बेझिझक बातचीत कर सकती है। फिर वह जॉर्ज के साथ थोड़ा-बहुत खुलने लगी। जॉर्ज उसको फ्रेंड कहकर बुलाता तो उसको यह सम्बोधन अच्छा न लगता। फिर जॉर्ज उसको सिस्टर कहकर बुलाने लगा तो वह जॉर्ज के साथ पूरी तरह खुल गई। वह उसके साथ धर्म को लेकर लम्बी बहसें करती। इन बहसों के दौरान जॉर्ज देखता कि वह हर समय मुस्लिम धर्म की ही प्रशंसा करती थी। दूसरे धर्मों की वह अधिक कद्र नहीं करती थी। जॉर्ज बहुत बार क्रिश्चियन धर्म के बारे में बहुत कुछ समझाता, पर वह किसी बात से सहमत न होती। वह हर बहस के समय मुस्लिम धर्म को ऊँचा और असली धर्म कहती। जॉर्ज ने एक बात ज़रूर देख ली थी कि आफिया धर्म के बारे में बहुत गहरी जानकारी रखती है और उसके अंदर दूसरों को अपने प्रभाव के अधीन लाने की योग्यता है। मुहम्मद के कई दोस्त तो पहली बार में ही उसका प्रभाव स्वीकार कर लेते थे। आफिया के अन्य रिश्तेदार भी हूस्टन में रहते थे। किसी न किसी त्योहार के दिन सभी इकट्ठे होते रहते थे। जॉर्ज इन सभी को जानता था और सबके साथ व्यवहार करता था। इसलिए बाद में जाकर आफिया उसके संग पूरी तरह खुल गई। वह खुलकर बहसें करते। एक दिन जॉर्ज मुहम्मद के अपार्टमेंट में आया तो उसने देखा कि आफिया चुपचाप एक तरफ बैठी हुई थी। घर में गहरी चुप छाई हुई थी।
“क्या बात है सिस्टर, आज इतनी उदास है ?“ जॉर्ज ने पूछा।
“जॉर्ज, आज घर याद आ रहा है। खास तौर पर अम्मी।”
“न तू टी.वी. देखती है। न कोई किताब वगैरह पढ़ती है। फिर अकेली बैठी उदास ही होगी न।”
“इसी कारण मैं टी.वी. नहीं देखती और न ही कुछ पढ़ती हूँ।”
“मतलब ?“ जॉर्ज हैरान हुआ।
“क्योंकि यह बातें सिर्फ़ वक़्तकटी के लिए हैं। ये इन्सान का वक़्त पास ही नहीं करवातीं, बल्कि बर्बाद भी करती हैं। इसीलिए इन बातों की हमारे धर्म में मनाही है।”
“खाली समय में फिर और क्या करना चाहिए।”
“अल्लाह की इबादत करो, या फिर सामाजिक भलाई के लिए काम करो।”
“अगर तुम टी.वी. नहीं देखोगे, कोई अखबार नहीं पढ़ोगे तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि संसार में क्या हो रहा है ?“
“तेरे जैसों से पता चल ही जाता है कि संसार में क्या चल रहा है।” इतना कहकर आफिया हँस पड़ी। उसकी यह बात सुनकर जॉर्ज हैरान न हुआ। क्योंकि उसने पहले ही देख लिया था कि जो आजकल की युवा पीढ़ी कर रही है, आफिया उन बातों से कोसों दूर है। वह टी.वी. नहीं देखती, संगीत नहीं सुनती, कोई उपन्यास वगैरह नहीं पढ़ती और किसी लड़के के साथ घूमने जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उसके लिए बस दो ही बातें ज़रूरी थीं - अपनी पढ़ाई या फिर धर्म। वह कुछ देर चुप रहकर बोला -
“सिस्टर, तुम्हें मैं एक सलाह दूँ। तू टी.वी. वगैरह पर समाचार वगैरह अवश्य देख लिया कर। इससे इन्सान को इतना पता लगता रहता है कि हमारे आसपास क्या घट रहा है।”
“क्यों ? कुछ ख़ास हो रहा है आसपास ?“ आफिया ने बात फिर मज़ाक में डाल दी।
“तुम्हें नहीं पता कि आज क्या हुआ है ?“
“नहीं तो।”
“इराक ने कुवैत पर हमला कर दिया है।”
“क्या !“ आफिया ने हैरान होते हुए जॉर्ज की तरफ़ देखा। वह एकदम सकते में आ गई।
“हाँ, यह सच है। पिछले कई दिनों से झगड़ा चल रहा था, यह तो तुम जानती ही होगी। पर आज सद्दाम हुसैन सारी दुनिया के रोकने के बावजूद न रुका और उसने कुवैत पर चढ़ाई कर दी।”
“सद्दाम हुसैन तो बुच्चड़ है, यह सभी जानते हैं, पर कुवैत के शेख भी कम नहीं।”
“सिस्टर, कुवैत का इसमें क्या कसूर है ?“ जॉर्ज उसकी बात सुनकर हैरान हुआ।
“ये जितने भी डिक्टेटर, सुल्तान और ख़लीफे हैं, ये सभी शैतान हैं। सभी मुसलमान धर्म को नुकसान पहुँचा रहे हैं। इन सबका ही खात्मा होना ज़रूरी है।”
“फिर, तेरे ख़याल में अब क्या होना चाहिए ?“
“पहले सद्दाम का टंटा साफ़ किया जाए। उसके बाद इन डिक्टेटरों का सफाया हो।”
“कौन करेगा यह सब ?“
“लोग।” इतना कहकर आफिया ने जॉर्ज की तरफ़ देखा।
“लोग यहाँ कुछ नहीं कर सकते। इस वक़्त किसी बड़ी शक्ति की ज़रूरत है जो सद्दाम को नकेल डाले।“
“मतलब ?“
“मतलब यह है कि अमेरिका ने इराक को कह दिया है कि वह अपनी फौजें कुवैत से बाहर निकाले। नहीं तो फिर नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहे।”
“अमेरिका यहाँ बीच में कहाँ से आ गया। यह अरब मुल्कों का आपसी मामला है।” आफिया तुरन्त बात का रुख बदल गई।
“तुम्हें नहीं मालूम, इराक तो कुवैत से भी आगे सऊदी अरब पर भी हमला करने की तैयारी किए जा रहा है। यदि उसको न रोका गया तो...।”
“मुझे यह सब एक साज़िश लगती है।” जॉर्ज की बात बीच में ही काटते हुए आफिया बोली।
“साज़िश ! मतलब ?“
“अमेरिका शैतान की पार्टी है। आज यह दुनिया में किसी को भी टिक कर बैठने नहीं देता। हर देश के घरेलू मामलों में दख़ल देता रहता है। यहाँ भी इसने कोई न कोई शरारत की होगी।”
“मैं यह बात नहीं मानता। मुझे तो अमेरिका ऐसा करता कहीं दिखाई ही नहीं देता।”
“दूर जाने की ज़रूरत ही नहीं। मेरे अपने मुल्क पाकिस्तान की बात कर लेते हैं। वहाँ वही होता है जो अमेरिका को अच्छा लगे। मुल्क पर राज करने वाला कोई भी हो, उसको अमेरिका की बात माननी पड़ती है। असल में, हमारे मुल्क के सभी सियासतदान अमेरिका के पिट्ठू हैं। अपनी राजगद्दी बचाने के लिए वे कोई भी समझौता कर सकते हैं। ऐसा ही शेष देशों में हो रहा है। अरब देशों में अमेरिका एक दूसरे को लड़ा कर अपना मतलब निकाले जाता है।”
“पर हम बात इराक की कर रहे हैं।” जॉर्ज ने उसको टोका।
“ठीक है, इराक की सही। पहले तो अमेरिका इराक को इरान के खिलाफ़ उठाए रहा। इतने साल की इरान-इराक लड़ाई में इसने इराक की पूरी हिमायत की। अब वह लड़ाई ख़त्म हो गई तो इसने अपना अगला एजेंडा शुरू कर लिया।”
“सिस्टर, तू फिर मसले से दूर जा रही है। हमला, इराक ने कुवैत पर किया है न कि अमेरिका ने।”
“जॉर्ज, मैं सब जानती हूँ। पिछले कई महीनों से यह हल्ला चल रहा था। इराक ने अमेरिका के पास शिकायत भी की थी कि उसका कुवैत के साथ किसी इलाके को लेकर झगड़ा है। पर अमेरिका ने यह कहकर पल्लू झाड़ लिया कि यह तुम्हारा आपसी मामला है, जैसे चाहो सुलझाओ। वह इसमें नहीं पड़ेगा। असल में, यह कहकर अमेरिका ने इराक को एक किस्म की हल्लाशेरी दी थी कि वह जो मर्जी में आए, करे, अमेरिका बीच में नहीं आएगा। सद्दाम ने भी उसका इशारा समझ लिया और अवसर मिलते ही कुवैत पर चढ़ाई कर दी। इराक के ऐसा करते ही अमेरिका अपनी बात से पलट गया। असल में, अमेरिका चाहता था कि किसी न किसी प्रकार इराक कोई कदम उठाए और उसको बीच में पड़ने का अवसर मिले। अब देख ले, अमेरिका के मन की हो गई। इराक को रोकने के लिए उसने सऊदी अरब को आगे लगा लिया।”
