जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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xyz
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Re: जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

Post by xyz »

मैंने गिना, ये कुल चौबीस थीं, लेकिन कोई भी नाग-पुरुष नहीं था, सच में बहुत क्रूरता ढाई थी बाबा सोनिला ने उन पर! अपने तंत्र-मंत्र का अनुचित और अन्यायिक उपयोग किया था बाबा ने!
मित्रगण, वैसे तो नाग-कन्या अथवा नाग-पुरुष मानव के पास आने से कतराते हैं, लेकिन यदि निकटता हो जाए तो सदैव वफादार रहते हैं, शीघ्र ही विश्वास करने लगते हैं, मनुष्य ही अकेली ऐसी योनि है जो मिथ्याभाषी है, द्विअर्थी है, इसके क्रिया-कलाप सबसे पृथक हैं, कोई विरला ही साध पाता है शक्तियों को, ऐसे सम्बन्धों को! इसी निकटता का अनुचित लाभ उठाया था बाबा सोनिला ने!
मध्य भारत, पूर्वी भारत, म्यांमार देश, श्री लंका, दक्षिण भारत आदि में ऐसे कई स्थान हैं जहां कभी कभार सामना हो जाता है मनुष्य का इन नाग-कन्यायों अथवा नाग-पुरुषों का!
खैर,
बाबा लोप हो गया था! मैंने प्रत्यक्ष-शूल भिड़ाया!
बाबा झम्म से हाज़िर हुआ!
"अब जा यहाँ से, मेरा पूजन समय हो चुका है" वो बोला,
"इस वर्ष पैंसठिया है इन नाग-वंशियों का बाबा! दया करो" मैंने कहा,
"बस! एक पैंसठिया और! और उसके बाद मेरी अभिलाषा पूर्ण!" उसने छाती ठोंक कर कहा!
"अगला पैंसठिया नहीं आएगा बाबा!" मैंने कहा,
"क्यों? तू अपने आपको इतना शक्तिशाली समझता है? खड़े खड़े दाह कर दूंगा तुझे!" वो अर्रा के पड़ा!
"ये भी करके देख लो बाबा!" मैंने कहा,
बाबा क्रोधित!
अत्यंत क्रोधित!
बस चले तो चाकी के दो पाटों के बीच का सा पीस के रख दे मुझे!
उसने ऐसा ही करने की सोची!
तामशूल-मंत्र का संधान कर मुझे खड़े खड़े फूंकने के लिए सर्प-दंड अभिमंत्रित किया, और मुझ पर फेंक मारा!
चिंगारियां फूटी मेरे शरीर से टकरायीं! मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा! ऐवांग-मंत्र ने मेरी रक्षा की थी!
ये देख बाबा ने पाँव पटके!
मुंह से अपशब्द निकाले!
ठेठ तांत्रिक भाषा में!
"और जतन कर लो बाबा! आज खेल ख़तम तुम्हारा!" मैंने हँसते हुए कहा,
बाबा को जैसे काठ मारा मेरा व्यंग्य बाण लगकर!
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो बिफरा अब!
"वो तो आप देख ही चुके हो!" मैंने फिर से व्यंग्य बाण प्रहार किया!
अब तो बाबा ने आकाश-पाताल एक कर दिया!
सर्प-दंड उठाया और मुझे पर प्रहार! एक! दो! तीन! चार! मेरा प्रतिवार! लगातार!
"दुमुक्ष?" मैंने आवाज़ लगायी!
"दुमुक्ष! स्वतंत्र होने के लिए तत्पर हो जाओ!" मैंने कहा,
बाबा के होश उड़े अब!
अब मैं आसान पर बैठा! एक महागण की तेइसवीं गणिका का आह्वान किया! इसका नाम है वपुधारिणी! जैसा नाम वैसा काम! ये पञ्च-तत्वधारी के लिए कार्य करती है! अभीष्ट फल प्रदान करती है!
अब पहली बार!
पहली बार बाबा को भय सताया!
दुमुक्ष वाला झोला पेट से खोलकर गले में धारण कर लिया!
