जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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Re: जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

Post by xyz »

"किसने क़ैद किया इनको बाबा?" मैंने जानते हुए भी पूछा,
"मैंने!" उसने गाल ठोकते हुए कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"नाग-सिद्धि" उसने कहा,
नाग-सिद्धि!!
महा-सिद्धि!
कामेश्वरी यक्षणी स्वयं सिद्ध!
बहुत ऊंची उड़ान!
साक्षात महा-औघड़ को नियंत्रित करने की सिद्धि!
ये क्या किया आपने बाबा!
"आपको नहीं मिली नाग-सिद्धि?" मैंने पूछा,
"ले कर रहूँगा! इनसे लेकर रहूँगा" वे बोले,
"तो आपने इनको क़ैद किया ताकि कामेश्वरी यक्षिणी इनको बचाये और आप बदल में नाग-सिद्धि प्राप्त हो!" मैंने कहा,
उसके होश उड़े!
"कौन है तू?" मुझे पूछा गया,
मैंने अपना परिचय दे दिया!
"हूँ! समझ गया!" वो बोला,
"आप इनको क्यों नहीं मुक्त कर देते?" मैंने पूछा,
"कदापि नहीं" वो बोला,
"देह तो रही नहीं आपकी, फिर?" मैंने कहा,
उसने अटटहास किया जैसे किसी बालक ने अटपटा सा प्रश्न किया हो!
"वो मैं जब चाहे ले सकता हूँ, रूढ़ता को प्राप्त किया है मैंने बालक!" वो बोला,
रूढ़ता को प्राप्त किया! ओह! महान! महान तांत्रिक! काश मुझे इनका शिष्यत्व प्राप्त हो!
"बाबा! आपके पास क्या नहीं है, आप इनको मुक्त कीजिये और स्वयं भी मुक्त होइए अथवा परिचक्र में सम्मिलित हो जाइये!" मैंने सुझाया,
"मुंह बंद रख अपना, मैंने प्राण लगाए हैं दांव पे!" वे गुस्से से बोले,
"बाबा! मुक्त कर दो इनको, मैं हाथ जोड़ता हौं आपका दास बन जाऊँगा हमेशा के लिए" मैंने कहा,
"नहीं! जब तक कामेश्वरी नहीं आएगी ये सन्तापग्रस्त ही रहेंगे! चाहे युग बीत जाएँ!" अडिग होकर कहा उन्होंने!
"ये अन्याय है" मैंने कहा,
"नहीं" वो चिल्लाया,
"है" मैंने भी गरज कर कहा,
"चला जा यहाँ से!" अब गुस्से से बोले,
"और न जाऊं तो?" मैंने कहा,
"टुकड़े कर दूंगा तेरे!" गुस्से से बोला!
"बाबा तुम अडिग तो मैं भी अडिग! लगा दी मैंने भी प्राण की बाजी!" मैंने कहा,
"अरे बालक! हा! हा! हा! हा!" अट्ठहास!
"छोड़ दो बाबा!" मैंने हाथ जोड़कर कहा,
"जा! तुझे छोड़ दिया! बाबा ने छोड़ दिया!" वो बोला,
"मुझे नहीं बाबा! इनको छोड़ दो!" मैंने कहा,
"असम्भव" वो बोला,
"ये सम्भव है" मैंने कहा,
"कैसे?" पूछा बाबा ने!
"मैं छीन लूँगा इनको आपसे!" मैंने कह दिया!
"तेरी इतनी हिम्मत?" आगबबूला होकर उन्होंने कहा और दुमुक्ष को फिर से बाँध लिया!
अब बाबा ने सर्प-दंड उठाया और किसी का आह्वान किया!
और तभी!
तभी!
धामड़ी प्रकट हो गयी!
ये अत्यंत शक्तिशाली डाकिनी है! मानव का यकृत खा जाती है! अब मैं भी तैयार हुआ, अपने त्रिशूल को उखाड़ा और भद्रलोचिनी-शक्ति का जाप कर डाला, त्रिशूल में जैसे विद्युतीय आवेश दौड़ गया!