“सिस्टर आफिया, पहले यह बता कि तू इराक के उठाये इस कदम के हक में है कि इसके विरोध में ?“
“मैं इसके बिल्कुल खिलाफ़ हूँ। मैं तो यहाँ तक कहती हूँ कि इस बुच्चड़ सद्दाम का खात्मा हो और इराक के लोगों का उससे पीछा छूटे। अकेला वही नहीं है, जैसा कि मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि अरब मुल्कों के सारे डिक्टेटरों और शेखों का खात्मा ज़रूरी है। ऐसा होने पर ही इस्लाम तरक्की कर सकता है। पर यह मामला मुसलमान लोगों का अपना है। मैं चाहती हूँ कि वे खुद ही इसे सुलझाएँ। अमेरिका को हमारे लोगों के मसलों में दख़ल देने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
“जो भी है सिस्टर, पर एक बात तय है कि कुछ ही दिनों में अमेरिकी फौजें सऊदी अरब की ओर कूच कर देंगी।” जॉर्ज ने चुटकी मारते हुए हँसकर कहा।
“ऐसा कभी नहीं होगा। मुसलमान लोग ऐसा नहीं होने देंगे।”
“यह तो समय ही बताएगा, पर अब मैं चलता हूँ। मुहम्मद को बता देना कि जॉर्ज आया था।” इतना कहकर जॉर्ज बाहर निकल गया, पर आफिया चिंता में डूब गई। उसके मन-मस्तिष्क को इराक वाले मसले ने घेर लिया। दिल से हालांकि वह चाहती थी कि सद्दाम का सफाया हो जाए, पर वह यह भी नहीं चाहती थी कि अमेरिका इस बात में दख़ल दे। उसने जब से होश संभाला था, उसने घर में अमेरिका के खिलाफ़ होती बातें ही सुनी थीं। उसने अफ़गानिस्तान वाला सारा मसला अपने सामने घटित होते देखा था। वह सोचा करती थी कि अपना काम निकालने के लिए पहले तो अमेरिका ने पाकिस्तान को आगे लगा लिया। जब सोवियत यूनियन हार गया तो अमेरिका ने अपने ही उन दोस्तों का सफाया कर दिया जिन्होंने अफ़गानिस्तान की लड़ाई में उसका साथ दिया था। ख़ास करके उसको जिया उल हक वाला हादसा बहुत चुभता था। उसकी अपनी सोच यह थी कि हवाई हादसा अमेरिकी सी.आई.ए. ने करवाया था जिसमें जिया उल हक की मौत हो गई थी। उसके परिवार का अभी भी जिया उल हक के परिवार से गहरा वास्ता था। ख़ासकर उसके पुत्र इजाज उल हक के साथ। ख़ैर, जॉर्ज और आफिया की इस मुलाकात के कुछ दिन पश्चात ही वे फिर मुहम्मद के अपार्टमेंट में बैठे थे। आज मुहम्मद भी वहीं था।
“देख ले जॉर्ज, अमेरिका ने सऊदी अरब की पवित्र धरती गंदी कर दी।” बात मुहम्मद ने शुरू की।
“मुहम्मद, दूसरा कोई राह भी तो नहीं। यदि अमेरिका वहाँ न जाता तो इराक आगे ही बढ़ता जाता।”
“सब चालें हैं। जो कुछ भी हो रहा है, इस सबका जिम्मेदारी अमेरिका ही है।” आफिया बातचीत में हिस्सा लेते हुए बोली।
“असल में अमेरिका को तो बड़ी मुश्किल से मौका हाथ लगा है, अरब देशों में जाकर अड्डा जमाने का। अमेरिका कब से बहाना तलाश रहा था, वह उसको इराक ने दे दिया। अब नहीं अमेरिका वहाँ से कभी निकलने वाला।” मुहम्मद बोला।
“नहीं, मेरे ख़याल में ऐसा नहीं होगा। अमेरिका ने इराक को कहा है कि वह कुवैत में से निकल जाए। मुझे लगता है कि यह सब अमरिका ने उसको डराने के लिए किया है। इस प्रकार इराक वापस चला जाएगा तो अमेरिका भी अपनी फौजें वापस बुला लेगा।”
“जॉर्ज, ऐसा कभी नहीं होने वाला। अमेरिका ने न कभी पहले मुसलमानों की परवाह की है और न अब करेगा।”
“सिस्टर, सऊदी अरब के किंग के कहने पर ही तो अमेरिका ने फौजें वहाँ एकत्र की हैं। वह भी मुसलमान ही है।”
“जॉर्ज, तू मुझे वही बातें बार बार दोहराने को पता नहीं क्यों उकसाता रहता है कि ये शेख, किंग और डिक्टेटर सब शैतान हैं। जब तक ये जिंदा हैं, तब तक मुसलमानों का भला नहीं हो सकता।”
“जॉर्ज, वैसे तो तू बहुत फड़ें मारता रहता है कि क्रिश्चियन अहिंसा में विश्वास रखते हैं। पर अब बता कि यह सब क्या हो रहा है। अब वहाँ जाकर मुसलमान लोगों का क़त्लेआम करने लगे हो तो अहिंसा का उसूल कहाँ है ?“ मुहम्मद को गुस्सा आ गया लगता था।
“अपने तौर पर तो मैं अब भी खून-खराबे के खिलाफ़ हूँ। पर ये मुसलमान ही हैं जो अमेरिका को ऐसा करने के लिए विवश करते हैं।”
“तुम यूँ क्यों नहीं कहते कि ताकतवर का हर जगह ज़ोर चलता है।”
“यह तो है ही। हम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत हैं। जो चाहे करें।” जॉर्ज ने हँसी में कहा। परंतु मुहम्मद इस बात का गुस्सा मान गया। दाँत पीसते हुए वह बोला, “जॉर्ज, अगर एक लफ़्ज भी आगे बोला तो मैं तुझे उठाकर बाहर फेंक दूँगा।”
“हम सुपर पावर हैं, हमें कौन छेड़ सकता है।” जॉर्ज फिर हँसी की रौ में बोला। इससे मुहम्मद को और अधिक गुस्सा आ गया। वह उठता हुआ बोला, “तू अभी मेरे घर से निकल जा।”
“यह घर तेरा ही नहीं, यह मेरी इस लिटिल सिस्टर का भी है। मैं नहीं जाने वाला यहाँ से।” जॉर्ज आफिया की ओर देखता हुआ बोला।
“ठीक है फिर, मैं ही यहाँ से चला जाता हूँ। कुएँ में गिरे तू और तेरा अमेरिका।” मुहम्मद उठकर चल पड़ा। आफिया शांत चित्त उसकी ओर देखती रही। जब वह अपार्टमेंट में से बाहर निकल गया तो आफिया बोली, “एक सच्चे मुसलमान को इतना गुस्सा शोभा नहीं देता।”
“चलो, कोई बात नहीं। वह मेरा जिगरी दोस्त है। जब गुस्सा शांत होगा, खुद ही लौट आएगा।”
इसके पश्चात आफिया और जॉर्ज आगे घटित होने वाली घटनाओं पर चर्चा करते रहे। देर रात जॉर्ज अपने घर चला गया। अगली मुलाकात के समय मुहम्मद और जॉर्ज में सुलह हो गई। उसके बाद काफी कुछ अकल्पित घटित हो गया। अमेरिकी फौजों ने हमला करके इराक को कुवैत में से बाहर धकेल दिया। इतना ही नहीं, अमेरिका ने इराकी फौजों की कमर तोड़कर रख दी। लड़ाई बंद होने के उपरांत इराक को वापस लौट रही इराकी फौजों का सफाया किया गया। जंगबंदी उसूलों की परवाह किए बग़ैर अमेरिकी फौजों ने इराकियों को मारने में कोई झिझक न दिखलाई। सब कुछ टी.वी. पर दिखाया जा रहा था। उस दिन आफिया बहुत ज्यादा चुप थी। जॉर्ज के पास गर्दन झुकाये बैठी थी। मुहम्मद ने चुप्पी तोड़ी।
“जॉर्ज, देख लिया अपने अमेरिका का असली चेहरा ?“
“हाँ, यह बहुत ही बुरा हुआ। मैं इस सबके खिलाफ़ हूँ।”
“इन्होंने कुवैत से इराक वापस लौट रही निहत्थी फौजों पर गोलाबारी करके लाखों सिपाही मार दिए। अभी कहते हैं कि हमने यह सब कुछ विश्व-शांति के लिए किया है।”
“टी.वी. वालों ने तो उस रास्ते का नाम ही डैथ हाई-वे रख दिया है जिधर से इराकी फौजें लौट रही थीं। अंधाधुंध बमबारी करके तकरीबन तीन लाख फौजी मार गिराये गए हैं। यह सब कुछ मनुष्यता के नाम पर धब्बा है। मेरा अब यहाँ रहने को जी नहीं करता।” आफिया बुझे मन से बोली।
“फिर सिस्टर अब किधर जाओगी ? क्या पाकिस्तान लौट जाने का इरादा है ?“
“नहीं जॉर्ज, वापस तो मैं नहीं जाऊँगी, पर मैंने किसी दसरे शहर की ओर जाने का मन बना लिया हैं।”