और मैंने अब आरम्भ किया आह्वान!
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Post by xyz »

"थम जा!" वो चिल्लाया,
मैं नहीं रुका!
आह्वान ज़ारी रखा!
"रुक जा! मैं कहता हूँ रुक जा!" वो बोला,
आवाज़ में लरज़ थी उसकी, एक अनुनय, मैं रुक गया!
"बोलो बाबा?" मैंने कहा,
"बदल कर ले" उसने कहा,
समझौता!
अदला-बदली कर समझौता!
"कैसी बदल बाबा?" मैंने पूछा,
"चार मन सोना है मेरे पास, सब ले जा!" वो मुस्कुरा के बोला,
हूँ! क्या बदल थी! सोना किस काम का!
"नहीं बाबा! सोनवा अपने पास ही रखो" मैंने कहा,
'कैसा मानुष है रे तू?" उसने पूछा,
"आपने देख तो लिया?'' मैंने कहा,
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने कहा,
"इनको स्वतंत्र कर दो!" मैंने कहा,
"असम्भव!" वो चिल्लाया,
"तब मैं विवश हूँ बाबा" मैंने कहा और मुंह फेर लिया!
अब बाबा बेचैन जैसे चाल तोड़ती फिरकी!
मैंने फिर से अस्थियां उठायीं!
"अच्छा! रुक जा!" उसने कहा,
"रुक गया" मैंने कहा,
"सुन! बालक! मैंने अपना जीवन लगा दिया! तू मेरी सिद्धियाँ ले ले! मैं सिद्ध-भाण्ड तुझे दे देता हूँ"
क्या लालच है!
हर लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आये!
मैंने सोचने का नाटक किया!
"नहीं बाबा!" मैंने कहा,
अब बाबा की साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे!
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने पूछा,,
"कुछ नहीं, इनकी मुक्ति!" मैंने कहा,
मैं भी जान को आ गया था बाबा की!
बाबा ने जैसे अब अपने घुटने टेके!
उसने अपना झोला कंधे से निकाला और उसका मुंह खोल दिया, खोलते ही एक बड़ा सा भुजंग फन फैलाये आ गया बाहर!
ज़बरदस्त सांप!
लम्बा!
क्या फन उसका!
सुनहरा और चमकदार! अलख की रौशनी में स्वर्णहार सा प्रतीत हो!
"दुमुक्ष?" मैंने कहा,
उसने मेरी ओर फन किया!
फिर बाबा को देखा!
"आओ दुमुक्ष" मैंने कहा,
और!
दुमुक्ष भाग छूटा जैसे क़ैद से!
मेरा दिल धक् कर बैठा!
मेरे समक्ष आया और एक ज़बरदस्त फुफकार!
वो फुफकारा और वहाँ अन्य सर्प भी प्रकट हुए!
उसने फिर से फुफकार मारी! और अपने बाएं चल पड़ा, जहां वो पत्थर थे!
मैं समझ गया!
समझ गया!
प्रेयसी!
प्रेयसी प्रेम!
उर्रुन्गी!!
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दुमुक्ष ने फुफकार मारी, सारे पत्थर हटने लगे! मैं और सोनिला बाबा देखते रहे वो दृश्य! उर्रुन्गी भूमि से बाहर निकली! नागिन रूप में! उसने दुमुक्ष को देखा! दुमुक्ष ने उसको देखा! और फिर मिलन! कितना विस्मयकारी मिलन था! कितना सुकून मुझे! मैं तो धन्य हो गया! वे फन से फन लड़ाते भूमि में चले गए! रेह गए अब हम दोनों! बाबा सोनिला और मैं!
अब मैं दौड़ा वहाँ से! सीधा बाबा सोनिला के क़दमों में जा गिरा! बाबा ने मुक्त किया था उनको, ये बाबा की महानता थी! एक प्रबल तांत्रिक की दया थी जिसके आगे मैं उसके क़दमों पर गिरा था! मेरी आँखों से आंसू झर झर बह निकले!
तभी मेरे सर पर हाथ रखा बाबा ने!