जैसे ही डाकिनी क्रंदन कर मेरे समक्ष आयी मैंने त्रिशूल से वार किया! झन्न! झन्न से लोप हुई वो त्रिशूल को छूकर!
बाबा क्रोधित!
"आशीर्वाद दें बाबा!" मैंने व्यंग्य बाण छोड़ा!
बाबा ने एकटक मुझे देखा!
और मैंने बाबा को!
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Post by xyz »

"तू बच गया! बचा गया! अब जा यहाँ से" बाबा ने चिल्ला के कहा,
"मैं नहीं जाने वाला कहीं बाबा" मैंने भी कह दिया,
"हठ अच्छा नहीं" वो बोला,
"आप भी तो हठी हो?" मैंने कहा,
"मेरी क्षमता जानता नहीं तू?" वो बोला,
"जानता हूँ, तभी तो आपने इनको क़ैद कर लिया?" मैंने कहा,
"जिव्हा काट दूंगा तेरी!" वो चिल्लाया!
अब बाबा ने सर्प-दंड नीचे भूमि पर मारा! मैं थोडा सा डगमगाया! और फिर एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर सर्प-दंड कर दिया, जैसे ही उन्होंने वो मेरी तरफ किया मैंने अपने स्थान से पीछे फिक गया! भूमि ने जकड़ लिया मुझको! अंदर खींचे मुझे! कमाल था, मैंने फ़ौरन जंभाल-मंत्र का जाप किया और मैं छूट गया!
हा! हा! हा! हा! हा!
बाबा का अट्ठहास!
मैं फिर से आसान पर बैठ गया!
"बच गया?" बाबा ने उपहास उड़ाया मेरा!
"हाँ!" मैंने भी दबंगता से उत्तर दिया!
"कब तक?" उसने पूछा,
"जब तक जीवित हूँ!" मैंने कहा,
"नहीं! जब तक मैं चाहूं! हा! हा! हा!" फिर से अट्ठहास किया बाबा ने!
"बाबा! ममी प्रार्थना करता हूँ, इनको मुक्त कर दीजिये" मैंने शान्ति से कहा,
"कभी नहीं" बाबा गर्राया!
"ठीक है बाबा!" मैंने कहा,
और अब मैंने गुड़ की भेलियां सामने रखीं! और उन भेलियों पर बकरों का भेजा सजाया!
बाबा लोप!
मैंने फिर से प्रत्य्क्ष-शूल भिड़ाया!
बाबा फिर हाज़िर!
"चला जा यहाँ से, चला जा!" बाबा ने कहा,
मैं चुप रहा!
एक भेजा उठाया मैंने!
उस पर मंत्र पढ़ा!
और भक्क से पूरा अपने मुंह में भर लिया!
और मंत्र पढ़ते हुए मैंने निगल लिया!
दुहित्रात-मंत्र जागृत हो गया!
मेरी रीढ़ की हड्डी दहक उठी!
अब!
मैं, मैं ना रहा!
मैं एक अत्यंत क्रोधित औघड़ में परिवर्तित हो गया!
आवाज़ भारी हो गयी!
अब कोई विनय-अनुनय नहीं!
सीधी टक्कर!
बाबा का अट्ठहास बंद!
वो हवा में उठ गया! और मैं खड़ा हो गया!
उसने मंत्रोच्चार किया!
और वहाँ,
वहाँ एक नाग-कन्या उत्पन्न हुई, और पल में ही महा-पिशाचिनी के रूप में परिवर्तित हो गयी! मैंने त्रिशूल को चाटा और सामने से आती हुई नाग-कन्या के उदर में घुसेड़ दिया! एक नाद करते हुए!
तत्क्षण एक सर्प मूर्छित हो नीचे गिरा!
अब मैं हंसा!
अट्ठहास लगाया!
"सोनिला, जो कहा मान ले!" मैंने कहा,
वो हंसा!
और फिर और ऊंचा हुआ!
उसने फिर से मंत्र पढ़ा और द्रुतिका नामक वृषभ-वाहिनी प्रकट हुई! चली मुझे टुकड़े करने! मैंने त्रिशूल को सम्मुख किया और उससे टकरा दिया!