“दूसरा शहर कौन-सा ?“
“पिछले महीने मैं मैसाचूसस इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलॉजी में दाखि़ले के लिए अप्लाई किया था। वहाँ मुझे दाखि़ले के साथ साथ मुझे तो स्कॉलरशिप भी मिल गई है।”
“अच्छा तू एम.आई.टी. की बात कर रही है। पहले तुमने इस बात की भनक ही नहीं पड़ने दी। पर तुम्हें इस तरह यहाँ से नहीं जाना चाहिए।”
“नहीं जॉर्ज, मुझे अब यहाँ नहीं रहना।” आफिया वैसे ही गर्दन झुकाये बोली।
“सिस्टर, ऐसा न कर। तेरे बिना हमारा दिल नहीं लगेगा।” जॉर्ज ने उसको झिंझोड़ा। वास्तव में वह आफिया को सगी बहन से भी अधिक प्यार करता था।
“मैं फै़सला कर चुकी हूँ।”
“मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा।” जॉर्ज का मोह बोला, पर आफिया ने उसकी बात की ओर ध्यान नहीं दिया।
अगले दिन उनके बीच फिर बात हुई तो आफिया ने अपना यहाँ से जाने का इरादा दोहराया। जॉर्ज ने उसको यहीं रुक जाने के लिए कहा। काफी देर उनके बीच बहस चलती रही।
“जो चाहे कर, पर आफिया तू यहाँ से न जा।” जॉर्ज अपनी बात पर अड़ा रहा। आफिया कुछ पल उसके चेहरे की ओर देखती रही और फिर बोली, “जॉर्ज, तू मुझे इतने अपनेपन से क्यों रोक रहा है ?“
“क्योंकि मैं तुम्हें रियल सिस्टर के तौर पर प्यार करता हूँ।”
“वह तो मैं समझती हूँ पर...।” आगे आफिया ने बात बीच में ही छोड़ दी।
“पर क्या ?“
“तू मुझे यहाँ रखने के लिए क्या कर सकता है ?“
“कुछ भी, जिससे तुझे खुशी मिले।”
“पक्की बात है।” आफिया ने जॉर्ज के चेहरे पर निगाहें गड़ा दीं।
“हाँ-हाँ, मैं अपनी लिटिल सिस्टर के लिए कुछ भी कर सकता हूँ।”
“तो फिर ऐसा कर।”
“बता।”
“तू क्रिश्चियन धर्म छोड़कर मुसलमान बन जा।”
उसकी बात सुनकर जॉर्ज के मुँह पर ताला लग गया और वह अंदर तक हिल उठा। उसको मुहम्मद ने कई बार बताया था कि यदि कोई मुसलमान किसी अन्य धर्म के इन्सान को मुस्लिम धर्म में ले आए तो उससे बड़ा पुण्य का कार्य कोई हो ही नहीं सकता। मुहम्मद के साथ वह बहुत अधिक खुला हुआ था इसी कारण मुहम्मद उसके साथ हर बात कर लेता था। पर धर्म बदलने के लिए उसने कभी नहीं कहा था। परंतु आज वही बात आफिया के मुँह से सुनकर वह हैरान रह गया। वह आफिया की बात सुनकर लगे सदमे में से बाहर आया तो उसने ध्यान से आफिया की ओर देखा। वह मन ही मन सोचने लगा, ‘यह जो दिखाई देती है, वह यह नहीं है। यह असल में कुछ और ही है। इसको किसी की भावनाओं की परवाह नहीं है। इसको सिर्फ़ अपने धर्म से प्यार है। दूसरी कोई भी बात इसके लिए मायने नहीं रखती। शायद इसका अपना सगा भाई मुहम्मद भी इसको अच्छी तरह नहीं जानता।’ अपने आप से बातें करता जॉर्ज दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर निकल गया।
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Re: आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

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आफिया, मैसाचूसस स्टेट के लोगन इंटरनेशनल एअरपोर्ट बॉस्टन पर उतरी। वहाँ से वह टैक्सी लेकर मैसाचूसस इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी अर्थात एम.आई.टी. की ओर चल पड़ी। टैक्सी बॉस्टन शहर की सड़कों पर दौड़े जा रही थी और आफिया अपने ही ध्यान में गहरी डूबी हुई थी। उसको पहली नज़र में ही बॉस्टन शहर भा गया। उसको बॉस्टन शहर बहुत सुंदर लगा। पता ही नही लगा कि टैक्सी कब यूनिवर्सिटी के नज़दीकी होटल में जा रुकी। टैक्सी ड्राइवर के बुलाने पर आफिया विचारों की गुंजल से बाहर निकली। किराया चुकता करके उसने सामान उठा लिया। होटल में कमरा लेकर सामान वगैरह वहाँ टिकाकर वह यूनिवर्सिटी की ओर चल पड़ी। अंदर जाते ही उसने देखा कि हर तरफ़ विद्यार्थी झुंडों में घूम रहे थे। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। उसको कोई भी लड़की पंजाबी पहरावे में न दिखाई दी जबकि उसने स्वयं सलवार-कमीज़ पहन रखी थी और सिर पर चुन्नी ले रखी थी। उसको अपना आप पराया-सा न लगा। अपितु उसको अपनी भिन्नता पर गर्व अनुभव हुआ। दफ़्तर जाकर उसने दाखि़ले वगैरह का शेष बचा काम निपटाया। फिर वह नज़दीकी लड़कियों के हॉस्टल मकार्मिक हॉल चली गई। उम्मीद के उलट उसको थोड़ा-सा पेपर वर्क पूरा करने के उपरांत ही कमरा मिल गया। दफ़्तर से कमरे की चाबी लेकर वह लिफ्ट से कमरे में पहुँची। ऊँची-लम्बी इमारत की बीसवीं मंज़िल पर उसका कमरा था। कमरा खोलकर वह अंदर आ गई और पिछली खिड़की में से उसने नीचे झांका। उसका मन बागबाग हो उठा। बाहर हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी और चार्सल दरिया, हॉस्टल की इमारत के साथ ही लगकर बहता था। काफी देर खड़ी वह कुदरत के नज़ारे का आनंद लेती रही। फिर होटल जाकर अपना सामान उठा लाई।
अगले दिन से ही वह पढ़ाई में डूब गई। उसके घर वाले चाहते थे कि वह डॉक्टर बने, पर उसका विचार कुछ और ही था। पहले वह पुलिटिकल साइंस पढ़ना चाहती थी। घरवालों के अधिक ज़ोर देने पर उसने साइंस और मैथ की कक्षाएँ ले लीं। आफिया हालांकि छोटे कद और हल्के शरीर की दुर्बल-सी लड़की थी, पर उसका चेहरा-मोहरा बहुत प्रभावशाली था। उसका समूचा व्यक्तित्व दूसरे को मोह लेता था। अपने काम में मस्त रहने और पढ़ाई में बहुत ही होशियार होने के कारण शीघ्र ही अपने प्रोफेसरों की चहेती बन गई। हॉस्टल में थोड़ी जान-पहचान बढ़ने के बाद उसने मुसलमान लड़कियों को जोड़ने का काम प्रारंभ कर दिया। यहाँ दूसरे धर्मों की लड़कियाँ अधिक थीं। पर वह उनसे दूरी बनाकर रखती थी। विशेष तौर पर यहूदी लड़कियों से तो वह बिना मतलब के बातचीत भी नहीं करती थी। आहिस्ता आहिस्ता उसने वहाँ अपना एक ग्रुप बना लिया। वह मुसलमान लड़कियों के साथ धर्म पर चर्चा करने लगी। परंतु अधिकांश लड़कियों का धर्म से अधिक सरोकार नहीं था। वे तो अमेरिकन ज़िन्दगी में घुलमिल गई प्रतीत होती थीं। आफिया ने उन्हें धर्म की शिक्षा का वास्ता दे देकर अपने हिसाब से सीधे राह पर लाने का प्रयत्न शुरू कर दिया। इसमें वह काफी हद तक सफल भी रही। फिर वह अपने ग्रुप को संग लेकर साझे काम करने लगी। जैसे कि कालेज कैंपस की सफाई वगैरह। इसके अलावा, वह हर सप्ताह लगभग चालीस घंटे बिना किसी वेतन के कालेज के साझे कामों में लगाती थी। अवसर मिलते ही वह गरीब इलाकों के स्कूलों में जाकर बच्चों के लिए मुफ्त साइंस फेयर वगैरह लगाने लगी। इस प्रकार वह शीघ्र ही सभी की नज़रों में आ गई। कालेज में उसका अक्स एक अच्छी होशियार और समाजसेवी छात्रा का बन गया। परंतु निजी तौर पर वह हमेशा धर्म के साथ जुड़े कामों को पहल देती। वह जब अपने ग्रुप की लड़कियों के साथ बैठकें करती तो हमेशा इस बात पर ज़ोर देती कि गै़र-मुसलमानों से दूर रहा जाए। उनके साथ दोस्ती न की जाए। पर उनके साथ व्यवहार करते समय बहुत ही प्रेमपूर्वक मीठी बोली में बात करने का दिखावा किया जाए। उसके समाजसेवा वाले कामों के कारण उसको दो बार ईनाम मिला। वैसे तो पढ़ाई के हर क्षेत्र में ही वह बहुत अच्छी थी, पर कंप्युटर में तो उसका इतना नाम बन गया कि कभी कभी तो कई प्रोफेसर भी उसकी मदद ले लेते। अब तक मुस्लिम स्टुडेंट्स एसोसिएशन जिसको कि आम तौर पर एम.