"उठो" वे बोले,
मैं हतप्रभ सा उठ गया!
"तुमने वही किया जो एक सच्चा साधक करता है!" वे बोले,
मैंने आंसू पोंछे अपने!
"मैं दम्भ में भर चला था, कृत्य-दुष्कृत्य में भेद नहीं कर सका" वे बोले,
"आपका धन्यवाद उनको मुक्त करने के लिए!" मैंने बस यही कहा,
"अब मेरे लौट जाने का समय है, मैं अब जहां से चला था वहीँ जा रहा हूँ" वे बोले,
बड़ी गहरी बात कही थी उन्होंने, वो काल के इस खंड को भूल जाना चाहते थे! एक दुःस्वप्न की तरह!
"और तुम! तुम डटे रहना! बहुत आयेंगे ऐसे, मुझसे बाबा! अपना प्रायश्चित करने, जो मेरी तरह पैंसठिया में बंधे हैं, बिना भविष्य जाने!" वे बोले,
फिर उन्होंने अपनी कुछ वस्तुएं मुझे सौंप दीं, वो मेरे पास आज भी हैं!
"मैं चलूँगा, मेरी यात्रा समाप्त हुई आज" वे बोले,
"बाबा ठहरिये, यहाँ वास कीजिये" मैंने कहा,
"नहीं! अब नहीं, अब थक चुका हूँ मैं, मुझे अपने गुरु के क़र्ज़ से मुक्त होना है" वे बोले,
"बाबा यहाँ एक मंदिर बनेगा! आपके लिए!" मैंने कहा,
"मेरे लिए नहीं, उनके लिए, जिनसे ये सारी कहानी आरम्भ हुई थी! मेरा आशीर्वाद उन्हें, वे अपने लोक लौट जायेंगे सकुशल!" वे बोले,
और मेरे देखते ही देखते धुंए के सामान गायब होते चले गए बाबा!
बस नाम रह गया!
बाबा सोनिला सपेरा!
नमस्कार उन्हें!
वे लोप हुए तो नाग-पुरुष दुमुक्ष और उर्रुन्गी मेरे समक्ष प्रकट हुए! उनकी प्रसन्नता से बड़ा कोई खजाना नहीं लगा मुझे! धनपति कुबेर का खजाना भी फीका ही लगा!
"आपके ऋणी रहेंगे हम सर्वदा!" दुमुक्ष ने कहा!
मैं शांत रहा!
उर्रुन्गी ने नमस्कार के मुद्रा में हाथ जोड़े!
"विलम्ब न कीजिये, अपने लोक को वापिस हो जाइये इसी क्षण!" मैंने मुस्कुरा के कहा,
"हम प्रत्येक नाग-पंचमी पर भ्रमणशील रहते हैं कई साधकों के पास! हम आपके पास भी आयेंगे!" वे दोनों बोले,
"मेरे पास नहीं हे दुमुक्ष! यहाँ एक नाग-मंदिर बनेगा, आप उस पर आशीष रखें!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वे बोले
तदोपरांत मैंने नाग-पद्धति द्वारा उनका मार्ग प्रशस्त किया और वो युगल और अन्य मुक्त नाग-कन्याएं प्रस्थान करते चले गए, एक एक करके!
मुझे तो जैसे खजाना मिल गया था!
शेष मैं लिख नहीं सकता!
वे भावनाएं मेरे ह्रदय में ही क़ैद हैं!
मित्रगण!
भविष्य में वहाँ एक मंदिर बना दिया गया, मैंने ही मार्गदर्शन किया! आज वहाँ एक पुजारी भी हैं, मंदिर में श्रध्दालु आते रहते हैं! मंदिर ख्याति को प्राप्त होने लगा है! ये सब उसी नाग-युगल के आशीष के कारण है!
अब बात रेख की!
रेख मायने दायरा! सीमांकन करना, जहां तक आपका बस चलता है, जहां तक आप आप हैं किसी और के नियंत्रण में नहीं, वही रेख होती है! यही है देख-रेख!
साधुवाद!
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