टकराते ही वो बाबा को पार करते ही लोप हो गयी!
बौखला गया बाबा!
"असहायों पर क्रूरता की है आज तक! सच्चा औघड़ नहीं टकराया तुझे! इन निरीह नाग-वंशियों को सताया तूने! तुझे दंड मिलेगा!" मैंने कहा,
कुछ नहीं बोला बाबा!
कुछ पल!
शान्ति के!
और फिर अट्ठहास!
चहुंदिश अट्ठहास!
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Post by xyz »

सोनिला का अट्ठहास बड़ा ही कड़क था! कोई और होता तो इस पचड़े में न पड़ता और भाग खड़ा होता अब तक! सोनिला जहां नाग-विद्या में अत्यंत माहिर था वहीँ एक प्रबल तांत्रिक भी था! स्पष्ट था, वो कामेश्वरी से कुछ सिद्धियाँ प्राप्त करना चाहता था जो उसको जीते जी प्राप्त न हुईं, अब प्रेतात्मा रूप में ऐसा करना चाहता था, सिद्धियाँ प्राप्त कर, रूढ़ता के आसान पर विराजमान हो कर न केवल शक्तिमान अपितु दैविक रूप भी प्राप्त करना चाहता था!
"अरे बालक, अब तक मैंने खेल खिलाया तुझे!" सोनिला गरजा!
अब तक मैंने गुड़ की एक भेली मंत्र पढ़ते हुए, वहीँ गाड़ दी थी!
"सोनिला! इनको मुक्त कर दे!" मैंने कहा,
"कभी नहीं" उनसे दांत भींच कर कहा,
वो ऐसे नहीं बाज आने वाला था! अतः अब मैंने खेल गम्भीरता से खेलना आरम्भ किया, मुझे एक नाग-कन्या क्रिताक्षिका का आशीर्वाद प्राप्त था, उसने मुझे रक्ताभ्रक भी प्रदान किया था और कभी भी मदद का वचन भी दिया था! मैंने क्रिताक्षिका का आह्वान किया, वो स्थान रौशन हुआ लाल प्रकाश से! और वहाँ सजी-धजी क्रिताक्षिका प्रकट हो गयी! ये देख बाबा जैसे गिरते गिरते बचा!
मैंने क्रिताक्षिका को नमन किया और मौन रूप से मैंने अपना उद्देश्य सम्प्रेषित किया! क्रिताक्षिका मुस्कुराई और मुझे एक माला देते हुए लोप हुई! मैंने वो माला धारण कर ली!
बाबा अब गहन मंत्रोच्चार में डूब गया!
और इधर मैं भी!
बाबा ने कर्णिका नाम की एक शक्तिशाली गणिका प्रकट की, मेरे पास गणिका की शक्ति काटने के लिए उस समय न तो चिता थी और न ही कोई घाड़! अत्यंत चतुर बाबा ने युक्ति से काम ले लिया था! मैंने फिर भी रक्षण हेतु वज्रघन्टा-गणिका का एक मंत्र पढ़ स्वयं को सुपोषित कर लिया! शरीर में आवेश सा दौड़ गया!
वहाँ गणिका मेरे समक्ष रौद्र रूप में प्रकट हुई! परन्तु क्रिताक्षिका की दिव्य-माला की दमक के समक्ष ठहर नहीं सकी और लोप हो गयी!
ये देख बाबा अब चौरासी खाने चित!
उसकी चौपड़ बिखर सी गयी!
"सुन ओ बालक!" उसने अब शान्ति से कहा,
बात समझौते की तरफ बढ़ने लगी थी, शायद!
"कहो बाबा?" मैंने कहा,
"तुझे क्या मिलेगा?" उसने अब तर्क से पूछा,
"संतोष" मैंने कहा,
"मैंने अपना जीवन लगा दिया, इसी को उद्देश्य बनाया है, क्या किसी का उद्देश्य इस प्रकार चोटिल किया जाता है?" उसने पूछा,
"जीवन लगाया, माना, आप सिद्धता को प्राप्त हुए, परन्तु आपका उद्देश्य हितकारी नहीं था और न आज है" मैंने भी कह दिया,
"मैंने सिद्धता को प्राप्त किया, असंख्य बलि-कर्म किये, मैं ये अंतिम दो बलियाँ देना चाहता हूँ, मुझे मेरे मार्ग से न रोक" उसने कहा, हालांकि आराम से!