एस.ए. कहा जाता था, में वह काफी आगे बढ़ गई थी। वह एम.एस.ए. के माध्यम से मुसलमान छात्रों के हकों के बारे में सभी को जागरूक कर रही थी। कालेज अथॉरिटी के साथ मिलकर वह मुसलमान विद्यार्थियों की ज़रूरतें भी पूरी करने के लिए ज़ोर डालती रही थी। यहाँ तक कि कालेज कैंपस के छोटे रेस्टोरेंटों में उसने हलाल मीट की प्रयोग शुरू करवाने के लिए अथॉरिटी को मना लिया ताकि मुसलमान विद्यार्थी अपने धार्मिक अकीदे के अनुसार हलाल मीट की इस्तेमाल कर सकें। इसके अतिरिक्त उसने हॉस्टलों में पृथक कमरों की सुविधा मुहैया करवा ली जहाँ कि मुसलमान विद्यार्थी नमाज़ अदा कर सकें। जैसे जैसे वह एम.एस.ए. के माध्यम से मुसलमान विद्यार्थियों की ज़रूरतों के लिए सक्रिय हो रही थी, वैसे वैसे उसका नाम प्रसिद्ध होता जा रहा था। मुसलमान विद्यार्थियों में उसको बहुत इज्ज़त के साथ देखा जाता था। कट्टर धार्मिक लड़के उसको ट्रू सिस्टर कहकर बुलाने लग पड़े थे। इसी दौरान उसकी मुलाकात सुहेल लैहर से हुई। सुहेल के माता पिता इंडिया से थे, पर वो जिम्बावे में जन्मा था। पेशे के तौर पर वह इंजीनियर था। सुहेल की मार्फ़त वह एम.एस.ए. के अंदरूनी क्षेत्र में आ गई। जब उसने एम.एस.ए. के भीतरी विद्यार्थियों की सोच सुनी तो वह बड़ी प्रसन्न हुई। उसको लगा कि यही असली जगह है जहाँ रहकर वह अपने धर्म की अधिक से अधिक सेवा कर सकती है। असल में, यह ग्रुप एम.एस.ए. की अगली कतार की लीडरशिप था जो कि आम तौर पर परदे के पीछे रहता था। एम.एस.ए. की अगली बैठक में अपनी बारी आने पर वह बोलने लगी, “हमें यहाँ इस्लाम की अधिक से अधिक शिक्षा देनी चाहिए। क्योंकि यही एक ढंग है अल्लाह की रहमतों को हासिल करने का। हमें सभी विद्यार्थियों के लिए जुम्मे की नमाज़ कालेज कैंपस में पढ़ने के लिए ज़रूरी कर देनी चाहिए। अपने आसपास के लोगों का विश्वास जीतकर उनको इस्लाम धर्म में लाने के लिए यत्न करना चाहिए। इंशा अल्ला ज़रा सोचो कि वो दिन कितना किस्मतवाला होगा जब अमेरिका में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में इस्लाम का झंडा फहरेगा। इसके अलावा आज और बहुत कुछ करने वाला है...।” उसने अपनी बात रोककर श्रोताओं की ओर देखा। सभी बड़े ध्यान से उसकी बात सुन रहे थे। ज़रा रुक कर वह फिर बोलने लगी, “आज संसार में बहुत कुछ घटित हो रहा है। जगह जगह मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं। यह क्यों हो रहा है। क्योंकि हम मुसलमान अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं। हम भूल गए हैं कि हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है - जिहाद। हरेक को आज दुनिया के अलग अलग हिस्सों में चल रहे जिहाद में अपनी हैसियत के अनुसार हिस्सा लेना चाहिए। असली मुसलमान वो हैं जो फ्रंट पर लड़ाई में हिस्सा ले रहे हैं। पर फिर भी हम उतना तो कर ही सकते हैं जो उनके काम में मदद बन सके। उदाहरण के लिए हम जिहाद में शहीद हो रहे हमारे भाइयों के बच्चों और उनकी विधवाओं को संभाल सकते हैं। उसके लिए चैरिटी संस्था बनाकर फंड एकत्र करने की आवश्यकता है। हमें अधिक से अधिक चैरिटी एकत्र करनी चाहिए।”
जब तक उसने अपना भाषण समाप्त किया, तब तक वह एम.एस.ए. की अगली पंक्ति के लीडरों की नज़रों में आ चुकी थी। सभी उससे प्रभावित हुए थे। वे समझ गए कि जिस लड़की की वह एक अरसे से प्रतीक्षा कर रहे थे, वह आज उन्हें मिल गई है। मीटिंग ख़त्म होने पर वह बाहर निकली और सुहेल के साथ कार में बैठ गई। सुहेल ने कार आगे बढ़ाई तो आफिया ने बात प्रारंभ की, “सुहेल वो एक कोने में बैठी गोरी अमेरिकन लड़की कौन थी ?“
“उसका नाम मार्लेन अर्ल है।”
“मतलब वह अमेरिकन है ?“
“हाँ है तो अमेरिकन ही, पर...।“
“पर क्या ?“
“उसने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म अपना लिया है। अब वह पक्की मुसलमान है।”
“किसके प्रभाव से उसने मुस्लिम धर्म अपनाया है ?“
“इस बात को छोड़ो, पर तुम्हें बताऊँ कि उसका पति बसम कुंज बहुत बड़ा जिहादी है। उसने कई जिहादों में लड़ाई लड़ चुका है।”
“अच्छा !“
इसके बाद आफिया चुप हो गई। उसके मन में आ रहा था कि वह कितना किस्मत वाला होगा जिसने मार्लेन का धर्म परिवर्तन करवाया होगा। दूसरा उसको मार्लेन पर इस बात से भी गर्व महसूस हुआ कि उसका पति जिहादी है और फ्रंट पर बंदूक उठाकर लड़ाई में हिस्सा लेता है।
“चुप क्यों हो गईं ?“ सुहेल ने आफिया को ख़यालों में गुम देखकर उसकी चुप्पी तोड़ी।
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। मैं तो सोच रही थी...।”
“क्या सोच रही थी तुम ?“
“मैं तो यह सोच रही थी कि...।”
“अच्छा सुहेल, एक बात और बता।” आफिया ने पहली बात बीच में ही छोड़ते हुए बात बदली।
“हाँ हाँ पूछ।“
“वो जो तेरे संग बैठा था, वह कौन है ? जो पूरी मीटिंग के दौरान बिल्कुल ही नहीं बोला।”
“उसका नाम...।” सुहेल ने बात बीच में ही छोड़ते हुए गौर से आफिया की ओर देखा। पल भर रुककर वह फिर बोला, “उसका नाम रम्जी यूसफ है। वह अल कीफा का कभी न थकने वाला एक बड़ा वर्कर है।”
“अल कीफा ?“ आफिया ने अल कीफा का नाम सुना तो था, पर उसके विषय में पूरी जानकारी नहीं थी।
“तुम्हें अल कीफा के बारे में बता ही देता हूँ।” सुहेल ने एक बार फिर ध्यान से आफिया की ओर देखा और मन में सोचा कि यह लड़की हमारे कॉज़ के लिए बहुत ही वफ़ादार साबित होगी। और इसके साथ हर बात साझी कर लेनी चाहिए।
“अल कीफा अपने ही बहन-भाइयों का संगठन है। यह बातों में नहीं, बल्कि एक्शन में विश्वास रखती है। अपनी सभी मस्जिदों और जिहादी सर्किलों में इसका बहुत ज़ोर है। पर ये खुलकर सामने नहीं आता। इसका नेता गुलबदन हेकमत्यार है।“
“जो अफ़गानिस्तान का वार लोर्ड है ?“ आफिया बीच में ही बोल उठी।
“हाँ वही। शुरुआत उसने की थी। पर अब यह सब तरफ फैल चुकी है। मुस्लिम समाज इसको बहुत ज्यादा मान देता है और इसको आर्थिक मदद भी बहुत मिलती है। परंतु कई बार यही आर्थिक सामर्थ्य झगड़े का कारण भी बन जाता है। तुमने पिछले दिनों मुस्तफा शलेबी के क़त्ल के बारे में सुना ही होगा ?“
“हाँ, पता है मुझे। वही जिसका कोई भेद ही नहीं खुल सका।”
“वह क़त्ल अल कीफा के पास पड़े मिलियन डॉलर का फंड लेकर ही हुआ था। अल कीफा के ही एक मैंबर को शक हो गया कि शलेबी पैसे की हेराफेरी करता है। पर मैं ऐसा नहीं मानता। शलेबी को मारकर किसी ने सही नहीं किया। उस जैसा धार्मिक और अकीदे वाला कोई हो ही नहीं सकता।”
“वह कैसे ?“ आफिया को जिज्ञासा हुई।
“उसने अल कीफा के लिए या समझ लो कि समूचे जिहाद के लिए बहुत काम किया है। वही शेख उम्र अब्दुल रहमान को अमेरिका लाने में कामयाब हुआ था।”
“शेख उम्र वही है न जो कि मिस्र से है ? जो बचपन से अंधा है ?“
“हाँ वही। वह बहुत बड़ा धार्मिक फिलासफ़र है। अमेरिका को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है। पर वह मिस्र के कट्टर जिहादियों में से एक है। सारे मुस्लिम समाज में उसका रुतबा बहुत ऊँचा है। कोई भी उसकी बात का विरोध नहीं कर सकता। काश ! तू कभी उसको सुने तो...।”
“मुझे उसके फ़ल्सफ़े का पता है।” आफिया को याद आया कि पिछले दिनों ही उसको किसी ने शेख उम्र की वीडियो दिखाई थी। वीडियो में सुने शेख के शब्द उसके मन में घूमने लगे, “हर मुसलमान का एक ही धर्म है कि गै़र मुसलमानों को ख़त्म कर दो। दुनिया पर कोई भी ऐसा न रहे जो मुसलमान न हो। लोगों को समझा-बुझाकर मुसलमान बनाने से बेहतर यह है कि उनका खातमा करो। जितनी जल्दी गै़र मुसलमानों का सफाया होगा, उतनी जल्दी ही हम दुनिया पर इस्लाम का झंडा फहरा सकेंगे। इसके अलावा हर मुसलमान का यह भी धार्मिक फर्ज़ है कि वो कई शादियाँ करके अधिक से अधिक बच्चे पैदा करे ताकि हमारी गिनती काफ़िरों से अधिक हो जाए।”
“तू मेरी बात सुन रही है न ?“
“हाँ-हाँ, मेरा ध्यान तेरी बात की ओर ही है।” आफिया ने ख़यालों में से निकलते हुए सुहेल की बात का हुंकारा भरा।
“हमे शेख उम्र जैसे धार्मिक रहनुमा की ज़रूरत है।”
“पर...।” आफिया ने उसकी बात काटी।
“हाँ, बता ?“
“पर, यह रम्जी यूसफ फिर आज एम.एस.ए. की मीटिंग में क्या कर रहा था ?“
“असल में सभी बातों का तुम्हें आहिस्ता आहिस्ता पता चल जाएगा। कई मैंबर दोनों तरफ काम करते हैं। जैसे कि मार्लेन का पति बस्म कुंज है। वह दोनों तरफ का मैंबर है।“
“आजकल वह कहाँ है ? क्योंकि वह आज मार्लेन के साथ तो कहीं दिखा नहीं ?“ बात फिर दूसरी तरफ चली गई।
“उसकी भी लम्बी कहानी है। वह लिबनान का जन्मा पला है। वह वहीं से किसी धार्मिक संगठन से वजीफा लेकर यहाँ पढ़ने आया था। बॉस्टन यूनिवर्सिटी से उसने ग्रेज्युएशन की। यहीं वह जिहादी लीडरों के सम्पर्क में आया। फिर वह अल कीफा का सरगरम मैंबर बन गया। उन्हीं दिनों उसने मार्लेन से शादी की और उनके एक बच्ची हो गई। फिर वे दोनों पाकिस्तान चले गए। वहीं से बस्म तो जिहाद में लड़ने की खातिर बार्डर पार करके अफ़गानिस्तान चला गया और मार्लेन अपनी बच्ची के साथ पेशावर के उस इलाके में रही जहाँ कि सभी जिहादियों के परिवार रहते हैं। वहीं बस्म लड़ाई के दौरान सख़्त ज़ख्मी हो गया और उसको सर्जरी के लिए यहाँ अमेरिका वापस आना पड़ा। मार्लेन और बस्म यहाँ आकर कुछ देर रहे। जब बस्म पूरी तरह ठीक हो गया तो वह फिर जिहाद की लड़ाई में हिस्सा लेने लिबनान पहुँच गया। वहाँ से वह आगे बास्निया चला गया। आजकल वह बास्निया में ही लड़ रहा है।“
तभी आफिया का हॉस्टल आ गया था। बातों का सिलसिला बंद हो गया। सुहेल आफिया को हॉस्टल पर उतार कर वापस चला गया। आफिया अपने कमरे की ओर जाती हुई मार्लेन और बस्म कुंज के बारे में सोचे जा रही थी। उसको वह एक सच्चा मुसलमान जोड़ा लगा जो कि पूर्णरूप में जिहाद को समर्पित था। उसको मार्लेन अच्छी लगने लगी। देर रात तक भी वह उनके बारे में सोचती रही। अगले कुछ दिनों में ही उसने मार्लेन के साथ अच्छी दोस्ती गांठ ली।
आफिया की पढ़ाई के विषय में किसी कोई शंका नहीं थी। सब जानते थे कि वह इतनी होशियार है कि वह कोई भी विषय चुन ले, पर हमेशा पहले नंबर पर आएगी। इन्हीं दिनों में उसने एक पर्चा लिखा जिसका नाम था - ‘इस्लामीजेशन इन पाकिस्तान एंड इट्स इफेक्ट्स ऑन वुमन।’ इस पर्चे के कारण उसको एम.आई.टी. ने कैरल विल्सन अवार्ड से सम्मानित किया जिसमें पाँच हज़ार डॉलर का नकद ईनाम शामिल था। इस ईनाम से खुश हुई आफिया 1992 का ग्रीष्म अवकाश बिताने के लिए पाकिस्तान चली गई। उन्हीं दिनों पाकिस्तान में हदूद लॉ के बारे में शोर मचा हुआ था। ह्युमन राइट्स जैसे संगठनों का कहना था कि यह लॉ न सिर्फ़ औरत की आज़ादी को कुचल रहा है अपितु इसने तो औरत जाति को भी कुचल कर रख दिया है। इस कानून को घड़ने में मुफ़्ती मुहम्मद तकी उस्मानी ने बड़ी मेहनत की थी। मुफ्ती उस्मानी आफिया के परिवार का धार्मिक रहनुमा था। इस कारण आफिया को उन्हीं दिनों चल रहे शोर-शराबे में दिलचस्पी हो गई। उसने मुफ्ती साहिब का पक्ष लेने का निर्णय ले लिया। वह यह पक्ष इस कारण नहीं ले रही थी कि इसको घड़ने वाला मुफ्ती उस्मानी था बल्कि इस कारण कि उसकी अपनी सोच थी कि इस्लाम ने जो भी पाबंदियाँ स्त्रियों पर लगाई हैं, वे मुसलमान स्त्री के लिए सही हैं। इनको मानते हुए ही वह अपने धर्म का सही पालन कर सकेगी। इस अरसे के दौरान वह जिस किसी भी बड़े लीडर को मिली, हर कोई उसके विचारों से प्रभावित हुआ। क्योंकि एक औरत होकर वह औरतों की ओर से चलाए जा रहे संघर्ष के उलट थी। उसके शुभचिंतकों में पहले पाकिस्तानी डिक्टेटर जिया उल हक का पुत्र इयाज़ उल हक भी था। उस वक़्त पाकिस्तान की राजनीति में भी फेरबदल हो चुका था। बेनज़ीर भुट्टो की जगह नवाज शरीफ की पार्टी सत्ता में आ चुकी थी और वह मुल्क का प्रधान मंत्री था। सरकार के बदल जाने से और चाहे सब कुछ बदल गया हो, पर एक बात नहीं बदली थी। वह थी पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई. का एजेंडा। इसके तत्कालीन प्रमुख जावेद नासिर का विचार था कि पाकिस्तान को दुनिया के किसी भी हिस्से में चल रहे जिहाद की अधिक से अधिक मदद करनी चाहिए। इसी एजेंडे के अधीन वह बास्निया में चल रहे गृह युद्ध में जिहादियों की मदद कर रहा था। इसके अलावा यह एजेंसी फिलिपीन्ज़, रशिया के कई हिस्सों में चल रहे जिहाद और चीने के सिनज्यांग प्रांत में चल रहे संघर्ष में भी ऊपरोक्त नीति अपना रही थी। हर जिहाद में अरब अफ़गानों के जत्थे लड़ रहे थे। ये वही लोग थे जो अफ़गानिस्तान की जंग के समय अमेरिका की ओर से रशिया के विरुद्ध लड़े थे। जब वहाँ लड़ाई ख़त्म हो गई तो इन्हीं जत्थों के लीडर अपने लड़ाकों को दुनिया के अन्य क्षेत्रों की ओर ले गए। इन्हीं लीडरों में से सबसे अधिक उभरकर बाहर आ रहा लीडर उसामा बिन लादिन था। इसके अतिरिक्त बलोचिस्तान का एक बड़ा और बहुत ही अमीर परिवार जिहाद में मुख्य भूमिका निभा रहा था। उसको अल बलोची के नाम से जाना जाता था। यह सारा परिवार काफी पहले पाकिस्तान से कुवैत चला गया था। परंत 1990 के इर्द गिर्द यह पुनः पाकिस्तान में लौट आया और आजकल जिहाद में बढ़-चढ़कर भाग ले रहा था। इस परिवार के प्रमुख का नाम खालिद शेख मुहम्मद था जिसका सभी उसके निक नाम अर्थात के.एस.एम. के रूप में जानते थे। रम्जी यूसफ इसी के.एस.एम. का भतीजा था।