ये बात मैं आरम्भ से जानता था! कि वो इस नाग-युगल की बलि का इच्छुक रहा होगा, तभी तो कामेश्वरी आती वहाँ और बाबा को बदले में सिद्धियाँ प्रदान करती!
"ये सम्भव नहीं, कम से कम मेरे रहते!" मैंने कहा,
मैंने इतना कहा और बाबा लोप!
कुछ प्रपंच लड़ने वाला था वहाँ, मैं तत्पर था!
तभी मेरे ईद-गिर्द कुछ कन्याएं मुझे खड़ी दिखायीं दीं, ये नाग-कन्याएं ही थीं, वे सभी नाग-कन्याएं जिनको बाबा सोनिला ने क़ैद किया हुआ था!
सभी भयभीत!
निर्बल और निस्तेज!
मुझे दया आयी!
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मैंने गिना, ये कुल चौबीस थीं, लेकिन कोई भी नाग-पुरुष नहीं था, सच में बहुत क्रूरता ढाई थी बाबा सोनिला ने उन पर! अपने तंत्र-मंत्र का अनुचित और अन्यायिक उपयोग किया था बाबा ने!
मित्रगण, वैसे तो नाग-कन्या अथवा नाग-पुरुष मानव के पास आने से कतराते हैं, लेकिन यदि निकटता हो जाए तो सदैव वफादार रहते हैं, शीघ्र ही विश्वास करने लगते हैं, मनुष्य ही अकेली ऐसी योनि है जो मिथ्याभाषी है, द्विअर्थी है, इसके क्रिया-कलाप सबसे पृथक हैं, कोई विरला ही साध पाता है शक्तियों को, ऐसे सम्बन्धों को! इसी निकटता का अनुचित लाभ उठाया था बाबा सोनिला ने!
मध्य भारत, पूर्वी भारत, म्यांमार देश, श्री लंका, दक्षिण भारत आदि में ऐसे कई स्थान हैं जहां कभी कभार सामना हो जाता है मनुष्य का इन नाग-कन्यायों अथवा नाग-पुरुषों का!
खैर,
बाबा लोप हो गया था! मैंने प्रत्यक्ष-शूल भिड़ाया!
बाबा झम्म से हाज़िर हुआ!
"अब जा यहाँ से, मेरा पूजन समय हो चुका है" वो बोला,
"इस वर्ष पैंसठिया है इन नाग-वंशियों का बाबा! दया करो" मैंने कहा,
"बस! एक पैंसठिया और! और उसके बाद मेरी अभिलाषा पूर्ण!" उसने छाती ठोंक कर कहा!
"अगला पैंसठिया नहीं आएगा बाबा!" मैंने कहा,
"क्यों? तू अपने आपको इतना शक्तिशाली समझता है? खड़े खड़े दाह कर दूंगा तुझे!" वो अर्रा के पड़ा!
"ये भी करके देख लो बाबा!" मैंने कहा,
बाबा क्रोधित!
अत्यंत क्रोधित!
बस चले तो चाकी के दो पाटों के बीच का सा पीस के रख दे मुझे!
उसने ऐसा ही करने की सोची!
तामशूल-मंत्र का संधान कर मुझे खड़े खड़े फूंकने के लिए सर्प-दंड अभिमंत्रित किया, और मुझ पर फेंक मारा!
चिंगारियां फूटी मेरे शरीर से टकरायीं! मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा! ऐवांग-मंत्र ने मेरी रक्षा की थी!
ये देख बाबा ने पाँव पटके!
मुंह से अपशब्द निकाले!
ठेठ तांत्रिक भाषा में!
"और जतन कर लो बाबा! आज खेल ख़तम तुम्हारा!" मैंने हँसते हुए कहा,
बाबा को जैसे काठ मारा मेरा व्यंग्य बाण लगकर!