खै़र, अपनी छुट्टियाँ बिताकर आफिया वापस अमेरिका आ गई। जब वह लोगन इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर उतर कर कस्टम वगैरह की क्लीयरेंस के लिए लाइन में लगी हुई थी तो उसने देखा कि साथ वाली लाइन में खड़ा कोई व्यक्ति उसकी ओर बड़े गौर से देख रहा था। उसने दिमाग पर ज़ोर डालकर याद करने की कोशिश की कि इस आदमी को उसने पहले कहाँ देखा था, पर उसको कुछ याद न आया। वह गर्दन झुकाकर सोचने लगी। फिर उसके दिमाग में अचानक कुछ कौंधा और उसने तुरंत ही साथ वाली लाइन की ओर देखा। तब तक वह व्यक्ति आगे निकल गया था। आफिया मन ही मन बोली, ‘ओह, यह तो रम्जी यूसफ है जिसको उस दिन एम.एस.ए. की मीटिंग में देखा था।’
(जारी…)
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Re: आफिया सद्दीकी का जिहाद/हरमहिंदर चहल

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आफिया, मैसाचूसस स्टेट के लोगन इंटरनेशनल एअरपोर्ट बॉस्टन पर उतरी। वहाँ से वह टैक्सी लेकर मैसाचूसस इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी अर्थात एम.आई.टी. की ओर चल पड़ी। टैक्सी बॉस्टन शहर की सड़कों पर दौड़े जा रही थी और आफिया अपने ही ध्यान में गहरी डूबी हुई थी। उसको पहली नज़र में ही बॉस्टन शहर भा गया। उसको बॉस्टन शहर बहुत सुंदर लगा। पता ही नही लगा कि टैक्सी कब यूनिवर्सिटी के नज़दीकी होटल में जा रुकी। टैक्सी ड्राइवर के बुलाने पर आफिया विचारों की गुंजल से बाहर निकली। किराया चुकता करके उसने सामान उठा लिया। होटल में कमरा लेकर सामान वगैरह वहाँ टिकाकर वह यूनिवर्सिटी की ओर चल पड़ी। अंदर जाते ही उसने देखा कि हर तरफ़ विद्यार्थी झुंडों में घूम रहे थे। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। उसको कोई भी लड़की पंजाबी पहरावे में न दिखाई दी जबकि उसने स्वयं सलवार-कमीज़ पहन रखी थी और सिर पर चुन्नी ले रखी थी। उसको अपना आप पराया-सा न लगा। अपितु उसको अपनी भिन्नता पर गर्व अनुभव हुआ। दफ़्तर जाकर उसने दाखि़ले वगैरह का शेष बचा काम निपटाया। फिर वह नज़दीकी लड़कियों के हॉस्टल मकार्मिक हॉल चली गई। उम्मीद के उलट उसको थोड़ा-सा पेपर वर्क पूरा करने के उपरांत ही कमरा मिल गया। दफ़्तर से कमरे की चाबी लेकर वह लिफ्ट से कमरे में पहुँची। ऊँची-लम्बी इमारत की बीसवीं मंज़िल पर उसका कमरा था। कमरा खोलकर वह अंदर आ गई और पिछली खिड़की में से उसने नीचे झांका। उसका मन बागबाग हो उठा। बाहर हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी और चार्सल दरिया, हॉस्टल की इमारत के साथ ही लगकर बहता था। काफी देर खड़ी वह कुदरत के नज़ारे का आनंद लेती रही। फिर होटल जाकर अपना सामान उठा लाई।
अगले दिन से ही वह पढ़ाई में डूब गई। उसके घर वाले चाहते थे कि वह डॉक्टर बने, पर उसका विचार कुछ और ही था। पहले वह पुलिटिकल साइंस पढ़ना चाहती थी। घरवालों के अधिक ज़ोर देने पर उसने साइंस और मैथ की कक्षाएँ ले लीं। आफिया हालांकि छोटे कद और हल्के शरीर की दुर्बल-सी लड़की थी, पर उसका चेहरा-मोहरा बहुत प्रभावशाली था। उसका समूचा व्यक्तित्व दूसरे को मोह लेता था। अपने काम में मस्त रहने और पढ़ाई में बहुत ही होशियार होने के कारण शीघ्र ही अपने प्रोफेसरों की चहेती बन गई। हॉस्टल में थोड़ी जान-पहचान बढ़ने के बाद उसने मुसलमान लड़कियों को जोड़ने का काम प्रारंभ कर दिया। यहाँ दूसरे धर्मों की लड़कियाँ अधिक थीं। पर वह उनसे दूरी बनाकर रखती थी। विशेष तौर पर यहूदी लड़कियों से तो वह बिना मतलब के बातचीत भी नहीं करती थी। आहिस्ता आहिस्ता उसने वहाँ अपना एक ग्रुप बना लिया। वह मुसलमान लड़कियों के साथ धर्म पर चर्चा करने लगी। परंतु अधिकांश लड़कियों का धर्म से अधिक सरोकार नहीं था। वे तो अमेरिकन ज़िन्दगी में घुलमिल गई प्रतीत होती थीं। आफिया ने उन्हें धर्म की शिक्षा का वास्ता दे देकर अपने हिसाब से सीधे राह पर लाने का प्रयत्न शुरू कर दिया। इसमें वह काफी हद तक सफल भी रही। फिर वह अपने ग्रुप को संग लेकर साझे काम करने लगी। जैसे कि कालेज कैंपस की सफाई वगैरह। इसके अलावा, वह हर सप्ताह लगभग चालीस घंटे बिना किसी वेतन के कालेज के साझे कामों में लगाती थी। अवसर मिलते ही वह गरीब इलाकों के स्कूलों में जाकर बच्चों के लिए मुफ्त साइंस फेयर वगैरह लगाने लगी। इस प्रकार वह शीघ्र ही सभी की नज़रों में आ गई। कालेज में उसका अक्स एक अच्छी होशियार और समाजसेवी छात्रा का बन गया। परंतु निजी तौर पर वह हमेशा धर्म के साथ जुड़े कामों को पहल देती। वह जब अपने ग्रुप की लड़कियों के साथ बैठकें करती तो हमेशा इस बात पर ज़ोर देती कि गै़र-मुसलमानों से दूर रहा जाए। उनके साथ दोस्ती न की जाए। पर उनके साथ व्यवहार करते समय बहुत ही प्रेमपूर्वक मीठी बोली में बात करने का दिखावा किया जाए। उसके समाजसेवा वाले कामों के कारण उसको दो बार ईनाम मिला। वैसे तो पढ़ाई के हर क्षेत्र में ही वह बहुत अच्छी थी, पर कंप्युटर में तो उसका इतना नाम बन गया कि कभी कभी तो कई प्रोफेसर भी उसकी मदद ले लेते। अब तक मुस्लिम स्टुडेंट्स एसोसिएशन जिसको कि आम तौर पर एम.एस.ए. कहा जाता था, में वह काफी आगे बढ़ गई थी। वह एम.एस.ए. के माध्यम से मुसलमान छात्रों के हकों के बारे में सभी को जागरूक कर रही थी। कालेज अथॉरिटी के साथ मिलकर वह मुसलमान विद्यार्थियों की ज़रूरतें भी पूरी करने के लिए ज़ोर डालती रही थी। यहाँ तक कि कालेज कैंपस के छोटे रेस्टोरेंटों में उसने हलाल मीट की प्रयोग शुरू करवाने के लिए अथॉरिटी को मना लिया ताकि मुसलमान विद्यार्थी अपने धार्मिक अकीदे के अनुसार हलाल मीट की इस्तेमाल कर सकें। इसके अतिरिक्त उसने हॉस्टलों में पृथक कमरों की सुविधा मुहैया करवा ली जहाँ कि मुसलमान विद्यार्थी नमाज़ अदा कर सकें। जैसे जैसे वह एम.एस.ए. के माध्यम से मुसलमान विद्यार्थियों की ज़रूरतों के लिए सक्रिय हो रही थी, वैसे वैसे उसका नाम प्रसिद्ध होता जा रहा था। मुसलमान विद्यार्थियों में उसको बहुत इज्ज़त के साथ देखा जाता था। कट्टर धार्मिक लड़के उसको ट्रू सिस्टर कहकर बुलाने लग पड़े थे। इसी दौरान उसकी मुलाकात सुहेल लैहर से हुई। सुहेल के माता पिता इंडिया से थे, पर वो जिम्बावे में जन्मा था। पेशे के तौर पर वह इंजीनियर था। सुहेल की मार्फ़त वह एम.एस.ए. के अंदरूनी क्षेत्र में आ गई। जब उसने एम.एस.ए. के भीतरी विद्यार्थियों की सोच सुनी तो वह बड़ी प्रसन्न हुई। उसको लगा कि यही असली जगह है जहाँ रहकर वह अपने धर्म की अधिक से अधिक सेवा कर सकती है। असल में, यह ग्रुप एम.एस.ए. की अगली कतार की लीडरशिप था जो कि आम तौर पर परदे के पीछे रहता था। एम.एस.ए. की अगली बैठक में अपनी बारी आने पर वह बोलने लगी, “हमें यहाँ इस्लाम की अधिक से अधिक शिक्षा देनी चाहिए। क्योंकि यही एक ढंग है अल्लाह की रहमतों को हासिल करने का। हमें सभी विद्यार्थियों के लिए जुम्मे की नमाज़ कालेज कैंपस में पढ़ने के लिए ज़रूरी कर देनी चाहिए। अपने आसपास के लोगों का विश्वास जीतकर उनको इस्लाम धर्म में लाने के लिए यत्न करना चाहिए। इंशा अल्ला ज़रा सोचो कि वो दिन कितना किस्मतवाला होगा जब अमेरिका में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में इस्लाम का झंडा फहरेगा। इसके अलावा आज और बहुत कुछ करने वाला है...।” उसने अपनी बात रोककर श्रोताओं की ओर देखा। सभी बड़े ध्यान से उसकी बात सुन रहे थे। ज़रा रुक कर वह फिर बोलने लगी, “आज संसार में बहुत कुछ घटित हो रहा है। जगह जगह मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं। यह क्यों हो रहा है। क्योंकि हम मुसलमान अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं। हम भूल गए हैं कि हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है - जिहाद। हरेक को आज दुनिया के अलग अलग हिस्सों में चल रहे जिहाद में अपनी हैसियत के अनुसार हिस्सा लेना चाहिए। असली मुसलमान वो हैं जो फ्रंट पर लड़ाई में हिस्सा ले रहे हैं। पर फिर भी हम उतना तो कर ही सकते हैं जो उनके काम में मदद बन सके। उदाहरण के लिए हम जिहाद में शहीद हो रहे हमारे भाइयों के बच्चों और उनकी विधवाओं को संभाल सकते हैं। उसके लिए चैरिटी संस्था बनाकर फंड एकत्र करने की आवश्यकता है। हमें अधिक से अधिक चैरिटी एकत्र करनी चाहिए।”
जब तक उसने अपना भाषण समाप्त किया, तब तक वह एम.एस.ए. की अगली पंक्ति के लीडरों की नज़रों में आ चुकी थी। सभी उससे प्रभावित हुए थे। वे समझ गए कि जिस लड़की की वह एक अरसे से प्रतीक्षा कर रहे थे, वह आज उन्हें मिल गई है। मीटिंग ख़त्म होने पर वह बाहर निकली और सुहेल के साथ कार में बैठ गई। सुहेल ने कार आगे बढ़ाई तो आफिया ने बात प्रारंभ की, “सुहेल वो एक कोने में बैठी गोरी अमेरिकन लड़की कौन थी ?“
“उसका नाम मार्लेन अर्ल है।”
“मतलब वह अमेरिकन है ?“
“हाँ है तो अमेरिकन ही, पर...।“
“पर क्या ?“
“उसने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म अपना लिया है। अब वह पक्की मुसलमान है।”
“किसके प्रभाव से उसने मुस्लिम धर्म अपनाया है ?“
“इस बात को छोड़ो, पर तुम्हें बताऊँ कि उसका पति बसम कुंज बहुत बड़ा जिहादी है। उसने कई जिहादों में लड़ाई लड़ चुका है।”
“अच्छा !“
इसके बाद आफिया चुप हो गई। उसके मन में आ रहा था कि वह कितना किस्मत वाला होगा जिसने मार्लेन का धर्म परिवर्तन करवाया होगा। दूसरा उसको मार्लेन पर इस बात से भी गर्व महसूस हुआ कि उसका पति जिहादी है और फ्रंट पर बंदूक उठाकर लड़ाई में हिस्सा लेता है।
“चुप क्यों हो गईं ?“ सुहेल ने आफिया को ख़यालों में गुम देखकर उसकी चुप्पी तोड़ी।
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। मैं तो सोच रही थी...।”
“क्या सोच रही थी तुम ?“
“मैं तो यह सोच रही थी कि...।”
“अच्छा सुहेल, एक बात और बता।” आफिया ने पहली बात बीच में ही छोड़ते हुए बात बदली।
“हाँ हाँ पूछ।“
“वो जो तेरे संग बैठा था, वह कौन है ? जो पूरी मीटिंग के दौरान बिल्कुल ही नहीं बोला।”
“उसका नाम...।” सुहेल ने बात बीच में ही छोड़ते हुए गौर से आफिया की ओर देखा। पल भर रुककर वह फिर बोला, “उसका नाम रम्जी यूसफ है। वह अल कीफा का कभी न थकने वाला एक बड़ा वर्कर है।”
“अल कीफा ?“ आफिया ने अल कीफा का नाम सुना तो था, पर उसके विषय में पूरी जानकारी नहीं थी।
“तुम्हें अल कीफा के बारे में बता ही देता हूँ।” सुहेल ने एक बार फिर ध्यान से आफिया की ओर देखा और मन में सोचा कि यह लड़की हमारे कॉज़ के लिए बहुत ही वफ़ादार साबित होगी। और इसके साथ हर बात साझी कर लेनी चाहिए।
“अल कीफा अपने ही बहन-भाइयों का संगठन है। यह बातों में नहीं, बल्कि एक्शन में विश्वास रखती है। अपनी सभी मस्जिदों और जिहादी सर्किलों में इसका बहुत ज़ोर है। पर ये खुलकर सामने नहीं आता। इसका नेता गुलबदन हेकमत्यार है।“
“जो अफ़गानिस्तान का वार लोर्ड है ?“ आफिया बीच में ही बोल उठी।
“हाँ वही। शुरुआत उसने की थी। पर अब यह सब तरफ फैल चुकी है। मुस्लिम समाज इसको बहुत ज्यादा मान देता है और इसको आर्थिक मदद भी बहुत मिलती है। परंतु कई बार यही आर्थिक सामर्थ्य झगड़े का कारण भी बन जाता है। तुमने पिछले दिनों मुस्तफा शलेबी के क़त्ल के बारे में सुना ही होगा ?“
“हाँ, पता है मुझे। वही जिसका कोई भेद ही नहीं खुल सका।”
“वह क़त्ल अल कीफा के पास पड़े मिलियन डॉलर का फंड लेकर ही हुआ था। अल कीफा के ही एक मैंबर को शक हो गया कि शलेबी पैसे की हेराफेरी करता है। पर मैं ऐसा नहीं मानता। शलेबी को मारकर किसी ने सही नहीं किया। उस जैसा धार्मिक और अकीदे वाला कोई हो ही नहीं सकता।”
“वह कैसे ?“ आफिया को जिज्ञासा हुई।
“उसने अल कीफा के लिए या समझ लो कि समूचे जिहाद के लिए बहुत काम किया है। वही शेख उम्र अब्दुल रहमान को अमेरिका लाने में कामयाब हुआ था।”
“शेख उम्र वही है न जो कि मिस्र से है ? जो बचपन से अंधा है ?“
“हाँ वही। वह बहुत बड़ा धार्मिक फिलासफ़र है। अमेरिका को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है। पर वह मिस्र के कट्टर जिहादियों में से एक है। सारे मुस्लिम समाज में उसका रुतबा बहुत ऊँचा है। कोई भी उसकी बात का विरोध नहीं कर सकता। काश ! तू कभी उसको सुने तो...।”
“मुझे उसके फ़ल्सफ़े का पता है।” आफिया को याद आया कि पिछले दिनों ही उसको किसी ने शेख उम्र की वीडियो दिखाई थी। वीडियो में सुने शेख के शब्द उसके मन में घूमने लगे, “हर मुसलमान का एक ही धर्म है कि गै़र मुसलमानों को ख़त्म कर दो। दुनिया पर कोई भी ऐसा न रहे जो मुसलमान न हो। लोगों को समझा-बुझाकर मुसलमान बनाने से बेहतर यह है कि उनका खातमा करो। जितनी जल्दी गै़र मुसलमानों का सफाया होगा, उतनी जल्दी ही हम दुनिया पर इस्लाम का झंडा फहरा सकेंगे। इसके अलावा हर मुसलमान का यह भी धार्मिक फर्ज़ है कि वो कई शादियाँ करके अधिक से अधिक बच्चे पैदा करे ताकि हमारी गिनती काफ़िरों से अधिक हो जाए।”