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो बिफरा अब!
"वो तो आप देख ही चुके हो!" मैंने फिर से व्यंग्य बाण प्रहार किया!
अब तो बाबा ने आकाश-पाताल एक कर दिया!
सर्प-दंड उठाया और मुझे पर प्रहार! एक! दो! तीन! चार! मेरा प्रतिवार! लगातार!
"दुमुक्ष?" मैंने आवाज़ लगायी!
"दुमुक्ष! स्वतंत्र होने के लिए तत्पर हो जाओ!" मैंने कहा,
बाबा के होश उड़े अब!
अब मैं आसान पर बैठा! एक महागण की तेइसवीं गणिका का आह्वान किया! इसका नाम है वपुधारिणी! जैसा नाम वैसा काम! ये पञ्च-तत्वधारी के लिए कार्य करती है! अभीष्ट फल प्रदान करती है!
अब पहली बार!
पहली बार बाबा को भय सताया!
दुमुक्ष वाला झोला पेट से खोलकर गले में धारण कर लिया!
और मैंने अब आरम्भ किया आह्वान!
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"थम जा!" वो चिल्लाया,
मैं नहीं रुका!
आह्वान ज़ारी रखा!
"रुक जा! मैं कहता हूँ रुक जा!" वो बोला,
आवाज़ में लरज़ थी उसकी, एक अनुनय, मैं रुक गया!
"बोलो बाबा?" मैंने कहा,
"बदल कर ले" उसने कहा,
समझौता!
अदला-बदली कर समझौता!
"कैसी बदल बाबा?" मैंने पूछा,
"चार मन सोना है मेरे पास, सब ले जा!" वो मुस्कुरा के बोला,
हूँ! क्या बदल थी! सोना किस काम का!
"नहीं बाबा! सोनवा अपने पास ही रखो" मैंने कहा,
'कैसा मानुष है रे तू?" उसने पूछा,
"आपने देख तो लिया?'' मैंने कहा,
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने कहा,
"इनको स्वतंत्र कर दो!" मैंने कहा,
"असम्भव!" वो चिल्लाया,
"तब मैं विवश हूँ बाबा" मैंने कहा और मुंह फेर लिया!
अब बाबा बेचैन जैसे चाल तोड़ती फिरकी!
मैंने फिर से अस्थियां उठायीं!
"अच्छा! रुक जा!" उसने कहा,
"रुक गया" मैंने कहा,
"सुन! बालक! मैंने अपना जीवन लगा दिया! तू मेरी सिद्धियाँ ले ले! मैं सिद्ध-भाण्ड तुझे दे देता हूँ"
क्या लालच है!
हर लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आये!
मैंने सोचने का नाटक किया!
"नहीं बाबा!" मैंने कहा,
अब बाबा की साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे!
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने पूछा,,
"कुछ नहीं, इनकी मुक्ति!" मैंने कहा,
मैं भी जान को आ गया था बाबा की!
बाबा ने जैसे अब अपने घुटने टेके!
उसने अपना झोला कंधे से निकाला और उसका मुंह खोल दिया, खोलते ही एक बड़ा सा भुजंग फन फैलाये आ गया बाहर!
ज़बरदस्त सांप!
लम्बा!
क्या फन उसका!
सुनहरा और चमकदार! अलख की रौशनी में स्वर्णहार सा प्रतीत हो!
"दुमुक्ष?" मैंने कहा,
उसने मेरी ओर फन किया!
फिर बाबा को देखा!
"आओ दुमुक्ष" मैंने कहा,
और!
दुमुक्ष भाग छूटा जैसे क़ैद से!
मेरा दिल धक् कर बैठा!
मेरे समक्ष आया और एक ज़बरदस्त फुफकार!
वो फुफकारा और वहाँ अन्य सर्प भी प्रकट हुए!
उसने फिर से फुफकार मारी! और अपने बाएं चल पड़ा, जहां वो पत्थर थे!
मैं समझ गया!
समझ गया!
प्रेयसी!
प्रेयसी प्रेम!
उर्रुन्गी!!
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