“तू मेरी बात सुन रही है न ?“
“हाँ-हाँ, मेरा ध्यान तेरी बात की ओर ही है।” आफिया ने ख़यालों में से निकलते हुए सुहेल की बात का हुंकारा भरा।
“हमे शेख उम्र जैसे धार्मिक रहनुमा की ज़रूरत है।”
“पर...।” आफिया ने उसकी बात काटी।
“हाँ, बता ?“
“पर, यह रम्जी यूसफ फिर आज एम.एस.ए. की मीटिंग में क्या कर रहा था ?“
“असल में सभी बातों का तुम्हें आहिस्ता आहिस्ता पता चल जाएगा। कई मैंबर दोनों तरफ काम करते हैं। जैसे कि मार्लेन का पति बस्म कुंज है। वह दोनों तरफ का मैंबर है।“
“आजकल वह कहाँ है ? क्योंकि वह आज मार्लेन के साथ तो कहीं दिखा नहीं ?“ बात फिर दूसरी तरफ चली गई।
“उसकी भी लम्बी कहानी है। वह लिबनान का जन्मा पला है। वह वहीं से किसी धार्मिक संगठन से वजीफा लेकर यहाँ पढ़ने आया था। बॉस्टन यूनिवर्सिटी से उसने ग्रेज्युएशन की। यहीं वह जिहादी लीडरों के सम्पर्क में आया। फिर वह अल कीफा का सरगरम मैंबर बन गया। उन्हीं दिनों उसने मार्लेन से शादी की और उनके एक बच्ची हो गई। फिर वे दोनों पाकिस्तान चले गए। वहीं से बस्म तो जिहाद में लड़ने की खातिर बार्डर पार करके अफ़गानिस्तान चला गया और मार्लेन अपनी बच्ची के साथ पेशावर के उस इलाके में रही जहाँ कि सभी जिहादियों के परिवार रहते हैं। वहीं बस्म लड़ाई के दौरान सख़्त ज़ख्मी हो गया और उसको सर्जरी के लिए यहाँ अमेरिका वापस आना पड़ा। मार्लेन और बस्म यहाँ आकर कुछ देर रहे। जब बस्म पूरी तरह ठीक हो गया तो वह फिर जिहाद की लड़ाई में हिस्सा लेने लिबनान पहुँच गया। वहाँ से वह आगे बास्निया चला गया। आजकल वह बास्निया में ही लड़ रहा है।“
तभी आफिया का हॉस्टल आ गया था। बातों का सिलसिला बंद हो गया। सुहेल आफिया को हॉस्टल पर उतार कर वापस चला गया। आफिया अपने कमरे की ओर जाती हुई मार्लेन और बस्म कुंज के बारे में सोचे जा रही थी। उसको वह एक सच्चा मुसलमान जोड़ा लगा जो कि पूर्णरूप में जिहाद को समर्पित था। उसको मार्लेन अच्छी लगने लगी। देर रात तक भी वह उनके बारे में सोचती रही। अगले कुछ दिनों में ही उसने मार्लेन के साथ अच्छी दोस्ती गांठ ली।
आफिया की पढ़ाई के विषय में किसी कोई शंका नहीं थी। सब जानते थे कि वह इतनी होशियार है कि वह कोई भी विषय चुन ले, पर हमेशा पहले नंबर पर आएगी। इन्हीं दिनों में उसने एक पर्चा लिखा जिसका नाम था - ‘इस्लामीजेशन इन पाकिस्तान एंड इट्स इफेक्ट्स ऑन वुमन।’ इस पर्चे के कारण उसको एम.आई.टी. ने कैरल विल्सन अवार्ड से सम्मानित किया जिसमें पाँच हज़ार डॉलर का नकद ईनाम शामिल था। इस ईनाम से खुश हुई आफिया 1992 का ग्रीष्म अवकाश बिताने के लिए पाकिस्तान चली गई। उन्हीं दिनों पाकिस्तान में हदूद लॉ के बारे में शोर मचा हुआ था। ह्युमन राइट्स जैसे संगठनों का कहना था कि यह लॉ न सिर्फ़ औरत की आज़ादी को कुचल रहा है अपितु इसने तो औरत जाति को भी कुचल कर रख दिया है। इस कानून को घड़ने में मुफ़्ती मुहम्मद तकी उस्मानी ने बड़ी मेहनत की थी। मुफ्ती उस्मानी आफिया के परिवार का धार्मिक रहनुमा था। इस कारण आफिया को उन्हीं दिनों चल रहे शोर-शराबे में दिलचस्पी हो गई। उसने मुफ्ती साहिब का पक्ष लेने का निर्णय ले लिया। वह यह पक्ष इस कारण नहीं ले रही थी कि इसको घड़ने वाला मुफ्ती उस्मानी था बल्कि इस कारण कि उसकी अपनी सोच थी कि इस्लाम ने जो भी पाबंदियाँ स्त्रियों पर लगाई हैं, वे मुसलमान स्त्री के लिए सही हैं। इनको मानते हुए ही वह अपने धर्म का सही पालन कर सकेगी। इस अरसे के दौरान वह जिस किसी भी बड़े लीडर को मिली, हर कोई उसके विचारों से प्रभावित हुआ। क्योंकि एक औरत होकर वह औरतों की ओर से चलाए जा रहे संघर्ष के उलट थी। उसके शुभचिंतकों में पहले पाकिस्तानी डिक्टेटर जिया उल हक का पुत्र इयाज़ उल हक भी था। उस वक़्त पाकिस्तान की राजनीति में भी फेरबदल हो चुका था। बेनज़ीर भुट्टो की जगह नवाज शरीफ की पार्टी सत्ता में आ चुकी थी और वह मुल्क का प्रधान मंत्री था। सरकार के बदल जाने से और चाहे सब कुछ बदल गया हो, पर एक बात नहीं बदली थी। वह थी पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई. का एजेंडा। इसके तत्कालीन प्रमुख जावेद नासिर का विचार था कि पाकिस्तान को दुनिया के किसी भी हिस्से में चल रहे जिहाद की अधिक से अधिक मदद करनी चाहिए। इसी एजेंडे के अधीन वह बास्निया में चल रहे गृह युद्ध में जिहादियों की मदद कर रहा था। इसके अलावा यह एजेंसी फिलिपीन्ज़, रशिया के कई हिस्सों में चल रहे जिहाद और चीने के सिनज्यांग प्रांत में चल रहे संघर्ष में भी ऊपरोक्त नीति अपना रही थी। हर जिहाद में अरब अफ़गानों के जत्थे लड़ रहे थे। ये वही लोग थे जो अफ़गानिस्तान की जंग के समय अमेरिका की ओर से रशिया के विरुद्ध लड़े थे। जब वहाँ लड़ाई ख़त्म हो गई तो इन्हीं जत्थों के लीडर अपने लड़ाकों को दुनिया के अन्य क्षेत्रों की ओर ले गए। इन्हीं लीडरों में से सबसे अधिक उभरकर बाहर आ रहा लीडर उसामा बिन लादिन था। इसके अतिरिक्त बलोचिस्तान का एक बड़ा और बहुत ही अमीर परिवार जिहाद में मुख्य भूमिका निभा रहा था। उसको अल बलोची के नाम से जाना जाता था। यह सारा परिवार काफी पहले पाकिस्तान से कुवैत चला गया था। परंत 1990 के इर्द गिर्द यह पुनः पाकिस्तान में लौट आया और आजकल जिहाद में बढ़-चढ़कर भाग ले रहा था। इस परिवार के प्रमुख का नाम खालिद शेख मुहम्मद था जिसका सभी उसके निक नाम अर्थात के.एस.एम. के रूप में जानते थे। रम्जी यूसफ इसी के.एस.एम. का भतीजा था।
खै़र, अपनी छुट्टियाँ बिताकर आफिया वापस अमेरिका आ गई। जब वह लोगन इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर उतर कर कस्टम वगैरह की क्लीयरेंस के लिए लाइन में लगी हुई थी तो उसने देखा कि साथ वाली लाइन में खड़ा कोई व्यक्ति उसकी ओर बड़े गौर से देख रहा था। उसने दिमाग पर ज़ोर डालकर याद करने की कोशिश की कि इस आदमी को उसने पहले कहाँ देखा था, पर उसको कुछ याद न आया। वह गर्दन झुकाकर सोचने लगी। फिर उसके दिमाग में अचानक कुछ कौंधा और उसने तुरंत ही साथ वाली लाइन की ओर देखा। तब तक वह व्यक्ति आगे निकल गया था। आफिया मन ही मन बोली, ‘ओह, यह तो रम्जी यूसफ है जिसको उस दिन एम.एस.ए. की मीटिंग में देखा था।’
(जारी…)
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